Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वती-वरदपत्र पं.बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal use only e Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वती - वरदपुत्र पण्डित बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ .... Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवरण परिचय आवरण-पर सोंरईके १८२ वर्ष प्राचीन दिगम्बर जैन मन्दिरका चित्र है, जो कुछ वर्षों बाद भूर्ति-रहित किसी कारणवश हो गया तथा उसमें प्राईमरी स्कूल लगने लगा और जिसमें व्याकरणाचार्यजी ने आरम्भिक शिक्षा प्राप्त की । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वती-वरदपुत्र पं.बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ Compos प्रधान सम्पादक डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य सम्पादक पं० पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल • पं० बलभद्र जैन, न्यायतीर्थ डॉ० राजाराम जैन • श्री नीरज जैन डॉ० भागचन्द्र भागेन्दु • डॉ. सुदर्शनलाल जैन डॉ० फूलचन्द्र प्रेमी • डॉ० शीतलचन्द्र जैन प्रबन्ध-सम्पादक बाबूलाल जैन फागुल्ल प्रकाशक सरस्वती-वरदपुत्र : पण्डित बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रंथ प्रकाशन समिति, वाराणसी-१० Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक •सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रकाशन समिति, वाराणसी-१० .वीर नि० सं० २५१५ सन् १९८९ मूल्य १५१) रुपया मिलने का पता .डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य बीना इटावा (सागर) म० प्र० • वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट बी० ३२/१३ बी० नरिया काशी, हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-५ मुद्रक • बाबूलाल जैन फागुल्ल महावीर प्रेस, भेलूपुर, वाराणसी-२२१०१० Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित बंशीधर व्याकरणाचार्य, बीना Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय जैन समाजके वरेण्य विद्वान्, साहित्यकार, समाजसेवी और राष्ट्रसेवी ८५ वर्षीय 'सरस्वती वरदपुत्र सिद्धान्ताचार्य पं. बंशीधरजी व्याकरणाचार्य, साहित्य-जैनदर्शन शास्त्री और न्यायतीर्थका 'अभिनन्दन-ग्रन्थ' द्वारा हमने अभी तक अभिनन्दन नहीं किया, जबकि उन जैसे प्रायः सभी विद्वानोंको अभिनन्दन-ग्रंथ भेंट कर समाज सम्मानित कर चुका है, यह भूल कुछ दिनोंसे कोंचती रही । इसके लिए हमने परोक्ष पत्र व्यवहार किया और प्रत्यक्षमें अनेक प्रतिष्ठित महानुभावोंकी बैठक बुलाकर परामर्श किया। सभोने एक स्वरसे श्रद्धेय पण्डितजीको अभिनन्दन-ग्रंथ भेंट करने की अपनी सम्मति प्रकट की। उसके लिए एक समिति बनानेका भी निर्णय ले लिया गया। ग्यसे १७ फरवरी १९८९ को श्री पावन तीर्थक्षेत्र कुण्डलगिरि (दमोह) में अखिल भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषदका नैमित्तिक अधिवेशन श्रीमान पं. भवरलालजी जैन न्यायती अध्यक्षतामें सम्पन्न हआ। इसमें श्री बाबूलालजी फागुल्ल, वाराणसी भी सम्मिलित हए थे । वहाँ इन्होंने कई विद्वानोंसे श्रद्धेय पण्डितजीको अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंट करनेकी चर्चा की। इन सभी विद्वानोंने उसका समर्थन एवं अनुमोदन सहर्ष किया। इसके उपरान्त हमारा काम था एक सुयोग्य विद्वानोंके सम्पादक-मण्डलका चयन करना । हर्ष है कि जिन विद्वानोंका सम्पादक-मण्डलमें चयन किया गया था उन सभीकी हमें स्वीकृति प्राप्त हो गयी और इसके लिए उन्होंने अपना अहोभाग्य समझा। सम्पादक-मण्डलकी प्रथम बैठकमें व्यवस्थित कमेटीका निर्माण किया गया। और उसका नाम सर्वसम्मतिसे 'सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य, अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रकाशन-समिति' रखा गया। इसका कार्यालय-महावीर प्रेस, भेलूपुर, वाराणसी-१० निश्चित किया गया । सम्पादक-मण्डलने भी अपनी कई बैठकें कीं और जिनमें उसने अभिनन्दन-ग्रंथमें देय सामग्रीका सम्पादन किया। श्रद्धेय पण्डितजीके ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं आदि में प्रकाशित महत्त्वपूर्ण एवं चिन्तनयुक्त लेखों व निबन्धोंको इसमें दिया गया है। इस कार्य सम्पादकोंके सिवाय सदस्यों, सहयोग-राशि प्रदाताओं और शुभकामना | संस्मरण | समीक्षाप्रेषकोंके हम अत्यन्त आभारी है । महावीर प्रेसने ग्रंथको अल्प समय (एक माह) में छापकर हमें दे दिया उसके लिए उसे हम हार्दिक धन्यवाद देते हैं। विनीत सांसद डालचन्द्र जैन बाबूलाल जैन फागुल्ल अध्यक्ष मंत्री तथा प्रबन्ध सम्पादक सरस्वती वरदपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन-समिति Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम संरक्षक संरक्षक माननीय श्री मोतीलालजी बोरा, मुख्य मंत्री म०प्र० अध्यक्ष स्वस्तिश्री भट्टारक चारुकीर्ति स्वामीजी, मूडबिद्री स्वस्तिश्री भट्टारक चारुकीर्तिजी, श्रवणबेलगोला समाजरत्न साहु श्रेयांस प्रसाद जैन, बम्बई श्री निर्मलकुमार सेठी, लखनऊ श्री वीरेन्द्र हेगड़े, धर्मस्थल श्री विजयकुमार मलैया, दमोह साहु अशोककुमार जैन, दिल्ली श्री त्रिलोकचन्द्र कोठारी, कोटा श्री अमरचन्द्र पहाड़िया, जयपुर मंत्री उपाध्यक्ष अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशन समितिके पदाधिकारी परामर्शदाता मण्डल श्री सेठ डालचन्द्र जैन (सांसद) सागर कोषाध्यक्ष स० [सं० धन्यकुमार जैन, कटनी श्रीमती बृजमनी देवी, गोरखपुर (धर्मपत्नी राय देवेन्द्रप्रसाद ) रायबहादुर देवकुमार सिंह, इन्दौर श्री महाराजा बहादुर सिंह, इन्दौर श्री रतनलाल गंगवाल, कलकत्ता श्री जयकुमार इटोरया, दमोह स० [सं० सुमेरचन्द्र, जबलपुर सिं० आनन्द कुमार, बीना प्रो० फूलचन्द्र सेठी, खुरई श्री देवेन्द्रकुमार मोटरवाले, लाला शिखरचन्द्र, दिल्ली श्री ज्ञानचन्द्र विन्दुका, जयपुर पं० बालचन्द्र काव्यतीर्थ, नवापराराजिम श्री खेमचन्द्र मोतीलाल बीड़ी वाले, सागर श्री महेन्द्रकुमार मलैया, सागर लाला प्रेमचन्द्र जैन, दिल्ली श्री सौभाग्यमल जैन, लखनऊ सेठ बाबूलाल जैन सोंरई वाले, सागर सन्तोषकुमार बैटरी वाले, सागर श्रीमन्त सेठ राजेन्द्रकुमार जैन, विदिशा श्रीमती शान्तिदेवी जैन, लखनऊ सागर सिंघई जीवनकुमार जैन, सागर बाबूलाल जैन फागुल्ल, वाराणसी पं० फूलचन्द्र शास्त्री, हस्तिनापुर पं० नाथूलाल शास्त्री, इन्दौर ब्र० माणिकचन्द्र चवरे, कारंजा प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला, वाराणसी श्री यशपाल जैन, दिल्ली श्री अक्षयकुमार जैन, दिल्ली पं० भँवरलाल न्यायतीर्थ, जयपुर डॉ० भागीरथ त्रिपाठी वागीश शास्त्री, वाराणसी डॉ० नथमल टांटिया, लाडनूं पं० लालबहादुर शास्त्री, दिल्ली श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, दिल्ली प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश जैन, फिरोजाबाद डॉ० हरीन्द्रभूषण, उज्जैन प्रो० उदयचन्द्र जैन, वाराणसी पं० हीरालालजी कौशल, दिल्ली पं० अनूपचन्द्र न्यायतीर्थ, जयपुर डॉ० भागचन्द्र भास्कर, नागपुर पं० श्यामसुन्दर शास्त्री, फिरोजाबाद डॉ० दामोदर शास्त्री, दिल्ली श्री बाबूलाल पटौदी, इन्दौर श्री दलसुख भाई मालवणिया, अहमदाबाद डॉ० सागरमल जैन, वाराणसी श्री नारायणशंकर त्रिवेदी, एडवोकेट, सागर श्री विमलराम जैन, दिल्ली डॉ० प्रेम सुमन, उदयपुर श्री गुलाबचन्द्र 'पुष्प' टीकमगढ़ डॉ० रतनचन्द्र जैन, भोपाल श्री सुरेशचन्द्र जैन, भोपाल डॉ० हीरालाल जैन, रीवा डॉ मोतीलाल जैन, खुरई श्री ताराचन्द्र प्रेमी, फिरोजपुर झिरका डॉ० आशा मलैया, सागर पं. जवाहरलाल, भिण्डर डॉ० कस्तूरचन्द्र 'सुमन' श्रीमहावीरजी पं० सत्यन्धरकुमार सेठी, उज्जैन डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत डॉ० कुसुम पटोरिया, नागपुर श्रीमती विमला जैन, भोपाल श्रीमती कस्तूरी बाई बडकुल, वाराणसी ( मातेश्वरी जयप्रकाश जैन ) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन समितिके पदाधिकारी सेठ डालचन्द्रजी जैन (सांसद) अध्यक्ष सेठ बाबूलालजी धामौनीवाले, सागर स्वागत समितिके अध्यक्ष सिंघई जोवनकुमारजी जैन, सागर कोषाध्यक्ष श्री बाबूलाल जैन, फागुल्ल, वाराणसी प्रकाशन मंत्री Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-कथ्य सम्माननीय पं० बंशीधर जी व्याकरणाचार्य समाजके एक ऐसे मनीषी विद्वान् है, जिनकी प्रवृत्तियाँ चतुर्मुखी है । वे स्वतन्त्रता सेनानी हैं, जो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी द्वारा उद्घोषित ९ अगस्त, १९४२ के 'भारत छोड़ो' आन्दोलनमें सक्रिय लिप्त रहे और ९, १० माह सागर, नागपुर और अमरावतीकी जेलोंमें रहे। समाज सेवामें भी व्याकरणाचार्य जी पीछे नहीं रहे। दस्सा-पूजाधिकार जैसे आन्दोलनोंमें आगे होकर कार्य किया। स्थानीय संस्था, विद्वत्परिषद और श्री गणेश प्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला आदि संस्थाओंके माध्यमसे मंत्री एवं अध्यक्ष पद पर रहकर दीर्घकाल तक आपने समाजकी सेवा करके सेवाका एक मानदण्ड स्थापित किया है। सबसे बड़ी उनकी सेवा है साहित्य-साधना । उन्होंने जब अनुभव किया कि आगम-वाक्योंका अन्यथा अर्थ किया जा रहा है और उन्हें तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है तब उन्होंने विद्वद्गोष्ठीका आह्वान किया तथा युक्ति और आगम पुरस्सर चर्चा की । इतना ही नहीं, जैन तत्त्वमीमांसाकी मीमांसा, जैनदर्शनमें कार्यकारणभाव और कारक व्यवस्था, जैनशासनमें निश्चय और व्यवहार, खानिया (जयपुर) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा प्रभृति ग्रन्थ लिखकर आगमपक्षको पुष्ट एवं स्पष्ट किया । आज भी वे उसी साहित्य-साधनामें निरंतर संलग्न हैं । यद्यपि वे आरम्भसे स्वतन्त्र वस्त्रव्यवसायी हैं। किन्तु अब उसे पुत्रोंको सौंपकर एकमात्र जिनवाणीकी सेवा-साधनामें लगे रहते हैं। १७ फरवरी १९८९ को श्री दि० जैन क्षेत्र कुण्डलगिरि (कुण्डलपुर, दमोह) में भा० दि० जैन विद्वत्परिषदका नैमित्तिक अधिवेशन विद्वद्वर पं० भंवरलाल जी न्यायतीर्थ, जयपुरकी अध्यक्षतामें आयोजित था। अधिवेशनकी समाप्ति पर कुछ विद्वानों में चर्चा हो रही थी कि माननीय पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यको अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंट किया जाना चाहिए। उनकी विद्वत्ता और सेवायें अभिनन्दित विद्वानोंसे कम नहीं हैं। वे विद्वान् थे-श्री बाबूलालजी फागुल्ल शास्त्री, वाराणसी, डॉ० कस्तूरचन्द्रजी कासलीवाल, जयपुर और डॉ० भागचन्द्र जी 'भागेन्दु' दमोह । मैं भी वहाँ आ गया था। फागुल्लजी तथा कासलीवालजी तो बोले कि "हम पूरा सहयोग देंगे।" मैंने कहा कि "बहुत अच्छा है, अवश्य होना चाहिए"! यह चर्चा आगे बढ़ी और फागुल्लजी ने एक रूपरेखा भी बनाकर मेरे पास भेज दी। मैं उस समय श्रीमहावीरजीमें था। वहाँ दो बैठकें बुलाई। १७ मई १९८९ को हुई बैठकमें निम्न निर्णय लिए गये :-सिद्धान्ताचार्य पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ समिति का गठन तथा समितिमें निम्न पद रखे गये। १:१-परम संरक्षक, २-संरक्षक, ३-अध्यक्ष, ४-उपाध्यक्ष, ५-महामंत्री और ६-सदस्य । २:-सम्पादक मण्डलका गठन, जिसमें १-डॉ० पं० पन्नालाल साहित्याचार्य, २-डॉ० कस्तूरचंद्र कासलीवाल, ३-५० बलभद्र न्यायतीर्थ, दिल्ली, ४-डॉ० भागचन्द्र 'भागेन्दु', दमोह, ५-श्री नीरज जैन, सतना, ६-डॉ० राजाराम जैन, आरा, ७-डॉ० सुदर्शनलाल जैन, वाराणसी, ८-डॉ० फूलचन्द्र प्रेमी, वाराणसी, ९-डॉ० शीतलचन्द्र जैन, जयपुर और १०-मैं (प्रधान सम्पादक)। जब अभिनन्दन-ग्रन्थके नामकी चर्चा आयी तो पर्याप्त विचार-विमर्शके पश्चात् उसका नाम “सरस्वतीके वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ" रखनेका निर्णय लिया। प्रस्तुत ग्रन्थपर एक फोल्डर निकालनेका भी अधिकार प्रधान सम्पादक जीको दिया गया। ३ :-ग्रन्थमें सामान्यतः अध्यायोंके विषय-विभाजनका निर्णय भी लिया गया । ४:- यह भी निर्णय लिया गया कि एक ग्रन्थ-समर्पण समितिका गठन किया जाये तथा सदस्यता शुल्क १००/०० रुपये रखा जाय और ग्रन्थमें उनके नाम दिये जायें । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमहावीरजीसे जब मैं बीना चला आया तो ग्रन्थकी सामग्री तथा अर्थसंग्रहपर विचार-विमर्श करनेके लिए सम्पादक-मण्डलकी दो बैठकें बीनामें बुलाई। अन्तिम चौथी बैठककी १५ उप-बैठकें हुई। यह अन्तिम बैठक ११ अगस्त से १५ अगस्त तक पाँच दिन चली और पर्याप्त ऊहापोह हुआ। ग्रन्थमें देय सामग्री पर १५ वाचनायें हई। इनमें कई वाचनायें दिन में तीन बार और रात्रिमें १२ बजे तक मान्य सम्पादकोंने की। सम्पादकोंको व्याकरणाचार्य जीके लिए अभिनन्दन-ग्रन्थके हेतु भी तैयार करना पड़ा, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उन्हें अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंट किया जाये। पर सम्पादक मण्डल उसके औचित्यको जानता था । डों महानभावोंने तो हर्ष भी प्रकट किया । आदरणीय राय देवेन्द्रप्रसाद जैन एडवोकेट, गोरखपुरने तो एक पत्र में लिखा है कि "आपने समाजकी भलको ठीक किया है।" इस प्रकार इस ग्रंथको सम्पादकमण्डलने सजगताके साथ तैयार किया है। हमें प्रसन्नता है कि हमारे स्नेही सभी सम्पादक-मित्रोंने इस ग्रन्थको इस सुन्दर रूपमें प्रस्तुत करनेमें जो अपना बहुमूल्य समय, शक्ति और प्रतिभाका सहयोग किया है उसके लिए हम उनके हृदयसे आभारी हैं । सुहृवर डॉ० कस्तूरचन्द्र जी कासलीवालने तो अपना विद्वत्तापूर्ण महत्त्वका सम्पादकीय लिखकर हमें अधिक आभारी बनाया है। हमारे आदरणीय श्री डाल चन्द्र जी जैन, संसद सदस्यने समितिके अध्यक्ष पदको स्वीकार कर जो बल प्रदान किया है उसके लिए हम उनके कृतज्ञ हैं। जब हम २७ सितम्बर, '८९ को सिंघई जीवनकुमार जैन, कोषाध्यक्ष एवं श्री विनीतकुमार कोठियाके साथ उनके आवासपर सागरमें उनसे मिले तो बड़े गद्गद्भावसे भेंट की और एक घण्टे तक अभिनन्दन-ग्रन्थकी चर्चा की । उसकी प्रगतिसे उन्हें बड़ा सन्तोष हुआ । हमें खुशी है कि आपका आरम्भसे अन्त तक सहयोग एवं मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। प्रिय बाबूलाल जी फागुल्लको हम कितना धन्यवाद दें। यह अभिनन्दन-ग्रंथ उन्हींके विचारों और प्रयत्नोंका सफल है। यदि हम इसे एक आश्चर्य माने तो अत्युक्ति न होगी, जो कुछ माहों (लगभग छह-सात माह) में तैयार हो गया । लोग वर्षों पूर्व से अभिनन्दन ग्रन्थोंका विज्ञापन पत्र-पत्रिकाओंमें देते और पत्रव्यवहार करते हैं। इतना ही नहीं, आयोजनकी तिथि भी प्रकाशित करते हैं। पर अभिनन्दन-ग्रंथ तैयार नहीं हो पाते । वास्तवमें अभिनन्दन ग्रन्थोंका प्रकाशन ही दुष्कर है । वह ऐसा कार्य है, जो परस्पराश्रित है । लेखक स्वयं समयपर लेख भेजें और सम्पादक उन्हें सम्पादित कर समयपर उन्हें प्रेसमें भेज दें। इतना होनेपर भी प्रेस और प्रफरीडर विलम्ब कर देते हैं। प्रेस समयपर छापकर नहीं देता। वह दूसरे ग्रन्थोंके प्रकाशनमें संलग्न रहता है। किन्तु हमें प्रसन्नता है कि ये सब प्रत्यवाय इस अभिनन्दन-ग्रन्थमें नहीं आए। इस सबका श्रेय श्री बाबूलाल जी फागुल्ल, संचालक, महावीर प्रेस, वाराणसीको है, जिन्होंने यह सब आदि-से-अन्त तक किया। उन्होंने पत्रव्यवहारसे लेकर छपाई पर्यन्त सारा कार्य तन्मयता और आत्मीयतासे किया। इसका सूत्रपात भी उन्होंने किया। फागुल्ल जीने अपने दीर्घकालीन अभिनन्दन-ग्रन्थोंके प्रकाशनानुभवको भी इसमें उड़ेल दिया है । मेरा उन्हें हार्दिक धन्यवाद है। इस अवसरपर मैं श्रद्धेया काकीजी श्रीमती कस्तूरीबाई (धर्मपत्नी, स्व० मौजीलाल जी जैन) और उनके परिवार (प्रिय भाई जयप्रकाश, सौ० शशि बहू, चि० राजू और आयु० अन्नो, वाराणसी) को नहीं भूल सकता, जिनके पास एक-सवा माह घुलमिल कर रहा और सभी सुविधायें मुझे प्रदान की। मैं उनका अनुगृहीत हूँ। मुझे सदैव उनका स्नेह मिला और मिलता रहता है। (डॉ०) दरबारीलाल कोठिया प्रधान सम्पादक Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर में १९-३-९० को श्री दिगम्बर जैन पार्श्वनाथ मन्दिर (महिलाश्रम) के कलशारोहण के अवसर पर सरस्वती वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ समारोह के अध्यक्ष श्री रतनलालजी गंगवाल संदेश पं० वंशीधरजी जैनदर्शनके स्वतन्त्र चेता व गम्भीर विचारक, अपनी निर्भीक लेखनीसे एक लम्बे समय तक अपनी चेतनाका प्रवाह करते रहे तथा आज भी ८४ वर्षकी आयुमें निरन्तर सक्रिय हैं। खानियाँ तत्त्वचर्चामें आपके योगदानको भुलाया नहीं जा सकता । आज जो निश्चय और व्यवहार का झगड़ा खड़ा किया जा रहा है उसका समाधान बहुत पहले ही पण्डितजीने अपने ग्रन्थ "जैनशासनमें निश्चय और व्यवहार" में कर दिया था। ऐसे सरस्वती पुत्रको अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंटकर समाज स्वयंको गौरवान्वित कर रहा है। मैं इस अवसरपर अपनी शुभ कामनाएँ अर्पित करता हूँ। श्री रतनलाल गंगवाल, नई दिल्ली (अध्यक्ष दिगम्बर जैन महासमिति www.jainelibrary.or Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय " विद्वान् सर्वत्र पूज्यते " इस उक्ति के अनुसार विद्वानोंका समादर सदासे ही होता आया है । विद्वान् किसी एक देश, किसी एक धर्म, किसी एक जाति अथवा किसी एक सम्प्रदायका नहीं होता, क्योंकि उसके प्रवचनों, लेखों, पुस्तकों एवं वाणीसे सभी लाभान्वित होते हैं, इसलिये वह जहाँ भी चला जाता है वहीं उसका सम्मान होने लगता है । हमारे आचार्य, साधु एवं पंडित अपनी जातिसे नहीं, बल्कि अपने गुणोंसे समादृत होते हैं । उनकी न कोई जाति पूछता है और न प्रदेशका नाम जानता है । उनकी ज्ञान-साधना ही उनका परिचय है, उनकी लेखनी ही उनके गुणोंको उजागर करने वाली है और उनकी वाणी ही उनके जीवनपर प्रकाश डालने वाली होती है । जैसे होरेको कितना ही छुपाया जावे वह कभी भी नहीं छिपता है उसी प्रकार साधु एवं विद्वान् भी यदि अपने आपको छिपाना चाहे तो गुणीजन उनको स्वयं खोज लेते हैं और फिर उनकी प्रशस्तियाँ पढ़ने लगते हैं । ऐसे ही एक विद्वान् हैं पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य । वे पण्डित हैं, ज्ञानके अगाध भण्डार हैं, सशक्त लेखनीके धनी हैं, वाणीमें अपने विचारोंको सम्यक् रूपसे प्रकट करनेकी क्षमता है, समाज एवं देशके लिये उन्होंने जेल यातनाओंको सहा, समाज में आगम-परम्पराको सशक्त बनानेके लिये सदैव आगे रहे तथा अपने ८४ वसन्तोंमेंसे ६० वसन्त समाजसेवा एवं ज्ञानाराधना में व्यतीत किये। लेकिन फिर भी उनमें कीर्ति, यश एवं अभिनन्दनकी कभी चाह पैदा नहीं हुई और स्वांतः सुखाय अपनी सम्यक् प्रवृत्तियों में लगे रहे । ज्ञानाराधना में लगे हुए विद्वानों, सन्तोंको खोज निकालना भी सरल कार्य नहीं है, क्योंकि वर्तमान युगमें मानव अपनी यशः कामना के पीछे इतना पड़ा रहता है कि जीवनमें एक पुस्तक लिखनेपर वह अपने आपको सबसे बड़ा लेखक समझने लगता है तथा चाहता है कि समाज एवं देश उसकी प्रशंसाओंका पुल बाँध दे तथा उसका एक कार्य ही जीवन भरकी कमाईका साधन बन जावे । लेकिन पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य का स्वभाव एवं प्रवृत्ति ठीक इसके विपरीत है । वे यशसे दूर भागते रहे और अपने अभिनन्दनसे हमेशा कतराते रहे । यदि डॉ० कोठिया साहब उनसे बार-बार अनुरोध नहीं करते, हम उन्हें अपना अभिनन्दनीय मानकर अपने बहुमूल्य कृतित्वसे समाजको लाभान्वित करनेका अनुरोध नहीं करते तो सम्भवतः वे अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशनकी स्वीकृति भी नहीं देते। जब हमने उनसे कहा कि अभिनन्दन ग्रन्थ में आपको प्रशंसा नहीं के बराबर होगी, अपितु आपकी लेखनोके चमत्कारका दिग्दर्शन मात्र रहेगा । आपके द्वारा जो गूढ़ लेख लिखे जा चुके हैं, लेकिन जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओंमें छपनेके पश्चात् भी तिरोहित हो गये हैं । समाज जिनके अस्तित्वसे अनजाना बन गया है और जिनके प्रकाशनकी वर्तमान वातावरण में बहुत आवश्यकता है, आपके समीक्षात्मक ग्रन्थोंका सम्यक् प्रकारसे समाजको परिचय मिल सकेगा । इसलिये एक बार पुनः उनपर सशक्त लेखनीसे समीक्षात्मक विवरण छपनेकी आवश्यकता है । यह सब आपका अभिनन्दन नहीं है लेकिन उन सिद्धान्तों एवं मान्यताओंको प्रकाशमें लाना है जो समयके प्रवाह में छिपसे गये हैं । हमें बड़ी प्रसन्नता है कि पण्डितजी सा० ने हमारे इस अनुरोधको स्वीकार कर लिया और अपना साहित्य एवं पुराने पत्रोंकी फाइलोंको जो उनके पास थीं, उन्हें डॉ० कोठियाजीको हस्तगत कर दीं । प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थका शीर्षक सरस्वतीका वरदपुत्र है । पण्डितजी वास्तवमें सरस्वतीके कृपा-पात्र Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ - पुत्र है, जिनकी लेखनी एवं वाणी दोनों में जिनवाणीके अमर सन्देश भरे पड़े हैं । जो आचार्य समन्तभद्र के शब्दों में : "अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् " के रूपमें लिखे गये हैं । तथा जिनका जितना अधिक अध्ययन होगा उतना ही वे सरस बनकर समाजके खून में समा जायेंगे । इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखकर अभिनन्दन ग्रन्थको ६ खण्डों में विभाजित किया है । उन खण्डों में से केवल दो खण्डों में पण्डितजीके जीवन एवं व्यक्तित्वपर देश एवं समाजके माने हुये सेवाभावी प्रतिष्ठित श्रेष्ठियों एवं विद्वानोंके संस्मरण, लेख एवं शुभकामनाएँ दी गई हैं। सीमित पृष्ठोंके कारण बहुतसे महानुभाव ऐसे रह गये जो पण्डितजीके गुणों, उनकी लेखनी एवं वाणीसे परिचित हैं लेकिन हम उनसे सन्देश, शुभ कामना अथवा संस्मरण नहीं मांग सके । लेकिन जीवन-परिचय, भेंटवार्ता एवं उनके व्यक्तिपरक लेखों से हम उनके विशाल व्यक्तित्वका अनुमान लगा सकते हैं । उनकी शैशवास्था, बाल्यावस्था अभावों एवं निर्धनतासे जकड़ी हुई थी । ज्ञानार्जन जहाँ दिवास्वप्न के समान था । माता-पिताकी छत्रछाया बचपनमें नहीं रही थी । ऐसी स्थिति में पण्डितजीका व्याकरणाचार्य तक शिक्षा प्राप्त करना कितना कष्टप्रद एवं दुरूह रहा होगा यह तो मुक्तभोगी ही जान सकता है । दूसरे खण्ड में पण्डितजीकी कृतियोंकी विस्तृत समीक्षा दी गयी है । सभी समीक्षाएँ अधिकारी विद्वानों द्वारा की गयी हैं और पण्डितजीके मौलिक लेखन पर प्रकाश डालनेवाली हैं । समीक्षा करनेवाले विद्वानोंके नाम निम्न प्रकार है । जैन तत्त्व मीमांसाकी मीमांसा भाग्य एवं पुरुषार्थ : एक नया अनुचिन्तन जयपुर खानिया तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा जैनदर्शन में कार्यकारण भाव एवं कारक व्यवस्था जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार पर्याय क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी पं० बलभद्र न्याय तीर्थं, देहली डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, जयपुर डॉ० फूलचन्द्र प्रेमी, वाराणसी श्री नीरज जैन, सतना ० पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य, सागर स्वस्तिश्री भट्टारक चारुकीर्ति जी . डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य [ डॉ० सुदर्शनलाल जैन, वाराणसी (पं० विजयकुमार शास्त्री, श्रीमहावीरजी यद्यपि पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यने पहले ही अपनो रचनाओंमें उन ग्रन्थोंकी समीक्षा लिखी थी जो आगमसम्मत विचारोंसे कुछ हटकर लिखे गये थे तथा जिनके कारण समाजके वातावरण में विरोधके स्वर सुनाई देने लगे थे । सर्वप्रथम पण्डितजीने ही समीक्षात्मक पुस्तकें लिखनेका श्रेय प्राप्त किया। ऐसी पुस्तकोंकी समीक्षा करनी यद्यपि दुरूह कार्य है फिर भी समीक्षकोंने जिस रूपमें इन पुस्तकोंकी समीक्षाएँ लिखीं उनसे पुस्तकोंका मूल्यांकन करनेमें बड़ा सहयोग मिलेगा और इन पुस्तकोंका वास्तविक उद्देश्य आम जनताके सामने आ सकेगा । अभिनन्दन ग्रन्थके शेष चार खण्डों में पण्डितजीके चयनित निबन्धोंको प्रस्तुत किया गया है। ये चारों खण्ड ही इस ग्रन्थकी आत्मा हैं जो धर्म और सिद्धान्त, दर्शन और न्याय, साहित्य और इतिहास, संस्कृति और समाज जैसे विभिन्न शीर्षकों में विभाजित हैं । इन खण्डोंमें दिये गये निबन्धोंसे पण्डितजीके बहुमुखी कर्तृत्व क्षमताका परिचय मिलता है । वे केवल समीक्षात्मक पुस्तकें लिखनेवाले विद्वान् ही नहीं, अपितु जैनधर्मके विविध पक्षों को अपनी सशक्त लेखनी द्वारा उजागर करनेवाले हैं । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादक मण्डल डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य डॉ० पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य पं० बलभद्र जैन, न्यायतीर्थ डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल डॉ० राजाराम जैन Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नीरज जैन डॉ० फूलचन्द्र प्रेमी डॉ० भागचन्द्र भागेन्दु डॉ० सुदर्शनलाल जैन डॉ० शीतलचन्द्र जैन : Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ९ - - ग्रन्थका तीसरा खण्ड पण्डितजीके धर्म एवं सिद्धान्त विषय पर लिखे गये १६ लेखोंसे अलंकृत है। इस खण्डमें सभी लेख ऐसे हैं जिनमें जैन धर्म एवं सिद्धान्त विषयका मौलिक चिन्तन भरा पड़ा है भगवान् महावीरकी धर्म तत्त्व देशनासे लेकर आत्मतत्त्व पर चिन्तन परक लेखके साथ ही निश्चय और व्यवहारनयपर पण्डितजीके चार दिशा बोधक लेख है जिनको पढ़नेसे इस विवादास्पद विषयको समझने में पर्याप्त सहयोग मिलता है। जैन धर्ममें भव्य और अभव्य बड़े टेक्निकल शब्द है। अभव्य शब्द समझनेवालेके लिये धार्मिक अपशब्द है जिसको पचापाना जैनोंके लिये कठिन होता है। कोई भी अपने आपको अभव्य कहलानेके लिये तैयार नहीं है। पण्डितजीने इसपर अपने लेखमें अच्छा प्रकाश डाला है । इसी खण्डमें पण्डितजीका एक खोज पूर्ण लेख "पर्यायें क्रमबद्ध भी होती है और अक्रमबद्ध भी" विषयपर है। पण्डितजीके स्वरमें अनेकान्त सिद्धान्तका प्रतिपादन है। पर्यायोंको क्रमबद्ध ही बतलाना भगवान् महावीरके उस सिद्धान्तके विरुद्ध है जिसमें वस्तुतत्त्वके निरूपणमें अनेकान्त शैलीको अपनानेपर बल दिया गया है। इसी खण्डमें "भुज्यमान आयुमें अपकर्षण एवं उत्कर्षण' विषयपर पण्डितजीका लेख पाठकोंमें उत्सुकता पैदा करनेवाला है। इसी खण्डमें 'जयपुर खानिया तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा' भाग एकमें दिये गये उपयोगी प्रश्नोत्तर १, २, ३ व ४ की सामान्य-समीक्षा सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण लेख भी दिये गये हैं । जो पाठकोंको सही दिशाका बोध करायेंगे। खण्ड में पण्डितजीके जैनदर्शन और जैन-न्यायपर आधारित ११ लेखोंका संग्रह है। जिनमें जैनदर्शनके विभिन्न पक्षोंको उद्घाटित किया गया है। सर्वप्रथम भारती दर्शनों पर एक सामान्य लेख है जिससे सभी दर्शनोंका सामान्य ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इसके पश्चात् पण्डितजीके सभी लेख जैनन्यायपर आधारित हैं जिनमें प्रमाण और नयका कथन, अनेकान्त एवं स्याद्वाद वस्तुका स्वरूप, सप्त तत्त्व और छः द्रव्योंपर पण्डितजीके विचार उनके गहन अध्ययनका निचोड है। वैसे किसी भी दर्शनकी गत्थियोंको सुलझाना सहज कार्य नहीं है फिर भी पण्डितजीने इन विषयोंको सरल बनाने का स्तुत्य प्रयास किया है। पंचम खण्डमें ९ लेख जैन साहित्य एवं इतिहास परक हैं। इनमें एक लेख 'षट्खण्डागम संजद पदपर विमर्श" शीर्षक पर है । आचार्य शान्तिसागरजी महाराजके समयमें संजद शब्दको लेकर बड़ा आन्दोलन चला था और समाज दो धाराओंमें बँट गया था। पण्डितजीका यह लेख उसी समयका लिखा हुआ है और आज ऐतिहासिक बन गया है। इसी खण्डमें एक लेख इतिहास परक है वह पाठकमें उत्सुकता पैदा करता है। छठा खण्ड संस्कृति एवं समाजपरक है जिनकी संख्या ६ है। भगवान महावीरका समाज दर्शन लेख तथा जैन मन्दिर और हरिजन ये दोनों ही लेख अपने समयके बहुचर्चित विषयपर आधारित हैं। तथा उनसे पण्डितजीके विचारोंकी झलक मिल सकती है। . इस प्रकार अभिनन्दन ग्रन्थका अधिकांश भाग स्वयं पण्डितजी द्वारा लिखित सामग्रीका नव सम्पादित संकलन है। उससे उनकी अमूल्य साहित्यिक, दार्शनिक, सैद्धान्तिक एवं सामाजिक विषयोंसे ओतप्रोत सामग्रीकी रक्षा हो सकेगी तथा आगे आनेवाली पीढ़ियोंको उनके स्वाध्यायका लाभ मिल सकेगा। अभिनन्दन ग्रन्थकी सीमित पष्ठ संख्याको देखते हये पण्डितजीके बहतसे लेखोंको इसमें सम्मिलित नहीं किया जा सका । उनका भी सुसम्पादित होकर आना आवश्यक है इसके अतिरिक्त जिन लेखकोंके लेखोंको हम इस अभिनन्दन ग्रन्थ स्थान नहीं दे सके उन विद्वान् लेखकोंसे हम क्षमा चाहते हैं । ___अभिनन्दन ग्रन्थके प्रधान सम्पादक डॉ० दरबारीलालजी कोठिया हैं । यद्यपि सम्पादकीय लेख लिखना उन्हींके अधिकार क्षेत्रमें आता है। लेकिन उन्होंने यह गुरुतर भार मुझे सौपा है उसके लिये मैं उनका एवं Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १० - सम्पादक मण्डलके सभी विद्वानोंका आभारी हूँ । अभिनन्दन ग्रन्थके सम्पादन में सभी सम्पादकोंने जो रुचि दिखायी है तथा अपना अमूल्य समय देकर पूरे ग्रन्थका सम्पादन किया है, यह सब पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्य के प्रति उनकी अनन्य निष्ठा एवं श्रद्धाका ही सुपरिणाम है। माननीय डॉ० कोठियाजी एवं बाबूलालजी फागुल्ल दोनों ही विशेष रूपसे धन्यवादके पात्र हैं, वास्तवमें उन्हींकी लगन एवं रुचिके कारण यह अभिनन्दन ग्रन्थ इतने अल्प समयमें हमारे सामने मूर्तरूप में आ सका । अन्त में अभिनन्दन ग्रन्थके सभी सम्पादक एवं सदस्य पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यके दीर्घ जीवनकी कामना करते हुये यही अपेक्षा करते हैं कि उनकी लेखनी इसी प्रकार अनवरत रूपसे चलती रहे और समाजका मार्ग दर्शन करती रहे। (डॉ०) कस्तूरचन्द्र कासलीवाल कृते सम्पादक मण्डल Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-क्रम खण्ड १ : आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएँ आचार्य विद्यानन्दजो महाराज मुनि ब्रह्मानन्दसागरजी महाराज क्षुल्लक चित्तसागरजी बहुश्रुत विद्वान् मंगल आशीर्वाद श्रद्धा सुमन जैनागमके मर्मज्ञमनीषी बहुमुखी प्रतिभा के धनी सन्देश सन्देश राष्ट्रीय स्तरके मनीषीका अभिनन्दन मूल आम्नायके संरक्षक विद्वान् सरस्वतीके भण्डारको भरते रहें कर्मठ जिनवाणी सेवक जैन विद्वानों में कीर्तिमान समाजकी महान विभूति मंगल कामना सही अर्थों में सरस्वती वरदपुत्र सेवा ही जिनका लक्ष्य है गार्हस्थ्य, संन्यास और विद्वत्ताकी त्रिवेणी जिनवाणीके परम आराधक जैनजगत्के गौरव पुंज अनुकरणीय साहित्य-साधना श्रद्धा-सुमन जैन आगमके जागरूक प्रहरी सिद्धान्तके लौह पुरुष नैतिकता और कर्त्तव्यनिष्ठाकी प्रतिमूर्ति सादा जीवन उच्च विचार समाजके वरिष्ठ विद्वान् तीर्थ भक्त पण्डितजी पंडिताचार्य भट्टारक चारुकीर्ति स्वामीजी मूडबिद्री कर्मयोगी चारुकीर्तिजी भट्टारक, श्रवणबेलागोला सम्मानीय राजीव जी गांधी, प्रधान मंत्री, भारत सम्मानीय बूटासिंहजी, गृहमंत्री, भारत साहु अशोक कुमार जैन श्री निर्मलकुमार जैन सेठी श्री डालचन्द्र जैन, सांसद श्री निर्मलचन्द सोनी, अजमेर श्री देवकुमार सिंह, कासलीवाल श्री रमेशचन्द्र जैन स० सिं धन्यकुमार जैन श्री बाबूलाल पाटोदी श्री ज्ञानचन्द्र विन्दुका राय देवेन्द्रप्रसाद जैन, एडवोकेट श्रीमन्त सेठ राजेन्द्रकुमार जैन, एडवोकेट श्री सौभाग्यमल जैन श्री प्रेमचन्द्र जैन श्री ताराचन्द्र प्रेमी स० [सं० जिनेन्द्रकुमार जैन गुरहा श्री भगतराम जैन सिं० आनन्दकुमार जैन स० [सं० सुमेरचन्द्र जैन श्री बालचन्द्र चौधरी सेठ शिखरचन्द्र जैन १ १ १ २ २ ३ ४ ५ ५ ५ ५ ६ ६ ६ ६ ७ 67 ८ ८ ८ ९ ९ १० १० ११ ११ ११ : Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२ - - ~ ~ ~ ~ ~ x प्रतिभाशाली विद्वान् वे स्वस्थ और दीर्घजीवी हों आगमनिष्ठ विद्वान् हार्दिक मनोभावना निर्भीक वक्ता मैं अभिनन्दन करता हूँ स्वतन्त्र विचारक एवं चिन्तक मैंने जैसा देखा-समझा सफल कार्यकर्ता और यशस्वी विद्वान् कर्मठ विद्वान् क्या तुम्हारे सहपाठी देव हैं ? एकान्तका विरोध आपका लक्ष्य सरलता व सहजताके धनी समाजके लिये गौरव अनुपम व्यक्तित्वको मूर्ति जैनधर्म और सिद्धान्तके अधिकारी विद्वान् सादा जीवन और उच्च विचारके धनी शुभकामनाएं धर्म और समाजके सच्चे हितचिन्तक मंगल कामनाएँ आपका अभिनन्दन जिनवाणीका अभिनन्दन है लौह लेखनीके धनी जैन आगमके उच्चकोटिके विद्वान् जैन दर्शनके बंशीधर सिद्धान्त रक्षक स्वाभिमान और प्रज्ञाकी मूर्ति चिन्तनशील विद्वत्प्रवर सम्पूर्ण जीवन बेमिशाल है आगमनिष्ठ विद्वान् पांडित्यके अभिनव हस्ताक्षर पाण्डित्यकी प्रतिमति अद्वितीय साहित्य साधक मेरे नानाजी यशस्वी सारस्वत मौन साधक असाधारण मेधावी डॉ० कपूरचन्द्र जैन श्री अक्षयकुमार जैन श्री महावीरप्रसाद जैन नपत्या मान्य ब्र० पं० माणिकचन्द्र चवरे पं० ब्र० गोरेलाल शास्त्री पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री पं० भंवरलाल न्यायतीर्थ श्री नेमीचन्द्र पटोरिया पं० नाथूलाल जैन शास्त्री डॉ० लालबहादुर शास्त्री पं० अमृतलाल जैन, शास्त्री, साहित्याचार्य पं० जवाहरलाल जैन पं० राजकुमार जैन, शास्त्री पं० भगवानदास जैन, शास्त्री श्री गुलाबचन्द्र 'पुष्प', प्रतिष्ठाचार्य प्रो० प्रवीणचन्द्र जैन पं० सत्यंधर कुमार सेठी प्रो० फूलचन्द्र सेठी पं० हीरालाल जैन, 'कौशल' पं० अनूपचन्द्र न्यायतीर्थ डॉ० कन्छेदीलाल जैन पं० हेमचन्द्र शास्त्री पं० प्रकाश हितैषी पं० दयाचन्द्र साहित्याचार्य डॉ. श्रेयांसकुमार जैन पं० रविचन्द्र जैन, शास्त्री पं० भैयालाल शास्त्री डॉ० जयकुमार जैन डॉ० रमेशचन्द्र जैन श्री निहालचन्द्र जैन पंडित विमलकुमार सोरया डॉ० प्रेम सुमन जैन श्रीमती गुणमाला जैन डॉ० आर० सी० जैन श्री मिश्रीलाल जैन, एडवोकेट डॉ० नरेन्द्रकुमार जैन Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३ - जिनवाणीनन्दनका अभिनन्दन विद्यावारिधि डॉ० महेन्द्र सागर प्रचंडिया बुन्देलखण्डकी थाती पं० बालचन्द्र शास्त्री स्वतंत्र व्यक्तित्वके धनी पं० कमलकुमार शास्त्री सादर अभिनन्दन पं० लक्ष्मणप्रसाद जैन, शास्त्री आदर्श विद्वान् श्री नेमिचन्द्र जैन सरस्वतीके अनुरागी पं० जम्बूप्रसाद शास्त्री देश श्रुत और समाजसेवी श्रीमती पुष्पलता 'नाहर' महान् व्यक्तित्वके धनी पं० विजयकुमार जैन, साहित्याचार्य बहुमुखी प्रतिभाके धनी पं० हरिश्चन्द्र शास्त्री जिनवाणीके अपूर्व सेवक पं० जमुनाप्रसाद शास्त्री धर्म, समाज और राष्ट्र-सेवाके संगम डॉ० कस्तूरचन्द्र 'सुमन' शुभकामनाएँ डॉ० श्रीमती रमा जैन, साहित्यरत्न निरभिमान व्यक्तित्व पं० भैया शास्त्री आयर्वेदाचार्य. पं० शान्तिदेवी शास्त्री एवं उनके परिवारके समस्त सदस्यगण मेरी उन्हें शुभ मंगल कामनाएँ पण्डित मुन्नालाल जैन समाजकी नब्जके पारिखी आचार्य जिनेन्द्र अभिवन्दनीय पण्डितजी श्री श्रेयांस जैन शान्तिप्रिय क्रान्तिकारी समाज-सेवक डॉ० नरेन्द्र विद्यार्थी साहित्याचार्य जैनधर्मके प्रकाण्ड विद्वानका सम्मान श्री महेन्द्रकुमार 'मानव' सालेकी भौआके लिए भावाञ्जलि शाह प्रेमचन्द्र जैन कन्या राशिका चमत्कार पं० स्वतन्त्र जैन समाजके मार्गदर्शक श्री लालजी जैन, बी० कॉम एक जागरूक मनीषी पं० खुशालचन्द्र बड़ेराय, शास्त्री बंशीधरो जयतात् श्री अमृतलालो जनः साहित्य-जैनदर्शनाचार्यः सरस्वतीके वरद-पुत्र हे ! बंशीधर व्याकरणाचार्य पं० अनूपचन्द्र न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न' सविनय-अभिनन्दन सौ० रत्नप्रभा पटोरिया हे सरस्वतीके वरदपुत्र ! शत-शत वन्दन शत-शत प्रणाम डॉ० कस्तूरचन्द्र 'सुमन' विनय सुमन वैद्य प्रभुदयाल कासलीवाल सरस्वतीके वरदपुत्रका शत शत अभिनन्दन है पं० बाबूलाल जैन फणीश बंशीधरको वंशी गूंज, उठी पं० जीवन्धर जैन . ४७ शब्द-सुमन से अभिनन्दन है हास्य कवि हजारीलाल 'काका' . ....४८ सुमनाञ्जलि देते हैं पं० पूर्णचन्द्र 'सुमन' हे सरस्वती के वरदपुत्र विद्वद्वर तुमको शत प्रणाम पं० विजयकुमार जैन बंशीधरके ही प्रकाश से जिनवाणी है जगमग दमकी श्री हीरालाल जैन युग गाये गुण गान श्री गोकुलचन्द्र 'मधुर' गुरुवर जीवें वर्ष हजार ५० बिहारीलालजी मोदी, शास्त्री ....... Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१४ ५ आपको करें समर्पित पं० धरणेन्द्रकुमार जैन, शास्त्री जैन साहित्याराधनामें समर्पित श्री सुरेश जैन I. A. S. संचालक, लोक शिक्षण श्रीमती विमला जैन, मुख्य न्यायिक दण्डाधिकारी श्रद्धा-सुमन समर्पित है पं० गुलजारीलाल जैन, शास्त्री पण्डित परम्पराके मूर्धन्य मनीषी डॉ० ऋषभचन्द्र जैन फौजदार किमाश्चर्यमतः परम पं० दयाचन्द्र साहित्याचार्य स्तुत्य निर्णय श्री जयप्रकाश जैन, बड़कुल श्रीमती शशि जैन बड़कुल नैतिकताको प्रतिमूर्ति वैद्य राज पं० सुरेन्द्रकुमार जैन आयुर्वेदाचार्य पूज्य पण्डितजीसे एक बार्ता श्री श्रेयांसकुमार जैन, पत्रकार आगमके पक्षधर वैद्य पं० धर्मचन्द्र शास्त्री बहु आयामी व्यक्तित्त्व डॉ० मोतीलाल जैन अभिनन्दनीयका अभिनन्दन पं० रवीन्द्रकुमार जैन, विशारद विशिष्ट प्रतिभाके धनी डॉ० शीतलचन्द्र जैन मंगल कामना शाह खूबचन्द्र जैन एक निस्पृही साधु-सम वास्तविक गृहस्थ श्री सुलतान सिंह जैन, एल० एल० बी० श्रद्धेय पण्डितजीका स्तुत्य अभिनन्दन पं० कमलकुमार शास्त्री, 'कुमुद' देश, समाज एवं राष्ट्रकी अनुपम विभूति श्री बाबूलाल जैन फागुल्ल, श्रीमती पुष्पादेवी जैन ६२ खण्ड २ : जीवन परिचय, भेंट वार्ता, व्यक्तित्व तथा कृतित्व श्रद्धेय पण्डितजी : एक परिचय पं० दुलीचन्द्र जैन साक्षात्कार (डॉ. कोठिया और व्याकरणाचार्य) डॉ० दरबारीलाल कोठिया विशाल व्यक्तित्व के धनी डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल सोरई के प्राचीन जिनमन्दिर का वेदिका लेख : एक दस्तावेज डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य सोरई : पूज्य पिताजी की जन्मभूमि श्री विनीत कोठिया गोलापूर्वान्वय : एक परिशीलन डॉ० कस्तूरचन्द्र 'सुमन' अप्रतिम प्रतिभा के धनी पं० पन्नालाल साहित्याचार्य वन्दनीय व्यक्तित्व के धनी श्री नीरज जैन ख्याति-लाभ-मानसे परे प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला साधना-पथ के निष्ठावान पथिक श्री यशपाल जैन विलक्षण प्रतिभा के मनीषी प्रो० उदयचन्द्र जैन बीसवीं सदीके गम्भीर-दार्शनिक विद्वान प्रो. राजाराम जैन राष्ट एवं समाज की अतुलनीय विभूति डॉ० हरीन्द्रभूषण जैन विद्वत्ता और सहृदयता के संगम डॉ० रतनचन्द्र जैन स्वाभिमानी विद्वान् डॉ० भागचन्द्र जैन भास्कर Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१५ संस्मरण-शाह अमृतलाल जैन बीना सं० डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल जैनतत्त्वमीमांसा की मीमांसा : शास्त्रीय मान्यताके परिप्रेक्ष्यमें पं० बलभद्र जैन जैनदर्शनमें कार्यकारणभाव और कारक व्यवस्था : एक समीक्षा डॉ० पन्नालाल साहित्याचार्य जैनदर्शनमें कार्यकारणभाव और कारक व्यवस्था : एक अनुशीलन श्री नीरज जैन जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा : एक मूल्यांकन डॉ० फूलचन्द्र प्रेमी भाग्य और पुरुषार्थ : एक नया अनुचिन्तन : समीक्षात्मक समीक्षा डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी: एक समीक्षा डॉ० सुदर्शनलाल जैन पर्यायें क्रमबद्ध भी होती है और अक्रमबद्ध भी : एक अध्ययन डॉ. विजयकुमार जैन जैनशासनमें निश्चय और व्यवहार : एक परिशीलन स्वस्तिश्री भट्टारक चारुकोति, मूडबिद्री जैनशासनमें निश्चय और व्यवहार : एक विमर्श डॉ० दरबारीलाल कोठिया मनस्वी मनीषी : कुछ संस्मरण पं० बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री श्रद्धा-सुमन पं० शोभालाल जैन खण्ड ३ : धर्म और सिद्धान्त १. तीर्थंकर महावीरकी धर्मतत्त्व-देशना २. जैन-दर्शनमें आत्मतत्त्व ३. निश्चय और व्यवहार मोक्ष-मार्ग ४. निश्चय और व्यवहार धर्ममें साध्य-साधकभाव ५. निश्चय और व्यवहार शब्दोंका अर्थाख्यान ६. व्यवहारनयकी अभूतार्थताका अभिप्राय ७. संसारी जीवोंकी अनन्तता ८. जैनदर्शनमें भव्य और अभव्य ९. जीव-दया : एक परिशीलन १०. जैनागममें कर्मबन्ध ११. आगममें कर्म-बन्धके कारण १२. गोत्र कर्मके विषयमें मेरा चिन्तन १३. भुज्यमान आयुमें अपकर्षण और उत्कर्षण १४. क्या असंज्ञी जीवोंमें मनका सद्भाव है ? १५. पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अकमबद्ध भी १०३ ११६ १२५ १३३ १३८ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. जयपुर खानिया तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षाके अन्तर्गत उपयोगी प्रश्नोत्तर १, २, ३, ४ की सामान्य समीक्षा खण्ड ४ : दर्शन और न्याय १. भारतीय दर्शनोंका मूल आधार २. जैनदर्शनमें प्रमाण और नय ३. ज्ञानके प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदोंका आधार ४. जैनदर्शनमें नयवाद ५. अनेकान्तवाद और स्याद्वाद ६. स्याद्वाद दर्शन और उसके उपयोगका अभाव ७. दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगका विश्लेषण ८. जैनदर्शनमें दर्शनोपयोगका स्थान ९. जैनदर्शनमें वस्तुका स्वरूप : एक दार्शनिक विश्लेषण १०. जैनदर्शनमें सप्ततत्त्व और षद्रव्य ११. अर्थमें भल और उसका समाधान खण्ड ५ : साहित्य और इतिहास १. वीराष्टकम्-समस्या-कान्ताकटाक्षाक्षतः (क्षताः) २. समयसारकी रचनामें आचार्य कुन्दकुन्दकी दृष्टि ३. तत्त्वार्थ-सूत्रका महत्त्व ४. जैन व्याकरणकी विशेषताएँ ५. षट्खण्डागमके "संजद" पदपर विमर्श ६. सांस्कृतिक सुरक्षाकी उपादेयता ७. जैन संस्कृति और तत्त्वज्ञान ८. युगधर्म बननेका अधिकारी कौन ९. ऋषभदेवसे वर्तमान तक जैनधर्मको स्थिति खण्ड ६ : संस्कृति और समाज १. हमारी द्रव्य पूजाका रहस्य २. साधुत्त्वमें नग्नताका महत्त्व ३. जैनदृष्टिसे मनुष्योंमें उच्च-नीच व्यवस्थाका आधार ४. भगवान् महावीरका समाज दर्शन ५. जैन मंदिर और हरिजन । ६. भारतीय संस्कृतिके सन्दर्भ में हिन्दु शब्दका व्यापक अर्थ .७. परिशिष्ट Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਹੀਰ•ਦਸਦU• www.jalnelibrary.org Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.jainelibrary.on Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संत शिरोमणि पूज्य श्री १०८ आचार्य विद्यासागरजी महाराज Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुश्रुत विद्वान् • आचार्य विद्यानन्दजी महाराज सिद्धान्ताचार्य पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य बहुश्रुत विद्वान् हैं । वे स्वतन्त्र चिन्तक हैं । उन्होंने आगमानुकूल और गम्भीर भाषामें ग्रन्थोंकी रचना की । उन्हें हमारा शुभाशीर्वाद है । शुभाशीष मङ्गल आशीर्वाद • श्री १०८ मुनि ब्रह्मानन्द सागरजी महाराज पण्डितजीको अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया जा रहा है, यह उनके योग्य है । मैं पाँच माह एक चातुर्मास में बीना रहा । मुझे पण्डितजीके तीन गुण याद आ रहे । प्रथम गुण उनका निःस्वार्थं भावसे ज्ञानदान देना है । उन्होंने मुझे पाँच माह नियमित स्वाध्याय कराया है । उनके समझानेकी शैली उत्तम है । सामान्य व्यक्ति भी उनकी सरल शैलीसे विषयको समझ लेता है । उनका दूसरा गुण है गुरु भक्ति और विनय । पाँच माहमें वे रोज आते और बड़ी भक्ति तथा विनयके साथ स्वाध्याय कराते थे । हमने उनमें बड़ी विनम्रता एवं निरभिमानता देखी । श्रद्धा-सुमन • क्षुल्लक चित्तसागरजी, घांटोल उनमें तीसरा गुण है समयकी नियमितता । एक मिनट भी वे विलम्ब नहीं करते । जो समय उन्होंने नियमित किया उस समयपर अवश्य आ जाते थे । विषय आरम्भ कर देते थे । बहुत ही मितभाषी और गम्भीर हैं । हमारा उन्हें शुभाशीर्वाद है । विद्वत्वर्यं वयोवृद्ध पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य के अभिनन्दनार्थं एक ग्रन्थ प्रकट होने जा रहा है ऐसा 'जैन गजट' में पढ़ा। अतः भाव हुए कि कुछ पंक्ति श्रद्धासुमनरूप भेजूँ । इसका फल यह है । महासभाकी भी मीटिंगोंमें तथा विद्वानोंकी मीटिंगोंमें मैंने गृहस्थकालमें पण्डितजीको प्रथम देखा था । सामान्य बातचीत भी हुई थी, पत्र-व्यवहारसे परिचय बढ़ा । यात्रा प्रवास में एक दिन उनके घर पर आतिथ्य भी अनुभव में आया था। वह इतना सरल, ऋजु और शालीन था कि वह मैं कभी भी भूल नहीं सकता। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ व्याकरणाचार्य पण्डित होते हए अपनी आजीविकाके लिए उन्होंने कपड़ेका धंधा पसन्द किया था और खूब-खूबीसे चलाते हैं। शायद समाजका रुख पहलेसे ही उनकी पैनी दृष्टि पा गई थी। समाज मनीषियोंको जिस दृष्टिसे देखता है, परखता है और आर्थिक संकटोंसे विडम्बना रूप तरीकोंसे बचाना चाहती है वह सब अब सभी विदित है । अतः परिणामतः आज विद्वान् शेष नहीं बन रहे हैं और भविष्यमें वहाँ एक बड़ा शून्य मात्र ही नजर आयेगा। यह है हमारी धन पूजाका कुफल ! भाग्यहीनता ! सोनगढ़ की गलत प्ररूपणाके बारेमें पण्डितजीकी सशक्त कलम से खूब लिखा, किन्तु समाजने उसे कितना प्रोत्साहन दिया इसकी कथनी अतिकरुण है। कोई सहृदयी होता तो उसे कहने का मौका मिलता किन्तु वहाँ भी निर्जनता है । विद्वान् उपयोगी दीपक है। उसका संरक्षण हमारी संस्कृतिका रक्षण है। जितनी उदासीनता इस बारेमें रहेगी इतने कटु परिणाम हमें ही भोगने पड़ेंगे। जैनागमके मर्मज्ञ मनीषी •स्वस्तिश्री भट्टारक चारुकीर्ति पण्डिताचार्यवर्य स्वामीजी, मूडबिद्री ___ जैनदर्शनके मूर्धन्य विद्वान् समाजमान्य विद्वद्वर्य पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य जैन आगमके मर्मज्ञ प्रकाण्ड मनीषी हैं। प्रशम-हृदयी व परम भद्र परिणामी है इस वृद्धावस्थामें इस समय समाजमें सर्वाधिक चचित विषयपर आपने सन्तुलित लेखनी चलाई है। जैनागमके अधिकारी विद्वान् द्वारा गम्भीर विषयोंका अध्ययन व मनन करके जो पुस्तकें लिखी गई हैं वे महत्त्वपूर्ण हैं । और उससे धर्म-संस्कृतिकी रक्षा हो सकती है । वे स्वस्थ रहें यही हमारा उन्हें साधुवाद है । बहुमुखी प्रतिमाके धनी • कर्मयोगी भट्टारक चारुकीर्ति स्वामीजी जैन मठ, श्रवणबेलगोला सारस्वत, स्वतन्त्रता-संग्रामी, सिद्धान्ताचार्य पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यके अभिनन्दन ग्रन्थप्रकाशनकी योजना ज्ञात कर बड़ी प्रसन्नता हुई। __आदरणीय पण्डितजीका जीवन जैन सिद्धान्तके चिन्तन, मनन एवं लेखनमें ही अधिक संलग्न हैं। आप बहमुखी व्यक्तित्वके प्रतिभावान् विद्वान हैं। आपकी लिखी अनेक महत्त्वपूर्ण पुस्तकोंमें एवं पत्र-पत्रिकाओंमें प्रकाशित आपके दार्शनिक, सैद्धान्तिक एवं सामाजिक लेखोंमें आपका व्यक्तित्व सर्वत्र झलकता है। आपने जीवनमें संचित ज्ञानके वितरणको ही औचित्य समझा। परिणामस्वरूप कई मौलिक ग्रन्थ आपके प्रकाशमें आये । आज चौरासी वर्षकी आयमें भी आप अपनी उसी प्रक्रियामें रहकर चौरासीसे मुक्त होनेके सत् प्रयत्नमें लगे हैं। अतः आप जैसे सारस्वतोंके जीवनकी अनेक उपादेय घटनाओंके साथ सिद्धान्त, दर्शन आदिके महत्त्वपूर्ण लेखोंसे भरा यह अभिनन्दन-ग्रन्थ ज्ञानवर्धक होनेसे संग्रहणीय रहेगा। __हमारी भावना है कि आप चिरायु हों और आपके जीवनवृत्त एवं व्यक्तित्वका दर्शक यह अभिनन्दन- . ग्रन्थ समाजके जिज्ञासुओंके लिए नूतन स्रोत बने । भद्रं भूयात्-वर्धतां जिनशासनम् । इत्याशीर्वाद। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PAYYEESLITE न्यायाचार्यं पूज्य श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी जिनकी छत्र छाया में पण्डितजीने अध्ययन किया ) "मैं पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्यको बाल्यावस्थासे जानता हूँ । उत्तम प्रकृतिका मनुष्य है । जनधर्म में अकाट्य था है। कभी भी आगमविरोधी उपदेश नहीं देते ।" -गणेशप्रसाद वर्णी वीर, ९ नवम्बर, १९४६ / Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएं : ३ HSSATH सत्यमेव जयते प्रधान मंत्री, भारत नई दिल्ली १ सितम्बर, १९८९ सन्देश पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य के उपलक्ष्य में प्रकाशित किए जा रहे अभिनन्दन-ग्रन्थ की सफलता के लिए कृपया सभी संबंधितों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ सम्प्रेषित करें। राजीव गांधी Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य सत्यमेव करते गृह-मंत्री, भारत नई दिल्ली-११०००१ १६ सितम्बर, १९८९ सन्देश यह बड़े हर्ष का विषय है कि आप वयोवृध्द स्वतंत्रतासेनानी और विन्दत्वर पं0 बंशीधरजी व्याकरणाचार्य के अभिनन्दन का आयोजन कर रहे हैं । इस प्रशंसनीय प्रयास के लिए आप साधुवाद के पात्र हैं। पं० बंशीधरजी ने आजादी की लड़ाई और साहित्यसाधना के साथ ही समाज-सुधार के क्षेत्र में जो महत्वपूर्ण कार्य किये हैं वे नयी पीढ़ी के लिए प्रेरणा के स्थायी स्रोत हैं। मैं पं० बंशीधरजी की दीर्घायु के साथ ही आपके प्रयास की सफलता की मंगल-कामना करता हूँ। बूटा सिंह . Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रीय स्तरके मनीषीका अभिनन्दन • साहु अशोक कुमार जैन, अध्यक्ष, अ० भा० दि० जैन तीर्थरक्षा कमेटी १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएँ: ५ यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि आदरणीय पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यका राष्ट्रीय स्तरपर सम्मान किया जा रहा है और इस अवसरपर अभिनन्दन ग्रन्थके प्रकाशन की भी योजना है । निस्सन्देह पं० बंशीधरजी जैन समाजके मूर्धन्य विद्वानोंमेंसे हैं। देश, समाज और जैन वाङ्मयके प्रति उनकी सेवाएँ अमूल्य हैं । समाजका यह गौरव है कि उसे पं० बंशीधरजी जैसे महान् मनीषी, चिन्तक और विचारकका सान्निध्य प्राप्त है । उनके व्यक्तित्त्व और कृतित्त्वकी जितनी भी सराहना की जाय, थोड़ी है । इस महान् योजनाके साथ आपने मुझे भी जोड़ा है, इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ। मेरी कामना है कि आदरणीय पण्डितजी चिरायु हों तथा समाज उनके ज्ञानसे निरन्तर लाभान्वित होता रहे । पण्डितजीके प्रति मेरी आदरपूर्ण विनयांजलि । समारोह एवं अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन योजनाकी पूर्ण सफलताकी शुभ कामनाओंके साथ । मूल आम्नायके संरक्षक विद्वान् • श्री निर्मलकुमार जैन सेठी, अध्यक्ष, अ० भा० दि० जैन महासभा मुझे जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि जैन आगमके महान् विद्वान व मूल आम्नायको सुरक्षित रखनेकी आनमें विद्वत् वर्ग में जो भावसे ज्यादा चिन्ता है ऐसे महान् व्याकरणाचार्य व जैन संस्कृतिके उन्नायक पण्डित बंशीधरजीको समाजने अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करनेका निश्चय किया है यह महासभा के लिये अत्यन्त ही प्रसन्नता की बात है। सच तो यह है कि महासभाको आगे बढ़कर दो दशकोंके पहले ही पण्डितजीको यह आदर देना चाहिये था । वे चिरायु हों, यही कामना है । सरस्वतीके भण्डारको भरते रहें • श्री डालचन्द्र जैन, सांसद तथा अध्यक्ष, अ० भा० दि० जैन परिषद सरस्वती वरदपुत्र पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य जैन समाजके ख्याति प्राप्त विद्वान् हैं । उनकी अविरल सेवाओंके फलस्वरूप अभिनन्दन ग्रन्थका प्रकाशन रहा है । यह समाजको गौरवकी बात है । आदरणीय पण्डितजी जैनदर्शन और जैन सिद्धान्तके अधिकारी विद्वान तो हैं ही लेखक, ग्रन्थकार, सफल संपादक और समाज सेवी व्यक्तित्व तथा स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी हैं । वे सदैव समाज एवं संस्थाओं से साबद्ध रहे हैं और इस वृद्धावस्था में भी चिन्तन और लेखनकी दिशा में सतत संलग्न हैं । श्री वीरप्रभुसे प्रार्थना है कि वह श्रद्धेय पण्डितजीको स्वस्थ जीवन और दीर्घायु प्रदान करें, ताकि वह सरस्वती भण्डारको भरते रहें । मैं इस प्रयासकी सफलताकी कामना करता हूँ । कर्मठ जिनवाणी सेवक • श्री निर्मलचन्द सोनी, अजमेर अभिनन्दन समारोह समितिने जैन विद्वज्जगत्के कर्मठ जिनवाणी सेवक श्री सरस्वती पुत्र पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्यको उनकी ज्ञानाराधनाके उपलक्षमें अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पण करनेका उपक्रम किया हैं वह अत्यन्त उपयुक्त एवं सराहनीय है । आगम सेवकोंका समाज जो भी सम्मान करे वह थोड़ा है । १-१ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ मैं पण्डितजीसे व्यक्तिगत कभी परिचित नहीं हुआ हूँ, फिर भी उनकी लेखनीसे प्रसूत आगमनिष्ठ, तर्कपूर्ण लेखावली तथा ग्रन्थावलीसे अवश्य प्रभावित हूँ। प्रकाश्य अभिनन्दन ग्रन्थ उनकी व्यक्तिगत स्याद्वादभित रचनाओंका एक प्रामाणिक संग्रह होगा और उसे विद्वद्गण और स्वाध्यायनिष्ठ जनता अपनायेगी तथा स्वाध्याय करेगी, ऐसी आशा है । आदरणीय पण्डितजीके प्रति मैं अपने श्रद्धा-सुमन समर्पित करता हुआ उनके स्वस्थ एवं चिरायुष्यकी मंगल-कामना करता हूँ। जैन विद्वानोंमें कीर्तिमान •श्री देवकुमार सिंह, कासलीवाल, इन्दौर आदरणीय पण्डितजीने जैन विद्वानोंमें कीर्तिमान स्थापित कर विशेष स्थान प्राप्त किया है, उस परिप्रेक्ष्यमें उनका अभिनन्दन समयोचित एवं प्रशंसनीय है। आदरणीय पण्डितजी स्वस्थ्य एवं दीर्घायु हों, ऐसी वीर प्रभुसे प्रार्थना है। समाजको महान विभूति .श्री रमेशचन्द्र जैन, कार्यकारी निदेशक, टाइम्स ऑफ इण्डिया, नई दिल्ली सिद्धान्ताचार्य पण्डित बंशीधरजी शास्त्री व्याकरणाचार्य जैन समाजके मूर्धन्य विद्वानोंमें हैं। उनके ज्ञानके आलोकसे जैन वाङ्मयकी आमा चारों ओर फैली है। समाज गौरवान्वित और धन्य हुआ है। ऐसे विद्वान् , मनीषी और साहित्यके साधकका आप अभिनन्दन कर रहे हैं, यह नितान्त हर्षका विषय है। जैनदर्शनके अधिकारी विद्वान् पण्डित बंशीधरजीका जीवन प्रेरणाका अजस्र स्रोत है। ८४ वर्षकी अवस्थामें भी यह कर्मठ व्यक्तित्व साहित्य-साधनामें संलग्न है। ज्ञान, ध्यान, चिन्तन और मननके सागरको मथकर पण्डितजीने जिस सुधारसका पान समाजको कराया है, समाज उससे कभी उऋण नहीं हो पायेगा । पण्डितजी हमारी विभूति हैं । प्रभु उन्हें चिरायु करें, वे स्वस्थ रहे, यही उनके चरणोंमें मेरी विनयांजलि है । मंगल कामना •स० सिं० धन्यकुमार जैन, कटनी पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य बीना पुरानी पीढ़ीके पण्डित वर्गमेंसे एक विद्वान् है । आज उनकी आयु ८४ वर्षकी है। पुरानी पीढ़ीके विद्वानोंमें प्रायः कुछ ही विद्वान् बचे हैं। इन्होंने अपने जीवनकालमें राष्ट्र, समाज, जाति और धर्मकी सेवा की है । अपनी स्वतन्त्र-विचारधारा, चिन्तन-मनन और लेखनकी उनकी अपनी विशेष शैली रही है। जैन आगम पर उन्होंने साहित्य सृजन किया है । उनके अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पण योजनाका मैं स्वागत करता हैं। वे दीर्घजीवी हों, समाज और धर्मकी चिरकाल तक वे सेवा करें-इसकी मैं मंगल कामना करता हूँ। सही अर्थों में सरस्वती वरदपुत्र .श्री बाबूलाल पाटोदी, इन्दौर __ श्रद्धेय पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य सही अर्थोंमें सरस्वती वरदपुत्र हैं। मुझे उन्हें सुननेका अवसर प्राप्त हुआ, उनको स्पष्ट भाषा, तार्किक शैली श्रमण-परम्परासे कभी विमुख नहीं हई। वे जिनवाणी एवं आचार्योंके कथनमें किसी प्रकारकी मिलावट नहीं चाहते । उन्हें कभी पद एवं प्रतिष्ठाका मोह नहीं रहा। परम्परास कभी विमुख नहीं हुई व जिनवाणी Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएँ: ७ जिनवाणी - माता निष्पृह चिन्तकके रूपमें अपना जीवन जिया । खानिया तत्त्वचर्चा में आपने जनदर्शन और जैन सिद्धान्तका जिस प्रकार गम्भीर विचारकके रूपमें स्वतन्त्र चिन्तन दिया उसने विद्वानोंको सोचनेके लिये नई दिशा प्रदान की । जो भ्रमित हो रहे थे उन्हें सही राह बताई । पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णीने बुन्देलखण्डको जैन वाङ्मयके अनेकों विद्वान् दिये। आज समाजमें जो सर्वाङ्ग पण्डितोंकी कमी महसूसकी जा रही है व उनके स्थानपर साप्ताहिक, पाक्षिक एवं मासिक शिक्षणशिविरोंमें भाषण सुनकर कथित पण्डित निर्मित हुए हैं, उन्होंने धर्म एवं वाङ्मयका जितना अहित किया है, शताब्दियोंसे उतना नहीं हुआ । पूज्य पण्डित बंशीधरजी वर्तमान युगके स्वतन्त्र चिन्तक, जिनकी कथनी व करनी में कोई भेद नहीं, हमारी अपूर्वनिधि हैं । उनका अभिनन्दन करके विद्वत्जन एवं समाज अपना ऋण हलका कर रहा है । सम्पूर्ण समाज पण्डितजीको हृदयसे नमन करता 1 सेवा ही जिनका लक्ष्य है ● श्री ज्ञानचन्द्र खिन्दूका, अध्यक्ष, श्री दि० जैन अ० क्षेत्र श्रीमहावीरजी पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्यका नाम जैन समाज, दर्शन, साहित्य के क्षेत्र में एक जाना-माना / सुपरिचित नाम है | व्यवसायी होते हुए भी आप साहित्य और समाजकी सेवामें जिस प्रकार जुड़े हुए हैं वह श्लाघनीय है । सच तो यह है कि प्रारम्भसे ही "सेवा" आपके जीवनका एक अभिन्न अंग रही है, देश सेवा, समाज सेवा, साहित्य सेवा ये ही तो लक्ष्य / उद्धेश्य रहे हैं आपके जीवनके । अध्ययन-मनन- चिन्तन-लेखन में आप आज भी सक्रिय एवं संलग्न हैं । ऐसे कर्मठ प्रेरणास्पद व्यक्तित्व के प्रति मैं अपनी विनयाञ्जलि समर्पित करता हुआ उनके स्वस्थ और सक्रिय दीर्घ जीवनकी कामना करता हूँ । गार्हस्थ्य, संन्यास और विद्वत्ताको त्रिवेणी • राय देवेन्द्रप्रसाद जैन, एडवोकेट, गोरखपुर मुझे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि जीवनपर्यन्त जैनसमाज तथा जनसाहित्यकी सेवा करनेवाले स्वनामधन्य सिद्धान्ताचार्य पंडित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य, शास्त्री एवं न्यायतीर्थकी सेवाओंको स्मरण करने और उनके प्रति आभार ज्ञापनार्थ अभिनन्दन ग्रन्थका प्रकाशन होने जा रहा है। श्रद्धेय पंडितजीका नाम तो मैंने बहुत सुन रखा था पर उनके दर्शनका सौभाग्य मुझे डॉ० दरबारीलालजी कोठियाके अभिनन्दन ग्रंथ समारोहके समय हुआ । पंडितजीसे बात करनेपर में उनकी विद्वत्ता, गहन अध्ययन, जैनदर्शनमें उनकी गहरी पैठ देखकर आश्चर्यचकित रह गया । दुसरी बार पंडितजीके घरपर दो दिन ठहरनेका सौभाग्य मिलनेपर उनके प्राप्त हुआ। गृहस्थ जीवन, वानप्रस्थ तथा संन्यास तीनोंका आश्चर्यजनक समिक्षण ही प्रभावित हुआ । उनकी दिनचर्या प्रातः ३ बजेसे प्रारम्भ होती है । अध्ययन, चिन्तन लेखनके प्रति उनका समर्पण बड़ा प्रेरणादायक रहा । गृहस्थ जीवन में ऐसी रुचि तथा अध्यात्मसे प्रेम दोनों गुण एक साथ बहुत कम देखनेको मिलते हैं । पंडितजीका मधुर भाषण तथा सादा जीवन अनुकरणीय है । मेरे जैसे सामान्यजनको पंडितजाने जैनदर्शन जैसे गूढ़ विषयको सरल तथा बोधगम्य भाषामें थोड़े समय में ही ग्राह्य करा दिया । यह उनकी विलक्षणता है । निकट साहचर्यका अवसर पंडितजी में देखकर बहुत अन्तमें पंडितजी के दीर्घायु होनेकी हार्दिक कामना करते हुए पुनः प्रसन्नता व्यक्त करना चाहता हूँ कि पंडितजो जैसे महान् धर्मसेवी, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी, साहित्यिक तथा समाजसेवीकी सेवाओं के प्रति Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ आभार प्रकट करनेके लिए अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशनका निर्णय उचित ही है। यह अभिनन्दन पंडितजीका नहीं है बल्कि साहित्य तथा दर्शनका अभिनन्दन है ऐसी मेरी भावना है । मेरा बारम्बार नमन । जिनवाणीके परम आराधक •श्रीमन्त सेठ राजेन्द्रकुमार जैन, एडवोकेट, विदिशा परम आदरणीय श्रद्धेय पं० बंशीधरजीका अभिनन्दन उनकी ही नहीं, प्रत्युत उनकी विद्वत्ताकी महिमाका परिचायक है। आदरणीय पंडितजीने अपना जीवन जिनवाणीमें लगातार सार्थक किया है। इसके परम लक्ष्यसे उनका जीवन जीवंत होगा। जिनवाणीका परमलक्ष्य वीतराग विज्ञानताका है और इससे समन्वित जीवन ही जीवंत होता है । ऐसे जीवनको पीकर भवचक्रकी परवाह नहीं रहती। जिनवाणीका यही भाव भाषण उनके जीवनमें आवे, यह भावना है और यही उनका वास्तविक सम्मान है। जैनजगत्के गौरव पुंज .