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पंचदशोऽध्यायः
265 समस्त प्राणियों का कल्याण करने वाले रक्त, परुष, दीप्तिमान्, ऊर्ध्व, चण्ड और तीक्ष्ण ये छः मण्डल हैं। नाम के अनुसार उसका अर्थ अवगत करना चाहिए ॥8॥
चतुष्कं च चतुष्कञ्च पञ्चकं त्रिकमेव च।
पञ्चकं षटकविज्ञेयो भरण्यादौ तु भार्गव: ॥9॥ भरणी से चार नक्षत्र–भरणी, कृत्तिका, रोहिणी और मृगशिरा का प्रथम मण्डल; आर्द्रा से चार नक्षत्र-आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य और आश्लेषा का द्वितीय मण्डल; मघा से पांच नक्षत्र-मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त और चित्रा का तृतीय मण्डल; स्वाति से तीन नक्षत्र--स्वाति, विशाखा और अनुराधा का चतुर्थ मण्डल; ज्येष्ठा से पांच नक्षत्र-ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा और श्रवण का पंचम मण्डल एवं धनिष्ठा से छ: नक्षत्र-धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती का षष्ठ मण्डल होता है । इन मण्डलों के नाम क्रमशः रक्त, परुष, रोचन, ऊर्ध्व, चण्ड और तीक्ष्ण हैं ॥9॥
प्रथमं च द्वितीयं च मध्यमे शुक्रमण्डले।
तृतीयं पञ्चमं चैव मण्डले साधुनिन्दिते ॥10॥ शुक्र के प्रथम और द्वितीय मण्डल मध्यम हैं तथा तृतीय और पंचम साधुओं के द्वारा निन्दित हैं ॥10॥
चतुर्थं चैव षष्ठं च मण्डले प्रवरे स्मृते।
आद्ये द्वे मध्यमे विन्द्यान्निन्दिते त्रिकपञ्चमे॥11॥ चतुर्थ और षष्ठ मण्डल उत्तम हैं । आदि के दो--प्रथम और द्वितीय मध्यम हैं तथा तृतीय और पंचम निन्दित हैं ॥11॥
श्रेष्ठे चतुर्थषष्ठे च मण्डले भार्गवस्य हि ।
शुक्लपक्षे 'प्रशस्येत् सर्वेष्वस्तमनोदये ॥12॥ __ शुक्ल पक्ष में अनुदित-अस्त शुक्र के चौथे और छठे मण्डल की प्रशंसा की गयी है ।।120
*अथ गोमूत्रगतिमान् भार्गवो नाभिवर्षति ।
विकृतानि च वर्तन्ते सर्वमण्डलदुर्गतौ ॥13॥ यदि वक्रगति शुक्र हो तो वर्षा नहीं होती है । चौथे और षष्ठ के अतिरिक्त अन्य सभी मण्डलों में रहने वाला शुक्र विकृत-उत्पातकारक होता है ।13।।
1. यह श्लोक मुद्रित प्रति में नहीं है। 2. तु मु० । 3. प्रशंसन्ति मु० । 4. अथातो वक्र- मु०।