Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[प्रोसवाल सं० १२३७-१२६२
इस विषय की माहिती कैसे है ? इत्यादि शंकाओं के उलझनपाश में वह उलझ गया।
. अब तो देव से रहा नहीं गया। उसने पूछा-आप कौन हैं ? आप जो हमारे देव भवन का वर्णन कर रहे हैं वह आप कैसे जान सके हैं ?
सूरिजी ने कहा-हम जैन श्रमण हैं। हमारे तीर्थक्कर देव सर्वज्ञ थे। उन्होंने केवल एक आपके ही नहीं पर तीनों लोक के चराचर प्राणियों के भावों का वर्णन किया है। उसी सर्वज्ञ प्रणीत प्रन्थ का ही मैं स्वाध्याय कर रहा हूँ। यह सुनकर यक्ष बड़ा ही प्रसन्न हुआ और अपने किये हुए कुभावों का पश्चाताप कर कहने लगा-भगवन् ! मैंने तो अज्ञानता से सबको मार डालने का विचार किया था। अहो ! मैं कितना पापी एवं जघन्य जीव हूँ। प्रभो ! क्या मैं इस संकल्प जन्य पाप से बच सकता हूँ?
सूरिजी ने कहा-महानुभावों ! आपको जो देवयोनि मिली है वह पूर्व जन्म की सुकृत राशि का ही फल है। इस देव जैसी उत्कृष्ट योनि में ऐसे दुष्ट संकल्पों से निकाचित कर्मों का बन्धन करना सर्वथा अनुपयुक्त है। ये तो साधु हैं; इनकी हत्या का विचार करना तो उत्कृष्ट से उत्कृष्ट पाप का फल नरकादि दुर्गति रूप ही
तः पाप से सवेथा बच कर ही रहना चाहिये। भव भवान्तर में भी कृतकर्मों का शुभाशुभ फल भोगे बिना छुटकारा नहीं है। अभी तो पूर्वोपार्जित पुण्य राशी की अधिकता के कारण इसकी कटुता का अनुभव नहीं होने पाता है किन्तु पापोदय के समय ऐसी दारूण यातना का उपभोग करना पड़ता है कि उसका वर्णन शब्दों से सर्वथा अगम्य ही है।
सूरिजी के उक्त उपदेश का यक्ष पर इतना प्रभाव पड़ा कि वह तत्काल सूरीश्वरजी के चरण कमलों पर गिर पड़ा । अत्यन्त कृतज्ञता सूचक शब्दों में निवेदन करने लगा-पूज्यवर ! प्रापश्री ने मुझ पामर प्राणी पर महान उपकार किया है। यदि आपश्री के शब्द मेरे कानों में न पड़े होते तो मैं इतने श्रमणों के हत्या जन्य पाप से अवश्य हो नरक का पात्र बनता किन्तु आप श्री ने जो मेरे पर अवर्णनीय कृपा की है उसके लिये मैं आपका जन्म भर आभारी रहूँगा । प्रभो ! आपके इस उपकार ऋण से मैं कैसे ऊऋण हो सकूँगा ?
सूरिजी-महानुभाव ! अज्ञानता के वशीभूत जीव किन कमों को नहीं कर बैठता है ? मैं तो आपक धन्यवाद ही
ता हूँ कि आप अपने किये हए संकल्प जन्य पाप का भी इतना पश्चाताप कर रहे हैं। मेरे उपकार के लिये आपको इतना विचार करने की आवश्यकता नहीं कारण हमारा तो कर्तव्य ही यही है कि अज्ञानता जो मार्ग से स्खलित हुए व्यक्ति को पुनः सत्पथ पर आरूढ़ करना । मैंने तो एक मात्र अपने कर्तव्य धर्म का ही पालन किया है फिर भी यदि आपको अपनी आत्मा का कल्याण करने की प्रवल इच्छा है तो
आप अपनी इस दिव्य देव ऋद्धि का सदुपयोग जिन शासन के प्रभावना के कार्यों में करके पुण्य सम्पादन करने में भाग्यशाली बनें।
यक्ष-पूज्य गुरुदेव ! हम पामर, अधम, जघन्य प्राणी जैन धर्म की सेवा कैर कर सकते हैं ? हमारा जीवन तो नाटफ, तमाशा, खेल, कोतूहल, दूसरों को कष्ट पहुँचाकर उसी में प्रसन्नता का अनुभव करने में व्यतीत होता है। प्रभो ! उक्त निकृष्ट कार्य तो हमारे जीवन के अङ्ग ही बन गये हैं अतः यदि आप श्री की सेवा में रहने का परम सौभाग्य प्रदान करने की कृपा करें तो कुछ अंशों में उतकार्य जन्य लाभ सम्पादन किया जा सकता है।
सूरिजी-हरिकेशी मुनि की सेवा में देवता रहता था। एक तपस्वी मुनि की सेवा में यक्ष रहता था, विक्रम की सेवा में आगिया बैताल रहता था वैसे आप भी रह सकते है।
यक्ष-पूज्य गुरुदेव ! मैं तो आपकी सेवा में ही रहा करूंगा।
सूरिजी-यक्षदेव ! मुझे तो कुछ भी काम नहीं है। हां, जहाँ शासन सम्बन्धी कार्य हो वहां कुछ सहयोग प्रदान करोगे तो अवश्य ही सुकृतोपार्जन कर सकोगे। सरिजी का स्वाध्याय और देव की प्रसन्नता
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