Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan

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Page 115
________________ देखभाल-हेतु इस तरह की संस्था का होना आवश्यक है। ऐसे विचार उभरकर आ रहे हैं कि भट्टारकों को जाति-विशेष का मुखिया मानने के स्थान पर उन्हें सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज के संगठनकर्ता, प्रचारक व नियमों के पालनकर्ता के रूप में सुशिक्षित लोगों को ही भट्टारकों के रूप में नियुक्त किया जाये। इसमें उन लोगों को ही नियुक्त किया जाये, जो सांसारिक जीवन से मुक्ति प्राप्त कर आध्यात्मिक कार्यों में ही रुचि रखते हों। इससे दिगम्बर-जैनों के मध्य व्याप्त 'बीसपंथी' व 'तेरापंथी' का विद्वेष तो समाप्त हो ही जायेगा तथा साथ ही भट्टारकों की विशाल जायदादें विभिन्न सामाजिक व धार्मिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु प्राप्त हो जायेंगी। संवत् 1351 से 1800 तक भट्टारक ही विशेष रूप में दिगम्बर जैनों द्वारा पूजे जाते रहे। ये भट्टारक अपना आचरण श्रमण-परम्परा के पूर्णतः अनुकूल रखते थे। प्राण-प्रतिष्ठा महोत्सवों एवं विविध व्रत-उपवासों की समाप्ति पर होने वाले आयोजनों के संचालन में इनकी प्रमुख भूमिका होती थी। राजस्थाम के जैन-शास्त्र-भण्डारों में ऐसी हजारों पाण्डुलिपियाँ संग्रहीत हैं, जो इन भट्टारकों की प्रेरणा से विभिन्न श्रावक-श्राविकाओं ने व्रत-उद्यापन आदि के शुभ-अवसरों पर लिखवाकर इन शास्त्र-भण्डारों में विराजमान की थीं। इसप्रकार साहित्य-सृजन की दृष्टि से भट्टारकों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। भट्टारकों द्वारा धर्मोत्थान के कार्य संवत् 1351 से संवत् 1900 तक जितने भी देश में पंचकल्याणक-महोत्सव सम्पन्न हुये, वे प्रायः सभी भट्टारकों के नेतृत्व में ही आयोजित हुये थे। संवत् 1548, 1664, 1783, 1826 एवं 1852 में देश में जो विशाल प्रतिष्ठायें हुई थीं, वे इतिहास में अद्वितीय थीं और उनमें हजारों मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित हुई थीं। उत्तर-भारत के प्रायः सभी मन्दिरों में आज इन संवतों में प्रतिष्ठापित मूर्तियाँ अवश्य मिलती हैं। ये भट्टारक संयमी होते थे। इनका आहार एवं विहार यथासंभव श्रमण-परम्परा के अन्तर्गत होता था। मुगल बादशाहों तक ने उनके चरित्र एवं विद्वत्ता की प्रशंसा की थी। मध्यकाल में तो वे जैनों के 'आध्यात्मिक राजा' कहलाने लगे थे, किन्तु यही उनके पतन का प्रारम्भिक कदम था। संवत् 1351 से संवत् 2000 तक इन भट्टारकों का कभी उत्थान हआ, तो कभी वे पतन की ओर अग्रसर हुये, लेकिन फिर भी वे समाज के आवश्यक अंग माने जाते रहे। यद्यपि दिगम्बर-जैन-समाज में 'तेरापंथ' के उदय से इन भट्टारकों पर विद्वानों द्वारा कड़े प्रहार किये गये तथा कुछ विद्वान्-भट्टारकों की लोकप्रियता को समाप्त करने में बड़े भारी साधक भी बने; लेकिन फिर भी समाज में इनकी आवश्यकता बनी रही और व्रत-विधान एवं प्रतिष्ठा-समारोहों में तो इन भट्टारकों भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ 4097

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