श्री सौभाग्यमल जैन, लखनऊ श्रद्धेय पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य, सिद्धान्तचार्य समग्र जैन जगतके चोटीके मूर्धन्य विद्वान एवं गौरव पुंज है । श्रद्धय पं० जी आरम्भसे अब तक चौरासी वर्षको उम्न होने पर भी जैनधर्मकी महती न्यायपूर्ण समीचीन आर्षमार्गकी सैद्धान्तिक सेवा कर रहे हैं। श्रद्धेय पं० जीने कानजी पंथके विरुद्ध खानिया तत्त्व चर्चामें प्रमुख भाग लिया था और उस विषय पर सप्रमाण अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। वे उनकी अनेकांतमयी आर्षमार्ग पर दृढ़ श्रद्धाको प्रतिष्ठापित करते हैं। मैं वीर प्रभसे मंगल कामना करता हूँ कि आप दीर्घजीवी हों एवं आर्षमार्ग वीतरागमार्गके अनुयाइयोंको समुचित मार्गदर्शन देते रहें । अनुकरणीय साहित्य-साधना •श्री प्रेमचन्द्र जैन, अध्यक्ष-राजकृष्ण जैन चेरिटेबल ट्रस्ट, दिल्ली हमें यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि विद्वद्वर्य पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यको अखिल भारतीय स्तरपर समाज अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करनेको जा रही है। पण्डितजीकी सेवाओंको देखते हुए समाजका यह निर्णय निःसन्देह प्रशंसनीय है। व्याकरणाचार्यजी आरम्भसे ही स्वतंत्र चिन्तक और विचारक हैं। उन्होंने शिक्षाको कभी आजीविका का साधन नहीं बनाया । अतएव वे स्वतंत्र व्यवसायी रहते हुए देश, समाज, साहित्य और धर्मकी सेवामें संलग्न है । आपने गजरथ विरोधी आन्दोलन व अनेक आन्दोलनोंमें भाग लिया। बामौराका दस्सा पूजाधिकारका ऐतिहासिक मकदमा भी आपने लड़ा। आप गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसीके वर्षों मंत्री रहे । अ०भा० दि० जैन विद्वत्परिषदके अनेक वर्षों तक मंत्री व अध्यक्ष रहे। गुरु गोपालदास वरैया शताब्दी समारोह आपके अध्यक्ष कालमें सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ था। आप सफल पत्रकार, लेखक और सम्पादक भी हैं। शान्तिसिन्धु और सनातन जैन पत्रोंका आपने योग्यतापूर्वक सम्पादन किया है । विभिन्न पत्र-पत्रिकाओंमें सैकड़ों लेख आपने लिखे हैं। उनमें अनेक लेख तो बहुत ही चिन्तनपूर्ण और गंभीर है। जैनतत्त्व-मीमांसाकी समीक्षा, जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चाकी समीक्षा, जैनदर्शनमें निश्चय और व्यवहार जैसी पुस्तकें तो जैनसाहित्यकी अमूल्य निधि हैं। तात्पर्य यह है कि आपकी समाजकी सेवा और साहित्यकी साधना निश्चय ही वर्तमान और भावी पीढ़ीके लिए अनकरणीय है। पा। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ | आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएँ : ९ समाज और साहित्यकी तरह आपकी राष्ट्र-सेवा भी उल्लेखनीय है। सन् १९३१ से ही आप राष्ट्रीय कार्योंमें सक्रिय सहयोग देने लगे थे । सन् १९४२ के स्वतन्त्रता आन्दोलनमें आपने सागर, नागपुर और अमरावतीकी जेलोंमें असह्य कष्ट सहे । खादीको अपनाकर भी अन्य खादीधारी नेताओंसे बचे रहे। भारत सरकारने आपको स्वतन्त्रता सेनानीके रूपमें ताम्रपत्रपर अंकित प्रशस्ति पत्र द्वारा सम्मानित किया है। समाजके विश्रुत विद्वान् स्वर्गीय पं० बालचन्द्रजी शास्त्री और डॉ०६० दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य आपके परिवारके सदस्य (भतीजे) हैं। आपके पुत्र भी सुयोग्य व धार्मिक विचारधाराके हैं। ऐसे देश, समाज, साहित्य और धर्मसेवी विद्वान्को अभिनन्दन ग्रन्थ भेंटकर समाज निश्चय ही गौरवान्वित होगा । श्रद्धा-सुमन .श्री ताराचन्द्र, प्रेमी, महामंत्री भा० दि० जैन संघ, मथुरा मुझे यह ज्ञातकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि परम श्रद्धेय भाई साहब पं० बंशीधरजीको अभिनन्दनग्रन्थ समर्पित करनेका समाजने निर्णय लिया है । वस्तुतः वे उसके योग्य हैं । उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय प्रवृत्तियाँ किसीसे छिपी नहीं हैं । दस्सा पूजाधिकारमें उनका प्रमुख भाग रहा है। समाजमें खासकर बुन्देलखण्ड में गजरथोंकी भरमार थी और उनमें कितना ही अपव्यय होता था, जिससे समाजमें शिक्षा जैसे विधेयात्मक कार्य नहीं हो पाते थे । पण्डितजीने इस दिशामें कदम उठाया और गजरथोंका विरोध किया । सहस्रों लोगोंने उनका समर्थन किया। फलतः आज गजरथोंमें कमी हो गयी है और उनमें सुधार हुआ है । शिक्षाका प्रसार एवं प्रचार भी हुआ है। पण्डितजीकी राष्ट्र-भक्ति भी कम नहीं है । सन् १९४२ के 'भारत छोड़ो' आन्दोलनमें भाग लेनेपर वे जेल भी गये । आज उनका नामोल्लेख बड़े गर्वके साथ स्वतन्त्रता सेनानियोंमें किया जाता है। हम उन्हें अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए उनके शतायुः होनेकी मंगल-कामना करते हैं। जैन आगमके जागरूक प्रहरी .स० सिं० जिनेन्द्रकुमार जैन गुरहा, खुरई जैन आगमके जागरूक प्रहरी धार्मिक, सामाजिक एवं राष्ट्र सेवाके सभी क्षेत्रोंमें पं० जीकी स्तुत्य सेवा सदा स्मरणीय है। आर्षप्रणीत जिनागम एवं आध्यात्मिक ग्रन्थोंके अध्ययन, मनन और चिन्तनमें ८४ वर्षकी इस आयमें भी पं० जी सतत संलग्न हैं । सावधानीसे अपनी लेखनीसे जनसाहित्य एवं रचनायें, समाज एवं विद्वानोंको अर्पित कर रहे हैं और उनका आह्वान कर रहे हैं कि वे जिनागमके प्रतिकूल प्रचार व आचरण न करें, जो कि आजकल चल पड़ा है । यह अनेकान्त विरोधी "एकान्त मत" समाजमें अनेक विवादों-विकारों को जन्म दे रहा है । सन् ६३ में जयपुर (खा निया) में इन नये' व 'पुरातन" विचार वाले विद्वानोंके मध्य तत्त्व चर्चाका आयोजन निष्कर्ष पूर्ण नहीं रहा। फलतः आगम अनुकूल विद्वानोंको “शंका पक्ष" व इन “एकान्तियों" समाधान पक्ष-बना डाला है, जिससे तत्त्व निष्पन्न होनेकी अपेक्षा उलझ गया । इसी हेतुसे पं० जीने व अन्य सभाजके विद्वानोंने इस "सोनगढ़" पक्षकी समीक्षा करनेका संकल्प लेकर लेखन कार्य किया है । “खानियाँ तत्त्व चर्चाको समीक्षा", "जनशासनमें निश्चय और व्यवहार", "पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी" तथा समय-समय पर जैन पत्रिकाओंमें प्रचुर शोधपूर्ण लेख लिखे हैं । उनकी कृतियाँ गम्भीर मनन, चिन्तन, अध्ययनको विषय हैं जो कि निष्पक्ष भावसे पढ़ने पर "बोध गम्य' है । जैन संस्कृति-संस्कार अक्षुण्य रहे । श्रद्धेय पं० जी दीर्घायु हों यही शुभ कामना है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ सिद्धान्तके लौह पुरुष •श्री भगतराम जैन, मंत्री, अ० भा० दिगम्बर जैन परिषद, दिल्ली पं० बंशीधर शास्त्रीका स्थान जैनसमाज में उच्चकोटिके विद्वानोंमेंसे है। पं० बंशीधर शास्त्रीजी अ०भा० दिगम्बर जैन परिषदसे प्रारम्भसे जुड़े हुए है। इन्होंने परिषदकी रीतिनीतिका सदैव समर्थन किया है । अब भी वह परिषद केन्द्रकी प्रबन्धसमितिके सदस्य हैं। उनपर किसी दबाव या प्रलोभनने उनके विचारों में कोई परिवर्तन नहीं होने दिया। - कपड़ेके व्यापारमें व्यस्त होते हए भी अपनी धार्मिक लगन में लग्नशील है । प्रतिष्ठा प्राप्तिकी भावनासे दूर रहते हैं । सादगीका जीवन सरल स्वाभावी सभी विशेषतायें इनमें पाई जाती हैं । समाजमें इनके द्वारा लिखित ग्रन्थोंका अपना स्थान है। मुझपर उनका बड़ा स्नेह है । मुझे जब भी बीना जानेका अवसर मिलता है मैं सीधा उन्हींके यहाँ पहुंचता हूँ। सामाजिक चर्चाएँ भी होती हैं । अपनी श्रद्धाके सुमन अर्पित करते हुए उनके दीर्घजीवनकी कामना करता हूँ। नैतिकता और कर्तव्यनिष्ठाको प्रतिमूर्ति • सिं० आनन्दकुमार जैन पूर्व अध्यक्ष नगर पा० एवं स्थानीय जैन हितोपदेशिनी सभा, बोना पण्डितजी वाराणसीमें अध्ययन समाप्तकर सन् १९२८ में बीना आये थे और तभीसे उन्होंने बीनाको अपना कार्यक्षेत्र बनाया । जैनदर्शनके मौलिक चिन्तक एवं विचार कके रूपमें जहाँ एक ओर आपकी प्रतिभाका उद्भव हुआ, वहीं दूसरी ओर महात्मा गान्धीके स्वतंत्रताके राष्ट्रीय आन्दोलनोंसे आपका हृदय उद्वेलित होने लगा। धर्म एवं राष्ट्र एक दूसरेके सम्पूरक होते हैं । इस भावनासे अनुप्राणित होकर आप राष्ट्रीय कार्यों में सक्रिय हो गये और सन् १९४२ में आन्दोलनमें आप सागर व नागपुर,अमरावतीकी जेलमें न जाने कितने कष्ट सहे ।। युगकी आवश्यकताको दृष्टिगत रखते हए आपने सन्मार्ग प्रचारिणी समिति द्वारा देवगढ और केवलार गजरथ विरोधी आन्दोलन किये। एक स्वतन्त्र व्यवसायीके रूपमें अपना जीविकोपार्जन करते हए अपने पांडित्यको अर्थोपार्जनका माध्यम नहीं बनाया । आपकी विद्वत्ता और चिन्तनशीलता उच्चकोटिकी है। साथ ही दो बातें, जो मैंने आपके जीवनमें देखीं, वे हैं--कर्तव्यनिष्ठा और नैतिकता । समाज, राष्ट्र और धर्मके त्रिकोण पर आपने अपनी इन विशेषताओं को आजीवन जीवन्त बनाये रखा है । एक महान लेखक और साहित्य-मनीषीके रूपमें भी आप विश्रुत हैं। आज भी साहित्यप्रणयनका महानयज्ञ इस ८४ वर्षकी वयोवृद्धावस्थामें अनवरत चालू है। अपने ठोस और आगम तर्कोके द्वारा-एकान्त नयका बहुत स्पष्ट और सूझबूझ पूर्वक सैद्धान्तिक खण्डन कर आर्ष परम्परा और आजके तथाकथित धार्मिक साहित्यमें आये दोषोंका निराकरण न केवल अपने चिन्तनशील निबन्धों/लेखोंके द्वारा किया अपितू 'जनशासनमें निश्चय और व्यवहार" जैसी कृतियाँ लिखकर समाज, शासन एवं धर्मका महान उपकार किया है। बीनाकी स्थानीय संस्था श्री नाभिनन्दन दि०जैन हितोपदेशिनी सभाके आप वर्षों मंत्री पदपर आसीन होकर, इस सभाको जीवनदान देकर समुन्नत किया था। पण्डितजी शान्तिप्रिय, अनुशासनप्रिय और मितभाषी हैं। इन्हीं गुणोंका प्रभाव आपके परिवारपर पडा । समाजके मार्ग दर्शक एवं राष्टके निःस्पह सेवक शतायुः होनेकी मंगल कामना करता हआ अपने श्रद्धासुमन अर्पित करता हूँ। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १/ आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएँ:११ सादा जीवन उच्च विचार । •स० सिं० सुमेरचन्द्र जैन, जबलपुर पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य बीना (सागर) बुंदेलखण्डके महान् जैन विद्वान हैं। सन १९५० में पण्डितजी का पहला परिचय खुरई में महावीर जयंतीके शुभअवसरपर हआ था। उस समय रात्रिको आपके भाषणको सुननेका लाभ मिला था। पण्डितजीका जीवन बहुत ही सादगी पूर्ण है । घरपर या दुकानपर हमने हमेशा ही चिन्तन-मनन करते हुए देखा । ता० ११-५-८९ को हम बीनामें पंचकल्याण गजरथके शुभ अवसरपर मिले थे । तब हमने आपसे दिगम्बर जैन समाज बीनाके संघटन बाबत चर्चा की थी। अच्छा यह हुआ कि इस कार्यमें सफलता मिली। पण्डितजीने अपने जीवनमें अनेक महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थोंको लिखा है, जिनमें आपने अनेक जैन विषयोंपर अच्छा प्रकाश डाला है। हम आपका हार्दिक अभिनन्दन करते तथा शुभकामना करते हैं कि आप शतायुः हों। समाजके वरिष्ठ विद्वान .श्री बालचन्द्र चौधरी, चौधरी सदन, सतना राष्ट्र व समाज के वरिष्ठ विद्वान् महामनीषी पं० बंशीधर व्याकरणाचार्यको उनकी राष्ट्रीय, सामाजिक साहित्यिक और धार्मिक सेवाओंके उपलक्ष्यमें समाज अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंटकर अभिनन्दित एवं सम्मानित कर रहा है, यह उचित एवं स्तुत्य निर्णय है। मैं उन्हें हार्दिक शुभकामनाएँ भेज रहा हूँ। वे दीर्घजीवी होकर समाज और साहित्यकी सतत सेवा करते रहें। तीर्थ-भक्त पण्डितजी •सेठ शिखरचन्द्र जैन मंत्री, श्री सिद्धक्षेत्र रेशिंदीगिर अति प्रसन्नता हुई, जब हमें ज्ञात हुआ कि समाज द्वारा पण्डितजीको अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित किया जा रहा है। पण्डितजीका इस क्षेत्रसे पूर्वका नाता व लगाव है। उनके ही भतीजे पं० डॉ० दरबारीलालजी कोठियाकी जन्मस्थली यह पावन तीर्थ भमि पण्डितजीके अभिनन्दनके शुभावसरपर उनके दीर्घजीवनकी कामना करती है। पण्डितजीका तीर्थों के प्रति लगाव व भक्ति उनकी प्रतिभासे स्वयमेव झलकती है यही कारण है कि उनने संस्थाओं व तीर्थोकी अनवरत सेवा की है। उनका ध्यान तीर्थोके संरक्षण व सम्वर्धन हेतु बना रहे इसी कामनाके साथ । प्रतिभाशाली विद्वान • डॉ० कपूरचन्द्रजी जैन, महामंत्री, दि० जैन सिद्धक्षेत्र अहारजी . आदरणीय पं० भी समाजके प्रतिभाशाली विद्वान मुर्धन्य लेखक एवं ओजस्वी वक्ता हैं। उनके द्वारा ग्रन्थ लेखन एवं विद्वत्तापूर्ण भाषणों द्वारा किया गया धर्मका प्रचार तथा सामाजिक सेवायें इतनी अधिक हैं जो भुलाई नहीं जा सकती। मैं उनके स्वास्थ्य एवं दीर्घायुकी कामना करता हूँ। वे स्वस्थ और दीर्घजीवी हों .श्री अक्षयकुमार जैन, पूर्व सम्पादक, नवभारत टाइम्स, दिल्ली श्रद्धेय पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यने समाज, साहित्य और दर्शनको जो दिया है उसके लिए हम सब सदा ऋणी रहेंगे । उनके अभिनंदनके अवसरपर मैं अपनी विनयांजली प्रस्तुत करता हूँ। प्रभु पण्डितजीको स्वस्थ और दीर्घजीवी करें, यही कामना है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२: सरस्वती-वरवपुत्र पं०बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य आगमनिष्ठ विद्वान् • श्री महावीरप्रसाद जैन नृपत्या, जयपुर मुझे यह जानकर अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि जैन समाजके वरिष्ठ एवं आगमनिष्ठ विद्वान् पंडित बंशीधरजी व्याकरणाचार्यका अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है। विद्वान् समाजकी धरोहर होते हैं तथा वे धर्म एवं संस्कृतिके संरक्षक माने जाते हैं । पण्डितजी सा० ने अपना समस्त जीवन जैन परम्पराओं को सुरक्षित रखने तथा उसके संवर्धनमें लगाया है। वे सरस्वतीके वरद पुत्र हैं, जिनकी लेखनी अजस्र प्रवाहित होती रहती है। ____ मैं उनके अभिनन्दनके अवसरपर अपनी हार्दिक शुभकामना प्रेषित करता हूँ तथा भावना भाता हूँ कि शतायुः होकर इसी प्रकार जिनवाणीकी सेवा करते रहें। हार्दिक मनोभावना मान्य ब्र०५० माणिकचन्द्र चवरे, अधिष्ठाता महावीर ब्रह्मचर्याश्रम, कारंजा विद्वद्वर्य पंडित श्री बंशीधरजी व्याकरणाचार्य अपने विषयके निश्चित ही अध्यवसायी, विशेषज्ञ और विशिष्ट विचारोंके धनी हैं । विद्वत् परिषदके मान्य अध्यक्ष रह चुके हैं । जीवनमें पूरी सादगी है। उपजीविका के निमित्त वस्त्र-व्यवसाय करते हए भी स्वाध्याय-विशेषमें सतत निमग्न रहते हैं । खुरई संस्थाके निमित्त जब-जब बीना पहुँचना हुआ, आपको सदाही स्वाध्याय मग्न पाया। आपसे भेंट करके हमेशा प्रसन्नता पायी। हमें सातिशय वात्सल्य प्राप्त हुआ। प० पू० स्व० आचार्य श्री शिवसागरजी महाराजकी परमकृपासे हई प्रसिद्ध 'खानियाचर्चा के समय पूर्वपक्ष बलशाली रूपमें रखने में आपके पक्षने कोई कसर नहीं रखी, उत्तरदाताओंको उत्तर देनेके लिए जो भारी शवित और उपयोग लगाने पड़े उनका साक्षात्कार पदसे समय होता ही है। प्रश्नोत्तरोंकी इस विस्तृत प्रक्रियासे सूक्ष्म प्रमेयोंकी सूक्ष्मतम घटाएँ प्रामाणिक अभ्यासियोंके लिए अपूर्वरूपमें उपलब्ध हुई । एक अद्भुत अध्ययनकी वस्तु सिद्धान्त वेत्ताओं द्वारा समाजको प्राप्त हुई। दोनों पक्षोंका मैं स्वयं ऋण ही मानता हूँ। इस अभिनन्दनकी प्रशस्त पुण्यवेलामें विद्वद्वर पण्डितजीको निरामय दीर्घायुमें निर्विकल्प ज्ञानध्यानके लिए पूरी अनुकूल साधन-सामग्री उपलब्ध रहे, यह हार्दिक मनोकामना करता हूँ। निर्भीक वक्ता . पं० ब्र० गोरेलाल शास्त्री, उदासीनाश्रम, द्रोणगिरि सरस्वतीवरदपुत्र पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य वास्तवमें सरस्वतीके वरदपुत्र हैं। वे निर्भीक वक्ता, लेखक, मित्रजनोंकी झूठी प्रशंशासे विमुक्त हैं। उन्हें मैंने नजदीकसे देखा, प्रवचन सुना। उनके कथनमें विद्वत्ता व निर्भीकता टपकतो है । वे व्याकरणाचार्य तो हैं ही। सब विषयों में उनकी अबाधगति है। सोरई जैसे एक छोटे ग्राममें जन्म लेकर महान् विद्वान् हो गये। विद्वत्ताकी अपेक्षा वे सर्वोपरि विद्वान् है । मेरी शुभकामना है कि पण्डितजी शतायुः होकर समाज और राष्ट्रको ज्ञान देते रहें। मैं अभिनन्दन करता हूँ .५० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, हस्तिनापुर मान्य श्री पं० बंशीधर जी व्याकरणाचार्यको अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट कर उनके अभिनन्दनकी तैयारी हो रही है, वह स्वागत योग्य है "वे इसके योग्य हैं। इसलिये मैं उनके अभिनन्दनका स्वागत करता हूँ और उनका स्वयं अभिनन्दन करता है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएं : १३ स्वतन्त्र विचारक एवं चिन्तक •पं० भवरलाल न्यायतीर्थ, सम्पादक 'वीर वाणी', अध्यक्ष, विद्वत्परिषद् . अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत परिषदके भूतपूर्व मन्त्री एवं अध्यक्ष, सिद्धान्ताचार्य, व्याकरणाचार्य, न्यायतीर्थ, साहित्यशास्त्री आदि अनेक उपाधिधारी विद्वान् पं० बंशीधरजी बीनाका अभिनंदन-ग्रन्थ प्रकाशनकी योजना एक प्रशंसनीय कार्य है। यह अभिन्दन किसी व्यक्तिविशेषका नहीं, माँ सरस्वतीके एक उपासकका अभिनन्दन है, सम्मान है। पूज्य पं० जी स्वतन्त्र विचारक हैं, चिंतक हैं और निर्भीकतापूर्वक अपने विचारोंको प्रकट करते हैं। वृद्धावस्थामें भी अपने चिन्तन-मननके आधारपर तर्कों द्वारा अपने मन्तव्यको लोगोंके गले उतारने में सक्षम है। सिद्धान्तशास्त्री पं० फूलचन्द्रजी द्वारा रचित 'जैन तत्त्वमीमांसा' के उत्तरमें आपने 'जैनतत्त्व मीमांसा की मीमांसा' की रचना की थी। जैनदर्शनमें कार्यकारणभाव और कारक व्यवस्था नामक पुस्तक भी आपने लिखी है। आपने अनेक पत्रोंमें सैद्धान्तिक निबन्ध भी लिखे हैं। अभी वीरवाणीमें आपने "आगममें कर्मबन्धपर विचार" शीर्षक एक महत्त्वपूर्ण निबन्ध लिखा था, जिसके उत्तरमें समागत विद्वानोंके विचारोंपर 'कर्म सम्बन्धी स्वकीय दृष्टिका स्पष्टीकरण" शीर्षक लेख द्वारा आपने अपने मन्तव्यको समझानेका सफल प्रयत्न किया है। विचार-भेद / मान्यता-भेद भले ही आपकी रचनाओंसे हों, पर आपका चिन्तन तर्क प्रधान है। __पं० बंशीधरजी जहाँ सैद्धान्तिक चर्चाओंमें अपनी विशेषता रखते हैं वहाँ सामाजिक महत्त्वपूर्ण सुधारवादी क्रान्तिकारी विचारोंमें भी कम नहीं हैं । आप दस्सा पूजाधिकार, गजरथ-विरोध आदि आन्दोलनोंमें भी अगुआ रहे है । साथ ही राष्ट्र के स्वतंत्रता-आन्दोलनमें खूब भाग लिया है और सेवा की है । सन् १९३१ में ही गांधीजीके आन्दोलनमें कूद पड़े थे और सन् १९४२ में कृष्ण-मन्दिर की यात्रा भी की है, यातनायें सही हैं। . आपका जन्म ८४ वर्ष पूर्व हुआ। बचपनमें ही माता-पिताका वियोग सहना पड़ा। कठिन श्रम करके एक ऊँचे दर्जेके विद्वान् बने । परिस्थिति और संकटोंमें जूझने वाले ही तपे स्वर्णके समान निखरते हैं । पंडित जी ऐसे ही तपे, निखरे हुए पुरानी पीढ़ीके विद्वान हैं जिनपर समाजको गर्व है। पंडितजी स्वस्थ दीर्घजीवी हों और माँ सरस्वतीको इसी प्रकार सेवा करते रहें, यह मेरी हार्दिक कामना है। मैंने जैसा देखा-समझा .श्री नेमीचन्द्र पटोरिया, एम० ए०, एल-एल० बी०, बम्बई समाज-मान्य विद्वान श्री पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य समाजके जाने माने अग्रणी विद्वान् है । वे न किसो गुट या किसी तबकेसे जुड़े या बँधे हैं। वे केवल उसीसे जड़े हैं जो सिद्धान्त व तर्क-संगत प्रतीत होता है। वे अपने विचार सरल और स्पष्ट शब्दोंमें बिना लगाव व दुरावके कह देते हैं इसीमें उनको विशेषता है। कभी-कभी उनके गंभीर विचार साधारण हस्थके पल्ले कम पड़ते हैं, किन्तु विद्वद्-मंडलोमें उनके विचारोंका उचित समादर होता है । आरम्भसे ही मेरे मनपर इनका प्रभाव पड़ा कि ये विद्वान् सरल प्रकृतिके हैं। परिधानों, खानपानमें, बोलचालमें, व्याख्यानमें वे सरलताके प्रतीक मुझे लगे। मानों वे एक खुली पुस्तक हैं। कहीं कोई छिपाव या दुराव नहीं है, जो कहते हैं स्पष्ट सरल शब्दोंमें कहते हैं । १-३ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४: सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ इनके विचारोंसे कोई इन्हें पुरातन-पंथी मानता है, कोई इन्हें नूतन व उग्रवादी । किन्तु उनके हृदयके द्वार सिद्धान्त और तर्कमें कसे विचारोंके लिये सतत खुले रहते हैं । हमारे चरित्र-नायक सब झंझटोंसे दुर आदर्श और धर्ममय गृहस्थ-जीवन यापन करते हैं। वे किसी संस्था या गुटसे जुड़े नहीं है, स्वतंत्र व्यवसाय करते हैं, इससे इनके विचारोंमें स्वतंत्रताका हम पुट पाते हैं और जो कहते हैं, स्पष्ट और बेलगाव, चाहे सुननेवालेको प्रिय हो या न हो। 'सत्यं शिवं' से डूबे उनके विचार रहते हैं, 'सुन्दरं' पर उनका ध्यान नहीं है। मेरी समझमें आवश्यकता है ऐसे मनीषी विद्वानोंके लेख, व्याख्यान और विचारोंका संकलन, जो सुसंपादित और प्रकाशित हो, जिससे सर्वसाधारण और विशेषकर नवयुवकोंको समुचित मार्ग दर्शन मिले । मैं अभिनन्दनीय विद्वान्के स्वास्थ्य और दीर्घ-जीवनकी कामना करता हूँ। सफल कार्यकर्ता और यशस्वी विद्वान .पं० नाथूलाल जैन शास्त्री, प्राचार्य, सरहुकमचंद दि० जैन संस्कृत महाविद्यालय, इन्दौर संस्कृत राष्ट्र भाषा या लोकभाषा प्रयत्न करनेपर भी नहीं हो सकी, इसका कारण उसके व्याकरणको क्लिष्टता है, बिना मुखाय किये उसके व्याकरणका उपयोग संभव नहीं है। सभी संस्कृत पद्योंका अर्थ भी सरलतापूर्वक बता देना किसी भी संस्कृतज्ञ विद्वान्की शक्तिके बाहर है। संस्कृत में लिख लेना और बोल लेना भी सहज नहीं है। ऐसी संस्कृत व्याकरणको प्रारंभसे आचार्यके षट्खंड तक संपूर्ण अध्ययन कर उसमें उत्तीर्णता प्राप्त कर लेनेका शायद प्रथम श्रेय पंजीको ही प्राप्त है। क्योंकि अन्य जो भी प्रसिद्ध विद्वान हैं, उसमें अधिक व्याकरण, न्याय आदिके षट्खंड उत्तीर्ण नहीं हुए हैं, फिर भी उन्हें व्याकरण, न्याय आदिके आचार्य पदसे संबोधित किया जाता है। पंडितजी साहित्य, जैन दर्शन आदिके भी निष्णात विद्वान हैं। राष्ट्रीय आन्दोलनमें सक्रिय भाग लेकर ६-७ बार आपने कारावास भी भोगा है। अ० भा० दि० जैन विद्वत् परिषद्के अध्यक्ष, नगर कांग्रेस कमेटीके अध्यक्ष आदि विशिष्ट पदोंपर रहकर आपने राष्ट्र, समाज एघं साहित्यके क्षेत्रमें खूब सेवायें की हैं। जैन शासनमें निश्चय और व्यवहार, जैन दर्शनमें कार्यकारण भाव आदि विषयोंपर आपके चिन्तनपूर्ण लेख एवं ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। जयपुर खानिया तत्त्वच में आपका प्रमुख भाग था। पण्डितजी सफल कार्यकर्ता और गशस्वी विद्वान् हैं। वे आर्थिक दृष्टिसे संपन्न और स्वावलम्बी होनेसे श्रीमान एवं धीमान् दोनों हैं। हमारा विद्वत् समाज आपसे गौरवान्वित है। इस अभिनन्दनके सुअवसरपर मैं उनका हार्दिक अभिनंदन एवं चिरायु कामना करता हूँ। कर्मठ विद्वान् • डॉ० लालबहादुर जैन, शास्त्री अध्यक्ष, शास्त्री परिषद्, दिल्ली दिगम्बर जैन समाजके प्रसिद्ध विद्वानोंमें श्री पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्यका अपना एक स्थान है, जिन्होंने अपने बौद्धिक परिश्रम और आगमिक सिद्धान्त ज्ञानसे मिथ्यावादियोंके प्रचार-प्रसारको खण्डित करके जिनवाणीकी रक्षा की है। आपका अभिनन्दन ग्रन्थ तो वस्तुतः बहुत पहले ही प्रकाशित होना था। परन्तु जो कुछ होना है वह प्रायः अपने समयके अनुसार हो होता है । आदरणीय पण्डितजीकी ज्ञान-गरिमा और गम्भीर आगम ज्ञानसे प्रभावित होकर मैं पुनः-पुनः उनका अभिनन्दन करता हूँ। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएं : १५ क्या तुम्हारे सहपाठी देव हैं ? •पं० अमृतलाल जैन, शास्त्री, साहित्य-जैन दर्शनाचार्य, लाडनूं सन् १९३३ की बात है । मैं उस समय श्री गो० दि० जैन सि० महाविद्यालय, मोरेनाका छात्र था। उस समय वहाँ केवल चार ही विशिष्ट विद्वानोंके नाम गिनाये जाते थे-सर्वश्री न्यायालङ्कार, वादीभकेसरी, पं० मक्खनलालजी शास्त्री, पं० खुबचन्द्रजी शास्त्री, इन्दौर, बंशीधरजी पण्डीत. सोलापर (आप अपने नामके आगे पण्डीत लिखा करते थे, न कि पण्डित) और पं० माणिकचन्द्रजी न्यायाचार्य, सहारनपुर । पं० शीधरजी व्याकरणाचार्यका नाम नहीं सुना था। आप अपने भतीजे पं० बालचन्द्रजी सि० शास्त्री, प्राचार्य दि० जैन विद्यालय, जारखी (आगरा) से मिलने गये थे। वहाँसे लौटते समय आप मोरेना विद्यालयमें पधारे थे। आपसे मिलकर सभी (बुन्देलखण्डी) छात्रोंको-जो प्रायः बड़ी कक्षाओंके थे—यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई थी कि आप दि० जैन समाजके सर्वप्रथम व्याकरणाचार्य है। आपने लगातार ग्यारह वर्ष परिश्रम करके प्रथमा, मध्यमा, शास्त्री और आचार्य के सभी खण्डोंमें प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होकर 'आचार्य' उपाधि प्राप्त की थी। (पू० पं० गणेशप्रसादजी वर्णी और पं० माणिकचन्द्रजीने आचार्यके सभी खण्ड पास नहीं किये थे ।) फलतः उक्त छात्रोंने आपके अभिनन्दनार्थ सभा करनेका विचार किया। किन्तु...। वहाँ उस समय कोई बुन्देलखण्डी विद्वान, विद्वानोंकी कोटिमें गणनीय नहीं हो सकता था। आप असाधारण विद्वान् है फिर भी निरहङ्कार और मिलनसार हैं-ऐसा अनुभव करके मैं भी आपसे ला। पूछनेपर मैंने आपसे कहा मैं बमराना (झांसी) का निवासी हैं यहाँ गतवर्ष आया था। इस वर्ष सर्वार्थसिद्धि, प्रमेयरत्नमाला, पुरुदेवचम्पू, वाग्भटालङ्कार, शाकटायन और अंग्रेजी पढ़ता हूँ। प्राय : मासिक आदि सभी परीक्षाओंमें मेरे नम्बर धर्म आदि विषयोंमें सहपाठियोंसे अधिक आते हैं, पर व्याकरणमें सबसे कम ३३ या ३४ । आपने पूछा-ऐसा क्यों ? क्या तुम्हारे सहपाठी देव है ? मैंने उत्तर दिया-देव तो नहीं हैं, पर वे सभी खब रटते हैं, मैं रटता नहीं, केवल समझनेका प्रयत्न करता है। आपने समझाया कि सूत्र रटना चाहिये, सूत्र रटे बिना व्याकरणका ज्ञान नहीं हो सकता और इसके बिना संस्कृतसे अनभिज्ञ रहोगे। ये बातें मेरी समझमें आ गई और आपका यह प्रश्न-'क्या तुम्हारे सहपाठी देव हैं ? मेरे मन में घर कर गया । इसलिये मैंने उसी दिनसे सूत्र रटना प्रारम्भ कर दिया, साधन प्रक्रियाको तो पहलेसे ही समझ रखा था। फलतः त्रैमासिक आदि सभी परीक्षाओंमें और सोलापुर एवं महासभाकी परीक्षाओंमें भी ८०-८० नम्बर प्राप्त हुए तथा प्रथम पुरस्कार भी। उस वर्ष दोनों ही परीक्षालयोंसे कुल मिलाकर अठारह रु० पुरस्कार या पारितोषिकके रूपमें मिले थे। यह आपके 'क्या तुम्हारे सहपाठी देव हैं ?-इस प्रश्नके प्रभावसे ही हुआ। तभीसे आपके साथ मेरा सम्बन्ध बना हुआ है। एकान्तका विरोध आपका लक्ष्य .पं. जवाहरलाल जैन, भीण्डर (राजस्थान) परमश्रद्धास्पद बंशीधरजी ग्यारह वर्षों तक काशी महाविद्यालयमें पढ़े थे। आज आप भारतके प्राचीनतम विद्वानोंमेंसे एक हैं । स्याद्वादकी रक्षा आपका लक्ष्य सदा रहा है । आचार्य शिवसागर महामुनिकी छत्र-छायामें हुई तत्त्वचर्चा (खानियाजी-जयपुर) में आप तथा रतनचन्द्र मुख्तार प्रमुख थे । पूज्य स्व० रतनचन्द्र मख्तार मेरे गुरुवर थे। उनके प्रति बंशीधरजीकी वर्षोंसे अपार श्रद्धानिष्ठ मैत्री रहो थी। इसका पुष्टप्रमाण यह भी है कि जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा प्रथम भाग नामक ग्रन्थार्ध आपने पूज्य स्व० मुख्तार सा० की स्मृतिमें उन्हें ही समर्पित किया है । आगमके सर्वोपरि शाश्वत अनुगामी, करणानुयोगके Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य पारगामी मनीषी मुख्तार सा०के प्रति इतनी अनन्य निष्ठा आप (बंशीधरजी) की निकट भव्यताको सूचित करती है। ___ बंशीधरजीसे कादाचित्क होनेवाले पत्राचारसे तो वर्षों से मेरा परिचय था। प्रत्यक्ष परिचय मई, जून ८७ में धवला वाचनाके कालमें ललितपुरमें हुआ। चर्चाओं-परिचर्चाओंके दौरान आप बहुत सरल स्वाभावी, समता शान्तिसे प्राश्निकके प्रश्नोंका समाधान करनेवाले सूरि प्रतीत हुए। एकान्तका विरोध आपका ध्येय रहा; जो प्रशस्य ही है। आगममें विभिन्न स्थलों पर किये गये समीचीन अर्थोका परिमार्जन आपकी करणीय कार्योको लिस्टमें निहित है । धवलामें शोधन विषयक आपने मुझे हिदायत भी ललितपुरमें ही दी थी। आर्षमार्गके उद्योतक पण्डित बंशीधरजीके दीर्घजीवित्व, स्वस्थता, सदा प्रसन्नता आगम प्रणवन तल्लीनता, मुनि मार्ग पोषणको अनवरत साधना तथा अनेकान्त सम्पोषणका सातत्यकी सदा कामना करता हूँ। आपका मार्ग सदा प्रशस्त रहे । शुभास्ते पन्थान' । भद्रम् भूयात् । सरलता व सहजताके धनी .पं० राजकुमार जैन शास्त्री, दमोह . ज्ञानवृद्ध एवं वयोवृद्ध पं० बंशीधरजीको व्याकरणाचार्यके नामसे समूचा प्रबुद्ध व विद्वत् वर्ग अच्छी तरह जानता है। उन्होंने अपने समस्त बीते हुए जीवनको सरस्वतीके संरक्षण व सम्वर्धनमें समर्पित तो किया ही है साथ ही बहुजन हिताय, बहुजन सुखायकी सूक्तिको कृतार्थ करके चरितार्थ कर दिया। समाज, धर्म और राष्ट्रहितमें अपने जीवनको समर्पित किया। वे बड़े सरल एवं सहज हैं। मैं प्रभुसे यही कामना करता हूँ कि वे चिरायु हों और अपने अक्षुण्ण ज्ञानकोषको मुक्त हस्तसे वितरित करते रहें ।। समाजके लिये गौरव .५० भगवानदास जैन शास्त्री, रायपुर समाजके मूर्धन्य विद्वान् व्याकरणाचार्यका अभिनन्दन समाजके लिये गौरवकी ही बात है। विद्वान समाज व राष्ट्रके दर्पण होते हैं। वे समाजके प्रतिनिधि, पथप्रदर्शक एवं उन्नायक होते हैं। उन्हींके विचारों व प्रेरणाओंसे समाजको बल मिलता है। समाज उनकी सेवाओंसे कभी उऋण नहीं हो सकता। पण्डित बंशीधरजी मेरे अनन्य मित्र व अन्यतम सहपाठी हैं । हम दोनों स्याद्वाद जैन विद्यालय, काशीके एक ही छात्रावासमें रहते थे। यद्यपि विद्यार्थी जीवनके पश्चात् मात्र ५-६ बार उनसे भेंट हो सकी, किन्तु मैं उनकी स्वतन्त्र विचार-बुद्धि, विनयशीलता तथा स्वाभिमानी स्वभावसे अच्छी तरह परिचित हूँ। मुझे याद है कि एक बार रसोइयेसे अनबन हो जानेके कारण उन्होंने अपने हाथोंसे ही भोजन बनाना प्रारम्भकर दिया था। आपकी समालोचक बुद्धि छात्र जीवनसे ही विकसित हई। आपने अपने विचारोंकी अभिव्यक्तिके लिये ६ स्वतन्त्र पुस्तकें भी लिखीं, जो समाजके लिये अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हई। आपके सम्बन्धमें यही कहा जा सकता है कि स जातो येन जातेन येन तत्त्वं समीक्षितम् । परिवर्तनि संसारे मृतः को वा न जायते ॥ इन्हीं विचारोंके साथ मैं अपनी अशेष मंगल कामनायें व्यक्त करता हूँ कि श्री व्याकरणाचार्यजी यशस्वी, सुदीर्घ, नीरोगतापूर्ण जीवनका उपभोग प्राप्त करें तथा समाजकी निरन्तर सेवा करते रहें। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १/ आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएं : १७ अनुपम व्यक्तित्वको मूर्ति .श्री गुलाबचन्द्र ‘पुष्प', प्रतिष्ठाचार्य, टीकमगढ़ - 'सोंरई' ग्रामकी धरा धन्य है, जहाँ संवत् १९६२ में शील-सप्तमीकी पावन बेलामें पं० मुकुन्दलालजीकी धर्मपत्नी श्रीमती राधाबाईको पवित्र कंखसे जैनसिद्धातके आराधक एवं देशभक्तका जन्म हआ। शिशका नाम रखा गया बंशीधर । बंशीधर सचमुच में बंशीधर थे, जिनकी बंशीको सुनकर लोगोंकी भीड़ लग जाती थी । आज भी जिनके आगम-ज्ञानको पाकर जनता आत्म-विभोर हो जाती है। प्राथमिक शिक्षा जन्मभूमि-सोरईके प्राइमरी स्कूलमें पायी और उच्च शिक्षा उस प्राचीन नगरी वाराणसीके स्याद्वाद महाविद्यालयमें ग्रहण की, जहाँ सातवें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ और तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ ने जन्म लेकर उसे पावन एवं विश्रत किया। सान्निध्य मिला अध्यात्मवेत्ता पूज्य श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैसे महान् गुरुका। फिर क्यों नहीं प्रकाण्ड विद्वान होते। व्याकरण, साहित्य, न्यायके प्रखर विद्वान होते हए भी जैनागमके आप अद्वितीयवेत्ता और साधक हैं। आपने आगमके रहस्यको खोला और 'जैन शासनमें निश्चय और व्यवहार' जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं। सामाजिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियोंमें भी आप अग्रणी हैं । देशभक्ति भी आपमें कूट-कूट कर भरी हुई है। फलतः आप 'स्वतन्त्रता सेनानी' भी हैं। . ऐसे व्यक्तित्वका सम्मान करना राष्ट्र और समाजके लिए सर्वथा उचित है। हमें प्रसन्नता है कि उनकी सेवाओंके उपलक्ष्यमें उन्हें अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंट किया जा रहा है। हम उनके दीर्घ जीवनकी कामना करते हुए अपनी विनयाञ्जलि अर्पित करते हैं। जैनधर्म और सिद्धान्तके अधिकारी विद्वान् • प्रो० प्रवीणचन्द्र जैन निदेशक-जैन विद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी व्याकरणाचार्य पं. बंशीधर न्यायतीर्थ उन कतिपय विशिष्ट विद्वानोंमेंसे एक हैं जो सुदीर्घ कालसे भारतीय समाजके राष्ट्रीय और आध्यात्मिक अभ्युत्थानमें अपना बहुमुखी योग देते रहे हैं। आप जैनधर्म और सिद्धान्तके मर्मज्ञ और अधिकारी विद्वान् है। तत्त्वोंकी चर्चा, उनका समीक्षण, निश्चय और व्यवहार, भाग्य और पुरुषार्थ तथा पर्यायोंकी क्रमबद्धता जैसे महत्त्वपूर्ण और जटिल विषयोंपर प्रांजल भाषामें लिखो हुई आपकी अनेक कृतियों और पत्र-पत्रिकाओंमें प्रकाशित होते रहनेवाले लेख, जहाँ आपकी पाण्डित्यपूर्ण प्रतिभाका प्रकाश करते हैं वहाँ उनसे समाजके उदीयमान युवावर्गको दिशा और प्रेरणा मिलती है। अनेक पत्र-पत्रिकाओंके सम्पादन तथा समारोहोंके आयोजनोंसे आप समाजके निकट सम्पर्क में आते रहे हैं। इससे समाज को निश्चय ही बहुआयामी लाभ मिले हैं। देशके स्वातन्त्र्य संग्राममें आपने जो कर्मठता दिखायी है बह आजकी पीढीको अनेक समस्याओंसे घिरे हए भारतकी विकासोन्मुख प्रवृत्तियोंमें सजीव योग देते रहनेकी प्रेरणा देती रहेगी। आप जैसे प्रबुद्ध मानवका अभिनन्दन और सम्मान निश्चय ही समाजके गौरवको बढ़ानेवाला एक प्रशस्त कार्य है। इसे जितने उत्साह और वैभवके साथ सम्पन्न किया जा सके, करना चाहिये। यह हम सब लोगोंका परम कर्तव्य है। अभिनन्दनके इस बडे अवसरपर मैं चौरासी वर्षीय महामना पं० बंशोधर जीके लिए अपनी शुभकामनाएँ अर्पित करता हैं। वे दीर्घायु हों और स्वस्थ रहते हुए समाजकी आध्यात्मिक सेवाके बहविध क्षेत्रोंमें अपना सहज-स्वभावी योग देते रहें। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थं सादा जीवन और उच्च विचारके धनी • पं० सत्यंधर कुमार सेठी, उज्जैन अभी मैं विद्वत्परिषद तथा महासमितिके अधिवेशनों में आगरा गया था। तब बनारस के सम्मानीय विद्वान् बाबूलालजी फागुल्लने चर्चा में कहा कि सेठीजी आपको यह जानकार हर्ष होगा कि हम समाज के प्रसिद्ध विद्वान् माननीय पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य जैसे महाविद्वान् ही सेवाओं व समर्पित जीवनके प्रति कृतज्ञता प्रकाशनार्थं एक अभिनंदन ग्रन्थ प्रकाशित करने की योजना बना रहे हैं जिसमें आपका भी सहयोग वांछनीय है । यह सुनते ही मेरे हृदयने आवाज दी कि आज भी जैन समाज में विद्वानोंके प्रति अगाध श्रद्धा और उच्चतम भावनायें हैं जो किसी-न-किसी रूप में अपनी कृतज्ञता प्रकाशित करके श्रद्धासुमन उनके चरणों में अर्पित करना चाहता है । जैन समाजने व्यक्ति विशेषको महत्त्व कभी नहीं दिया है । यह समाज हमेशा गुणोंकी ही पूजा करता आ रहा है । सम्मानीय पण्डितजीका यह अभिनन्दन ग्रन्थ वर्तमान पीढ़ीके लिए ही नहीं किन्तु भावी पीढ़ी के लिए भी प्रेरणा दायक होगा - ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है । अनन्य भक्त विद्वान् हैं । आपका चिंतन बहुत यह निर्णय लिया कि आप सही रूपमें निर्लिप्त श्रद्धेय पण्डित बंशीधरजी जैन जगत् के विद्वानोंमें एक आदर्श और उत्कष्ट विचारोंके विद्वान् हैं। मैं उनके प्रत्यक्ष दर्शन द्रोणगिरि सिद्ध क्षेत्रपर होनेवाले गजरथ महोत्सव के समय किये थे । उस समय अखिलविश्व जैन मिशनका अधिवेशन था, तब मुझे भी जानेका सौभाग्य मिला था । प्रथम प्रवचन में ही मैं श्रद्धेय पण्डितजीके विचारोंसे काफी प्रभावित हुआ । मैं उनके निवास स्थानपर पहुँचा । कई धार्मिक और सामाजिक चर्चायें आपसे मैंने कीं । जिससे ज्ञात हुआ कि आप कर्मकाण्डी विद्वान् नहीं है । आपका झुकाव अर्न्तजीवन को टटोलपर है, और वास्तवमें वे भगवान् कुन्दकुन्द के विचारोंके विशाल है और गृहस्थ होते हुए भी आपके विचारोंसे मैंने जीवनके धनी हैं । द्रोणगिरिके बाद किसी व्यक्तिगत प्रसंगको लेकर कई बार आपके घरपर ठहरनेका मुझे सौभाग्य मिला है | आपका आतिथ्य सत्कार भी बड़ा बेजोड़ है । महाविद्वान होते हुए भी मैंने हमेशा आपको विनम्रताकी मूर्तिके रूपमें ही देखा । न आपके जीवन में कोई दिखावा है और न किसी भी प्रकारका प्रदर्शन । सादा जीवन और उदार विचार ही आपके जीवनका लक्ष्य है । आपने अपने जीवन कालमें साहित्यिक सेवायें तो की है, लेकिन आपने राष्ट्रीय आन्दोलन में भी सक्रिय रहकर जैन समाज का मस्तक ऊँचा किया हैं । जीवन मैं जेल जानेका भी आपको सौभाग्य मिला है । जैन समाज में समय - समयमें अनेक आन्दोलन चले हैं लेकिन उन आन्दोलनोंमे आपने अपने आपको कभी नहीं उलझाया हमेशा आप ज्ञाता और दृष्टाके रूपमें ही रहे और आज भी हैं । आप अद्भुत प्रतिभा के धनी विद्वान् है अतः विद्वत् परिषद जैसी महान संस्थाका नेतृत्व करके आपने समाजको ही मार्ग दर्शन नहीं दिया, विद्वानों को भी मार्ग दर्शन देकर जैन दर्शन की अनुकरणीय सेवा की है । विद्वानोंको आज भी आपकी विद्वत्ताके प्रति श्रद्धा और गौरव है । और विद्वज्जन उनको अभिनन्दनीय मानकर उनके प्रति अगाध श्रद्धा प्रकट करते हैं । ऐसे महाविद्वान् के चरणोंमें श्रद्धा प्रकट करता हुआ मैं भी अपने आपको धन्य मानता हूँ। और भगवान् महावीर से प्रार्थना करता हूँ कि माननीय पण्डितजी शतजीवि बनकर इसी तरह समाज, देश व राष्ट्रको मार्ग दर्शन देते रहें । शुभकामनाएँ • प्रो० फूलचन्द्र सेठी, खुरई पण्डित वंशीधरजी व्याकरणाचार्य, बीनाके सम्बन्धमे अभिनन्दन ग्रन्थ छप रहा है । में श्रद्धेय पण्डित - जीकी दीर्घायुकी शुभकामनाएँ प्रेषित कर रहा हूँ । ईश्वरसे प्रार्थना है कि वे दीर्घायु हों तथा जैनधर्मकी सेवा अपनी लेखनी द्वारा निरंतर करते रहें । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएं : १९ धर्म और समाजके सच्चे हितचिन्तक । .पं० हीरालाल जैन 'कौशल' मंत्री-अ० भा० दि० जैन विद्वत्परिषद् सम्माननीय पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य समाजके सर्वप्रथम व्याकरणाचार्य हैं। उस समय यह विषय अत्यन्त कठिन मानकर इस ओर छात्र जाते ही न थे। ऐसे विद्वान् को संस्थाओंमें स्थानकी कमी न थी, पर पण्डितजी समाजके उन गिने चुने विद्वानोंमेंसे हैं, जिन्होंने समाजको अपने जीवनयापनका आधार न बनाकर स्वतन्त्र (कपड़ेके) व्यवसायको अपनाया और उसमें अपनी ईमानदारी तथा सद्व्यवहारसे अपनी गहरी साख बनाई एवं सम्मानपूर्वक उन्नति करके अपनी स्थितिको सुदृढ़ बनाया। साथ ही अपनी योग्यता, सतत अध्ययन एवं गम्भीर चिन्तनके द्वारा समाजके प्रथम श्रेणीके वरिष्ठ विद्वानों में अपना सम्माननीय स्थान बनाया। आप समाजकी प्रत्येक गतिविधिसे सदा जडे रहे और उसमें योगदान देते रहे। व्याकरणाचार्यजी व्याकरणके अपूर्व विद्वान् होनेके साथ ही दर्शन तथा अध्यात्म आदिके भी प्रकांड पण्डित है। वे अपनी पैनी दृष्टि एवं सूक्ष्म पकड़के द्वारा प्रत्येक विषयका गम्भीरतासे मंथन करते हैं, तथा विषयका विश्लेषणकर सप्रमाण उसपर लेखनी उठाते हैं। उनके लिखित ग्रन्थोंमें यह सब बातें स्पष्ट दृष्टिगोचर होती हैं। वे शान्तस्वभावी, निरभिमानी, उदारहृदय, दिखावट-बनावटसे दूर सादगीपसन्द व्यक्ति हैं। धर्मके दृढ़ श्रद्धानी हैं पर कूरीतियों, कुप्रथाओं तथा पोपडमके सदा विरोधी रहे है । धर्म व समाजके सच्चे हितचिन्तक हैं । समाजकी सुप्रतिष्ठित संस्थाओंके अध्यक्ष एवं मंत्री आदि जिम्मेवारीके पदोंपर रहकर आपने समाजकी अनुपम सेवा की है । समाजके द्वारा आप कई बार सम्मानित हो चुके हैं। आप सच्चे देश भक्त भी हैं। आपने स्वतंत्रता आन्दोलन में जेल जाकर देशको स्वतंत्र कराने में अपना योगदान दिया। विद्वानोंमें वे ऐसे प्रथम विद्वान है। आपका जीवन वस्तुतः एक आदर्श एवं अनुकरणीय है । इस आयु में भी आप साहित्य एवं समाज सेवाके कार्यमें लगे रहते हैं। भगवानसे प्रार्थना है कि आप दीर्घायु हों तथा इसी प्रकार समाज का हित करते रहें । मंगल कामनाएँ .पं० अनूपचन्द्र न्यायतीर्थ, जयपुर पूज्य पंडितजी पुरानी पीढ़ीके विद्वानों में अग्रगण्य है। जिस प्रकार आपने आर्षमार्गकी परम्परा निभाते हुए समाजको सत्साहित्य दिया उसी प्रकार स्वतंत्रता सेनानीके रूपमें राष्ट्रको अपने कांतिकारी एवं सुधारवादी विचारधारासे प्रभावित किया। युगानुसार नूतन-प्राचीन विचारोंके सामंजस्यसे युवापीढ़ीको धर्मकी ओर आकृष्ट किया है । सादा जीवन एवं उच्च विचार ही आपके जीवनका लक्ष्य रहा है। मेरी मंगल-कामना है कि आप युगों-युगोंतक हमें मार्गदर्शन देते रहें। बिना बाँसुरीके भी श्री बंशीधर अपनी मनमोहन तान सुनाते रहें । आपका अभिनन्दन जिनवाणीका अभिनन्दन है • डॉ० कन्छेदीलाल जैन, सम्पादक 'जैन सन्देश', रायपुर आपके सम्मानमें अभिनन्दन-ग्रन्थका प्रकाशन हो रहा है । यह जानकारी मुझे वाराणसीसे प्राप्त पत्रकसे हुई । प्रसन्नता हुई। आपने समाजसे स्वतंत्र रहकर कार्य किया, यह अच्छी बात है, गौरवपूर्ण है। समाज पर निर्भर न रहकर अपनी विद्वत्ताका उपयोग किया । परन्तु यदि आप व्यवसायके स्थानपर अध्यापन-कार्य करते तो आपको प्रतिभा तथा योग्यताका इससे कई गुना लाभ समाजको मिलता। आपका अभिनन्दन प्रकारान्तरसे जिनवाणीका अभिनन्दन है । इस कार्यक्रमके आयोजनकी रूपरेखासे मुझे प्रसन्नता हुई। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ लौह लेखनीके धनी •पं० हेमचन्द्र शास्त्री, अजमेर सम्भवतः सन् १९३१ का सत्र शुरू हुआ था। मैंने जम्बू विद्यालय, सहारनपुरसे प्रवेशिका परीक्षा उत्तीर्ण कर श्री० स्याद्वाद दि० जैन विद्यालय, बनारसमें प्रवेश पाने के लिये विद्यालयका प्रवेश फार्म भेजा था। मझे वहाँ प्रवेश मिल गया और वहाँका छात्र बन गया। उस समय विद्यालयकी प्रतिष्ठा शिक्षा जगतमें आदरणीय रही। विद्यालयके स्नातक अबतक न्यायाचार्य तो हुए थे सो भी अपूर्ण थे । परन्तु अन्य व्याकरण-साहित्य आदि विषयके कोई विद्वान जैन समाजमें नहीं थे। सर्वप्रथम इन विषयोंके विद्वानोंमें यदि किन्हींका नाम गिना जा सकता है तो वे हैं श्री पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य और श्री पं० परमानन्दजी साहित्याचार्य । श्री पं० परमानन्दजी पंचकूलामें कार्यरत रहे और वे अब हमारे बीच में नहीं हैं। सर्वप्रथम मैंने इन दोनों वरिष्ठ स्नातकोंको विद्यालयमें देखा। वहाँका सात्विक जीवन और शिक्षाकी लगन अपूर्व ही थी। आज उसीका फल है कि मेरा भी जीवन जिनवाणी आराधनामें व्यतीत हो रहा है । __ श्री व्याकरणाचार्यजी अत्यन्त सरल, मृदुस्वभावी, दुबले पतले, संयमशील, सतत ज्ञानाभ्यासी, कर्मठ छात्र रहे। आप किसी सामाजिक संस्थामें कार्य न कर गृह-व्यवसायी रहे। परन्तु आश्चर्य है कि आपकी जिनवाणी साधना वहाँ भी सतत चलती रही और उसीका शुभ परिणाम है कि आपका वृद्ध जीवन अब भी जिनवाणीको पूर्णतः समर्पित है। आपकी लौह लेखनी व्याकरणाचार्य होते हुए भी जैनदर्शनके गूढतम विषयोंपर चलती रही है, जिससे आगम स्याद्वाद सूर्य आव्योमित हुआ है तथा मिथ्या धारणाएँ नष्ट हुई है । आपका लिखित साहित्य आपको अमरता प्राप्त कराता रहेगा। पंडितजीकी रचनाओंको हृदयंगम कर मैं इस निष्कर्षपर पहँचा है। श्री पंडितजी दीर्घजीवी होकर इस प्रकार स्वाध्यायिओंको मार्गदर्शन देते रहें । मैं उनके स्वस्थ एवं निराकूल जीवनके लिये वीरप्रभुसे प्रार्थना करता है। समस्त समाजने पंडितजीका अभिनन्दन करनेका जो उपक्रम किया है वह उनकी जिनवाणी सेवाके अनुरूप है । मैं ग्रन्थके उत्तम प्रकाशनके लिये समितिको धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ। जैन आगमके उच्चकोटिके विद्वान् .५० प्रकाश हितैषी, सम्पादक-सन्मति सन्देश, दिल्ली आदरणीय व्याकरणाचार्य पं. बंशीधरजी शास्त्रीको मैं ६० वर्षसे जानता हूँ क्योंकि आपके निवास स्थल बीना (इटावा) में मैंने प्रारम्भिक धार्मिक शिक्षा प्राप्त की थी। उस समय पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य और पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री भारतके स्वतन्त्रता संग्राममें प्रमुख सेनानी माने जाते थे । फलस्वरूप उन्होंने जेल यात्रायें भी की है। उस समय उनकी निर्भीकता एवं देशकी स्वतन्त्रताके प्रति समर्पण उल्लेखनीय रहा है। उन दिनों इन दोनों विद्वानोंकी राम-लक्ष्मण जैसी जोड़ी लोग कहा करते थे। समाज सुधारमें भी ये अग्रगण्य थे। मरणभोज एवं अन्य सामाजिक बुराइयोंका भी खुलकर विरोध करते थे। अनावश्यक होनेवाले गजरथ-पंचकल्याणकोंका भी इन्होंने खूब विरोध किया था। वे कहा करते थे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठाके लिए ये प्रतिष्ठाएँ धनका अपव्यय है। इनका विरोध करनेके लिए इन्होंने एक समितिका भी निर्माण किया था। आप समाज सेवामें विश्वास करते थे, लोकेषणासे सदा दूर रहते थे। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाए २१ आप आगमके उनकोटिके विद्वान् हैं। ये हमेशा स्वतन्त्रजीवी रहे हैं। इन्होंने कभी भी सामाजिक संस्थाओंकी गुलामी स्वीकार नहीं की। इनका विचार है कि स्वतंत्र रहकर ही समाज सेवा की जा सकती है। अनेक पुस्तकें लिखी हैं । व्यवसाय करते हुए भी आपकी कलम निरन्तर चलती रहती है । वे दीर्घजीवी रहकर जनकल्याणकारी प्रमेव वे यही मंगल कामना है । जैन दर्शनके बंशीधर 1 • पं०] दवाचन्द्र साहित्याचार्य, प्राचार्य श्री दि० जैन सं० महाविद्यालय, सागर जिस प्रकार बंशीधर (श्रीकृष्ण) ने गीताकी वंशी ध्वनित कर, केवल अर्जुनको ही नहीं, किन्तु विश्व के मानवोंको पुरुषार्थ करनेके लिये जागृत क्रिया, कर्तव्य पालन करनेके लिये प्रेरित किया और गीताका उपदेश देकर कल्याणके पथका प्रदर्शन किया। मीतामें यह कथन ध्यातव्य है स्वस्वे कर्मण्यभिरतः, संसिद्धि लभते नरः । स्वकर्मनिरतः सिद्धि, यथा विन्दति तच्छृणु ॥ अर्थात् - स्वभावजन्य गुणोंके अनुसार प्राप्त होनेवाले अपने-अपने कमोंमें सर्वदा प्रवृत्त होनेवाला पुरुष तदनुसार सिद्धिको प्राप्त करता है । इसी प्रकार जैनदर्शनके क्षेत्रमें बंशीधरने अपने तत्त्वज्ञानकी बंशीको ध्वनित कर मानव समाजको जागृत किया, कर्तव्य निष्ठ होनेके लिये प्रेरित किया एवं स्वकीय जीवन में महत्त्वपूर्ण कार्य किये । मौलिक समीक्षात्मक प्रन्थोंका सृजन कर मानवको स्वाद्वादात्मक आत्मकल्याणके मार्गपर प्रगति करने के लिये यथार्थ पथिक बनाया है । अतः हम उनके व्यक्तित्व और कृतित्वके विषयमे मंगलकामना करते हैं । " दीर्घायुरस्तु शुभमस्तु सुकीर्तिरस्तु सद्बुद्धिरस्तु धनधान्यसमृद्धिरस्तु ॥" सिद्धान्त रक्षक • डॉ० श्रेयांसकुमार जैन, महामंत्री -अ० भा० दि० जैन शास्त्रिपरिषद्, बड़ौत ( उ० प्र० ) आगम और अध्यात्मके तलस्पर्शी ज्ञानवाले महामनीषी सिद्धान्ताचार्य पण्डित बंशीधर व्याकरणाचार्यका व्यक्तित्व सिद्धान्त संरक्षक के रूपमें चिरस्मरणीय रहेगा, क्योंकि विगत पचास वर्षोमं जिन आगम विरुद्ध मान्यताओंका प्रचलन और प्रसार हुआ, उनका निराकरण पण्डितजीने आगम के परिप्रेक्ष्य में अपनी सिद्धहस्त लेखनी से किया । व्याकरण और न्यायके विषयोंकी विशद मीमांसाके साथ अध्यात्मके रहस्यको उद्घाटित करने वाले एकमात्र विद्वान् हैं । निश्चय व्यवहारकी आगमिक मीमांसा और खानिया तत्त्व चर्चा में आगम पक्षका प्रतिनिधित्त्व इनके जीवनका सर्वश्रेष्ठ कृतित्व है । अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रिपरिषद् के प्रमुख स्तम्भों में इनका श्रेष्ठ स्थान है । पण्डितजीने अपने जीवनका बहुभाग देव-गुरु-शास्त्रको मर्यादाके संरक्षण में समर्पित किया। आवं परम्पराका पोषण किया । जहाँ पण्डितजीका जीवन जैन सिद्धान्तके प्रचार-प्रसार में बीता, वहाँ उन्होंने राष्ट्रके हित में स्वतंत्रता सेनानी के रूप में स्वयं को समर्पित किया। पण्डितजी संस्कृति, कला, ज्ञान तथा विद्वत्ता के मूर्तिमान प्रतीक है। समाज तथा राष्ट्रकी धरोहर है । सिद्धान्ताचार्यका अभिनन्दन सरस्वतीका अभिनन्दन है । हम मंगल कामना करते हैं कि इनकी अजस्र लेखनी दीर्घकाल तक आगम-प्रभावनाकी निमित्त बनी रहे । १-४. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ स्वाभिमान और प्रज्ञाको मूर्ति .५० रविचन्द्र जैन, शास्त्री, दमोह श्रद्धेय पं० जी उन व्यक्तियोंमें है, जो अपना जीवन स्वयं निर्माण करते है। वे स्वतंत्र विचारक, गम्भीरचेता, महान् अध्येता और समयानुकूल समाजसुधारक है । उन्हें अपना प्रदर्शन बिलकुल पसन्द नहीं है । मौन कार्य करना ही उन्हें प्रिय है । स्पष्टवादिता, भौतिकतासे दूर रहना, प्रतिफलकी अपेक्षा न करना और सेवादष्टि रखना ये आपके सहज गण हैं। राष्ट, समाज और साहित्य इनके लिए समर्पित जीवन इनका लक्ष्य है। इनके द्वारा की गयी, इनकी सेवा अभिनन्दनीय है। ' जब भी विद्वानोंका प्रकरण आता है तो पण्डितजीका सादगीपूर्ण रहन-सहन, निश्छल वृत्ति, स्वतन्त्र व्यवसाय और गरिमामण्डित व्यक्तित्व आँखोंके सामने आ जाता है । इतने उद्भट विद्वान् होते हुए भी सामाजिक नौकरीसे कोसों दूर रहकर आपने अपना स्वतः व्यापार किया। फिर भी उसमें अनासक्त रहते हुए राष्ट्र, समाज और साहित्यको सेवामें संलग्न हैं । आपने किसीकी जी हजूरी करके अपना स्तर नीचे नहीं किया । स्वाभिमान आपका पहला गुण रहा है । इससे उन्हें जो मान-सम्मान मिला है वह किसी भी व्यक्तिके लिए स्पृहणीय है। स्वतन्त्र व्यवसायी होनेपर भी आप आगम और उसके सिद्धान्तोंकी रक्षामे निरन्तर संलग्न हैं । फलतः कई ग्रन्थोंकी रचना आपके द्वारा हुई है। यह भी सुयोगकी बात है कि आपके परिवारमें भारतीय स्तरके दो विद्वान भतीजों-५० बालचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री और डॉ० पं० दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य के द्वारा भी जिनवाणीकी सेवा हो रही है। इन्होंने भी अनेक ग्रन्थोंका सम्पादन-हिन्दी अनुवाद और लेखन किया है । यह समाजके लिए आपकी और आपके परिवारको उल्लेखनीय देन है । आपकी सामाजिक प्रवृत्तियाँ भी कम नहीं रहीं । गजरथविरोध, दस्सापूजाधिकार आदिमें सक्रिय भाग लिया और उनमें सफलता भी प्राप्त की। आप स्वतन्त्रता-सेनानी भी हैं। ऐसे जीवट एवं कर्मठ विद्वत्प्रवरको हमारी हार्दिक शुभकामनाएँ हैं। 'तुम जियो हजारों साल, सालके होवें वर्ष हजार ।' चिन्तनशील विद्वत्प्रवर .पं० भैयालाल शास्त्री, बीना विद्वत्प्रवर पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यसे मेरा परिचय सन् १९२५ से है, जब मैं श्री नाभिनन्दन दि० जैन पाठशाला क्षेत्रपाल ललितपुर (उ० प्र०) में अध्ययन करता था और पण्डितजी स्याद्वादमहाविद्यालय, वाराणसीमें पढ़ते थे । आप ग्रीष्मावकाशमें अपने साथियों-पं० परमानन्दजी साहित्याचार्य, पं० बालचन्द्रजी शास्त्री, पं० पद्मचन्द्रजी आदिके साथ क्षेत्रपाल में ठहरते हुए अपनी जन्मभूमि सोरईको जाते थे । उस समय आपसे अनायास भेंट हो जाती थी । व्याकरण बड़ा कठिन विषय माना जाता था, किन्तु आपने अपने अध्ययनका विषय उसे ही बनाया था। इससे छात्रोंको आश्चर्य होता था। बोनामें श्रीमान् शाह मौजीलालजी कठरया बड़े धार्मिक व्यक्ति थे । उनके एकमात्र कन्या थी, जिसके विवाहकी उन्हें चिन्ता थी । पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने उन्हें बंशीधरजीका नाम सुझाया । वे बनारस गये और बंशीधरजी योग्य अँचे और उनका सम्बन्ध उनकी लड़की लक्ष्मीबाईके साथ हो गया। पण्डितजी बीनामें रहने लगे और कपड़ेका व्यवसाय करने लगे। आपने भाव में अपनी एक बात रखी, कमती-बढ़ती Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएं : २३ बताना अच्छा नहीं समझा । फलतः उनकी दुकान एक विश्वस्त दुकान मानी जाने लगी और पण्डितजी जनजनके विश्वास पात्र हो गये। सामाजिक कार्यमें भी हाथ बटाते हए श्री नाभिनन्दन पाठशालाके संचालन में मंत्री बनकर कुशलता दिखाई तथा संस्थाको व्यवस्थित बनाया। मेरा भी यहीं बीनामें व्यापार करने में मन लग गया और इस तरह पण्डितजी और मेरा प्रतिदिन मिलना-जुलना होता रहा। इससे और अधिक निकटता होतो गयी और आज भी वह है। कभी-कभी मेरा जन भी उन्हीं के यहाँ होता है। पण्डितजी व्याकरणशास्त्रके विशेषज्ञ होकर भी विलक्षण दार्शनिक प्रतिभासे मण्डित हैं । व्यापार करते हुए भी सरस्वतीके सच्चे उपासक है। पण्डितजीकी विशेषता है कि वे प्रदर्शनसे दूर रहते हैं । वास्तवमें इने-गिने विद्वानोंमें वे एक हैं । वे अद्वितीय चिन्तनशील हैं। उन्होंने अपनी लेखनी और प्रवचनों द्वारा सोनगढ़ के उठे बवण्डरको नेस्तनाबत कर दिया। सोनगढ़के दृष्टिकोणके समर्थनमें लिखी गई 'जैनतत्त्व मीमांसा' के उत्तरमें आपने अकाट्य युक्तियोंसे युक्त 'जैनतत्त्वमीमांसाकी मीमांसा' लिखी । इतना ही नहीं 'जैनदर्शनमें कार्यकारणभाव', 'जैनदर्शनमें निश्चय और व्यवहार' तथा 'जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चाको समीक्षा' जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ भी आपने लिखे हैं । समाजने जो उन्हें उनकी सेवाओंके उपलक्ष्य में अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंट करनेका जो निश्चय किया है वह उचित और स्तुत्य है। हम ऐसे नि:स्वार्थ सेवी एवं सरस्वतीके वरदपुत्र सिद्धान्ताचार्य-व्याकरणाचार्यजीको हार्दिक शुभकामनाएँ अर्पित करते हुए उनके शतायुः होने को मंगल-कामना करते हैं । सम्पूर्ण जीवन बेमिशाल है • डॉ० जयकुमार जैन, संस्कृत विभाग, एस० डी० कालेज, मुजफ्फरनगर पूज्य पं० सरस्वती-वरदपुत्र पण्डित बंशीधर व्याकरणाचार्यका सम्पूर्ण जीवन राष्ट्रीय, सामाजिक एवं धार्मिक सभी क्षेत्रोंमें बेमिशाल है। धार्मिक क्षेत्रमें तत्त्वका निर्णय कर उसे प्रकट करने में उनकी निर्भीकता जैन पण्डित परम्पराके लि. सर्वथा अनकरणीय है। उनकी यह निर्भीकता देखकर विगत वर्ष इन्दौरमें विद्वत्परिषद्को कार्यकारिणीकी बैठकमें मैं दंग रह गया। मेरी तो स्पष्ट धारणा है कि _'अपूज्याः यत्र पूज्यन्ते पूज्यानां च व्यतिक्रमः । त्रीणि तत्र प्रवर्धन्ते दुभिक्षं मरणं भयम् ॥ प्रसन्नताकी बात है कि जैन समाज पूज्य पुरुषोंका व्यतिक्रम न करके उनकी सेवाओंका आकलन कर रही है । मेरी हार्दिक मंगलकामना है कि पूज्य पण्डित जी दीर्घायुष्य होकर हम युवकोंका मार्ग प्रशस्त करते रहें तथा अपने सार्वजनीन व्यक्तित्वसे राष्ट्र, समाज एवं धर्मकी सेवा करते रहें। आगमनिष्ठ विद्वान् .डा. रमेशचन्द्र जैन, सम्पादक-पार्वज्योति, बिजनौर ___ श्रद्धेय पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य को देखनेका सुअवसर मुझे तब प्राप्त हुआ, जब मैं स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी में उत्तरमध्यमाका छात्र था। विद्वत् परिषदकी कार्यकारिणीकी बैठक बनारसमें आयोजित थी. उपी पिलसिले में पण्डितजी भी आये हुए थे। रात्रिमें स्याद्वाद प्रचारिणी सभाकी ओरसे विद्वानों का अभिनन्दन था । मङ्गलाचरणके बाद छात्रोंसे कुछ बोलनेके लिए कहा गया। समस्त छात्र चुप रहे । विद्वानोंके सामने क्या बोलते । कुछ साथियोंने मेरी ओर इशारा किया। छात्रोंकी ओरसे कोई कुछ न Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ कहे, यह मुझे अखर रहा था। युवकोचित उत्साहसे प्रेरित होकर मैं बोलनेके लिए खडा हआ, विद्वानोंकी भरपूर प्रशंसा की साथ में विद्वत्-परिषद् और शास्त्रिपरिषद् जैसी दलबन्दीको समाप्त करनेका सुझाव भी दिया । कुछ विद्वानोंने इसे अपना अपमान समझा । फलस्वरूप मेरे बोलने के बाद ही विद्वान् दो खेमेम बैट गये । कुछ लोगोंने अपनी वाग्मिता द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि हम चाहे भले ही अलग-अलग विचारधाराओं वाले हों किन्तु एक दुसरेके लिए न्यौछावर रहते है। छात्रको बडोंको सीख देनेका अधिकार नहीं है । श्रद्धेय डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री प्रभृति विद्वानोंने मेरी बातका समर्थन किया और कहा कि मेरा कहना विद्वानोंके लिए एक खतरेको घंटी है, जिसे सुनकर विद्वानोंको आपसी मनोमालिन्यका परित्याग करना चाहिए। मेरी बाता रामर्थन पूज्य पण्डित बंशीधरजी, बीनाने भी जोरदार शब्दोंमें किया। इस प्रकार अपने में भी आधे वक्ताओंको बोलता देखकर मेरा भय कम हो गया और कुछ प्रसन्नता भी हई कि मेरे विचारों को आधार बनाकर विद्वानोंमें एक अच्छा मन्थन हो गया । बादमें पूज्य पंडित बंशीधरजीने मेरा परिचय पूछा और उन्हें यह जानकर बहुत खुशी हुई कि मूलतः मेरे पूर्वज भी उसो सोरई ग्रामके निवासी थे जहाँ पण्डितजीका जन्म हुआ है । इस घटनाके बाद अनेक बार पण्डितजीसे भेंट हुई । ये एक आगमनिष्ठ विद्वान् हैं। अपने दैनिक व्यवहार में भी वे सचाई और ईमानदारीका प्रयोग करते हैं । उनकी वाणी सुलझी हुई और शास्त्रोक्त होती है उन्होंने जिनवाणीका अध्ययन, मनन और चिन्तन किया है। रूढ़िवादितासे वे भी दुर है। दिगम्बरत्वके प्रति उनके मनमें अगाध श्रद्धा है। वे अनेक गुणोंके पंज है । मेरे हृदय में उनके प्रति हार्दिक श्रद्धा और बहमान है। पांडित्यके अभिनव हस्ताक्षर .