Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 624
________________ ६/संस्कृति और समाज : ९ के सहयोगके बिना पंगु बनी रहती है, इतना ही नहीं, जीव शरीरके इतना अधीन हो रहा है कि उसके जीवनकी स्थिरता शरीरकी स्वास्थ्यमय स्थिरता पर ही अवलंबित रहती है। जीवकी शरीरावलंबनताका यह भी एक विचित्र फिर भी तथ्यपूर्ण अनुभव है कि जब शरीरमें शिथिलता आदि किसी किस्मके विकार पैदा हो जाते हैं तो जीवको क्लेशका अनुभव होने लगता है और जब उन विकारोंको नष्ट करनेके लिये अनुकूल भोजन आदिका सहारा ले लिया जाता है तो उनका नाश हो जानेपर जीवको सुखानुभव होने लगता है । तात्पर्य यह है कि यद्यपि भोजनादि पदार्थ शरीरपर ही अपना प्रभाव डालते हैं परन्तु शरीरके साथ अनन्यमयी पराधीनताके कारण सुखका अनुभोक्ता जीव होता है । दिगम्बर जैन संस्कृतिकी यह मान्यता है कि जीव जिस शरीरके साथ अनन्यमय हो रहा है उसकी स्वास्थ्यमय स्थिरताके लिये जबतक भोजन, वस्त्र, औषधि आदिकी आवश्यकता बनी रहती है तबतक उस जीवका मुक्त होना असंभव है और यही एक कारण है कि दिगम्बर जैन संस्कृति द्वारा साधुत्वमें नग्नताको प्रश्रय दिया गया है। दूसरी बात यह है कि यदि हम इस बातको ठीक तरहसे समझ लें कि साधुत्वकी भूमिका मानव जीवन में किस प्रकार तैयार होती है ? तो सम्भवतः साधत्वमें नग्नताके प्रति हमारा आकर्षण बढ़ जायगा। साधुत्वकी भूमिका जीव केवल शरीरके हो अधीन है, सो बात नहीं है। प्रत्युत वह मनके भी अधीन हो रहा है और धीनताने जीवको इस तरह दबाया है कि न तो वह अपने हितकी बात सोच सकता है और न शारीरिक स्वास्थ्यकी बात सोचनेकी ही उसमें क्षमता रह जाती है। वह तो केवल अभिलाषाओंकी पूर्तिके लिये अपने हित और शारीरिक स्वास्थ्यके प्रतिकल ही आचरण किया करता है। यदि हम अपनी स्थितिका थोडासा भी अध्ययन करनेका प्रयत्न करें तो मालूम होगा कि यद्यपि भोजन आदि पदार्थों की मनके लिये कुछ भी उपयोगिता नहीं है, वे केवल शरीरके लिये ही उपयोगी सिद्ध होते हैं। फिर भी मनके वशीभत होकर हम ऐसा भोजन करनेसे नहीं चकते हैं जो हमारी शारीरिक प्रकृतिके बिल्कुल प्रतिकूल पड़ता है और जब इसके परिणामस्वरूप हमें कष्ट होने लगता है तो उसका समस्त दोष हम भगवान या भाग्यके ऊपर थोपनेकी चेष्टा करते हैं। इसी प्रकार वस्त्र या दूसरी उपभोगकी वस्तुओंके विषयमें हम जितनी मानसिक अनकलताकी बात सोचते है उतनी शारीरिक स्वास्थ्यकी अनुकूलताकी बात नहीं सोचते । यहाँ तक कि एक तरफ तो शारीरिक स्वास्थ्य बिगड़ता चला जाता है और दूसरी तरफ मनकी प्रेरणासे हम उन्हीं साधनोंको जुटाते चले जाते हैं जो साधन हमारे शारीरिक स्वास्थ्यको बिगाड़नेवाले होते हैं। इतना ही नहीं, उन साधनोंके जुटाने में विविध प्रकारकी परेशानीका अनुभव करते हुए भी हम परेशान नहीं होते बल्कि उन साधनोंके जुट जाने पर हम आनन्दका ही अनुभव करते हैं। मनकी आधीनतामें हम केवल अपना या शरीरका ही अहित नहीं करते हैं, बल्कि इस मनकी अधीनताके कारण हमारा इतना पतन हो रहा है कि बिना प्रयोजन हम दूसरोंका भी अहित करनेसे नहीं चूकते हैं और इसमें भी आनन्दका रस लेते हैं । दिगम्बर जैन संस्कृतिका मुक्ति प्राप्तिके विषयमें यह उपदेश है कि मनुष्यको इसके लिए सबसे पहले अपनी उक्त मानसिक पराधीनताको नष्ट करना चाहिए और तब इसके बाद उसे साधुत्व ग्रहण करना चाहिए। यद्यपि आजकल प्रायः सभी सम्प्रदायोंमें उक्त मानसिक पराधीनताके रहते हुए ही प्रायः साधुत्व ग्रहण करने की होड़ लगी हुई है, परन्तु नियम यह है कि जो साधुत्व मानसिक पराधीनतासे छुटकारा पानेके ६-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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