श्री निहालचन्द्र जैन, व्याख्याता, बीना पंडित बंशीधरजी-समयकी शलाकापर लिखा एक ऐसा हस्ताक्षर है, जिसने चौरासी पड़ावोंकी यह जीवन-यात्रा निस्पृह और निलिप्त भावसे समाज व धर्मकी मक सेवा करते हुए तय की। आज भी उम्रकी इस दराजपर पहुँचकर यौवनकी कर्मठता लिए ज्ञानाराधनामें सतत संलग्न एक शिल्पकारकी भाँति साहित्यसृजनमें लगे हुये है । पंडितजीने समयकी चुनौतियोंको स्वीकार कर न केवल उनका करारा उत्तर दिया, अपितु अपने मौलिक चिन्तन और तर्कोसे जैनदर्शनकी गुत्थियोंको खोलने में लगे हैं। प्रायः स्थानसे व्यक्तिका परिचय जुड़ा होता है परन्तु जैन जगत में पं० बंशीधर ब्याकरणाचार्यजीके नामसे बीना नगरका परिचय जड़ा है। पंडितजीका व्यक्तित्व उस कोरी पुस्तकके समान है जिसमें ज्ञानपांडित्य, स्वाभिमान, कर्मक्षेत्रकी ईमानदारी, राष्ट्र सेवा भाव, निर्लोभवृत्ति यश व सम्मान चाहसे दूर आदि जैसे गुणोंके प्रतीक-पृष्ठ हैं और उन पृष्ठोंपर केवल पंडितजीके स्वर्ण हस्ताक्षर अंकित है। पंडितजी मेरे 'पूज्य बब्बा' हैं। क्योंकि सोरई और मड़ावरा पड़ोसी गाँव होनेगे आप मेरे पूज्य पिताश्री से जड़े रहे और जब मैं १९८३ में बीना आया तो पंडितजीने उसी भावसे स्वीकारा. जैसे एक पितामह अपने नातीको देखता है। मैंने न केवल आपके पास बैठकर स्वाध्याय किया, बल्कि पंडितजीके अनुभूत्य उपहारोंसे अपनी झोली भरी। वर्तमान परिप्रेक्ष्यमें पंडितजीको जैसा देखा और जाना उसे कह देना भी प्रासांगिक समझता हूँ। १. आपने अपने ज्ञान और पांडित्यको कभी व्यवसाय नहीं बनाया। २. नैतिकता व ईमानदारीको प्रतिमाकी प्राण प्रतिष्ठा आपने अपने व्यवसाय व कर्मक्षेत्र में की तथा अपने योग्य तीन पत्रोंको भी अपने गुणोंके अनुवतीं बनाया । यही कारण है कि बीना इटावामें आपका वस्त्र Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएँ : २५ प्रतिष्ठान एक ऐसी गौरवशाली परम्परा लिए है कि एक निश्चित लाभांश लेकर एक ही दामसे वस्त्र विक्रय करते है तथा एक पैसेकी टैक्स चोरी नहीं करते । ३. जोवनके प्रति एक रचनात्मक दृष्टि है। आपका कहना है कि यदि जीवनको पूर्ण नियम और संयमसे बिताया जाय तो दीर्घायु उपहार में मिल जाती है। यही कारण है कि आपका आहार, बिहार, अध्ययन-लेखन, शयन सभी दैनिक कम घडीको सुईयाने बँधा स्वानुशासित है। ४. सोनगढ़की एकान्त आँधीमें बड़े-बड़े नामधारी पण्डित ढलक गये लेकिन आर्ष परम्परा और स्याहाद-अनेकान्तके इस सजग प्रहरीने अपनी लेखनी उठाकर उस एकान्त विचारधाराका डटकर सैद्धान्तिक खण्डन किया और एक सशक्त साहित्यका प्रणयन कर दिशा-दृष्टि दी। __यह सुयोग ही समझना चाहिए कि आपके सुयोग्य भतीजे जैन जगतके ख्यातिप्राप्त विद्वान पं० डॉ० दरबारीलालजी कोठियाने बनारससे बीनाको अपनी कर्मस्थली बनाया और आपके परिवारमें दुध-पानीकी भाँति मिलकर समाज-सेवा एवं साहित्य साधनाको हो पूर्ववत् अपनाया। मै पंडितजीके दीर्घायकी मंगल कामना करते हए आपकी लेखनीसे प्रसूत अन्य साहित्यिक । आध्यात्मिक ग्रन्थोंके प्रणयनको आशा करता हूँ ताकि वे आनेवाले युगकी चुनौतियोंका सामना कर सकें और आर्ष परम्पराके संरक्षणके प्रतिमान बन सकें । पाण्डित्यकी प्रतिमति • पंडित विमलकुमार सोरया, सम्पादक-वीतराग वाणी, टीकमगढ़ वर्तमान शताब्दीके प्रथम श्रेणीके विद्वानोंमें सिद्धान्ताचार्य विद्वतरत्न पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य, बीनाका नाम आदरके साथ लिया जाता है। पंडितजीके सम्मानमें जो ग्रंथ आज प्रकाशित किया जा रहा है वह आजसे २० वर्ष पूर्व ही प्रकाशित होना चाहिए था। सैद्धान्तिक ज्ञानकी परिपक्वता व्याकरण और न्यायकी दीवाल पर आधारित होती है। श्रद्धेय पण्डितजी अभिधाओंके प्रतिभा सम्पन्न अधिकारी विद्वान हैं यही कारण है कि जैन दर्शनके परिप्रेक्ष्य में उनका प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोगका ज्ञान न्याय और व्याकरणकी तराजू पर सत्य रूपमें घटित हुआ । पण्डितजीका सैद्धांतिक ज्ञान जितना अथाह है दर्शनकी गहराई भी उतनी अलौकिक है। सामान्य श्रावकसे लेकर विद्वान तकके बीचमें आपकी आध्यात्मिक चर्चामें अपना मौलिक चिन्तन अपना तथ्यपूर्ण सत्य और अपनी विचारण सिद्धान्तके आलोकमें पूर्णतः प्राणवान देखी गई। विद्वत्ता स्वरूप व्यक्तिकी प्रवृत्ति से अनुभत किया जाता है। एक बार मैं और श्रद्धेय पण्डितजी एक साथ अशोकनगरमे किसी धार्मिक प्रसंग पर आमंत्रित किए गए। सौभाग्यकी बात थी कि जिस गाडीसे मैं अशोकनगर जा रहा था उसी गाड़ी और उसी डिब्बेमें श्रद्धय पण्डितजी भी थे। बड़ी प्रसन्नताके साथ हम पण्डितजीसे चर्चा करते हए जा रहे थे। अशोकनगर स्टेशन आते ही समाजके शताधिक व्यक्ति बडी-बडो मालाएँ-ध्वजाएं लिए हम दोनों को लेने बैण्ड-बाजों सहित आये हुए थे। जब पण्डितजी ने यह तमाशा प्लेटफार्म पर ट्रेनके पहुँचते हुए देखा तो मुझसे बोले सोरया जी आप गाड़ीसे नीचे उतरो मैं बाथरूममे शद्धि करके आता है। यह बात मैं समझ नहीं पाया और मैं जैसे ही प्लेटफार्म पर डिब्बेसे उतरा लोगोंने आगवानी करके मालायें पहनाना शुरू किया। उस भीड़ में २/४ मिनटके लिए भूल गया कि पण्डितजी भी गाड़ीसे उतरकर आने वाले है । जबकि पण्डितजी पिछले दरवाजेसे उतरकर पीछेसे अपना बैग लिए चुपचाप प्लेटफार्मसे आगे निकल गये । ट्रेन चलने लगी मुड़कर देखा कि पण्डितजी नहीं दिखे-मैने स्वागतकर्ताओंसे पण्डितजीके आने Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ की बात कही। पण्डितजीको लेने जब वह डिब्बेमें गए खोजा तो पता चला कि पण्डितजी तो कभीके स्टेशनसे निकलकर रिक्से में बैठकर शहरमें निकल गए थे । सार्वजनिक सम्मानकी आकांक्षासे दूर जिनकी यह धारणा रही हो, जो भड़कीले सम्मानमें अपना सम्मान न समझ रहे हो यथार्थतः उनका ज्ञान ही अपना ज्ञान है । पण्डितजीके समीप जब भी उनसे मिलने गया और कोई भी सैद्धान्तिक चर्चा उनसे की, उन्होंने उसे इतनी गहराई और मौलिकतासे स्पष्ट किया। जो अपने आपमें प्राणवान रही----जीवन में ऐसा प्रभावी अधिकारी विद्वान मैंने एक ही देखा । यथार्यतः ऐसे ज्ञान प्रतिभाका सम्मान उस समाजका सम्मान है जिसके बीच में पण्डितजी जैसा देदीप्यमान दिवाकर आलोकित है। ऐसे महान् गौरवशाली विद्वानके यशस्वी सुखी दीर्घ धर्ममय जीवनकी मंगल कामना करता हूँ । अद्वितीय साहित्य साधक • डॉ० प्रेम सुमन जैन, अध्यक्ष जैन विद्या एवं प्राकृत, उदयपुर वि० वि०, उदयपुर साहित्यकी सेवा करना और समाजको मार्गदर्शन देना ये दोनों कार्य एक ही व्यक्ति द्वारा सम्पन्न करना और फिर भी समादृत बने रहना दुष्कर कार्य है। किन्तु मध्यप्रदेशके सपूत सरस्वती-वरदपुत्र पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्यने इस साहित्य और समाजके संगमको सुकर बना दिया है। आपने विभिन्न प्राच्यविद्याओंकी उपाधियाँ प्राप्त कर सरस्वतीकी आराधना की, अनेक तलस्पर्शी ग्रन्थों और शोध-खोजपूर्ण लेखों द्वारा अनुसन्धानको दिशाबोध दिया तथा समाजकी विभिन्न समस्याओंका समाधान प्रस्तुत कर उसे एकताके सूत्र में बाँधनेका प्रशस्त प्रयास किया। अतः आज यदि पण्डितजीको अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया जाता है तो वह सर्वथा उपयुक्त है। पण्डितजीने साहित्य, समाज और राष्ट्रकी जो सेवाएँ की है, वे आदर्श है। जो इस राष्ट्रके नागरिक की पहिचान है। विद्यासे विनय और सादगी आती है, इस आदर्श के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं-व्याकरणाचार्यजी। मेरी उनके सुदीर्घ, स्वस्थ और सुखद जीवनके लिए हार्दिक मंगल कामनाएँ हैं। मेरे नानाजी • श्रीमती गुणमाला जैन, भारतीय स्टेट बैंक, इन्दौर उनके बारेमें लिखू, क्या न लिखू ? कहाँसे शुरु करूं ? कहनेको तो इतना अधिक है कि यह लेखनी भी शायद थक जाये। ३ बजे सबेरे उठनेसे लेकर रात ९-९॥ बजे तककी उनकी दिनचर्याको मैंने बहुत नजदीक से देखा, समझा और सोचा भो। लेकिन अनुसरण नहीं किया। उनके सरल और यथार्थतावादी व्यक्तित्त्वके सामने अपना अस्तित्त्व ही खो बैठती हूँ। बीनामें मेरे अध्यापनका कुछ समय बीता और उनके सान्निध्यमें रहनेका सौभाग्य मिला । और उन बीती बातोंका पिटारा अभी वर्तमान तक सुरक्षित रखे हुये हूँ । नानाजीके व्यक्तित्वके समान मेरी नानीजीका भी व्यक्तित्त्व सीधा सादा था। रातभर बिस्तर पर बैठकर कहानी सुनाती थीं । ऐसी कहानी सुनाती थी, जिसमें सत्य ही सत्य था, संघर्ष था और निरन्तर चलते रहने की प्रेरणा भी, वह उन कहानियोंके नायक और कोई नहीं नानाजी थे। जिनपर आज पूरा समाज गर्व करता है। कैसे बचपन बीता, कैसे बनारस पहुँचे, कैसे शादी हयी, कैसे स्वतंतत्रता-संग्राममें भाग लिया, किसलिये राजनैतिक जीवनसे संन्यास लिया और बीना जैन समाजके लिये गया-क्या सेवा की। यही उनमें था। यही कहानी में एक बार नहीं कई बार दुहराती है जब अपनोंमें बैठती हूँ तब । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाए २७ एक कोने में इच्छा जरूर दुबकी रही कि जैन संस्कृतिका जो संग्रह उनके पास है उसका अध्ययन कहें। लेकिन वह इच्छा पूरी नहीं हुयी । नानाजीके सामने तो कुछ समझ ही नहीं आता था कि उनसे किस विषयमें बात करूँ ? आते-जाते उनकी किताबोंपरसे धूळ झटकारती रही, लेकिन पृष्ठ पलटनेका प्रयत्न ही नहीं किया। मेरी बेटी पूर्णिमाने एक दिन मुझसे पूछा-संस्कृत क्या होती है माँ ?" उसके उत्तरमें मेरे पास सिर्फ इतने शब्द थे कि बेटा मेरे नानाजी संस्कृतके बहुत बड़े विद्वान है उसका प्रश्न और मेरा अधूरा उत्तर कचोटता रहता है कि नानाजीसे हम लोगोंने क्या सीखा ? अपना समय कितना व्यर्थं किया ? सचमुच ये समय के साथ-साथ ही चलते रहे और आज भी इस उम्र में भी उसी तरह गतिशील है अपने ध्येय की ओर । उन्हें मेरे श्रद्धा पूर्ण अनन्तशः नमन । यशस्वी सारस्वत • डॉ० आर० सी० जैन, प्रवाचक, सांख्यिकी विभाग, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन सरस्वती वरदपुत्र पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य के सम्मान में अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। यह प्रसन्नताका विषय है। समाजका यह कर्त्तव्य है कि वह समय- समयपर अपने विद्वानोंका अभिनन्दन कर उनका उत्साहवर्धन करें। पंडित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य राष्ट्र एवं समाजके एक यशस्वी और साहित्योपासक सारस्वत हैं। मैं उनके दीर्घ जीवनकी मंगल कामना करता हूँ । मौन साधक • श्री मिश्रीलाल जैन एडवोकेट, गुना जैनदर्शनके मनीषी विद्वान श्रद्वेय पंडित बंशीधरजी व्याकरणाचार्यका स्नेह, आशीर्वाद प्राप्त करने और उनके प्रवचन सुननेका मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ है । जैन दर्शनके विद्वानोंमें आपका विशिष्ट स्थान है आपका ज्ञान असीम और चिन्तन मौलिक है। जीवन सरल, सात्विक और निश्छल है। पंडितजी परम स्वाभिमानी हैं, पर उनमें अहंकार की गंध तक नहीं है । जैन दर्शनके विद्वानोंकी वाद-सी आ गई है। मूलसे अपरिचित विद्वानोंने जैन दर्शनको इतना मथ दिया है कि नवनीत खोजनेपर भी नहीं मिलता। मैं आदि तीर्थकर ऋषभदेव भगवान से पंडितजीके शतायु होनेकी कामना करता हूँ और आशा करता हूँ कि श्रद्धय पंडितजो अपनी मौन साधनाका परित्याग कर अपने अमूल्य ज्ञानसे भारतीय समाज और संस्कृतिको उपकृत करने की अनुकम्पा करेंगे। असाधारण मेधावी • डॉ० नरेन्द्रकुमार जैन, प्रवक्ता संस्कृत, राजकीय महाविद्यालय जक्खिनी, वाराणसी आदरणीय पं० वंशीधर जी व्याकरणाचार्य संस्कृत व्याकरणके वेसा होने के साथ जैन आध्यात्म, न्याय और दर्शनके उन रहस्योंके ज्ञाता और चिन्तक हैं, जिनको समझने में सामान्य पंडितोंकी मेधा काम नहीं करती । खानिया तत्त्वचर्चा-समीक्षा, निश्चय और व्यवहार जैसे गूढ़ - तत्त्वोंके रहस्यको खोलने वाले ग्रन्थोंका प्रणयन करके निःसन्देह आपने मूल जैन आम्नायके वाङ्मयके सिद्धान्तोंकी सुरक्षा करनेमें महनीय योगदान किया है । आप सरस्वती और लक्ष्मी दोनोंके वरदपुत्र हैं । आप किसी भी प्रलोभनके सामने झुके नहीं और आजीवन अपने आर्षसम्मत चिन्तनका परिचय देते आ रहे हैं। बीसवीं शतीके समीक्षक विद्वान यदि उनका अनुकरण करें तो उन्हें दिशा मिल सकती है । मैं उनके दीर्घायुष्य की कामना करता हूँ । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्य जिनवाणीनन्दनका अभिनन्दन •विद्यावारिधि डॉ० महेन्द्र सागर प्रचंडिया, अलीगढ़ आदरणीय पंडितरत्न श्री वंशीधरजी व्याकरणाचार्यका अभिनन्दन उनकी गुणगरिमाका अभिवन्दन है । गुणकी वन्दना करना हमारा स्वभाव भी रहा है और परम्परा भी। जिनपंथी सदा गणोंकी वन्दना किया करते हैं। नन्द शब्द मौलिक है जिसका अर्थ है पुत्र । पुत्र प्राप्तिसे बड़ा और अन्य कोई आनन्ददायिक प्रसंग नहीं होता है । इसी प्रसन्नतापर आधृत है आनन्द शब्द । नन्दका बहुअर्थयामा शब्द बना नन्दन । अभि उपसर्ग शुभ और विस्तारवादी है । इस प्रकार अभिनन्दन शब्दका अर्थ हुआ पुत्र प्राप्ति जैसा आनन्दातिरेक । पंडितजी जिनवाणीके वरदपत्र हैं। उन्होंने जिनवाणीमाताकी महनीय सेवा की है फिर न जाने कितने पुत्ररत्नोंका उन्हें असाधारण आनन्द भोगनेको मिला है। इसी सत्यको आधार बनाकर उनके प्रशंसक समुदायने इस शाब्दिक सत्कारको मूर्तरूप देनेका शभ संकल्प किया है। भावना है कि इस शुभ संकल्प प्रतिमें वे आशातीत सफलता प्राप्त करें, मेरी मंगल कामनाएँ है और भावनाएँ भी। मेरी सम्मतिमें यह काम कम-से-कम अर्द्ध दशाब्दि पूर्व हो जाना चाहिए था। वन्दनाके अवसरपर मेरी तमाम श्रद्धा सुमन शाब्दिक वातायनसे उन्हें सम्प्रेषित है । भावना और कामना है कि महामनीषी पंडित जी दश दशाब्दियोंका निर्बाध जीवन व्यतीत करें। बुन्देलखण्डकी थाती .५० बालचन्द्र शास्त्री, नवपाराराजिम बुन्देलखण्डकी माटी ऐसी है जिसने बड़े-बड़े वीरोंको जन्म देकर देशको स्वतन्त्र और समद्ध बनाया है और जैन विद्वानोंको जन्म देने में वह विश्रुत है। यथार्थता भी यही है कि अभी जितने भी गणमान्य विद्वान हैं उनमेंसे अधिकांश विद्वान् बुन्देलखण्डके ही हैं और इसका श्रेय परमपूज्य १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णीजीको ही है जिनकी जन्म स्थलो ग्राम हंसेरा (उ० प्र०) के पास वाले गाँव सोरई में हमारे परमविद्वान व्याकरणाचार्य पं. बंशीधरजीने जन्म लेकर बुन्देलखण्डको हो गौरवान्वित किया है। आपने जैन समाजमें व्याप्त बुराईयों, रूढ़ियोंको दूरकर तथा ज्ञानके माध्यमसे नये प्रमाण और निश्चयनय, व्यवहार नयको स्थितिको स्पष्ट किया है। खानियाँकी तत्त्वचर्चा जैसी चर्चा में भी भाग लेकर प्रतिष्ठा प्राप्त की है। देशकी स्वतन्त्रता प्राप्तिमें भी आपने प्रहरीका कामकर जेल यातनाओंको भी झेला है, उसमें आपके दढ संकल्पने ही काम किया है, और देशको स्वतन्त्रता प्राप्तिमें सहयोगी रहे हैं। यह देशभक्ति भी प्रशंसनीय है। देश तथा समाजकी भारी-भारीका गई इन सेवाओंका प्रतिफल में मात्र अभिनन्दन करके ही हम संतुष्ट हो रहे हैं। जबकि ऐसे व्यक्तित्वके प्रति समाजका कर्तव्य होता है कि उनके प्रतिष्ठाके अनुरूप शोध संस्थान जैसी संस्था स्थापित कर दी जाती। अन्तमें आपके उज्ज्वल भविष्य, यशस्वी और दीर्घायु जीवनकी भगवानसे प्रार्थना करता हूँ। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वतंत्र व्यक्तित्व के धनौ • पं० कमलकुमार शास्त्री, टीकमगढ़ " उन दिनों में सागरमें रहता था । श्रद्धेय पं० जीसे कोई विशेष परिचय भी नहीं था । उस समय मेरी उम्र ही क्या थी केवल १९-२० वर्षकी लेकिन मैं भी पंडित कहलाने लगा था। मैंने सुन रखा था कि वीन में कोई बंशीधर नामके विद्वान रहते हैं। मैंने कल्पना कर रखी थी कि व्याकरणाचार्य है व्याकरणके विद्वान्, रूक्ष स्वभाव, नीरस विषयका अध्ययनसे नीरस जीवन, कड़ा व्यक्तित्व समाजसे दूर भागनेवाला एकाकीमन पसंद करनेवाले होते हैं । फिर वे कपड़े की दुकान करते हैं । और मैं भी डरता सा था कि व्याकरणके विद्वान् हैं वैसे ही रूखे स्वभाव के होते हैं इनसे क्या मिलना। ऐसे ही बहुत दिन बीत गये । मैं सागर छोड़कर पपौरा विद्यालय में अध्यापक हुआ । सन १९६५ की बात है उसी समय पपौराजी में भारत वर्ष के प्रसिद्ध मुनिसंघ आचार्य शिवसागरजी का चातुर्मास सम्पन्न हुआ। श्रद्धेय पं०जीको आमंत्रित किया गया। पहलीबार ही उनके दर्शन किए थे। सफेद खद्दरका कुर्ता, खद्दरकी धोती और सफेद टोपी, लम्बा कद, मिलनसार जीवन सरलताकी प्रतिमूर्ति, हंसमुख चेहरा, विनोद पूर्ण वार्तालाप, अगाध पांडित्य, मीठी वाणी, मधुर व्यवहार, सादा जीवन, उच्चविचार, स्वतंत्रता प्रेमी और जिन्होंने शिक्षा को कभी आर्थिक आधार नहीं माना । आजीविकासे भी स्वतंत्र और स्वतंत्र विचारोंसे भरा हुआ व्यक्तित्व । मेरी पुरातन धारणाओं से बिलकुल विपरीत पाया मैंने उनको । अतः देखकर प्रसन्नता हुई । और जब आपका भाषण हुआ सभा मंत्र-मुग्ध हो सुन रही थी । आपकी सम्यग्दर्शन की व्याख्या सम्यग्दृष्टि और उसका दर्शन (विचार) क्या है इसकी विवेचना पं० जी कर रहे थे । उन्होंने कहा कि मैं सम्यग्दर्शनकी व्याख्या किताबों, शास्त्रों और पुराणोंके माध्यम से नहीं बताऊंगा मैं तो सम्यग्दृष्टिके उन बहिरंग विचारोंकी चर्चा कर रहा हूँ जिसे वह व्यावहारिक जीवन में उतारता गहरे मत जाइए मैं कहता हूँ कि एक सम्यग्दृष्टि दुकान पर धोती लेने जाता है। वहीं दूसरा व्यक्ति भी था। सम्यग्दृष्टिने धोती दिखाने को कहा, दूसरा व्यक्ति भी धोती ही लेना चाहता है दोनोंने धोती देखी, दूसरा कहता है कोई अच्छी सी किनार वाली धोतो दिखाइए जबकि इसका सूत कपड़ा बड़ा सुन्दर था। सम्यग्दृष्टि बोला भाई किनार पहनोगे या धोती मुझे किनारसे मतलब नहीं मुझे धोती चाहिए शरीर को ढकनेके लिये । क्या । 7 मखमली क्या सूती। दूसरा बिगड़ पड़ा ऐसा क्यों कहते हो। यही तो बात है जिसने जीव और पुद्गलके स्वरूपको ठीक-ठीक समझा होगा वही इन बातोंको समझ पायेगा यही तो सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि में अन्तर है। हृदयसे जिस दिन ये भेद भाव निकल जायगा अच्छा क्या और बुरा क्या दोनों दूर खड़े होंगे। समताका रस वह रहा होगा, अंगरंगमें समझो वही सम्यग्दर्शन विद्यमान है। इस तरह पं० जीके प्रवचनने मुझे आकर्षित किया फिर तो कई बार बीनामें आपसे मिला। आपको लिखी हुई जैन तत्त्व मीमांसाकी मीमांसा, निश्चय और व्यवहार आदि किताबें पढ़ीं, चर्चा हुई तबसे ही पं० जोका बहुत भक्त हूँ। उनके दीर्घजीवनकी मंगल कामना करता । सावर अभिनन्दन ● पं० लक्ष्मणप्रसाद जैन न्या० ती शास्त्री, मड़ावरा ० १ / आशीर्वाचन संस्मरण, शुभकामनाए २९ नय, प्रमाण -- सापेक्ष साधित पक्ष स्याद्वाद - अनेकान्तक धर्म-धर्मी, समावेशित वस्तु स्वभावी । अनेकान्त विश्व शान्ति, सुखका एक मात्र सावनोपाय | अहिंसा, कर्मवाद अनीश्वरवाद इत्यादि जैनधर्मकी असाधारण विशेषताओं एवं क्रम, अक्रमबद्ध पर्यायोंके समालोचक तथा श्री भगवान कुन्दकुन्दाम्नाय यथानुपधिक सरस्वती पुत्र पं०जीका सादर अभिनन्दन । 7 १-५ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ आदर्श विद्वान् .श्री नेमिचन्द्र जैन, प्राचार्य गुरुकुल, खुरई पंडित बंशीधर जी जैनधर्मके ज्ञाता-भारतीय विद्वानोंमें मर्धन्य है। इन्होंने काशीस्थ स्याद्वाद दि० जैन महाविद्यालयमें रहकर व्याकरण शास्त्रका गहन अध्ययन किया और व्याकरणाचार्यको उच्चतम उपाधि प्राप्त की । उच्चतम शिक्षा प्राप्त करनेके बाद अधिकांश विद्वान समाज या शासनके आथित हो जाते है। परन्तु पंडितजीने न समाजपर अवलम्बित रहे और न शासनपर । स्वयंका कपड़ेका व्यापार करते हुए सम्पन्नता अजित की तथा सामाजिक प्रतिष्ठा भी। इन्होंने व्यापार करते हुए भी निरन्तर स्वाध्याय करते हुए कई ग्रन्थों की रचना की है जो वर्तमानमें पठनीय, विवेचनीय एवं विचारणीय है। पंडितजीका अगाध पाण्डित्य सम्पूर्ण भारतके विद्वानों द्वारा प्रशंसित है। पंडितजी अप्रतिम प्रतिभाके धनी, स्वावलम्बन पूर्ण जीवन जीनेवाले, स्वतन्त्र विचारक श्रेष्ठ लेखक एवं समालोचक हैं। उनका जीवन वस्तुतः आदर्श एवं अनुकरणीय है । वे शतायु हों, ऐसी हार्दिक मंगल कामना है । सरस्वती के अनुरागी .पं. जम्बूप्रसाद शास्त्री, मड़ावरा आपके गुणों एवं सरस्वतीकी महान सेवारती देखकर जो समाज एवं विद्वतगणोंने आपके अभिनन्दन करनेकी योजना बनाई है, सो अति श्लाघ्य है । आपने जो जैनोंमें भी एकान्तवादका गलत प्रचार हो रहा है । उसे अपने साहित्य द्वारा जैसे निश्चय-व्यवहार, निमित्त, उपादान व क्रमबद्ध पर्याय आ व उपयोगिताको सिद्ध किया है। और फैले हए अज्ञान अन्धकारको दूर करनेका प्रयत्न किया है तथा आपने अपने जीवन में-विधा एवं अर्थका अच्छी तरहसे संचय किया है। इसी तरहसे आपने विद्या, एवं अर्थका दान भी अच्छी तरहसे किया। यह आपकी महानता है। यह सरस्वती और लक्ष्मीका एक स्थानमें सम्बन्ध जोड़ा इसलिए आपने जो साहित्य लेखन किया और उसका अपने ही द्वारा स्थापित किये फण्डसे प्रकाशित कराया। इससे आपको साहित्य प्रकाशनके लिये परमखापेक्षी नहीं बनना पड़ा, स्वतंत्रतासे आपने समाजकी और धर्मकी जो सेवाएं की हैं वह सदा स्मरणीय रहेंगी। आपके गुणोंकी क्या प्रशंसा को जाय । मनुष्य गुणोंसे ही उन्नत होता है उच्च आसन पर बैठनेसे नहीं, आपका हमारा सम्बन्ध चिरकालसे है अनेक जगह वाचनाओंमें मिलनेसे, अनेक तत्त्वचर्चा आदि करनेका भी शुभ अवसर मिला । आपका हमारे ऊपर घनिष्ठ स्नेह है और हमारी भी आपके प्रति अति-श्रद्धा । ऐसे माननीय सरस्वतीके अनुरागी, वरद-पुत्रके प्रति सविनय विनयाञ्जली समर्पित और आरोग्यता सहित चिरायु होनेको कामना करता हूँ। देश श्रुत और समाजसेवी .श्रीमती पुष्पलता 'नाहर' बाँसातारखेड़ा आदरणीय पं० बंशीधर जी शास्त्री बीना देशप्रेम, श्रुतज्ञान और समाजसेवाके अनुपम आगार है। उत्तम व्यवसायी होकर भी आपके द्वाराकी गयी तसेवा इलाध्य है। आगमके आप मर्मज्ञ विद्वान् हैं । विद्वानोंका अभिनन्दन समाजका अभिनन्दन है। उनकी सेवाओंको ध्यानमें रखते हुए उन्हें अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किये जानेकी योजना स्तुत्य एवं सराहनीय है। चौरासी वर्षीय वयोवृद्ध विद्वान् पं० बंशीधर जी शास्त्रीके अभिनन्दन समारोहके अवसर यहाँकी महिला-समाज कामना करती है कि शास्त्रीजी अधिकसे अधिक आयु प्राप्त करें, स्वस्थ रहें और स्वस्थ रहकर चौरासीके चक्रसे निवृत्त हो। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान व्यक्तित्व के धनी पं० विजयकुमार जैन, साहित्याचार्य, दर्शनाचार्य, श्रीमहावीरजी वर्तमान जैन विद्वत् समाजमें श्री पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य एक ऐसे विद्वान् हैं जिनका नाम हृदय पटलपर अंकित होते ही राष्ट्रसेवा, समाज सेवा, साहित्य सेवा एवं अनवद्य विद्वत्ताका मूर्त रूप साक्षात्कृत् हो जाता है । आपकी गंभीर मनीषा एवं सरलताके प्रति श्रद्धाभावसे हृदय ओतप्रोत और माथा अवनत हो जाता है । आप हैं जैन समाज के प्रथम प्रसिद्ध व्याकरणाचार्य । कितने भाग्यवान हैं पं० व्याकरणाचार्यजी, कि सरस्वती और लक्ष्मी जिनके आजू-बाजू सेवाके लिये खड़ी हैं। राष्ट्रके प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी होते हुए भी आजकी कुटिल राजनीति से पूर्णतः विरक्त समाजमें व्याप्त धार्मिक कुरूड़ियोंपर आपने सक्रिय प्रहार किया और गजरथ जैसी अपव्ययी प्रवृतिका दृढ़तासे विरोध किया। वर्णों प्रत्यमाला अनेक वर्षो मंत्री रहकर जहाँ आपने अद्वितीय साहित्य सेवा की, वहीं खानिया तत्त्व चर्चा - समीक्षा, जैनशासन में निश्चय और व्यवहार जैसे चिन्तनीय ग्रन्थोंकी रचनायें जैन आगमका विलोडनकर आपने जिनवाणीकी अपूर्व सेवा की है। इन ग्रन्थरश्नोंके माध्यम से जैनागमके क्षेत्र में उठी भ्रान्तियोंको आपने अपनी समन्वयात्मक समीक्षासे दूर कर सम्यक् तत्त्वबोध प्रधान किया। भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत् परिषद् के अध्यक्ष पदसे आपने जैन विद्वानोंको साहित्य व समाज सेवा एवं जैन तत्त्व ज्ञानके प्रसार की नयी दिशा दी है । १ आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएं ३१ 1 ऐसे ज्ञानपुज सहृदय एवं सरल चेता पं० जी का अभिनंदन करते हुए कामना है शताधिक वर्षों तक साहित्य समाज सेवा व जैन तत्वज्ञानका उद्घाटन करते हुए, हम सबके लिये अविरल प्रेरणा प्रदान करते रहें । , बहुमुखी प्रतिभा के धनी ● पं० हरिश्चन्द्र शास्त्री, श्री गो० दि० जैन सि० सं० महावि० मुरैना श्रद्धास्पद पूज्य पंडित जी समाजके मान्य विद्वानोंमें एक है। आप व्याकरण शास्त्र के साथ-साथ जैन सिद्धान्त एवं जैनदर्शनके भी महान् जाता हैं । इसका प्रमाण है आपके द्वारा लिखे गये दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक ग्रन्थ है । आप स्वयं एक दिनचर्या हैं। मैं पण्डितजीसे तो कुछ प्राप्त नहीं कर सका, पर उनके दर्शन से ही अपने आपको धन्य मानता हूँ। ऐसे पूज्य पंडितजी के प्रति मैं मन, वचन, कायसे उनके चिरायु होनेकी मंगल शुभकामना करता हुआ, उनके चरणोंमें प्रणाम करता हूँ । जिनवाणीके अपूर्व सेवक • पं० जमुनाप्रसाद शास्त्री, कटनी मान्यवर श्रीमान् बंशीधरजी जैन व्याकरणाचार्य हमारे के चिर परिचित है। उनका सामा रण जीवन, उच्च विचार, अनुपम ज्ञान, सरल स्वभाव सदा रहा। पं० जीने सदैव धर्म समाज एवं राष्ट्रकी सेवा तन मन धनसे को आप स्वतन्त्रताके महासमरके सेमानी भी थे। जीवन एक विनम्र व्यापारीके रूपमें बिताया। आपके किये यश और अपयश एक-सा रहा कोई विकार नहीं । गृह लक्ष्मीके वियोग होनेपर भी आपने अपना मार्ग नहीं छोड़ा और जिनवाणीकी अपूर्व सेवा कर रहे हैं। आपको कोई लोभ देकर विचलित नहीं कर पाया । ऐसे सेवाभावी गुरु बंशीधर व्याकरणाचार्य युग-युग जियें - उनका नाम अमर रहे । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ धर्म, समाज और राष्ट्र-सेवाके संगम • डॉ० कस्तूरचन्द्र 'सुमन' प्रभारी जनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी देशके जैनागम-अध्येताओंमें 'व्याकरणाचार्य' पदसे विश्रत पं० बंशीधर जी शास्त्रीका नाम सर्वोपरि है । आपने आगमका मर्म समझा है। आगमके विरोधमें दिये गये वक्तव्योंका निर्भीकता पूर्वक परिहार भी किया है। आगमकी यथार्थताका उद्घाटन करनेमें आप कभी पीछे नहीं रहे। खानियाँ तत्त्वचर्चामे आपका नाम विशेष रूपसे चचित रहा है । 'जैनशासनमें निश्चय और व्यवहार' पर्याएं क्रमबद्ध भी है और अक्रमबद्ध भी आदि ग्रन्थ आपके आगम स्नेह की ही देन है। समाज सेवाके तो आप सजग प्रहरी है। अशिक्षा, अल्पशिल्पसे ग्रस्त प्रदेशमें बहुव्ययसाध्य बहुलतासे होनेवाले गजरथ जैसी प्रवृत्तियोंका भी समाजके हितोंको ध्यान में रखते हुए आपने विरोध किया है । समाजके किसी वर्गका जैनी हो, भले ही वह दस्सा ही क्यों न हो, उसे अर्हत-पूजाका अधिकार दिलानेमें हमेशा आप प्रयत्नशील रहे हैं। देश-सेवाके तो आप अग्रदूत ही हैं । देशके लिए आपने सहर्ष जेल-यातनाएं सही हैं । राष्ट्रमें आज स्वतन्त्रता संग्राम सेनानीके रूप में आपका बड़ा सम्मान है। चौरासी वर्षकी अवस्थामें भी आप नित्य प्रातः चार बजे सोकर उठ जाते हैं। अनवरत २ घंटे अध्ययन करते हैं । आहार इतना अल्प रह गया है मानो शरीरकी स्थितिके लिए ही आहार लेते हों । आप धर्म, समाज और देश सेवाके संगम स्थल हैं। ऐसे धर्म, समाज और राष्ट्रसेवी मनीषीको अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करनेका निर्णय समाजके गौरवका विषय है । पूर्ण हर्षोल्लासके साथ इस समारोहका आयोजन होना चाहिए । इस अवसरपर मैं वर्द्धमान भगवानसे कामना करता हूँ कि अभिनन्दनीय श्री पं० व्याकरणाचार्यजी स्वस्थ रहें और दीर्घतम आयु प्राप्त कर इसी प्रकार धर्म, समाज और राष्ट्रकी सेवा करते रहें। देश और समाज की निधि सरलता की मूर्ति को। ___ शत शत नमन अर्पित 'सुमन' श्रुतसेवियोंके चमन को ।। शुभकामनाएँ • डॉ० श्रीमती रमा जैन, साहित्यरत्न, न्यायतीर्थ, छतरपुर मेरा ज्येष्ठ पुत्र प्रो० सुमतिप्रकाश जैन शास० महाविद्यालय बीनामें कार्यरत है। इस निमित्तपे एक बार मुझे अपने पति (डॉ० नरेन्द्र विद्यार्थी) के साथ बीना जानेका अवसर मिला। हम लोगोंके आगमनकी सचना मिलते ही पज्य पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यने हम लोगोंको भोजनके लिए निमंत्रित किया । हम लोग उनकी और उनके पूरे परिवारकी आतिथ्यभावनाको देखकर गदगद हो गये। भोजनोपरांत दोपहरको जब पंडितजी अपने भतीजे पं० दुलीचंद्रजीको समयसारका पारायण करा रहे थे, मैं भी उसमें सम्मिलित हो गयी। उस समय प्रकृत विषयमें प्रस्तुत शंकाओंका समाधान पंडितजीने विद्वत्तापूर्ण ढंगसे किया। उनकी ताकिक एवं दार्शनिक शैलीने मुझे अपने गुरु स्व० ५० नेमीचंद्रजी ज्योतिषाचार्यका स्मरण दिला दिया। मुझे ऐसा प्रतीत हआ कि पं० श्री न केवल व्याकरणके आचार्य हैं, अपितु न्याय एवं जैन दर्शनके भी आचार्य हैं । आज भी उनका स्मरण आते ही ऐसा लगता है कि पुनः अवसर मिले और मैं उनके प्रवचनमें सम्मिलित होकर कुछ ज्ञानकण प्राप्त करूँ। ऐसे बहुश्रुत विद्वान् पण्डितजी शतायु हों, यही मेरी मंगल कामना है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएं : ३३ निरभिमान व्यक्तित्व .५० भैया शास्त्री आयुर्वेदाचार्य, शिवपुरी ० शान्तिदेवी शास्त्री, शिवपुरी एवं उनके परिवारके समस्त सदस्यगण इतिहासके पष्ठोंको पलटकर देखें तो आचार्य परम्परा तथा पण्डित परम्परा कुन्दकुन्द स्वामीसे लेकर आज तक अविच्छिन्न रूपसे चली आ रही है। आचार्य परम्परामें उनकी स्तुति, शिलाखण्डों या ताम्रपत्रों पर प्रशस्तिके रूप में उत्कीर्ण की जाती रही । लगभग ४०-५० वर्षासे विद्वानों व श्रीमानोंके सम्मानमें-अभिनन्दन या स्मृतिग्रन्थ प्रकाशित कर अभिनन्दन परम्पराका उदय हुआ जो अब द्रुतगतिसे समाजके सामने गतिवान होता जा रहा । विद्वानोंके कृतित्व एवं व्यक्तित्वके प्रति सम्मान ज्ञापित करनेकी परम्परा एक स्वच्छ एवं मानद परम्पराके रूप में अनुकरणीय बनती जा रही है, इस परम्पराके निर्वाहमें आज तक लगभग पचास मनियों, विद्वानोंका या श्रेष्ठ वर्गका सम्मान किया जा चुका है उनका यह सम्मान इतिहासमें अमर रहेगा। इस गौरवपूर्ण परम्पराके उपक्रममें इसी दशकमें चार पाँच विद्वानोंका अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कर उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की जा चुकी है। कुछ विद्वानोंके अभिनन्दनकी बात सुनी जा रही है। कुछ विद्वानोंके अभिनन्दन ग्रन्थ अधूरे है, कुछ के प्रेसमें, कुछ पूर्ण होकर सामने आ रहे है इसी शृंखलामें प्रस्तुत अभिनन्दनग्रन्थ पाठकोंके हाथ में है। वस्तुतः सरस्वती और लक्ष्मीके वरदपुत्र श्री बंशीधरजी व्याकरणाचार्य जिस गरिमाके उत्कृष्ट स्थान पर हैं वे स्वयं अपने में एक ही हैं, उनका व्यक्तित्व और कतत्व एक अनूठा और अनोखा है। पं० श्री स्वतन्त्र व्यवसायी होकर सुधारकके रूप में अपने विचारोंके स्वतन्त्र रहे हैं यही कारण है कि गजरथ विरोधी आन्दोलन, राष्ट्रीय आन्दोलन, जैन तत्त्वमीमांसाकी मीमांसा बड़ी निडरतासे तलस्पर्शी-तर्कपूर्ण रूपसे लिखी गई। उनका जीवन समाज सुधारकी दिशा बोधमें बीता है, निर्भीकतासे समाजमें व्याप्त कुरीतियोंके उखाड़ फेंकनेमें शंखनाद किया है तो इन्हीं मनीषी विद्वानने किया । “विद्वान् समाजका दर्शक होता है" इस तथ्यको सिद्ध कर दिया है। उनकी मधुर वाणीमें सरलता है मन और मस्तिष्कमें साहस है। उनमें देवशास्त्र गुरुके प्रति अटूट श्रद्धा है, भक्ति है। अप्रतिहत प्रतिभा उनकी संगिनी है। ऐसे सिद्धान्ताचार्य पण्डितवर्य जो स्वाभिमानकी गरिमासे गरिष्ठ एवं वरिष्ठ हैं उनके प्रति अनेक शुभ कामनाएँ हैं कि वे शतायु होकर समाजको दिशा बोध करते रहें। मेरी उन्हें शुभ मंगल कामनाएँ •पण्डित मुन्नालाल जैन, शास्त्री संस्कृत-प्रवक्ता, श्री तारणतरण जैन उ० मा० वि०, गंजबासौदा श्रद्धेय परम-पूज्य पण्डित बंशीवरजी व्याकरणाचार्य बीनाका जीवन-चरित्र प्रशंसनीय ही नहीं, अपितु अनुकरणीय है। लक्ष्मी एवं सरस्वती दोनोंका योग विशेष पुण्यसे ही मिलता है । पर आपमें दोनोंकी कृपा है। प्राकृतिक सौम्यता एवं मुस्कराहट अन्तरकी भद्रता तथा मन्द कवायके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । 'सत्वेष मैत्री गणिषु प्रमोदं' वाली बात आपके जीवनमें चरितार्थ दिखती है। अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन समितिने आपके अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशनका जो निर्णय लिया है एवं डॉ० दरबारीलालजी कोठिया को इसका प्रधान सम्पादक बनाया गया है। मैं अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन एवं पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य के दीर्घ आयु होने की मंगल कामना करता है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ . सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ समाजकी नब्जके पारिखी • आचार्य जिनेन्द्र, सासनी (अलीगढ़) “चारित्तं खलु धम्मो" के अनुसार आज भी प्राचीन कड़ीके मोती यत्र-तत्र देखने | दर्शन करनेको प्राप्त हो जाते हैं। ऐसे ही प्रेत शास्त्र व्याकरण चारित्रके धनी पं० बंशीधरजीके दर्शन मझे उनके स्थायी निवास बीना (मध्य प्रदेश) में हुए । पं० जी संस्कृत भाषाकी कठिनतम विधा व्याकरणसे आचार्य है। उस समय व्याकरणसे आचार्य करना जैन समाज के लिये तो कौत्क/गौरबकी ही बात मानी जाती । अगस्त १९७३ में नाभिनन्दन संस्कृत विद्यालय, बीना में मात्र ३ माहके लिये पढ़ाने गया । प्राचार्य पं० मोतीलालजी थे। पं० बंशीधरजीके पास प्रतिदिन बैठता था। उन्हें देखकर मुझे स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसीके वैयाकरण दिवाकर जोशीजीकी उक्ति याद आती कि बेटे, व्याकरण पढ़ना-लोहेके चने चबाना है, क्योंकि यह लोक कहावत है डाल गले में गंथरी, निश्चय जानो मरण । कु. च, ट. त.प रटिये, तब आवे व्याकरण । किन्त श्रद्धेय पं. बंशीधरजी जहाँ इतने काठन विषयके विद्वान हैं वहीं एक बड़े प्रतिष्ठित वस्त्रव्यवसायी भी है। मैंने देखा पर्यषणमें जब पं० जी धर्म-ध्यानमें अधिक समय लगाते तो ग्राहक दुकानके बाहर बैठे रहते कि जब पंजीकी दुकान खलेगी तभी हम खरीददारी करेंगे। उनकी नैतिकता और विश्वास इसका कारण था । पं० जी गम्भीर विचारक एवं समाज धर्मके ज्ञाता है। मैं गाडरवाड़ा दशलक्षण पर्व में प्रवचन करने गया। वापिस आया तो वहाँको समाजके एक दलाल महोदय एवं मुंशीजीका पत्र आया कि हमारी भेंट/ दक्षिणा वापिस करो या फलां संस्थाको दानको रसीद भेजो। मैं आश्चर्य असमंजसमें था कि जिस समाजने भक्तिभावसे प्रवचन सुना और पैर छू-छूकर स्टेशन तक भेजने आये, उनके नुमाइन्दोंकी ऐसी हरकत ? मैंने पं० जीसे इस घटना चक्रका जिक्र किया तो पं० जी गम्भीर मुद्रामें विचारपूर्वक बोले शास्त्रीजी आप समस्त दक्षिणा वापिस भेज दो। यह समाज सेवा है। समाजका अनुभव अभी आप और करगे । उनके अन्तर्मनकी अनुभूति मैंने समझ ली और तुरन्त वैसा ही किया । आज सोचता है कि पण्डितजी जैसे व्याकरणविद, धर्मशास्त्रके ज्ञाता वैतनिक समाज-सेवासे दूर कैसे रहे ? वे सचमुच समाजकी नब्ज के पारिखी है। तभी तो उन्होंने मूक चिन्तन लेखनके साथ-साथ स्व व्यव. सायी/स्वावलम्बी रहनेका निश्चय किया। वे सचमुच सरस्वती पुत्र हैं। उनके साथ रहकर एक अनुभवजन्य ज्ञानकी प्राप्ति होती है। वे सदैव स्वाध्याय करते हैं और गम्भीर विषयोंपर लेखनी चलाते हैं । सत्य धर्मका पालन व्यापारमें करनेका मूलमंत्र तो कोई पण्डित श्री बंशीधरजी व्याकरणाचार्य, बीना वालोंसे पूछे । उन जैसे मनीषीका मैं अभिनन्दन एवं अभिवन्दन करता है। मेरी शतशः उन्हें शुभ कामनाएँ हैं । अभिवन्दनीय पण्डितजी .श्री श्रेयांस जैन, पत्रकार टीकमगढ़ (म० प्र०) श्रद्धेय पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य एक ऐसे सारस्वत हैं, जिनकी सरस्वती चतुर्मुखी है । हम देखते हैं कि उन्होंने समाज, राष्ट्र, साहित्य सभी क्षेत्रोंमें अपनी सरस्वती का सफल उपयोग किया है । उन्होंने समाजको विखण्डित करने वाली रूढ़ियोंको दूर करने में सक्रिय कदम बढ़ाया है। १९४२ के 'भारत छोड़ो' . Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएँ : ३५ राष्ट्रीय स्वतन्त्रता-आन्दोलनमें न केवल भाग ही लिया है, अपितु ९, १० माह जेल में भी रहे । अपने क्षेत्रमें कांग्रेसके सदस्य बनकर राष्ट्रकी निरन्तर सेवा की है। आश्चर्य यह है कि आपने इन सामाजिक और राष्ट्रीय प्रवृत्तियोंके साथ आर्ष सम्मत सैद्धान्तिक, दार्शनिक और तार्किक लेखों एवं ग्रन्थों द्वारा सम्यग्ज्ञानका भी प्रचार किया है। ऐसी बहमखी सेवाओंके उपलक्ष्यमें उनका अभिवन्दन एवं अभिनन्दन नितान्त आवश्यक था। आज समाज उनका अभिनन्दन कर रहा है, यह परम प्रमोदकी बात है। मैं भी एक लघु पत्रकारके नाते इस अवसर पर उनका अभिवन्दन करते हए अपने श्रद्धा-पुष्प अर्पित करता है कि वे हम लोगोंको दीर्घकाल तक मार्ग दर्शन करते रहें। शान्तिप्रिय क्रान्तिकारी समाज-सेवक .डॉ० नरेन्द्र विद्यार्थी साहित्याचार्य, एम० ए०, पी-एच० डी० पूर्व विधायक, छतरपुर समाज सेवाके क्षेत्रमें .. जैन तीर्थ क्षेत्र देवगढ़ में जब एक विशाल गजरथका आयोजन हुआ, तब सागरके जैन जातिभूषण सिं० कुन्दन लालजी तथा पूज्य पं० दयाचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री (प्रधानाध्यापक श्री गणेश दि० जैन संस्कृत विद्यालय, सागर) के साथ मैं भी देवगढ़ गया। आदरणीय सिंघईजीका स्नेहिल आदेश और पं० जीकी साथ ले चलनेकी स्वीकृति, दोनों मेरे लिये वरदान थे। वहीं पूज्य पं० बंशीधरजीके सर्वप्रथम दर्शन हुए । नव स्थापित "सन्मार्ग प्रचारिणी सभा" के मंचसे गजरथकी असामयिकतापर इनके भाषणसे मैं इनपर मन-ही-मन नाराज हो गया, क्योंकि उस समय गजरथ मेरी दृष्टि में सबसे बड़ा धार्मिक कार्य था। इतने बड़े रथकार सा० क्या वर्तमानको नहीं जानते ? यही पं० एक समझदार है ? इत्यादि कल्पनाएँ मनमें उठती रहीं। पर इनको भी तो सुनना चाहिये, सुनने में क्या हर्ज है ? सोचकर इनका भाषण सुना और कहकर चला आया कि विरोध ही करना है तो बड़े जोरसे बोलना चाहिये । पं० जीकी गम्भीरता और हमारा लड़कपन कैसे मेल खाते ? आगे चलकर सागर जिलेके केवलारी ग्राममें भी गजरथका आयोजन हुआ, मैं विद्यालयको ओरसे श्री पं० मूलचन्द्रजी बिलौआ सुपरिण्टेण्डेण्ट सा० की सहायतार्थ भेजा गया। पं. बंशीधरजीका विचार-मंच वहाँ भी लगा और हमारे विद्यालयका तम्बू भी इन्ही के पास लगा। फिर वही गजरथ-विरोधी भाषण । अबकी बार तो न सुनना चाहते तो भी सुनना पड़ते थे। सुबह ४ बजे पं० जीका भाषण भगवन्नामस्मरणके साथ प्रारंभ हो जाता । इनके साथ पं० जीके तत्कालीन परम मित्र माननीय पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री थे, वे भी बारी-बारीसे विरोधी भाषण देते थे । मैंने पहले दिन सोचा इन पण्डितोंको कोई अच्छा काम नहीं आता ? पर जब चाहे-अनचाहे इनके भाषण दो दिन सुने, और सोचा तब मेरी समझमें आ गया कि मैं ही गलतीमें था। मेरी विचार-धारामें परिवर्तन आया और मैंने अपने विद्रोह विचार एक कवितामें व्यक्त कर दिये । कविताका अन्तिम छन्द था-- ''कल्याणक को पूर्णविधि को मनगढन्त होते देखा। ऐसे भी गजरथ धर्म अंग हैं, मूखों को कहते देखा।" पाठक स्वयं ही सोच सकते हैं । इस कवितामें गजरथकी खुली आलोचना थी। इससे बौखलाकर एक सज्जन आये, कौन है यह कविता वाला विद्यार्थो ? मैंने कह दिया साहब आखिर इतना बिगड़ने की क्या बात है ? वे बोले-तुमने नहीं सुना वह कह रहा था ऐसे भी गजरथ धर्म अंग हैं, मुखौंको कहते देखा। मैंने कहा हाँ, यह बात तो सुनते ही गलत लगना स्वाभाविक है, परन्तु गम्भीरताके साथ अगर आप सोचें तो शायद आप Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ भी उससे सहमत हो जावेंगे, क्योंकि आप एक भद्र एवं विचारशील व्यक्तित्वके धनी दिखते हैं । आपके अन्तरंगकी बात भगवान जाने ? अपनी प्रशंसा सुनकर वे शान्त होकर चले गये । विचार मंचके बाहर हुई इस शाब्दिक मुठभेड़को मैं कभी भूल नहीं पाता । पं० जीकी शान्त विचारशैलीने मुझे भी गजरथ-विरोधी बना दिया। परन्तु दुःख की बात यह है कि जैन समाजपर उसका कोई असर नहीं है । अतः तीर्थ क्षेत्रोंपर चलने वाले गजरथका समर्थन परवश करना पड़ता है। जबकि शिक्षा संस्थाओंके पुनरुज्जीवनमें व्ययका सदुद्देश बताते है । पर जब यह छलना मात्र होती है तब मन-ही-मन घुटन होने लगती है कि समाज कब पण्डितजी जैसे विचारकोंके सद् विचारोंसे लाभ लेगा? इस गजरथ महोत्सवमें प्रतिष्ठाचार्य पं० हरिप्रसादजी पठा (टीकमगढ़ वाले) थे, जो बादको दिगम्बर मुनि हो गये । समाजके अनेक प्रतिष्ठित जन इसमें पधारे थे। राष्ट्रीयताके क्षेत्रमें पण्डितजीकी शान्तिप्रिय क्रान्तिकारिताका दूसरा उदाहरण उनके द्वारा सन् १९४२ के 'भारत छोड़ो' आन्दोलनमें भी भाग लेनेका है, जिसमें उन्होंने बड़ी शालीनताके साथ अपने राष्ट्रीय विचारोंको अभिव्यक्ति दी और जेल की सजा पाई। सांस्कृतिक संरक्षाके क्षेत्र में तीसरा उदाहरण जैन सांस्कृतिक परम्पराके संरक्षणमें सक्रिय योगदानका है। "जैन तत्त्वमीमांसाकी मीमांसा" ग्रन्थमें उनके विचार बहुत स्पष्ट हैं । सोनगढ़ी सिद्धान्तोंके सम्बन्धमें जैन समाज केवल इतना जानता था कि कहान जी भाईने केवल जैनागमकी अस्पष्ट व्याख्याको सुस्पष्ट किया है, विस्तत किया है, ताकि लोग आगमिक रहस्योंको सरलतासे समझ सकें। इसमें मिलावट या अर्थान्तरका प्रश्न ही नहीं है, ऐसा मैं भी मानता था। परन्तु जब पण्डितजी जैसे अध्येताओंने गम्भीर अध्ययनके बाद निष्कर्ष निकाला कि जहाँतक कानजी भाई की कथनी है; वह पूर्वाचार्योंके प्रतिपादनकी व्याख्यामात्र नहीं है किन्तु उसका खण्डन है. तब मुझे आश्चर्य हुआ । विद्वानोंकी दृष्टिमें या जैनागमिक परम्परापर भीतरी आक्रमण था। परिणामतः मूल मान्यताओंकी सांस्कृतिक संरक्षाके लिये शान्तिपूर्ण ढंगसे प्रयास करने का निर्णय दिगम्बर जैन संस्कृति सेवक समाज द्वारा लिया गया। इस प्रयासका श्री गणेश माननीय पं० बंशीधरजी द्वारा पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री द्वारा लिखित 'जैन तत्त्व मीमांसा की मीमांसा" लिखकर किया गया। उक्त मीमांसाकी मीमांसा ग्रन्थमें पण्डितजीको गहन दार्शनिक एवं तार्किक प्रतिभाके दर्शन होते हैं। __संस्कृति-सेवक समाजके संकल्पके अनुसार पण्डितजी समयसार, समयसार कलश और मोक्षमार्ग प्रकाशक जैसे ग्रन्थोंका विश्लेषणात्मक अध्ययन (कानजी भाईकी विचार धाराके साथ तुलनात्मक रूप में) प्रस्तुत करने में समर्थ हों, दीर्घायु हों, यही मंगल कामना है । जैनधर्मके प्रकाण्ड विद्वान्का सम्मान •श्री महेन्द्रकुमार 'मानव', छतरपुर जैन समाजमें पांडित्यका अभाव देखकर पूज्य वर्णीजीने काशीमें स्याद्वाद विद्यालयकी स्थापना की थी। पूज्य वर्णीजीके जीवनकालमें ही उनका सपना पूरा हुआ था और समाजमें जैनधर्मके अनेक प्रकाण्ड पण्डित बने । इन पण्डितोंकी सेवाओंसे जैन बाङ्मयका अध्ययन, शोध और विवेचना हुई । इसी कड़ी में पं० बंशीधरजीका नाम आता है। उन्होंने व्याकरणसे आचार्य परीक्षा उत्तीर्ण की। साथ ही जैनधर्मके गहन ग्रन्थोंका भी Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएं : ३७ अध्ययन किया । उनके अध्ययनका परिचय उनके द्वारा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओंमें लिखित सामयिक, ताकिक शोषपूर्ण लेखोंसे मिलता है। पंडितजी एक ऐसे दीपक हैं, जिन्होंने एक साधारण परिवारमें जन्म लेकर अपने पूरे परिवारको पंडित बना दिया । 'दीपक-से-दीपक जलता है' यह उक्ति उनके जीवनसे चरितार्थ हुई। उनके भतीजे पं० बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री अभी कुछ ही दिन पूर्व दिवंगत हुए हैं। वे तो स्वर्गीय हो गये परन्तु षट् खंडागम-धवल सिद्धान्त जैसे गहन आगम ग्रन्थका सम्पादन एवं अनुवाद करके अपनी अक्षय कीर्तिको भूतलपर छोड़ गये। पंडितजीके ही दुसरे भतीजे पं० दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य जैन समाजके अब एक मात्र न्यायके विश्रुत विद्वान् हैं । जैन समाजमें सैद्धान्तिक मान्यताओंको लेकर उठे हुए विवादके बादलोंको पं. बंशीधरजीने 'जनतत्त्व मीमांसा की मीमांसा' जैसे स्पष्ट ग्रन्थ की रचना कर सन्मार्ग प्रकाशित किया है। यह हमारे लिए सौभाग्य की बात है कि बुन्देलखंड जैसे पिछड़े और गरीब प्रान्तने ही जैनधर्मके मूर्धन्य बहु पंडितोंको जन्म दिया है जिनके ज्ञानसूर्य के प्रकाशसे पूरे भारतका जैन समाज उपकृत हआ है। पंडितजीसे मिलनेका मुझे कई बार अवसर मिला है। उनके पांडित्यसे तो मैं प्रभावित हुआ ही, लेकिन उनकी सादगीने भी मेरे मनपर अमिट छाप छोड़ी है । एक सम्मेलनमें हम लोग धर्मशालामें ठहरे हुए थे। शामको पंडितजी अंथऊ कर रहे थे। जबतक पंडितजीने शामके भोजनमें मुझे शामिल नहीं कर लिया तबतक वे नही माने । पंडितजीको दो हई पूड़ियों और सागका स्वाद आज भी मेरे स्मरणमें है। पंडितजी दीर्घायु हों और जैन वाङ्मयकी निरन्तर सेवा करते रहें, यही कामना है। साले को भौआके लिए भावाञ्जलि •शाह प्रेमचन्द्र जैन, बीना हमारे 'भौआ के साथ मेरे बचपनकी कुछ यादें जुड़ी है, जिनसे भौआका सम्बन्ध है और मेरा भी। बुन्देलखण्डमें बहनोईको 'भौआ' शब्दसे सम्बोधन और आदर व्यक्त किया जाता है। हमारे बड़े दद्दा श्री शाह मौजीलालजीके दामाद ही हमारे भौआ हैं और वे हैं लब्ध प्रतिष्ठ एवं ख्यातिप्राप्त जैन समाजके शीर्ष विद्वान् पण्डित श्री बंशीधरजी व्याकरणाचार्य । हम-सब एक ही मकानमें रहनेके कारण उगते सूरजसे डूबने तक और डूबनेसे उगने तक छोटी-बड़ी बातों, घटनाओं और निकटस्थ जोवनसे जुड़े हैं। मेरे बचपनकी यात्रा और भौआके राजनैतिक, सामाजिक यक जीवनके एक समचे व्यक्तित्वकी यात्रा मेरी दृष्टि में है जो बढ़ती उमरके साथ भली-बिसरी झलकियोंको फिर याद करनेसे स्फति देती है, प्रफुल्लता और प्रेरणा देती है। कुछ-न-कुछ छाप, उनका प्रभाव मेरे जीवनपर पड़ा है । निकटता-समीपता और संगतका असर जरूर होता है, यही मेरा सौभाग्य है । ___ हाँ, तो मैं ६-७ सालका रहा हूँगा। खेलता फिरता और दौड़ लगाता। घरके भीतर हमजोलीके भानजे-भानजी सनतकुमार और बिमलाके साथ खेलते । घरमें खंटी पर टॅगी बिगलको उतारते और फूंकते । बिगुल बजाते और कंधेपर टांगनेका शौक करते । बच्चे थे बडोंकी नकल करते, कभी नेता बनते, कभी मिलिट्रीवाले बनते । बिगुल हमें एक खिलौना था । भौआका घर उन दिनों बीनाकी राजनैतिक गतिविधियोंका अड़ा था। सारे कांग्रेसी कार्यकर्ता और नेता इकट्ठे होते । सन् १९४२ की क्रांति और भौआकी बीना स्टेशन पर गिरफ्तारी मेरी बचपनी आँखोंमें खेल सी समाई। स्टेशनसे घर तक नहीं आ पाये कि उन्हें स्टेशन पर ही गिरफ्तार कर लिया गया। हमें 'बेन'के रोनेकी आवाज मिलो। बुन्देलखण्डमें बहनको 'बेन' या 'जिजी' शब्दसे सम्बोधित किया जाता है। | Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ हमारे शाह खानदानमें बड़े लोग 'लद्दा बेन' और हम छोटे लोग 'बेन' कहते थे। कहते थे, इसलिए कि उनका नाम लक्ष्मीबाई था और वे भी अबसे पन्द्रह वर्ष पूर्व स्वर्गस्थ हो चुकी हैं । बेन के साथ हम लोग ताँगापर स्टेशन पहँचे। शामका वक्त था । उन दिनों बीना एक छोटा कस्बा था । इटावासे स्टेशन पहुँचते-पहुँचते रात हो गई थी। कस्बामें बिजली नहीं थी, पर पूरे कस्बेमें यह खबर बिजलीकी भाँति फैल गई कि पण्डितजीको गिरफ्तार कर लिया है। लोग उमड़ पड़े स्टेशनकी ओर । स्टेशनपर भारी भीड़ और अंग्रेजी पुलिसका बन्दोबस्त । हुजूम बढ़ता जाता था। गहराता कोलाहल नारों-पर-नारे का तेज स्वर । इंकलाब-जिन्दाबाद, पण्डितजी जिन्दाबाद । जनताका जोश और आक्रोश, भीड़से बचानेके लिए एक ऊंचे मंचपर पण्डितजी जनताको सम्बोधन दे रहे थे। हम लोग उनतक नहीं पहुँच पाये । मंचके चारों ओर रस्सियोंसे घेरा गया था। दुरसे देखा, दूरसे सुना। उन दिनों बीनामें लाउडस्पीकर उपलब्ध नहीं थे। क्या कह रहे हैं, समझ में नहीं आया। भाषण खत्म होते ही सिपाही उन्हें उतार ले गये । कहाँ ले गये ? कहाँ ले जायेंगे ? पता नहीं। सब लोग कह रहे थे-जेल ले जायेंगे। रात स्याह हो चली थी भीड़-लौटने लगी। हम लोग भी लौट आये । कस्बेमें उदासी थी, मुहल्ले में मायूसी और घर-पड़ोसमें अजीब सन्नाटा। रात सोचनेमें चली गई। अंग्रेज मिलिट्रीका आतंक, पण्डितजीकी जेल यात्रा और आन्दोलनका बिगुलनाद, बिगुल अब मुझे खिलौना नहीं रहा । विद्रोह, विरोध और आन्दोलनका अलख जगानेवाला एक शस्त्र । 'बिगुल बज उठा आजादीका गगन गूंजता नारोंसे' आज जब कभी यह गीत सुनते हैं पण्डितजीके घर टॅगी बिगुल याद आ जाती है । भौआकी जेल यात्रामें सनत दिवंगत हो गया । एक शोक यह भी और एक याद यह भी । उनकी जीवन यात्रामें राजनीतिके कई पड़ाव हुए। सामाजिक सेवामें चलते रहे। विद्वत्ताका घर भरते रहे। सरस्वतीकी साधनामें अबतक संलग्न । सरस्वतीका यह वरदपुत्र वृद्धावस्थामें अब कलमके सिपाही हैं उनके कमरेमें अब बिगुल नहीं, कलमदान है। वे आत्म-विश्वासके धनी हैं, दीर्घ जीवन जीने और बहुत कुछ करने की ललक है। उनके द्वारा भरे घट और उनका जीवन घट भरा रहे। हम सब पीते रहें. रीते नहीं। यही भावाञ्जलि भौआके दीर्घ जीवन यात्राके लिये है। कन्या राशिका चमत्कार .पं० स्वतन्त्र जैन, गंजवासौदा [ पूर्व भाग] बहत पुरानो बात है और मेरे बचपनकी बात है, स्व० पं० महेन्द्र कुमारजी न्यायाचार्य ह. महाविद्यालय इन्दौरमें न्यायतीर्थकी पढ़ाई में संलग्न थे। उस समय मैं भी इन्दौरमें प्रवेशिका खण्ड २ में पढ़ता था। एक दिन पं० जीने व्यंग (किन्तु सत्य) में कहा, देखो यह कन्या राशिका ही चमत्कार मानना चाहिये कि पं० बशीधरजी व्याकरणाचार्यका विवाह श्री मौजीलालजी बीनाकी लड़कीसे हो गया है । मजेकी बात यह है कि दोनों (वरवधू) को कन्या राशि है, और पण्डितजीको घर जमाई रख लिया है। पण्डित महेन्द्र कुमारजी न्यायाचार्य तो बनारस पहँचनेपर सुहृद्वर पं० डॉ० कोठियाके साथ बादमें हये थे। बात आयी-गयी-सी हो गयी, और समय अपनी अरोक गतिसे भागता रहा। अब फरवरी सन् १९४१ का जमाना आ गया। इसी साल सूरतमें जैनमित्रादि कार्यालयोंमें नियुक्ति Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएँ : ३९ हयी थी। जूनमें कुछ दिनोंका अवकाश लेकर मैं सिरोंज आया। मामाजीने कहा, तुम बीना चले जाओ, लड़का देख आओ, कस्तुरीका सम्बन्ध करना है, मैंने कहा ठीक है। अब बीना मैं किसके यहाँ ठहरूँ यह प्रश्न मेरे सामने था। इस समय मुझे पं० महेन्द्र कुमारजीको बात याद आयो "कन्या राशिका चमत्कार", क्यों न मैं चमत्कार वालोंका मेहमान बनें ? शामको मैं बीना आ गया। आते ही मैंने अपना परिचय दिया । पण्डितजी बड़े खुश हुये, और अपने आत्मीयभावसे मुझे बहुत ही प्रभावित किया, मैं गद्-गद हो गया । लड़का मुझे पसन्द नहीं आया, किन्तु पण्डितजीके अपार स्नेहको लेकर लौट आया। यह जून सन् १९४१ की बात है । यही पूज्य पं० बंशीधरजीसे प्रथम परिचय था। सन् १९४८ मई मासमें सोनगढ़ में विद्वत् परिषद्का अधिवेशन हुआ। यह कानजी स्वामीके उदयकालका अवसरपर था। इस अधिवेशनमें समाजके चोटीके मूर्धन्य अनेक विद्वान पहँचे थे। वहाँसे लौटते समय पं० बंशीधरजी सूरत आये। मेरे ही घर ठहरे थे, आपको जैनमित्रकी पुरानी फायलोंकी आवश्यकता थी। वे फायले कार्यालयसे लाकर उन्हें दे दी थीं, दो दिन ठहरकर बीना चले गये । पूज्य पण्डितजीके आगमनपर मुझे बहुत ही आनन्द मिला। फिर तो पूज्य पण्डितजी समय-समयपर कई बार मिले । परिचयने निकटता-घनिष्ठताका रूप ले लिया। फिर तो पण्डितजीके घर कई बार आना-जाना होता रहा। [ उत्तर भाग ] पूज्य पण्डितजी जैन समाजकी नजरोंसे ओझल रहे और अपनी ख्याति एवं प्रसिद्धिसे दूर रहे । यहो कारण है कि सामान्य जैन समाज आपको न जान सका। ६० वर्षों तक चारों अनुयोग ग्रन्थोंका आलोडन एवं मन्थन कर आपने नवनीत निकाला। मैंने स्वयं देखा है कि पण्डितजी ठीक ३ बजे उठकर या तो कुछ लिखते हैं या किसी ग्रन्थका पारायण करते हैं। जबकि मैं ६ बजे उठता था जबकि मैं पण्डितजीके घर मेहमानके रूपमें होता था। खानिया तत्त्वचर्चा में आपका प्रमुख हाथ था। जैनदर्शन और जैनसिद्धान्तके अधिकारी विद्वान हैं। वीरवाणी पत्रिकामें कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी लेख माला कई अंकोंमें निकलती रही। ऐसी लेखमालाका पुस्तकाकार छपना बहुत आवश्यक है। हमारे समाजमें गुण-ग्राहकता नहीं जैसी है। यही कारण है कि पण्डितजीकी ८४ वर्षकी आयमें अभिनन्दन ग्रन्थ देनेका निर्णय समाजने लिया, यह पण्डितजी अभिनन्दनीय हैं हो किन्तु वे इससे अधिक अभिवन्दनीय एवं अभिनन्दनीय हैं । अभिनन्दनकी पावन मांगलिक बेलापर मैं पूज्य पण्डितजीके सुखी, स्वस्थ जीवन और शतायुष्यकी मंगल कामना करता हूँ। समाजके मार्गदर्शक .श्री लालजी जैन, बी० कॉम, अनुभाग अधिकारी विभाग, परीक्षा का हि०वि० वाराणसी नियंत्रक कार्यालय यह परम प्रसन्नताकी बात है कि समाजने पंडित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य के अभिनन्दन करनेका निर्णय लिया है और उनके व्यक्तित्व, कृतित्व एवं दार्शनिक योगदान स्वरूप एक अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित करनेका निश्चय किया है। आदरणीय पंडितजी सादगीको प्रतिमूर्ति एवं भद्रपरिणामी व्यक्ति हैं । अध्ययन-अध्यापनके क्षेत्रसे दूर रहते हुए भो पंडितजीने जैनवाङ्मयकी जो सेवा की है, वह अपने आपमें एक मिसाल है। केवल स्वाध्यायके बलपर पंडितजीने जैन सिद्धान्त, दर्शन, न्याय, इतिहास आदिका जो दिग्दर्शन अपने लेखों एवं कृतियोंमें कराया है वह अत्यन्त ग्राह्य एवं आगमानुकूल है। तथ्योंका जो विवेचन पंडितजीने प्रस्तुत किया वह सांगोपांग एवं सरल है । सुधीजन ही नहीं अपितु सामान्यजन भी उसका लाभ उठा सकते हैं । दार्शनिक Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० सरस्वतो वरवपुत्र पं० वंशोवर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ विवेचनमें तो मौलिकता कूट-कूट भरी हुई है । लेखोंके अध्ययनसे यह पता नहीं चलता कि वे स्वयंकी उनकी कृति नहीं है । सामान्य पाठक भी यदि उनका अध्ययन मनोभावसे करे तो उसे ऊबनका अनुभव नहीं होता और उसके पठनकी और वह अग्रसर होता जाता है। यह पण्डितजीके गहन अध्ययन एवं स्वाध्यायका ही आगमानुकूल समीक्षा प्रस्तुत कर सके। उनकी रचनाओंको तो प्रयास करना चाहिये । ऐसे विद्वान्का समाज कितना ही अभिनन्दन करे, वह थोड़ा है। पण्डितजी शतायु हों एवं हमलोगोंका मार्गदर्शन इसी प्रकारसे करते रहें, यही मेरी शुभकामना और जिनेन्द्र भगवान से प्रार्थना है । एक जागरूक मनीषी • पं० खुशालचन्द्र बड़ेराव, शास्त्री, तेजगढ़ परिणाम है कि वे खानिया तत्त्वचर्चापर समाज के लिए अलग से प्रकाशित करनेका यह हमारा धर्म एवं कर्तव्य होता है कि अपने लिये जिनके द्वारा कुछ प्राप्त हो उनका गुणस्मरण अवश्य ही करें । पं० जीने अपना सारा जीवन जैनधर्म एवं समाज सेवामें लगाया है और आज भी सजग भावसे संलग्न हैं । आपने समाजमें लगे समाज और धर्म विरोधी तत्व रूपी घुनको निकाल फेकने हेतु जो सतत प्रयत्न किये वे आज भी स्मरणीय हैं । केवलारी गजरथ एक अतीतकी झाँकी -पत्रों द्वारा लगातार प्रचार एवं प्रसारको देखकर श्री पं० जीने अपने विचारोंको दबाना एक अपमान तथा कायरता द्योतक समझ जोरदार आन्दोलन उठाया एवं पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री बनारस, भागचन्द्रजी इटोरया दमोहको आश्वस्त किया और लिखा क्या दमोह जिलेकी केवलारी बस्ती में जहाँपर मात्र एक ही घर जैनसमाजका हो वहाँपर गजरथ जैसे महान और पवित्र धार्मिक अनुष्ठानकी स्थापना की जाय । यह नाटक नहीं कि कहीं भी किसी हालत में खेला जा सके । श्री भागचन्द्रजी इटोरयाने अपने स्थानीय कार्यकर्ताओं को आमंत्रित कर सलाह मशवरा करके पं० मूलचन्दजी "बत्सल" पन्नालालजी चौ०, भागचन्द्रजी इटोरया एवं मैं भी तैयार होकर पं० जीके साथ केवलारी शाहपुरसे पहुँचे। श्री सिं० घरमचन्द्रजी गजरथकारसे मिले तब उन्होंने कहा कि रथ चलेगा। इससे मेरा तथा गाँवका बदनाम होगा। बहुत समझाया गया अनेकों उदाहरणों द्वारा विषय सामग्री प्रस्तुत करनेपर भी सिं० जी सहमत नहीं हुए। । अन्ततोगत्वा रथ चलनेकी शुभवेला आ गई। सर्वमंडली सहित पं० जी केवलारी पहुँचे। चर्चा विरोधकी चल रही थी कि पं० फूलचन्द्रजी अनशन प्रारम्भ कर एक मंडप में बैठ गये । समाजमें खलबली मच गई। पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री प्र० पा० कटनी जैन पाठशाला आये और बड़े आश्वासनोंके बीच पं० जीका अनशन तुड़वाया । आम सभा हुई जिसमें सर्वसम्मति से १५१ आदमियोंकी एक कमेटी बनी और निर्णय कि इस कमेटीकी स्वीकृतिपर ही गजरथ चलेंगे । हुआ 1 इसी बीच बाबू जमुनाप्रसाद कलरैया सवजज नागपुरसे पधारे चर्चा के दौरान लोगोंने कहा बुन्देल खण्ड में दस्साओंको पूजन प्रक्षाल आदिका अधिकार नहीं है। तब पं० बंशीधरजीने अपनी गद्गद वाणीमें कहा इधर गजरथ पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएँ हों उधर पुजारियोंका अभाव हो दोनोंही बातें शर्मसे मर मिटनेकी हैं। उस दिन से दस्साओंकी पूजनका अधिकार दिया गया। पं० बंशीधरजी एक लगनशील, कर्मठ, उदारमना हैं । आपका जैन साहित्य में पूर्ण आधिपत्य है। हम आपके दीर्घजीवी होनेकी कामना करते हैं। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वया बंशीधरो जयतात् श्री अमृतलालो जैनः साहित्य-जैनदर्शनाचार्यः, लाडनूं (शार्दूलविक्रीडितम्) झाँसीमण्डलवर्तिनी विजयते धन्या पुरी 'सोरई' यत्राजायत नव्यभव्यभवने राधा-मुकुन्दात्मजः । स्तुत्यानेकशरीरचिह्नविदितप्रज्ञाप्रकर्षोदयः श्रीवंशीधरनामलब्धगरिमा जातोऽभिनन्धोऽधुना ॥१॥ स्याद्वादात्तसमस्तशास्त्रविषयज्ञानो गणेशाययो नैकोपाधिविभूषितो गुरुसमप्राज्ञप्रसादादभूत् । आचार्यत्वमवाप्य यः प्रथमतो लेभे प्रतिष्ठा परा मश्रान्तं श्रमतो न कोऽत्र सुमतिः प्राप्नोति शुम्भद्यशः ॥ २ ॥ पश्चाद् यः प्रविहाय शिक्षणगृहं व्यापारलग्नोऽपि सन् न्याय्यं मूल्यमुपैति नोनमधिकं कस्मादपि ग्राहकात् । तस्मात् सोऽपि परत्र याति न जनः क्रतुंपट कहिचिद्व्यापारेऽपि जनः स एव सफलो जायेत यो न्यायवान् ॥ ३॥ व्यापारार्थमुपस्थितोऽपि विपणौ ग्रन्थं न यो मुञ्चति .. प्राप्त ऋतरि सत्वरं वितनुते कार्य तदीयं ततः । निश्चिन्तं पुरतो निधाय मनसा तच्चिन्तने लीयते तत्त्वं वेत्ति स एव यस्य हृदयं नित्यं निमग्नं श्रुते ॥ ४॥ लोकरलाध्यगणौघमण्डनयता याता यदा गहिनी स्वर्ग वित्स समस्तससतिभवां निःसारतां भावयन् । अन्तःशोकनिपीडितोऽपि नितरां व्यक्तं न चक्रे बहिः सत्यं ते विरलाः समस्तभुवने मञ्चन्ति धैर्य न ये ॥ ५॥ सत्तर्किनिपीडिताखिलजगच्छास्त्रार्थिधूकोच्चयोनानालेखविलेखनोत्थयशसा शुक्लीकृताशाम्बरः । वक्ता श्रेष्ठतमश्च चर्चचतुरो ग्रन्थप्रणेता महाञ् श्रीवंशीधरपण्डितो विजयते - विश्वम्भराविश्रुतः ॥ ६॥ वर्षीयानपि यो युवेव नितरामुत्साहसम्पन्नधी कार्याकार्यविवेकसूर्यमहिमप्रध्वस्तचिन्तानिशः । लक्ष्मीः साऽथ सरस्वती भगवती यं नोज्झतः कहिंचित सोऽयं विज्ञसमाजमस्तकमणिवंशीधरो भाग्यभाक् ॥ ७ ॥ (पथ्यार्या) आचार्यो व्याकरणे तीर्थं न्याये तथा च साहित्ये।। यः शास्त्री स विपश्चित-प्रवरो वंशीधरो जयतात् ॥ ८॥ १. ज्ञः स०-इति पाठोऽपरः । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वतीके वरद-पुत्र हे ! बंशीधर व्याकरणाचार्य पं० अनूपचन्द्र न्यायतीर्थ, 'साहित्यरत्न' जयपुर वन्दन है, अभिनंदनीय है! विज्ञ मनीषी परम उदार ! साक्षात् गुण-ज्ञान पयोनिधि ! सादा जीवन उच्चविचार ।। विद्वत परिषद् मार्ग-प्रदर्शक । दढ़ श्रद्धानी आस्थावान ।। पत्रकार निर्भीक साहसी शुद्ध समालोचक गुणवान ।। स्याद्वाद-विद्यालय काशी गुरु 'गणेश' से पाया ज्ञान । दर्शन औ साहित्य-न्यायके वने ' प्रखर उद्भटविद्वान् ।। सेवा में निःस्वार्थ समर्पित मिला सहज सम्मान अपार । भारत छोड़ो आंदोलन में जेल गये कितनी ही बार ॥ शुष्क विषय व्याकरण कठिन अति उसके भी आचार्य महान । बिना बाँसुरी, हे बंशीधर । करा दिया गीता का ज्ञान । सभी धार्मिक औ सामाजिक संस्था से संबंधित आज । पाकर एक मूक सेवक को गौरवान्वित हआ समाज ॥ आगम औ सिद्धांत ग्रन्थ के सफल प्रवक्ता व्याख्याकार । बतलाया है "जिन शासन में महत्त्वपूर्ण निश्चय व्यवहार ॥" जन-सेवा में बीते जीवन सुखी स्वस्थ हो सब परिवार मंगलमयो कामना येही देखो अभी बसंत हजार ॥ १० पूर्ण स्वतंत्र विचारक लेखक | मंथन और मनन में लीन । मौलिक सत् साहित्य रचा अति आर्ष-मार्ग अनुसार प्रवीण ॥ श्रद्धा से मस्तक झुक जाता देख समूचे अद्भुत कार्य सरस्वती के वरदपुत्र हे। बंशीधर व्याकरणाचार्य । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविनय-अभिनन्दन । सौ० रत्नप्रभा पटोरिया हे सरस्वती के वरदपुत्र ! चिर जियो, तुम्हारा अभिनन्दन । मेरा शत शत वन्दन, चिर जियो. करूँ मैं अभिनन्दन ।। २ जब गाँधीजी ने स्वतन्त्रता का, भारत में बिगुल बजाया था। उस समय तुम्हीं ने मोह त्याग, अपना अनुराग लुटाया था। सन् बयालीस में सहे कष्ट, जिसका हिसाब नहीं लेखा था। दुःख सहे सींकचों के भीतर, निज राष्ट्र-विजय-हित सोचा था ।। ले ज्ञान दीप निज कर में तब, कई ग्रन्थ लिखे अनुवाद किये। ये स्याद्वाद नय और प्रमाण, इन सब को अति ही सरल किये ॥ स्वदेश, जैन-दर्शन के हित, जो कार्य अनेकों सुदृढ़ किये । शब्दों में उन्हें न बाँध सकू, वे अनुपम अमर प्रकाश लिये ।। चन्दा और तारे चमकेंगे, जब तक इस पृथ्वी के ऊपर । यश गान तुम्हारा गायेंगे, मिल कोटि कोटि कण्ठों से सब । हे सरस्वती के वरद पुत्र ! चिर जियो तुम्हारा अभिनन्दन । मेरा वन्दन शत-शत, वन्दन, चिर जियो करूँ मैं अभिनन्दन ।। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे सरस्वतीके वरदपुत्र ! शत-शत वन्दन शत-शत प्रणाम डॉ० कस्तूरचन्द्र 'सुमन', श्रीमहावीरजी हे सरस्वती के वरदपुत्र ! शत शत वन्दन शत शत प्रणाम । १ सम्वत् उन्नीस सौ बासठ के शुभ भाद्र मास की शुभ वेला । शुभ शुक्ल पक्ष तिथि शुभ सातें थी भारत-भू की अलवेला ॥ गोलापूर्वान्वय में जन्में निजवंश कोठिया के ललाम । हर्षाए नगरनिवासी सब तब भूल गये थे दुःख तमाम ॥ वर्णी जी का कुछ योग मिला पढ़ने का अवसर हाथ लगा। चल दिये बनारस पढ़ने को था नहीं संग कोई बन्धु सखा ॥ साहित्य जैनदर्शन शास्त्री उत्तीर्ण हुए स्याद्वाद-धाम । व्याकरणाचार्य व न्यायतीर्थ पदवियाँ प्राप्त की गंग-धाम ।। भारत वसुन्धरा धन्य हुई, धरती का कण-कण हर्षाया । हो गयी पुनीता सोरई-भू 'राधादेवी' ने सुत जाया । यों जन्म-भूमि जननी दोनों हो गयीं वंद्य पावन सु नाम । श्री सिंघई 'मुकुन्दलाल'-नन्दन को वन्दन मेरा है अकाम ॥ गम्भीर विचारक चिन्तक है जिन आगम के अध्येता है। आगम विरोध डटकर करते आगम पर चोट न सहते हैं । जयपुर में हुयो तत्त्वचर्चा के प्रथम समीक्षक को प्रणाम । उस समय पक्षधर आगम के राधा सुत ही थे जग-ललाम ।। हर्षायी राधा देख लाल हर्षाये लख सुत मुकुन्दलाल । पर पढ़ न सके जीवनरेखा प्यारे सुत की जो रही भाल ॥ त्रय मास मात्र देकर दुलार चल दिये पिताश्री स्वर्गधाम । माता का प्यार बना सम्बल बच रहा सहारा जननि-नाम ॥ निश्चय-व्यवहार उभय जग में हैं उभय नेत्र सम प्रिय दोनों। गति को आवश्यक चरण-युगल जैसे सरिता को तट दोनों । शिव-पथ के दोनों साधन हैं दोनों से सधता मोक्ष-धाम । तज ग्रन्थि लिखा राधा सुत ने निश्चय-व्यवहार है ग्रन्थ नाम ॥ ८ क्रमबद्ध न केवल पर्याएं वे तो अक्रम भी होती हैं। जो लिखी पुस्तकें वे जग की उत्पन्न भ्रान्तियाँ हरती हैं। शान्तिसिन्धु-सम्पादन का हर्षित होकर के किया काम । गजरथ विरोध के अग्रदूत विद्वत् परिषद् के हैं ललाम ।। जननी भी बारह वर्ष बाद एकाकी इनको छोड़ गयी । संघर्षों में जीवन बीता विपदाएँ आयीं नई-नई ।। यों माता-पिता विहीन हुए तब तजा आपने पित-धाम । वारासिवनी में मामा घर आकर पाया था लघु विराम ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ । आगम से आपको प्यार यथा है देश-प्रेम भी वैसा हो । तन से तनकर चलकर दिये जेल नहिं किया प्यार था तन से भी ॥ है राष्ट्र प्राणप्रिय इन्हें सतत् प्यारा है इनको नहीं चाम । तन-मन से सेवा करते हैं आवश्यक हो तो देत दाम ॥ १० वैशिष्टय आपके जीवन का शिक्षा न जीविका का साधन । व्यवसाय बुद्धि के आगे नत लक्ष्मी करती नित आराधन ।। लक्ष्मीपति हैं पर विष्णु नहीं बिनु मुरली के हैं कृष्ण, राम । बीना है कर्मभूमि इनकी इनके घर लक्ष्मी का विराम । १-७ १ / आशीवंचन, संस्मरण, शुभकामनाएँ ४५ ११ श्रुतदेवी और लक्ष्मी का वरदान इन्हें ही प्राप्त हुआ । भू पर अनेक विद्वान् किन्तु विरलों का यों संयोग हुआ || विधि का ही कहएि यह विधान जग में जो कि है आज नाम । श्रीमन्त और धीमन्त सभी आकर करते सविनय प्रणाम ॥ १२ ये सरस्वती के वरदपुत्र हित - मितभाषी हैं ज्यों चन्दन | अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित कर हम करते विद्वत्-अभिनन्दन ॥ ये सत्य और शिव सुन्दर भी इनको मेरे साष्टांग प्रणाम । 'सुमन' रहे सुख भरे जगत में मिलता रहे इन्हें आराम ॥ विनय सुमन वेद्य प्रभुदयाल कासलीवाल, भिषगाचार्य, दिन ही ॥ कभी । न जयपुर वंशीधर है नाम वाँसुरी तुमने बजाई कभी नहीं । किन्तु वाँसुरी तान सुनी जो बाजी तुम्हारी प्रति बंशीधर गोपाल कहाते गो तुमने पाली लेकिन जिनवाणी दोहन कर ज्ञानामृत तुमने नागदमन बंशीधर कौना मिध्यात्व दमन कर अज्ञान कंस के नाशक बन जिनवाणी यश तत्त्वज्ञान तुमने पाकर साहित्य रचा जिससे निश्चय व्यवहार उभय उपयोगी है पाया ही ॥ तुम हो जी । फैलाया जी ।। क्रम - अक्रम पर्यायों का विश्लेषण का विश्लेषण तुमने तुमने ज्ञानेन्दु बने । मन्तव्य बने । कीना कौना है। पिछाना है । हे बंशीधर बिन अक्षर की वंशी से तुम्हें हे सरस्वती के वरद पुत्र मैं करूँ कामना प्रतिदिन ही । शत शत वर्षों की आयु पा तुम वास करो अब निज में ही ।। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वती के वरदपुत्रका शत शत अभिनन्दन है पं० बाबूलाल जैन फणीश, पावागिरि ऊन सरस्वती के वरद पुत्र का शत शत अभिनन्दन है। दीप्तपुंज "श्री बंशीधर" को बारम्बार नमन है ।। जिसने निज के जीवन को कष्ट कंटकों में पाया। जो काटों में पलकर भी 'मुकुन्द' गुलाबसा खिल आया । झांसी मण्डल सोरई ग्राममें, मकुन्दलाल प्रतिभा चमकी। सरल मूर्ति माँ 'राधा' ने भी उर से 'बन्शी' मोहन सी दमकी । 'स्याद्वाद' वाराणसी गंडा में व्याकरणाचार्य ज्ञान किया। धर्मशास्त्र से न्यायतीर्थ बन जीवन ज्योति जगा लिया । दिगदिगन्त उज्ज्वल जीवन पा चमके नित कुन्दन है। ज्ञान पूज्य श्री बंशीधर को बारम्बार नमन है। (२) मध्य प्रदेश बीना नगर को स्व आश्रय पथ पाया। महावीर की दिव्य देशना से जगको पाठ पढ़ाया । सत्य, अहिंसा जैन संस्कृति से जन जन को उन्नत बनाया। अध्यक्षी पद से विद्वद परिषद को नित्य आपने महकाया ।। पूज्य गणेश वर्णी माला में अपना हाथ बटाया। जैन वाङ्गमय सरस्वती को तत्त्व मीमांसा से चमकाया ॥ विश्व शांति नित प्रतीक बन चमके तुम चन्द्र वदन है। राष्ट्र धर्म के दृढ़ संकल्पी का महके जीवन नन्दन है। आप विशाल जैनधर्म के साहित्याकार महान हो। आप सपथ दर्शक जैन जाति के यग करुणाधार हो । स्वाभिमान गौरव के स्वामी दिग्गज लेखाकार हो । परम विशाल जिनागम के पोषक उत्तम पत्राचार हो । स्याद्वाद और अनेकान्त से जग को पथ बतलाया। भले भटके मानव को भी धार्मिक जीवन पनपाया ।। सर्वोदय से नित्य आपका महका जीवन चन्दन है। वात्सल्य मूर्ति श्री बंशीधर का शत शत अभिनन्दन है। विज्ञ श्री दरबारीलाल ने शरण आपका पाया । और मनीषी बालचन्द्र ने गुणगान आपका गाया ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १/आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएं : ४७ शोभा राम ने शोभा पाकर प्रेम सलिल वर्षाया । निर्वाण भारती मेरठ द्वारा सिद्धान्ताचार्य पद पाया ॥ विविध अनेकों कार्यों से नित, दार्शनिक जीवन पाया। अपनी प्रतिभा के पराग से गौरवान्वित होकर आया । जब तक नभ में चन्दा सरज चमको सदैव स्पदंन है। प्रशम मूर्ति श्री बंशीधर को नत "फणीश" वन्दन है। वंशीधर की वंशी गूज, उठी पं० जीवन्धर जैन, बीना ब-ना सदा मितव्ययी जीवन शी-ल व्रतों को अपनाया ध-रम मरम में जीवन बीता र-खा मोह निश्चय नय का जीवन में व्यवहार न छोड़ा व्या-मोह हुआ दोनों नय का कर्तव्य निष्ठ होकर महान् र-ख लिया सुपथ जीवन पथ का णा-निमित्त और न उपादान चा ही दोनों की सार्थकता र-म गये तत्त्व चर्चा में जब यह खनिया में जाकर ठहरे बी--णा का तार झनझना उठा ना-म हुआ रोशन इनका फिर स्याद्वाद अरु अनेकान्त की ध्वनि सुनाई सब को दी फिर पंडितगण सब मौन रहे बंशीधर की बंशी गूज उठी Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सुमन से अभिनन्दन है हास्य कवि हजारी लाल 'काका' सकरार बनें श्रेष्ठ आचार्य व्याकरण का तन मन से किया मनन है, पण्डित श्री बंशीधर जी का शब्द सुमन से अभिनन्दन है, संवत उन्निस सौ बासठ की भादों सदी सप्तमी आई. श्री सिंघई मकुन्दलाल के द्वारे बजने लगी बधाई, जिला ललितपुर की सोरई में उस दिन उत्सव गया मनाया, राधादेवी की गोदी में यह बालक आकर मुस्काया, जिसने भी देखा बालक को प्रमुदित हआ सभी का मन है, पंडित श्री बंशीधर जी का शब्द सुमन से अभिनन्दन है, होनहार विरवान के अक्सर पात चीकनें ही होते हैं, बढ़ने वाले बालक अक्सर अपना समय नहीं खोते हैं, ग्यारह वर्ष बनारस में ही वर्णीजी से शिक्षा पाई, न्यायतीर्थ साहित्यशास्त्री आदि अनेकों पदवी पाई, सिद्धान्ताचार्य की उपाधि के साथ मिला था काफी धन है, पंडित श्री बंशीधर जी का शब्द सुमन से अभिनन्दन है, सरस्वति का भंडार भर दिया जब से कलम उठाई कर में, ऊँचा किया बुन्देलखंड का नाम आपने भारत भर में, जैन संस्थाओं में हरदम ऊँचे-ऊँचे ओहदे पाये, स्वतंत्रता के आंदोलन में जेल यात्रा भी कर आये, इसीलिये उपराष्ट्रपति ने किया आपका अभिनन्दन है, पण्डित श्री बंशीधर जी का शब्द सूमन से अभिनन्दन है, यों तो त्याग चुके पण्डित जी जीवन से सारा आडम्बर, ऐसा लगता है, घर में रहते हों अम्बर सहित दिगम्बर, कवि 'काका' की एक विनय है अब तो ऐसा अवसर लायें, कर में पिछी कमंडल लेकर सच्चा अभिनन्दन करवायें. नर जीवन का सार यही है कहता यही जैनदर्शन है. पंडित श्री बंशीधर जी का शब्द सुमन से अभिनन्दन है, Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमनाञ्जलि देते हैं पं० पूर्णचन्द्र 'सुमन' दुर्ग जनक मुकुन्दलाल, मातृ राधा के सलौने लाल ग्वाल बाल नहीं फिर भी बंशीधर कहाते हो। प्रकृति से सुरम्य सोरई ग्राम में जन्म लेकर वंशी की तो बात क्या अब वीणा वाले कहाते हो। स्याद्वाद, महाविद्यालय, वाराणसी में अध्ययन को पूज्य सन्त वर्णीजी के सानिद्ध में रहे हो। अनवरत वर्ष एकादश-अध्ययन कर __ शास्त्री न्यायतोर्थ व्याकरणाचार्य कहाये हो ॥ आपके चिन्तन और लेखन की तो कोई मिसाल नहीं मौलिक, दार्शनिक, सैद्धान्तिक, लेख सभी प्रमाण हैं। निश्चय और व्यवहार खानिया तत्त्व चर्चा ___ तत्त्व मीमांसा की मीमांसा आदि महान् है ॥ देश की आजादी में भी आप तनमन से जुटे जेलों के कष्टों को कुछ भी नहीं माने हैं। . नागपुर, सागर, अमरावती-कारागार उन्नीससौ वियालीस के आन्दोलन जाने हैं ॥ समाज की सेवा के कार्य भी अछूते नहीं। अनेक संस्थाओं के मंत्री सभापति रहे हैं। विद्वद् परिषद् वर्णी ग्रंथमाला-आदि के महत्त्वपूर्ण संचालन के--गौरव आप बने हैं। समाज-सुधारक, पत्रकार, दार्शनिक समन्वयवादी-स्याद्वादी वक्ता हैं। ओजस्वी-सरल-मधुरवाणी से ओतप्रोत जैन सिद्धान्त के प्रखर-प्रवक्ता आपका स्वभाव इतना सरल और प्रभावक है सहज ही सभीजन-आपके हो जाते है। ज्ञान के तो इतने अगाध भण्डार हैं आतिथ्य सेवा में बेजोड़ पाते हैं। इतनी वृद्धवय में भी लेखनी को विराम नहीं अनवरत-सैद्धान्तिक गुत्थियाँ सुलझाते हैं। ऐसे महान् महनीय विज्ञ पं० जी के चरणों में "सुमन" सुमनाञ्जलि देते हैं। चाँद और सितारों का जबतक निवास रहे। तबतक चिरायु रहें-ऐसी शुभ कामना भाते है । - महत्वपूण Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे सरस्वती के वरदपुत्र विद्ववर तुमको शत प्रणाम पं० विजयकुमार जैन, श्रीमहावीरजी हे सरस्वती के वरद पुत्र विद्वद्वर ! तुमको शत प्रणाम । परम भक्त ! व्याकरण विज्ञ, तुमको प्रणाम || हे जिनवाणी के चिन्तन सागर से मोती चुन, प्रज्ञा से उनकी चमकाया । उद्भ्रान्त जगत के आँगन में लो तुमने उनको बिखराया । जिनवाणी का नित मन्यन कर तुमने जो अमृत पाया है। तत्वार्थी जन को जो तुमने उसका आस्वाद कराया है। सत्यार्थी तुम तत्त्वार्थी तुम स्वाध्याय निरत है ख्यात नाम । विख्यात हुए विद्वद्गण में तुमको हम सबका नित प्रणाम || हे सरस्वती के वरद पुत्र पुरुषार्थी बन जीवन में तुमने नित नियतिवाद को ठुकराया । लख भारत माँ को पराधीन सेनानी जीवन अपनाया । लखकर कुरूढ़ियों को तुमने विद्रोही बिगुल बजाया है। शासन समाज हो स्वच्छ सदा यह गीत आपने गाया है ॥ अपने बलबूते पर चलकर तुम बने सदा ही एकनाम । अभिनव चिन्तन की सरणि पकड़ तुम बढ़े तुम्हें है नित प्रणाम ।। हे सरस्वती के वरद पुत्र । हे ज्ञानपुञ्ज ! तुमने श्रुत के मंथन का पथ नित अपनाया । पुरुषार्थ और व्यवसाय बुद्धि लख लक्ष्मी ने भी अपनाया । हे राष्ट्रभक्त ! हे धर्मभक्त ! तुमने सुनाम यह पाया है । 'वर्णी गणेश' पथ-चिह्नों पर सुमने अपने को पाया है ॥ विद्वत्ता के हे मूर्तरूप तुमसे समाज है ख्यातनाम | हे पुरुषार्थी व्यवसायी हे ! विद्वद्वर तुमको नित प्रणाम || हे सरस्वती के वरद पुत्र अभिनन्दनीय हे विद्वद्वर 'स्याद्वाद' तुम्हें नित है भावा । मिथ्या अभिमानी जन-मन जब एकान्त दृष्टि दूषित पाया । तब सुनयवाद का दीपक ले उनको सन्मार्ग दिखाया है । जिन आगम का हाँ सही मर्म तुमने उनको बतलाया है ॥ हे तत्त्वसमीक्षक चिन्तक हे तुम निज जीवन में हो अकाम । हे सत्य तस्व के नवदृष्टा तुमको समाज का नित प्रणाम || हे सरस्वती के वरद पुत्र हे विज्ञ, जिओ तुम युगयुग तक जो सत्पथ तुमने अपनाया । उस पर बढ़कर निज जीवन का तुमने रहस्य है जो पाया। वह शान्ति क्रान्ति का रूप आज जनजन के मन को भाया है । हे सौम्य, आपने अपने को उससे विमुक्त कब पाया है ? तुमसे सुविज्ञ को पाकर के है धन्य आज यह धराधाम । अभिनन्दन रत जन-जन का मन तुमको करता है नित प्रणाम || हे सरस्वती के वरद पुत्र Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंशीधरके ही प्रकाश से जिनवाणी है जगमग दमकी श्री हीरालाल जैन, बीना लेकर जनम सभी जगती पर बढ़ते-फलते अपने रूपजो समृद्ध धरा पा लेता वह बन जाता दिव्य-स्वरूप बढ़ना, फलना वह कहलाता जो निज बल से बढ़ जाता साधन और विपुलता पाकर अपना कुछ नहीं गढ़ता करता । उपवन का हर पादप भाई नहीं जरूरी छाया फल दे पर फलदार वक्ष बिन मांगे पन्थी को सबही दे डाले। जैन-जगत-के इस उपवन में नन्हें पौधे से बन तरुवरछाया अरु फल दोनों मिश्रित दिये समाज को शाश्वत् प्रियवर । पाया समाज ने रतन अनोखा जिसकी आभा प्रतिक्षण चमकी "बंशीधर" के ही प्रकाश सेजिनवाणी है जगमग दमकी। निश्चय और व्यवहार द्वन्द को सरल-सहजता से समझाया दोनों का निष्पादन करके पय से पानी सम नितराया। है आकांक्षा यह समाज को अपनी आभा और ज्ञान से कर आलोकित और प्रकाशित रहें निरन्तर चिरभिमान से । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युग गाये गुण गान श्री गोकुलचन्द्र “मधुर", हटा अभिनंदन है विज्ञ आपका, रहे सदा सम्मान पंडित बंशीधर जी का युग, गायेगा गुणगान । (१) सचमुच में बुन्देलखण्ड का, गौरव मय इतिहास सन्त, सूरमा, गुणी जनों का, हरदम रहा निवास इसी धरा के विद्वद्वर श्रीमन व्याकरणाचार्य जिनवाणी की सेवा करके, किये महा सत्कार्य धन्य ग्राम सोरई जिसकी रज, सचमुच बड़ी महान पंडित बंशीधर जी का युग गायेगा गुण गान पुण्यवान वो पिता सिंघई जी श्री मकून्दी लाल धन्य मात राधादेवी की गोदी हुई निहाल जिसने ऐसे सुत को जन्मा, जीवन धन्य बनाया जिसकी विद्वत्ता को लख कर, जन मानस मुसकाया जैन तत्त्व का ज्ञाता अनुपम है उद्भट विद्वान पंडित बंशीधर जी का युग गायेगा गुण गान तुम समाज के गौरव, तुम हो महा धरोहर थाती तुमने सच्चे मन से पढ़ ली, जैनधर्म की पाती देते रहें मार्ग दर्शन, पूरी करना आशायें हे साहित्य प्रणेता, किस विधि से एहसान चुकायें "मधुर" आपकी बनी रहे, इस भूतल पर मुस्कान पंडित बंशीधर जी का युग गायेगा गुण गान Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवर जीवें वर्ष हजार पं० बिहारीलाल मोदो, शास्त्री, बड़ामलहरा श्रेष्ठ सुधी आगमके ज्ञाता, अध्यातमके उद्भट विद्वान् । सरल स्वभावी अतिमृदुभाषी, मिलनसार अरु श्रेष्ठ पुमान । जगत हितैषी, जन-जन के प्रिय, विशाल हृदय अरु चतुर सुजान । ऐसे पण्डित बंशीधर को, करता हूँ शत शत वन्दन ॥ १ ॥ खानिया तत्वचर्चा की जिसने, लिखी समीक्षा सोच विचार । बारीकी से किया विवेचन, शंका समाधान द्वारा विस्तार ।। भंजन किया भ्रमित भावों को. लिखकर निश्चय व्योहार । ऐसे पण्डित प्रवर गुरु का, अभिनन्दन करता शत बार ।। २॥ ओजस्वी वाणी के द्वारा, जैनधर्म का किया प्रसार । विद्वज्जन में रहे अग्रणी, दिशाबोध का खोला द्वार ।। "लाल बिहारी" करें कामना, गरुवर जीवें वर्ष हजार । श्रद्धा सुमन समर्पित करता, पादपदम में बारम्बार ।। ३ ॥ आपको करें समर्पित पं० धरणेन्द्रकुमार जैन, शास्त्री, दमोह कृपा दृष्टि पड़ गई, ____ जिधर कल्याण हुआ है। कदम जिधर पड़ गये, उधर उत्थान हुआ है। हे! विद्वत्तवर सुयश, आपका क्या हम गायें। हे! गौरव गुण खान, आपके गुण क्या गायें । (२) काव्य, तर्क, व्याकरण, शास्त्र के ज्ञाता नामी। पूज्यनीय वर्णी गणेश, के पथ अनुगामी ।। देश धर्म हित सदा, आपने कष्ट सहे हैं। गाँधी जी के साथ, आप भी जेल गये हैं। छात्र और संस्थाओं के, अति ही हित चितक । जैन जगत व विद्वानों के, अति ही शुभ चिंतक ।। आज आपके अभिनंदन पर सब हम हर्षित । विनय सहित कुछ सुमन, आपको करें समर्पित ।। १-८ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ . सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य जैन साहित्याराधनामें समर्पित • श्री सुरेश जैन I. A. S., संचालक, लोक-शिक्षण, भोपाल • श्रीमती विमला जैन, मुख्य न्यायिक दण्डाधिकारी, भोपाल हमें यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि सकल जैन समाजने सरस्वतीके वरदपुत्र श्रद्धेय पं० बंशीधर जी व्याकरणाचार्यको अभिनन्दन-ग्रंथ भेंट करने का निर्णय लिया है । यह अत्यन्त ही सराहनीय कार्य है। __ श्रद्धय पंडितजी विगत साठ वर्षकी सुदीर्घ समयावधिसे अतुलनीय निष्ठा, लगन और रुचिसे जैन साहित्याराधनामें समर्पित हैं । वे अभी भी जिनवाणीकी साधनामें अनवरत संलग्न है। यह उनकी जीवटता एवं कर्मठताका प्रतीक है। गुरुणां गुरुकी यह साधना तथा योगदान निश्चित ही स्तुत्य है। उनके द्वारा लिखित ग्रन्थ समूचे समाजकी एक अद्वितीय एवं अमूल्य धरोहर हैं । भगवान्से प्रार्थना है कि पण्डितजी स्वस्थ और जागरूक रहकर सतत रूपसे अपना आशीर्वाद हमें प्रदान करते रहें। श्रद्धा-सुमन समर्पित हैं •पं० गुलजारीलाल जैन, शास्त्री, सागर पूज्य काकाजीके विषयमें कुछ भी लिखना सूर्यको दीपक दिखाना होगा, क्योंकि समाजमें चाहे वह बुद्धिजीवी हो या व्यवसायी सभी केवल 'बोना वाले पं० जी ऐसा कह देनेपर समझ ही नहीं जाता बल्कि वह भाव-विभोर हो जाता है और अगर रिश्तेदार हुआ तो गर्वका अनुभव करने लगता है। मुझे गर्व इससे भी अधिक है क्योंकि जिस मिट्टीमें उनका जन्म हुआ उसी मिट्टी में मेरा जन्म हुआ है और मेरे पितामह एवं पिताजीसे वैसा ही संबन्ध रहा जैसा कि किसी कुटुम्बी या भाई-भाई में रहता है । पूज्य काकाजीकी विशेषता है कि वे भटा-भाजी छोड़नेके उपदेशक पंडितजी नहीं, वरन् धर्मतत्त्वके वेत्ता और उसके उपदेशकके रूपमें हैं इसके अतिरिक्त राजनैतिक जीवन गौरवपूर्ण है। सामाजिक जीवन आपका कुटुम्बीजनोंके उठानेमें तो लगा और लग रहा है। प्रत्युत रिश्तेदारोंको ऊपर उठानेका प्रयत्न किया। समाजकी कुरीतियोंसे सदैव आपका संघर्ष चलता रहा व चल रहा है। जब दस्सा पूजाधिकारका प्रबल समाज में आया तो उसका आपने पुरजोर समर्थन किया। हमें प्रसन्नता है कि समाज आपको अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करने जा रही है। आपके पादकमलोंमें हमारे श्रद्धासुमन अर्पित हैं । पण्डित परम्पराके मूर्धन्य मनीषी • डॉ० ऋषभचन्द्र जैन फौजदार, आरा पण्डित-परम्पराके पोषण, जिनवाणीकी सेवा तथा प्रचार-प्रसारमें पं० बंशीधर जी व्याकरणाचायंका महनीय योगदान है। चौरासी वर्षकी अवस्था होनेपर भी आय सतत चिन्तन, मनन और लेखनमें संलग्न रहते हैं। प्राचीन पद्धतिके विद्वान् होते हुए भी पण्डितजीका चिन्तन किसी आधुनिक विचारकसे कम नहीं है । उनकी राष्ट्रीय, सामाजिक और सांस्कृतिक सेवाओंके उपलक्ष्यमें अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करनेका निर्णय स्तुत्य है तथा पण्डितजी को यह समाज और विद्वत् समुदायके लिए विशेष गौरवकी बात है । मान्य पण्डितजीके दीर्घायुष्यकी कामनाके साथ उन्हें मेरी हार्दिक मंगल-कामनाएँ हैं । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ शुभाशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएं : ५५ ल्लाव किमाश्चर्यमतः परम .पं० दयाचन्द्र साहित्याचार्य, सागर ____ वाराणसीके एक संस्कृतज्ञ विद्वान्के मुखसे व्याकरणकी क्लिष्टताके विषयमें हमने सुना है कि कारक कठिन कण्ठ नहिं - आवे तब समास मुगरा ले धावे । तद्धित बाप बाप चिल्लावे हा हा कर कृदन्त थर्रावे ॥ - इतना कठिन व्याकरण विषय होने पर भी श्री पं० बंशीधरजीने व्याकरणाचार्य-सागरको अपने बुद्धिबलसे पारङ्गत किया। सन १९४५ में श्री नाभिनन्दन दि० जैन विद्यालय, बीनामें प्रधानाध्यापक पदपर सरस्वती सेवाका शुभावसर प्राप्त किया। उस समय हमारे हृदयमें विचार आया कि यहाँपर एक व्याकरणाचार्य रहते हैं, जो वस्त्रके व्यापारी हैं। उनके सान्निध्यमें व्याकरणका अध्ययन अवश्य करना चाहिये। सबसे प्रथम आपने व्याकरणका महत्त्व दर्शाते हए हमें व्याकरणके अध्ययन में उत्साहित किया। आपने व्याकरणका महत्त्व व्यक्त किया विना व्याकरणं वाणी, रमणी रमणं विना । विवेकेन विना लक्ष्मीः , न सुखाय कदाचन ॥ १ ॥ व्याकरणेन पदे शुद्धि, पदशुद्धार्थनिर्णयः । निर्णयात् तत्त्वतः ज्ञानं, तत्त्वज्ञानान्तरे शिवम् ॥ २ ॥ एक वैयाकरण विद्वान् पिता अपने पुत्रसे कहता है यद्यपि बहुनाधीषे, तथापि पठ पुत्र! व्याकरणम् । __ स्वजनं श्वजनं माभूत्, सकलं शकलं सकृत् शकृत् ॥ तात्पर्य-पिता अपने पुत्रसे कहता है, कि हे पुत्र । यदि तुम अन्य विषय नहीं पढ़ना चाहते हो तो मत पढ़ो, परन्तु व्याकरण विषय अवश्य पढ़ो, जिससे कि शब्दोंकी सिद्धि और उनके अर्थोंका स्पष्ट बोध हो सके। यदि तुम व्याकरणसे शब्दोंका स्पष्ट अर्थ नहीं जान सके तो स्वजन (अपने भाई) को श्वजन (कुत्ता), सकल (सब) को-शकल (खण्ड या टुकड़ा) और सकृत् (एक बार) को शकृत् (मलमूत्र) समझकर अर्थका अनर्थकर जाओगे। . व्याकरणके इन महत्त्वपूर्ण श्लोकोंको सुनकर व्याकरणके पठन-पाठनमें हमारा उत्साह अत्यन्त बृद्धिंगत हो गया। तदनन्तर हमने आपसे दैनिक-अध्ययन कर "वैयाकरण सिद्धान्त कौमुदी" ग्रन्थका तीन वर्षों में सम्पूर्ण पारायण कर लिया। इस महान् विद्यादानरूप उपकारके उपलक्ष्यमें हम आपके प्रति भूयः भूयः कृतज्ञता व्यक्त करते हैं । "न हि कृतमपकारं साधवो विस्मरन्ति ।' स्याद्वाद महाविद्यालयमें अध्ययन समाप्त करनेके उपरान्त आपने किसी शिक्षा केन्द्रमें अध्यापन नहीं किया, अपितु निमित्तकारणोंके मिलने पर विद्वदवरने स्वतन्त्र व्यवसाय करना अपना लक्ष्य बनाया। 'अनम्यासे विषं विद्या' इति नीतिके अनुसार आत्मामें अधीत विद्याका विस्मरण हो जाना चाहिये था पर आप अनुभूत विषय-न्याय, व्याकरण, साहित्य, सिद्धान्त और दर्शनको विस्मृत नहीं कर सके यह आश्चर्यका विषय है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ स्तुत्य निर्णय • सिंघई श्री जयप्रकाश जैन, बड़कुल, वाराणसी • श्रीमती शशि जैन बड़कुल, वाराणसी हमें जब यह ज्ञात हुआ कि समाजके वरेण्य विद्वान् सिद्धान्ताचार्य पं. बंशीधरजी व्याकरणाचार्य, बीना ( म० प्र०) को अखिल भारतीय स्तर पर समाज अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंट कर सम्मानित कर रही है, तो हम लोगोंको हार्दिक प्रसन्नता हई। हमारा परिवार पण्डितजीसे पिछले ७०, ७५ वर्षसे सुपरिचित ही नहीं है, उनके आत्म-स्नेहसे ओतप्रोत रहा है। हमारे बाबा पूज्य सिंघई पन्नालालजी बड़कुल श्रद्धय पण्डितजीके ज्येष्ठ भ्राता सिं० ५० हजारीलालजी कोठिया (आदरणीय दाऊ डॉ० ५० दरबारीलाल कोठियाके पिताजी ) को अपने पुत्रों ( पूज्य चाचा रूपचन्द्रजी, चाचा राजधरलालजी. चाचा डालचन्द्रजी और पिताजी श्री मौजीलालजी ) को पढ़ाने हेतु नैनागिरजी (सिद्धक्षेत्र श्री रेशिंदीगिर, छतरपुर ) से सन् १९१४ में लिवा लाये थे। तभीसे पण्डितजीसे हसारे परिवारका नकट्य है । वे अपने बड़े भाईके पास आते-जाते रहते थे। हमारे बाबा उनसे बड़ा स्नेह रखते थे । यद्यपि आज न हमारे बाबाजी है, न तीनों चाचा है और न पिताजी हैं फिर भी उनका हमसे लगाव है। खास कर दाऊ ( डॉ० कोठिया ) और पिताजी बचपनमें तथा वाराणसी-सेवाकालमें एक ( लगभग तीन दशक ) रहे। पिताजी काशी विश्वविद्यालयके कई कालेजोंमें प्रधान कार्याधिकारी और दाऊ इसी विश्वविद्यालयके संस्कृत कालेजमें प्रवक्ता और बादको रीडर ( जैन-बौद्धदर्शन ) रहे । आज पिताजीके न रहनेपर भी दाऊ बनारस आनेपर घर ही ठहरते हैं और वही स्नेह बना हुआ है, जो पिताजीके साथ था। आज पूरा परिवार ( माताजी, चिरंजीव राजू और आयुष्मती अन्नो) बहुत खुश हैं कि श्रद्धेय काकाजी-पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य को समाज अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करके सम्मान कर रहा है। __ श्रद्धय पण्डितजीने राष्ट्र, समाज और साहित्यकी अपूर्व सेवा की है। राष्ट्रको गुलामीसे मुक्त करानेमें सन् ४२ के स्वतंत्रता-आन्दोलनमें जेल-यातना सही, दस्सापूजाधिकार आदि सामाजिक आन्दोलनोंमें समाजका मार्गदर्शन किया और आगम-पक्षको सुदृढ़ करनेके हेतु अनेक ग्रन्थ लिखकर जिन-वाणीकी साधना की। इस प्रकार पण्डितजी समाज द्वारा सम्मान पाने के निःसन्देह योग्य है। उन्हें हमारे श्रद्धा-सुमन अर्पित हैं। नैतिकताको प्रतिमूर्ति • वैद्यराज पं० सुरेन्द्रकुमार जैन आयुर्वेदाचार्य, बीना मेरा आदरणीय पण्डितजीके साथ चार दशकोंसे सुसंयोग चला आ रहा है। कभी-कभी उनसे कोई चर्चा छिड़ गयी तो घंटों वह चलती रही । भले ही चर्चा तात्त्विक हो या सामाजिक । वे चर्चा में इतने डूब जाते हैं कि दुकानदारीकी ओर भी उनका ध्यान नहीं जाता। उनके ज्ञानके तलको स्पर्श करना दुष्कर है। वैयाकरण होकर भी बड़े सूक्ष्म प्रज्ञ तार्किक एवं दार्शनिक है। आचार्योंकी कठिन पंक्तियोंके रहस्यको समझने में उन्हें देर नहीं लगती है । ऐसी असाधारण उनकी प्रज्ञा एवं विद्वत्ता है । पण्डितजीने कहीं किसी विद्यालयमें अध्यापन न कर आरम्भसे बीनामें ही वस्त्र व्यवसाय किया है। उनकी उल्लेखनीय विशेषता है कि वे एक भाव पर विक्रय करते हैं और ग्राहक विश्वासपूर्वक खरीदते हैं। उनके क्रय-विक्रयमें एक पैसेका अन्तर नहीं होगा, चाहे आठ वर्षका बच्चा ही उनकी दुकान पर पहुँचे। वस्त्र-व्यवसायके अलावा समस्त लोकव्यवहारोंमें भी उनकी असाधारण नैतिकता समाई हुई है। मैं उनके भूरि गुणोंकी प्रशंसा करता हुआ उनके स्वास्थ्य एवं शतायुष्यकी शुभ कामना करता हूँ। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएं : ५७ पूज्य पण्डितजीसे एक वार्ता • श्री श्रेयांसकुमार जैन, पत्रकार, ककरवाहा ( टीकमगढ़ ) आदरणीय कोठियाजीका ७६वें जन्म दिन पर १३ जून ८७ को ककरवाहा, (टीकमगढ़ ) में अमृत-महोत्सवका आयोजन था। उसके पश्चात उन्हें बोना तक पहुँचानेकी जिम्मेवारी मुझे सौंपी गई। बीना पहुँचने पर मैंने पंडितजीके २४ घण्टेकी दैनिक, अनुशासित, व्यवस्थित दिनचर्या देखी. आश्चर्य हुआ। मैंने पूज्य पण्डितजीसे कहा कि मैं आपके सम्बन्धमें आपसे वार्ता करना चाहता हूँ। मैंने कहा कि आपने आजादीके समरमें संघर्ष किया है। अतः वार्ता उद्देश्य यही है कि युवा पीढी संघर्षशील व्यक्तिके जीवन से प्रेरणा ले। पहले पण्डितजी साहबने मुझे प्रेमसे बैठाया, घर-परिवार एवं अन्य चर्चायें की। तत्पश्चात् बोलेपूछो, क्या पूछना है ? प्रश्न-आप जैन जगतके प्रमुख विद्वानोंमें से एक हैं। ऐसे समय, जबकि हर व्यक्ति डॉक्टर, इंजीनियर, वकील आदि बननेकी आकांक्षा रखता था । संस्कृत जैसे कठिनतम विषयको पढ़नेका प्रेरणास्रोत क्या रहा? पं० जी-जिस समय हमने पढ़नेका विचार किया उस समय दो बातें थी. एक धार्मिक भावना और दूसरा साधनोंका अभाव । प्रश्न-जैन दर्शनमें ही आपने आगम और अध्यात्मको छोड़कर व्याकरणको प्रमुखता क्यों दी ? पं० जी-मेरी दृष्टि सिद्धान्त और धर्मको स्पष्ट करनेकी रही है। इतिहास, पुरातत्त्व और साहित्यिक नहीं। प्रश्न-मानव-जीवन क्या है अर्थात् उसका रहस्य क्या है, जबकि आपने जिन्दगीके हर पहलूको नजदीकसे देखा है ? उत्तर-मनुष्यता उसे कह सकते हैं, जिसका आधार नैतिक हो । यानि मनुष्यको जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें राजनीतिक, आर्थिक, जीवन-संचालन आदि जितनी प्रवृत्तियाँ हो सकती हैं उन सबमें कर्तव्य भावना एवं नैतिकता रखनी चाहिए। प्रश्न-विद्यार्थी-जीवनकी कोई अविस्मरणीय घटना है ? पं० जी-कोई नहीं। प्रश्न-एक ओर जैन पुराने मन्दिर और शास्त्र जीर्ण हो रहे हैं और दूसरी ओर नित नये मन्दिर व नया साहित्य सृजन किया जा रहा है। इस सम्बन्धमें आपकी क्या राय है ? पं० जी-आज मन्दिरोंका निर्माण आवश्यक नहीं है। समाज को इधरसे ध्यान हटाकर संस्कृतिके विकास और पुराने मन्दिरोंके जीर्णोद्धार तथा शास्त्रोंकी सुरक्षाकी ओर ध्यान लगाना चाहिये। प्रश्न-पं० जी साहब, आपने स्वतंत्रता आन्दोलनमें महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। स्वतंत्रताके पूर्व एवं आजकी राजनीतिमें आप क्या अंतर महसूस करते है ? पं० जी-जिस समय देशको स्वतंत्र बनाना था उस समय जो लोग आन्दोलनमें कदे उनकी एक ही भावना थी देशको स्वतंत्र बनाना और उन्होंने इस सम्बन्धमें जो भी कार्य किये व्यक्तिगत लाभ और हानिकी उपेक्षा करके किये। जबकि आज प्रत्येक व्यक्ति चाहे राजनीतिक हो, चाहे वह गैर राजनीतिक हो सभी व्यक्तिगत लाभाकांक्षासे पीड़ित है । इनके सामने राष्ट्र के संरक्षण, उत्थान आदिका कोई महत्त्व नहीं है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ प्रश्न-40 जी साहब, अब एक निजी प्रश्न पर आ गया है। आपने प्रारम्भसे व्यापारिक क्षेत्रमें ही क्यों पर्दापण किया ? नौकरी या अन्य क्षेत्रको क्यों नहीं चुना? । पं० जी-मेरी दृष्टि सविसकी ओर तो रही है, परन्तु वह आजीविकाकी दृष्टिसे नहीं रही। जैन संस्कृतिकी सेवा और उसके उत्कर्षको भावनासे रही। मेरी भावना व्यापारिक क्षेत्रमें आनेकी मजबूरीमें हुई और मजबूरी यह थी कि मेरे ससुर साहब ऐसी कठिनाईमें नहीं डालना चाहते थे जिस कठिनाईका निराकरण करनेके लिये उन्होंने मुझे अपना दामाद बनाया था। प्रश्न-आपने अनुभव किया होगा कि आजका युवा वर्ग शीघ्र उद्वेलित हो जाता है। आपके विचारसे इसके क्या कारण हो सकते है ? पं० जी-आज उद्वेलित तो सभी लोग हो रहे हैं और इसका कारण यह है कि उनका एक तो भोग और संग्रह अनर्गल हो गया। दूसरे धार्मिक शिक्षण संस्थान जिस आशासे खोले गये थे उससे निकले हए विद्वानोंने अपना कर्तव्य निष्ठासे नहीं निभाया है। इसीलिये ये धर्मके विषयमें समाजको प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं। इसके अलावा-सामाजिक बन्धन जो समाजके हितमें थे वे भी वर्तमान उच्छखल वातावरणसे टूट गये। फलतः जो बुरायहाँ फैली उनपर अब नियन्त्रण नहीं रहा। आजकलकी शिक्षा भी व्यक्तिको उच्छृखल ही बना रही है। प्रश्न-आजका ज्वलंत सामायिक प्रश्न पंजाब समस्या है, उसपर आपको क्या राय है ? पं० जी-पंजाब समस्या या अन्य राष्ट्रीय समस्यायें राजनीतिक पार्टियोंकी देन हैं। व्यक्ति या जातियाँ स्वभावतः स्वार्थी हैं राष्ट्रीय भावनाका सभीमें अभाव है इसीलिये ऐसी समस्याओंका लगातार महात्मा गांधी जैसे व्यक्तित्त्वको जीवनमें उतारने वाले व्यक्ति ही हल कर सकते हैं। प्रश्न-पण्डितजी साहब, युवा-पीढ़ीको आपका सन्देश क्या है ? पं० जी-मैं किसीको भी संदेश देने में सक्षमताका अनुभव नहीं कर रहा हैं। पण्डितजीसे हुई इस वार्तासे विभिन्न पहलू उजागर होते हैं । मैं उनका अभिनन्दन करते हुये जीवेत् शरदः शतम्की कामना करता हूँ। आगमके पक्षधर • वैद्य पं० धर्मचन्द्र शास्त्री, इन्दौर श्रीमान् पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य, बीनाका नाम स्वर्णाक्षरोंमें लिखे जाने योग्य है। उन्होंने आगमका पक्ष लेकर जो लेख अथवा ग्रन्थ लिखे हैं उनसे पण्डितजीकी आगम-विज्ञता एवं निष्ठा समाजके सामने आयी है। उनका 'वीर वाणी में प्रकाशित 'आगममें कर्मबन्धके कारण' लेख कर्म बन्धपर बहत ही स्पष्ट और नया प्रकाश डालनेवाला है। इसी प्रकार अन्य लेख भी उनकी दार्शनिक और आगमिक विद्वत्ताको प्रकट करते हैं। सोनगढ़ विचारधाराके समर्थनमें लिखी गयी "जैन तत्त्वमीमांसा"में लिखी गयी आपकी "जैन तत्त्वमीमांसाकीमीमांसा" आगम पक्षको स्पष्ट करती और उसका समर्थन करती है। "खानिया (जयपुर) तत्त्वचर्चा"का पुस्तकका आपने 'खानिया तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा' शीर्षकसे लिखे ग्रन्थ द्वारा जो उत्तर दिया है वह पूर्णतया आगमाधारसे दिया गया सटीक एवं सप्रमाण उत्तर है। इस तरह पण्डितजीकी विद्वत्ताका लाभ जैन समाजको जो मिला है वह स्तुत्य है । उन्हें हम अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करके अपने कर्तव्यका निर्वाह कर रहे हैं। उन्हें हमारे शत-शत नमन हैं। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएं : ५९ बहु आयामी व्यक्तित्त्व • डॉ. मोतीलाल जैन, खुरई सम्माननीय पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यका व्यक्तित्त्व बहु आयामी है। स्वतन्त्र वस्त्र-व्यवसायसे लेकर राष्ट्रके स्वतन्त्रता-आन्दोलन तकमें उन्होंने असाधारण योगदान किया है। उनका वस्त्र-व्यवसाय इतना नैतिक है कि वे आज पूरे प्रदेशमें बड़े आदर और श्रद्धाके साथ देखे जाते हैं। एक तो उनका कोई प्रतिद्वन्दी नहीं है और कोई हो भी तो उसके भी हृदयमें उनकी नैतिकताकी धाक सुस्थिर है। उनके ग्राहक बड़ी संख्यामें हैं और वह निरन्तर बढ़ रही है। उनका विश्वास भी इतना है कि किसान दश-दश, बीस-बीस हजार रुपया बैंकमें न रखकर उनके पास रख जाते हैं और पण्डितजी उन रुपयोंको एक-एक लिफाफेमें उनके नामसे अलग रखते है । किसान जब भी समय-बेसमय आता है वे रुपये उसे थमा दिये जाते हैं । पण्डितजीकी इस नीतिको उनके सुपुत्रोंने भी अपना रखा है। 'एक भाव' की दुकान चलाना और किसानों तथा ग्राहकोंका ऐसा विश्वास अजित करना आजके समयमें कम है। पण्डितजीकी निस्पृहता इतनी है कि स्वतन्त्रता सेनानियोंको शासनने कई सुविधाओंके साथ जमीनें भी दी थीं। पर पण्डितजीने उनकी चाह न करके उपेक्षा कर दी। जब उन्हें समझाया गया कि 'अन्य हजारों स्वतन्त्रता सेनानियोंको भी ये सुविधाएं दी गयी हैं, आप भी स्वीकार करें।' तब पण्डितजीने उन्हें स्वीकार किया। समाज और उसकी संस्थाओंको मन्त्री, अध्यक्ष आदि पदोंसे जो मार्ग-दर्शन दिया है वह उल्लेखनीय विद्वत्परिषद्, वर्णी ग्रन्थमाला जैसी सार्वजनिक संस्थाएँ हों और चाहे स्थानीय नाभिनन्दन दिगम्बर जैन हितोपदेशनी संस्था हो, सभीका पण्डितजीने निष्ठाके साथ संचालन किया है। - साहित्य-साधना तो उनके जीवन व्यापी है और आज भी ८५ वर्षकी अवस्थामें उसमें तन्मयताके साथ लगे हुए हैं । वस्तुतः वे असाधारण प्रतिभा और बहु आयामी व्यक्तित्वके धनी हैं। उन्हें अभिनन्दन-ग्रन्थ समर्पणके अवसरपर हमारे बहुशः नमन है । वे स्वस्थ मेधा, स्वस्थ वाणी और स्वस्थ शरीरसे युक्त शत वर्ष जोवी हों। अभिनन्दनीयका अभिनन्दन •पं० रवीन्द्रकुमार जैन, विशारद, दमोह हमने श्रद्धेय व्याकरणाचार्यजीको बहत देरमें पहचाना । उनका अभिनन्दन इससे बहुत पहले हो जाना चाहिए था। किन्तु 'जब जागे तभी सवेरा' की उक्तिके अनुसार उनका अब अभिनन्दन हो रहा है, यह खुशीकी बात है। पण्डितजीसे कोई ऐसा क्षेत्र नहीं छूटा, जिसमें उन्होंने अधिकारपूर्वक कार्य न किया हो । राष्ट्रीय क्षेत्रमें की गयी उनकी सेवा और त्यागको कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। वे 'स्वतन्त्रता सेनानी के रूपमें प्रदेशमें तथा देशमें हमेशा याद किये जायेंगे। समाजके क्षेत्रमें उन्होंने दस्सापूजाधिकारके आन्दोलनमें सक्रिय भाग लिया और वह अधिकार उन्हें दिलाया । वे आज हमारे साथ बराबरीमें हैं । साहित्य-साधना तो उनकी अनूठी है। वे आज भी आगमके पक्षधर हैं और आगमानुसार अनेक विषयोंका स्पष्टीकरण करनेमें संलग्न हैं । हम उन्हें श्रद्धाके साथ नमन करते और उनके स्वस्थ एवं शतायुष्क जीवनकी कामना करते हैं । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० : सरस्वतो-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ विशिष्ट प्रतिभाके धनी • डॉ० शीतलचन्द्र जैन, प्राचार्य, श्री दिगम्बर जैन आचार्य संस्कृत महाविद्यालय, जयपुर व्याकरणाचार्यजीके नामसे प्रसिद्ध पं० बंशीधरजीको भारतके जैन विद्वानोंमें उनकी स्वयंको विशिष्ट विचार शैलीके कारण एक पृथक् मूर्धन्य मनीषी विद्वान्की कोटिमें गिना जाता है । आप मात्र चारों अनुयोगोंके ही ज्ञाता नहीं है, अपितु आप स्वतन्त्र विचारक, समाज सुधारक, स्वतन्त्रता सेनानी और निर्भीक वक्ताके रूपमें भी जाने जाते हैं । सौभाग्यसे सरस्वतीके साधक-आराधक मनीषी पूज्य पण्डितजीके अभिनन्दन-ग्रन्थके सम्पादक मण्डलमें मुझे भी स्थान मिला हुआ है। अतः पण्डितजीके प्रायः सभी विधाओंसे सम्बन्धित लेख पढ़नेको मिले । उन लेखोंके पढ़नेसे मुझे कभी ऐसा आभास होने लगता था कि ऐसी विचारधारा जैन शास्त्रोंमें तो नहीं मिलती। परन्तु जब लेखको पूर्ण पढ़ करके पूज्य गुरुवर्य पं० डॉ० दरबारीलालजी कोठियासे एवं स्वयं व्याकरणाचार्यजीसे विचार-विमर्श होनेपर पूरा सिद्धान्त गले उतरने में देरी नहीं लगती थी। मेरी स्वयंकी मान्यता है कि व्याकरणाचार्यजीकी चाहे खानिया तत्त्वचर्चा हो या कार्यकरणभाव और कारकव्यवस्था आदि ग्रन्थ, सभी उनकी स्वयंको विशिष्ट विचार-शैलीसे युक्त हैं। जैसे कि पण्डित 'जैन दर्शनमें कार्यकारण भाव और कारकव्यवस्था' नामक ग्रन्थमें व्यवहारनयकी चर्चामें उन्होंने कहा है कि आगममें व्यवहारनयको अभूतार्थ कहा है परन्तु अभूतार्थका अर्थ असत्य ग्रहण करना नहीं है अपितु अभूतार्थका अर्थ है कि वह (व्यवहार) वस्तुके स्वाश्रित और अभेदात्मक स्वरूपको ग्रहण नहीं करके पराश्रित व भेदात्मक स्वरूपको ग्रहण करता है । इसलिये व्यवहारनय अभूतार्थ कहा है । इसी प्रकार पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, वाराणसी द्वारा 'सन्मतिसन्देश', वर्ष १६, अंक २ में प्रकाशित "उपादानकारण ही कार्यका नियामक होता है" इस लेखके उत्तरमें इसी पुस्तकके परिशिष्टमें जो उत्तर दिया है वह उत्तर इतना साधार एवं यक्ति-युक्त है कि उपादान और निमित्त दोनोंकी नियामकताको सिद्ध करता है। वस्तुतः पण्डितजीके सभी ग्रन्थ एवं लेख आगम एवं न्यायके विशिष्ट ग्रन्थोंके समझनेके लिये मार्गदर्शकका कार्य करते हैं। जैनदर्शनमें कार्यकारण और कारक व्यवस्था जैसी पुस्तक विश्वविद्यालयमें दर्शनशास्त्रके छात्रोंके पाठ्यक्रममें निर्धारित करने योग्य है। ऐसे विशिष्ट विचार शैलीके धनी मनीषी विद्वान् व्याकरणाचार्य हम सभी नवीन शैलीके विद्वानोंके लिये दीर्घकाल तक मार्गदर्शक बने रहें इस भावनाके साथ मैं उनके दीर्घ जीवनकी कामना करता हूँ। मंगल कामना •शाह खूबचन्द्र जैन, बीना मुझे इस बातसे अत्यन्त प्रसन्नता है कि पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यका अभिनन्दन होने जा रहा । आठ वर्षकी छोटी आयमें न उनके ऊपर माँका साया था और न ही पिताका। तभीसे उनके जीवन में संघर्षों की शुरुआत हुई और आज तक संघर्ष किये जा रहे हैं। आदर्शकी बात यह है कि उनका संघर्ष स्वयं केन्द्रित कभी नहीं रहा। सन् १९४२ के राष्ट्रीय आन्दोलनमें, दस्सा पूजाधिकारके मामलेमें. गजरथ विरोधी आन्दोलनमें तथा कई राष्ट्रीय तथा सामाजिक संस्थाओंमें आपने सक्रिय भूमिका निभाई । आज भी वे अपनी लेखनीसे आगमानुकूल जिनवाणीकी गहराई नापनेका प्रयास किये जा रहे हैं । वे हमारे बहनोई होनेके कारण वैसे भी अभिनन्दनीय हैं। समस्त समाजके द्वारा अभिनन्दन किया जाना उनके द्वारा अबतक किये गये संघर्षों एवं जिनवाणीकी सेवाका परिणाम है। वे शतायु हों तथा अपने लक्ष्यको प्राप्त करें यही मंगल कामना है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएँ : ६१ एक निस्पृही साधु-सम वास्तविक गृहस्थ • श्री सुलतान सिंह जैन, एल० एल० बी०, बुलन्दशहर आपकी शिक्षा ऐसे गुरुके आश्रममें हुई कि आप उनके ही समान निर्भीक जैनदर्शनके माने हुए विद्वान् बन गये। पं० बंशीधरजी, व्याकरणाचार्यने पू० क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णोकी छत्रछायामें स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसीसे व्याकरणाचार्य, साहित्यशास्त्री आदि उपाधियाँ प्राप्त कर अपना जीवन प्रारम्भ किया। आपकी जीवन-यात्राको हम तीन भागोंमें बाँट सकते हैं। (१) स्वतन्त्रता सेनानीके रूपमें (२) सामाजिक-सुधारकके रूपमें और (३) तत्त्व-निर्णायकके रूपमें । १. स्वतन्त्रता सेनानी-१९३० में महात्मा गाँधीने पूर्ण स्वतन्त्रताका नारा लगाया। १९३१ में नमक कानून तोड़नेका आवाहन किया, आप तभीसे इस संग्राममें कूद पड़े। १४४२ के देशव्यापी भारत छोड़ो आन्दोलनमें आप ९-१० माह तक सागर व नागपुरकी जेलोंमें भी रहे। आप प्रान्तीय कांग्रेस कमेटीके सदस्य रहे और वर्षों नगर कांग्रेस कमेटीके अध्यक्ष रहे। २. समाज-सुधारक-जहाँ देशमें स्वतन्त्रताको लहर दौड़ रही थी, वहीं समाजमें सुधारोंकी बाढ़सी आ रही थी। आपने दस्सा पूजाधिकारका पूर्ण समर्थन किया। जो लोग वर्षोंसे धर्मकी अभिलाषासे तड़प रहे थे, उन्हें उनका अधिकार दिलाने में पूर्ण सहयोग दिया। आप वर्षों सनातन जैन पत्रके सम्पादक रहे । पत्रका सम्पादन बड़ी तत्परता, निर्भीकता और लगनसे किया। मेरा परोक्ष परिचय तभीसे आपसे है क्योंकि मेरे पिता श्री मंगतराय जैन, साधु भी सनातन जैन समाजके एक अंग थे। प्रत्यक्ष दर्शन आपके शास्त्रीय परिषद्के ललितपुर अधिवेशनमें हए । आपका व्यक्तित्व बड़ा सरल है, आपने अपनी विद्याको जीवन-यापनका साधन नहीं बनाया, वरन् अपने स्वतन्त्र व्यापारमें संलग्न रहे हैं । ३. तत्त्व-निर्णायक-सोनगढ़से निश्चय-एकान्त-मिथ्यात्वकी बाँग आ० कुन्दकुन्दके समयसारके नामपर लगी। स्वभावतया विद्वानोंका उधर ध्यान आकर्षित हुआ। लगभग सभी विद्वानोंने उसका विरोध किया । समाजका दुर्भाग्य रहा कि स्वर्णकी चमकमें एक-आध विद्वान् सोनगढ़के हाथ बिक गया। यही नहीं, कुछ श्रेष्ठी वर्ग भी ऐसे ही मोहमें और आत्माकी बातके लोभमें आ गये, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि आल्हा-ऊदल सुनकर आदमी वीर रसमें बह जाता है । खानियाँ तत्त्वचर्चामें व्याकरणाचार्यजीका प्रमुख हाथ रहा है। जयपुरखानिया तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षाका पहला भाग ४ प्रश्नोंका प्रकाशित हो चुका है। दो भाग और होने हैं, जो प्रायः तैयार हैं, जिनका प्रकाशन समाजका सहयोग चाहता है। इस पुस्तककी एक प्रति अवश्य होनी चाहिये और पहली तीन पुस्तकोंकी कम-से-कम तीन-तीन प्रतियोंका होना आवश्यक है। एक मन्दिरपर इस हिसाबसे १००) का खर्चा आता है जो कुछ भी नहीं है। इन पुस्तकोंके निकलनेपर अगले भागोंका प्रकाशन सुगम हो जायेगा और समाजको सावधान करता रहेगा। इतना देशभक्त और जिनवाणी भक्त होते हुए भी न तो देशवासियोंने इस निस्पृही व्यक्तिको ऊंचा उठाया, न दि० जैन समाज उसको याद कर सका । अब उनकी आँखें खुली हैं और उनको कुछ लताड़ा है, साथ ही अब भी थपकी दे रहे हैं जिसका ज्वलन्त उदाहरण २०-७-८९ का जैन सन्देशका सम्पादकीय है। अन्तमें मान्य गुरुदेवकी दीर्घायुको मंगल-कामना करते हुए, उनके चरणोंमें नत-मस्तक होकर नमस्कार करता हूँ। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ श्रद्धय पण्डितजीका स्तुत्य अभिनन्दन .५० कमलकुमार शास्त्री, 'कुमुद', खुरई श्रद्धेय पं. बंशीधरजी व्याकरणाचार्यका सदा स्मरण किया जावेगा। उन्होंने आगमकी रक्षा की है और उसे विकृत होनेसे बचाया है । निश्चयएकान्तका जो धुआँधार प्रचार किया गया उसमें सामान्यजनोंकी बात ही क्या, अच्छे-अच्छे सिद्धान्ताचार्य विद्वान भी उसमें बह गये। व्याकरणाचार्यजीने निमित्तको अकिं चित्कर बतानेवालोंका डटकर मकाबला किया और उसके लिए 'जैन दर्शनमें कार्य कारणभाव और कारक व्यवस्था' ग्रन्थमें सिद्ध किया कि कार्योत्पत्तिमें निमित्त उतना ही भागीदार है जितना उपादान । उपादानको निमित्त न मिले तो वह अनन्तकाल तक उपादान ही बना रहेगा, उपादेय नहीं बन पायेगा। रोटीके बनने में आटा उपादान है पर उसमें पानी, रोटी बनाने वाला, उरसा, बेलन, आग, लकड़ी आदि सहकारी कारण न मिले तो आटा त्रिकालमें रोटी नहीं बन सकेगा। भव्य जीवको देव-शास्त्र-गुरुका सान्निध्य न मिले और अन्तरंगमें दर्शनमोहनीयका उपशम-क्षय-क्षयोपशमका निमित्त न मिले तो उसे सम्यग्दर्शन अनन्तकालमें भी प्राप्त नहीं हो सकता। इस प्रकार व्याकरणाचार्यजीने निमित्तोंको कार्यकारी सिद्ध करके उपादानोपादेय भावकी तरह निमित्त-नैमित्तिक कार्यकारणभावको भी आवश्यक एवं अनिवार्य सिद्ध किया है। यही आगमकी प्ररूपणा है। व्याकरणाचार्यजीने अपनी कृतियों द्वारा स्तुत्य प्रयास करके आगमको विकृत होनेसे बचाया है। वे समाज द्वारा अवश्य अभिनन्दनीय है । हम उनके स्वास्थ्य एवं शतायुष्यकी हार्दिक कामना करते हैं। वेश, समाज एवं राष्ट्रको अनुपम विभूति • श्री बाबूलाल जैन फागुल्ल, वाराणसी • श्रीमती पुष्पादेवी जैन, वाराणसी श्रद्धेय ५० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यके अगाध ज्ञानकी जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। वे आगम ग्रंथोंके महाज्ञाता और पारखी हैं । उनकी लेखनीमें बल है कि किसी भी प्रकारकी गुत्थीको इतनी सरलतासे आगम प्रमाणोंके आधार पर अकाट्य बना देते हैं और विषयका प्रतिपादन ऐसी सूक्ष्म रीतिसे करते हैं कि सामान्य पाठक भी सहजतासे हृदयंगम कर लेता है। जयपुर खानिया तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा, जैनशासनमें निश्चय और व्यवहार, जैन तत्त्वमीमांसाकी मीमांसा जैसी महान कृतियाँ हैं जिनका सभी क्षेत्रोंमें समादर हआ है और उन्हें यश भी मिला है। और उनकी ज्ञानाराधनाकी साधना सफल हई है। यही नहीं, देश और राष्ट्र की सेवामें भी वे अग्रणी रहे हैं यही कारण है कि वे धुनके पक्के, चिन्तनशील एवं विचारक है साथ ही सहृदय भी। सबको अपना बना लेनेकी उनकी कला भी अनूठी है। हम लोगों के प्रति उनका सहज स्नेह है। ऐसे प्रतिभाशाली समाजसेवी, राष्ट्रभक्त चिन्तक मनीषीका इस अभिनंदन ग्रंथ समर्पणकी बेलामें हृदयसे मंगल कामना हैं कि वे स्वस्थ तथा दीर्घायुष्य प्राप्त कर हम सबको मार्गदर्शन देते रहें ताकि धर्म, समाज, राष्ट्रकी सेवा होती रहे। इसी भावनाके साथ मैं अपने श्रद्धा-सुमन, विनयाञ्जलि समर्पित करता हूँ। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभ कामनाएं : ६३ वे अद्वितीय व्यक्ति हैं • श्री देवेन्द्र कुमार जैन, मोटरवाले, सागर पूज्य पण्डितजीको दिनचर्या नियमित है। उनका वस्त्र-व्यवसाय न्याययुक्त और प्रत्येकके लिए विश्वासोत्पादक है। उदारता और वात्सल्य तो उनमें ऐसे हैं कि वे कभी उनके करने में चकते नहीं हैं । विद्वानों के प्रति उनका अनन्य स्नेह रहता है । अपने सिद्धान्त के वे पक्के हैं। जब मेरी बच्ची आयुष्मती नलिनीका विवाह उनके मझले पुत्र चि० विवेक कुमारके साथ हुआ तो उन्होंने भेंटमें एक रुपया और एक नारियल स्वयं । तथा अन्य सभी बरातीजनोंको भी एक रुपया और एक नारियल मात्र दिलाया। क्या गृह, क्या दुकान, क्या जीवन-व्यवहार और क्या धार्मिक जीवन सबमें एकरूपता है। मैं उन्हें एक आदर्श पुरुष मानता हैं। उनके अभिनन्दनके अवसरपर उन्हें श्रद्धा-सुमन समर्पित करता हुआ उनके शतायुः होने की शुभ-कामना करता हूँ। सहजता एवं धीरजको मूर्ति .श्री लखमीचंद सिंघई, एम. काम., एल. एल. बी. एडवोकेट, खुरई पण्डितजी स्वतन्त्र चिन्तक और गम्भीर विचारक हैं। "सुखी जीवनके लिये स्वतंत्र विचार होना चाहिये ।" (दार्शनिक गेटे) । स्वतंत्र विचार हेतु निष्कर्मण्यताका त्याग होना आवश्यक है, जिसे पण्डितजीने अपने जीवनमें कभी नहीं आने दिया । जीवनमें अपनी जगह न ढूंढ़ पानेवाले आदमियोंकी प्रवृत्तिको पंडितजी ने कभी फटकने नहीं दिया। पंडितजी शरूसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेससे सजीव जुड़े रहे । स्वतंत्रता-संग्रामके सैनिक रहे। मैंने बहुत पाससे पंडितजीके जीवन व नियतको देखा और पहचाना है, सिद्धान्तोंसे समझौता पंडितजीने सीखा ही नहीं । बीना-इटावाका पोस्ट-आफिस पंडितजीके निवासके पास रहा आया। पंडितजीका खाता उसमें था। खाते से जालसाजीसे कुछ रुपया पोस्ट-आफिस कर्मचारियोंने हेरा-फेरी कर दिया। लम्बे समयके बाद पंडितजीको पता चला । मुझे वकालत शुरू किये करीब ३ वर्ष हुये थे, पण्डितजीने मुझे कार्यवाही विधिगत तौरसे करने हेतु कहा । मैंने उन्हें आग्रह किया कि मात्र कुछ ही रुपयोंका गड़बड़ हुआ है, न्यायालयमें समय व पैसा दोनों का भारी खर्चा होता है । आपको इतना समय कहाँ है। पण्डितजीने एक ही उत्तर दिया कि यदि हम कार्यवाही नहीं करेंगे तो यह गलत आदत न जाने कितने लोगोंको क्षति पहुँचावेगी। इसलिये मात्र छोटी रकम न देखकर प्रजातान्त्रिक प्रणालीके स्वतंत्र भारतमें न्याय व कानूनका डर बना रहे, अपनेको कार्यवाही करना है । न्यायाधीश महोदय श्री ए० के० अवस्थी थे, जिनके न्यायालयमें प्रकरण चला । साक्ष्यमें पोस्ट-आफिसके अधीक्षकको खर्चा भरना पड़ा। वह खर्चा हेरा-फेरी की गई राशिसे दोगुनेसे ज्यादा होता था, न्यायाधीश महोदयने भी पंडितजीसे प्रकरण समाप्त करने हेतु सुझाव दिया, क्योंकि प्रकरणकी विषय-वस्तु मात्र छोटी-सी राशि थी, किन्तु पंडितजीने इंकार कर दिया। केवल इसलिये कि ऐसा करने वालोंको भविष्यमें ऐसा न हो, इसके लिये ही मात्र उन्होंने कानूनी कार्यवाही चाही है। आगे चलकर जब पोस्टआफिसके संबंधित कर्मचारियोंको प्रकरणमें फसते व नौकरीसे निकाले जानेकी स्थिति देखी तो पंडितजीने क्षमा कर दिया और सारा खर्चा व राशि छोड़ दी। करीब २ वर्षतक पेशियोंमें आनेकी चिन्ता नहीं की और प्रकरण वापिस ले लिया, यह विनम्रता एवं क्षमाका गण पंडितजीमें देखा। यह घटना करीब सन् १९७२ की है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ : सरस्वती-बरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ इसी प्रकारके और भी कई प्रसंग मैंने पंडितजीमें देखे । दुसरी घटना ये है कि इटावा (बीना) जैन मंदिरका पंजीकृत न्यास है। पंडितजीके साथमें इटावाके निष्ठावान समाजसेवी सिंघई आनन्दकुमारजी भी रहे आये हैं जो निरबिरोध नगरपालिका के निर्वाचित अध्यक्ष एवं कृषि उपज मंडीके अध्यक्ष रहे। दोनों महानुभावोंने मुझे संपर्क किया। मंदिर की ६० एकड़ भूमिपर कब्जा व नामदर्ज नहीं हो पा रहा था। राजस्व विभागमें कानून कम द्रव्य अधिक महत्त्वपूर्ण रहता है। पण्डितजीको मैंने स्पष्ट कहा कि कानूनी स्थिति तो मंदिरके पक्षमें पूरी है किन्तु भ्रष्टाचार के आगे शिष्टाचार कमजोर पड़ रहा है। पंडितजी एवं सिंघईजीने कहा कि जो पैसा खर्च हो जहाँ तक भी लड़ना पड़े कानुनसे चलेंगे, हम लोग निजी खर्चा करेंगे, किन्तु भ्रष्ट आचरण नहीं करेंगे और न ही श्री जैन मंदिरका एक पैसा गलत उपयोग होने देंगे, न ही क्षति होने देंगे, कार्यवाही करो। मैंने उनके दृढ़ विश्वासपर कार्यवाही की। कुछ परेशानियाँ आई। किन्तु बिना गलत रास्ता अपनाये विजयीश्री प्राप्त हुई। पंडितजीको कभी-कभी न्यायालयमें अपने निजी कार्यसे भी आना हुआ दिन भर बैठनेके बाद शामको पेशी बढ़ा दी जाती कोई कार्यवाही आगे प्रकरणमें नहीं होती किन्तु पंडितजी ने ऐसा कोई आभास अपने आचरणसे नहीं होने दिया, जिससे न्यायालयको यह भास हो सके कि कोई विशिष्ट प्रकारका महत्त्वपूर्ण व्यक्ति पंडितजी हैं। एक बार जब ज्यादती मेरे मनको छू गई तो मैंने न्यायालयको बताया, जिसपरसे श्रीमान् एन० एच० खान सिविल जज महोदयने क्षोभ प्रकट किया और पंडितजीसे आग्रह किया कि आपको बताना चाहिये था, तो पंडितजीने अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए नम्र व शिष्ट दन कर कहा कि न्यायालयमें सभी बराबर हैं। आदेश व कार्यवाही में समय लगता है, छोटे-बड़ेका भेद नहीं होता, उसे मानना हमारा कर्तव्य है। साहसपूर्वक धीरज भी रखना चाहिये, इस प्रकारकी सहजता, धीरजकी मूर्ति इटावा-बीना तहसील खुरई और बुंदेलखण्डकी मिट्टी में जन्मे जैन-दर्शनके मूर्धन्य विद्वान, समाजमान्य श्री पंडित बंशीधरजी व्याकरणाचार्यमें है जिनके दीर्घ जीवन एवं स्वस्थ रहने हेतु मंगल-कामना मैं, मेरे परिवारजन, मित्रगण करते हैं । "जैनं जयतु शासनम्" वात्सल्य की विलक्षण प्रतिमति •श्री सुमतिप्रकाश जैन, सहायक प्राध्यापक शास० महाविद्यालय, बीना जीवन है उनका सरल-सरल ___ इतना मधुमय, निश्छल अद्भुत, कि प्रकृति स्वयं कहती घूमे वह हैं केवल एक पुरुष, चूंकि मेरे पिताश्री (डॉ. नरेन्द्र विद्यार्थी) एवं मातृश्री (डॉ० श्रीमती रमा जैन) के प्रति पण्डितजीका अनन्य आशीष और शिष्यत्वभाव शुरूसे ही रहा है। अतः मुझे भी बीनामें पण्डितजी और उनके परिजनोंसे अपनत्व, स्नेह और आशीष मिला। आज पण्डितजी जैसा आतिथ्य और विद्वत् प्रेमी मिलना बड़े दुर्लभ सौभाग्यकी बात है। जहाँ वे एक विशुद्ध पण्डित तथा विद्वान् के रूपमें जाने जाते हैं वहीं वे एक शुद्ध शालीन और सत्यनिष्ठ व्यवसायीके रूप में प्रसिद्ध हैं। बीना तो क्या, आस-पासके इलाकोंमें उन जैसा 'एकदाम' एवं सारी व्यावसायिक व सरकारी औपचारिकताओं-देयताओंका पूर्ण निष्ठा एवं ईमानदारीसे समयपर नियमानुसार पालन करनेवाला व्यवसायी नहीं मिलेगा। उनका पारिवारिक एवं व्यावसायिक आचरण उच्चस्तरीय शुद्धता व विश्वासका प्रतीक माना जाता है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभ कामनाएँ : ६५ मेरा बीना-प्रवास सुखद और भाग्यशाली इसीलिए है कि मुझे एक-साथ दो महापण्डितों पूज्य पण्डित बंशीधरजी व पूज्य डॉ० दरबारी लालजी कोठियाका स्नेहाशीष घर बैठे ही मिल रहा है। इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ। में पूज्य पण्डितजीके सुदीर्घ स्वास्थ्यकी कामना करता हूँ । मेरा उन्हें शत्-शत् अभिवन्दन • श्री विमल कुमार जैन, गोरखपुर सिद्धान्ताचार्य पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य, शास्त्री, न्यायतीर्थकी लेखनी युवाकालसे ही मानवकल्याण हेतु, सतत् ज्ञान-वर्द्धन करती चली आ रही है । आप जैन दर्शनके प्रख्यात विद्वान् हैं। आज ८५ वर्षकी आयुमें भी आपकी लेखनी अविरल गतिसे चल रही है। आपकी "जैन-शासनमें निश्चय और व्यवहार", "जैन दर्शन कार्यकारणभाव और कारक व्यवस्था". "पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी", "भाग्य और पुरुषार्थ', आदि अनेक मौलिक कृतियाँ जैन सिद्धान्तोंकी प्रदर्शिका है। हम परम प्रतिभावान् पण्डितजीके दीर्घायुकी कामना करते हुए उनके चरणोंमें सादर-वन्दन करते हैं। श्रद्धेय सरस्वतीपुत्रको शत्-शत् प्रणाम • श्रीमती पुष्पा शाह, बीना आदरणीय पण्डितजी हमारे ननदेऊ साहब हैं। हमारे परिवारके शिरोधार्य हैं। हमारे परिवारके ' साथ उनका सदैव स्नेहपूर्ण व्यवहार रहा है । उन्हें निष्ठावान् एवं प्रतिष्ठावान् कहनेमें हमें गौरवका अनुभव होता है। __शोकग्रस्त होनेपर जब मैं कभी उनके पास जाती हूँ, तब वह काफी समवेदना प्रदान करते हैं। किसी भी प्रकारका वैमनस्य पैदा होनेवाला प्रसंग नहीं आता तथा सदैव अपने आपमें तटस्थ रहते हैं। वास्तवमें वे वैभवशील, विवेकशील एवं विनीत व्यक्तित्वके धनी हैं, इसी कारण उनके परिवारमें सुखद सुगन्ध फैल रही है । हमारी ननद लक्ष्मीबाई वास्तवमें नामके ही अनुरूप थीं। वह पण्डितजीके प्रति बडी ही कर्तव्यपरायणा रहीं। आदरणीय भौवाजीके सम्बन्धमें क्या लिख, हमारे पास पर्याप्त शब्द नहीं हैं। हम तो यही शभकामना करो हैं कि वे स्वस्थ एवं दीर्घायु हों। मेरी हृदयाञ्जलि • डॉ० कपूरचन्द जैन, खतौली "कोऊ पंडित भये हैं जैन साहित्य के प्रगटावने खों और भारी भये हैं वश पंडिताई दिखावने खों। पर सूखी विद्या जा व्याकरण खों, कोऊ पढ़त नंइयाँ वश बंशीधर ही भये हैं 'जैन व्याकरण' के तारणे खों।" पूज्य पण्डितजीके दीर्घायु जीवनकी कोटिशः शुभकामनाएँ। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ महामनस्वी विद्वदुत्न • डॉ० भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु' अध्यक्ष-संस्कृत प्राकृत विभाग, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दमोह सरस्वती - वरदपुत्र, श्रद्धेय पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य अपनी ऊर्जस्वित् क्रियाशीलता, अप्रतिम विद्वत्ता, मौलिक चिन्तना, युक्त्यागम तर्क-पुरस्सर लेखन क्षमता, निर्भीक वक्तृता, अदम्य साहस, देव-शास्त्रगुरु के प्रति अटल निष्ठा, राष्ट्रीय / सार्वभौम विचारधारा और तदनुरूप प्रवृत्तियोंसे समवेत होने के कारण विगत आठ दशाब्दियोंके जीवन्त इतिहास हैं । उनके व्यक्तित्व में तीर्थंकर महावीर का जीवनदर्शन, महात्मा गांधीकी राष्ट्रीय प्रेरणा, सन्तप्रवर गणेशप्रसाद वर्णीका समाजोत्थान और शिक्षाप्रसार तथा ऐसे ही अनेक सन्तों- मनीषियों के दिव्य ललाम कृतित्वका चारुतम निदर्शन हुआ है । राष्ट्रीय स्वातंत्र्य संग्रामके सजग प्रहरी और गम्भीर अध्येता श्री व्याकरणाचार्यजीके व्यक्तित्व और उनकी कार्यशैली विषयमें यथेष्ट जानकारी मुझे अपनी छात्रावस्थाके प्रारंभिक दिनों (सन् १९५१) में ही हुई । उन दिनों वे अखिल भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषद् के मंत्री थे और पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य संयुक्त मंत्री । वि० प० कार्यालय सागर में क्रियाशील था । विद्वत्परिषद्‌के कार्यकलापोंको नियंत्रित तथा प्रोत्साहित करनेके निमित्त वे समय-समय पर सागर पधारते थे । पं० पन्नालालजी से विचार-विमर्श करते समय व्याकरणाचार्यजीकी सूझबूझ और संस्था संचालनकी कुशल पद्धतिसे मैं बहुत प्रभावित था । १९५२ में पूज्य वर्णीजी नैनागिरजीमें विराजमान थे । पं० जी इसी समय विधान सभाके चुनाव में प्रत्याशी थे । हमलोग सागर विद्यालयकी ओरसे नैनागिर गये थे । वहाँ पहुँचे विद्वानोंसे पूज्य वर्णीजीने जिन गुण-गरिष्ठ शब्दों में पं० व्याकरणाचार्यजीके चुनाव सन्दर्भको चर्चा की, उससे ध्वनित हुआ कि वर्णी जैसे सन्तके मनमें 'व्याकरणाचार्यजी कितने गहरे पैठे हैं । समाज में व्याप्त अशिक्षाके कुहर शिक्षाकी उपेक्षा, कुरूढ़ियोंके व्यामोह और विशृंखलित प्रवृत्तियोंसे व्याकरणाचार्यजी न केवल चिन्तित रहे हैं, प्रत्युत इनके निरसन हेतु उन्होंने सदैव प्रयत्न किये हैं । व्याकरणाचार्यजीका ८४ वर्षीय जीवन इन्हीं प्रवृत्तियोंका सांगोपांग प्रतिबिम्ब है । वे समाज सेवा और राष्ट्र सेवामें भी अग्रणी हैं । समाजके समीचीन विकासके लिए आपने श्री नाभिनन्दन जैन हितोपदेशिनी सभा, सन्मति प्रचारिणी सभा आदि संस्थाओंको संगठित करके विद्याप्रसार और संस्कार सृजन किया तथा बहुव्ययसाध्य गजरथ जैसे आयोजनों की अनावश्यकता / व्यर्थता, साबित की है । सर्वप्राणि-साम्यभावके प्रतिपादक जैनधर्म के अनुयायियों में पारस्परिक भेद-दस्सापूजा प्रकरण आदिको दूर करने हेतु कठोर प्रयत्न किये और उनमें अच्छी सफलता प्राप्त की । उनके द्वारा सम्पादित पत्रिकाएँ ऐतिहासिक दस्तावेज हैं । जैनदर्शनके मूल तत्त्वोंकी विवेचनामें बढ़ती हुई स्वेच्छाचारिताको रोकनेके लिए आपने समाजको आन्दोलित किया, यथार्थको निरूपित करनेवाले अनेक ग्रंथ लिखे और आर्षमार्ग प्रतिपादक साहित्य-सृजन में अभी ८४ वर्षकी वृद्धावस्था में भी निरत हैं । वस्तुतः यह कार्य अभिनव और प्रकृष्ट योगदान व्याकरणाचार्यजीका समग्र जीवन चिन्तन-लेखन, समाज- राष्ट्र सेवा और स्वावलम्बी व्यवसायसे ओत-प्रोत है । शिक्षा और लेखनको उन्होंने कभी अर्थोपार्जनका माध्यम नहीं बनाया है । ऐसे निर्भीक महामनस्वी विद्वद्रत्नको यद्यपि 'सिद्धान्ताचार्य' प्रभृति सम्मानोंसे विभूषित किया गया है, पुनरपि उनके समग्र व्यक्तित्व और सार्थक सृजनसे युगको परिचित कराने और पूज्य पं० जीके दिव्य Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएँ : ६७ ललाम कृतित्वके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने हेतु उनका अखिल भारतीय अभिनन्दन और एतदर्थ अभिनन्दन ग्रन्थका प्रकाशन-समर्पण एक चिर अपेक्षित महनीय कार्य है। मैं, इस अवसर पर, पूज्य पं० जीके महनीय योगदानको गौरवपूर्वक नमन कर उनके चिरायुष्ककी कामना करता हूँ--'जीवेत् शरदः शतं, भूयश्च शरदः शतात्' इति । जैनतत्त्वोंके समीचीन विश्लेषक •श्री विजयकुमार मलया, अध्यक्ष-जैन पंचायत, दमोह श्रद्धेय पं० बंशीधरजीकी पर्यायवाची बन गयी है उनकी उपाधि--'व्याकरणाचार्य' । वे सर्वत्र इसी सम्बोधनसे पहचाने जाते हैं । उनके व्यक्तित्व और वैदुष्यके सृजनमें पूज्य वर्णीजीका महत्त्वपूर्ण अवदान है । 'समयसार' प्रभृति आर्ष ग्रन्थोंके हार्दको वर्णीजीने जिस रूपमें व्याख्यात किया, वही पद्धति पं० व्याकरणाचार्यजीने जैन तत्त्वोंके समीचीन प्रस्तुतिकरणमें अपनायी है। पं० जीका यह प्रयत्न जैन संस्कृति संरक्षणको दिशामें नितरां अभिनन्दनीय है। उनके प्रति हमारी कोटिशः मंगल कामनाएँ। क्रान्तिकारी व्यक्तित्व .श्री जयकुमार इटोरया, अध्यक्ष-दमोह किराना व्यापारी संघ अध्यक्ष-इटोरया सार्वजनिक न्यास एवं उपाध्यक्ष-दमोह जैन पंचायत देशके अन्य भागोंकी अपेक्षा बुन्देलखण्ड आज भी पिछड़ा हुआ है। अबसे पचास वर्ष पूर्वके इसके पिछड़ेपनकी तो केवल कल्पना की जा सकती है। किन्तु आज जिन बातोंको कल्पनाके बल पर साक्षात् करनेका प्रयास करते हैं सौभाग्यसे 'खद्योतवत् सुदेष्टारो, हा द्योतन्ते क्वचित् क्वचित्'-की भाँति उन परिस्थितियोंके प्रत्यक्ष-दृष्टा कहीं-कहीं अब भी विराजमान हैं। ऐसी ही विभूतियोंमेसे एक हैं-सिद्धान्ताचार्य पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य ।। राष्ट्रमें महात्मा गांधी, सुभाषचन्द्र बोस और सामाजिक धरातल पर क्षु० गणेशप्रसादजी जैसे महापुरुष एक निजी विशिष्ट शैलीमें राष्ट्र और समाजके उत्थानमें जुटे थे । बुन्देलखण्डका जैन समाज भी साधनहीन था। शिक्षाके एक तो यहाँ साधन ही नहीं थे और फिर समाजका भी ध्यान इस ओर नहीं था। हाँ, बाह शौकत दिखावेवाले झूठी मान प्रतिष्ठा वाले कामोंमें जरूर ही समाज दत्तचित्त था। अतः ५० वर्णीजीके कार्योको सामने रखकर पूज्य व्याकरणाचार्यजीने समाजमें अलख जगाया । यहाँकी समाज गजरथ-आयोजनमें बहत धन व्यय करती थी, बच्चोंकी शिक्षा आदि पर उसका ध्यान प्रायः नहीं था। फलतः इस बहु व्ययसाध्य अनावश्यक आयोजनको समाप्त करने | स्थगित कराने / निश्चित अन्तरालके बाद आयोजित करानेके लिए व्याकरणाचार्यजीने सुव्यवस्थित ढंगसे आन्दोलन चलाया । केवलारीके रथोंके समय उन्होंने जो आन्दोलन चलाये थे और उनमें जो सफलता मिली थी, उसकी अच्छी यादें मुझे आज भी तरोताजा हैं। क्योंकि मेरे बड़े भैया (स्व०) भागचन्द्रजी इटोरया, दमोह ऐसे सभी कार्यों में श्रद्धेय पंजीके सक्रिय समर्थक और अनुयायी थे। मैं भी एक नन्हें सिपाहीकी भूमिकामें उनके साथ रहता था। पं० जीके इन आन्दोलनोंका प्रभाव इतना अवश्य परिलक्षित हुआ कि उन दिनों रथ चलाने की गतिमें अन्तराल आ गया था। समाजका आचार-विचार कैसा हो रहा है और हमारी प्राथमिक आवश्यकताएँ क्या है ? इस ओर ध्यान देनेके लिए अब पुनः जोरदार आन्दोलनकी जरूरत है। मैं पूज्य पं० जीकी संस्कृति-सेवाको अत्यन्त गौरवके साथ प्रणाम करके भगवान जिनेन्द्र देवके शासनसे प्रार्थना करता हूँ कि पूज्य पं० जी चिरायु हों तथा उनका सन्देश घर-घर पहुँचे । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ वे सर्वतोभावन अभिनन्दनीय हैं •श्री वीरेन्द्र कुमार इटोरया, मंत्री, जैन पंचायत, दमोह .श्री महेन्द्र कुमार सिंघई, कोषाध्यक्ष, जैन मिलन, दमोह परय आदरणीय सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य ने राष्ट्र, समाज एवं जैन साहित्यको निरन्तर सेवा एवं उपासना हेतु जो अपने जीवनके ६० वर्षोंसे भी अधिकका समय प्रदान किया है वह चिरस्मरणीय है। आपके द्वारा प्रणीत ग्रन्थ एवं साहित्य सुदीर्घ काल तक जैन जगत, अध्यात्म प्रेमी समाज एवं शोध छात्रोंको मार्गदर्शन करते रहेंगे। कुरूिढ़वादी प्रथाओं एवं सामाजिक कुरीतियोंकी समाप्ति हेतु अपने जीवन में निरन्तर संघर्ष आपकी एक विशेषता रही है। स्वतंत्रता संग्रामके दौरान मातृभूमिकी रक्षा एवं राष्ट्रीय भावनाओंके वशीभूत होकर आपमे जो संघर्ष किया है एवं वर्षों जेलकी यातनायें सहन की हैं वे प्रशंसनीय है, फलतः सम्पूर्ण राष्ट्र आपकी सेवाओं का ऋणी है। अपनी ८४ वर्षीय उनमें भी आप लेखन चितन अध्ययन एवं ज्ञान-दानकी जो सेवायें प्रदान कर रहे हैं वे अभिनन्दनीय हैं। आपका पूर्ण जीवन सादगी पूर्ण होते हुए भी जीवन का हर क्षण समाज एवं राष्ट्र हेतु समर्पित है, अतः आप सर्वतोभावेन अभिनन्दनीय हैं । अभिनन्दन ग्रंथ समर्पण मात्रसे हम आपकी सेवाओंसे उऋण नहीं हो सकते, यह तो मात्र प्रतीक है। आपके एवं आपके कार्योंके प्रति हमारी अपार श्रद्धा है। हमारी शुभकामनायें एवं नमन स्वीकार करें । मूलाम्नाय-संरक्षण हेतु सदैव जागरूक .सिंघई देवकुमार रांधेलीय अध्यक्ष, सिंघेन चम्पाबाई ध० प० सिं० तुलसीरामजैन पारमार्थिक न्यास, कटनी श्रद्धेय पं० व्याकरणाचार्यजीने आजीवन समाज-सुधार, समाजोत्थान, शिक्षा-प्रसार, संस्कृति संरक्षण, मलाम्नाय रक्षण और राष्ट्र सेवाके महनीय कार्य किये हैं। इसलिए मैं अनेकशः उनके कार्योंकी अभिवन्दना करता हूँ और उनके यशस्वी दोघंजीवनकी आकांक्षा करता हूँ उनका कोटिशः अभिनन्दन करता हूँ। राष्ट्र भारतीके सजग प्रहरी • चौधरी शिखरचन्द्र जैन, साहित्यरत्न मंत्री, श्री पार्श्वनाथ जैन मन्दिर ट्रस्ट, रीठी, कटनी मान्यवर पं० बंशीधरजीने शिक्षा, साहित्य, दर्शन, समाज सुधार और राष्ट्रदेवताकी महती आराधना की है । वे राष्ट्रभारतीके सजग प्रहरी हैं। वे चिरायु प्राप्त कर मानवमात्रके आदर्श रहें। उनका कोटिशः अभिनन्दन करता हूँ। विनयाञ्जलि .५० अमतलाल जैन शास्त्री. दमोह सरस्वती पुत्र पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य, न्यायतीर्थ जैनदर्शन एवं संस्कृत साहित्यके अद्वितीय विद्वान हैं । आप जैन समाजमें आद्य व्याकरणाचार्य हैं। आपने अनेक विषयोंका गहन चिन्तन किया है। आपके लेख विद्वद्वर्ग में बड़ो श्रद्धाके साथ पढ़े जाते है । आप आर्षमार्गानुयायी तथा उसके समर्थक विद्वान् हैं । निश्चय व्यवहार और कार्यकारणभावको लेकर आपके जो ग्रन्थ प्रकाशित हुए वे सर्वत्र समादृत हुए हैं ८४ वर्षकी अवस्था में भी आप युवाओंके समान लेखन और चिन्तनमें जागरूक है। अभिनन्दनकी बेलामें मैं आपके प्रति अपनी विनयाञ्जलि समर्पित करता है। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रन्थ के प्रकाशन में विशिष्ट आर्थिक सहयोग देनेवाले महानुभाव श्रीमती सुधारानी जैन, सागर (धर्मपत्नी सेठ डालचन्द्र जैन) सेठ हुकमचन्द्र बम्हौरीवाले, सागर श्री सौभाग्यमल जैन, लखनऊ श्री नरेन्द्रकुमार जैन, हैदराबाद श्रीमती शकुन्तला, सागर (धर्मपत्नी श्री इन्दरचन्द जैन) शाह अमृतलाल जैन, बीना श्रीमती वृजमनी देवी, गोरखपुर (धर्मपत्नी राय देवेन्द्रप्रसाद) श्री जयकुमार इटोरया, दमोह स्व० शाह निर्मलकुमार, बीना Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रन्थ के प्रकाशन में विशिष्ट आर्थिक सहयोग देनेवाले महानुभाव शाह खूबचन्द्र जैन, बीना सेठ मोहनलाल बरायठावाले सागर सेठ दरबारीलाल, D.C.M. वाले सागर श्री कोमलचन्द्र जैन, सागर सेठ कोमलचन्द गिदवाहा वाले सागर श्री सन्तोषकुमार जैन, सागर श्रीमती शान्तिदेवी जैन, लखनऊ (धर्मपत्नी श्री सौभाग्यमल जैन) श्रीमती कस्तूरीबाई बड़कुल (माते० जयप्रकाश, वाराणसी) श्रीमती पुष्पादेवी जैन, वाराणसी (धर्मपत्नी बाबूलाल जैन फागुल्ल) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन में आर्थिक सहयोगियों की नामावली ५००१) सेठ मोहनलाल बाबूलालजी धामौनी वाले, सागर ५००१) डॉ० दरबारीलालजी कोठिया, बीना ३००१) सेठ देवेन्द्र कुमारजी, मोटरवाले, सागर ३००१) सेठ हुकमचन्दजी डॉ० महेन्द्र कुमार जैन, सागर ३००१) श्री नरेन्द्र कुमार जैन, हैदराबाद ( पं० बालचन्द्रजी शास्त्री की स्मृति में ) २१००) अखिल भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषद् २१००) श्रीमती सुधारानी जैन, सागर (धर्मपत्नी सेठ डालचन्द जैन ) २०००) डॉ० मोतीलालजी जैन, खुरई २१००) श्री दिगम्बर जैन समाज, ११०१) श्रीमती सुगन्धी जैन, बीना ११०१) श्रीमती नलिनी जैन, बीना ११०१) श्रीमती किरण जैन, बीना स्टेशन मंडी, गंजबासौदा १०००) अरिहन्त स्टील एण्ड एलायज लिमिटेड, मुजफ्फरनगर ११०१) श्रीमती शकुन्तला जैन, सागर (धर्मपत्नी श्री इन्दरचन्द जैन ) १००१) श्रीमती तारारानी खुरई (धर्मपत्नी सुदेशचन्द्र जैन ) ७० १) श्री जयकुमार इटोरया, दमोह, ( भागचन्द्र इटोरया सार्वजनिक न्यास ) ५५१) श्री सौभाग्यमल जैन, लखनऊ ५५० ) ५०१ ) श्रीमती शान्तिदेवी जैन, लखनऊ (ध० प० सौभाग्यमल जैन) श्री शीलचन्द जी पटोरिया, इन्दौर ५०१ ) श्री कोमलचंद अशोक कुमार जैन, पिड़रुआ वाले, सागर ५०१ ) सेठ मोहनलाल लखमीचन्दजी जैन, सागर ५०१ ) श्री कोमलचन्द सुबोध कुमारजी, सागर ५०१) ब्र०, पं० माणिकचन्दजी चवरे, अधिष्ठाता म० ब्र० कारंजा (महाराष्ट्र) ५०१ ) सेठ दरबारीलाल, विजयकुमार जैन, सागर ५०१) श्री सन्तोष कुमार जैन, सागर ५०० ) श्री नीरज जैन, सतना ५०१ ) पण्डित बालचन्दजी जैन, नवापराराजिम ५०१) शाह अमृतलालजी, प्रमोद कुमारजी, बीना ५०१ ) श्रीमती पुष्पा शाह, बीना ( मातुश्री दिलीप, प्रदीप, शैलेष, राजा शाह ) ५०० ) श्रीमती वृजमनी देवी, गोरखपुर (धर्मपत्नी राय देवेन्द्र प्रसाद ) ५०१ ) श्रीमती कस्तूरीबाई बड़कुल, वाराणसी ( मातेश्वरी जयप्रकाश जैन ) ५०१ ) श्रीमती पुष्पादेवी जैन, वाराणसी (धर्मपत्नी बाबूलाल जैन फागुल्ल) ५०१) सिंघई जीवनकुमार अरुणकुमार जैन, सागर ५०१ ) श्रीमती श्रीदेवी (धर्मपत्नी सिं० नेमिचन्दजी जैन, पथरिया ) ५०१ ) श्रीमती मीना जैन, वाराणसी (धर्मपत्नी नरेन्द्र कुमारजी ) ५०१ ) श्रीमती धर्मभागिनी गजाबेनजी, बाहुबली Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१) श्री सुहागमलजी वकील, गंजबासौदा १०१) श्री रतीचन्द्रजी रामलालजी, (द्वारा श्री हीरालालजी जैन) गंजबासौदा १०१) क्षी बालचन्द्रजी अशोक कुमार जैन, गंजबासौदा १०१) श्री नेमीचन्द्रजी वकील साहब, गंजबासौदा १०१) श्री भगवानदास ऋषभ कुमारजी जैन, गंजबासौदा १०१) श्री नन्नुमल रमेशचन्द्रजी जैन, गंजबासौदा १०१) श्री शीलचन्द्रजी जैन, दालवाले, गंजबासौदा १०१) बाबू रतनचन्द्रजी विमलचन्द्रजी सर्राफ, गंजबासौदा १०१) श्री गुलाबचन्द्रजी दीपचन्द्रजी, गंजबासौदा १०१) श्री नन्दकिशोर जैन प्राचार्य, गंज बासौदा १०१) श्री डॉ० जवाहरलाल जैन, गंजबासौदा १०१) श्री राजकुमारजी वकील, गंजबासौदा १०१) श्री बाबूलाल जैन, गंजबासौदा १०१) डॉ० गुलाबचन्द्रजी जैन नोगई वाले, गंजबासौदा १०१) श्री मिठूलाल जैन वकील, गंजबासौदा १०१) श्री जिनेन्द्रकुमार जैन, सिरनौदा गंजबासौदा १५१) सेठ कोदुलालजी, तेंदूखेड़ा १०१) श्री शचीन्द्र कुमार मोदी, तेंदुखेड़ा १०१) सिंघई दयाचन्द्रजी पड़वारवाले, सागर १५१) डॉ० नरेन्द्र कुमार जैन, वाराणसी १०१) श्री कमलचन्द्र विमल कुमार समैया, मण्डीबामौरा १०१) श्री बाबलालजी गडा, मण्डीबामौरा १०१) पण्डित बाबुबालजी राजकूमार, मण्डीबामौरा १०१) भाई खशालचन्द्रजी कठरया, मण्डीबामौरा १०१) श्री चुन्नीलालजी कठरया, मण्डीबामौरा १०१) श्री लखमीचन्द्र प्रदीपकुमार चौधरी, मण्डीबामौरा १०१) श्री चम्पालाल विजय कुमार नायक, मण्डीबामौरा १०१) श्री हुकमचन्द्र अजित कुमार बड़कुल, मण्डीबामौरा १०१) श्रीमती ताराबाई पटोरिया, रायपुर १०१) श्री ऋषभ कुमारजी एवं श्रीमती स्नेहलता जैन, खुरई १०१) श्रीमती चन्द्रा सेठी (धर्मपत्नी फूलचन्द्र सेठी), खुरई १०१) श्री धन्नालालजी सेठी, खुरई १०१) श्री जिनेन्द्र कुमारजी गुरहा, खुरई १०१) चौधरी शिखरचन्द्रजी साहित्यरत्न, रीठी १००) श्रीमती धामीदेवो नन्दलाल जैन, बम्बई १०१) पं० विजय कुमार जैन, श्रीमहावीरजी १०१) पण्डित दुलीचन्द्र जैन, बीना १०१) श्री शाह प्रेमचन्द्र जैन, बीना Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रन्थ के प्रकाशन में विशिष्ट आर्थिक सहयोग देनेवाले महानुभाव सेठ देवेन्द्रकुमार जैन, मोटरवाले, सागर लाला शिखरचन्द्र जैन, दिल्ली श्री सुरेश जैन, भोपाल श्री वीरेन्द्रकुमार इटोरया, दमोह श्री इन्दरचन्द जैन, सागर । सिंघई देवकुमार रांधेलीय, कटनी श्रीमती पूनाबाई जैन, सोरई (पत्नी स्व० श्री परमेष्ठीदास कोठिया) श्रीमती श्रीदेवी जैन, पथरिया (धर्मपत्नी सि० नेमिचन्द्र जैन) श्रीमतो विमला जैन, भोपाल (धर्मपत्नी श्री सुरेश जैन) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रन्थ के प्रकाशन में विशिष्ट आर्थिक सहयोग देनेवाले महानुभाव श्री रतनलालजी जैन, गंगवाल, दिल्ली श्री मोतीलालजी जैन ढोलकबीडी, सागर लाला श्रीचन्द्रजी जैन, मुजफ्फरनगर (चेयरमैन अरिहन्त स्टील एण्ड एलायज लि.) श्री विजयकुमारजी मलैया दमोह पं० बालचन्द्रजी काव्यतीर्थ, नवापारा राजिम श्री शीलचन्द्र जैन, पटोरिया, इन्दौर Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१००) श्री रतनलालजी गंगवाल, अध्यक्ष दि० जैन महासमिति १५०१) श्री मोतीलालजी जैन ढोलक बीड़ीवाले, सागर १००१) श्री लाला शिखरचन्द्रजी जैन, दिल्ली ५०१) श्री सेठ रज्जूलाल बाबूलाल जैन सैतपुरवाले, बीना ५०१) श्री सुरेशचन्द्र जी जैन, नैनागिरि वाले भोपाल ५०१) सिं० देवकुमार रांधेलीय, कटनी ५०१) श्री विजयकुमारजी मलैया, दमोह ५००) श्री बाबूलालजी पहाड़े, हैदराबाद ५०१) शाह खूबचन्द्रजी, बीना २५१) पण्डित रविचन्द्रजी जैन, दमोह ३०१) श्री दुलीचन्दजी नाहर, सागर २०१) श्री कोमलचन्दजी, दमोह २०१) श्री महावीर प्रसाद नृपत्या, जयपुर २०१) पण्डित राजकुमारजी शास्त्री, निबाई १५०) श्री शान्ति प्रसादजी जैन, टिकैतनगर १५१) श्री सुरेश चन्द्रजी जैन, अम्बिकापुर १५१) श्री पन्नालालजी जैन, इलाहाबाद १५१) सिंघई हीरालालजी सेसईवाले, बीना १५१) श्रीमती फुलन बाई जैन, बीना १५१) डॉ० नरेन्द्र कुमार विद्यार्थी छतरपुर वाले एवं सुमतिप्रकाश जैन १५१) श्री निर्मल कुमार राजेश कुमार जैन, तेंदूखेड़ा १५१) पं० पूर्णचन्द्र जैन सुमन, दुर्ग १०१) पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य, सागर १०१) श्री अशोक कुमार फुसकेले वकील सदन, सागर १०१) श्री अशोक कुमारजी शिक्षक, गुरुकुल, खुरई (म० प्र०) १०१) श्री नेमिचन्द्रजी जैन, प्राचार्य, गुरुकुल, खुरई (म० प्र०) १०१) श्री सिं० राजेश कुमार जिनेश्वरदास जैन, खुरई (म० प्र०) श्री डॉ० राजकुमारजी जैन, एम. बी. बी. एस., खुरई १०१) श्री सिं० वीरेन्द्र कुमारजी जैन, खुरई (म० प्र०) १०१) श्री सुमत प्रसादजी जैन, दिल्ली १००) श्री मेवारामजी जैन, बम्बई १०१) प्रो० निहालचन्द्रजी जैन, बीना १११) श्री गुलाबचन्द्रजी आदित्य, भोपाल १०१) डॉ० हीरालाल जैन, रीवा १०१) पण्डित गुलाबचन्द्रजी 'पुष्प' टीकमगढ़ १०१) श्री वीरेन्द्र प्रधान भारतीय स्टेट बैंक, सागर १०१) श्रीमती सोमाबाई (धर्मपत्नी सिंघई भागचन्द्रजी, कटंगी) १०१) श्रीमती नन्हीं बाई, पथरिया (धर्मपत्नी हेमचन्द्रजी जैन) १०१) श्री डा Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ ) श्री दि० जैन आचार्य संस्कृत महाविद्यालय, जयपुर १०१ ) श्री आर० सी० जैन, उज्जैन १०० ) १०० ) श्री विजयकुमार पाटनी, जयपुर श्री प्रेमचन्द्रजी, जयपुर १०१) श्रीमती सुशीला जैन, जयपुर १०१) डॉ० शीतलचन्द्र जैन, आचार्य, जयपुर १०१) डॉ० सनतकुमार जैन, धारवाल, जयपुर १०१) श्री शिखरचन्द्रजी जैन, दालवाले, गंजबासौदा १०१) श्री पदमचन्द्रजी जैन, गंजबासौदा १०१) श्री प्रभुदयालजी जैन, गंजबासौदा १०१) श्री रतनचन्द्रजी ज्ञानचन्द्रजी, गंजबासौदा १०१) सि० लीलाधरजी जैन, महरौनी १०१) श्रीमती साधना जैन (धर्मपत्नी श्री राकेशजी ) बक्स्वाहा १०१) सिं० शोभारामजी जैन, सागर १५१) श्री वीरेन्द्र कुमार जैन, नीलाम्बर, सागर १०१ ) श्री नाथूरामजी बड़कुल, गंजबासौदा १५१) श्री कपूरचन्द्रजी, घुवारा १५१) श्री मुन्नालालजी शिक्षक, टोकमगढ़ १०१) पं० बाबूलालजी पठा ( टीकमगढ़) १०१) श्री रतनचन्द्रजी वकील, टीकमगढ़ १०१) डॉ० कपूरचन्द्र सुरेन्द्र कुमार जी जैन, पठा (टीकमगढ़) १०१ ) सेठ महेन्द्र कुमार जैन, पठा १०१) श्री दि० जैन सिद्धक्षेत्र, अहार १५१ ) भगवान महावीर बाल-संस्कार केन्द्र, टीकमगढ़ ५१) श्री राजेन्द्रकुमारजी सिं० गुरुकुल, खुरई ( म०प्र०) ११) ज्ञानचन्द्र जी जैन, तेंदूखेड़ा ११) श्री नेमीचन्द्रजी जैन शिक्षक, तेंदूखेड़ा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रन्थ के प्रकाशन में विशिष्ट आर्थिक सहयोग देनेवाले महानुभाव सेठ सनतकुमार जैन, सोरईवाले सागर श्रीमती सरोज जैन, सागर (ध० १० सेठ सनतकुमार जैन) श्रीमतो फूलनबाई जैन, बीना डॉ० महेन्द्रकुमार जैन, सागर श्रीमती सन्ध्या जैन, सागर (ध०प० डॉ० महेन्द्र जैन) श्रीमती साधना जैन, वकस्वाहा (ध०प० श्री राकेशकुमार जैन) डॉ. दिलीप जैन, सागर श्रीमतो आशा जैन, सागर, (ध० प० डॉ० दिलीप जैन) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-परिचय- भेंट-वार्ता व्यक्तित्व तथा कृतित्व www.jalnelibrary.org. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private & Personal use only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धेय पण्डितजी : एक परिचय • पण्डित दुलीचन्द्र जैन, बीना कुटुम्ब : एक दृष्टि में श्री बंशीधरजी के पिताजीका नाम पण्डित मुकुन्दीलालजी था । वह तीन भाई थे पण्डित मुकुन्दीलाल जी सबसे छोटे थे । उनसे बड़े नन्नूलालजी और सबसे बड़े चूरामनजी थे । श्री चूरामनजीके दो पुत्र अच्छेलालजी और भूरेलालजी थे । अच्छेलालजीके दो पुत्र थे; एक श्री भैयालालजी तथा दूसरे श्री पं० बालचन्दजी, जिन्होंने षट्खण्डागमके सम्पादन और अनुवादका डॉ० हीरालालजीके साथ महत्त्वपूर्ण कार्य किया था । उनका स्वर्गवास अपने पुत्रों (नरेन्द्रकुमार और सुरेन्द्रकुमार ) के पास रहते हुए दिनांक १७-४-८९ को हैदराबादमें हो गया । उनके तीन पुत्र हैं - राजकुमार, नरेन्द्रकुमार और सुरेन्द्रकुमार । राजकुमार ग्वालियर में शासकीय विज्ञान कॉलेज में गणितका प्रोफेसर है। अन्य दोनों पुत्र हैदराबाद में क्रमशः डिप्टी चीफ इन्जीनियर और अपनी फैक्ट्रीके संचालक हैं । भूरेलालजीके दो पुत्र हैं – पं० दुलीचन्द्र (लेखक) और फूलचन्द्र । पं० दुलीचन्द्र बीनामें कपड़ेका व्यवसाय करते हैं व फुलचन्द्र अपनी जन्मभूमि सोंरई (ललितपुर) में व्यापार करते हैं। पं० दुलीचन्द्रका एक पुत्र अशोककुमार है, जो बी० एस० सी, एम० ए०, एल० एल० बी० है । वह सागर युनिवर्सिटी में कुछ समय तक सर्विस करनेके उपरान्त बीनामें ही स्वतन्त्र व्यवसायरत हैं । तथा फूलचन्द्रके भी एक पुत्र है - ऋषभ कुमार, जो एम० काम०, एल० एल० बी० है, और इन्दौर में एक प्राईवेट कम्पनी में कार्यरत हैं । श्री नन्नूलालजी के दो पुत्र थे--अयोध्याप्रसादजी व पं० शोभारामजी । पं० शोभारामजीने श्री भा० दि० जैन तीर्थं क्षेत्र कमेटी बम्बईके महोपदेशकका कार्य कई वर्षों तक किया और उसके बाद अनेक स्थानोंकी पाठशालाओं में अध्यापन किया। उनके दो पुत्र हुए- परमेष्ठीदास और सुदेशचन्द्र । परमेष्ठीदासका शादीके छह महीने पश्चात् ही स्वर्गवास हो गया था । उसकी पत्नी पूनाबाई पटेरा ( म०प्र०) में शासकीय कन्या विद्यालयमें अध्यापन कार्य करते हुए रिटायर होकर आजकल पटेरामें ही रह रही हैं । सुदेश चन्द्र एम० ए० (हिन्दी) श्री पार्श्वनाथ दि० जैन गुरुकुल खुरई ( म०प्र०) में व्याख्याता एवं उसकी धर्मपत्नी ताराबाई भी वहीं शासकीय कन्याशाला में अध्यापिका है । उसके तीन पुत्र हैं। वे तीनों इन्जीनियर हैं । उनके नाम हैंअजित और आलोक | आजाद, पं० मुकुन्दीलालजी के चार पुत्र हुए। कारेलालजी, पं० हजारीलालजी, छतारेलालजी और प० बंशीधर जी । इनमे आदिके तोन पुत्रोंका स्वर्गवास हो चुका है । कारेलालजोका एक पुत्र था, जिसका नाम हरप्रसाद था । तीन वर्ष पहले उसका देहावसान हो गया। दूसरे पुत्र पं० हजारोलालजी थे, जो स्वयं पण्डित, शास्त्रलेखक और अध्यापक थे । नैनागिर, हडुआ आदि कई पाठशालाओंमें उन्होंने अध्यापन किया था। डॉ० पं० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य उन्हीं के सुपुत्र हैं । पं० मुकुन्दीलालजी के सबसे छोटे सुपुत्र हैं--पं० बंशीधर जो । इन्हीं का यहाँ कुछ परिचय प्रस्तुत है । उसे प्रस्तुत करनेके पूर्व उनकी एकमात्र बहिन गौरा बाईका परिचय दे देना आवश्यक है । गौराबाईका सम्बन्ध ग्राम भौड़ी (ललितपुर) में सिंघई पूर्णचन्द्रजी के साथ हुआ था । वह बड़ी दयालु और सौम्यमूर्ति थीं । साथ ही बड़ी निश्छल और वात्सल्यमयी थीं । जब भी कोई रिश्तेदार भौड़ी पहुँचा कि उनकी आँखोंसे स्नेहके आसुओंकी झड़ी लग जाती थी । पं० बंशीधर जी, पं० बालचन्द्रजी और पं० दरबारो २-१ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ लालजी उनके स्नेहके वशीभूत होकर महीनों गर्मियोंके अवकाशमें भौड़ीमें रहा करते थे। मुझे भी कई बार भौड़ी जानेका अवसर मिला । उनके दो पुत्र तथा दो पुत्रियाँ है । उनके बड़े पुत्र श्री लीलाधर व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती बेटीबाई भी उन्हींकी तरह स्नेह रखती हैं। श्री लीलाधरजीने अपनी माँ गौराबाई एवं पिता श्री पूर्णचन्दजीके स्वर्गस्थ होनेके पश्चात् अपना निवास अब महरौनी (ललितपुर) में बना लिया है । उनके भी दो पुत्र तथा एक पुत्री है। एक पुत्र भागचन्द्र महरौनीमें ही वर्णी कॉलेजमे अध्यापक है तथा दूसरा पुत्र उत्तमचन्द्र भी गुढ़ा (ललितपुर) में शिक्षक हैं । दोनों पुत्र सेवाभावी एवं कर्मठ हैं। दूसरा पुत्र कपूरचन्द्र भी, शास्त्री पास करके कई वर्षोंसे अशोकनगर, म०प्र० में अध्यापनरत हैं। उसके भी दो पुत्र तथा दो पुत्रियाँ हैं । पुत्र हेमन्त व अशोककुमार है । जन्म: श्री बंशीधरजीका जन्म भाद्र शुक्ला ७, वि० सं० १९६२ में हुआ। पिताका नाम श्री प० मुकुन्दीलालजी और माताका नाम श्रीमती राधादेवी था। पिताजी उस क्षेत्रके माने हए विद्वान पण्डित, शास्त्रप्रतिलेखक और प्रतिष्ठाचार्य थे । समाजमें जहाँ-कहीं जल-यात्रा, सिद्धचक्रविधान, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आदि धार्मिक कार्य होते थे उनमें उन्हें ससम्मान आमंत्रित किया जाता था। दशलक्षण (पय षण) पर्वमें भी शास्त्र-वचनिकाके लिए वे समाजके आमंत्रणपर जाते थे। उनके हाथके लिखे हए शास्त्र आज भी कई मंदिरोंमें उपलब्ध हैं। लोग न्यौछावरके लिये उन्हें लिखवाते थे । श्री बंशीधरजी जब तीन माहके ही शिशु थे, पिताजीको देवने उनसे छीन लिया था । जैसे-तैसे माताजी शिशुका पालन-पोषण कर रही थीं, किन्तु १२ वर्षकी अवस्थामें उनका भी साया उनपरसे उठ गया । वे अभावों में पले-पुषे और आगे बढ़े। जन्मस्थान : (पंडितजी) बंशीधरजीका जन्मस्थान सोरई है, जो बहुत पहले गढ़ाकोटा (सागर) म० प्र० की जागीर थी और अब उत्तरप्रदेशके ललितपुर जिलेका एक प्रख्यात ग्राम है। यह प्रसिद्ध संत श्री गणेशप्रसाद वर्णों (मुनि श्री १०८ गणेशकीर्ति) की जन्मभूमि हंसेरा ग्राम (ललितपुर) से दो किलोमीटर पूर्व में अवस्थित है। १. यहाँ पहले 'सौंर" जातिके आदिवासी रहते थे, जो इस ग्रामके पास पाये जानेबाले घने जंगलोंमें उपलब्ध जड़ी-बूटियों, अचार, महुआ, गुली, गोंद, लाख, मूसली आदि वन्य वस्तुओंका धंधा करके अपनी आजीविका चलाते थे। इन चीजोंके खरीददार व्यापारी एवं ठेकेदार भी यहाँ काफी संख्यामें रहते थे। सम्भवतः उनके निवासके कारण (सौंर + ई = सौरोंकी आवास भूमि होनेसे) इस ग्रामका नाम “सौंरई" पड़ा है। २. कहा जाता है कि यहाँके व्यापारी उक्त चीजोंको लदरा बैलोंपर बहुसंख्यामें लादकर मिर्जापुर ले जाते थे और वहाँके बाजारोंमें उन्हें बेचते थे। तथा वहाँसे पीतल, तांबे आदिके बर्तन खरीद कर लाते थे। ऐसे लोगोंको 'सौंरया' कहते थे। अब भी वे यहाँ हैं और अच्छी स्थितिमें हैं। इनमें बहुतसे मड़ावरा, टीकमगढ़ आदि स्थानोंपर चले गये हैं। आज यह (सौंरया) उनका वंश बन गया है । पर यह सच है कि उनका उद्भव इसो ग्रामसे हुआ है। जैसे 'खण्डेला' ग्रामसे खण्डेलवाल और 'अग्रोहा' ग्रामसे अग्रवाल माने जाते है । गोलापूर्व जातिके ५८ वंशोंमें यह भी एक वंश है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ३ ३. सौरईका, व्यापारिक महत्त्वके अलावा, सांस्कृतिक महत्त्व भी है। यहाँ चन्देलवंश राजाओंके शासनकालके दो प्राचीन मठ (मन्दिर) हैं, जो पत्थर-ही-पत्थरके बने हैं और जिनमें एक मठ जैनोंका और दुसरा मठ हिन्दुओंका है । जैनोंके मठ (मन्दिर) में अभी भी खण्डित मूर्तियाँ विद्यमान रही है। इसके पास ही पूजादिके लिए उपयोगमें लाने हेतु पत्थरसे मजबूत बना एक जलकूप भी है। देख-भाल न होनेके कारण यह मठ आज अरक्षित दशामें पड़ा है। ४. यह 'रौनी' (रोहिणी) नदीके तटपर अवस्थित है, जो पासके बीहड जंगलसे निकली है और 'धसान' नदीमें जाकर 'ककरवाहा' ग्राम (ललितपुर) के पास मिली है। ५. 'सौंरई' का एक और महत्त्व है। वह है प्रशासनिक । इसके प्रशासनके लिए राजाका विशाल किला बना है, जो दो ओर (पश्चिम और उत्तर) से रौनो नदी के तटोंसे घिरा है एवं विस्तृत और ऊँचे टोलेपर निर्मित है। कहा जाता है कि यह किला राजा बखतबलीने बनवाया था, जो शाहगढ़ (म० प्र०) के राजाके अधीन था। इस किलेसे एक रास्ता भूमिके अन्दर-ही-अन्दर बगीचे में बनी सुन्दर वापिकाके लिए जाता है, जिससे राजाको रानियाँ वापिकामें स्नान करनेके लिए वहाँ जाती-आती थीं। दूसरा रास्ता मड़ावराके किले तक जाता है. जो सौंरईसे ५ किलोमीटर है। किन्तु अब ये दोनों रास्ते बन्द हैं। मालम पड़ता है कि राजनैतिक उथल-पुथल ही इन रास्तोंके निर्माणका कारण रही है। ६. किलेके पूर्वी द्वारपर उससे लगा हआ राजाके जैन दीवान द्वारा १८२ वर्ष पूर्व बनवाया दि० जैन मन्दिर है, जो वर्तमान में जिनप्रतिमाशून्य है। ज्ञात नहीं, इसमें कितने वर्षोंतक प्रतिमाजी विराजमान रहीं और कब कैसे वहाँसे उन्हें हटा दिया गया । मन्दिरके जिनप्रतिमारहित हो जानेपर उसमें शासनके द्वारा प्राइमरी स्कूल लगता रहा । इसी स्कूल में हमारे चरित्रनायककी प्रारंभिक शिक्षा हुई, जो १५०-१७५ वर्ष वहां रहा जान पड़ता है। मन्दिरके सर्वथा जीर्ण-शीर्ण और खण्डहर हो जानेके कारण अब उसमें स्कूल भी नहीं लगता । स्कूल दूसरी जगह लगने लगा है । आज वह मन्दिर खण्डहरके रूपमें अरक्षित दशामें पड़ा है । ७. इस ग्रामके आस-पास पहले ताँबा और लोहा बड़ी मात्रामें निकलता रहा। अब तो कई वर्षोंके अन्वेषणके बाद यहाँ फास्फोरस पत्थर, जो खाद बनानेके काममें आता है तथा यूरेनियम जैसी महत्त्वपूर्ण धातुका भी भण्डार भू-वैज्ञानिकों एवं कुशल इंजीनियरोंने खोज निकाला है और बहुलतासे उसका काम चल रहा है। इससे इस ग्रामका राष्ट्रीय महत्त्व भी बढ़ गया है । यह हमारे एवं देशके लिए गर्व की बात है। इसके अतिरिक्त सिमेन्टका पत्थर, स्लेटका पत्थर आदि भी यहाँ उपलब्ध हुआ है। ८. इस ग्राममें वर्तमानमें तीन दिगम्बर जैन मंदिर हैं, २५-३० जैन घरोंके अतिरिक्त लगभग तीन हजारकी यहाँ आबादी-जनसंख्या है। (१) पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर (जिसे बड़ा मंदिर कहा जाता है) (२) छोटा मन्दिर और (३) बाजारका मन्दिर और तीनों ही बस्तीके बीचों-बीच स्थित हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि डॉ. पं० दरबारीलालजो कोठिया न्यायाचार्यने अपनी धर्मपत्नी स्व. चमेलोबाईको स्मतिमें ४,२००/०० रुपयोंसे बाजारसे लेकर बड़े मन्दिर और बड़े मंदिरसे छोटे मंदिर तक चौड़े-बड़े पत्थरोंको फर्सी बिछाकर अच्छा रास्ता बनवा दिया है, जिससे आने-जानेवालोंको बड़ी सुविधा हो गयी है । तथा २,५००/०० प्रदानकर बड़े मन्दिरकी छतका भी उन्होंने जीर्णोद्धार करा दिया है। ९. यह ग्राम है तो छोटा, लेकिन इसकी एक विशेषता और है। वह यह कि यह प्राच्य-विद्या प्राकृत एवं संस्कृतके विद्वानों(पण्डितों) की (आकर) खान है । व्याकरणाचार्यजी, पं० शोभारामजी महोपदेशक Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ : सरस्वतो-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ तीर्थक्षेत्र कमेटी बम्बई, विद्याभूषण पं० रामलालजी प्रतिष्ठारत्न अशोकनगर, पं० परमानन्दजी साहित्याचार्य बालाविश्राम आरा, पं० बालचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री (सिद्धान्त ग्रन्थोंके सम्पादक-अनुवादक) हैदराबाद, पं० पद्मचन्द्रजी शास्त्री बड़ा मलहरा (म० प्र०) डॉ० पं० दरबारीलालजी कोठिया, न्यायाचार्य सेवानिवृत्त रीडर का० हि० वि० वि० वाराणसी (वर्तमान बीना), पं० गुलझारीलालजी न्यायतीर्थ, सागर, पं० दुलीचन्द्र शास्त्री बीना आदि विद्वान यहींकी देन हैं और वे विभिन्न स्थानोंमें समाज एवं साहित्य-साधनामें संलग्न हैं या संलग्न रह चुके हैं। इसीसे कितने ही लोग इस ग्राम सोरईको न केवल यूरेनियम आदि धातुओंका खान कहते हैं, अपितु आध्यात्मिक विद्वानोंकी खान भी कहते हैं । यह भी उल्लेख कर देना उपयुक्त होगा कि अब सोरईका यातायात कठिन नहीं रहा । यहाँसे ललितपुर, सागर और बोना आदिको सरलतासे आ-जा सकते हैं। पक्की सडकें और सड़कोंपर चलनेवाले वाहन प्रचुर मात्रामें उपलब्ध है। __'जननी जन्मभूमिश्चय स्वर्गादपि गरीयसी।' यह कितना प्यारा वाक्य है । अतएव पंडितजीकी जन्मभूमि सोरई तुझे शतशः प्रणाम । प्राथमिक शिक्षा: पण्डितजीको प्राथमिक शिक्षा स्थानीय प्राईमरी स्कूलमें कक्षा ४ तक हुई। जब पंडितजी कक्षा २ में पढ़ते थे तब शिक्षाधिकारी कक्षा ४ के छात्रोंकी परीक्षा लेनेके लिए स्कूलमें आया। उसने कक्षा ४ के एक छात्रसे एक सवाल पूछा । वह उसका उत्तर न दे सका। यह भी वहीं खड़े थे । इन्होंने उसका उत्तर दे दिया। इस पर शिक्षाधिकारी बहुत प्रसन्न हुआ और इनसे बोला "तुम पढ़ानेकी नौकरी करना चाहते हो तो हम नौकरी दे सकते हैं"। इन्होंने उत्तर दिया कि "हम अभी आगे पढ़ेंगे" । पंडितजी आरम्भसे तीक्ष्ण बुद्धि एवं मेधावी छात्र रहे हैं। वाराणसोमें उच्चशिक्षा : चौथी कक्षा पास कर आप अपने मामाके पास वारासिवनी (म० प्र०) चले गये। वहाँ कुछ समय रहे । परन्तु वहाँ उच्चशिक्षाके साधन न थे। अतएव वहाँसे पं० शोभारामजीके साथ सागर आ गये और सागरसे पूज्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णी अपने साथ वाराणसी ले गये। वहाँ स्याद्वाद दि० जैन महाविद्यालयमें उनकी छत्र-छायामें ११ वर्ष तक मुख्यतया व्याकरण और सामान्यतया साहित्य, दर्शन और सिद्धान्तका उच्च अध्ययन किया। आपने किसी भी विषयमें द्वितीय या तृतीय श्रेणी प्राप्त नहीं की। प्रथम श्रेणीमें ही सभी विषयोंमें उत्तीर्णता प्राप्त की है। व्याकरणाचार्य परीक्षा तो प्रथम श्रेणी प्रावीण्य सूचीमें द्वितीय स्थानसे पास की। ___ज्ञातव्य है कि सोरईसे परमानन्द, पद्मचन्द्र, लोकमन, बालचन्द्र ये भी उसी समय पढ़नेके लिए वाराणसी पहँचे। इन्होंने परमानन्द और बालचन्दसे कहा कि हम तीनों तीन विषयोंके आचार्य बनें हम व्याकरणाचार्य और तुम दोनों क्रमशः साहित्याचार्य और न्यायाचार्य । इस तरह हम तीनों एक ही ग्रामके तीन विषयोंके तीन आचार्य हो जावेंगे। इनमें पंडितजी व्याकरणाचार्य और परमानन्दजी साहित्याचार्य हो गये । पर बालचन्द्रजी न्यायमध्यमा उत्तीर्ण कर अध्यापनहेत पन्नालाल दि० जैन विद्यालय, जारखी (आगरा) में चले गये । अतः वे न्यायाचार्य नहीं कर सके, किन्तु उत्तरकालमें वे सिद्धान्तग्रन्थोंके सम्पादक एवं अनुवादक बने और उच्चकोटिका उन्होंने बैदुष्य प्राप्त किया एवं जीवनके अन्त तक जिनवाणीकी साधना की। हाँ, पंडितजीके विचार एवं भावनाको उन्हीं के भतीजे डॉ० पं० दरबारीलाल कोठियाने अवश्य 'न्यायाचार्य' Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित बंशीधर व्याकरणाचार्य और उनका परिवार श्री पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य TRAI श्रीमती लक्ष्मी बाईजी (पत्नी) व्याकरणाचार्यजी के ज्येष्ठ पुत्र श्री विभवकुमार जैन और उनका परिवार Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणाचार्यजी के द्वितीय पुत्र श्री विवेककुमार जैन और उनका परिवार। व्याकरणाचार्यजी के तृतीय पुत्र श्री विनीतकुमार जैन और उनका परिवार Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Nagari व्याकरणाचार्यजी की ज्येष्ठ पुत्री सौ. बिमलाबाई एवं दामाद डॉ. मोतीलाल जैन खरई (सागर) तथा उनका परिवार व्याकरणाचार्य की द्वितीय पुत्री सौ. पुष्पाबाई एवं दामाद मास्टर मुन्नालाल जैन टीकमगढ़ (म.प्र.) और उनका परिवार Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणाचार्यजी के भतीजे डॉ. दरबारी लाल कोठिया श्रीमती चमेली बाई (पत्नी डॉ. कोठियाजी) व्याकरणाचार्यजी के भतीजे पं. दुलीचन्द्र जैन, बीना (म.प्र.) एवं उनका परिवार Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धेय व्याकरणाचार्यजीकी कनिष्ठ पुत्री सौ० वैजयन्ती बाई एवं उनके दामाद डॉ० हीरालाल जैन, रीवा (म०प्र०) व्याकरणाचार्यजी के भतीजे पं० बालचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री और उनका परिवार पण्डितजीके ज्येष्ठ भ्राता स्व० पूज्य पं० शोभारामजी के सुपुत्र प्रिय सुरेश - चन्द्र जैन, शिक्षक अपने परिवार के साथ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डितजीके श्वसुर शाह मौजीलालजी, बीना पण्डितजीके काका श्वसुर शाह अर्जुनलालजी, बीना पण्डितजीके काका श्वसुर शाह दयाचन्द्रजी बीना व्याकरणाचार्यजीके ज्येष्ठ भ्राता पं० शोभारामजी, न्यायतीर्थ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २/व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ५ करके पूरा किया। इतना ही नहीं, कोठियाजीने शास्त्राचार्य (जैनदर्शन), एम० ए० (संस्कृत) और पी-एच० डी० (जैन तर्कशास्त्र) की परीक्षायें देकर उनमें प्रथम एवं उच्च द्वितीय श्रेणीमें उर्तीणता भी प्राप्त की। कहना होगा कि उच्च शिक्षा स्वयं ग्रहण करने और दूसरोंको उसके लिए प्रेरित करने में पंडितजीकी रुचि और दूरदृष्टि कितनी सार्थक रही है। गृहस्थाश्रममें प्रवेश : जब पंडितजी वाराणसी में व्याकरणाचार्यके चार खण्ड उत्तीर्ण कर चके थे और पंचम खण्डकी तैयारीमें संलग्न थे। तब संयोगसे शाह मौजीलालजी, बीना अपने बहनोई सिंघई नन्हेंलालजी टोपीवाले सागरके साथ व्यापारिक कार्यसे वाराणसी गये । वाराणसी सातवें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ और तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथकी जन्मभूमि है तथा समाजका प्रसिद्ध स्याद्वाद महाविद्यालय भी यहीं है, जहाँ पंडितजी उच्च अध्ययन कर रहे थे। दोनों महानुभाव दोनों स्थानों के दर्शन करते हुए स्थाद्वाद महाविद्यालय पहुंचे। शाहजी अपनी लड़कीके लिए योग्य लड़केकी खोजमें थे। यहाँ पंडितजीसे सम्पर्क हुआ। दोनों महानुभावोंको पंडितजी सुयोग्य जचे। घर आकर और अपने दोनों भाईयों (शाह अर्जुनलालजी, व शाह दयाचन्द्रजी, परिवार जनों । तथा रिश्तेदारोंसे परामर्श करके शाहजीने निर्णय लिया कि अपनी लड़कीके लिए पण्डितजी सबसे उपयुक्त और सुयोग्य लड़के हैं। फलतः पंडितजीका सम्बन्ध सन् १९२८ में शाह मौजीलालजीकी सुपत्री लक्ष्मीबाईके साथ सम्पन्न हो गया। पण्डितजीके अनुरूप धर्मपत्नी : यों तो प्रत्येक पुरुषकी धर्मपत्नी उसके अनुरूप होती या बन जाती है। किन्तु पण्डितजीकी धर्मपत्नी श्रीमती लक्ष्मीबाई स्वभावतः उनकी समान-गुणधर्मा थीं। उनमें गाम्भीर्य, सहज स्नेह, वात्सल्य, उदारता, दयालुता, सहनशीलता, अक्रोध, अमान, अमाया, अलोभ जैसे गुण विद्यमान थे। अस्वस्थ होने पर भी वे पण्डितजीकी दिनचर्या और आतिथ्यमें कभी शैथिल्य नहीं करती थीं। कुटुम्बियों और रिश्तेदारोंके प्रति उनके हृदयमें अगाध स्नेह एवं आदर रहा। पण्डितजीको यह भी पता नहीं रहता था कि घरमें क्या चीज है और क्या नहीं है । पैरोंमें कभी चप्पलें नहीं पहनी। लोग कहते थे कि--'देखो, लछोबाईको इतनी सम्पन्न होनेपर भी उसकी कितनी सादी वेश-भूषा है। पैरों में चप्पलें भी नहीं पहनती हैं।" वास्तवमें लक्ष्मीबाई सतयुगी गृहणी थीं और स्वयं लक्ष्मी। सहनशीलता एवं कुटुम्बप्रेम तो इतना था कि पं० बालचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री (भतीजे), डॉ० पं० दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य (भतीजे), पं० बालचन्दके दो बच्चों और एक बच्ची तथा हमारी (पं० दुलीचन्द्र, भतीजेकी) दो बच्चियोंकी शादियाँ उन्होंने अपने घरसे ही की। पर कभी अन्यथाभाव प्रदर्शित नहीं किया। यह स्त्रीस्वभावकी दृष्टिसे कम महत्त्वकी बात नहीं है। यह दैवकी विडम्बना है कि वे ५८ वर्षकी आयुमें ही कालकवलित हो गयीं। अपने पीछे वे तीन सुयोग्य पुत्रों तथा तीन सुयोग्या पुत्रियोंके भरे-पूरे परिवारको छोड़ गई। ऐसी सतयुगी देवी श्रद्धेया श्रीमती लक्ष्मीबाईको हमारे शतशत नमन हैं। परिवार पण्डितजीके तीन पुत्र और तीन पुत्रियाँ है, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है। यह संयोग ही है कि पुत्र-पुत्रियोंकी संख्या समान है। पुत्र हैं १. विभव कुमार (४२), २. विवेक कुमार (४०), ३. विनोतकुमार (३२) । विभवकुमार अपने पैत्रिक वस्त्रव्यवसायमें संलग्न है। दूसरा पुत्र विवेक कुमार इन्जीनियर Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ होकर व्हीकल फैक्ट्री जबलपुरमें कार्यरत हैं और तीसरा पुत्र विनीत कुमार, बड़े भाईके साथ वस्त्रव्यवसाय में संलग्न है. इसके सिवाय वह बीमा, बैंक एवं पोस्ट आफिसमें फिक्स डिपाजिट करानेका कार्य भी करता है। तीनों पत्रोंके विवाह हो चुके हैं। विभव कुमारका सम्बन्ध सेठ बाबूलालजी सागरकी पुत्री सुगन्धी बाई, विवेककुमारका सम्बन्ध सेठ देवेन्द्र कुमार जी सागरकी पुत्री नलिनो बाई तथा विनीत कुमारका सम्बन्ध सेठ हकमचन्द्रजी सागरकी पुत्री किरणबाईके साथ सम्पन्न हुए हैं। पण्डितजीकी तीनों बहुएँ भी पुत्रोंकी तरह कर्तव्यनिष्ठ, सेवाभावी, विनम्र और आज्ञाकारिणी हैं। विभवके एक पुत्र चि० वीरेश कुमार और पाँच पुत्रियां--प्रीति, दीप्ति, नीति, स्मृति और कृति हैं। विवेककुमारसे दो पुत्र-विशेष और क्षितिज तथा एक पुत्री-रांगोली है । और विनीतकुमारके तीन पुत्रियाँ-निधि, सोनू एवं गुड़िया है। पण्डितजीकी तीनों पुत्रियोंके भी सम्बन्ध हो चुके हैं । बड़ी पुत्री विमलाबाई (५७), का डॉ० मोतीलालजी खुरईके साथ, दूसरी पुत्री पुष्पाबाई (३७) का मा० मुन्नालालजी टीकमगढ़ और तीसरी पुत्री वैजयन्तीबाई (३५) का डॉ० हीरालालजी रोवाके साथ हआ है। पण्डितजीके तीनों दामाद सुयोग्य और अपने-अपने कार्यमें रत हैं। मधुर एवं स्नेहपूर्ण सम्बन्ध : पण्डितजीके स्वजन और परिजन सभीके साथ मधुर एवं अच्छे सम्बन्ध हैं। कूटम्बियोंके प्रति जहाँ अगाध स्नेह है वहीं ससुरालमें रहते हुए अपने ससुर शाह मौजीलालजी, काका ससुर शाह अर्जुनलालजी और शाह दयाचन्द्रजी तथा चचेरे सालों-शाह अमृतलाल, शाह खूबचन्द्र, शाह फूलचन्द्र, शाह स्व० निर्मलकुमार और शाह प्रेमचन्द्र एवं उनके परिवारोंके साथ भी पण्डितजीके स्नेहपूर्ण सम्बन्ध बने हए हैं। इनमें एकमात्र कारण उनकी लोकज्ञता, व्यवहारकुशलता और गम्भीरता है। उनका चिन्तन दूरगामी है। ससूरालपक्ष भी पण्डितजीका सदा आदर करता है। हमें एक घटना याद आती है । जब पण्डितजी स्वतन्त्रता-संग्रामके आन्दोलनमें सन् १९४२ में जेलमें थे और घरपर उनके प्रथम पुत्र सनतकुमारका स्वर्गवास हो गया था, तब पण्डित बालचन्द्रजी शास्त्री अमरावतीसे इस दुखमें संवेदना प्रकट करनेके लिए बीना आये और आते ही वे बीमार हो गये । बुखार ठीक नहीं हो रहा था। पण्डितजीके ससुर शाह मौजीलालजीने अपने मुनीम श्री कन्छेदीलालजीको अमरावतो भेजकर उनके बाल-बच्चोंको बीना बुलवा लिया और जब तक उनकी तबियत ठीक नहीं हुई तब तक सभीको अपने पास रखकर उनका इलाज करवाया । जब उनकी तबियत ठीक हो गयी तब उन्हें जाने दिया । ऐसी थी शाह मौजीलालजी की आत्मीयता और सहृदयता। अभी भी शाह परिवारके पण्डितजी तथा उनके कुटुम्बके साथ प्रिय सम्बन्ध हैं, जो अनुकरणीय हैं। विशेष गुण : पण्डितजीमें कुछ ऐसे विशेष गुण हैं जो अन्य में प्रायः दुर्लभ होंगे। इनमें कुछका यहाँ दिग्दर्शन कराना आवश्यक समझता हूँ-- (क) स्वाभिमान--पण्डितजी व्याकरणाचार्य हुए ही थे कि उन्हें स्थानकवासी साधुओंको अध्यापन करानेके लिए व्यावर (राजस्थान) से आमन्त्रण आया। वे वहाँ गये और पहले दिन उन्हें थोड़ा पढ़ाया। इसपर एक महाराज बोले--'पण्डितजी, इतना ही पढ़ायेंगे। आपसे पहलेके पण्डितजी तो दो-तीन घण्टे सुबह और इतने ही समय शामको पढ़ाते थे । “पण्डितजीने कहा कि--"आपने इतना पढ़ करके भी कुछ नहीं पढ़ा । इसप्रकारके पढ़ने-पढ़ानेसे क्या लाभ । कुछ अनुभव और मनन भी होना चाहिए । यदि आपको पूर्ववत् Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २/ व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ७ पढ़ना है तो आप किसी और विद्वान्को बुला लें। हम तो इसी प्रकार पढ़ावेंगे।" बस, उस दिनके बाद सभी साधु पण्डितजीसे यथोचित आदर करते हए पढ़ने लगे । पण्डितजीके अध्यापनसे सभी साध अनुभव करने लगे कि पण्डितजीके अध्यापनसे हमारी व्युत्पत्ति और विशिष्ट ज्ञान हआ है। सभी महाराज संतुष्ट और प्रसन्न थे। यह था पण्डितजीका स्वाभिमान । ऐसे अनेक प्रसंग उनके जीवनसे जुड़े हए है। (ख) व्यवहारमें कठोरता, किन्तु सच्चाई-पंडितजी व्यवहारमें कठोर हैं, पर सच्ची बात कहनेमें वे संकोच नहीं करते। उन्हें मीठी, किन्तु झठी बात या चापलूसीसे बेहद नफरत है। उनसे बातचीत करनेवाला व्यक्ति कुछ समय समझता है कि पण्डितजीने इतना भी लिहाज नहीं किया। किन्तु विशेष परिचयमें आनेपर वही व्यक्ति स्वीकार करता है कि यह सिद्धान्त और नीतिकी बात है, जो सभीके लिए अनुपालनीय है। यह सत्य है कि "हितं मनोहारि च दर्लभं वचः ।" बात हितकारी भी हो और मनोहारी भी हो. दर्लभ है। कई लोग तो यहाँ तक कह उठते हैं कि "आप बहत रूखे हैं।" किन्तु पण्डितजी उसकी भी परवाह नहीं करते । और यथार्थ कहनेपर दृढ़ रहते हैं । (ग) व्यवसायमें एक बात--जब पण्डितजीने कपडेका व्यवसाय आरम्भ किया तो उन्होंने कपड़ा बेचने में "एक बात" (एक भाव) का सिद्धान्त स्थिर किया। कई लोगोंने कहा कि “पण्डितजी, आप एक बातके सिद्धान्तपर चलेंगे, तो दुकान नहीं चलेगी और न आप सफल हो पायेंगे।" पण्डितजीने कहा कि "दुकान चले या न चले । हम सिद्धान्तका परित्याग नहीं करेंगे। दुकान विश्वासपर चलती है और ग्राहक विश्वस्त होकर खरीदेगा।" फलतः पण्डितजी "एक बात" के सिद्धान्तमें पूर्ण सफल हुए। ग्राहकोंका विश्वास जम गया। आज स्थिति यह है कि अर्द्ध शताब्दी हो गयी और उनका वस्त्रव्यवसाय दस गुना हो गया और दुकानकी विश्वसनीयता सर्वत्र हो गयी। उनके पुत्र भी उसो सिद्धान्तपर चल रहे हैं। नम्बर दो का कोई कार्य नहीं होता । सेल्स टेक्स आफीसर एक तो आता नहीं और आये भी तो खाली हाथ चला जाता है। उसे घूस देने जैसा प्रश्न ही नहीं उठता । दुकान, घर आदिका सारा कार्य एक नम्बरमें ही होता है। खाते बही आदि सब सही रहते हैं। (घ) कर्तव्यनिष्ठा और नैतिकता-पण्डितजीने सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाओंमें दीर्घकाल तक कर्तव्यनिष्ठा और नैतिकताके साथ मानद सेवायें की हैं। स्थानीय श्री नाभिनन्दन दिगम्बर जैन हितोपदेशिनी सभा द्वारा संचालित मन्दिर और विद्यालयके मन्त्री पदसे लगभग १८ वर्ष तक उनकी सुचारु रूपसे सेवा की है । उस समय जो मन्दिर और विद्यालयका कार्य अव्यवस्थित था उसे पूर्णरूपसे व्यवस्थित बनाया। कभीकभी पण्डितजीको संस्था कार्य से सागरको अदालतमें जाना पड़ता था। उस समय आप गेंडाजीकी धर्म में ठहरते थे और वहाँसे पैदल कचहरी जाते थे। वहाँ जब क्लर्कसे संस्थाके कार्यके सम्बन्धमें बात की तो वह कुछ रुपया माँगने लगा। पण्डितजीने उसे इस तरह डांटा कि वह भयभीत हो गया और क्षमा मांगकर उसने तत्काल कार्य कर दिया। इसके बाद जब-जब पण्डितजीको कचहरी जाना पड़ा, तब-तब उस क्लर्कने उनके कार्यको प्राथमिकता दी । आज भी हम देखते हैं कि वे कर्तव्यनिष्ठा और नैतिकतासे अपने जीवनको संजोये हुए हैं। (ङ) समयके पाबन्द-पण्डितजी समयके नियमित हैं। मन्दिर, स्वाध्याय, दुकान, भोजन, शयन, लेखन और बाहर गमन आदि उनका समयबद्ध है। बाहर जाना या आना है तो पण्डितजी समयपर स्टेशन पहुँच जायेंगे । गाड़ी भले ही लेट आये या जाये । यही उनकी समयनियमितता सभा-सोसायटियोंकी है। उनके कार्यक्रमोंमें विलम्ब हो सकता है पर पण्डितजीके उनमें शामिल होनेमें बिलम्ब नहीं होता । यह कहना चाहिए Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ कि उनकी पूरी दिनचर्या घड़ीकी सुईके अनुसार बँधी हुई है । घड़ी बन्द हो सकती है पर उनकी दिनचर्या में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा। पण्डितजी एक-एक मिनट समयकी कद्र करते हैं । यद्यपि सुबह-शाम उनका अब टहलना छूट गया, फिर भी वे घरपर कमरे में या बाहर गैलरीमें घूम लेते हैं । फलतः आज ८५ वर्षकी अवस्थामें भी उनका मस्तिष्क, इन्द्रियाँ, मन और शरीर स्वस्थ एवं निरोग है । (च) राष्ट्रीय और सामाजिक सम्मान – सन् १९४२ के 'भारत छोड़ो आन्दोलन में आपने भाग लिया और गिरफ्तार होकर सागर, नागपुर तथा अमरावतीकी जेलोंमें दस-पौने दस माह रहे । अन्तमें आपको निर्दोष घोषित कर छोड़ दिया गया । फलतः १५ अगस्त, १९७२ में आपको स्वतंत्रता संग्राममें स्मरणीय योगदानके उपलक्ष्य में राष्ट्रकी ओरसे भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधीने ससम्मान ताम्रपत्र भेंट किया और " स्वतन्त्रता सेनानी" के रूपमें प्रथम श्रेणीके दो टिकटोंका पास भी आपको मिला । तथा प्रदेश और केन्द्रकी ओरसे पेंशन भी मिलती है । सन् १९७४ में भगवान महावीरके २५०० वें निर्वाण महोत्सवपर आपको भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति माननीय श्री बी० डी० जत्ती द्वारा प्रशस्तिपत्र, सिद्धान्ताचार्यकी उपाधि और २,५००/- रुपयेकी सम्मान-निधिसे वीर निर्वाण भारतीकी ओरसे सम्मानित किया गया है । (छ) स्वतन्त्र चिन्तक और लेखक -- आप स्वतन्त्र चिन्तक और गम्भीर विचारक होनेके साथ उत्कृष्ट लेखक भी हैं । आपको आगमका पूर्ण पक्ष है । जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा में आपने आगम-पक्षकी ओरसे प्रमुख भाग लिया था । जैन शासनमें निश्चय और व्यवहार, जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा आदि कई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ आपने लिखे हैं, जिनका समाज में सर्वत्र आदर हुआ है । ये सभी ग्रन्थ प्रकाशित हैं । पण्डितजी के विषय में हम अन्तमें इतना ही कहेंगे कि वे एक ऐसे सन्तुलित वचनभाषी, कत्तव्यनिष्ठ, नैतिक आचारवान्, ठोस चिन्त क-लेखक, राष्ट्रसेवक, समाज-सेवक और साधक - पुरुष हैं, जो सदा स्मरणीय एवं अभिवंदनीय रहेंगे। मुझे तो उनसे बहुत कुछ मिला है । मैं उन्हें अन्तःकरणसे प्रणाम करता हुआ लेखनी को यहीं विराम देता हूँ । MAURA Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंशावली परदादा श्री चूरामन जो श्री नन्हेंराम जी मुकुन्दीलाल (राधाबाई) श्री अच्छेलाल जी श्री भूरेलाल जी बेटी बाई अयोध्या प्रसाद शोभाराम कारेलाल हजारीलाल (प्यारी बाई) । (चिरोंजीबाई) हरप्रसाद छतारेलाल बंशीधर (लक्ष्मीबाई भैयालाल बालचन्द्र (श्यामा) सगना नन्हीं धनप्रसाद कोमलचन्द रामप्रसाद कपूरचन्द दरबारीलाल मुलाबाई (चमेलीबाई) (मैना) नरेन्द्रकुमार राजकुमार राजकुमार (सरला) नरेन्द्र सुरेन्द्र (सूर्यप्रभा) (अंजना) शकुन (कुंदनलाल) अमित आशीष मनीष पीयूष जैनमती सुषमा मनीष परमेष्ठी दास (पूनाबाई) कमलेश्वर अखिलेश्वर राजेश्वर नमुता अमृता सुदेशचन्द (ताराबाई) केशरबाई प्रभादेवी (लक्ष्मीचन्द) (अभयकुमार) आजाद कुमार अनिल दीप्ति (निरंजन) सुनीता अजित कुमार अभिलाष आलोक कुमार कल्पना शालिनी वंदना सत्येन्द्र अर्चना कल्पना जितेन्द्र मंजू दुलीचन्द (नारायणी) फलचन्द्र (जमना) बड़ीबाई सुमित्राबाई (धुरकेलाल) (विन्द्रावन लाल) सुशील विभव कुमार विवेक विनीत विमला पुष्पा बैजयन्ती (सुगंधी) (नलिनी) (किरण) (मोतीलाल) (मुन्नालाल) (हीरालाल) -- ऋषभ चम्या अशोक कान्ता भागचन्द (उषा किरण) मुन्नी शान्ति सरला निर्मल श्रीबाई । साधना | विमला। विजय चम्पा | | राजो स्नेहा अनुजा मनीषा लवली निर्देश :( निधि सोनू गुड़िया हिमांशु सुधांशु प्रियंका नीति प्रीति रांगोली दीप्ति विशेष क्षितिज बोरेश स्मृति कृति ) कोष्ठकमें पति-पत्नियोंके नाम दिये हैं। अभिनंदन मनोज गुणमाला मुकेश भाग्यवती मनीषा सुलोचना मनीता अभय श्रेयांश Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंशावली परदादा श्री नन्हेंराम जी मुकुन्दीलाल (राधाबाई) ल जी बेटी बाई अयोध्या प्रसाद शोभाराम कारेलाल हजारीलाल छतारेलाल बंशीधर गौराबाई (प्यारी बाई) | (चिरोंजीबाई) (लक्ष्मोबाई) (सिं०पूर्णचन्द्र हरप्रसाद सगना नन्हीं धनप्रसाद कोमलचन्द रामप्रसाद कपूरचन्द दरबारीलाल मुलाबाई (चमेलीबाई) नरेन्द्रकुमार राजकुमार केशरबाई लीलाधर कपूरचन्द शांतिबाई शकून (कुंदनलाल) जनमती सुषमा मनीष परमेष्ठी दास (पूनाबाई) सुदेशचन्द (ताराबाई) केशरबाई प्रभादेवी (लक्ष्मीचन्द) (अभयकुमार) आजाद कुमार अनिल दीप्ति (निरंजन) सुनीता अजित कुमार अभिलाष आलोक कुमार कल्पना शालिनी मंजू वंदना सत्येन्द्र अर्चना कल्पना जितेन्द्र डोबाई सुमित्राबाई बुरकेलाल) (विन्द्रावन लाल) भागचन्द सुशील विभव कुमार विवेक विनीत विमला पुष्पा बैजयन्ती (सुगंधी) (नलिनी) (किरण) (मोतीलाल) (मुन्नालाल) (हीरालाल) शान्ति निर्मल चम्पा विजय प्रीति रांगोली विशेष दीप्ति निधि सोनू गुड़िया सुधांशु क्षितिज नीति वोरेश अभिनंदन मनोज गुणमाला मुकेश भाग्यवती मनीषा सुलोचना मनीता अभय स्मृति श्रेयांश कृति ) कोष्ठकमे पति-पलियोंके नाम दिये हैं। श:( Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्ताचार्य पण्डित बंशीधर व्याकरणाचार्य के कुछ अविस्मरणीय क्षणों की चित्रमय झाँकी Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धेय पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य, बीना श्रीमती स्व० लक्ष्मी बाई (ध० प० पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य) Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्याग्रहीके रूपमें व्याकरणाचार्यजी श्रावस्ती वि०प० के अध्यक्षके रूपमें श्री पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य wa libai व्याकरणाचार्यजी जयपुर खानिया तत्त्वचर्चाकी समीक्षाके लेखनमें व्यस्त । व्याकरणाचार्यजी स्वाध्यायमें तल्लीन हैं। .. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुणां-गुरु पं० गोपालदासजी वैरया जन्मशताब्दिके समारोह-अवसर पर समस्त भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वानों और श्रीमन्तोंके साथ प्रथम पंक्तिमें वि०प० के अध्यक्ष पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य, साह शान्तिप्रसाद, सर सेठ भागचन्द्रजी सोनी, पं० कैलाशचन्द्रजी, पं० फलचन्द्रजी शास्त्री, ब्र० रतनचन्द्रजी मुख्तार, प्रो० खुशालचन्द्रजी गोरावाला, डॉ० दरबारीलालजी कोठिया आदि । पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषद्की कार्यकारिणी तथा ग० वर्णी जैन ग्रंथमाला समिति, वाराणसीकी बैठकोंमें सम्मिलित सदस्यगणके साथ (१९६५-६६ ) Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणाचार्यजी वीर निर्वाण भारती मेरठकी ओरसे सम्माननीय उपराष्ट्रपति श्री वी डो० जत्ती द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत व्याकरणाचार्यजी सागर-वाचनामे विद्वत्परिषद्के अध्यक्ष डॉ० दरबारीलाल कोठिया द्वारा विद्वत्परिषदकी ओरसे 'जैन शासनमें निश्चय और व्यवहार' कृतिके लिए पुरस्कृत एवं सम्मानित . Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www धारण किया और रहर संस्कृत चार्य की उपाधि देकर आपके हाल यों को दूर किया सागर में धर्म के ..और का गहन अध्ययन किया रवा धर्म योग दिया। गां जान-अन व्याकरणाचार्यजी सागर वाचनामें मुनिसंघ समितिको ओरसे उसके अध्यक्ष सि० जीवनकुमार द्वारा सम्मानित ब्याकरणाचार्यजी सागर वाचनामें सागर-समाजकी ओरसे उसके अध्यक्ष श्री सागरचन्द्र दिवाकर द्वारा सम्मानित Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणाचार्यजीको सागर-वाचनाके अवसरपर सागर समाज द्वारा दिया जा रहा सम्मान पत्र समाजके प्रतिष्ठित विद्वान् पं० जगन्मोहनलालजी सिद्धान्तशास्त्री पढ़ रहे हैं। और जैन धर्म पूज्य आचार्य विद्यासागरजीके सन्निधानमें हुई सागर-वाचना वर्णी भवन, मोराजीमें आयोजित विद्वत्सम्मान समारोहमें सम्मानित व्याकरणाचार्यजी अपने सम्मानपर कृतज्ञता प्रकट करते हुए। . Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिवनी-अधिवेशनमें व्याकरणाचार्यजी अध्यक्षीय भाषण करते हुए। सिवनी अधिवेशन सन् १९६५ निवर्तमान अध्यक्ष नेमिचन्द्रजी ज्योतिषाचार्य और निर्वाचित अध्यक्ष पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर-वाचनामें सम्मिलित विद्वानोंके साथ व्याकरणाचार्यजी प्रथम पंक्ति में आसीन है। श्रद्धेय व्याकरणाचार्यजी अपने भ्रातृव्य डॉ० दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्यके साथ . Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ h har स्याद्वाद परिवार स्याद्वाद दि० जैन महाविद्यालय वाराणसीके भूतपूर्व एवं वर्तमान छात्र तथा अध्यापकगण, १९६५-६६ व्याकरणाचार्यजी प्रथम पंक्ति में दायें से छठे स्थान पर । 898 농 Vive חה m २२-१०-६३ से १-११-६३ तक जयपुर खानियामें आयोजित तत्त्वचर्चामें सम्मिलित त्यागीवर्ग, विद्वद्वर्ग और श्रेष्ठिवर्ग व्याकरणाचार्यजी पहली पंक्ति में दायें से तीसरे स्थान पर आसीन हैं । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री घर सन्दीलाल बबनवजवन नास्त सरकार स्वतंत्रता के पच्चीसवें वर्ष के अवसर पर स्वतंत्रता संग्राम में स्मरणीय योगदान के लिये राष्ट्र की ओर से प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने यह ताम्रपत्र भेंट किया श्री बंशीधर मुकुन्दीलाल 15 अगस्त 1977 24 धावन 1894 काम श्रद्धेय व्याकरणाचार्यके सम्मानमें वोर निर्वाण २५००वें महोत्सव पर सन् १९७४ में वीर-निर्वाण-भारती द्वारा दिया गया प्रशस्ति-पत्र Powe: 1 mane . Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 163 १.१ अगस्तसे १५ अगस्त १९८९ तक आयोजित सम्पादक-मण्डलको बैठकमें सम्पादक-मण्डल अभिनन्दन-ग्रन्थ की सामग्रीके वाचनमें व्यस्त । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षात्कार डॉ० कोठिया और व्याकरणाचार्य • डॉ० दरबारीलाल कोठिया, बीना [ अभिनन्दनीय सिद्धान्ताचार्य पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य राष्ट्र एवं समाजके उन वरिष्ठ मनीषियोंमें हैं, जिनकी राष्ट्रसेवा एवं सैद्धान्तिक पकड बहुत गहरी है और जो सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक प्रवृत्तियोंमें भाग लेनेके साथ 'स्वतंत्रता सेनानी' भी है। हालमें आपसे हमने जो साक्षात्कार लिया वह महत्त्वपूर्ण एवं ज्ञातव्य होनेसे यहाँ दिया जाता है। --प्र० स० ] को० : स्वतंत्रता-आन्दोलनमें आपकी प्रवृत्ति कैसे हुई ? व्या० : मैं सन १९२० के अन्त में संस्कृतका अध्ययन करनेके लिए पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्यके, जो बाद में अपनी अन्तिम अवस्थामें मुनि श्री १०८ गणेशकीर्तिके नामसे दिगम्बर साधु हो गये थे, साथ वाराणसी गया था और उनकी छत्रछायामें रहकर स्याद्वाद दिगम्बर जैन विद्यालयमें सन् १९३१ के अप्रैल तक मैंने संस्कृतका अध्ययन किया। देशमें स्वतन्त्रता आन्दोलन चल ही रहा था। अतः मेरे अन्तःकरणमें देशकी स्वतंत्रताकी भावना जागृत हुई। यतः उस समय मैं अध्ययनरत था, इसलिए इच्छा रहते हुए भी स्वतन्त्रता आन्दोलनमें मैंने भाग नहीं लिया। उसके पश्चात् सन् १९३५ तक स्थिर होकर नहीं रह सका। सन् १९३५ के अन्तमें बीना (म० प्र०) में कपड़ेका व्यापार प्रारम्भ किया। तब कांग्रेसका सदस्य बनकर उस समयके वातावरणमें कांग्रेसकी नीतिके अनुसार प्रवृत्तियाँ करता रहा और सन् १९४२ में 'भारत छोड़ो' आन्दोलनमें कूद पड़ा। और जब महात्मा गांधी सहित कांग्रेस कार्यकारिणीके सभी सदस्य गिरफ्तार कर लिए गये, तब आन्दोलनसे सम्पूर्ण देश अछता न रह सका। बीनाके गांधी माने जानेवाले श्री नन्दकिशोर मेहता सर्वप्रथम गिरफ्तार कर लिए गये। उसके पश्चात् मेरी गिरफ्तारी हो गयी और मुझे सागर (म० प्र०) जेल में भेज दिया गया। को० : सागर (म० प्र०) जेलमें आप कब तक रहे और अन्य जैलोंमें कहाँ-कहाँ रहे ? उनके कुछ अनुभव भी बताईये? व्या० : सागर जेलमें करीब आठ दिन रहा और उसके बाद मुझे कई आन्दोलनकारियोंके साथ नागपुर सेंट्रल जेलमें भेज दिया गया। उस समय पं. रविशंकर शुक्ल और पं० द्वारिकाप्रसाद मिश्र जैसे अनेक मध्यप्रान्तीय नेता भी उसी जेलमें थे। जेलका वातावरण बहुत अच्छा था । समय भी अच्छी तरह बीत रहा था । और भी आन्दोलनकारी उस जेलमें आते रहे। सभीको डिटेंशनमें रखा गया। धीरेधीरे केस चलनेकी प्रक्रिया चालू हुई। मुझे भी केस चलानेके इरादेसे करीब साढ़े छह मास बाद सागर जेलमें प्रत्यावर्तन (वापिसी) कर दिया गया। मजिस्ट्रेटने मुझे तीन माह कैदको सजा दी। तब जेल अधिकारियोंने अनेक व्यक्तियोंके साथ अमरावती जेलमें भेज दिया । वहाँ मासूम अली जेलका सुपरिन्टेन्डेन्ट था, जो बहत कर था। उसने सागरके पं० ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी व पद्मनाभ तेलंगको गुनाहखाने में पहले ही भेज दिया था । २-२ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ जिस दिन हम लोग अमरावती जेल में पहुँचे, उस दिन शनिवार था । दूसरे दिन रविवारकी छुट्टी थी । हम सभी व्यक्ति श्री ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी और पद्माभ तैलंगके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए एक साथ बैठे तथा अपना भविष्यका कार्यक्रम निर्धारित करनेकी बात हम लोगोंने सोची । सब लोगोंने एक स्वरसे पं० ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी और पद्मनाभ तेलंगको गुनाहखाने भेजने के विरोधमें कार्यक्रम निर्धारित करनेका निर्णय किया। यह तो ठीक था, पर मैंने सबके सामने यह बात रखी कि सभीको व्यक्तिगत हैसियत से भी विरोध करने के लिए तैयार रहना चाहिए, तो सभी पीछे हट गये । सोमवारके प्रातः जिस समय सुपरिन्टेन्डेन्ट आनेवाला था, उसके पहले, मुझे और श्री हर्षचन्द मारौठी दमोहवालोंको छोड़कर सभी सुपरि० के कार्यक्रममें सम्मिलित होनेके लिए वैरकसे बाहर आ गये और उसके आदेशका पालन करने लगे । इसके पश्चात् जेलरके साथ सुपरि० बैरक में आया और मुझसे कहा कि 'कार्यक्रममें क्यों सम्मिलित नहीं हुए, क्या तुम्हें गुनाहखाने में जाना है ?" मैंने उत्तर दिया कि मैं श्री ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी और पद्मनाभ तैलंगको गुनाहखाने में भेजने का विरोध करता हूँ । तब उसने जेलरसे कहा कि इन्हें गुनाहखाने में भेज दो। फिर मारौठीजीके पास वह पहुँचा और कहा कि तुम भी गुनाहखाने में जाना चाहते हो । उन्होंने उत्तर दिया कि जहाँ चाहो वहाँ भेज दो । मैं भी ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी और पद्मनाभ तेलंगको गुनाहखाने में भेजने का विरोध करता हूँ ।' इस तरह हम दोनोंको गुनाहखाने में भेज दिया गया और आगे चलकर हमारी 'बी' क्लासकी सभी सुविधायें छीनकर 'सी' क्लासमें परिवर्तित कर दी गईं। तीन माह कैदकी सजा पूरी होनेपर जेलके नियमोंको तोड़नेके आधारपर जेलके अन्दर ही मजिस्ट्रटको बुलाकर केस चलाया । हमने जमानत पर छूटने की दरख्वास्त दी, जिसे मजिस्ट्रेटने अस्वीकार कर दिया । तब हम दोनोंने अमरावती में रह रहे अपनी सम्बन्धियोंके पास संदेश भिजवाया कि जमानतके लिए सेशन कोर्टमें जमानत स्वीकृत करनेके लिए दरख्वास्त देनेकी व्यवस्था करो। हम लोगोंकी जमानत स्वीकार कर ली गयी और हमारे भतीजे पं० बालचन्द्र शास्त्री, अमरावतीके प्रतिष्ठित सिंघई पन्नालालजी रईस - को, जो जमानतदार थे, साथ लेकर जेल आये । साथमें मारौठीके जमानतदार भी थे। इन सबको जेल फाटकपर चार-पाँच घण्टे इन्तजार करना पड़ा, तब कहीं शामको ५ बजे हम लोगोंको जमानतपर छोड़ा गया । जेलसे बाहर आनेपर केस आगे बढ़ा । उसमें हमलोगोंके वकीलने, जिनका नाम मैं भूल रहा हूँ, बिना फीस लिए केस लड़ा । परिणाम यह हुआ कि अदालतने हम दोनोंको निर्दोष घोषित कर छोड़ दिया । को० : स्वतन्त्रतासे सम्बन्धित और उसके बाद उत्पन्न परिस्थितियोंके सम्बन्ध में आपके क्या विचार हैं ? व्या० : स्वतन्त्रता आन्दोलन में यद्यपि देशवाशियोंने निःस्वार्थ भाव से भी भाग लिया था, परन्तु उस समय कांग्रेसके जो चुनाव होते थे, उनमें कांग्रेसीजन प्रायः अनैतिक हथकण्डे अपनाकर सफलता प्राप्त कर लेते थे । ऐसी घटनायें हमेशा होती ही रहती थीं। मैं ऐसी बातोंका विरोध भी करता था । पर कांग्रेसके उच्च पदाधिकारी भी उसको उपेक्षित कर देते थे । ये बातें राजनैतिक नेताओंके भावी आचरणोंका संकेत थीं । ऐसी ही एक घटना मेरे साथ हुई थी । बोनाकी नगर कांग्रेस कमेटी के सदस्योंने सर्वसम्मतिसे मध्यप्रान्तीय कांग्रेस कमेटीकी सदस्यता के लिए मेरे न चाहते हुए भी मुझे उम्मीदवार Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ११ घोषित किया था। पर जिला कांग्रेस कमेटीके पदाधिकारियोंके कहनेपर एक अन्य व्यक्ति उम्मीदवार बन गया था, जिसके कारण मतदान हुआ और उसमें अनुचित तरीके भी अपनाये गये । हांलाकि मैं सफल हुआ, क्योंकि मेरे पक्षमें श्री नन्दकिशोरजी मेहताने बड़ी मेहनत की थी । आज देशका जो राजनैतिक गंदा वातावरण चल रहा है, उसका कारण यही है कि लोग अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए देशकल्याणकी उपेक्षा कर रहे हैं । जो शासन पार्टी है वह अपनी स्वार्थसिद्धिके लिए गलत तरीके अपना रही है और दूसरी राजनैतिक पार्टियाँ भी सत्ता पानेके लिए गलत तरीके अपनाने से नहीं चूक रही हैं। इसे देशका दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है। आज जो समूचा देश भ्रष्टाचारमें डूबा हुआ है वह इसीका परिणाम है । को० : आपको दृष्टिमें उसे दूर करनेका क्या कोई उपाय है ? व्या० : स्वतन्त्रता प्राप्त होनेपर महात्मा गाँधोने कांग्रेसी नेताओंको यह सुझाव दिया था कि कांग्रेसका राजनीतिक स्वरूप समाप्त कर दिया जाये । उसे केवल लोक-संस्था ही बनी रहने दिया जाये । परन्तु कांग्रेसी नेताओंने महात्माजीके उस सुझावको अस्वीकृत कर दिया था । यदि महात्माजी के सुझावको तत्कालीन कांग्रेसी नेता स्वीकार कर लेते, तो मुझे विश्वास है कि राजनीतिक पार्टियाँ और देश पतनकी ओर नहीं जाते। आज एक उपाय सम्भव है कि शासक पार्टी अपनेको सुधारे तो दूसरी राजनैतिक पार्टियाँ और देश सुधर सकता है । सुधार ऊपरसे ही हो सकता है, नीचेसे नहीं । को० : क्या आपने सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियोंमें भी भाग लिया है और वे कौन कौनसी हैं ? व्या० : हाँ, लिया है। प्रथमतः दस्सा पूजाघिकारको ले लें। समाज में यह प्रथा चालू रही है कि कोई व्यक्ति विधवा-विवाह कर ले, तो उसे जातिसे बहिष्कृत कर दिया जाता था और उसे धर्मसाधनके स्थान मन्दिरोंमें प्रवेश नहीं करने दिया जाता था । ऐसे व्यक्तियोंको दस्सा कहा जाता था और उनकी पीढ़ी-दर-पीढ़ी सन्तान भी दस्सा कही जाती थी । धीरे-धीरे इस प्रक्रियामें सुधार हुआ । पर ऐसे व्यक्तियोंको मन्दिरमें पूजा करनेका अधिकार फिर भी नहीं था । गुरु गोपालदास वरैयाने इस विषय में चल रहे एक अदालती केसमें बहुत पहले दस्साओं के मन्दिर प्रवेश और पूजाधिकारका दृढ़ता से अपनी गवाही में समर्थन किया था । वर्तमानमें करीब सन् १९३८ में, ग्राम बामौरा, जिला सागरमें एक व्यक्ति के विधवा-विवाह करनेपर मन्दिरके सब अधिकार वहाँकी समाज ने उससे छीन लिए । लेकिन वह इसके विरुद्ध आवाज उठाता ही रहा । इसी सिलसिले में वह बीना आया और पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री और मुझसे सम्पर्क स्थापित किया । उस समय पं० फूलचन्द्रजी और मैं समानरूपसे सुधारवादी दृष्टिकोणके थे । इसलिए हम लोगोंने एक "सन्मार्ग प्रचारिणी समिति” की स्थापना की। हांलाकि दिगम्बर जैन परिषद् पहलेसे ही इसका आन्दोलन चला रही थी । पर हमलोगोंने उसे गति देनेके लिए इस समिति - की स्थापना की थी । समितिके द्वारा हमलोगोंने बामौराकी समाजको समझानेका प्रयत्न किया । परन्तु जब वहाँकी समाज उस व्यक्तिको पूजाधिकार देनेके लिए तैयार नहीं हुई, तो बाकायदा अदालत में केस ले जानेका निर्णय किया। केस चला। परन्तु इस क्षेत्रकी जैन समाजका बल बामोराकी समाजको मिला और उस केसमें हमें सफलता नहीं मिली । को० : क्या दस्सापूजाधिकारका मामला फिर आगे नहीं बढ़ा ? Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-अन्य -- व्या० : बढ़ा है। इसी बीच कुरवाई ग्राममें परवार सभाका अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशनमें पण्डित फलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री और पण्डित महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने दस्सापजाधिकारका प्रस्ताव विचारार्थ रखा। अधिवेशनके सभापति पण्डित देवकीनन्दनजी सिद्धांतशास्त्री थे और महामन्त्री श्रीमन्त सेठ वृद्धिचन्दजी सिवनी थे। उन्होंने समाजके प्रतिरोधको देखकर उस प्रस्तावको अग्राह्य करने के लिए एक समानान्तर प्रस्ताव तैयार किया, जिसे पण्डित फलचन्द्रजी और पण्डित महेन्द्रकुमारजी मानने के लिए तैयार नहीं थे । मैं भी उस आधवेशनमें सम्मिलित हुआ था । पर परवार समाज का अंग न होनेके कारण मुझे बोलनेका अधिकार नहीं था। इसलिए अध्यक्षकी आसन्दीके पास जाकर उनसे मैंने वह प्रस्ताव मुझे दिखानेका आग्रह किया। उस प्रस्तावको मैंने गौरसे देखा और अध्यक्ष महोदयसे उसे पास करानेका आग्रह किया। साथ ही मैंने ६० फलचन्द्रजी और पं० महेन्द्रकुमारजीसे कहा कि अपने प्रस्तावको वापिस ले लो और जो समानान्तर प्रस्ताव तैयार किया गया है उसे पास होने दिया जाये। पं० फूलचन्द्रजी और पं० महेन्द्रकुमारजी मेरी बातको मान गये और वह समानान्तर प्रस्ताव पास हो गया। उसमें जो महत्त्वकी बात थी वह यह थी कि उस प्रस्तावमें दस्सापूजाधिकारके विषयमें उस-उस ग्रामकी पंचायतोंको यह अधिकार दिया गया था कि वे चाहें, तो दस्साओंको पूजा करनेका अधिकार दे सकती हैं। इसका यह अर्थ हआ कि परवार सभाको दस्साओंका मन्दिरमें जाकर पूजा करनेका अधिकार मान्य है। अब स्थिति यह है कि दस्सा लोग मन्दिरमें जाकर बेरोकटोक पूजा-प्रक्षाल करते हैं और दिगम्बर मुनियोंको आहारदान भी देते हैं और अब तो बेटी-व्यवहार भी होने लगा है । को० : यह तो आपकी सामाजिक गतिविधि हुई, सांस्कृतिक भी कोई आपकी गतिविधि है ? व्या० : सांस्कृतिक गतिविधिमें भी मैंने भाग लिया है। जब देवगढ़ तीर्थक्षेत्रपर श्री गनपतलालजी गुरहा खुरईकी ओरसे गजरथका आयोजन किया जा रहा था, तब सन्मार्ग-प्रचारिणी समितिने विरोध करनेका आंदोलन अपने हाथमें लिया। मैं समितिका मंत्री था और पं० फलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री उसके संयुक्त मंत्री थे। पत्र-पत्रिकाओंके माध्यमसे गजरथ-विरोधी आन्दोलनका धीरे-धीरे प्रभाव समाजमें बढ़ता गया, जिसे अनुभव कर दिगम्बर जैन परिषद आन्दोलनमें सामने आई । परिणामतः वह आंदोलन परिषद्के अन्तर्गत चला गया, क्योंकि सन्मार्ग प्रचारिणी समिति उसके सिद्धान्तोंको स्वीकार करती थी। पर परिषद्के एक प्रमुख कार्यकर्ताने समाचारपत्रोंमें यह घोषणा कर दी कि मैं और मेरी पत्नी प्रथम व्यक्ति होंगे; जो रथके सामने लेटकर सत्याग्रह करेंगे। इसका प्रभाव समाजपर प्रतिकूल पड़ा । फलतः यह आन्दोलन स्थगित करना पड़ा। इसके पूर्व एक गजरथका आयोजन बारचौन (ललितपुर) में हुआ था। उसे रोकनेके लिए परवार समाजके प्रमुख व पं० देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्री, श्रीमन्त सेठ वद्धिचन्द्रजी सिवनी और सिंघई कुंवरसेनजी सिवनी (म०प्र०), मडावरा (ललितपुर, उ०प्र०) गये थे। उन्होंने मडावरामें एक बैठककी, जिसमें मड़ावराकी समाजके साथ वारचौनके गजरथकार श्री चन्द्रभानजी भी सम्मिलित हुए थे । उस बैठकमें अनुकूल निर्णय न हो सकनेके कारण परवार समाजके उक्त तीनों प्रतिनिधियोंने अनशन करनेकी घोषणा की और उस घोषणाका प्रभाव जब गजरथकारपर नहीं पड़ा, तो उन्होंने गजथरकारके सामने यह प्रस्ताव रखा कि गजरथ तो किया जाये, पर पंक्तिभोज बन्द करके उसमें व्यय होने वाले द्रव्यको देवगढ़ क्षेत्रके लिए दे दिया जाये। फिर क्या हुआ, मुझे नहीं मालूम । तात्पर्य यही है कि उस अवसरपर परवारसभा भी गजरथ विरोधकी हामी थी। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २/व्यक्तित्व तथा कृतित्व : १३ को०: केवलारी (सागर) के गजरथ-विरोधमें आपका क्या दृष्टिकोण रहा ? व्या० : देवगढके गजरथके बाद केवलारी, जिला सागरमें भी गजरथका आयोजन हआ था। और सन्मार्ग प्रचारिणी समितिने उसके विरोध भी आन्दोलन किया था तथा दमोह, टीकमगढ़ आदि नगरोंके गजरथ विरोधो व्यक्ति भी गजरथके अवसरपर केवलारीमें इकटठे हुए थे। वहाँपर यह निर्णय किया गया था कि अनशन द्वारा गजरथके विरोध में आवाज बुलन्द की जाये। इस निर्णयके अनुसार कुछ व्यक्ति, जिनमें पं० फूलचंद्रजी शास्त्री प्रमुख थे, अनशनपर बैठे, जिसका प्रभाव यह हुआ कि पं० देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्री व पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री आदि परवार समाजके प्रमुख व्यक्तियोंने गजरथके विषयमें भविष्यके लिये नीति-निर्धारण करनेकी बात सोची और सम्मेलन भी आयोजित किया । उसमें गजरथविरोधी व्यक्ति भी सम्मिलित हुए। उस सम्मेलनमें एक प्रस्ताव पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्रीने प्रस्तुत किया, जिसे गजरथविरोधियोंकी तरफसे स्वीकार करनेकी बात मैंने कही। पर पं० जगन्मोहनलालजीने स्वयं एक संशोधन उपस्थित कर दिया। उसको भी जब मैंने स्वीकार किया, तो उसपर भी एक संशोधन उन्होंने रखा। इस तरह कई संशोधन एक-के-बाद-एक वे रखते गये और सभीको गजरथविरोधी स्वीकार करते गये; क्योंकि वे गजरथविरोधी भावनाके अनुकूल थे। अन्तमें सम्मेलनमें तय हुआ कि सन्मार्ग प्रचारिणी समितिका कोई पदाधिकारी कारंजा पहुँचकर पं० देवकीनन्दनजी सि० शा के साथ विचार-विनिमय करे और योग्यतम निर्णय करने में पं. देवकीनन्दनजीको सहयोग दे। मैं इसी उद्देश्यसे कारंजा गया। परन्तु पं० देवकीनन्दनजीने निर्णय करने में उत्सुकता नहीं दिखलाई । उसका परिणाम यह हुआ कि आगे चलकर गजरथ निराबाध चलने लगे, जो अबतक चल रहे हैं। यहाँ मैं एक बात और कहना चाहता हूँ कि केवलारी सम्मेलन में तो संशोधन एक-के-बाद-एक रखे गये, उस सम्बन्धमें मैंने दूसरे दिन पं० जगन्मोहनलालजीसे कहा कि आपका प्रस्ताव और उसके प्रत्येक संशोधन गजरथविरोधियोंने मान्य कर लिए, फिर क्यों आपने संशोधनों सहित प्रस्ताव पारित नहीं कराया और क्यों नये-नये संशोधन प्रस्तुत किये? उन्होंने जवाब दिया कि परवारसभाके कुरवाई अधिवेशनमें दस्सापूजाधिकारके सम्बन्धमें जो प्रस्ताव पास किया था, उसे जब पं० फूलचन्द्रजी और पं० महेन्द्रकुमारजोने स्वीकार कर लिया, तो हम लोगोंको शंका हुई कि प्रस्तावमें कोई-न-कोई खामी अवश्य है। वही शंका गजरयके विषयमें रखे गये प्रस्ताव और संशोधनोंको गजरथ-विरोधियों द्वारा स्वीकार कर लिए जानेपर हम लोगोंको हई, जिससे गजरथके विषयमें नीति-निर्धारणको बात आगेके लिए टाल दी गयी है । आगे जो कुछ हुआ, वह ऊपर स्पष्ट कर दिया गया है । को० : आपने संस्थाओंकी भी सेवा और संचालन किया है, उनके विषयमें आपके कैसे अनुभव है ? व्या० : बीना (सागर) में, जहाँ मैं रहता हूँ, जैन समाजकी एक सामाजिक संस्था है, जो बहुत पुरानी है। वह संस्था सांस्कृतिक एवं धार्मिक व्यवस्थाके साथ सामाजिक व्यवस्था भी करती है । उसका मैं सन् १९३८ से १९४० तक सहायक मंत्री रहा। उसके पश्चात् सन् ४१ से ४३ तक मंत्री रहा । सन् ४४ में संस्थाके अध्यक्षको नोतिसे क्षुब्ध होकर कई पदाधिकारियोंके साथ मैंने मंत्री पदसे त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद सन् ५३ में इच्छा न रहते हुए सदस्योंके आग्रहपर संस्थाका मंत्रित्व पुनः सम्हालना पड़ा। फलतः सन् ६८ तक मैं उसका मंत्री रहा । और अशक्तिवश मंत्रित्व छोड़ देनेपर तीन वर्ष तक उसका उपाध्यक्ष रहा । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ ज्ञातव्य है कि सन् ५३ में संस्थाका जो चुनाव हुआ, उसमें गोलालारीय समाजका योग्यतम व्यक्ति अध्यक्ष चुना गया और गोलापूर्व होते हुए भी मुझे मंत्री चुना। इसपर खुरई (सागर) की परवार समाजने बीनाकी परवार समाजके प्रति कहा कि बीनामें परवार समाजका बाहुल्य होनेपर भी गोलालारीय समाजके व्यक्तिको अध्यक्ष और गोलापूर्व समाजके व्यक्तिको मंत्री निर्वाचित करना बोनाकी परवार समाजकी अयोग्यता सूचित करता है। पर इसका कुछ भी प्रभाव बीनाकी समग्र समाजपर नहीं पड़ा और सन् ७१ तक यहाँकी समाजका ऐसा ही दृष्टिकोण बना रहा। _ किन्तु सन् ७१ में संस्थाका जो चुनाव हुआ, तो परवार समाजके कुछ प्रमुख व्यक्तियों द्वारा तीनों समाजोंमें भेदकी नीति अपनाई गई। इससे मुझे ग्लानि हुई और मैंने संस्थासे ही त्यागपत्र दे दिया। खेद यही है कि हम छोटे-छोटे भेदोंमें उलझ जाते हैं और सम्पूर्ण समाजके ऐक्यके उदार दृष्टिकोणको त्याग देते हैं । यह हमारो संकुचितताका ही दोष है।। को०: क्या आप अन्य संस्थाओंसे भी संबद्ध रहे हैं ? व्या० : हाँ, मैं कई अन्य संस्थाओंसे भी संबद्ध रहा हूँ। उनमें मुख्यरूपसे दो संस्थायें हैं-(१) श्री गणेश प्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला और (२) अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत परिषद । वर्णी जैन ग्रन्थमालाके स्थापनाकालसे ही मैं उसका मंत्री रहा और पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री उसके सहायक मंत्री रहे । पर बादमें उनसे मतभेद हो जानेके कारण मैंने संस्थाके मंत्री पदसे त्यागपत्र दे दिया । पं० फूलचन्द्रजीके सुझावके अनुसार ग्रन्थमालाको ५० पन्नालालजी साहित्याचार्यके व्यवस्थापकत्वमें सागर भेज दिया गया। पर कुछ कारणोंसे उन्होंने उसे पुनः वाराणसी वापिस बुला लिया। इसके पश्चात डॉ० दरबारीलाल कोठियाको उसका मंत्री बनाया गया। डॉ० कोठियाने उसे काफी समुन्नत बनाया। परन्तु ऐसी परिस्थितियोंका निर्माण हआ कि उन्हें भी ग्रन्थमालाके मंत्रित्वसे त्यागपत्र देना पड़ा। दूसरी संस्था भा० दि० जैन विद्त्परिषद्का भी मैं कई वर्षतक मंत्री रहा और सन् १९६५ में हए सिवनी अधिवेशनका अध्यक्ष चुना गया। श्रावस्तीमें हए उसके नैमित्तिक अधिवेशनका भी अध्यक्ष मैं ही रहा । मुझे प्रसन्नता है कि मेरे अध्यक्षकालमें गुरु गोपालदास शताब्दि-समारोह विद्वत्परिषद्ने साहू शान्तिप्रसादजी जैनकी अध्यक्षतामें दिल्लीमें मनाया और गुरु गोपालदास वरैया - स्मृति-ग्रन्थका प्रकाशन भी इस अवसरपर उसने किया । विद्वत्परिषदके ये दोनों कार्य स्मरणीय रहेंगे। को० : आपकी स्फुट प्रवृत्तियाँ और भी रही होंगी, उनके सम्बन्धमें कृपया दिशा-निर्देश करें ? व्या० : मेरी कुछ स्फुट प्रवृत्तियाँ भी रहीं। उदाहरणार्थ-जब पं० फूलचन्द्रजी सि० शा० नाते-पोते (सोलापुर) में कार्य कर रहे थे, तब वहाँकी समाजने 'शान्ति-सिन्धु' नामसे एक मासिक पत्र निकालनेका निर्णय लिया। उसका सम्पादक पं० फुलचन्द्रजीको और उपसंपादक मुझे बनाया गया। सनातन जैन समाजकी ओरसे प्रकाशित होनेवाले 'सनातन जैन' मासिकपत्र का भी सम्पादक कई वर्षों तक रहा । यह पत्र बुलन्दशहरसे निकलता था और उसके प्रकाशक थे श्री मंगतराय 'साधु' । को० : सोनगढ़ और उसकी विचारधाराके प्रति आपका क्या दृष्टिकोण है ? आज उसकी सर्वाधिक चर्चाका कारण क्या है ? व्या० : श्री कानजी स्वामीके आग्रहसे सोनगढ़में सन् १९४७ में अ० भा० दि० जैन विद्वत्परिषद्का अधि वेशन बलाया गया था और अधिवेशनके अध्यक्ष 4. कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री निर्वाचित हुए , Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : १५ थे । विद्वानोंको भी स्वामीजीके विचारोंसे परिचित होनेकी इच्छा थी । इसलिए अधिवेशनमें प्रायः सभी सदस्य विद्वान् पहुँचे थे । वहाँ पं० फूलचन्द्रजी बीमार पड़ गये । अतः उन्हें कुछ समय वहाँ रहना पड़ा । वहाँसे आनेके बाद उन्होंने 'जैन तत्त्वमीमांसा' नामसे एक पुस्तक लिखी । उनकी इच्छानुसार उसका वाचन जैन समाज बीनाके आमन्त्रणपर बीनामें एक विद्वद्गोष्ठी में किया गया । विद्वद्गोष्ठी में समाजके अनेक प्रमुख विद्वान् सम्मिलित हुए थे । पं० फूलचन्द्रजीकी उस पुस्तकपर विद्वानोंमें मतभेद फिर भी बना रहा । उनकी उक्त पुस्तक प्रकाशित होनेपर कई विद्वानोंने उसके विरोध में पुस्तक व लेख लिखे । मैंने भी "जैन तत्त्वमीमांसाकी मीमांसा" नामक पुस्तक लिखी, जिसे पण्डित राजेन्द्र कुमारजी जैन, न्यायतीर्थ, मथुराने 'दिगम्बर जैन संस्कृति सेवक समाज' के द्वारा वरैया ग्रन्थमालाके अन्तर्गत प्रकाशित किया। इसके पश्चात् मैंने दूसरी पुस्तक " जैनदर्शनमें कार्यकारणभाव और कारकव्यवस्था" के नामसे लिखी । उसका भी प्रकाशन पण्डित राजेन्द्रकुमारजीने उक्त संस्थाके द्वारा उक्त ग्रन्थमालाके अन्तर्गत किया । इसके पश्चात् "जैनशासन में निश्चय और व्यवहार" पुस्तक लिखी, जिसका प्रकाशन " श्रीमती स्व० लक्ष्मीबाई (धर्मपत्नी पण्डित बंशीधर व्याकरणाचार्य) पारमार्थिक फण्ड" से हुआ । जिन विषयोंको पण्डित फूलचन्द्रजीने अपनी उक्त पुस्तक में उलझानेका प्रयत्न किया है उन्हींका इन पुस्तकों द्वारा स्पष्टीकरण किया गया है । सोनगढ़ने अपनी विचारधाराको केवल अध्यात्मपरक ऐकान्तिक रूपमें निरूपित किया, जो जैनदर्शनके अनुकूल नहीं । उसीका नया संस्करण टोडरमल स्मारक भवन जयपुर है। दोनोंने जैनदर्शन के तत्त्वोंको गलत रूपमें प्रस्तुत किया है और किया जा रहा है। उन्होंपर जयपुर (खानिया) में विद्वानोंकी परिचर्चाका आयोजन किया गया था । यह संगोष्ठी कई दिन तक चली थी । पण्डित फूलचन्द्रजी शास्त्री, पण्डित जगन्मोहनलालजी शास्त्री और श्री नेमीचन्द्रजी पाटनी एक पक्षके प्रतिनिधि थे तथा न्यायाचार्य पण्डित माणिकचन्द्रजी, पण्डित मक्खन लालजी शास्त्री, पण्डित जीवन्धरजी न्यायतीर्थ, पण्डित पन्नालालजी साहित्याचार्य और मैं ( पण्डित बंशीधर व्याकरणाचार्य) एक पक्षके प्रतिनिधि थे । ध्यातव्य है कि इस परिचर्चा में और भी बहुत विद्वान् सम्मिलित हुए थे । यद्यपि परिचर्चा वीतरागकथाके रूपमें आयोजित की थी, जिससे जैनागमका रहस्य खोला जा सके । किन्तु वह उससे हटकर विजिगीषुकथा बन गयी । इसलिए मुझे उस तत्त्वचर्चाकी समीक्षा करनेका संकल्प करना पड़ा । और उसके लिए " जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा" के नामसे पुस्तक लिखनेका निर्णय किया, जिसका प्रथम खण्ड " श्रीमती लक्ष्मीबाई (६० प० पण्डित बंशीधर व्याकरणाचार्य) पारमार्थिक फण्ड" बीनासे प्रकाशित किया गया । इस खण्ड में प्रश्नोत्तर एकसे चार तककी समीक्षा की गयी है । द्वितीय खण्डमें पाँचवें प्रश्नोत्तरकी समीक्षा जो लगभग तैयार है । पर अभी उसका प्रकाशन आर्थिक व्यवस्था न हो सकनेके कारण नहीं हो सका । इन दो खण्डोंके अतिरिक्त दो खण्ड और होंगे। तीसरे खण्डमें छठे प्रश्नोत्तरोंसे लेकर आगे के कतिपय प्रश्नोत्तरोंकी और चौथे खण्ड में शेष प्रश्नोत्तरोंकी समीक्षा की जावेगी । बात यह है कि सोनगढ़ और उसका पूर्णतया अनुयायी टोडरमल स्मारक भवन, जयपुरने दिगम्बर जैनधर्म तत्त्वों का ऐकान्तिक प्रचार एवं प्रसार किया और कर रहे हैं । इसी कारण दिगम्बर जैन समाज में उनकी सर्वाधिक चर्चा है, क्योंकि समाजमें उन्होंने टूट पैदा कर दी है और जिसे रोकना जरूरी है । व्याकरणाचार्यजी, हम आपके अत्यन्त आभारी हैं । आपने हमारे प्रश्नोंके जो समाधान किये हैं उनसे हमें ही नहीं, अपितु सहस्रों पाठकोंको भी लाभ होगा और उन्हें कितनी ही नयी जानकारी मिलेगी । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाल व्यक्तित्वके धनी • डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, जयपुर जैन समाजके वरिष्ठ विद्वान् पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य ख्याति प्राप्त मनीषी हैं। वे प्रथम व्याकरणाचार्य हैं। जैनागमके अच्छे व्याख्याता ही नहीं, किन्तु लेखनीके धनी भी हैं। जैन सिद्धान्त एवं तत्त्वच पर उनके लेख जैन पत्रोंमें प्रायः प्रकाशित होते रहते हैं। वे बड़े गम्भीर विद्वान् है। जब कभी समाजमें किसी सैद्धान्तिक पक्षको लेकर चर्चा छिड़ जाती है अथवा किसी मान्यताको लेकर विवाद खड़ा हो जाता है तो पंडितजी चुप नहीं रहते और पूर्ण निर्भीकताके साथ अपने विचार समाजके सामने रख देते हैं। उनके विचार आगमके अनुसार होते हैं। उनमें नीर-क्षीरका विवेक देखा जा सकता है। पंडितजीने सन् १९६३ में सर्वप्रथम जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चामें सोनगढ़पक्षके विरुद्ध प्रमुख प्रवक्ताके रूपमें उपस्थित होकर अपनी विद्वत्ता एवं प्रतिभाकी धाक सारे समाजमें बिठा दी थी। पंडितजीने इस तत्त्वचर्चा में उस समय अपना पक्ष प्रस्तुत किया, जब सोनगढ़का सूर्य अपने पूर्ण क्षितिजपर था। इसके पश्चात् उनकी कलम कभी नहीं थकी और निश्चयनय और व्यवहारनय जैसे बहचचित विषयपर एक कृति लिखकर समाजको वस्तुका सही मूल्यांकन करने में महान् योगदान दिया। __ अभी कुछ महीनों पूर्व जब आदरणीय डॉ० दरबारीलालजी कोठियाने कुण्डलपुरमें विद्वत् परिषद्के नैमित्तिक अधिवेशनपर पंडित बंशीधरजी व्याकरणाचार्यको अभिनन्दनग्रंथ भेंट करनेकी चर्चा चलाई, तो मैंने अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हुए डॉ० कोठिया साहबसे इस शुभ कार्यको शीघ्रातिशीघ्न सम्पन्न करने तथा अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करनेका प्रस्ताव भी उनके समक्ष रख दिया। इसके १-२ महीनोंके पश्चात् ही श्री बाबूललाजी फागुल्ल, वाराणसीका अभिनंदनग्रंथकी पूर्ण योजनावाला पत्र मिला। इसके पश्चात् अभिनंदनग्रंथकी पूरी योजनाके संबंधमें डॉ० कोठिया साहबसे श्रीमहावीरजी जाकर भी चर्चा की। अभिनंदनग्रंथके संबंध डॉ० कोठियाजी एवं फागुल्लजीके बराबर पत्र मिलते रहे । जब उन्होंने मुझे पं. बंशीधरजी व्याकरणाचार्यके व्यक्तित्व एवं जीवनपर एक विस्तृत लेख लिखनेके लिये लिखा, तो मैंने निश्चय किया कि मुझे पंडितजीके व्यक्तित्वकी पूरी जानकारी लेनेके लिये स्वयं बीना जाना चाहिये । आखिर मैं दि० ११ अगस्त, ८९ को प्रातः ९ बजे बीना पहुँचा। स्टेशनसे रिक्शा स्टैण्ड तक आया। जब मैंने रिक्शा वालोंसे पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य के घरपर चलनेको कहा, तो रिक्शा वालोंने पंडितजीका नाम सुनते ही मुझे रिक्शामें बैठनेको कहा और २०-२५ मिनटमें ही मुझे उनकी दुकानपर लाकर छोड़ दिया। दुकानपर देखा पंडितजी एवं उनके पास दो युवक (उनके सुपुत्र प्रिय विभवकुमार एवं प्रिय विनीतकुमार) बैठे हुए है । मैंने अपना नाम बताया। पंडितजीको पहिचानने में न मुझे देर लगी और न उनको। उनसे मिलने में बड़ी प्रसन्नता हई। ट्रेनके लेट आने एवं मार्गमें होने वाली असुविधाओंके बारेमें बात होने लगी। थोडीही देरमें डॉ० कोठिया साहब भी आ गये और फिर हम सभी बातोंमें डूब गये । घर आनेपर पंडितजीको समीपसे देखनेका प्रथम अवसर मिला । प्रातः ३ बजेसे रात्रिके १० बजे तक उनकी दिनचर्या देखी । पंडितजी ८४ पार कर चुके हैं। लेकिन उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा है । घरमें उनका अलग ही कमरा है, जिसमें वे लेखनकार्य एवं स्वाध्याय करते हैं। पास ही पुस्तकोंका ढेर लगा है, जिनको वे कन्सल्ट करते रहते हैं । आज भी वे शास्त्रीय चर्चामें उतने ही जागरूक हैं जितने कभी अपनी यवावस्थामें रहे है। कमरे में पुस्तकोंके अतिरिक्त कुछ प्रशस्तिपत्र, जो उन्हें समय-समय पर राष्ट्र और समाज द्वारा मिलते Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : १७ रहे हैं, आचार्योंसे चित्र, जिनसे उन्हें प्रेरणा मिलती रहती है, उनका एवं उनकी पत्नीका अलग-अलग बड़ा चित्र भी कमरेमें लगा हुआ है, जो संभवतः युवावस्थाका है। उनकी पत्नीका कुछ वर्षों पूर्व स्वर्गवास हो चुका है। अपने स्वाध्याय एवं लेखनके अतिरिक्त बिना नागा प्रातः ८ बजे मन्दिर जी जाते तथा प्रवचन करते हैं और वहाँसे आकर दुकानमें बैठ जाते हैं। पर पुत्रोंको परामर्श के सिवाय पंडितजी कुछ नहीं करते । दुकान दोनों पुत्र सभालते हैं । पुत्र सुयोग्य और विनम्र हैं। दो दिन ठहरनेके पश्चात् मैंने उनसे कहा कि मुझे आपके बारेमें कुछ जानकारी प्राप्त करनी है। यदि आपकी स्वीकृति हो, तो आज ही कुछ देर बैठ जावें । पंडितजीने पहले तो कहा कि उनके पास अपने बारेमें कहनेको क्या है, क्योंकि जीवन में ऐसा कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया, जिसकी आपसे चर्चा कर सकू। मैंने पंडितजीसे पनः निवेदन किया कि आपका जीवन तो समाजकी थाती (धरोहर) है। समाजको गर्व है कि उन जैसा व्यक्तित्व उसे मिला हुआ है, इसलिये उनके जीवनकी घटनाओंसे वर्तमान पीढ़ी ही नहीं, आगे आनेवाली पीढ़ीको भी प्रेरणा मिलती रहेगी। जब मैंने उनसे पुनः अपने खट्टे-मीठे संस्मरण सुनानेके लिये कहा, तो पंडितजीने कहा कि 'ठीक है, जब आप कुछ प्रश्न पूछना ही चाहते है तो फिर मुझे प्रश्नोंका उत्तर देने में क्या आपत्ति हो सकती है ? प्रश्न-आपका जन्म कब और कहाँ हुआ? उत्तर-पंडितजीने प्रश्नका उत्तर देते हुये कहा कि उनका जन्म सोंरई ( ललितपुर ) ग्राममें संवत् १९६२ में हुआ था। प्रश्न-मैंने सुना है आपके पिताश्रीका निधन बहुत जल्दी हो गया ? उत्तर-पंडितजीने चिन्तनमें डूबते हुये कहा कि डॉ० साहब, मेरे पिताजीका साया, जब मैं केवल तीन महीनेका शिशु था, तभी उठ गया था। प्रश्न-उस समय घरमें कौन-कौन थे ? उत्तर-मेरी माँ, मेरे बड़े भाई छतारेलालजी एवं एकमात्र बहिन थी। प्रश्न-घरमें फिर कमाने वाला कौन बचा? .. उत्तर-घरमें कोई कमानेवाला नहीं था। मेरी माँने ही जैसे-तैसे (छोटो दुकान) करके मुझे, बड़े भाई व बड़ी बहनको पाला-पोषा। प्रश्न-सुना है आपकी माँ भी आपको बाल्यावस्थामें ही छोडकर स्वर्ग सिधार गईं ? ... उत्तर--पंडितजीको अपने बाल्यकालकी याद आ गई और बड़े दुःखके साथ कहने लगे कि जब मैं केवल ११ वर्षका था, तभी माँ गुजर गई। यही नहीं, माँके चार दिन पहले ही बड़ा भाई गुजर गया। बहनकी पहले ही शादी हो चुकी थी। डॉ० साहब, मेरा बाल्यकाल बड़ा संकटग्रस्त रहा। पहले तो घरमें कोई कमाने वाला था ही नहीं, लेकिन माँ एवं बड़े भाईके मरनेके पश्चात मैं एकदम अनाथ हो गया। प्रश्न-उस समय आप स्कूल तो जाते ही होंगे ? उत्तर-वहाँ स्कूल जाता था। चौथी कक्षा पास करके स्कूल जाना छोड़ दिया। गाँवमें चार कक्षा तक ही स्कूल था। बाहर जाकर पढ़नेका तो प्रश्न ही नहीं था। प्रश्न-माँके मरनेके पश्चात आपका जीवन कैसे गुजरा? २-३ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ उत्तर-डॉ० साहब, जीवनका क्या गुजरना था, पहले डेढ़ वर्ष तक मामाके यहाँ रहा और फिर सागर चला गया। प्रश्न-आप वाराणसी ऐसी अवस्थामें कैसे चले गये ? उत्तर--सागरमें एक दिन बड़े पण्डितजी गणेशप्रसादजी वर्णीके दर्शन हो गये । उस सयय मैं कोई १४ वर्षका होऊँगा। पता नहीं, क्या देखकर वे मुझे अपने साथ वाराणसी ले गये और वहीं स्याहाद महाविद्यालयमें भर्ती करा दिया । प्रश्न-बनारसमें कितने वर्ष तक पढ़ते रहे ? उत्तर-वर्णीजीके कहनेसे मुझे प्रवेशिकामें भर्ती कर लिया। वाराणसीमें ११ वर्ष तक अध्ययन किया। व्याकरणाचार्य वहीसे पास किया। हमारे जमानेमें धर्मशास्त्रका कोई विशेष महत्त्व नहीं था । पं० कैलाशचन्द्रजी, ५० फूलचन्द्रजी हमसे सीनियर थे और वे ही हमें कभी-कभी धर्मशास्त्र पढ़ा दिया करते थे। प्रश्न--विद्यालयकी कोई घटना याद हो, तो बतलाइये ? उत्तर--एक दिन पं० फुलचन्द्रजीका झगड़ा किसी छात्रसे हो गया। अपने साथ अभद्र व्यवहारको देखकर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। उस समय मैं बीना आया हुआ था। जब मैं वापिस वाराणसी गया तो मैंने फूलचन्द्रजीसे त्यागपत्र नहीं देनेके लिये कहा। मेरी और फलचन्द्रजीसे घनिष्ठता थी । जब कैलाशचन्द्रजी कक्षामें पढ़ाने आये, तो हमने उनका विरोध किया और फूलचन्द्रजीका पक्ष लिया। प्रश्न-आपके अध्ययनकालमें विद्यालय कैसे चलता था ? उत्तर-हमारे जमानेमें विद्यालयमें करीब ४० छात्र थे, जो विभिन्न कक्षाओंमें पढ़ते थे। सभी बोडिंगमें रहते थे तथा विद्यालयका अच्छा वातावर ग था और उसकी प्रतिष्ठा भी काफी अच्छी थी। उस समय श्री सुमतिचन्द्रजी विद्यालयके मंत्री थे। वे संस्थाकी अच्छी तरह देख-भाल करते थे। सभी छात्रोंमें सामंजस्य था। प्रश्न-आपने खानिया तत्त्वचर्चामें क्यों भाग लिया? उत्तर-पं० फूलचन्द्रजी शास्त्रीकी 'जैन तत्त्वमीमांसा' पुस्तककी समाजमें बड़ी चर्चा रहती थी। उसका हमने बीनामें आठ दिनतक वाचन भी कराया। वाचनामें 40 कैलाशचन्द्रजी. ६० जगमोहनलालज पं० लालबहादुरजीने तथा मैंने भाग लिया। विद्वतपरिषदको कार्यकारिणीकी मीटिंग भी वहाँ थी। विद्वत् परिषद्की ओरसे पुस्तकपर विचार करनेके लिये एक सम्मेलन बुलाया था । अन्तमें वाचनामें पं० फूलचन्द्रजी के प्रयासको तो सराहना की गयी । किन्तु उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तोंका विरोध भी किया गया । प्रश्न-मैंने सुना है कि आपने 'जैन तत्त्वमीमांसाकी मीमांसा' भी लिखी थो? उत्तर-आप जो कह रहे हैं वह सही है । मैंने बीना-वाचनाके पश्चात् 'जैन तत्त्वमीमांसाकी मीमांसा' पुस्तक लिखी थी, जिसकी बादमें काफी चर्चा रही। प्रश्न-'जयपुर (खानियाँ) तत्त्वचर्चा' के इतिहासके बारेमें भी कुछ प्रकाश डालें ? उत्तर-डा० साहब, यह एक लम्बी कहानी है। खानियाँ तत्त्वचर्चा अक्टूबर सन् १९६३ में हुई थी। इसके पूर्व मैंने कितने ही लेख लिखे थे, जिनमें जैन तत्त्वमीमांसाकी आलोचना की गई थी। मेरे प्रायः सभी लेख 'जैन गजट' में प्रकाशित हुये थे। लेकिन कुछ समय बाद जैन गजटने लेख प्रकाशित करना बन्द , Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर दिया। तब मैंने पं० फूलचन्द्रजीको एक स्थानपर बैठकर तत्त्वचर्चाकी योजना बनानेके लिये बीनामें बुलाया और वे आ भी गये। हम दोनोंने मिलकर तत्त्वचर्चाको योजना बनाई, जिसे अखबारों में प्रकाशन के लिये भेज दिया गया । २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व १९ ૨૪ प्रश्न-तत्वचर्चा के लिये आपने जयपुर ही क्यों चुना ? उत्तर - पहले तो मैंने पं० फूलचन्द्रजीसे कहा कि तस्वचर्चा आप जहाँ अपना गढ़ समझे वहीं चर्चा को जा सकती है। लेकिन जब देखा कि जयपुर (खानियां) में आचार्य शिवसागरजी महाराजका चातुर्मास हो रहा है तो वही स्थान उपयुक्त समझा गया । सेठ हीरालालजी पाटनी निवाईवाले तत्त्वचर्चा-आयोजनका पूरा व्यय उठाने को तैयार हो गये तथा ब० लाडमलजीने सभी विद्वानोंको हमसे बिना पूछे ही निमंत्रण भेज दिये। इसके पश्चात् पहले तो तस्वचर्चा में पं० फूलचन्द्रजीने आनेसे मना कर दिया। इसलिये विद्वानोंको भी आनेसे मना कर दिया गया। लेकिन जब वे अक्टूबर में जयपुर पहुँच गये तो विद्वानोंको पुनः तार देकर बुलाया गया। हम भी वहाँ पहुँच गये। हम लोगकि पहुँचनेके पूर्व ही तत्वचचक नियम भी तय कर लिये गये थे । प्रश्न-तत्वचर्चाका प्रमुख मुद्दा क्या था ? उत्तर -- सोनगढ़ विचारधारासे हम लोग सहमत नहीं थे, इसलिये उनकी विचारधारा ही तत्त्वचर्चा का मुख्य मुद्दा बन गया । यह चर्चा कई दिन तक चली । प्रश्न- जरा, इसपर विस्तारसे प्रकाश डालिये ? उत्तर--तस्वचचके तीन दौर चले। हमने शंका रखी, जिसका दूसरे पक्षने जवाब दिया। उस उत्तर पर फिर हमने शंका प्रस्तुत की, उसका भी उत्तरपक्षने तत्काल उत्तर दे दिया । फिर चर्चाका तीसरा दौर चला और उसकी वही स्थिति रही। लेकिन किसी विद्वानको संतुष्टि नहीं हुई, क्योंकि चर्चा चलते कोई १० दिन हो गये और इसलिये सभी थक से गये। इसके बाद हम सब विद्वान् दिल्ली चले गये और वहाँ भी सोनगढ़ पक्षके उत्तरको हमने समोक्षा को जिसका उत्तर भी मिला। इसके बाद तो चर्चा ही बन्द हो गई। फिर सोनगढ़की ओरसे वानिया तत्वचर्चाका प्रकाशन किया गया, जिसको दोनों पक्षोंको ओरसे 1 छापना था । प्रश्न- मैंने तो उस समय सुना था कि सानिया तत्त्वचर्चा में आपका पक्ष हार गया ? उत्तर - यह तो सोनगढ़ पक्षकी ओरसे फैलाई गई निराधार एवं भ्रामक अफवाह थी सोनगढ़पक्षने तो कभी कोई प्रश्न नहीं दिया, लेकिन अब प्रश्न व नहीं मानता । रखा। ऐसी कोई सोनगढ़ पक्षकी शंका नहीं थी, जिसका हमने उत्तर नहीं उत्तरसे अथवा तत्त्वचर्चासे क्या फायदा ? चर्चा में कभी कोई पक्ष अपनी हार प्रश्न- इसके पश्चात् आपने सोनगढ़-विचारधाराका प्रभाव कम करनेके लिये और क्या किया ? उत्तर- मैने सोनगढ़को विचारधाराको गलत सिद्ध करनेके लिये बहुत-सी पुस्तकें लिखीं। इनमें (१) खानिया तत्त्वचर्चाको समीक्षा और उसमें सहायक (२) जैन तत्त्वमीमांसाकी मीमांसा, (३) जैनदर्शनमें कार्यकारणभाव और कारक व्यवस्था तथा (४) जैन शासनमें निश्चय और व्यवहार नय ( ५ ) ' पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी' के नाम उल्लेखनीय हैं। इन पुस्तकोंके अतिरिक्त कितने ही लेख लिखे और वर्तमानमें भी लिखनेके प्रयत्नमें हूँ। समाजसे Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ जब आशाके अनुसार आर्थिक सहयोग नहीं मिला,तो २००००/-रु० का १९७४-७५ में एक पारमार्थिकट्रस्ट स्थापित किया, जिसके द्वारा 'जयपुर (खानियाँ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा एवं जैन शासनमें निश्चय और व्यवहार नय' पुस्तकें प्रकाशित की जा चुकी हैं। लेकिन उक्त साहित्यकी उचितरूपमें बिक्री न होनेके कारण आर्थिक कमी अभी बनी हुई है। प्रश्न-वर्तमानमें सोनगढके प्रभावके बारेमें आपके क्या विचार है ? उत्तर-वर्तमान में तो अधिकांश व्यक्ति सोनगढ़का नाम लेनेसे भी कतराते हैं। सोनगढ़ी होना अच्छा नहीं माना जाता है। इसलिये मेरी दृष्टिसे समाजमें सोनगढ़के प्रभावमें कमी तो अवश्य आई है, पर यह नहीं कहा जा सकता कि उस कमीका मुख्य कारण क्या है। मेरे साहित्यका जितना एवं जैसा प्रचार होना चाहिये था वैसा नहीं हो रहा है। प्रश्न-वर्तमानमें जैन समाजकी स्थितिके बारे में आपके क्या विचार हैं ? उत्तर-जैन समाज अभी तक द्रव्यानुयोग, करणानुयोग और चरणानुयोगके महत्त्वको नहीं समझ पा रहा है इसलिये जो सामाजिक वातावरण बना हुआ है वह धार्मिक दृष्टिसे और व्यावहारिक दृष्टिसे अच्छा नहीं है। प्रश्न-युवकोंमें धार्मिक जागृतिके सम्बन्धमें क्या आप कुछ कहना चाहेंगे ? उत्तर-संस्कृतिक महत्वको जबतक हमारे युवकगण नहीं समझेंगे तबतक युवकोंमें धर्मके प्रति रूचि जागृत होना कठिन है। जब पूरा समाज ही धर्मके प्रति जागरूक नहीं है तब युवकोंसे क्या आशा की जा सकती है। प्रश्न-आजकल समाजमें जो विस्फोटक स्थिति बन गई है उसके निराकरणके क्या उपाय है ? उत्तर-विस्फोटक स्थिति होना कोई नई बात नहीं है। समाजमें तो ऐसी स्थिति बनती ही रही है। ऐसा कौन-सा युग था, जिसमें पूरे समाजमें शान्ति रही हो। इसलिये यह तो ऐसा ही चलता रहेगा, इससे चिन्तित होने जैसी कोई बात नहीं है। समय काफी हो गया था तथा पण्डितजी साहब भी कुछ थक-से गये थे, इसलिये आगे मैंने प्रश्न पूछना उचित नहीं समझा। लेकिन पण्डितजीकी हाजिर जबाबी तथा स्मरणशक्तिको देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हई । पण्डितजीका व्यक्तित्व एवं लोकप्रियता जैन समाजमें कैसी है, क्योंकि विद्वानका अपने घरमें कम सत्कार होता है और वह बाहर अधिक सम्मान पाता है। इसलिये मैं बीना समाजके वृद्ध एवं क्रान्तिकारी व्यक्तियों के भी पण्डितजीके प्रति विचार जाननेके लिये उनसे मिलने चल दिया । डॉ० कोठिया साहब एवं डॉ० भागन्दु जी भी मेरे साथ हो लिये । और मुझे समाजसे मिलानेमें अत्यधिक सहृदयता दिखलाई । पंडितजीके प्रति बीना समाजके प्रमुख व्यक्तियोंके उद्गार सर्वप्रथम हमलोग शाह अमृतलालजी जैनसे मिले। शाह किरानाके व्यापारी हैं तथा आपको दुकान पण्डितजीकी दुकानके पास ही है। उनकी आयु ६८ वर्षकी होगी। आपके विचार काफी विस्तृत हैं इसलिये उन्हें अलगसे प्रस्तुत ग्रन्थमें दिया गया है । वैसे शाह साहब पण्डितजीके प्रति पूर्ण श्रद्धा रखते हैं और पण्डित जीके स्वभाव, व्यवहार, पांडित्य एवं सामाजिकताके बड़े प्रशंसक हैं तथा पण्डितजी जैसे विशाल व्यक्तित्वको बीना नगर सहित समस्त मध्यप्रदेसकी धरोहर मानते हैं । . Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २/व्यक्तित्व तथा कृतित्व : २१ श्री नन्हेलाल बुखारिया इसके पश्चात हमलोग श्री नन्हेलालजी बुखारियाके पास पहुँचे । बुखारियाजी पंडितजीसे आयुमें बड़े है। उनकी आय ८७ वर्षकी है। अभी भी शरीरमें कडकपन है। लेकिन ज्यादातर वे घरमें ही रहते हैं। बुखारियाजी वर्षों तक समाज के अध्यक्ष रहे हैं। उनकी पत्नी श्रीमती रतनीबाई ८४ वर्षकी होंगी। जब मैंने अपने आनेका कारण बताया तो कहने लगे पण्डित बंशीधरजीके बारेमें क्या कहना है ? उनका स्वभाव तो बड़ा मधुर है। सबसे मिलते-जुलते रहते हैं। विद्वान है। पर कभी-कभी वे अपनी बातपर अड़ जाते हैं और फिर अपनी ही बातको रखने का प्रयास करते हैं । प्रश्न-क्या आप बता सकेंगे कि उनके प्रति समाजमें कैसी धारणा है ? उत्तर-पण्डितजी २१ वर्षों तक बीना-समाजमें सब कार्यों में आगे रहे । वे अच्छे राजनीतिज्ञ भी रहे हैं, स्वतन्त्रता सेनानी हैं । इसलिये उनके बारे में मैं क्या कह सकता हूँ? प्रश्न-मैंने बातको आगे बढ़ाते हुये जानना चाहा कि उनके जमानेमें संस्थायें कैसी चलती थीं और आजकल कैसे चलती हैं? क्या इनमें आपको कुछ उतार-चढ़ाव दिखाई देता है ? उत्तर--वे अपने पलंगपर ही लेटे हुये कहने लगे कि विद्यालय तीन आधारपर चलते हैं--संचालक अध्यापक एवं विद्यार्थी । संस्थायें तो पण्डितजीके पूर्व भी चलती थीं। लेकिन पण्डितजी द्वारा संभालनेके पश्चात् सभीने आशातीत उन्नति की है। और जब उन्होंने उन्हें छोड़ दिया तो उनमें फिरसे शिथिलता आ गई। इसोसे आप उनके व्यक्तित्वको पहिचान सकते हैं। पण्डितजीका बीना समाजमें कोई विरोधी नहीं है, क्योंकि वे सबको साथ लेकर चलते हैं। प्रश्न--मैंने सुना है कि आप भी स्वतन्त्रता सेनानी रहे थे ? उत्तर--इस प्रश्नपर वे मुस्कराने लगे। वे कहने लगे कि मैं और पण्डितजी दोनों ही जेल गये थे । सागर जेलमें हमदोनों साथ रहे । सागरसे उन्हें दूसरी जेल में भेज दिया गया और मुझे सागर ही रखा गया । मैं सी क्लास में था और पण्डितजी बी क्लासमें थे। वे आगे कहने लगे कि आजकल समाजका वातावरण बहुत खराब है। यहाँको संस्थाओंको एक-डेढ़ लाखकी इनकम है लेकिन झगड़ेकी जड़ भी वही है। इतनी इनकममें तो बहुत अच्छा विद्यालय चल सकता है । लेकिन उधर कोई ध्यान नहीं देता। उन्होंने अपनी बातको जारी रखते हुये कहा कि वर्तमानमें निश्चय और व्यवहारका झगड़ा चल रहा है । पण्डितजी व्यवहारके पोषक हैं तथा उसका वे पूरा समर्थन करते हैं। हम पण्डित फूलचन्द्रजीकी पुस्तक "जैन तत्त्वमीमांसा" पढ़ते रहते हैं, लेकिन दोनों ही एकांगो लिखते हैं । पण्डितजी तो बहुत बड़े विद्वान हैं लेकिन हम तो बहुत कम पढ़े लिखे हैं । इसलिये इस सम्बन्ध में कह भी क्या सकते हैं। इतना कहने के पश्चात् वे चुप हो गये और हम उनसे क्षमा याचना करते हुये उठकर चले आये । सिंघई आनन्दकुमारजी इसके पश्चात् श्री सिंघई आनन्दकुमारजी जैनसे घरपर जाकर भेंट की । सिंघईजी बीना निवासी हैं। व्यापारी हैं तथा ७६ वर्ष पार कर चुके हैं। सर्वप्रथम डॉ० कोठियाजीने मेरा एवं डॉ० भागेन्दुजीका परिचय कराया। मैंने सर्वप्रथम अपने आनेका कारण बतलाया तथा पण्डितजीके अभिनन्दन-ग्रंथकी चर्चा की तो वे स्वतः ही कहने लगे कि पण्डितजीसे मेरा सन १९२८से परिचय है। उनकी यहीं शादी हई थो। पासके Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशोषर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ मकानकी ओर संकेत करते हुये कहा कि पण्डितजोको इसो मकानमें शादी हुई थी । उस समय मेरी आयु १४ वर्षकी थी। उनका विवाह बहुत ही सादे ढंगसे हुआ था । प्रश्न-पण्डितजीका यहाँ आना कैसा रहा ? उत्तर--पण्डितजीके यहाँ आनेसे समाज में बड़ो चेतना जागी। उन्होंने पूरे दिगम्बर जैन समाजको संभाला तथा संस्थाओंके संचालनमें योग दिया तथा समाजको एक सूत्रमें रखा तथा जहाँ तक हो सकता था समाजको सुधारकी दिशामें मोड़ने में सफल रहे। प्रश्न--क्या आप पण्डितजीके विचारोंसे सहमत रहे है ? उत्तर-पण्डितजीका तो सेवाभावी जीवन रहा है। उन्होंने वेतनके नामसे समाजसे अथवा किसी संस्थासे एक पैसा भी नहीं लिया। यही नहीं, कभी मानपत्र भी स्वीकार नहीं किया। उनका जीवन पूर्ण निस्पही जीवन रहा है। उन्होंने सदैव समाजको एवं युवकोंको अच्छे मार्गपर लगाया। मैं जब म्यूनिसिफल चैयरमैन था, तो पण्डितजीको चुनावमें खड़ा होनेके लिये बहुत कहा गया, लेकिन उन्होंने उसे कभी स्वीकार नहीं किया। वे कहने लगे कि बीनामें जब कभी मुनियोंका विहार होता है, पण्डितजी मुनिसंघकी बहुत सेवा करते है, उनको स्वाध्याय कराते हैं । अभी मुनि श्री सुधासागरजी महाराज आये थे, तो पंडितजीने एक महीने तक समयसारकी वाचना की । निश्चय-व्यवहार, उपादान-निमित्त आदिके झगड़ोंमें बीना समाजने सदैव पंडितजीका साथ दिया है। अभी समयसारको वाचनामें कितने ही विद्वानोंको भी आमंत्रित किया गया था। पण्डितजीने उनकी सुन्दर व्यवस्था करके बीना निवासियोंका हदय जीत लिया। प्रश्न-पंडितजीकी और क्या विशेषता है, एक-दो गिनाइये ? उत्तर-हमारे सागर-मंडलके सभी राज्याधिकारी पंडितजीकी ईमानदारी, निस्वार्थ सेवा एवं सच्चाईसे प्रभावित हैं । कचहरीमें पंडितजीने जो कुछ कह दिया उसीको सही माना जाता है । यह, क्या पंडितजीकी कम विशेषता है ? इतना कहकर वे चप हो गये और हमने भो हाथ जोड़कर उनसे विदा मांग ली। पंडित भैयालालजी शास्त्री इसके पश्चात् मुझे ५० भैयालालजी शास्त्री बीना निवासीसे भेंट करनेका अवसर मिला । पं० भैयालालजी शास्त्री पं० बंशीधरजीके घरपर ही आ गये थे । आप दोनों एक ही उम्रके हैं। बहुत सक्रिय हैं। मैं जब बीना गया तो वहाँ समाजके चुनावोंकी चर्चा थी। पं भैयालालजी शास्त्री चुनावमें तो जीत गये, लेकिन उनकी पार्टी बहुमतमें नहीं आ सकी । जब मुझे बताया गया कि ये पं० फूलचन्द्रजीके छोटे भाई हैं तो मुझे उनसे मिलनेमें और भी प्रसन्नता हुई । लेकिन विचारोंमें दोनों भाई अलग-अलग है । एक व्यवहारका पूर्ण समर्थन करते हैं तो दूसरे पं० फूलचन्द्रजी निश्चयका पक्ष करते हैं । जब मैंने पं० भैयालालजी शास्त्रोसे पं बंशीधरजीके बारेमें कुछ विचार प्रकट करनेके लिये कहा तो वे कहने लगे कि हम तो ६२ वर्षसे पंजीके सम्पर्क में हैं। हमारा तो उनको पूर्ण सहयोग रहता है। हम दोनोंमें सोनगढ़को लेकर खूब चर्चायें होती रहती हैं । बड़ा आनन्द आता है चर्चा करने में । पंडितजीका बहुत ऊँचा ज्ञान है, इसलिये वे प्रत्येक बातको स्पष्ट रखते हैं। प्रश्न--पंडितजी वस्त्रव्यवसायी कैसे बन गये? उत्तर--पंडितजीका प्रारम्भसे व्यापारकी ओर ध्यान रहा । उन्होंने अपने श्वसुरसे लोन लेकर वस्त्रव्यवसाय करना प्रारम्भ किया। और उसमें पूर्ण सफलता प्राप्त की। उनकी सच्चाई एवं ग्रापकोंके साथ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : २३ अच्छा बर्ताव ही उनकी सफलताका मूल कारण है। चाहे कैसा हो ग्राहक आ जावे वे एक भाव बोलते हैं और उसे कभी कम नहीं करते हैं, इसलिये ग्राहकोंका आपको दुकानके प्रति विश्वास जम गया और वे उनके यहां खूब आने लगे। ठाकुर हरनाथसिंहजी __ हमारी बातचीतके बीचमें वहाँ ठाकुर हरनाथसिंहजी आ गये, जो रेल्वे सविसमें हैं और ५३ वर्षकी आयके हैं। मूल निवासी माँझ ग्रामके हैं, जो रायबरेली जिलेमें है। ठाकुर साहब पंडितजीके पक्के ग्राहक कैसे बने, उसे अपनी बीती बात कहकर बतलाने लगे। मैं बीना स्टेशनपर झांसी स्टेशनसे तबादला होकर बीना आया। कुछ दिनों बाद मैं बीना ग्राममें कुछ कपड़े खरीदनेके लिये आया। तीन-चार दुकानोंपर कपड़ा देखा, लेकिन पसन्द नहीं आया तथा भाव भी तेज लगा। अन्तमें मैं घूमता-घूमता पंडितजीकी दुकानपर आया। वहां साडी देखी। पसन्द आ गई । पंडितजीने साडीके १४.२५ बोले। हमने उन्हें १४ रुपये देनेके लिये कहा। लेकिन पण्डितजीने चार आना कम करके देने में मना कर दिया। फिर मैं दुसरे दिन आया । और चार आना कमपर साड़ी देनेके लिये कहा। लेकिन पण्डितजीने फिर मनाकर दिया। फिर हम तीसरे दिन आये, यह सोचकर कि अब तो साड़ीको १४.२५ रुपयेमें ही ले लेंगे। लेकिन दुकानपर जब आये तब मालूम पड़ा कि साड़ी बिक चुकी है। लेकिन दुकानके एक व्यक्ति हरप्रसादजीने कहा कि तुम्हारे बापने भी साडी खरीदी है। आखिर मुझे पण्डितजीकी ईमानदारीपर विश्वास हो गया और उस समयके बाद पंडितजी की दुकानसे ही कपड़ा खरीदने लगा। वैसे पण्डितजोकी ईमानदारी एवं एकभाव सारे नगरमें चर्चाका विषय रहते हैं। ठाकुर साहबने पण्डितजीकी उदारताकी एक और घटना सुनाई। उन्होंने कहा कि मेरी लड़कीकी शादीमें पण्डितजीने मुझे उधार पैसे देकर उस समय मदद दी, कि जब मैं चारों ओरसे निराश हो चुका था तथा जहाँ कहींसे पैसा आने थे वहाँसे नहीं आये। मैं पण्डितजीके पास प्रातःकाल पहुँचा। स्नान भी नहीं किया था। पण्डितजीको मनकी बात कहने में डर-सा लग रहा था। लेकिन जब अपनी बात कहनी ही पड़ी तो पण्डितजी मेरी पूरी सहायता की और अपने घर खाना भी खिलाया तबसे आजतक हम तो पण्डितजीकी दुकानके पक्के ग्राहक बन गये हैं। इसके पश्चात् मैंने पण्डित भैयालाल शास्त्रीसे पण्डितजीके बारेमें कुछ और बतानेका अनुरोध किया तो उन्होंने कहा कि पण्डितजी जब विद्वत् परिषद्के अध्यक्ष थे, तब मुझे उनके साथ दो-तीन स्थानोंपर जानेका अवसर मिला । उनका मुझे पूर्ण वात्सल्य एवं सहयोग मिला। उन्होंने आगे कहा कि सैद्धान्तिक चर्चा करनेमें पण्डितजीकी बहुत रुचि रहती है। उनका इस संबंधमें अगाध ज्ञान है और वे अपने ज्ञानको चारों ओर बिखेरना चाहते हैं । बीनामें और भी बहुतसे वृद्ध एवं युवा समाजसेवी हैं जो पण्डितजीके पूरे प्रशंसक एवं शिष्य के रूपमें है । लेकिन समय कम होनेसे उनसे भेंट नहीं कर सका। पण्डितजीका विशाल व्यक्तित्व सदा आगे बढ़ता रहे तथा वे समाजकी अपने सैद्धान्तिक ज्ञानसे इसी तरह सेवा करते रहें। इसी भावनाके साथ मैं भी उनके प्रति अपनी श्रद्धा एवं सम्मान व्यक्त करता है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरईके प्राचीन जिनमन्दिरका वेदिका लेख : एक दस्तावेज • डॉ० दरबारीलाल कोठिया , बीना सोरईके एक प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिरकी वेदिकाके नीचे पाषाण-पट्टीपर जो लेख खुदा हुआ है उससे इस ग्रामको प्राचीनता, सम्पन्नता और जनबहुलतापर अच्छा प्रकाश पड़ता है। यह मंदिर कैसे बना और कैसे उजड़ा, इसका तो इस लेखमें कोई संकेत नहीं मिलता। किन्तु वृद्ध-परम्परासे सुना जाता है कि मन्दिरके निर्माता सिंघई मोहनदास राजाके वित्ताधिकारी जैसे किसी उच्च पदपर प्रतिष्ठित थे और राजाके अत्यन्त प्रिय थे । वह उनपर बहुत प्रसन्न था। राजाने उनसे आग्रह किका कि आप जिन भगवानको भक्तिके लिए किलेसे सटा हुआ अपना जिनमन्दिर बनवा लें। सिंघई मोहनदासने राजाके प्रेम और आज्ञासे दिगम्बर जैन मंदिर बनवा लिया और विधिवत् उसकी प्रतिष्ठा भी हो गई। कुछ लोगोंने इसके विरुद्ध राजाके कान भर दिये और राजाने कुपित होकर मन्दिरजीसे श्रीजी हटवा दिए। कितने वर्षों तक इस मन्दिरमें श्रीजी विराजमान रहे, कहा नहीं जा सकता । लेखमें इतना ही उल्लेख है कि विक्रम संवत् १८६४ में इसकी प्रतिष्ठा हई और मन्दिरकी नींव वि०सं० १८६२ में रखी गयी। दो वर्ष इस मन्दिरके निर्माणमें लगे । बादको इसमें प्राईमरी स्कूल लगने लगा। . इसमें प्राईमरी स्कूल कबसे लगा, यह जानकारी शासनके कागजातोंसे प्राप्त हो सकती है। पर अनुमानसे संप्रति इतना कहा जा सकता है कि १८२ वर्ष पूर्व बने इस मंदिरमें, कुछ वर्ष खाली पड़ा रहनेपर, १५० से १७५ वर्षों तक स्कूल लगता रहा है। व्याकरणाचार्य श्रद्धेय पं० बंशीधरजी (८४) उनके पिताजी और पितामहने इसी स्कूलमें पढ़ा है । हमने भी इसीमें सत्तर वर्ष पूर्व अध्ययन किया था। इस लेखमें कई तथ्य महत्त्वपूर्ण उपलब्ध होते हैं । उनमें कुछ निम्न प्रकार हैं१. यह मन्दिर माघ वदी १३, वि०सं० १८६४ में प्रतिष्ठित हुआ था। २. इसकी नींव अषाढ़ सुदी ७ बुधवार, वि०सं० १८६२ में रखी गयी थी। ३. मूल संघ, बलात्कारगण, सरस्वतीगच्छ और कुन्दकुन्दाचार्याम्नायमें जिनागमके उपदेशानुसार इस मन्दिरकी प्रतिष्ठा हुई थी। ४. इसके प्रतिष्ठाकारक थे वैश्यवर्ण, वंश इक्ष्वाकु, गोत्र पद्मावती, [जाति] गोलापूर्व, बैंक चन्देरिया, श्री साहू किसोरी, उनके पुत्र (प्रथम) कूते सिंघई, दूसरे पुत्र अजब सिंघई, कूते सिंघईके दो पुत्र, (प्रथम) श्री साहू इन्द्रमन, उसकी पत्नी मौनदे, उसका प्रथम पुत्र सिंघई धनसींघ, उसकी पत्नी दीपा, उसका पुत्र धोकल, और द्वितीय पुत्र सिंघई कुवंरमन, उसकी पत्नी पजो, उसके दो पुत्र, प्रथम मनराखन, द्वितीय करनजू । कृते सिंघईकी पत्नी सीता, उसके लघु पुत्र (द्वितीय पुत्र) यज्ञ (प्रतिष्ठा) कर्त्ता (कारक) श्री सिंघई मोहनदास, उसकी पत्नी जैको, उनका पुत्र श्री लाला मान्धाता। ये सभी चिरंजीव हों । मन्दिरके निर्माता और प्रतिष्ठाकारक मख्यतया श्री सिंघई मोहनदास थे। ५. लेख में प्रतिष्ठाचार्यका नामोल्लेख नहीं है, जैसा कि आजकल होता है । किन्तु प्रतिष्ठा-कारकके दो हवलदारों (कार्यकर्ताओं-कारन्दाओं), एक श्री राउत हरीसिंघ लोधी ठाकुर, गोत खोरंमपुरिया और द्वितीय हवालदार उदीनन्द साव कड़ोरे पचलोरो दामपंवार, लड़िया लालजू व मोकम व उपसाव धोकलजी, वीजकके लेखक श्री फौजदार ललू कडोरे पिपलासेवारे, वसंत कारीगर जैसोंके नाम अंकित है। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २/व्यक्तित्व तथा कृतित्व : २५ ६. भौगोलिक एवं ऐतिहासिक तथ्य भी इस लेखमें हैं। उस समय सोंरई, जो आज उत्तरप्रदेशके ललितपुर जिलेके अन्तर्गत है, श्री महाराजाधिराज श्री महाराजा राजा मरदनसिंघजू देवकी जागीर थी, जिनकी राजधानी गढ़ाकोटा (सागर, मध्यप्रदेश) थी और उनकी जागीरदारीमें सोरईका प्रशासन ठाकुर श्री महाराजकुमार श्री दिवान दुरजन सिंघजू देव, उनकी ठकुराईन श्री महाराज कुमार श्री दुलैया हंसकुंवरजू देवीके अधीन था। ये तथ्य ऐसे हैं, जो सोंरईको ऐतिहासिकता और सांस्कृतिकताको प्रकट करते हैं । मल लेख और लेखमें उल्लिखित वंशावली दोनों यहाँ दिये जाते हैं । लेख हमें प्रिय भाई पं० दुलीचन्द्र शास्त्री एवं भाई विनीतकुमारने सोरई स्वयं जाकर और खण्डहर पड़ी वेदिकासे लाकर दिया है। मूल वेदिका-लेख संवत् १८६४ वषे नाम माग वदि १३ सुभे ता दिन श्री जिनमंदिर प्रतिष्ठा अस्थापनीयतुं श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुंदकुंदचार्जन्याये श्रीजिनागमउपदेसनीयतु महान जग्य, जागीर श्रीमहाराजाधिराज श्रीमहाराजा श्रीराजा मरदनसिंघजू देव राजधानी गड़ाकोटा तस्य जागीर मधे नग्र सोरईके ठाकुर श्री महाराज कोमार श्री दिवान दुरजनसिंघजूदेव तस्य ठकुराईन श्री महाराजकोमार श्रीदुलेहिया हंसकुंवरजू देव्य तत्र पुर वैहीसवर्न वंस इष्वाक गोत पद्मावती गोलापूरब बैक चंदेरिया श्री साह किसोरी तस्य पुत्र श्री साहू कूतेसिंघ दुतिय सुत अजबसिंघ कूतेसिंघके सुव दोही श्री साहू इद्रन्मन तस्य भार्जा मौनदे तस्य पुत्र क्ष प्रथम सिंघही धनसिंघ भार्जा दीपा पुत्र धोकल दुतिय सुत श्री सिंघही कुंवरमन भार्जा पजो सुत देव (दो) प्रथम मनराखन दुतिय करनजू कूतेसिंघके भाा सोता लघुसुत जग्यकरता श्री सिंघही मोहनदास भार्जा जैको तस्य पुत्र लाला मानधाता चिरंजीवत ताके हवालदार करता श्री राउत हरीसिंघ लोधी ठाकूर गोत षोरंमपुरिय दुतिया हवालदार उदीनंद सावा कडोरे पचतौरो व दाम पंवार गुर लड़िया लालजु वा मौकम वा नुप सावा धोकल बोजकके लिषया श्री फौजदार लल कड़ारो पिपलासेवारे बसंत कारीगर नै श्री जिन मंदिर जू को संवत् १८६२के अषाढ़ सुदि ७ बुधेको नो धरी सुभं । २-४ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ मन्दिरके निर्माता एवं प्रतिष्ठाकारक सिंघई मोहनदासकी वंशावली किलेसे सटे निर्मित स्कूल वाले सोंरईके दि० जैन मन्दिरकी वेदिकाके नीचे पाषाण-पट्टपर उत्कीर्ण लेखानुसार श्री साहू ते सिंघ | श्री साहू इन्द्रमन सिंघई (मौनदे) श्री साहू (सीता) धनसींघ ( दीपा ) T धोकल नोट -- पुरुषोंके नामोंके साथ ( श्री साहू किसोरी I मनराखन श्री साहू मोहनदास प्रतिष्ठाकारक (जैको) | श्री लाला मानधाता सिंघई कुंवरमन (पजो) श्री अजवसिंघई करनजू ) ऐसे कोष्ठकों में दिये गये नाम उनकी पत्नियों के नाम हैं । . Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरई : पूज्य पिताजीकी जन्मभूमि • श्री विनीत कोठिया, बीना सोरई ( ललितपुर ), उत्तरप्रदेशके मड़ावरा-मदनपुर मार्गके बीच बम्हौरी ग्रामसे ३ किलोमीटर दूर स्थित है । इस स्थानका नाम “सोरई" कैसे रखा गया, इसका ज्ञान मुझे नहीं है, लेकिन सुननेमें आया है कि इप स्थानपर स्वर्ण भण्डार है । अतः स्वर्णमयी नगरी होनेसे इसका नाम “सोंरई' रखा गया। इस स्थानकी महत्ता मेरे लिए इसलिए है कि यह मेरे पूज्य पिताजीको जन्मभूमि है। मुझे उस समय अत्यन्त प्रसन्नता हई जब परम आदरणीय पं० दरबारीलालजी कोठियाने मुझे एवं आदरणीय भैयाजी पण्डित दुलीचन्दजी, सोरई वालोंको सोरई जानेका आदेश दिया। तथा उन्होंने हमलोगोंको कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य दिये, जिन्हें हमें सोरई जाकर पूर्ण करना थे। पूज्य पिताजीके “अभिनन्दन-ग्रन्थ'' के लिए उनकी जन्मभूमिके सन्दर्भ सामग्री जुटानेका काम हमें सौंपा गया था। हमें कुछ जानकारी एकत्रित करनी थी जैसे कि इस समय वहाँकी स्थिति, वहाँके जैन मन्दिरोंके बारेमें जानकारी तथा उनके फोटोग्राफ इत्यादि । इन सबमें प्रमुख था वहाँके एक प्राचीन जैन मंदिर, उस मंदिरके शिलालेखकी पूरी इवारत तथा उस शिलालेखका एक फोटोग्राफ भी। इस मंदिरजीके बारेमें जानकारी एकत्रित करनेकी आवश्यकता इसलिए भी थी, क्योंकि पूज्य पिताजीने अपनी शिक्षा यहींसे प्रारम्भ की थी। सोरई :यात्रा-विशेष मैं जब आदरणीय भैयाजीके साथ सोरई-ग्रामके लिए रवाना हुआ तो अपने आपमें बहुत प्रसन्न था, क्योंकि पूज्य पिताजीको जन्मभूमिके दर्शन करनेका मुझे सौभाग्य मिल रहा था। इससे पहले मैं वहाँ गया अवश्य था। लेकिन बहुत पहले, समय गुजरने के साथ-साथ वहाँको याद भी धुंधली पड़ चुकी थी। जुलाईका महीना होनेके कारण मौसम हमारे अनुकूल नहीं था, लेकिन हमलोगोंको वहाँकी जानकारी जुटाना है , यह सोचकर हमलोग रवाना हो गये । ___ हमलोगोंने बस द्वारा सोंरईमें प्रवेश किया । आदरणीय भैयाजीने मुझे बताया कि “बहुत पहले ये बसें इत्यादि नहीं चला करती थीं । सभीलोग यहाँसे मड़ावरा तक पैदल जाया करते थे, और वहाँसे अन्यत्र जानेको बस मिलती थीं । कभी-कभी तो ललितपुर तक पैदल जाना पड़ता था। लेकिन आजकल कई साधन मौजूद हैं, सोरईसे बीना, सागर, मड़ावरा और ललितपुरको जोड़ने वाली पक्की सडकें हैं और बसें भी सब जगहको जानेके लिए मिल जाती हैं।" आदरणीय भैयाजी राहमें चलते, मिलनेवाली सभी प्रमुख जगहोंको मौखिक जानकारी हमें देते रहे । उन्होंने अपने जीवनके लगभग ४० वर्ष यहाँ व्यतीत किये थे। तबसे लेकर आजतक शनैः-शनैः वहाँ काफी परिवर्तन हो चुके थे, अतः वे पहलेकी स्थिति और वर्तमान स्थितिका तुलनात्मक वर्णन कर रहे थे। पहले हम लोग घर पहँचे, जहाँ वर्तमानमें आद० भैयाजीके छोटे भाई श्री फलचन्द्रजी रहते हैं। उन्होंने इस घरके बारेमें भी बताया कि किस तरह संघर्षमयी जीवन बिताते हए इस घरका निर्माण कराया गया था। उन्होंने कुछ ऐसे स्थानों के बारेमें भी बताया जहाँ पहले एकदम खुला मैदान था। आज वहाँ मकानोंने अपना डेरा जमा लिया है। उनके कथनानुसार “जहाँ बाजार लगता है वहाँ पहले पर्याप्त जगह थी लेकिन आज मकानोंकी भीड़ने उस स्थानको तंग कर दिया है।" Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ सोरई : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि सफरको थकानके बावजूद हम लोग उसी दिनसे काममें जुट गये । सबसे पहले हम लोग उस प्राचीन जैन मंदिरकी ओर रवाना हुए, जो बादमें स्कूलका रूप ले चुका था। इसी स्कूल में पूज्य पिताजीको शिक्षा आरम्भ हुई थी। जैसे ही हम लोग वहाँ पहुँचे, तो मैंने मंदिरजीको ऐसी स्थिति देखी, जिसकी मुझे कदापि कल्पना नहीं थी। कभी वहाँ मंदिर रहा होगा, लेकिन वर्तमानमें वह जीर्ण-शीर्ण हालतमें एकदम खण्डहर हो चुका था। जगह-जगह उस मंदिरजीकी दीवालोंपर घास उग आई थी। धरातलसे करीब १५ फुट ऊँचे टोलेपर बने उस मंदिरमें जानेका मुझे रास्ता नहीं सूझ रहा था। ऊबड़-खाबड़ रास्तेसे ऊपर चढ़कर जाना पड़ा, तब कहीं हम लोग उस मन्दिरके मुख्य द्वारतक पहुँच सके । जैसे ही मैं मन्दिरके अन्दर प्रवेश हुआ, तो पाया वहाँ एकदम अन्धेरा, केवल मुख्य द्वारसे मद्धिम रोशनी अन्दर प्रवेश कर रही थी, जो हमें अन्दरका रास्ता बतानेके लिए पर्याप्त थी। अन्दर मकड़ियोंने भी अपने जाल फैला लिए थे, "कुछ देरके लिए मैं सोच में पड़ गया ! जहाँ कभी मन्दिर रहा, उसके बाद प्राईमरी स्कूल रहा तब वहाँ अच्छी-खासी चहल-पहल रहती होगी, लेकिन आज एकदम वीरान्""!" मैं पनः वर्तमान स्थितिमें लौट आया और वहाँके मन्दिरजीकी प्रतिष्ठाका शिलालेख खोजने लगा। आदरणीय भैयाजीका साथ था । अतः किसी किस्मकी बाधा उत्पन्न नहीं हुई। मन्दिरजीके फर्शपर मिट्टी आदिका जमाव भी काफी हो गया था, कारण कि मैंने देखा कि मन्दिरका ऊपरी हिस्सा ढहकर नीचे गिर गया था। जैसे ही भैयाजीने वहाँकी वेदिकाके नीचे पाषाणपर उत्कीर्ण "प्रतिष्ठा-लेख" की ओर इशारा किया तो मैंने देखा कि वहाँकी वेदिकापर इस समय कोई पत्थर नहीं था, हाँ। केवल शिलालेखका वह पत्थर वहाँ ज्यों-का-त्यों अवश्य लगा था। समय बीतनेके साथ-साथ धूल, मिट्टी आदि उस शिलालेख एवं वेदिकापर अपना स्थान बनाती रहीं। हम लोगोंने वहाँके स्थानीय व्यक्तियोंको सहायतासे उस शिलालेखको साफ करनेकी असफल कोशिश की। तब भी उसपर खुदे हए अक्षर अस्पष्ट थे, जो पढ़नेमें बिल्कुल नहीं आ रहे थे। अतः हम लोगोंने शिलालेखपर सूखे चुनेका लेप लगाया, जिससे शिलालेखके शब्द उभरकर सामने आ गये, जिन्हें अब आसानीसे पढ़ा जा सकता था। करीब ५ फट लम्बे और आधा फट चौडे इस शिलालेख पर चार पंक्तियोंमें इस मन्दिरजीकी प्रतिष्ठा सम्बन्धी जानकारी अंकित थी। उस शिलालेखको मैं पढ़ता गया और आद० भैयाजीने उसकी इवारत एक कागजपर उतार ली। तत्पश्चात उन्होंने शिलालेख पढ़ा और मैं एक दूसरे कागजपर ज्यों-का-त्यों लिख लिया, ऐसा इसलिए किया ताकि शिलालेखका सार समझने में हम लोगोंको कोई परेशानी न हो। इसके बाद तुरन्त ही मैंने उस शिला. लेखके विभिन्न दिशाओंसे कुछ चित्र कैमरेको मददसे ले लिए। शिलालेखसे ज्ञात हआ कि यह मन्दिर १८२ साल पुराना है। शिलालेख वि० सं० १८६४ में लिखा गया था, लेकिन मन्दिरका निर्माण वि० सं० १८६२ में आरम्भ हो गया था, लगभग दो वर्ष इसे बनाने में लगे । मन्दिरजीसे बाहर आकर मैंने मन्दिरजीके कुछ चित्र लिए। एक खास बात मुझे यह भी देखनेको मिला कि यह मान्दर ठाक ने यह भी देखनेको मिली कि यह मन्दिर ठीक सोरईके किलेसे सटकर बना हुआ है । अतः मैंने उत्सुकतावश मन्दिर एवं किलेका संयुक्त चित्र अपने कैमरेमें कैद कर लिया। यहाँ हम लोगोंका अधिकांश समय व्यतीत हो गया था । समय रहते भैयाजीने मुझे उस मकानके दर्शन कराये, जहाँ पूज्य दादीजी और पूज्य पिताजी रहा करते थे । “पुराने तरीकेका बनाकच्चा मकान, जिसमें सामनेकी तरफ दो दरवाजे थे। एक बड़ा और एक छोटा । बाहरको ओर दरवाजेके पास ही दो आले बने . Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणाचार्य की जन्मभूमि सोंरई के मनोहारी दृश्य सोंरई का भव्य पार्श्वनाथ मंदिर (बड़ा) पण्डितजीने जिस स्कूल में पढ़ा है उसका एक चित्र और जो प्राचीन मंदिर रहा। सरई का प्राचीन किला सोंरई का छोटा दि० जैन मन्दिर सरई का चन्देलकालीन एक प्राचीन जैन मन्दिर, जो अब खण्डहर के रूप में अरक्षित स्थिति में है । पण्डितजीके सोंरईके मकानका एक चित्र Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : २९ हुए थे तथा एक खंटी भी लगी हुई थी। अन्दर एक बड़ा-सा कमरा तथा इसके बाद एकदम खुला आंगन, जिसे दीवालोंने चारों ओरसे घेर रखा था। एक दहलान भी थी तथा पशुओं आदिके लिए पर्याप्त व्यवस्था।" आदरणीय भैयाजीने यहाँके बारे में बताया कि किस प्रकार पूज्य पिताजी उस घरमें रहा करते थे, उन्होंने बताया कि 'वर्तमानमें बिजलीको समुचित व्यवथा है । परन्तु उस समय बिजली नहीं थी, तब पूज्य पिताजी लालटेन के उजालेमे पढ़ाई करते थे।' बाहर निकलकर मैंने उस मकानके कुछ फोटो उतार लिए । इसके बाद हम लोग अपने स्थानपर आ गये । आद० भैयाजी मुझे और भी बहुत-सी जानकारियाँ देते रहे कि किस प्रकार पूज्य पिताजीने अपने जीवन में अभावों और कष्टोंसे संघर्ष किया। दूसरे दिनका काम इतना जटिल नहीं था, क्योंकि इस दिन हम लोगोंको उन सभी जैन मन्दिरोंके बारेमें जानकारी एकत्रित करनी थी, जो वर्तमानमें व्यवस्थित रूपसे विद्यमान हैं। अब मैं सोरईके उन रास्तोंसे गुजर रहा था, जिनपर पूज्य पिताजीने अपना बचपन व्यतीत किया था। मैंने वहाँ बच्चोंको खेलते पाया तो उनके भी कुछ चित्र मैंने ले लिए। जैसे ही हम लोग मन्दिरजीको जाने वाले रास्तेकी ओर मुडे तो मोड़पर ही मैंने एक 'मार्गसूचक पटल' देखा, जिसे पढ़नेपर ज्ञात हुआ कि आदरणीय पं० दरबारीलालजीने इस रास्तेका फर्शीकरण, आदरणीया भाभीजी श्रीमती चमेलीबाई कोठियाकी पुण्य स्मृतिमें, उनके नामसे कराया है । यह रास्ता ठीक एक मंदिरसे होकर दूसरे मंदिरजी तक समाप्त होता है । मैंने उस पटल एवं उस रास्तेका भी चित्र कैमरेमें उतार लिया । इसके बाद हम लोग बड़े जैन मन्दिरजी गये । वहाँके दर्शनोपरान्त कुछ फोटो अन्दरके लिए। सुरई (गर्भगृह) के भीतर वेदिकापर भगवान पार्श्वनाथको एक भव्य एवं बड़ी मूर्तिके नीचे आसनपर एक श्लोक लिखा था । मैंने मूर्ति एवं श्लोक का एक-एक चित्र कैमरेकी सहायतासे ले लिया। तत्पश्चात उस श्लोकको एक कागजपर लिख लिया। बाहर आकर मैंने देखा कि इस मन्दिरजोके ठीक सामने एक जैन धर्मशालाका भी है। उस धर्मशालाका भी एक चित्र मैंने लिया। उस धर्मशालाका मुख्य द्वार बहुत ही कलात्मक बना हुआ था। उसी धर्मशालाकी छतपरसे बड़े मन्दिरजीका एक सुन्दर चित्र मैंने अपने कैमरेमें उतार लिया । इसके बाद हमलोग छोटे मन्दिरके लिये रवाना हो गये। उस मन्दिरका भी एक खूबसूरत चित्र मैंने खींच लिया। दर्शनोपरान्त अन्दरके भी कुछ चित्र ले लिये । सोरईके ये दोनों मन्दिर शिखरबन्द, कलात्मक एवं व्यवस्थित बने हुए हैं। इसके पश्चात् हमलोग वहाँके चौथे मन्दिर जिसे बाजारका मन्दिर कहा जाता है, गये। यह मन्दिर चैत्यालयनुमा बना हुआ है । सामने ही मामा श्री राजकुमारजीका घर है । उन्हींके मकानकी छतसे मैंने एक फोटो उस मन्दिरका भी ले लिया। तत्पश्चात्, वहींसे गाँवके चारों ओर मैंने नजर घुमाई तो देखा चारों ओर हरियाली-ही-हरियाली है । गाँवका यह दृश्य मनभावन लग रहा था । इसके तुरन्त बाद हो हमलोग सोरईके किलेकी ओर रवाना हुए। किलेका भी एक खूबसूरत चित्र खींचकर, मैं किलेके अन्दर प्रविष्ट हो गया तथा वहाँके कुछ बच्चोंकी सहायतासे मैं किलेकी बुर्जपर जा पहँचा। वहाँसे भी गाँवकी सुन्दरता आसमान छू रही थी। इस समय मैं गाँवके सबसे ऊँचे स्थानपर खड़ा था । एकदम खुली-स्वच्छ हवा, चारों ओर हरियालीकी मुस्कान और भरपूर छोटे-बड़े पेड़-पौधे मनको मोह रहे थे। किलेकी बुर्जसे मैंने देखा कि वहीं दोनों जैन मन्दिर, जिनका उल्लेख मैं पीछे कर चुका हूँ, अब एक बिल्कुल नजदीक नजर आ रहे हैं, साथ ही दूर हनुमान जीका मन्दिर, जैन धर्मशाला तथा उसका पूरा आँगन एवं गाँव का अधिकांश हिस्सा भी । यह दृश्य सचमुच अद्भुत था, जिसे मैं कैमरे में उतारे बिना न रह सका। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० : सरस्वती-बरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य इतना काम हो जानेके बाद अब केवल एक जगह शेष रह गयी थी--'सोरईका बगीचा"। इसमें मुख्य था उस बगीचे में स्थित मढ़ (मन्दिर)। शीघ्र ही हमलोग बगीचा पहँच गये । वहाँ जाकर मैंने देखा बगीचेके बीच एक मढ़ बना हआ है, पत्थरोंको तराशकर तथा पत्थरों, खम्बों आदिको एकके ऊपर व्यवस्थित ढंगसे रखकर इस मढ़का निर्माण किया गया है। मैंने उस मढ़का भी एक सुन्दर चित्र खींच लिया । मैंने आभास किया कि वक्त गुजरने के साथ-साथ मढ़ की स्थिति बिगड़ती चली गयी। मैंने मढ़को इस समय एक ओर झका हआ महसूस किया। शायद उसका एक खम्भा तिरछा हो जाने के कारण तथा ऊपर रखा गोल चक्रनुमा हिस्सेके भी टुकड़े हो चुके हैं । फिर भी खूबसूरती लिये हुए सोरइका यह ऐतिहासिक मढ़ (जैन मन्दिर) अभी भी अपने स्थानपर विद्यमान है। सोरई : आसपास हमारा काम लगभग समाप्त हो चुका था। लेकिन उत्सुकतावश मैंने वहाँके स्थानीय व्यक्तियोंसे भी सम्पर्क किया । तरह-तरहकी जानकारी मुझे प्राप्त हुई, जिसे मैं आगे लिख रहा हूँ सोरई ग्रामको यदि ‘खनिजोंका गाँव" कहा जाये, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि यहाँ-- लोहा, ताँबा, सीमेंटका पत्थर, ग्रेफाइट आदि प्रचुर मात्रामें मौजूद है । लोहा यहाँ भारी मात्रामें उपलब्ध है । पराने जमाने में यहाँ लोहेका काम भी बहुत होता था, किन्तु माँगकी कमीके कारण यह काम बादमें बन्द हो गया। ताँबेकी खदानें तो गाँवमें ही स्थित है । प्रयत्न किया जाये तो ताँबेका अच्छा-खासा भण्डार मिलनेकी पूर्ण सम्भावनायें यहाँ नजर आती है। इससे पहले यहाँ खुदाई अवश्य हुई और ताँबा निकाला गया, परन्तु साधनोंकी कमीके कारण पूर्णरूपेण सफलता नहीं मिल पायी। 'फास्फेट" एक महत्त्वपूर्ण पत्थर यहाँ विपुल मात्रामें उपलब्ध है। इसका काम खाद बनानेके रूपमें विशेष होता है । यहाँसे थोड़ी दूर एक स्थानपर, जिसे "टोरी" कहते हैं, फास्फेट निकालनेका काम तेजीके साथ चल रहा है । यहाँपर बाहरके एवं स्थानीय करीब एक हजार मजदूर प्रतिदिन काम कर रहे हैं । फास्फेट पत्थरकी छोटी-छोटी गिट्टी बनाकर ट्रकों द्वारा बाहर भेजनेका क्रम अभी भी जारी है। "यूरेनियम" एक वेशकीमती खनिज, जिसकी प्राप्तिको पूर्ण सम्भावनायें यहाँ व्यक्त की जा रही हैं। इसके लिए विदेशी सहयोगसे उसकी खोज अभी भी जारी है। इसके अलावा सोरईसे लगा हुआ एक घना जङ्गल भी है। इस जङ्गलमें महुआ, गोंद, चिरोंजी एवं कई प्रकारकी अनेक जड़ी-बूटियोंका विशाल भण्डार है। यहाँके आदिवासी (सोर) इन्हींके द्वारा अपना उदरपोषण कर रहे हैं। भारत-सरकार द्वारा निर्मित "रोहणीबाँध" गाँवके बीच निकली रोहणी नदीपर लगभग दो किलोमीटरका नीचेकी ओर बनाया गया है, जिससे सोरईके ग्रामके रहवासियोंको तो कोई फायदा नहीं, लेकिन नीचे रहनेवाले गरीबोंको नहरों द्वारा भरपूर पानी की व्यवस्था उपलब्ध है। सोरईसे पूर्व दिशाकी और अतिशय क्षेत्र गिरार है। वहाँ धसान नदीके किनारे बना हुआ दि० जैनमन्दिर दर्शनीय है। किसी समय यह स्थान काफी उन्नतिशील रहा है। ऐसा सुनने में आया है कि यहाँ बहुत बड़ा बाजार लगता था, जिसमें बाहरी व्यापारी भी अपना व्यापार करने आते थे। अब वहाँ खण्डहर मात्र शेष है । मात्र सुन्दर मन्दिर बना हुआ है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २/व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ३१ सोरईसे पश्चिम दिशाकी ओर मदनपुर तरफ पूज्य श्री गणेशप्रसादजी वर्णीकी जन्मभूमि हंसेरा गाँव है । वहाँ उनके स्मारकके रूपमें एक छतरी-चबूतरा बनवाया गया है । उनकी ही छत्र-छायामें पूज्य पिताजीने ११ वर्ष वाराणसीमें अध्ययन किया था। यहाँसे चलकर आगे अतिशयक्षेत्र मदनपुर है, जहाँ पांडाशाहके बनवाये हुए कई प्राचीन मन्दिर हैं जो इस समय अवशेष मात्र ही दिखायी देते हैं। यहींपर फुसकेले वंशके महानुभावोंके द्वारा बनवायीं पचमढ़ियाँ भी हैं । कुछ वर्ष पहले समाजने वहाँका जीर्णोद्धार किया, अब वहाँ पक्की सड़क, धर्मशाला इत्यादि सहूलियतें मौजूद हैं। ____ इस तरह मैंने अनुभव किया कि ग्राम सोरई अतीतमें एक विश्रुत ग्राम रहा है। और अब उसका भविष्य भी उज्जवल है। इस विकसित होने में अब ज्यादा समय नहीं लगेगा। अन्तमें मैं पूज्य पिताजीके चरणोंमें अपनी और समस्त परिवारकी ओरसे श्रद्धा-सुमन अर्पित करता हूँ। VIR Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोलापूर्वान्वय : एक परिशीलन • डॉ. कस्तूरचन्द्र 'सुमन', एम० ए०, पी-एच० डी०, श्रीमहावीरजी मान्यवर पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री वाराणसीने 'न्यायाचार्य डॉ० दरबारीलाल कोठिया अभिनन्दन-ग्रन्थ' में सन् १९८२ में 'गोलापूर्व अन्वयके आलोकमें' शीर्षक शुभकामना-लेखमें गोलापूर्व अन्वयके विषयमें अनुसन्धानात्मक महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत की है तथा आदरणीय डॉ० कोठियाजीकी ओर लक्ष्य करके लिखा है कि 'कुछ समय पहले श्री डॉ० दरबारीलालजीसे भेंट होनेपर इस दिशामें काम करनेका मैंने संकेत किया था। इस ओर तत्काल उनका ध्यान भले ही न गया हो, यह विषय ऐसा है कि दृष्टि-सम्पन्न कतिपय सेवाभावी बन्धु यदि इस दिशामें प्रयत्नशील हों तो ऐतिहासिक दृष्टिसे अतिउपयोगी एक कमोकी पूर्ति हो सकती है।' उल्लिखित अभिनन्दन-ग्रन्थमें जब मैंने पण्डितजीका उक्त शुभकामना-लेख पढ़ा और कोठियाजीने मझे इस दिशामें कूछ लिखनेकी प्रेरणा की, तो मेरी उक्त विषयमें अध्ययन करनेकी उत्सुकता बढ़ी, मैंने अपनी पी० एच० डी० के लिए मध्यप्रदेशके जैन पुरातत्त्वपर काम किया था, इसलिए भी इस लेखको साहित हआ। अध्ययन करनेपर जो जानकारी एकत्रित कर सका। प्रसंग पाकर उसे यहाँ दे रहा हूँ । इतिहास ऐसा विषय है, जिसमें अनुसन्धानकी अपेक्षा बनी रहती है। गोलापूर्वान्वय : 'गोलापूर्वान्वय' में गोलापूर्व और अन्वय ये दो शब्द हैं । इनमें 'अन्वय' शब्दके अनेक अर्थ हैं । अभिलेखोंमें इस शब्दका बहुत प्रयोग हुआ है । यह शब्द प्रायः दो अर्थोंमें व्यवहृत हुआ है-(१) आचार्य परंपराको दर्शानेके लिए और (२) जैन उपजातियोंके नामोंके निर्देश करनेके लिए । जहाँ आचार्य परम्पराको बताना इष्ट रहा है वहाँ 'अन्वय'का पूर्ववर्ती पद किसी-न-किसी आचार्यके नामसे युक्त मिलता है । यथा-कुन्दकुन्दायन्वय, भद्रान्वय,२ देशनन्दिगुरुवयंवरान्वय' आदि । इनमें क्रमशः आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य भद्र और देशनन्दि गुरुओंके नाम पूर्वपदमें आये हैं । अभिलेखोंमें इसका उपयोग स्वयंको ऐसे अन्वयोंका अनुगामी बताने के लिए किया गया है। अन्वयका दसरा व्यवहार कूल और जातिके लिए हआ है। इस अर्थ में अन्वयका पूर्वपद कोई ऐसा शब्द होता है, जिसका चौरासी जैन उपजातियोंमें किसी-न-किसी जैन उपजातिसे सम्बन्ध रहता है । जैसे अहारके मूर्तिलेखोंमें खडिल्लवालान्वय, जैसवालान्वय, पौरपाटान्वय, गोलाराडान्वय आदि मिलते हैं । यहाँ खन्डेलवाल आदि जैन उपजातियोंके अर्थ में 'अन्वय' शब्द व्यवहृत हुआ है। आचार्य जिनसेनने पिताके अन्वयको शुद्धिको कुल और माताके अन्वयकी शुद्धिको जाति संज्ञा दी है। आचार्य कुन्दकुन्दने भी देश, जाति और कुलको शुद्धिपर बल दिया है और उनसे युक्त आचार्यको नमन किया है ।" उनकी दृष्टि में शुद्धि (गुण) विहीन जाति और कुल बन्ध नहीं है । आचार्य समन्तभद्रने जाति और कुलकी शुद्धिको गौरवका विषय मानते हए भी उनके अभिमानको मदोंमें परिगणित किया है और आठ मदोंमें कुल और जातिके मदोंका भी उल्लेख किया है । इससे यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि कुल और जाति दोनों प्राचीन रहे हैं । भले ही उनमें परिवर्तन होता रहा हो । और ऐसा समयानुसार सम्भव भी है । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ३३ डॉ० अर्गलके अनुसार जाति समान वर्ग के कुटुम्बोंका समूह होती है। इसका अपना निजी नाम होता है । विवाह आदि अपने समूहमें ही होते हैं । इसका उद्भव किसी पौराणिक देवता या पुरुषसे बताया जाता है ।" आचार्य जिससेनने केवल नामकर्मसे उत्पन्न मनुष्यजातिका ही अस्तित्व स्वीकार किया है। उन्होंने आजीविका भेदसे उसके चार भेद बताये हैं । यहाँ यह भी दृष्टव्य है कि आचार्य सोमदेव सूरिने जातियोंकी अनेकताका भी उल्लेख किया है तथा उन्हें अनादि बताया है । १° तात्पर्य यह है कि 'अन्वय' का अर्थ यहाँ जाति या उपजातिपरक विवक्षित है । मूर्तिलेखों में जातिपरक अन्वयोंके उल्लेख : मध्यप्रदेश की प्राचीन प्रतिमाओं, मन्दिरों और शिलाखण्डोंसे उनतीस अन्वयोंके नामोल्लेख प्राप्त हुए हैं । उनकी संख्या निम्न प्रकार है क्र० नाम अन्वय १. गोलाराडान्वय २. चित्रकुटान्वय ३. दुम्बरान्वय ४. देउबालान्वय ५, नेवान्वय ६. परपाटान्वय ७. परवाडान्वय ८. पुरवाडान्वय ९. मइडितवालान्वय १०. मडवालान्वय ११. माधुरान्वय १२. माधुन्वय १३. माधुवान्वय १४. वेमकान्वय १५. श्रीमाल संख्या १ १ १ १ १ १ १ १ १ १९. लमेचुकान्वय १ २०. वैश्यान्वय १ २१. अवधपुरान्वय १ १ १ क्र० १ नाम अन्वय १६. गुर्जरान्वय १७. प्रागवाटान्वय १८. मेडवालान्वय २२. कुटकान्वय २३. पौरपाटान्वय २४. गर्गराटान्वय २५. वर्द्धमानपुरान्वय २६. खण्डेलवालान्वय २७. जैसवालान्वय २८. गृहपत्यन्वय २९. गोला पूर्वान्वय संख्या २ २ २ २ २ ३ ३ ४ ५ इनमें कुछ अन्वयोंके उल्लेख अशुद्ध और पुनरुक्त भी हो सकते हैं । महाकवि आशाधरने भो तीन अन्वयोंका उल्लेख किया है। उनके नाम हैं-पोरवाल, बधेरवाल और खण्डेलवाल | इनमें पोरवालको पुरवाडान्वयसे समोकृत किया जा सकता है । उपजातियों का उद्भव प्राचीन साहित्य और अभिलेखोंमें मध्यकालसे पूर्व उपजातियोंके नाम - निर्देश न मिलनेसे प्रतीत होता है कि इस समय तक चार वर्णोंकी व्यवस्था सुचारुरूपसे चलती रही है । वर्णाश्रित सामाजिक व्यवस्था में कालान्तरमें शिथिलता आई । समाजके आचार-विचार में परिवर्तन हुआ और वह उपजातियोंके उद्भवका कारण बना । १२ २-५ 19 १२ १९ २६ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रग्य __ एक उपजातिमें, उसीमें जनमे और विवाहित सदस्य रह गये । अन्य व्यक्ति उसमें प्रवेश नहीं पा सके। एक उपजातिका आचार-विचार, खान-पान, रीति-रिवाज दूसरी उपजातिसे भिन्न रहने लगा। वैवाहिक क्रियायें अपनी-अपनी उपजातिमें ही सम्पन्न होने लगीं ।१४ जैन उपजातियोंका उद्भव आचार्य जिनसेनके महापुराणमें आजीविकाके भेदसे चार वर्ण बताये गये हैं-१. ब्राह्मण, २. क्षत्रिय, ३. वणिक् (वैश्य) और ४. शूद्र। इनमें वणिक् वर्णका कार्य न्यायपूर्वक धनोपार्जन करना कहा गया है।" मध्यपदेशके दूबकुण्ड स्थानसे प्राप्त संवत् ११४५ के यक प्रशस्तिलेख में ऐसे वणिक्वंशका उल्लेख है, जिसके एक श्रावकको 'श्रेष्ठी' पदसे विभूषित बताया गया है। यहाँ उल्लेखनीय तथ्य यह है कि वह श्रावक जिनेन्द्रका अर्चक और सम्यग्दृष्टि था। वह चारों प्रकारके पात्रोंको दान देता था।६ अहारसे प्राप्त संवत् १२०३ (ई० ११४६) के एक मूर्ति-लेखमें वैश्य अन्वयके श्रावकोंको जिनेन्द्रकी नित्य वन्दना करते हुए बताया गया है।१७ इन उल्लेखोंके आधारसे कहा जा सकता है कि वणिक् या वैश्य एक ही वर्णके श्रावक थे। इनमें एक वर्ग ऐसा था, जिसके श्रावक जिनेन्द्रकी आराधना करते थे। व्यापार इनकी आजीविकाका साधन था। इस वर्गके आचार-विचारमें कालान्तरमें शिथिलताने जन्म लिया, जिससे अपनी विशुद्धि बनाये रखनेके लिए इस वर्गके लोग छोटे-छोटे वर्गों में विभाजित हो गये। इनमें कुछ वर्गोके नाम उनकी निवास-भूमियोंके नामपर रखे गये । जैसे चित्रकूटके जैन वैश्योंने अपने वर्गका नाम 'चित्रकुटान्वय' रखा। इसीप्रकार गुर्जर देशके श्रावकोंने अपने वर्गका नाम 'गुर्जरान्वय', अवधके निवासियोंने 'अवधपुरान्वय', वर्द्धमानपुरके वासियोंने 'वर्द्धमानपुरान्वय', खण्डेलाके निवासियोंने 'खण्डेलवालान्वय' नाम रख लिए। कालान्तरमें ये नाम जैनोंकी उपजातियाँ बन गयीं और ये अपने-अपने वर्गोंमें सीमित हो गयीं। इनके विवाह आदि व्यवहार अपने वर्गमें ही होने लगे । इस प्रकार शनैः शनैः प्रत्येक वर्गके आचार-विचार, खान-पान और रीति-रिवाज भिन्न-भिन्न हो गये। यह कबसे हआ, यह अन्वेषणीय है । पर सबका धर्म एक रहा, जिससे वे एक-दूसरेसे सम्बद्ध रहे। गोलापूर्व : गोलापूर्वान्वय' के उत्तरपद ‘अन्वय' की विवेचना करनेके पश्चात् विवेच्य है पूर्वपद-गोलापूर्व । इसमें भी दो पद हैं-गोला और पूर्व । इनमें 'गोला' कोई स्थान-विशेष रहा है । गोलापूर्वान्वयी जैन मूलतः इसी स्थानके निवासी थे। यह स्थान वर्तमानमें कहाँ है, इस सम्बन्धमें विद्वानोंकी निम्न धारणाएँ हैं-- डॉ जगदीशचन्द्र जैन-आपने इसे दक्षिणमें गुष्टूर जिलेकी गल्लक नदीपर स्थित 'गोलि' स्थानसे समीकृत किया है। अपनी एक अन्य कृतिमें एक 'गोल्ल' देशका उल्लेख करते हुए आपने उसे गोदावरी नदीके आसपासका प्रदेश बतलाया है। यहाँके निवासी काले और कठोर वचनभाषी होते हैं। चैत मासमें भी यहाँ ठंड पड़ती है ।१९ पं० परमानन्द शास्त्री -आपने ‘गोला' स्थानको ‘गोल्लागढ़', वर्तमान गोलाकोटसे समीकृत किया है। उन्होंने गोल्लागढ़की स्थिति खनियाधाना स्टेट (अब मध्यप्रदेश) में निर्देशित की है ।२० . श्री प्रभुलाल पोहरी-आपने वर्द्धमानपुराणमें कहे गये 'गोयलगढ़' को ग्वालियर किलेके अभिलेखोमें उल्लिखित 'गोइलगढ़' से समीकृत किया है और “गोलापूर्वान्वय' का उद्भव ग्वालियरसे बताया है ।२१ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ३५ पं० नाथूराम प्रेमी--आपने एक प्रतिमालेखमें आया 'गोला' नामक स्थान सूरतके निकट स्थित महुआ और रानीतालको माना है और वहाँसे इस अन्वयका उद्भव बतलाया है ।२२ पं० मोहनलाल शास्त्री--आपने ओरछा और छतरपुर दोनों या एकको गोलापूर्वान्वयका उद्भवस्थान बताया है । आपने लिखा है कि 'ओरछा स्टेट (मध्यप्रदेश) में अहार और पपौरा तथा छतरपुर स्टेट (म० प्र०) में छतरपुर और महोबा ऐसे स्थान हैं, जहाँसे गोलापूर्वान्वयके प्रचुर मूर्तिलेख प्राप्त हुए हैं।' ग्वालियर स्टेट (म० प्र०) में इस अन्वयके अभिलेख प्राप्त न होनेसे उन्हें ग्वालियरको उसका उद्भव स्थान मानना इष्ट नहीं है । उनकी दृष्टिमें यह सब क्षेत्र 'गोला' कहा जा सकता है ।२3 __ श्री विद्याधर जोहरापुरकर--आपने अपने 'भट्टारक सम्प्रदाय' ग्रन्थमें 'गोलाराडान्वय' का उल्लेख किया है । पर 'गोलाराड्' कहाँ रहा, इस सम्बन्धमें कुछ नहीं लिखा ।२४ डॉ० दरबारीलाल कोठिया-आपने आहार क्षेत्रके पास स्थित 'गोलपुर' नामक एक ग्रामको 'गोला' से समीकृत किया है, क्योंकि आहार क्षेत्रमें इस अन्वयकी प्रचुर मूर्तियां उपलब्ध हैं ।२५ डॉ० कस्तुरचन्द्र कासठीवाल--आपने अपने ‘खण्डेलवाल जैन समाजका वृहद् इतिहास' (पृ० ५८) में लिखा है कि इस जातिका निवास गोल्लागढ़ (गोलाकोट) की पूर्व दिशामें रहा है। उसकी पूर्व दिशामें रहने वाले गोलापूर्व कहलाये। समीक्षा __डॉ. जगदीशचन्द्र जैनका 'गोला' नामक स्थानको गुन्टूर जिलेके 'गोलि' स्थानसे समीकृत करना अभिलेख आदि साक्ष्योंके अभावमें तर्कसंगत नहीं है और न गोदावरीके आसपासका प्रदेश भी उनके अभावमें 'गोला' माना जा सकता है। तमिल, केरल आदिके लोग भी काले होते हैं। अतः उनका यह आधार भी उसमें सहायक नहीं है। श्री प्रभुलाल पोहरीका संवत् १८२५ में लिखे गये नबलशाहके वर्द्धमान-पुराणमें आये 'गोयलगढ़' को ग्वालियरके अभिलेखोंमें आये 'गोइलगढ़'से समीकृत करना और उसे गोलापूर्वान्वयका उद्भव-स्थल बताना युक्त नहीं है । इस सम्बन्धमें निम्न बाधक हैं (१) तीर्थंकर ऋषभदेवका गोयलगढ़ आना और वहाँके वैश्योंको उपदेश देना तथा उसे उनके द्वारा ग्रहण करना ये ऐसी बातें हैं, जिनका आदिपुराण (९वीं शती) में२६ कोई उल्लेख न होनेसे विश्वसनीय नहीं कही जा सकती हैं। (२) नबलशाह स्वयं गोलापूर्व जैन थे । ऐसी कथा लिखनेमें अतिशयोक्ति भी कर सकते हैं । (३) ग्वालियरमें गोलापूर्वान्वयके कोई प्राचीन अभिलेख प्राप्त नहीं हुए । श्री प्रभुलालका यह कहना भी तर्कयक्त नहीं है कि तैमर और औरंगजेबने गोलापर्व समाजके मन्दिरों और मतियोंकी 'इतिश्री कर दी है, क्योंकि कोई कितना ही विनाश क्यों न करे, उनके अवशेष तो मिलते, जबकि एक भी अवशेष प्राप्त नहीं होता। गोलापूर्वान्वयके सम्बन्धमें प्रचलित निम्न जनश्रुति भी इस विषयमें वलिष्ठ नहीं है गोलापूरब वानिया गोयलगढ़के जान । पाणाशाह ता वंशमें सर्वप्रतापी मान ।।२७ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ इस जनश्रुतिमें पाणाशाहको गोलापरब बताया गया है। पर थूबोन रिपोर्ट में इसे अग्रवाल कहा है ।“ दूसरे, यदि यह गोलापूर्व और सर्वप्रतापी था, तो इसके प्रतिष्ठित मंदिर और मूर्तियाँ अवश्य उपलब्ध होते । अतः प्रमाणोंके अभावमें उक्त जनश्रुति भी कोई तथ्य प्रस्तुत नहीं करती। प्रेमीजीके बताये सूरतके महुआ और रानीताल भी साक्ष्योंके अभावमें 'गोला', नहीं है। अतः वे इस अन्वयके उद्भव-स्थल सिद्ध नहीं होते । ___पं० मोहनलाल शास्त्रीने टीकमगढ़ जिलेके अहार और पपौरा तथा छतरपुर जिलेके छतरपुर और महोबासे प्राप्त अभिलेखोंके आधारपर इन स्थानोंको 'गोला' मानकर उनमेंसे किसी एक स्थानको इस अन्वयका उद्भव-स्थल बताया है। पर वह संदेहास्पद है। यद्यपि टीकमगढ़ जिलेमें स्थित अहारक्षेत्रके पास मौजूद 'गोलपुर' ग्रामको ‘गोला' से समोकृत किया जा सकता है और गोलपुरके निकट स्थित अहार और पपौरा ऐसे स्थल हैं, जहाँ गोलापून्वियके प्रचुर प्रतिमा-लेख उपलब्ध हैं । परन्तु गोलपुरमें वैश्योंकी बहुलता नहीं रही, जो इस समाजको जन्म देते । डॉ० कोठियाका भी सम्भावित यह गोलपुर इस अन्वयका इसी कारण उद्भव-स्थल संभव नहीं है । गोलागढ़को 'गोला' स्थान माननेके संदर्भ में पं० परमानन्दजी शास्त्रीका कथन तर्कसंगत प्रतीत होता है। इसके निम्न हेतु हैं-- (१) गोल्लागढ़को वर्तमानमें गोलाकोट कहते हैं। यह मध्यप्रदेशके शिवपुरी जिले में खनियाधानासे छह किलोमीटर दूर है। यहाँ एक गोल पहाड़ीपर गोल कोट बना हुआ है । इस कोटके भीतर ११९ मूर्तियाँ हैं, जिनकी आसनोंपर वि० सं० १००० से १२०० (ई० ९४३ से ११४३) तकके अभिलेख अंकित हैं । एक विशाल जैन मन्दिर भी बना हुआ है ।२९ अतः यह स्थान (गोल्लागढ़) 'गोला' कहा जा सकता है । (२) चन्द्रगिरि (श्रवणवेलगोल) में उल्लिखित ई० ११६३ के एक लेखमें गोल्लदेश और वहाँके राजाके किसी कारणवश (संसारभयसे) विरक्त होकर मुनि होने तथा उनके प्रसिद्ध आचार्य 'गोल्लाचार्य' नामका उल्लेख किया गया है, जो इस सन्दर्भमें ध्यातव्य है। (३) उक्त चन्द्रगिरिसे ही प्राप्त एक अन्य लेखमें भी उक्त प्रकारसे उल्लेख किया गया है। विशेष यह कि उपर्युक्त राजाको गोल्लदेशका प्रसिद्ध भूपाल तथा अभिनव चन्देलवंशनरेन्द्रचूड़ामणि कहा गया है । इसके साथ ही उन्हें वीरनन्दि विबुधेन्द्रकी परम्परामें होनेवाला प्रसिद्ध आचार्य गोल्लाचार्य बतलाया गया है।३० इन दो शिलालेखोंसे प्रकट होता है कि गोल्लदेश चन्देलवंशी राजाओं द्वारा शासित क्षेत्र था और सम्भवतः इसीको ‘गोला' या 'गोल्ला' कहा जाता था। अब देखना है कि यह गोल्ला या गोला (गोल्ल) देश कहाँ है, जिस पर चन्देले राजाओंका शासन रहा है। इतिहासकार डॉ. ज्योतिप्रसाद जैनने लिखा है कि ई०८३१ में नन्नुक चन्देलने इस वंशकी स्थापना की थी और उसने खजुराहोंको अपनी राजधानी बनाया था । धंग इस वंशका बड़ा महत्त्वाकांक्षी राजा था । खजुराहोका पाश्वनाथ मंदिर इस शासकके प्रथम शासनवर्ष ई० ९५४ में बना था । यह मुनि वासवचन्द्रका आदर करता था ।३२ इसके पौत्र विद्याधरदेवके द्वारा ई० १०२८ में खजुराहोके शांतिनाथ मंदिरमें आदिनाथकी विशाल प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराई गई थी। कीर्तिवर्मन् चन्देलके मंत्रो वत्सराजने देवगढ़में दुर्ग बनवाकर उसका 'कीर्तिगिरि' नाम रखा था ।३३ मदनवर्मदेव इस वंशका धार्मिक निर्माण-कार्योंमें अधिक रूचि लेनेवाला प्रसिद्ध शासक रहा है। जगत्सागर (छतरपुर) और पपौरा (टीकमगढ़) से ई० ११४५ के, मऊ (छतरपुर) से ई० ११४६ के, खजु , Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २/व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ३७ राहो (छतरपुर) तथा अहार (टीकमगढ़) से ई० ११४८, ११५५ और ११५८ के तथा महोबासे ई० ११६३ के प्राप्त अभिलेखोंमें वहाँ मदनवर्मदेवका राज्य बतलाया गया है। गोल्लागढ़ (गोलाकोट) इसकी सम्भवतः राजधानी थी और उसके चारों ओर उसका शासन था । शिवपुरी, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, सागर, झांसी और भिण्ड-भदावरका क्षेत्र उसके अन्तर्गत था। अहारका मदनसागर तालाब और सोरईके पास स्थित मदनपुर इसीके नामपर रहे मालूम होते हैं। हम पहले कह आये हैं कि गोल्लागढ़के पास स्थित गोलपहाड़ीपर गोलपरकोटेके भीतर बने जैन मन्दिरमें ११९ मूर्तियां विराजमान है। इसके द्वारा शासित यह उपयुक्त क्षेत्र गोलपहाडीके कारण ही 'गोला' या 'गोल्लदेश' के नामसे प्रसिद्ध हुआ हो, तो आश्चर्य नहीं है। इसका शासन-काल ई०११२९ से ११६३ माना जाता है। इसने अपने देशका ३४ वर्ष शासन किया है । इसके शासन-कालमें विभिन्न स्थानोंपर अनेक जैन प्रतिमा-प्रतिष्ठाएँ हुई हैं । यह अपने पूर्वज धंग, विद्याधरदेव आदिसे अधिक जैनधर्मप्रेमी था। चन्द्रगिरि (श्रवणबेलगोला) के अभिलेखोंमें आचार्य वीरनन्दी 'विबुधेन्द्र' की परम्परामें दीक्षित जिन प्रसिद्ध आचार्य गोल्लाचार्यका उल्लेख किया गया है और जिन्हें गोल्लदेशाधिप तथा चन्देलराजवंशचडामणि दीक्षाके पूर्व बताया गया है, वह राजा और कोई नहीं, मदनवर्मदेव (ई० ११२९-११६३) चन्देल ही था और उसका शासित क्षेत्र गोल्लदेश था। यहाँ विचारणीय है कि उसकी विरक्ति और जैनधर्ममें दीक्षित होनेका कारण क्या है ? इस विषयमें दो कारण प्रतीत होते हैं । एक तो यह कि गोल्लागढ़ में कोई प्रभावशाली जैन धर्मोपदेशक भट्टारक या विशिष्ट आचार-विचार सम्पन्न विद्वान् आया हो, जिनके प्रभावपूर्ण उपदेशसे जहाँ नगरका अधिकांश वैश्य समाज प्रभावित हुआ हो और उसने अपने आचार-विचारमें परिवर्तन किया हो वहाँ राजा मदनवर्मा (ई० ११६३) भी उनके उपदेशसे इतना प्रभावित हआ हो कि उसने राज्यको तणवत त्यागकर चन्द्रगिरि (श्रवणबेलगोला. कर्नाटक) में जाकर दिगम्बर जैन श्रमणकी दीक्षा ले ली हो और गोल्लदेशके राजा होनेसे वे 'गोल्लाचार्य' नामसे प्रथित हए हों। वे जैनधर्मके अतिशय भक्त थे । दुसरा कारण यह ज्ञात होता है कि इसके राज्यपर किसी दूसरे शत्रु राजाके द्वारा आक्रमण किया गया हो और जिसका मुकाबला कर सकना सम्भव न देखकर मदनवर्मा राज्यको त्यागकर दूरवर्ती एवं पावन क्षेत्र श्रवणबेलगोला पहुँचे हों तथा वहाँ चन्द्रगिरिपर आ० वीरनन्दी 'विबुधेन्द्र' को परम्परामें दीक्षित हो गये हों। दीक्षा लेनेके पूर्व यतः वे गोल्लदेशनरेश थे, अतः वे 'गोल्लाचार्य' नामसे प्रख्यात हुए। यही सबब है कि अभिलेखोंमें मदनवर्माके वैराग्यका सष्ट कारण न बताकर 'केन च हेतुना', 'किमपि कारणेन' (किर कारणसे, कुछ कारणसे) मात्र कहा गया है। वह कौन शत्रु राजा था, जिसका आक्रमण मदनवर्माके लिए अपरिहार्य रहा, यह इतिहासके आलोक में अन्वेषणीय है। ई० ११६३ के बाद मदनवर्माके विषयमें इतिहास मौन है । इसीलिए उसके सम्बन्धमें उक्त दो कारणोंको सम्भावना की गई है। नगरके धार्मिक वैश्य समाज भी धर्मक्षतिके भयसे सुरक्षित दूसरे स्थानोंपर चले गये हों। सपादलक्षदेशपर म्लेच्छ (साहिबुद्दीन तुरुष्कराज) द्वारा आक्रमण किये जानेपर जैसे पण्डितप्रवर आशाधर (१३०० संवत) बहुत परिवाराके साथ पूर्व स्थान माण्डलगढ़को छोड़कर चरित्रनाशके भयसे धारापुरीमें जा बसे थे। “गोला" शब्दके प्रसंगसे इतना प्रासंगिक कहनेके उपरान्त उसके उत्तरपद "पूर्व" पर भी विचार Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ : सरस्वती वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रम्यं किया जाता है । यहाँ 'पूर्व' पदसे पूर्व दिशा लिया जाना चाहिए । जो गोल्लागढ़की पूर्वदिशामें आचार-विचार सम्पन्न वैश्य समाज रहता था और जैनधर्मका पालक था वे गोलापूर्व कहे जाते थे, उनके समीप उत्तर दिशा में जो धार्मिक वैश्य समूह रहता था, उन्हें गोलालारे या गोलाराड् कहा जाता था और जो भूषणों के परिधान में अधिक रुचि रखते थे या उस देश ( गोल्लदेश) के भूषण माने जाते थे उन्हें गोल्लशृङ्गार या गोल्लसिंघारेके नामसे अभिहित किया जाता था । ये उस नगरके बार्ड या मुहल्ले थे । ये वर्ग व्यवसायकी दृष्टिसे शताब्दियों से दूसरे नगरों एवं गावोंमें आते-जाते रहते थे । जो व्यापारके लिए पूर्व दिशाकी ओर गये वे वहीं बस गये । पर उन्होंने मूलनिवासके नामको नहीं छोड़ा । वे उनके अन्वय, आम्नाय या जाति बन गई । जैसा कि मूर्तिलेखोंमें उल्लिखित है । जो परिवार गोल्लागढ़ और गोल्लदेशको छोड़कर बाहर चले गये, उनके, परिवारोंमें वृद्धि हुई तथा बादको वहाँसे और परिवार भी जाते रहे । उदाहरणार्थ खण्डेलवाल समाजके अनेक परिवार आसाम, बंगाल, मध्यप्रदेश आदिके नगरों-गाँवोंमें जा बसे हैं और सब खण्डेलवाल कहे जाते हैं । गोलापूर्व समाजके परिवारों में ऐसा ही एक परिवार बहोरीबन्द ( जबलपुर ) के शान्तिनाथ मन्दिर एवं उस विशाल, मूर्तिका निर्माता एवं प्रतिष्ठाकारक है, जिसने संवत् १००० या १०१० या १०७० में मंदिर तथा मूर्तिकी प्रतिष्ठा कराई थी । मूर्तिके पादपीठमें जो उत्कीर्ण लेख है उसमें 'गोल्लापूर्व आम्नाय' का स्पष्ट उल्लेख है । और इस आम्नायको 'उरुकृताम्नाये' पद देकर उन्नत (श्रेष्ठ) आम्नाय बतलाया है । वह परिवार था 'तर्कतार्किकचूड़ामणिश्रीमन्माधवनन्दि' से अनुग्रहीत ( उपकृत ) या उनका कृपापात्र साधु श्री सर्वधर और उसका पुत्र महाभोज, जो धर्म, दान और अध्ययनमें रत रहता था । वह लेख निम्नप्रकार है 'स्वस्ति संवत् १० फाल्गुन वदी ९ भौमे श्रीमद्गयकर्तदेव विजयराज्ये राष्ट्रकूटकुलोद्भव - महासामन्ताधिपतिश्रीमद्गोल्हणदेवस्य प्रवर्धमानस्य श्रीमद्गोल्लापूर्वाम्नाये वेल्लप्रभाटिकायामुरुकृताम्नाये तर्कतार्किकचूडामणिः श्रीमन्माधनन्दिनानुगृहीतः साधुः सर्वधरः तस्य पुत्रः घर्मदानाध्ययने रतः महाभोजः । तेनेदं कारितं रम्यं शान्तिनाथस्य मन्दिरम् ।" -- पं० बलभद्र जैन, भारतके दि० जैन तीर्थं (म०प्र०), पृ० ३७ | यह परिवार गोल्लागढ़को छोड़कर यहाँ कब आया, कहा नहीं जा सकता । किन्तु यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इतनी विशाल ( १३ फुट ९ इंच अवगाहना तथा आसन सहित १५ फुट ६ इंच ऊँची) खड्गासन मूर्ति एवं उसके योग्य मन्दिरके निर्माणकी क्षमता और सम्पन्नता प्राप्त करनेके लिए तथा वहाँ स्थायी होने के लिए १००-१५० वर्षका समय तो लगा होगा । अतः यह परिवार मूल निवासको छोड़कर ८वीं, ९वीं शताब्दी में आया होगा । प्रतिष्ठाके समय कलचरिवंशके राजा गयकर्णदेवका राज्य और उनके प्रभाक शासक राष्ट्रकूटकुलोद्भव गोल्हणदेवका प्रभावी शासन था । गयकर्णदेवका राज्य अनुमानतः ई० १११५ से ११५३ तक माना गया हैं । 3 यही समय गोल्हणदेवका जानना चाहिए । प्रायः यही चन्देलनरेश मदनवम का इतिहाससम्मत शासनकाल ई० ११२९ से १९६३ तक माना जाता है । जैसा कि पहले कहा जा चुका है । पण्डित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने गोल्हणदेवका जन्म गोल्लदेशमें होने या गोल्लदेशका राजा होनेकी सम्भावना की है और उन्हें तथा गोल्लाचार्यको एक होनेका अनुमान किया है 139 पर वे दोनों अलग-अलग व्यक्तित्व हैं । गोल्हणदेव राष्ट्रकूटवंशी थे और गोल्लाचार्य चन्देलवंशी थे । गोल्हणदेव कलचूरिनरेश गयकर्ण - देवके एक शासक थे, जिनका शासन बहोरीबंद ( जबलपुर ) क्षेत्रमें था और गोल्लाचार्य दीक्षाके पूर्व गोल्लदेशके नरेश तथा चन्देलनरेशचूड़ामणि थे, जिनका शासित क्षेत्र गोल्लदेश था, जो शिवपुरी, छतरपुर, Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ३९ पन्ना, झांसी और टीकमगढ़ तक था। अतः गोल्हणदेको गोल्लाचार्य माननेकी सम्भावना या अनुमान संगत नहीं है। हाँ, शास्त्रीजीके इस विचारसे हम सहमत हैं कि 'बुन्देलखण्डके जिस अञ्चलमें गोलापूर्व, गोलालारे और गोलभंगारके परिवार बसते आये हैं वह पूरा प्रदेश गोला राड् कहा जाता रहा है।' उन्होंने जिस प्रदेशको गोलाराड् कहा है सम्भवतः वह गोल्लदेश ही है और वह बुन्देलखण्ड ( उत्तर भारत ) का ही अञ्चल है, दक्षिणका नहीं। सीकरसे प्रकाशित 'चारित्रधर्मप्रकाश' नामक ग्रन्थ में और 'तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा' भाग ४ के पृष्ठ ४४१ पर दी गई नन्दिसंघकी पट्टावलीमें बारहवें क्रमांकपर वि० सं० ३५८में संघके पट्रपर आरूढ़ हए गणनन्दिका नामोल्लेख हआ है । और 'चारित्रधर्मप्रकाश' में दी गयी, पदावलीके अनुसार पण्डित फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीने गुणनन्दिको दक्षिण देशस्थ भद्दलपुरका गोलापूर्व पट्टाधीश बताकर दक्षिगमें भी गोलापूर्वान्वयका आवास अनुमानित किया है । उनकी मान्यता है कि दक्षिणके जिस प्रदेशमें गोलापूर्वान्वयका पूर्वकालमें निवास रहा है वही गोल्लदेश है और गोलाराड्, गोलापूर्व तथा गोलश्रंगार तीनों अन्वयोंके वंशधर वहींसे आये हैं ।३८ इस सन्दर्भमें प्रथमतः विचारणीय है कि शास्त्रीजीने आचार्य गुणनन्दिको गोलापूर्व किस आधारपर बताया है ? क्योंकि 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा' भाग ४ के १० ४४१ में दी गयी नन्दिसंघकी पट्टावलीमें गणनन्दिके दक्षिणदेशस्थ भद्दिलपुरके पट्टाधीश होनेका उल्लेख तो किया गया है, किन्तु उनके गोलापूर्व होनेका कहीं कोई उल्लेख नहीं है। शास्त्रीजीने यदि 'चारित्रधर्मप्रकाश' में कोई उल्लेख देखा हो, तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि यह ग्रन्थ अबतक लेखकको अप्राप्त है। डॉ० नेमिचन्द्र जैन शोधी-खोजी विद्वान थे। यदि आचार्योंकी जातिके उल्लेख उन्हें प्राप्त हुए होते, तो वे उसके उल्लेख अवश्य करते। दुसरे, यदि गोलापूर्वान्वयका वि० सं० ३५८ में जन्म हो गया था तो इस अन्वयके प्राचीन प्रतिमालेख आदि भी मिलना चाहिए थे। यथार्थमें गोलापून्विय ही नहीं, अन्य कोई अन्वय भी इस समयमें नहीं थे । यही कारण है कि उस समयके उनके कोई लेख प्राप्त नहीं होते हैं । तीसरे, दक्षिणमें साक्ष्योंके अभावमें न गोल्लदेशकी सम्भावना की जा सकती है और न ही गोलापूर्व, गोलाराड़ और गोलभंगार अन्वयोंका उसे उद्भवस्थल स्वीकार किया जा सकता है। शास्त्रीजी इससे पूर्व इसी लेखके आरम्भमें बुन्देलखण्डके महोबा-भिण्ड-भदावर अञ्चलको गोल्लदेश या गोलाराड् सम्भावित कर आये हैं। किन्तु अब दक्षिणमें गोल्लदेश होनेकी सम्भावना कर रहे हैं, जो परस्परविरुद्ध हैं। च अभिलेखोंमें ही गोल्लदेशका उल्लेख किया गया है और उन्हीं में उसका शासक चन्देलनरेशचूडामणिको बताया गया है, जिसने बादको दिगम्बर मुनि-दीक्षा आ० वीरनन्दि 'विबुधेन्द्र' की परम्परामें ग्रहण की थी और वे गोल्लाचार्यके नामसे प्रथित हुए थे। यह चन्देलनरेशचूडामणि मदनवर्मदेव चन्देलनरेश था और जिसने गोल्लागढ़ वर्तमान गोलाकोटपर ई०११२९ से ११६३ तक शासन किया, जिसके अन्तर्गत शिवपुरी, टीकमगढ़, छतरपुर, झाँसी, मदनपुर आदिका क्षेत्र था। ध्यातव्य है कि चन्देल राजवंश उत्तरभारतमें ही रह दक्षिणमें नहीं। इतने विचार-विमर्श के बाद हम इसी निष्कर्षपर पहुँचते हैं कि चन्देलवंशी राजा मदनवर्माके द्वारा शासित गोल्लागढ़ ही गोल्लारा या गोल्लप्रदेश है। इसी प्रदेशसे इसके शासनकाल में प्रतिष्ठित सर्वाधिक जैन मूर्तियाँ एवं जैन मन्दिर उपलब्ध हुए हैं । दक्षिण के किसी स्थानसे नहीं प्राप्त हुए। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य साहित्यिक सन्दर्भ जैन जातियोंकी संख्या चौरासी बताई गई है। इनमें 'गोला' पदसे जिनके नाम आरम्भ हए है उनमें तीन जातियाँ हैं-'गोलापूर्वान्वय, गोलाराड और गोलशृंगार । माणिक्यसुन्दरसूरिकृत संवत् १४७८ के 'पृथ्वीचन्द्रचरित्र-वाग्विलास' में इन तीनका उल्लेख नहीं है, केवल 'गोला' नामक एक जातिका क्रमांक तिरेसठपर उल्लेख है । ३९ श्री पूर्णचन्द्र नाहर द्वारा अकारादिक्रमसे प्रकाशित नामावलीमे अठारहवें क्रमांकपर 'गोलावा' जातिका नाम आया है । इसीप्रकार मोहम्मदशाहके समयकी जातियोंमें 'गोलावाल'४१ और कवि लावण्यसमयकी कृति 'विमलप्रबन्ध में 'गोलवाल' जातिका नामोल्लेख हुआ है।४२ श्रीसौभाग्यनन्दिसूरि रचित संवत् १५७८ के 'विमलचरित' में अवश्य गोलाराड, गोलसिंगारा और गोला इन तीन जातियोंके नामोल्लेख हुए हैं।४३ इनमें गोलापूर्व जातिका नामोल्लेख नहीं हुआ है । पर प्रतीत होता है कि इनमें 'गोला' शब्द गोलापूर्व जातिके अर्थमें व्यवहृत हुआ है। गोलाराका प्रशस्तियों में गुलराड्, गोलाराडिय और गोलालाडयउ नामोंसे व्यवहार हुआ है।४४ इन गोला, गोलावाल, गोलवाल, गोलाराड् और गोलसिंगारा जातीय नामोल्लेखोंसे ज्ञात होता है कि इन नामोंमें उनके आदिमें प्रयुक्त ‘गोला' पद उस 'गोला' नामक स्थान या देशका सूचक है जहाँके वे मूल निवासी थे। चौरासी जातियोंमें अग्रवाल, खण्डेलवाल, बघेरवाल और मेड़तवाल आदि अन्वयोंके नामोंसे यह सम्भावना होती है क्योंकि ये जातियाँ भी अपने स्थानविशेषोंकी प्रकाशक हैं। संवत् १८२५के नवलशाहकृत हिन्दी ‘वद्धमान पुराण' तथा बख्तराम रचित संवत् १८२७ के 'बुद्धिविलास' ग्रन्थ में 'गोलापूर्वान्वय' का नाम सर्वप्रथम दर्शाया गया है। इसके पश्चात् गोलाराड, गोलसिंधारे आदिका उल्लेख किया गया है ।४५ प्रतीत होता है कि 'गोला' नामक स्थानसे उद्भूत जातियोंमें गोलापूर्वान्वयके श्रावक सर्वप्रथम 'गोला' स्थानसे निकले थे। इसीसे वे 'गोलापूर्व' कहे गये । 'पूर्व' शब्दके दो अर्थ है-एक पूर्व दिशा और दूसरा किसी अन्यकी अपेक्षा पहले। 'पूर्व' पदके इन दोनों अर्थोंसे यह निष्कर्ष निकलता है कि 'गोलापूर्वान्वय' के श्रावकोंने गोलाराड् और गोलसिंघारे अन्वयोंसे पहले 'गोला' या 'गोल' नामक नगरसे निर्गमन किया था तथा वे वहाँसे पूर्व दिशाकी ओर जा बसे थे। सर्वप्रथम श्रावकके व्रत ग्रहण करने और सर्वप्रथम 'गोला' नगरसे निर्गमन करनेके कारण तथा गोलानगरसे पश्चात् निर्गमन करने वाले एवं व्रत ग्रहण करनेवाले अपने परवर्ती अन्वयोंकी अपेक्षा अपनेको अपूर्व (विशिष्ट) बतानेके लिए सम्भवतः इन्होंने अपने समूहको 'गोलापूर्वान्वय' संज्ञासे अभिहित किया था। यह मान्यता संवत् १८२७ तक अक्षुण्ण रही ज्ञात होती है। इस उल्लेखसे मदनवर्मदेवके वैराग्यके सम्बन्धमें पहले की गयी कल्पना भी युक्त प्रतीत होती है। ___ इस प्रकार गोल्लागढ़, मऊ, महोबा, खजुराहो, छतरपुर, मलहरा, द्रौणगिरि, रेशन्दीगिरि, मदनपुर, अहार, पपौरा, सोनागिरि आदि जिन स्थलोंसे मदनवर्मदेव चन्देलके अभिलेख प्राप्त होते है वे स्थल तथा वर्तमान छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, दमोह, सागर, ग्वालियर, खनियाधाना, भिण्ड और उत्तरप्रदेशके झांसी व ललितपुर जिले ‘गोल्लदेश' के नामसे विख्यात रहे प्रतीत होते हैं । गोल्लागढ़ सम्भवतः राजधानी थी। इतिहासकार रतिभानुसिंह नाहरने सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड और दक्षिणमें जबलपुरके पड़ौसका प्रदेश मदनवर्मदेव चन्देलके राज्यमें सम्मिलित रहा बताया है।४६ उन्होंने मदनवर्मदेवका अन्त केसे हुआ, इसका कोई उल्लेख नहीं किया है । पर इस सम्बन्धमें अभिलेखोंसे ज्ञात होता है कि ई० ११६३ में किसी कारणसे विरक्त Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २/ व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ४१ होकर उसने दक्षिणकी ओर प्रस्थान कर श्रवणबेलगोलमें चन्द्रगिरिपर मुनि वीरनन्दी या उनकी परम्परामें हुए किसी आचार्यसे मुनिदीक्षा धारण कर ली थी। ई०११६३ के पूर्व ही इसका राज्य गोल्लदेशके नामसे विख्यात हो गया था। परन्तु इसका नामोल्लेख अब तक चन्देल राज्यसे प्राप्त किसी भी अभिलेखमें प्राप्त नहीं होता। गोल्लागढ़ (गोलाकोट) को गोल पहाडीपर स्थित जैनमन्दिरकी मूर्तियोंके अभिलेखोंके मूलपाठ इस सन्दर्भमें पठनीय हैं । सम्भवतः उनमें गोल्लदेशका नाम उल्लिखित हो। हम यह पुनः कहेंगे कि चन्देल-शासकोंका शासन उत्तरभारतमें रहा है। इस वंशका संस्थापक नन्नुक चन्देल (ई० ८३१) था। उसने खजुराहो (छतरपुर) को अपनी राजधानी बनायी थी। इस वंशमें धंग (९५४ ई०), विद्याधरदेव (ई० १०२८), कीर्तिवर्मन् जैसे चन्देले राजा शासक हुए। इस सन्दर्भमें डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन द्वारा लिखित 'भारतीय इतिहास : एक दृष्टि' दृष्टव्य है, जो भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित है। गोलापूर्वान्वयके गोत्र 'गोत्र' जैनदर्शनके आठ कर्मों में सातवाँ कर्म है। धवला पुस्तक ६, पृष्ठ ७७ में गोत्रका अर्थ कुल या वंश बताया गया है। परन्तु जातियोंके सन्दर्भमें गोत्रका अर्थ बैंक होता है। कवि नवलशाहने इसी शब्दका व्यवहार किया है। उन्होंने दो सवैया और एक दोहेमें गोलापूर्वान्वयके अट्ठावन बैंक बताये हैं। उनके नाम कविके शब्दों में निम्न पद्योंमें द्रष्टव्य है-- खाग, फुसकेले और चन्देरिया, मरैययौ पपौरहा, बनोनहा, सु टेंटबार जानिये । भर्तपुरिया, छोरकटे, कोठिया, दुमेले औ बरघरिया, जुझौतिया, बेरिया, बखानिये ।। इन्द्रमहा (जन), खुर्देले, भिलसैंया, रौतेले, जनहारिया, निर्मोलक, तिगेले प्रमानिये । घौनी, पैथवार, रहदेले, कपासिया, गोदरे गुगौरिया, बबोलिया जुठानिये ॥ दंडकार सरखड़े, साधारण, टीकाके, रावत, बदरोठिया, सोनी, सोंसरा सु लीजिये। पतरिया, घुधोलिया, गड़ोले, पचलौरे, सनकुटा, सोरया, हीरापुरिया सुनीजिये । कनकपुरिया, कनसेनियाँ, पटौरहा सु विलविले, नाहर, करैया, सांधेले गणीजिये । पडैले, सैनियाँ, दरगैयाँ, सपोतहा मझगैयाँ, लखनपुरिया, बोदरे गनीजिये ।। सिरसपुरिया, कोनियाँ ये अठान बैंक । 'नवल' कहे संक्षेपसे निजकूल वरणों नेक ॥४९ कविने इन पद्योंमें जिन बैंकोंके नाम बताये है वे क्रमशः निम्न प्रकार है १. खाग, २. फुसकेले, ३. चन्देरिया, ४. मरैया, ५. पपौरहा, ६. बनोनहा, ७. टेंटवार, ८. भर्तपुरिया, ९. छोरकटे, १०. कोठिया, ११. दुमेले, १२. बरधरिया, १३. जुझोतिया, १४. बेरिया, १५. इन्द्रमहा, १६. खुर्देले, १७. भिलसैंया, १८. रौतेले, १९. जनहारिया, २०. निर्मोलक, २१. तिगेले, २२. धौनी, २३. पैथवार, २४. रहदेले, २५. कपासिया, २६. गोदरे, १७. गुगौरिया, २८. ववोलिया, २९. दैन्डकार, ३०. सरखड़े, ३१. टीकाके, ३२. रावत, ३३. वदरोठिया, ३४. सोनी, ३५. सोंसरा, ३६. पतरिया, ३७. धोलिया; ३८. गड़ोले, ३९. पचलौरे, ३०. सनकुटा, ४१. सोरया, ४२. हीरापुरिया, ३३. कनकपुरिया, ४४. कनसेनियाँ, ४५. पटोरहा, ४६. विलविले, ४७. नाहर, ४८. करैया, ४९. सांधेले, ५०. पड़ेले, ५१. सेनियां, ५२. दरगैयाँ, ५३. सपोतहा, ५४. मझगैयाँ, ५५. लखनपुरिया, ५६. बोदरे, ५७. सिरसपुरिया और ५८. कोनियाँ। गोत्र-नामकरण अन्वयोंके सृजनमें जैसे प्रधानतः उनकी चारित्रिक विशुद्धि कारण रही है, ऐसे ही गोत्रोंके सृजनमें भी २-६ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ सम्भवतः यही कारण रहा है। अन्वयोंके नामकरण जैसे उनकी मूल निवासभूमियोंपर हए, ऐसे ही गोत्रोंके नाम भी उनके मूल निवासस्थानोंके नामोंपर रखे गये ज्ञात होते हैं। जिन गोत्रोंके नाम इस प्रकारके प्रतीत होते हैं उनके मूल निवासस्थानोंका परिचय निम्न प्रकार है१ चन्देरिया : इस बैंकका नाम चन्देरी, जो थूबन (थूबोन) के पास है, के नामपर रखा गया ज्ञात होता है। २ पपौरहा : मध्यप्रदेशके टीकमगढ़ जिलेमें टीकमगढ़से नातिदूर पपौरा एक अतिशय क्षेत्र है। यहाँ संवत् १२०२ के दो मूर्तिलेख ऐसे हैं, जिनमें गोलापूर्वान्वयका उल्लेख हुआ है । अतीतमें इस अन्वयके परिवारोंकी यह आवासभूमि रही है। वे किसी कारणवश अन्यत्र चले गये । परन्तु उन्होंने अपनी जन्मभूमिको नहीं भुलाया। उन्होंने पपौराके मूलनिवासी होनेके कारण अपने गोत्रका नाम 'पपोरहा' रखा।। ३ बनोनहा : यह नाम बुन्देलखण्डके 'बनेड़िया' ग्रामके नामपर रखा गया जान पड़ता है । इस ग्रामकी स्थिति ज्ञात नहीं हो सकी है। ४ भर्तपुरिया : सेंदपा और मलहराके बीच 'भरतपुरा' एक ग्राम है। इस ग्रामके नामपर इस गोत्रका नाम प्रसिद्ध हुआ ज्ञात होता है । ५ बरघरिया : यह नाम मूलतः 'बरखरिया' ज्ञात होता है । रहलीके पास 'बरखेरा' नामके नामपर इसका नामकरण हुआ होगा । इस ग्राममें आज भी गोलापूर्वोका आवास है। ६ बेरिया : टीकमगढ़ जिलेमें एक 'बेरी' नामक ग्राम बताया गया है, जिसके नामपर इस गोत्रका नाम रखा गया। आगरा-शिवपुरी रोडपर बसे 'बरई' गाँवके नामपर भी यह नाम रखा जाना संभावित है। ७ इन्द्रमहा : जबलपुर जिलेमें सिहोरा-मझगवाँके पास एक 'इन्द्राना' नामका ग्राम है। जहाँ जैन भी हैं। इस गोत्रका नाम इसी ग्रामके नामपर रखा गया ज्ञात होता है। ८भिलसैंया : टोकमगढ़ जिलेके 'भेलसी' ग्रामके नामपर इस गोत्रका नाम रखा गया प्रतीत होता है । ९ जनहारिया : इस गोत्रका नाम मूलतः 'जतहारिया' होना चाहिए । टीकमगढ़से पास एक 'जतारा' ग्राम है। उसके नामपर इसका नामकरण हुआ कहा जा सकता है । १० जुझोतिया : 'जुझार' ग्रामके नामपर इसका नाम रखा गया है । ११ तिगेले : यह बुन्देलखण्डके 'तिगोडा' ग्रामके नामपर रखा गया। १२ घौनी : मलहराके पास 'धिनौची' ग्रामका सूचक है। १३ पेथवार : विदिशासे ५० मील दूर उत्तर-पूर्व में स्थित पथारि ग्रामपर इसका नामकरण हुआ है। १४ रहदेले : इस गोत्रके श्रावक सम्भवतः मूलरूपसे 'रहली' के वासी थे। १५ गोदरे : यह नाम या तो खनियाधानासे आठ किलो मीटर दूर स्थित 'गूडर' या 'गोंदलमऊ' ग्रामके नामपर रखा गया है। १६ गुगौरिया : बण्डा तहसीलके "गूगरा" ग्राम पर यह नाम रखा गया है । १७ ववोलिया : यह नाम मूलतः बमोलिया होगा और “बम्हौरी" ग्रामके नाम पर इसका नामकरण हुआ होगा। १८ सरखडे १९ टीकाके : इस गोत्रका नाम दमोह जिलेके "सरखड़ी" ग्रामके नाम पर रखा गया हो। : यह सागर जिले के 'टीकापार" ग्रामका सूचक है । ! Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्त्वि तथा कृतित्व : ४३ २० रावत : सागर जिलेके 'रुरावन" ग्रामके नामपर इसका नामकरण हुआ है। २१ ववरोठिया : बण्डाका "बरायठा" ग्राम इसका उद्भव स्थल है। २२ सोंसरा : सागरका समीपवर्ती "सेसई" ग्राम इस गोत्रका मूल निवास रहा है। इसी ग्रामके नामपर इसका नाम रखा है। २३ गड़ौले : इस गोत्रके पूर्वज संभवतः शिवपुरी जिले में "गुडार" ग्रामके निवासी थे, अतः यह नाम उन्होंने इस ग्रामके नामपर रखा है। २४ पचलोरे : इसका नामकरण सम्भवतः शिवपुरी जिलेके “पचरई" ग्राम पर हुआ है । २५ सोरया : यह गोत्र ललितपुर जिलेके "सोंरई" ग्रामकी देन है । २६ हीरापुरिया : यह गोत्र “हीरापुर" ग्रामके नामपर निर्मित हुआ है। २७ कनकपुरिया : अपभ्रंश भाषाके विद्वान रइधूने सोनागिरिको 'कणयद्दि"-कनकगिरि कहा है । इससे ज्ञात होता है कि यह गिरितले बसा ग्राम "कनकपुरी" के नामसे प्रसिद्ध रहा होगा। मंदिर नं०१६में विराजमान गोलापूर्वान्वयकी सं० १२१३ की एक पद्मासनस्थ प्रतिमासे प्रतीत होता है कि यहाँ गोलापूर्व श्रावकोंका भी आवास था। इस गोत्रका नाम इसी कनकपुरीके नामपर रखा गया है। २८ पटोरहा : इसका नाम रहलीके समीपवर्ती ‘पटना' अथवा 'पटेरा' (कुण्डलपुर) के नामपर रखा गया प्रतीत होता है। २९ विलविले : यह नाम करेलीके समीपवर्ती 'विलहरा' ग्रामके नामपर रखा गया कहा जा सकता है। ३० करैया : ग्वालियरका 'करहिया' ग्राम, जहाँके निवासो वरैया-विलास ग्रन्थके लेखक पण्डित लेख राजजी थे, इसका उद्भव स्चल है। ३१ सोनो :यह वकस्वाहाके निकटवर्ती 'सुनवाहा' ग्रामके नामपर निर्मित गोत्र है। ३२ कनसेनिया : कटनोके पास एक प्राचीन स्थल है-'कारीतलाईं। इसका प्राचीन नाम कर्णपुर था। यह गोत्र सम्भवतः इसी ग्रामके नामपर बना है । ३३ पड़ेले : 'पिड़रुआ' या 'पड़वार' ग्रामके नामपर इस गोत्रका नामकरण हुआ है। ३४ सेनिया : सेनपा (सेंधपा) के नामपर निर्मित गोत्र है। ३५ दरगैंया : इस गोत्रके निवासी मूलतः 'दरगुवां' के निवासी थे। ३६ मझगैंया : जबलपुर जिलेके 'मझगुवां' गांवके नामप र इस गोत्रका नामकरण हुआ है। ३७ लखनपुरिया : खानियाधानाके पास स्थित 'लखारी' ग्राम इस गोत्रका मूल निवास प्रतीत होता है । ३८ बोदरे : यह गोत्र खनियाधानासे लगभग आठ मोल दूर स्थित 'निबोदा' ग्रामके नामपर निर्मित ज्ञात होता है। ३९ कोनियां : पाटनके पास हिरननदीके तटपर स्थित 'कोनी' ग्रामके नामपर इस गोत्रका नामकरण हुआ कहा जा सकता है। ध्यान रहे, ये नाम उसीप्रकार प्रसिद्ध हुए, जिसप्रकार जयपुरिया, जोधपुरिया आदि नाम प्रचलित है । और वे गोत्र बन गये। गोत्र-सूची में कुछ नाम ऐसे भी हैं, जो मूल निवासस्थानोंके नामपर निर्मित न होकर श्रावकोंके प्रमुख व्यवसायके नामोंपर निर्मित हुए हैं। ऐसे गोत्रोंके नाम निम्न प्रकार है-- १कोठिया : कोठारका कार्य करने वाले श्रावकोंका गोत्र । . Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य २ दुमेले : विवाह आदिसे या अन्य किसी युक्तिसे विरोध समाप्त कर दो व्यक्तियोंका मिलाप कराने वाले श्रावकोंका गोत्र है। ३ कपासिया : कपासका व्यवसाय करने वालोंका गोत्र ४ दंडकार : प्रशासन करके आजीविका करनेवालोंका गोत्र । ५ सनकुटा : सनके व्यापारियोंका गोत्र । जिन शेष चौदह गोत्रोंके नामकरणका आधार अन्वेषणीय है उनके नाम हैं १. खाग, २. फुसकेले, ३. मरैया, ४. टेंटवार, ५. छोरकटे, ६. खुर्देले, ७. रौतेले, ८. निर्मोलिक, ९. सपोतहा, १०. पतरिया, ११. घंघोलिया, १२. नाहर, १३. सांधेले. १४. सिरसपरिया। वर्तमानमें उपलब्ध गोत्र नवलशाह द्वारा बताये ५८ गोत्रोंमें निम्न गोत्र ही सम्प्रति परिचयमें आते हैं । यथा १. खाग, २. फुसकेले, ३. चन्देरिया, ४. मरैया, ५. बनोनहा, ६. टेंटवार, ७. कोठिया, ८. जझोतिया, ९. वैरिया, १०. खर्देले, ११. गोदरे. १२. गडोले, १३. सनकटा. १४. सोंग्या, १५. नाहर, १६. सांधेले, १७. पडेले, और १८. पटोरहा ( पटोरिया), १९. कपासिया। वर्तमानमें कुछ गोत्र ऐसे भी मिलते हैं, जिनका इस सूचीमें उल्लेख नहीं है । मलैया (मालवीय) और चौसरा ऐसी ही गोत्र है । सूचीमें एक सोंसरा गोत्रका उल्लेख है, जो सम्भवतः कालान्तरमें चौसरा हो गया है। रांधेलीय गोत्र रहदेलेका अपरनाम ज्ञात होता है । मलैया, जिसे मालवीय कहा जाने लगा है, मरैया गोत्रका अपर नाम है। ब्राह्मण-गोत्र ____ नवलशाहके अठ्ठावन गोत्रोंमें उपलब्ध रावत और जुझौतिया गोत्र ब्राह्मणोंमें भी पाये जाते हैं। रावत गोत्र खण्डेलवालोंमें भी पाया जाता है। ब्राह्मणोंमें एक "गोला पूर्व" गोत्र भी होता है। इस गोत्रके ब्राह्मण राजस्थानमें जयपुर, जोधपुर, धौलपुर, कोटा, भरतपुर, उत्तरप्रदेशमें आगरा तथा मध्यप्रदेशमें इन्दौर, खण्डवा और नरसिंहपुर जिलोंमें बसे हुए हैं । मध्यप्रदेशके होशंगाबादमें तो गोलापूर्व ब्राह्मणोंका एक पृथक् वार्ड ही बताया गया है। गोलापूर्व ब्राह्मण-गोत्रका उद्भव जैन 'गोलापूर्वान्वय'के समान इस गोत्रके ब्राह्मण मूलतः गोल्लदेशके निवासी ज्ञात होते हैं । सम्भवतः ये भी जैनधर्मोपदेशकके उपदेशसे प्रभावित होकर जैन हो गये थे। किन्तु जैनधर्मको किसी कारणवश अंगीकार करनेमें असमर्थ हो जानेसे ये पुनः अपना पूर्व वैष्णव धर्म मानने लगे। जिन ब्राह्मणोंने अपने धर्मको नहीं छोड़ा था, उन्होंने इन्हें जाति-च्युत समझकर अंगीकार नहीं किया, फलस्वरूप ये ब्राह्मण गोलापूर्वगोत्रके नामसे प्रसिद्ध हुए और ये परस्परमें ही अपना सामाजिक व्यवहार करने लगे। बताया जाता है कि ये मूलतः कृषक हैं। गोपूजक हैं। कच्चा भोजन सजातियोंके घर करते हैं । विजातियोंके घर पक्का भोजन ही ग्रहण करते हैं। इनके आचार-विचार अग्रवालोंके आचार-विचारोंके समान होते है। गोलापूर्वान्वयके तीन भेद ____ नवलशाह कृत हिन्दी वर्द्धमान-पुराणमें इस अन्वयके तीन भेद (समूह) बताये गये हैं-१. बीसविसे, २. दसविसे और ३. पचविसे । उन्होंने लिखा है Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन भेदोंके सम्बन्ध में विद्वानोंकी धारणा रही है कि ४०० परिवारोंका समूह वीसविसे, दोसौ परिवारोंका समूह दसवसे और १०० परिवारोंका समूह पचविसे कहलाता है। नामसे ऐसा अर्थ निकलता भी है किन्तु यहाँ यह संख्या इस अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुई है। यह संख्या इनकी विशुद्धिकी प्राचीनताकी सूचक है। यहाँ "विसविसे" का अर्थ हैं ऐसे गोलापूर्व जो ४०० वर्षसे विशुद्ध हैं, जिनके कुल और जातिकी चारित्रिक विशुद्धि ४०० वर्ष पूर्वसे यथावत् बनी हुई है, जो सज्जातित्व के धनी हैं, जिन्हें सप्तपरमस्थानोंमें प्रथम स्थान प्राप्त है । जो केवल २०० वर्ष पूर्व से अपनी चारित्रिक निर्मलता बनाये हुए रहे, वे श्रावक " वसविसे" और जो जाति तथा कुलकी विशुद्धिले १०० वर्ष पूर्व से ही विभूषित है वे 'पचविसे" नामसे विश्रुत हुए । आर्थिक सम्पन्नता ओर धर्म वात्सल्य स्थान गोला पूर्वान्वयकी आर्थिक सम्पन्नता और उसका धर्म वात्सल्य प्रशस्य तथा अनुकरणीय रहा है। इस अन्वयके धावकों द्वारा प्रतिष्ठापित मूर्तियों और मंदिरोंसे इस तथ्यका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इस अन्वय द्वारा की गयी प्रतिष्ठाओंका विवरण निम्न प्रकार है समय संख्या स्थान १ बहोरीबन्द संवत् ११४९ सं० ११७१ सं० ११९९ सं० १००० सं० ११९९ मऊ 10 १ १ जगत्सागर सं० १२०२ १ सं० १२०२ सं० १२०३ पपौरा अहार सं० १२०२ मं० १२०३ मं० १२०५ अहार १ १ मं० १२०९ सं० १२१३ सं० १२१३ सोनागिरि १ सं० १२१८ सं० १२३१ १ अहार महोबा नावई - नवागढ़ ( ललितपुर ) सं० १२३७ सं० १२१९ सं० १२०३ सं० १२८८ सं० १२०२ १ R उदमक T अहार मऊ गोलापूरब भेद त्रय प्रथम विसबिसे जान । और दर्शावसे, पचविसे, कहाँ कहाँ तक गुणवान || छतरपुर बहार अहार अहार अहार क्षेत्रपाल (ललितपुर) २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व ४५ - समय संख्या १ २ १ मध्यप्रदेशमें उनतीस अन्वयोंके श्रावकोंने प्रतिमा प्रतिष्ठान समारोह सम्पन्न कराये हैं । इन अन्वयोंमें सर्वाधिक २६ प्रतिमा प्रतिष्ठायें गोलापूर्वान्वय द्वारा कराया जाना उनकी आर्थिक सम्पन्नता और धर्मवात्सल्यका द्योतक है। पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीने भी इस अन्वयके धर्मवात्सल्य की सराहना की है । प्रतिमा प्रतिष्ठा जैसे धार्मिक कार्यों में इस अन्वयके धावक अन्य अन्वयोंका सहयोग करनेमें भी पीछे नहीं रहे। घी -सम्पन्नता ५२ ५ २ १ ५३ श्री सम्पन्नता के समान घी सम्पन्नता भी इस अन्वयकी उल्लेखनीय रही है। साहित्य-सृजन करने और कराने में भी ये पीछे नहीं रहे। कुछ साहित्यकार निम्न प्रकार है-शंकर - कवि शंकर अपभ्रंशके विद्वान् थे । इन्होंने "हरिषेण चरिउ" की रचना की थी । यह कृति १ १ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ : सरस्वती-धरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ संवर संवत् १५२६ के भाद्र मासमें शुक्ल पक्षकी परिवा, सोमवारके दिन पूर्ण हुई थी। कविके पिता पण्डित भीमदेव गोलापूर्व थे । उन्होंने लिखा है गोलापुव्ववंस सुपवित्त भीमदेउ पंडितवउ पुत्त संकर कया पुरह यह कहो दिक्खाकारण कीमउ चौपही संवत् पंद्रह मह हो गये वख्ति छव्वीस अधिक तह भए भादव सुदि परिवा ससिवार दिक्खा पखु तह अक्खियउसाउ अब यह कब्बु संपूरण भयउ सिरि हरिषेण संघ कहु जयउ ।।५५ पहण-ये सानपति गोलापूर्वके सुपुत्र थे। इन्होंने संवत् १५४० में "उत्तरपुराण" की रचना कर साहित्य-समृद्धिमें योगदान किया था ।५६ सुखदेव--ये गोलापूर्व विहारीदास पचविसेके सुपुत्र थे। इन्होंने संवत् १७१७ में “वणिप्रियाप्रकाश" की रचना की थी। इनके परिचयसम्बन्धी निम्न दोहे हैं गोलापूरब पचविसे वादि विहारीदास । तिनके सुत सुखदेव कहि वनिकप्रियाप्रकाश ॥ बरष संवत्सरके नाम । कवि करता सुखदेव कहि लेखक मायाराम ।।५७ ................ धनराज-ये शिवपुरीके राजनन्द गोलापूर्वके पुत्र थे। इन्होंने संवत् १६६४ के आसपास भक्तामरस्तोत्रका पद्यानुवाद कर उसका "भव्यानन्दपंचाशिका" नाम रखा था। यह सचित्र प्रति मुनि कांतिसागरके पास बताई गई है।८ खङ्गसेन-ये धनराजके चाचा जिनदासके पुत्र थे। इन्होंने (भक्तामरके) एक-एक काव्यपर पन्दहपन्द्रह पद्य बनाये थे ।५९ नवलशाह-इनके पिताका नाम सिंघई देवराय चन्देरिया और माताका नाम प्रानमती था। खटौरा इनकी जन्मभूमि थी। इनके तीन छोटे भाई थे-तुलाराम, घासीराम और खुमानसिंह । इनके पूर्वज भेलसीके निवासी थे। पूर्वजोंमें भीषम साहूने सं० १६९१ में प्रतिष्ठा कराई थी। उस समय ओरछानरेश जुझारसिंहका शासन था।६० इन्होंने सं० १८२५ में चैत्र शुक्ल पूर्णिमाके दिन “वर्द्धमान-पुराण" की रचना की थी।६१ वीसवीं शतीमें हुए इस अन्वयके निर्ग्रन्य मुनि:-इस शताब्दीमें मनि आदिसागरका नाम ध्यातव्य है। वे २८ मूलगुणोंके धारक थे । सरलता व और सन्तोषवृत्ति उनके जीवनके अंग थे । क्षु० चिदानन्दजी कठोर तपस्वी एवं ज्ञानप्रचारक थे। उनसे बुन्देलखण्ड बहुत प्रभावित रहा । क्षु० पद्मसागरजी अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी थे । इनकी समाधि द्रोणगिरिमें हुई थी। वर्तमानमें आचार्य विद्यासागरजी महाराजके संघस्थ मुनि क्षमासागरजी, मुनि गुप्तिसागरजी, ऐलक अभयसागरजी, क्षु० उदारसागर जी तथा अन्य संघस्थ मुनि विरागसागरजी, क्षु० कामविजयनंदिजीके नाम उल्लेखनीय हैं। विद्वान्–इस अन्वयके विद्वानोंमें सर्वाधिक वयोवृद्ध मनीषी पं० मुन्नालालजी न्यायतीर्थ रांधेलोय सागर एवं सिद्धान्ताचार्य पं. बंशीधर शास्त्री व्याकरणाचार्य बीनाके नाम उल्लेखनीय हैं। अनेक साहित्यिक रचनाओं द्वारा इन्होंने समाजको गौरवान्वित किया है। दर्शन एव न्यायके क्षेत्रमें काशी हिन्दू विश्वविद्यालयसे सेवानिवृत्त रीडर डॉ० दरबारीलाल Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ४७ कोठिया न्यायाचार्य सिद्धान्तके क्षेत्रमें षट्खण्डागम आदि सिद्धान्त-ग्रन्थोंके सम्पादक स्व० पं० बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री हैदराबाद, पुराणोंके सम्पादन तथा साहित्यिक रचनाओंके क्षेत्रमें डॉ० पन्नालाल साहित्याचार्य सागर, सम्पादन - प्रकाशनके क्षेत्रमें पं० मोहनलाल शास्त्री, जबलपुर और इतिहासके क्षेत्र में स्व० पं० परमानन्द शास्त्री, दिल्लीकी साहित्यिक सेवाएँ जैन जगतमें सदैव स्मरणीय रहेंगी । शासकीय शिक्षा संस्थाओं में विभागाध्यक्षोंके रूपमें डॉ० गोकुलचन्द्र वाराणसी, डॉ० भागचन्द्र भास्कर, नागपुर, डॉ० रतनचन्द्र जैन भोपाल, डॉ० पवनकुमार जैन सागर, तथा महाविद्यालयोंकी शैक्षणिक सेवामें संलग्न डॉ० वीरेन्द्रकुमार जैन छतरपुर, डॉ० भागचन्द्र " भागेन्दु" दमोह, प्रो० राजकुमार जैन ग्वालियर, डॉ० उदयचन्द्र जैन उदयपुर, डॉ० सनतकुमार जैन जयपुर, डाँ० श्रेयांसकुमार जैन जयपुर, डॉ० विनयकुमार जैन दमोह तथा भारतीय ज्ञानपीठके शोधाधिकारी पं० गोपीलाल "अमर" प्रभृतिकी शैक्षणिक सेवाओंके लिए समाज उन्हें सदैव स्मरण रखेगा । डॉ॰ बालचन्द्र जैन पुरातत्त्वके क्षेत्रमें ऐतिहासिक उपन्यास लिखनेके क्षेत्रमें श्री नीरज जैन, बोधकथाओंके लेखन क्षेत्रमें श्री नेमीचन्द्र पटोरिया श्रीमहावीरजी, चिकित्साके क्षेत्र में प्रो० डॉ० नरेन्द्रकुमार पटोरिया बम्बई, वैद्य कामताप्रसाद गुढ़ा, पत्रसम्पादनके क्षेत्रमें डॉ० नेमीचन्द्र जैन, इन्दौरकी सेवाओंसे समाज लाभान्वित है । प्राचार्यके रूपमें डॉ० शीतलचन्द्र जैन जयपुर, पं० जयकुमार साढूमल और पं० नेमीचन्द्र खुरईके नाम उल्लेखनीय हैं । प्रतिष्ठाचार्योंमें पं० गुलाचन्द्र पुष्प टीकमगढ़, पं० जगनप्रसाद टीकमगढ़, पं० विजयकुमार शास्त्री श्रीमहावीरजी, पं० हरिश्चन्द्र साहित्याचार्यं मुरैना, पं० धर्मचन्द्र शास्त्री ग्वालियर, पं० गोविन्ददास कोठिया अहार ( टीकमगढ़), स्व० पं० शीलचन्द्र साढूमलके नाम उल्लेखनीय हैं । राष्ट्रीय सेवा करनेवाले अधिकारियोंमें श्री सुरेश जैन आय ० ए० एस० संचालक लोकशिक्षण म० प्र० शासन भोपालका नाम वहुचर्चित है। कमिश्नर कन्हैयालाल संघीका नाम भी ससम्मान लिया जाता है । राजनीतिके क्षेत्र में भी इस जातिका योगदान है । श्री रतनलाल मालवीय भू० पू० केन्द्रीय उपमन्त्री, डॉ० नरेन्द्र विद्यार्थी, भू० पू० विधायक विध्यप्रदेश, श्री कपूरचन्द्र घुवारा भू० पू० विधायक म० प्र०, महेन्द्रकुमार फुसकेले, श्री जयन्तकुमार मलैया भू० पू० विधायक, श्री प्रकाशचन्द्र जैन उच्च शिक्षा राज्यमंत्री मध्यप्रदेश और सागरके श्री दुलीचन्द्र नाहर तथा श्री विजयकुमार मलैया दमोह की राजनैतिक सेवाओंसे समाज सम्मानित है । इस समाजकी महिलायें भी शिक्षा के क्षेत्रमें पीछे नहीं हैं । डा० आशा मलैया सागर, डॉ० पुष्पलता जैन नागपुर, डॉ० सुनीता जैन आरा, डॉ० सुषमा जैन सागर, डॉ० सावित्री दमोह, डॉ० कुसुम पटोरिया नागपुर, डॉ० सुधा इन्दौर और श्रीमती शारदा जैन जयपुरके नाम शिक्षाके क्षेत्रमें और विधि तथा न्यायके क्षेत्र में श्रीमती विमला जैन न्यायाधीश भोपाल तथा चिकित्सा के क्षेत्रमें डॉ० अलका जैनके नाम उल्लेखनीय है । व्यवसाय एवं उद्योगके क्षेत्रमें बालचन्द्रचन्द्र मलैया, दानवीरोंमें जैनजातिभूषण सि० कुन्दनलालजी सागरके नाम इस समाज के विकास में सदैव सम्माननीय रहेंगे । विकास गोला पूर्वान्वयके श्रावक गोल्लागढ़ वर्तमान ( गोलाकोट) से निकलकर सर्वप्रथम बुन्देलखण्डके अंचलों में ही फैले । आरम्भमें ये महोबा और अहार एवं पपौराको ओर गये । जो श्रावक महोबाकी ओर गये वे छतरपुरके निकटवर्ती स्थानोंमें बसते गये । उर्दमउ, जगतसागर, मऊ, खजुराहो आदि उनकी निवासभूमियां रहीं । कालान्तर में ये मलहरा, दमोह, कटनी और जबलपुर तथा Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ उनके आसपासके क्षेत्रोंमें जा बसे । जबलपुरके पास बहोरीबन्द भी इनकी आवासभूमि रही । इन्द्राना, मझगवां, सिहोरा. बाकल. रीठी और पनागर इस अन्वय के केन्द्र स्थल रहे हैं। यहांसे ये श्रावक पाटनकी ओर बढे हैं। दमोहसे जबलपुरकी ओर अभाना, तेंदुखेड़ा, कटंगो नगरोंमें जाकर ये रहने लगे। ___ जो श्रावक अहार, पपौराकी ओर आये थे वे जतारा होते हुए आगे बढ़े और हीरापुर, बक्स्वाहा, बम्हौरी, सुनवाहा, रुरावन, शाहगढ़, बरायठा, पिढ़रुआ, जुझार, बैरी, भेलसी, तिगोडा, धिनीची, पथारी, गूडर, गूगरा, पचरई, सोरई, करैया, पड़वार, दरगुवां, पाटन, विजावर, भरतपुरा, सेंधपा, लखारी, निबौदा आदि बुन्देलखण्डके अनेक ग्रामोंमें जाकर बस गये । जो श्रावक सागरकी ओर आये वे रहली, पटना, बरखेरा, बलेह, गढ़ाकाकेटा, सरखड़ी और बांसातारखेड़ा, रजपुरा ग्रामोंमें जाकर आजीधिका करने लगे। इस प्रकार टीकमगढ़, छतरपुर, दमोह, सागर, जबलपुर, शिवपुरी, ग्वालियर, इन्दौर आदि मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेशके झांसी, ललितपुर जिले आरम्भमें इस अन्वयके निवास स्थान बने। कालान्तरमें आजीविकाको दृष्टिसे बुन्देलभूमिको छोड़कर इस अन्वयके श्रावक शहडोल, कोतमा, चिरमिरी, मनेन्द्रगढ़, जैतहरी, बालाघाट, गोंदिया, नागपुर, बम्बई, दुर्ग, भिलाई, राजनांदगांव, राजिम, डोंगरगांव, जयपुर, वाराणसो कुरुक्षेत्र, उदयपुर, जबलपुर आदि भारतके विभिन्न नगरोंमें रहने लगे। विदेशोंमें भी इस अन्वयका आवास हो गया है। सन्दर्भ सूची १. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग २, माणिकचन्द्र जैनग्रन्थमाला, हीराबाग-बम्बई-४, सितम्बर १९५२ प्रकाशन, अभिलेख संख्या २०९, पृ० २६९ । २. इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्द ११, पृ. ३१० । ३. लेखकको स्व०५० परमानन्दजीसे प्राप्त ऊन (पावागिरि) का सं० १२५८ का लेख । ४. पितुरन्वयशुद्धिर्या तत्कुलं परिभाष्यते । मातुरन्वयशुद्धिस्तु जातिरित्यभिलप्यते ।। -महापुराण, पर्व ३९, श्लोक ८५ । ५. देसकुलजाइशुद्धा विसुद्धमणवयणकायसंजुत्ता । -आचार्यकुन्दकन्द, आचार्यभक्ति. गाथा प्रथम । ६. णवि देहो वंदिज्जइ णवि य कुलो णवि य जाइसंजुत्तो । को वंदमि गुणहीणो णह सवणो णेय सावओ होई॥ -वही, दर्शनपाहुड : गाथा २७ । ७. ज्ञानं पूजां कुलं जाति वलमृद्धि तपो वपुः । अष्टावाश्रित्यमानित्वं स्मयमाहर्गतस्मयाः ।। -आचार्थ समन्तभद्र, रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक २५ । ८. डॉ० राजेश्वरप्रसाद अर्गल, समाजशास्त्र, आगरा, ई० १९५३ प्रकाशन, पृ० २०१ । ९. मनुष्जातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा । वृत्तिभेदाहिताभेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ।। -महापुराण, पर्व ३८, श्लोक ४५ । . Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २/व्यक्तित्व और कृतित्व : ४९ १०. जातयोऽनादयः सर्वास्तत्क्रियापि तथाविधाः । यशस्तिलकचम्पू, ८.१७ । ११. सागार और अनगारधर्मामत । १२. पी० एन प्रभु, सोसल आर्गनाइजेसन, तृतीय संस्करण, पृ० २९४ । १३. डॉ० सत्यकेतु विद्यालंकार, समाजशरस्त्र, पृ० ३९३ । १४. डॉ० ऋषिदेव विद्यालंकार, मानवविज्ञान व नृतत्त्वशास्त्र, पृ० १०४-१०५ । १५. ब्राह्मणाः व्रतसंस्कारात क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । वाणिजोऽर्थार्जनान्याय्यात् शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् । आचार्य जिनसेन, महापुराण, पर्व ३८, श्लोक ४६ । १६. एपिग्राफिया इण्डिका, जिल्द २, पृ० २३२-२४०, प्रशास्ति-पंक्ति ३२-३३ । १७. प्राचीन शिलालेख, अहार. लेख कमांक ३९ । १८. डॉ० जगदीशचन्द्र जैन, भारतके प्राचीन तीर्थ, ई० १९५२ प्रकाशन, पृ०६६ । १९. वही, प्राकृत साहित्यका इतिहास, ई० १९६१, चौखम्बा संस्करण, १०२३७, ४२७ । २०. अनेकान्त, वर्ष २४, किरण १, पृ० ४३ । जैनसन्देश, शोधाङ्क-६, पृ० २१७ । २१. श्री अ०भा० दि० जैन गोलापूर्व डायरेक्टरी, वी० नि० सं० २४६८ प्रकाशन, प्रस्तावना पृ० ख । २२. जैन धातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग १, ले० क्रमांक ५०। दिगम्बर जैन डायरेक्टरी, पृ० १४१८-१४१९ । २३. गोलापूर्व डायरेक्टरी, प्रस्तावना, पृ० ग । २४. भट्टारक सम्प्रदाय, ले० क्र० २५२, २५७, ३१० । २५. डॉ०कोठियाका भाषण, ई० १९६६, अहार प्रकाशन, पृ० ३ । २६. जैनमित्र, वर्ष ४१, अंक ३। २७. गोलापूर्व डायरेक्टरी, प्रस्तावना, पृष्ठ ख । २८. वही, पृ० ख । २९. श्री वलभद्र जैन, भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ, भाग ३, पृष्ठ ७६ । ३०. इत्याधमनीन्द्रसन्ततिविधौ श्रीमूलसंघे ततो जाते नन्दिगणप्रभेदविलसददेशीगणे विश्रते ।। गोल्लाचार्य इति प्रसिद्धमुनिपोऽभूद्गोल्लदेशाधिपः पूर्व केन च हेतुना भवभिया दीक्षां गृहीतस्सुधी ॥ १ ॥ वीरनन्दिविवुधेन्द्रसन्ततौ नूत्नचन्दिल नरेन्द्रवंशचूडामणिः । प्रथितगोल्लदेशभूपालकः किमपि कारणेन सः ॥ २॥ जैनशिलालेख संग्रह, भाग १, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, ले० सं० ४०, ४७ पृष्ठ २५, ६०। ३१. भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, प० १७३-१७४ । ३२, एपिग्राफिया इण्डिका, जिल्द १, पृ० १३६ । ३३. भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, पृ० १७४ । ३४. श्री भा० दि० जैन गोलापूर्व डायरेक्टरी, प्रस्तावना, पृ० क । ३५. भारतके दि० जैन तीर्थ ( म० प्र०), पृ० ३९ । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० : सरस्वती-वरवपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ ३६. वही, पृ० ३९ । ३७. डॉ० दरवारीलाल कोठिया अभिनन्दग्रन्थ, पृ० ५१ । ३८. वही, पृ० ५२ । ३९. श्री अगरचन्द्र नाहटा, जैन सन्देश, शोधांक २५, पृ० १५ । ४०. वही, पृ० १६ । ४१. वही, पृ० १६ । ४२. वही, पृ० १५ । ४३. वही, पृ० १७ । ४४. पं० परमानन्द शास्त्री, जैन ग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह, भाग २. प्रशस्ति-संख्या १०४-१०५, पृष्ठ १२९, १३२-१३३। ४५. डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा, भाग ४, पृ० ३०५ । ४६. प्राचीन भारतका राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास, पृ० ६३८ । ४७. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ८, सूत्र ५, १३ । ४८. वर्ण-व्यवस्था, श्री शान्तिवीरनगर, श्री महावीरजी प्रकाशन, प० ४७ । ४९. गोलापूर्व डायरेक्टरी, वही, प्रस्तावना, पृ० ठ । ५०. श्री यशवन्त मलैया दमोह, अनेकान्त, वर्ष २५, किरण २, पृ० ६९ । ५१. आचार्य जिनसेन, महापुराण, भाग २, पर्व ३९, श्लोक ८५-८६ । ५२. लेखकका अभिलेखसंग्रह, ले० सं०६४ ।। ५३. अनेकान्त, वर्ष २४, किरण-१, और जैन सन्देश, शोधांक-६ । ५४. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, भाग १, पृ० ७६-८१ । ५५. अनेकान्त, वर्ष २४, किरण १, पृ० ४३, किरण-३ पृ० १०६ । ५६. जैनसन्देश, शोधांक-६ ।। ५७. अनेकान्त, वर्ष २४, किरण ३, पृ० १०६ । ५८. पं० परमानन्द शास्त्री, जैनधर्मका प्राचीन इतिहास, भाग २, पृ० ५४७ । ५९. अनेकान्त, वर्ष २४, किरण ३, पृ० १०७ । ६०. सोरह-सौ इक्यानवे अगहन शुभ तिथिवार । नृप जुझार बुन्देलकृत तिनके राज मझार ॥ -वही, पृ० १०८-१०९ । ६१. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा, भाग ४, पृ० ४४४-४४६ । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रतिम प्रतिभाके धनी • डॉ० पं० पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर आद्य व्याकरणाचार्य सरस्वतीके वरद् पुत्र पंडित बंशीधरजी जैन समाजके आद्य व्याकरणाचार्य हैं । 'गुरुणां गुरुः' गोपालदासजी वरैया और पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णीके सत्प्रयाससे मुरैना, वाराणसी, सागर, इन्दौर तथा कटनी आदि स्थानोंपर जैन विद्यालय तो स्थापित हो गये थे। पर उनमें व्याकरण, साहित्य और न्याय पढ़ानेके लिए ब्राह्मण विद्वानोंको ही नियुक्त करना पड़ता था। यह परावलम्बनता वर्णीजीको खटकती रहती थी, जिससे वे प्रतिभासम्पन्न छात्रोंको व्याकरण तथा साहित्य आदि पढ़नेकी प्रेरणा देते रहते थे। उसीके फलस्वरूप स्याद्वाद विद्यालयके छात्र बंशीधरजीने व्याकरण, परमानन्दजीने साहित्य, दरबारीलालजो कोठिया तथा महेन्द्र कुमारजीने न्यायदर्शन विषय लिया। सागरमें मैंने भी व्याकरणमध्यमाके बाद साहित्य विषय लिया। ये सब अपने-अपने विषयोंके आचार्य बने । फलस्वरूप वाराणसीको छोड अन्य जगहोंके विद्यालयोंमें इन विषयोंके अध्यापनका दायित्व जैन विद्वानोंने सम्हाल लिया। आद्य व्याकरणाचार्य होनेके साथ ही पं० बंशीधरजी, जैन न्यायके भी अच्छे विद्वान् हैं । सन् १९३० में न्यायतीर्थको परीक्षा देने जब वे कलकत्ता गये थे, तब मैं भी काव्यतीर्थकी परीक्षा देने के लिए उनके साथ कलकत्ता गया था। व्याकरणाचार्य होनेके बाद पं० वंशीधरजी कहों अध्यापनके लिए गये, पर दो-चार माहके बाद ही वे बीना आ गये और वहीं कपड़ेकी दुकान चालू कर लो। अपने बुद्धि-कौशलसे उन्होंने अपने व्यवसायको समुन्नत किया। पण्डितजीका विवाह बीनामें ही शाह मौजीलालजीकी पुत्री लक्ष्मीबाईके साथ हुआ था। मौजीलालजीके सन्तानके रूप में यही एक पुत्री थी, अतः उन्होंने अपने दामाद वंशीधरजीको अपने ही घर रखकर और पुत्रवत् उन्हें समुन्नत बनाया । भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्के मंत्री सम्भवतः सोलापुर अधिवेशनमें आप मंत्री चुने गये थे और मैं संयुक्तमंत्री बनाया गया। पण्डितजीने विद्वत्परिषदका कार्यालय अपने पास न रखकर मेरे पास रखा और मुझे मार्गदर्शन करते रहे। कार्य करनेका उत्साह था, जिससे विद्वत्परिषदका प्रभाव बढ़ा और उसके फलस्वरूप जगह-जगह अधिवेशन आमंत्रित होने लगे। विद्वत्परिषदने मथरा, सागर, बीना तथा कटनी आदि स्थानोंपर शिविर और f चाल की। पं० बंशीधरजीका जीवन प्रामाणिक जीवन है। ये घस देकर अपना कार्य सिद्ध नहीं करते। इसका एक प्रसंग मुझे याद है। . जब पूज्य वर्णीजी इटावामें विराजमान थे । तब विद्वत्परिषद्की कार्यकारिणी की बैठक वहाँ आमंत्रित हुई । बीना होते हए हम चार-छह सदस्य इटावाको चले। झांसीसे इटावा जानेवाली गाड़ी में बैठना कठिन लगा, तब सब फर्स्ट क्लासमें बैठ गये। आगे चलकर चेकरने जुर्मानाके साथ फर्स्ट क्लासका चार्ज माँगा, जो बहुत था। चेकरने अन्तमें कहा कि आप कुछ रुपये दे दें, मैं रसीद नहीं दूंगा। आप लोग आरामसे चले जावें । पण्डितजीने चेकरसे कहा कि आप रसीद दोजिये और पूरा पैसा लीजिये । रसीद लेकर पण्डितजीने पूरा रुपया अपनी जेबसे दिया । हमें लगा कि पण्डितजीने व्यर्थ में बहत रुपया दे दिया। पर प्रामाणिकता भी तो कोई महत्त्व रखती है। एक बार कटनीमें विद्वद्गोष्ठी थी। सागरसे कुछ लोग गये थे। सागरमें म्युनिसिपल चुंगी रहनेसे Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य सब वस्तुएँ मंहगी रहती हैं । कटनीमें चुंगी न रहनेसे सस्ती रहती हैं, अतः सागरके लोगोंने उपयोगी वस्तुएं कटनीमें खरीदीं। मैंने पं० बंशीधरजीसे कहा-मैं भी कुछ खरीद लाऊँ । पण्डितजीने कहा कि यहाँ सस्तो होनेसे खरीद कर तथा विस्तरमें छिपाकर ले जाओगे । सागरकी म्युनिसिपलटी, चुंगी लेकर आपके बच्चोंको फ्री शिक्षा देती है। वर्ष में कुछ थोडा-सा टेक्स देकर आपके शौचालयोंको साफ कराती है और नगरमें स्वच्छता तथा प्रकाशकी व्यवस्था निःशल्क करती है, इतने पर भी आप उसे चंगी नहीं देना चाहते । मेरी रायमें आप अपनी उपयोगी वस्तएँ सागरमें ही खरीदें तो ठीक होगा। मझें पण्डितजीकी राय उत्तम प्रतीत हुई। वैदुष्यको गहराई एक बार सागरमें एक माह तक चलने वाले शिक्षण-शिविरके अन्तिम दिनोंमें विद्वत्सम्मेलनका आयोजन किया गया उसका विषय था 'षटखण्डागमके तेरानवें सत्रमें संजद पदका अस्तित्व" । इसपर एक गोष्ठी बम्बईमें हो चकी थी। और उसके आधारपर आचार्य शान्तिसागरजीने ताम्रपत्रपर लिखी जानेवाली प्रतिसे "संजद पद" अलग करा दिया था। उस समय विद्वत्परिषदका वर्चस्व था, अतः यथार्थ निर्णय करनेके लिए कार्यालयमें पत्र आया। सम्मेलनमें पण्डित कैलाशचन्द्रजी, पं० बर्द्धमान शास्त्री, पूज्य वर्णीजी तथा अन्य अनेक विद्वान थे। सम्मेलनमें पं० बंशीधरजी और वर्धमानजीके बीच अच्छा तर्क-वितर्क हुआ। अन्तमें विद्वत्परिषदने तेरानवें सत्रमें "संजद" पदके अस्तित्वका समर्थन किया और प्रसन्नताकी बात रही कि ताडपत्रीय प्रतिमें भी उसका अस्तित्व मिल गया। आर्षमार्गके अनुयायो सोनगढ़की विचारधाराके आप कभी समर्थक नहीं रहे । निश्चय और व्यवहारनय एवं निमित्त और उपादानको चर्चा आप अनेकान्तके आधयसे हो करते हैं। आपके द्वारा लिखित जैन शासनमें 'निश्चय और थ्यवहार" नामक ग्रन्थ विद्वत्परिषद्के द्वारा पुरस्कृत है ।। __ आचार्य शिवसागरजीके चातुर्मासके समय खानिया जयपुरमें स्व० हीरालालजी पाटनी निवाईके सौजन्यसे उभय पक्षीय विद्वानोंको एकत्रित कर तत्त्वच का आयोजन किया गया था। इस आयोजनमें पं० मणिकचन्द्रजी न्यायाचार्य, पं. बंशीधरजी, न्यायालंकार, पं० मक्खनलालजी, पं० कैलाशचन्द्रजी, पं० फूलचन्द्रजी, पं० जीवन्धरजी, पं० रतनचन्द्रजी मुख्तार तथा पं० पन्नालालजी सोनी आदि अनेक विद्वान् पधारे थे। मैं भी गया था। लिखित चर्चा होती थी। सोनगढ़पक्षको ओरसे पं० फूलचन्द्रजी प्रधान थे और दूसरे पक्षसे पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य प्रमुख थे। दस दिन तक चर्चा चलती रही। विद्वानोंका अभीक्षणज्ञानोपयोग दर्शनीय था। प्रकरण लम्बा है। संक्षेपमें मैं यही कहना चाहता हूँ कि इस चर्चाके निष्ठापनमें पं० बंशीधरजीने पूर्ण मनयोगसे कार्य किया। घरमें पितृतुल्य श्वसुर शाह मौजीलालजीका स्वर्गवास होनेपर भी वे स्थानीय चर्चासे विरत नहीं हए। तथा च के तीन दौर समाप्त हो जानेपर भी उनकी लेखनी अपने लक्ष्यसे विरत नहीं हई। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्वतंत्रता-संग्रामके समय आपने निर्भय हो राष्ट्रीय आन्दोलनमें भाग लिया, जेल गये और वर्तमानमें सागर जिलेके स्वतंत्रतासंग्राम सेनानियोंमें आपका नाम गौरवके साथ लिया जाता है । श्री भारतवर्षीय दि. जैन विद्वत्परिषद्के अध्यक्ष सन् १९६५ में पंचकल्याणक-प्रतिष्ठाके समय सिवनीमें होनेवाले विद्वत् परिषदके जनरल अधिवेशनके स्वतन . Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ५३ अध्यक्ष थे। अध्यक्षीयपदसे दिया गया आपका भाषण विद्वत् समूहमें समादृत हुआ था। इसी अधिवेशनमें भी गोपालदासजी वरैयाका शताब्दी-महोत्सव मनानेका निश्चय किया गया। फलस्वरूप डॉ० नेमीचन्दजी शास्त्री. आराके सम्पादकत्वमें विद्वत् परिषद में "गोपालदास वरैया स्मृतिग्रन्थ' प्रकाशित किया। शताब्दीसमारोह दिल्ली में स्वर्गीय साह शान्तिप्रसादजीकी अध्यक्षतामें सम्पन्न हुआ था। यह ग्रन्थ इतना लोकप्रिय सिद्ध हुआ कि उसकी सम्पूर्ण प्रतियाँ शीघ्र ही समाप्त हो गयीं। श्रावस्ती पंचकल्याणकके समय होनेवाला नैमित्तिक अधिवेशन भी आपकी ही अध्यक्षतामें सम्पन्न हआ था। विद्वत्परिषदके सभी अधिवेशनोंमें उसके सदस्य बड़ी रुचिसे भाग लेते थे। सदा जागरूक ८४ वर्षको अवस्थामें भी आप समाज-हितमें जागरूक हैं। दुकानका कार्य पुत्रोंने सम्हाल लिया है। उस ओरसे निश्चित हो आप साहित्य-साधनामें लीन रहते हैं । मैंने देखा है कि आप प्रातः चार बजेके पूर्व ही उठकर तथा स्नानादिसे निवृत हो अपने अध्ययन और लेखनके कार्यमें लग जाते हैं। वीर प्रभुसे प्रार्थना है कि यह सरस्वतीका वरद पुत्र स्वस्थ रहता हुआ देश एवं समाजका दीर्घकाल तक मार्गदर्शन करता रहे। वन्दनीय व्यक्तित्वके धनी •श्री नीरज जैन, सतना बीना नगरमें प्रवेश करते ही तिराहेसे जैन मंदिरकी ओर चलनेपर बायें हाथ एक सामान्य-सी कपड़ेकी दुकान है। दुकानकी गादीपर कपड़ोंके थानके बजाय आगमग्रन्थोंका विस्तार हो और सादगी भरा. ऊँचा पूरा, एक क्षीण-काय वृद्ध पुरुष उस वातावरणमें एकाग्रतापूर्वक, सिर झुकाए अपने लेखनमें दत्त-चित्त दिखाई दे जाय, तो किसीसे भी पूछनेकी आवश्यकता नहीं है। वही हैं सिद्धांताचार्य पण्डित बंशीधर व्याकरणाचार्य । लगभग पचासी साल पहले बुन्देलखण्डके एक निपट देहातमें जन्मा हुआ बालक वंशीधर शैशवसे ही ज्ञान-पिपासु रहा । अनुकूल साधनोंके अभावमें भी कैसे उसकी यह ज्ञान-यात्रा आगे बढ़ती रही, इसका विवरण एक रोचक कथासे कम नहीं है। उस यात्रामें एक ओर जहाँ कष्ट-साध्य साधनाका दर्शन होता है, वहीं दूसरी ओर सांसारिक महत्त्वाकांक्षाओंको पीछे ढकेल कर सरस्वतीको सेवाके लिए आगे बढ़नेका दढ संकल्प भी अनायास झलकता है। जैन विद्याकी विलुप्त प्राय स्थितिमें, रूढ़ियोंसे जकड़े हुए और अज्ञान-अंधकारसे भरे बुन्देलखण्डमें जिन्होंने ज्ञानकी ज्योति प्रज्ज्वलित की, उन प्रातःस्मरणीय युगपुरुष श्री गणेशप्रसादजी वर्णीका दिव्य अवदान ही बंशीधरके लिए भी प्रश्रय-वितान बनकर छा गया । जिस संतका पारस-स्पर्श पाकर राहके अनेक मटमैले कंकड़ धीरे-धीरे कून्दन बनते चले गये, उसी पावन स्पर्शने बंशीधरको भी अज्ञसे विज्ञ बना दिया। पूज्य वर्णीजीके द्वारा बनारसमें स्थापित स्याद्वाद् महाविद्यालयमें एक बार प्रवेश क्या मिला, बंशीधरकी ज्ञान-पिपासा बढ़ती ही चली गई । जैनदर्शन शास्त्री, साहित्यशास्त्री, व्याकरणाचार्य और न्यायतीर्थको परीक्षाएँ एकके बाद एक शानदार ढंगसे उत्तीर्ण करनेके बाद भी ज्ञानार्जनकी तृष्णा अतृप्त ही बनी रही। शायद यह पिपासा उन्हें किन्हीं सूदुर ऊँचाइयों तक ले भी जाती, परन्तु तभी 'घर कारागृह, बनिता बेड़ो और परिजन जन रखवारोंने" मिलकर उन्हें बाँध लिया। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ स्वाधीनता-संग्राम अभी जीवनके संघर्षोंसे सामना हुआ ही था कि भारतमाताके मक्ति-संग्रामका बिगुल पूरे जोरसे बज उठा। कुछ दिन पहले अपनोंका जो आग्रह और गृहस्थीका जो आकर्षण उन्हें ज्ञान-साधनासे खींचकर बनारससे बीना ले आया था, मातृभूमिकी पुकारके सामने वह आकर्षण भी अशक्त हो सिद्ध हुआ। पच्चीस-छब्बीस सालकी युवावस्थामें अपनोंकी सारी चिन्ता छोड़कर बंशीधर स्वतंत्रता-संग्राममें कद पडे । देशको चिन्ता अपनी सारी चिन्ताओंसे ऊपर हो गई और मातृभूमिकी पुकारके सामने घर गृहस्थी की सारी मनुहार बिखर कर रह गई । चाहे १९३१ का असहयोग आन्दोलन हो या १९३७ के एसेम्बली के चुनाव हों, १९४१ का व्यक्तिगत सत्याग्रह हो या १९४२ का 'भारत छोड़ो आन्दोलन हो, बंशीधरने तन, मन और धन सब कुछ उस महायज्ञमें होम करते समय कोई संकोच नहीं किया। जैसी निष्ठा और समर्पणके साथ उन्होंने ज्ञानकी आराधना की थी, वैसी ही निष्ठा और समर्पणके साथ मातभूमिकी सेवामें भी उन्होंने अपने आपको नियोजित कर दिया । नगर कांग्रेस-कमेटीकी अध्यक्षतासे लेकर प्रान्तीय कांग्रेस-कमेटीकी सदस्यता तक उन्हें जब, जहाँ, जो काम सौंपा गया उसे उन्होंने अपने व्यक्तिगत स्वार्थोसे परे, एक अनोखी गरिमाके साथ निभाया । सन् १९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलनमें पण्डित बंशीधरजीकी भूमिका इतनी स्पष्ट रही, उनका योगदान ऐसा अनुकरणीय रहा और उनका सेवा-संकल्प इतना दृढ़ रहा कि वे अपने ही साथियोंमें उदाहरण बनते चले गए। कितनोंने उन विषम परिस्थितियोंमें उनसे प्रेरणा प्राप्त की और कितने घरोंमें उनकी सहायतासे मनोबलके दीप जलते रहे, इसकी कोई सूची न कभी बनी, और न बन सकेगी। जहाँ सेवक ही मौन-व्रती हो वहाँ सेवा-कार्योका लेखा-जोखा हो भी कैसे सकता है। आज तो रिवाज बदल गए है । देशसेवा एक लाभजनक व्यापार बनकर रह गई है। परन्तु १९३१ से १९४६ तकके पच्चीस साल स्वाधीनता-संग्रामके ऐसे साल थे, जब इस यज्ञमें आहुतियाँ तो थीं परन्तु जयकारे नहीं थे, मालाएँ नहीं थीं। समर्पित करनेके लिए तो बहुत कुछ था, परन्तु उसके बदले में आत्म-संतोष ही एक मात्र उपलब्धि मानी जाती थी। सागर और नागपुरके जेलोंमें बिताया गया बंदी जीवन हो या अमरावती जेलमें सही गई दुर्दम यातनाएँ, पण्डित बंशीधरका अपराजेय व्यक्तित्व कहीं तनिक भी झुका नहीं। जेलकी इन यात्राओंने उन्हें "बसुधैव कुटुम्बकम्' के नये पाठ पढ़ाये। छुआछूत और दहेज जैसी सामाजिक कुरीतियोंके विरुद्ध जूझनेका साहस और संकल्प प्रदान किया। यहींसे उनके व्यक्तित्वमें एक नया निखार प्रारम्भ हुआ। बंशीधरजोके जीवनका एक चमकदार पहलू यह भी है कि उन्होंने स्वाधीनता-संग्रामकी अपनी सेवाओंको भुनानेका कभी विचार तक नहीं किया। उस योगदानके उपलक्ष्यमें किसी प्रतिफलके लिये वे अपने प्रमाणपत्र हाथमें लेकर कभी सत्ताधीशोंके द्वारपर दण्डवत् करने नहीं गये। उन्होंने यह मान लिया कि स्वतंत्रता प्राप्तिके साथ ही वह लड़ाई समाप्त हो गई है, और यही सोचकर उन्होंने अपने आपको सेवाके दूसरे कार्यों में नियोजित कर लिया। इसीलिए प्रदेशमें जब सत्ताका सदावर्त खुला और लोग तरह-तरहके जुगाड़ करके उसमें आगे बढ़नेकी कोशिशें करते दिखाई दिये, तब जो इने-गिने आस्थावान और गैरतमन्द लोग उस पंक्तिसे पृथक् रहे, उनमें पण्डित वंशोधरजी बहुत आगे थे। मूक-सेवाकी यह प्रवृत्ति ही उन्हें देशसेवाकी इस दिशामें जितना आगे ले गई थी, सरस्वतीकी सेवाके क्षेत्रमें भी उतना ही आगे बढ़ाती जा रही है। प्रतिफल और पुरस्कारकी कोई आकांक्षा नहीं है, कहीं किसी पदका कोई व्यामोह नहीं है, शायद इसीलिए आज जीवनके संध्याकालमें भी वे वैसे ही सक्रिय हैं और उतनी ही निष्ठा और लगनके साथ अध्ययन-मनन, चिन्तन और Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २/ व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ५५ लेखनमें संलग्न रहते हैं। आज वर्षोंसे यही उनका जीवनव्रत है और इससे निष्पन्न आत्म-संतोष ही उनका स्व-अजित पुरस्कार है। संस्थाओंकी सेवा भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्के इतिहासमें पण्डित वंशीधरजीकी अध्यक्षताका काल गरिमाके साथ अंकित है । गुरु गोपालदास बरैयाका शताब्दी-समारोह उसी बीच आयोजित हआ और उसकी सफलतामें पण्डितजीका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमालाके मंत्रीके नाते उन्होंने उस संस्थाको निरन्तर आगे बढ़ानेका प्रयास किया। उनके पश्चात् डॉ०५० दरबारीलालजी कोठियाके कार्यकालमें विकासको वह गति बनी रही और संस्थाने स्थायित्वकी ओर एक लम्बी यात्रा तय की। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिये कि पूज्य वर्णीजीके समर्पित शिष्यों और उनके भक्तोंके परिश्रम और सहयोगसे जो संस्था सरस्वतीकी सक्रिय सेवा कर रही थी, वह अब मौन है । सोनगढ़-विचारधाराका खण्डन जब सौराष्ट्रमें सोनगढ़से एकान्तकी आँधी उठी और समाजके मूर्धन्य माने जाने वाले कतिपय विद्वानोंका एक स्वार्थ-प्रेरित समुदाय, आगमकी अवहेलना करता हुआ उस आँधीमें बह चला, तब उस विषम कालमें बंशीधरजीके व्यक्तित्वका वह पुराना जझारू रूप फिर साकार होकर सामने आया । खानिया तत्त्वचर्चाके छद्मको अनावृत करनेका उन्होंने बीड़ा उठाया। इस बातकी पण्डितजीने कभी कोई चिन्ता नहीं की कि इस दिशामें लेखन और प्रकाशन से लेकर वितरण तक वे नितांत अकेले ही खड़े हैं। उसी छोटी-सी दुकानमें बैठकर उनका चिन्तन चलता रहा और लेखनी अविराम गतिसे दौड़ती रही। वे बहुत जल्दी, शायद आठ बजेके पहले ही सो जाते हैं और पिछले पहर दो-ढाई बजे उठकर अपने लेखनमें जुट जाते हैं । वर्षोंसे बिना रुके, और बिना थके उनकी साधनाका यह क्रम अनवरत चला आ रहा है। इसीका फल है कि उनके द्वारा प्रणीत साहित्यकी सूची प्रतिवर्ष लम्बी होती जा रही है। एक दिन यमुनामें विषहरे नागका उस बंशी वालेने जैसे मर्दन किया था, वैसे ही मिथ्या मान्यताके फणधरका मर्दन करनेका प्रयास यह मनस्वी बंशीधर अपनी आसंदीपर बैठकर निरन्तर कर रहा है। पण्डितजीका यह पुरुषार्थ इस पृष्ठभूमिमें और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि सोनगढ़ विचारधारासे विरोध रखने वाले विद्वान् तो समाजमें अनेक हैं, पर उस दिशामें अपना समय और साधन लगाकर लेखन/प्रकाशन करने वाले बहुत बिरले हैं। सैद्धांतिक आधारपर सप्रमाण लेखनी चलाने वाले तो और भी कम हैं । "आ बैल मुझे मार" की चाल कोई चलना नहीं चाहता। इस संदर्भ में पं० बंशीधरजीका कृतित्व सदा आदरपूर्वक याद किया जाता रहेगा। साहित्यका सृजन "खानिया तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा' लिखकर पण्डितजीने आगमका वह पक्ष सामने रखा है, जिसे कुछ लोग प्रयास-पूर्वक दबानेकी चेष्टामें नाना प्रकारके प्राणायाम कर रहे हैं। 'जैनशासनमें निश्चय और व्यवहार' पुस्तकके माध्यमसे पंडित बंशीधरजीने वस्तु-स्वरूपका सहज और सर्वमान्य निरूपण करते हुए यह सिद्ध कर दिया है कि व्यवहारकी सर्वथा अनुपयोगिता मान लेने पर जीवनमें कितनी बड़ी विसंगतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। निश्चय साध्य है और व्यवहार उसका साधक है, नयोंकी ऐसी मैत्रीके बिना ज्ञानकी साधनामें एक पग भी आगे बढ़ना सम्भव नहीं है । पण्डितजीकी तीन पुस्तकें-'जनदर्शनमें कार्यकारणभाव और कारक व्यवस्था', 'पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भो', तथा 'भाग्य और पुरुषार्थ', ऐसी पुस्तकें हैं जिनके माध्यमसे उन्होंने आजकी अनेक विवक्षा Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ विहीन और मिथ्यात्व-पोषक एकान्त स्थापनाओंका न केवल निषेध किया है वरन पूर्व पक्षकी मान्यताओंको खण्ड-खण्ड करके विखेर दिया है। विशेषता यह है कि पण्डितजीने अपने लेखनमें हर जगह सबल और सार्थक शास्त्रीय-सन्दर्भ उद्धरणके रूपमें प्रस्तुत किये हैं। उनके अर्थ करते हुए कहीं भी कल्पनाका आश्रय या हठाग्रहका सम्बल उनके लेखनमें दिखाई नहीं देता । यदि अनाग्रही मनसे उनके लेखनको पढ़ा जाय तो इसमें कोई सन्देह नहीं है कि बड़ा-से-बड़ा विरोधी भी प्रभावित होगा और अपनी मान्यताओं पर पनविचार करने के लिये विवश हो जाएगा । परन्तु यह तभी सम्भव है जब हमारी लौकिक लाभकी आकांक्षा कुछ ढीली पड़े और मानका विसर्जन होकर मार्दवकी मद्ता हमारे मन में अवतरित हो। जब भी ऐसा होगा, जैनशासनके लिए निश्चित ही वह बड़ा शुभ समय होगा। "जैनतत्त्व मीमांसाको मीर्मासा" पण्डित फलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीकी मौलिक पुस्तक “जैनतत्त्वमीमांसा के प्रत्युत्तरमें, उनकी भ्रामक स्थापनाओंका खण्डन करके आगमकी मान्यताओंको स्थापित करनेका उद्देश्य लेकर लिखी गई पुस्तक है । अपनी जीवन-संगिनीके चिरवियोगके अवसर पर उन्होंने दान में कुछ द्रव्य निकाल कर उसे एक ट्रस्टका रूप दिया है । उसी ट्रस्टकी ओर से वे अपने साहित्यका प्रकाशन करते हैं और उसमेंसे कुछ भेंट स्वरूप और कुछ लागत मूल्य पर सुपात्र पाठकोंके हाथों तक पहुँचाते रहते हैं। कुछ अन्य संस्थाओंने भी पण्डितजोकी कुछ पुस्तकें प्रकाशित की है। उनका लेखन उत्सुकतासे पसन्द किया जाता है और चावसे पढ़ा जाता है। मंगल मनीषा जीवनका अधिकांश भाग जैनशासनकी सेवामें लगानेके उपरान्त आज भी पण्डित बंशीधरजी पूरी तरह सक्रिय, सावधान और सेवासंलग्न हैं। परिवार तथा परिग्रहके प्रति उनका विशेष ममत्त्व कभी नहीं देखा गया । इधर कुछ वर्षोंसे उन्होंने स्वयंको अपने ही भीतर समेंटनेका अभ्यास भी किया है । सघन अंधकार में निष्कम्प शिखावाले दीपककी तरह वे अपने परिकरके बीच भी, अपनी शारीरिक अनुकूलताओंके अनुरूप, साधनामें दिन-रात संलग्न हैं। मैं समझता है कि इस अभिनन्दनके बहाने उनके जीवनव्यापी श्रमको कागजके पन्नों पर उतारकर हम स्वयं अपना ही अभिनन्दन करनेकी चेष्टा कर रहे हैं । ध्येयकी प्राप्तिके लिए ऐसा एकांत-समर्पण, ऐसी मूक साधना और ऐसी अनवरत संलग्नता जिसे भी प्राप्त हो जाय उसका व्यक्तित्व वन्दनीय और जीवन अभिनन्दनीय हो होगा। आइये उनके स्वस्थ्य दीर्घ-जीवनकी कामना करें। ख्याति-लाभ-मानसे परे • प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला, वाराणसी झांसी मण्डल बुन्देली वीरता और मराठी क्रान्तिका २५ मई १८५८ तक गढ़ था। और यदि इस दुदिनपर कर्नल ह्य रोज रास्ता बदलकर मदनपुर-घाटीकी ओर मुड़कर शाहगढ़ राजकी नूतन राजधानी मडावरापर सोरईकी सूनी गढ़ीपर कब्जा करके आगे न आता, तो मालथौन-घाटी 'धोर्रा' पर बन्देलावीर वानपुरनरेश मर्दनसिंह और शाहगढ़नरेश वख्तबलीसिंहके सेनापतित्वमें फिरंगी सेनाका सफाया करके, रणचण्डी माता लक्ष्मीबाईको दक्षिणी आकमणसे; सहज ही मुक्त कर लेते । तथा क्रान्तिकारियोंका साथ देनेके लिये भेजे अकेले पड़े ओरछाके दीवान नत्थूखांके सफेद झण्डा दिखाकर देशद्रोहसे अनायास ही रोक लेते एवं मुग़ल साम्राज्य-विनाशके समान अग्रेजी-साम्राज्यकी भ्रणहत्या हो गयी होती। किन्तु 'अनहोनी न होय कदाचित्' ही तथ्य रहा। तथा १९४७ तक बुन्देला वोरभूमि अंग्रेजी क्रूर दमन और उपेक्षाका लक्ष्य रही। खण्डहर Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २/ व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ५७ किलों और गढ़ियोंसे व्याप्त इस अंचलको वर्षा ऋतु आनेपर चौपालोंमें आल्हाकी गूंजने और ढोलककी हुँकारने बुन्देली भावनाकी वेलको सूखने नहीं दिया। मध्यमवर्ग दि० जैन समाज 'इत जमना उत नर्मदा' अंचल में श्रम तथा शस्त्रप्रवण लोदी, ठाकूर एवं किसान और शास्त्ररत ब्राह्मण और विपणन एवं संस्कृति प्रधान श्रमणोंकी मुख्यता है। फलतः श्रमण एवं ब्राह्मण (वैदिक) धर्मोके आगार ही शिक्षा, स्वास्थ्य एवं समाजसंचालनके केन्द्र रहे हैं । दोनों धर्मोके अनुयायियोंमें नित्य देवदर्शन, त्याग, सेवा और स्वाध्यायको परम्परा है । श्रमण अन्य वर्गोंकी अपेक्षा आर्थिक दृष्टिसे अधिक समर्थ हैं। अतएव गाँव-गाँवमें मन्दिरोंके समान शिशु-शालाएँ चलाना भी इनके नित्य कार्योंमें माना जाता है । धर्म-समदष्टि इतनी अधिक है कि एक घर मुसलिम होनेपर भी ताजिये ऐसे निकलते हैं जैसे पुरा गांव ही मुल्लिम हो। इस सौमनस्यके कारण श्रमण-पाठशालाओंमें ही बहुधा गांव भरके शिशुओंका विद्यारम्भ होता है। इस प्राग्वैदिक परम्पराकी यह देन है कि वैष्णव घरमें उत्पन्न गुरुवर गणेशप्रसाद श्रमण-संस्कृतिके बौद्धिक जागरणके अग्रदूत हो सके। और प्रथम राष्ट्रपति (महामहिम राजेन्द्र बाबू) तथा गांधीजीके अहिंसा-सत्याग्रहके प्रथम मार्शल बिनोवाजीके द्वारा राष्ट्रसन्तके रूपमें मान्य हुए । 'नास्तिको वेदनिन्दकः'का आजोवन ब्रह्मचारी गणेशप्रसाद वर्णीने शिष्यरूपसे विसर्जन कराके काशी में स्याद्वाद महाविद्यालयको स्थापना की। और सर्बप्रथम वैश्य-न्यायाचार्य होकर पूरे बुन्देला-अंचलको श्रमण-पाठशालाओंकी दीपमालिकासे चमका दिया। तथा पूरे देशकी पगयात्रा करके मस्लिम-साम्राज्यके कारण फारसी (उर्दु नहीं) पढ़नेवाले पंजाब ही क्या; पूरे उत्तर भारतके मध्यमवर्गको प्राकृत-संस्कृतकी ओर आकृष्ट किया। स्याद्वाद-महाविद्यालयका स्वर्णयुग गुरुवर गणेशप्रसाद वर्णों पद-प्रतिष्ठासे सर्वदा एवं सर्वथा विमुख रहे। इस यथार्थ विरक्तिका ही यह सुफल था कि स्याद्वाद महाविद्यालयके संस्थापक होकर भी उन्होंने प्रथम-अधिष्ठाता बाबा भागीरथजीको बनाया था। तथा इनके बाद धर्म-सेवामें उतरे अभिजात (श्री उमरावसिंह रईश) युवक आजीवन ब्रह्मचारी ज्ञानानन्दजी तथा ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीको इस महापदपर प्रतिष्ठित किया था। अपने सूधारक विचारोंके कारण शीतलप्रसादजीके हट जानेपर कानपुरके राष्ट्रीय कांग्रेसके अधिवेशनमें योगदानके साथ इस श्रमणसंस्कृतिके तथा अपने गुरुकुलके नैतिक भारको सम्हाला था । विशेषता यही थी कि अध्यक्ष, मंत्री, कोषाध्यक्ष आदि वैध पदोंका भार देशके विद्याप्रेमी श्रीमानोंके ऊपर ही रहता था। तथा वे भी इनके लोकोत्तर व्यक्तित्वके कारण सेवा तथा त्यागको मुख्य मानकर चलते थे। तथा काशी विश्वविद्यालयकी स्थापनाके पूर्व ही यह विद्यालय दक्षिण तथा उत्तरके छात्रोंका अनुपम केन्द्र बन गया था। यही कारण था कि राष्ट्रपिता उक्त विश्वविद्यालयको स्थापनाके समय इस विद्यालयमें ही आकर ठहरे थे। तथा राष्ट्रीय स्वातन्त्र्य-संग्रामके स्कन्धावार (छावनी) काशी विद्यापीठकी योजना इसकी विशाल छतपर ही साकार हुई थी। तथा स्वदेशी-आन्दोलनका ओंकार भी ब्र० ज्ञानानन्दजीके 'अहिंसा प्रेस' से यहीं हुआ था । सन् '२५ से ३९' तकके युगमें इस विद्यालयने न्याय, साहित्य, सिद्धान्त आदिके अनेक आचार्य देशको दिये थे। यद्यपि व्याकरण शुष्क एवं क्लिष्ट विषय माना जाता था, किन्तु इस स्वर्णयुगमें, अंग्रेजों द्वारा १८५८ में सर्वप्रथम आक्रान्त सोरई (शाहगढ़ राज) के ही किशोर वंशीधरजीने सानन्द लेकर प्रथम वैश्य-व्याकरणाचार्य देश और समाजको दिया था। प्रतिभा-परीक्षण गरुवर गणेशवोंकी दृष्टि समाजको सर्वशास्त्रोंके विद्वान देना थी। फलतः व्याकरण लेनेपर बंशीधर २-८ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ गुरुओंके सतिशय स्नेह-भाजन हुए थे। आचार्यमें व्याकरण-दर्शन पढ़ाये जानेपर गुरुओं तथा इनको स्वयं यह आभास हुआ कि यह युवक तो दर्शन और न्यायके योग्य क्षयोपशमशाली है। इस प्रतिभा-परीक्षणके बाद बंशीधरजीने स्वयं स्वाध्यायद्वारा जैन न्यायके मानक महाग्रन्थोंका अध्ययन किया। और काशी विश्वविद्यालयसे जैनदर्शन शास्त्री एवं बंगाल संस्कृत ऐसोशियेशनसे न्यायतीर्थ परीक्षा ससम्मान उत्तीर्ण करके सर्वांग विद्वत्ताको प्राप्त किया। तथा प्रारम्भिक किशोर सहाध्यायियोंकी प्रतिभा-परीक्षणको उनकी हितकामनासे अपनाया था। इन पंक्तियोंके लेखकको १९२८ में गुरुवर गणेशवर्णीने श्रमण-शिक्षासंस्था-भ्रमणप्रक्रमसे पकड़ स्याद्वाद महाविद्यालयकी लोकोत्तर-छात्रता वंशीधरजी, परमानन्दजी तथा भैयाजी हरिप्रसादके आग्रहपर ही दिलायी थी, क्योंकि उस समयतक छात्रावासमें एक भी स्थान रिक्त नहीं रहा था । एक दिन विद्यालयकी छत पर अभ्यास करते समय इन्होंने अष्टसहस्रीकी कारिका"हेतोरद्वैतसिद्धिश्चेद द्वैतं स्याद्धेतुसाध्ययोः । हेतुना चेद्विना सिद्धिः द्वतं वाङ्मात्रतो न किम् ।।" दिखायी और विशारद प्रथमखण्डके लघतम छात्रको इसका अनुवाद करनेको कहा। याद नहीं, अनुवाद कैसा, क्या रहा होगा? पर इन्होंने अपने न्यायतीर्थ-परीक्षाप्रपत्रके साथ उसका भी न्याय-प्रथमाका परीक्षा-प्रपत्र भरवा दिया। और उच्चकक्षा-छात्र पं० श्रतसागरजीकी कृपासे दो मासमें न्यायप्रथमाकी तैयारी करके न्यायशास्त्र रुचिकर बना सका था, जिसकी पूर्णा वह साहित्यशास्त्री (ग० सं० को०) तथा तृतीयवर्ष कला (का० वि० वि०) के साथ इनके समान ही न्यायतीर्थ (बं० सं० ए०) करके कर सका था। न्यायबुद्धि पं० बंशीधरजीकी न्यायप्रियता शास्त्र-अध्ययन तक ही सीमित न थी। अपितु वह प्रत्येक अनुचितके प्रतिरोधरूपसे प्रस्फुटित होती थी । इसका प्रथम प्रदर्शन मुझे १९२९ में विद्यालयमें ही देखनेको मिला था। विशेष बुद्धिमान् छात्रोंको योग्यतावृत्तियां भी मिलती थीं। फलतः विद्यालयमें यह नियम वन गया था कि एक-से-अधिक योग्यता-वृत्ति पानेवाले छात्रोंको भोजनशल्क पांच रुपया मा० जमा करनी होगी। संयोगात् छात्रोंने इसका उल्लंघन किया । और एक ऐसे ही छात्र ने झूठ भी नहीं बोला। फलतः उसे तत्कालीन उपअधिष्ठाताजीने छात्रावाससे पृथक् कर दिया । व्याकरणाचार्यने मांग की थी कि 'ऐसे सभी छात्रोंको पृथक किया जाय ।' इसपर उन छात्रोंको छोड़कर इन्हें ही पृथक कर दिया गया। किन्तु ये न्यायमार्गपर रहे और छात्रावास छोड़कर चले गये तथा बाहर रहकर भी अपने गुरुकुलके छात्ररूपसे ही व्याकरणाचार्य पूर्ण करके उसे गौरवान्वषित किया था। मनस्चिता संयोगात इनका विवाह एक सम्पन्न घरानेकी एकमात्र पुवीके साथ हुआ था। किन्तु व्याकरणाचार्य होते ही ये व्यावरके जैन सम्प्रदायी साधुओंको पढ़ानेके लिए आमंत्रित किये गये, तो इन्होंने ससुरालकी विपुल सम्पत्तिकी उपेक्षा करके अल्पवित्त आत्मभरताको ही वरीयता दी। तथा ससुरके एकमात्र संतानस्नेहकी भावनात्मक सुकुमारताका पालन करते हुए भी व्यवसायी-बुद्धिजीवी ही रहे। तथा परम आध्यात्मिक साधक पं० भागचन्दजी आदिके समान ग्राहक निवटाकर शारदा-साधनामें ही लगे रहे। युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः व्याकरणाचार्यजीका शब्दशास्त्रका पूर्ण अध्ययन तथा श्रमणधर्म-न्यायपारंगतता स्वान्तःसुखाय ही रही है । यह इनका पूर्वपुण्योदय था कि मूर्धन्य विद्वान् होकर भी इन्होंने जिनवाणीसे आजीविका कभी नहीं Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ५९ की है । और अपने अबाध ज्ञान और मननका जीव-उद्धार तथा परम्परया समाज-देश उद्धारके लिए ही उपयोग किया है। इसीलिए संकुचित मान्यताओंके अर्थप्रधान समाजमें ये प्रकाशस्तम्भका कार्य करते रहे हैं। पंचकल्याणकगजरथ आदि कालातीत प्रभावनाओंका ही प्रतिरोध आपके द्वारा नही हुआ है; अपितु लक्ष्मीके सामने शारदाको झुकानेवाले अपने प्रौढ़ सुधार-साथियोंका भी सुधार करनेमें वे अग्रणी रहे हैं। और द्रव्यानुयोगलोपके कारण अध्यात्महीन श्रमण-सम्प्रदायी एकाध साधु द्वारा केवल अध्यात्मके एकाध ग्रन्थके आधार पर ही अपनाये गये निश्चयकान्तका, दृव्यानुयोगके धनी श्रमणधर्मी प्रौढ़ विद्वानों द्वारा समर्थन किये जानेपर व्याकरणाचार्यजी अपने एकाकी प्रयास द्वारा सिद्धान्ताचार्यकी भूमिका निभा सके हैं। इन्होंने स्पष्ट कर दिया कि धर्मशास्त्री, कभी भी अर्थशास्त्री नहीं होता। और न ही वह व्यवहारैकान्ती होता है, चाहे व्यवहारैकान्ती स्वपक्षमें लानेके लिए ख्याति-लाभका भण्डार उसके सामने उडेल देवें । उसकी तो वादार्थी स्वामी समन्तभद्रके चरणनिन्होंपर चलकर "युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्' मात्र ही एक गति है, क्योंकि ऐसा करनेपर ही उसका इष्ट, प्रसिद्ध दृष्टका साधक होता है । अपनी इस प्रखर दृष्टिके कारण स्वजन एवं परिजनोंके विरोध करनेपर भी अपने राष्ट्रीय स्वातन्त्र्यसंग्राममें भी भाग लिया था। और १८५८ में धोखेसे आक्रान्त सोरंई (अब जिला ललितपुर) को भी अकेले ही सत्याग्रही बनाया था। अंचल, गुरुकूल और अन्य प्रकारोंसे वे लेखकके अग्रज हैं। अतः ख्याति-लाभ-मानसे परे इन एकमात्र श्रमण-पण्डितजीको प्रणाम ही करना समुचित है। साधना-पथके निष्ठावान पथिक श्री यशपाल जैन, दिल्ली मझे यह जानकर बड़ा हर्ष हुआ कि पंडित बंशीधर व्याकरणाचार्यका दीर्घकालीन सेवाओंके उपलक्ष्यमें सार्वजनिक सम्मान किया जा रहा है और उस शुभ अवसर पर उन्हें एक अभिनन्दनग्रन्थ भेंट किया जा रहा है। मैं उनका पूरे हृदयसे अभिनंदन करता हूँ और उनके उत्तम स्वास्थ्य तथा दीर्घायुकी प्रभुसे कामना करता हूँ। पंडितजी जैन समाजके उन इने-गिने विद्वानोंमेंसे हैं, जिन्होंने अपनी वाणी और लेखनीसे जैन समाजको असामान्य प्रेरणा दी है और जैन वाङ्मयको समृद्ध किया है। उनकी कई पुस्तकें जैन तत्त्व-ज्ञान, जैन तत्त्व-मीमांसा आदिके सम्बन्धमें बड़ी मूल्यवान सामग्री प्रस्तुत करती हैं। उनकी सब-से-बड़ी विशेषता प्रामाणिकता, विचारोंकी स्पष्टता और विवेचनकी मौलिकता है। मुझे पंडितजीके निकट सम्पर्क में आनेका अवसर नहीं मिला, किन्तु जब भी उनसे साक्षात्कारका सौभाग्य प्राप्त हआ है, उनकी सरलता और सादगीने मुझे बहुत प्रभावित किया है। विद्वत्ता प्रायः व्यक्तिको जटिल और अभिमानी बना देती है, परन्तु पंडितजीके जीवनको जटिलता और अभिमान स्पर्श नहीं नहीं कर पाये । उनकी विद्वत्ता किसी को भी आतंकित नहीं करती, उल्टे स्नेह और आदर उत्पन्न करती है। उत्तरप्रदेशके बुन्देली-भाषी सोंरई ग्राममें जन्मे पंडितजीको प्रारंभिक शिक्षा जन्म-स्थान पर हुई। अनंतर वह ११ वर्षकी अल्पायमें वाराणसी चले गये, जहाँ स्याद्वाद महाविद्यालयमें उनका नियमित शिक्षण हआ। और वहींसे वह व्याकरणाचार्य, साहित्य-शास्त्री, जैन-दर्शन-शास्त्री और न्यातीर्थकी उपाधिोंसे अलंकृत हुए । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ इतनी उपाधियाँ मिलना आसान बात नहीं थी। इसके पीछे उनका गहन अध्ययन, परिश्रमशीलता और लगन थी। किशोरावस्थाके ये गण उनके लिए अत्यन्त लाभदायक सिद्ध हुए। वह वराबर आगे बढ़ते गये और एक दिन उन्नतिके चरम शिखर पर पहुँच गये । आज उनको गणना जैन समाजके उन विद्वानोंमें होती है, जिनके नाम उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। ___पंडितजी चाहते तो अपनेको जैन दर्शन और जैन साहित्य तक ही सीमित रख सकते थे, किन्तु समाजको भी उन जैसे निःस्पृही और निःस्वार्थ सेवककी आवश्यकता थी। उन्होंने जैन और जैनेतर समाजोंकी चेतनाको जाग्रत करनेके लिए सतत प्रयत्न किये । वह पुरातन पीढ़ीके थे, किन्तु उन्होंने यह नहीं माना कि जो कुछ अच्छा है, वह केवल प्राचीनताको देन है । उन्होंने वर्तमान उपलब्धियोंको भी देखा और उनमें जो ग्राह्य था, उसे ग्रहण किया। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्राचीन परम्पराओं, आचार-विचारों और संस्कृतिके प्रति प्रतिबद्ध होते हुए भी उन्होंने आधुनिक विचारोंके सम्बन्धमें उदार दृष्टिकोण रखा और यथासम्भव दोनों विचार-धाराओंके बीच समन्वय स्थापित किया। पंडितजीका जीवन बहुआयामी है । वह विद्वान हैं। समाजसेवी हैं, लेकिन साथ ही राष्ट्र-सेवी भी हैं । जिस समय देशमें नमकसत्याग्रहके फलस्वरूप एक नई चेतना जाग्रत हई और सारा देश पूर्ण स्वतन्त्रताकी शपथ लेकर मैदान में आ खड़ा हुआ, पंडितजी भी पीछे नहीं रहे । देश-सेवाके कार्यों में सक्रिय योगदान दिया और जब सन १९४२ में ९ अगस्तको 'भारत छोड़ो' आन्दोलनका सूत्रपात्र हआ तो पंडितजी राष्ट्र-सेवकोंकी प्रथम पंक्तिमें आ खड़े हुए, जेल गये। सागर, नागपुर और अमरावतीकी जेलोंमें उन्होंने नौ-दस माह कितने कष्ट में बिताये, उसकी कहानी आज भी दिल दहला देती है। पंडितजी नगर कांग्रेस-कमेटीके अध्यक्ष और मध्यप्रांतीय कांग्रेस कमेटीके सदस्य भी रहे। जो मुक्त हस्तसे देता है, उसका भण्डार कभी रिक्त नहीं होता, उल्टे समृद्ध होता है। कहते हैं, सर्वोत्तम दान विद्यादान होता है । पंडितजीने अनेक पुस्तक तो लिखी ही. विभिन्न विषयोंके दर्जनों लेख भी लिखे । गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला और भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषदके वर्षों तक मंत्री रहे । सिवनी तथा श्रावस्तीके विद्वत्परिषद-अधिवेशन उन्हींको अध्यक्षतामें सम्पन्न हए । इन अधिवेशनोंमें उन्होंने जो भाषण दिये, उन्हें सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध रह गये । उन्होंने कई पत्रोंका सम्पादन भी किया। छः दशकसे वह लगातार समाज, साहित्य, धर्म और संस्कृतिकी सेवामें संलग्न है। अध्यापनमें उन्होंने अधिक समय नहीं लगाया, अधिकांश समयका उपयोग अध्ययन और लेखनमें किया। वह मौलिक चिन्तक है और लेखनमें भी उनको विशेष गति और मति है। यह जैनदर्शन और जैन साहित्यके अधिकारी विद्वान् है । मैंने एक स्थान पर लिखा है कि साधक कभी थकता नहीं, कभी रुकता नही । पंडितजी एक महान् साधक हैं। चौरासी वर्षकी वयमें आज भी वह सक्रिय हैं । उनका चिन्तन और लेखन अबाध गतिसे चलता रहता है। सेवाके प्रति समर्पित व्यक्तित्वकी विशेषता होती है कि वह अपने जीवनकी प्रत्येक श्वास और प्रत्येक घड़ीका सदुपयोग करता है। एक क्षण भी प्रमादमें नहीं खोता। पंडितजीका सम्पूर्ण जीवन सेवाके लिए समर्पित रहा है। इसीसे समयका उनके लिए बड़ा सूल्य है। पंडितजो अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे है, अनेक सम्मान उन्हें मिलते रहें है, लेकिन यह निविवाद सत्य है कि उनसे पंडितजा नहों, वे स्वयं गोरवान्वित हुए हैं। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ६१ पंडितजीसे कब-कब और कहाँ-कहाँ मिलना हुआ, अब याद नहीं आता, किन्तु उनके चेहरेकी सौम्यता और वाणीकी मृदुलताकी छाप अब तक मेरे मन पर बनी हुई है । आज सार्वजनिक जीवनमें मल्योंका बड़ा ह्रास हो गया है। जैन समाज भी उसका अपवाद नहीं है। पंडितजीका सर्वोत्तम अभिनन्दन यही होगा कि जैन समाज उनकी कठोर साधनाका स्मरण करे, उससे प्रेरणा लें, और अपने आचरणसे जैनधर्म, संस्कृति और दर्शनके उज्ज्वल स्वरूपको प्रस्तुत करके एक नये युगकी स्थापनामें सहायक हों। "जीवेम शरदः शतम्" -पंडितजी शतायु हों। विलक्षण प्रतिभाके मनीषी • प्रो० उदयचन्द्र जैन, जैन-बौद्धदर्शनाचार्य, पूर्व रीडर, का० हि० वि० श्रीमान् पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य एक लब्धप्रतिष्ठ वयोवृद्ध विद्वान् हैं। आपमें अनेक ऐसी विशेषताएँ हैं जिनके कारण जैन समाजमें ही नहीं, किन्तु भारतीय समाजमें भी आपका विशिष्ट स्थान है। विद्वत्समाजमें तो आप एक प्रतिभाशाली मूर्धन्य विद्वान् के रूपमें सुप्रसिद्ध हैं। आपने प्रातः स्मरणीय परमपूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी द्वारा संस्थापित श्री स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसीमें रहकर ११ वर्ष तक उच्चकोटिका अध्ययन किया है। आप जैनसमाजके प्रथम व्याकरणाचार्य है। व्याकरणाचार्यकी उपाधि प्राप्त करना कोई साधारण बात नहीं है । साहित्य, दर्शन, न्याय आदि विषयोंमें व्याकरण अति कठिन विषय है। ऐसे कठिन विषयमें आपने प्रवीणता प्राप्त करके यह सिद्ध कर दिया है कि दढ़ संकल्प वाले व्यक्तिके लिए कोई कार्य कठिन नहीं होता है। अतः व्याकरणाचार्यकी उपाधि आपकी विशिष्ट प्रतिभाकी सूचक है। जैनदर्शन ओर जैनसिद्धान्तके मूर्धन्य विद्वान होनेपर भी आपने शिक्षा-समाप्तिके अनन्तर किसी विद्यालय आदिमें सर्विस नहीं की, किन्तु बीनामें स्वतंत्र व्यवसायको अपनाकर वणिकपुत्रोंमें भी अपना श्रेष्ठ स्थान बना लिया । ऐसा कहा जाता है कि सरस्वती और लक्ष्मीका विरोध है। परन्तु आपने इस कथनको असत्य सिद्ध कर दिया है । आप सरस्वतीके वरदपुत्र होकर भी लक्ष्मीके भी परम प्रिय पुत्र बने । उच्चकोटिके विद्वान् होनेके साथ ही आप स्वतन्त्र विचारक और लेखक भी हैं। व्यवसायमें संलग्न .. व्यक्ति प्रायः चिन्तन तथा लेखनके लिए बहुत कम समय निकाल पाता है। परन्तु आप इसके अपवाद हैं। यही कारण है कि आपकी लेखनोसे 'जैन शासनमें निश्चय और व्यवहार', 'जनदर्शन में कार्यकारणभाव और कारकव्यवस्था' आदि ऐसी अनेक कृतियोंका सृजन हुआ है जो महत्त्वपूर्ण होनेके साथ ही पठनीय और मननीय हैं। इतना ही नहीं, अभी ८४ वर्षकी ववस्थामें भी आप लेखन तथा चिन्तनके कार्य में बराबर संलग्न रहते हैं। जैन विद्वानोंमें स्वतंत्रता सेनानी प्राय: बहुत-कम मिलेंगे। किन्तु आपने स्वतंत्रता सेनानी होनेका महान गौरव प्राप्त किया है । सन् १९४२ के 'भारत छोड़ो' आन्दोलनमें आपने सक्रिय भाग लेकर सागर, नागपुर और अमरावतीको जेलोंम ९-१० मास तक अनेक कष्टोंको शान्तभावसे सहन किया है। समाज-सेवा, देश-सेवा और साहित्य-सेवा तीनोंको आपने अपने जीवनका प्रधान लक्ष्य बनाया है। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ सन् 1965 में आप भा० दि. जैन विद्वत्परिदके अध्यक्ष चुने गये। फरवरी मासमें सिवनीमें आपकी अध्यक्षतामें विद्वत्परिषद्का अधिवेशन हआ। उस समय आपने श्रीमान् कोठियाजीको लिखा कि वाराणसीके सब विद्वानोंको साथ लेकर सिवनी आओ। कोठियाजी आदि विद्वानोंके साथ मैं भी सिवनी गया। विद्वत्परिषद्की कार्यकारिणो समितिके चुनावके समय सिवनी अधिवेशनमें आपने मुझे विद्वत्परिषद्का संयुक्तमंत्री बना लिया / और प्रसन्नता है कि कुछ वर्षों तक विद्वत्परिषद्के संयुक्तमंत्री पदपर रहकर कार्य करनेका मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। __ आप हित, मित और प्रियभाषी है। जब आप विद्वत्परिद्के अध्यक्ष थे तब आपने स्नेहपूर्वक एक दिनके लिए बीना बुलाया। उस समय आपने अनेक विषयों पर विद्वत्तापूर्ण चर्चा की थी तथा मुझे भी अनेक परामर्श दिये थे / आपका स्नेहपूर्ण आतिथ्य तो सदा स्मरणीय रहेगा। आप श्रीमान कोठियाजीके आदरणीय चाचाजी है। इसलिए आप जब कभी कोठियाजोके यहाँ वाराणसी आते थे तब आपसे मिलकर परम प्रसन्नता होती थी। अप्रैल सन् १९८७में ललितपुर में श्रद्धेय डॉ० कोठियाजीके कुलपतित्वमें हई जैन न्याय-विद्यावाचनाके समय भी आपसे मिलनेका सुअवसर प्राप्त हुआ था। __ हर्ष है कि ऐसे महान् विद्वान्की सार्वजनिक सेवाओंके उपलक्ष्यमें उन्हें अभिनन्दनग्रन्थका समर्पित किया जाना एक अत्यन्त स्तुत्य कार्य है / इस सुखद अवसरपर उनकी दीर्घायुकी कामना करता हुआ उन्हें अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करता हूँ / बीसवीं सदीके गम्भीर-दार्शनिक विद्वान् * प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन, स्नातकोत्तर संस्कृत-प्राकृत विभाग, ह° दा० कालेज, आरा जो स्वतन्त्र मौलिक विचारोंके धनी तथा स्वाभिमानी प्रवृत्तिके विद्वान् होते हैं, वे किसीके आदेशनिर्देश और पराधीनताको स्वीकार नहीं करते। अमेरिकाके एक महान दार्शनिक इमर्सनके विषयमें कहा जाता है कि उसने नगरसे दूर एक जंगली-सरोवरके किनारे एक झोपड़े में रहना और अपनी आजीविकाके लिए छोटा-मोटा कृषि कार्य करते हुए तत्त्व-चिन्तन एवं लेखनकार्य तो पसन्द किया, किन्तु राजकीय-सेवा या अन्य संस्थाओंकी पराधीनतापूर्ण सेवामें रहना पसन्द नहीं किया। यही स्थिति है हमारे मनस्वी महापण्डित श्रद्धेय 50 वंशीधरजी शास्त्री व्याकरणाचार्यको भी। श्रद्धेय पण्डितजी जैनेतर व्याकरणाचार्योंमें प्रथम पंक्तिके तथा जैन समाजमें व्याकरणाचार्योंका खाता खोलनेवाले आद्य व्याकरणाचार्य है। न्यायाचार्य, साहित्याचार्य एवं सर्वदर्शनाचार्य आदि तो जैन समाजमें अनेक तैयार हुए, किन्तु व्याकरणाचार्य इने-गिने ही मिलेंगे / उसका मूल कारण है कि वह विषय प्रायः सभीको नीरस एवं दुरूह लगता है / इस कारण बहुत कम लोगोंकी गति उसकी ओर हो पाती है। पण्डितजीके जीवनका जब यह दृढ़ संकल्प बना कि यदि समाजको ठोस सेवा करनी हो तो समाजके वेतन-भोगी सेवक मत बनो। उन्होंने वहीं किया भी। समाजके प्रतिष्ठित पदोंको प्राप्त करनेका उन्होंने कभी प्रयत्न नहीं किया। उसके बदले में उन्होंने बीना (सागर) जैसे छोटे-से नगरको ही अपनी कर्मभूमि मानकर वहीं पर कपड़ेके छोटे-से व्यापारको अपने परिवारकी आजीविकाका साधन बनाया तथा व्यापारिक कार्योंसे बचे हुए समयको अपने स्वाध्याय एवं प्रवचन में लगाया / Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2/ व्यक्तित्व तथा कृतित्व : 63 पण्डितजीके कारण बुन्देलखण्डका अत्यन्त लघु नगर "बीना" भारतकी विद्वत्ताके मानचित्रमें सुखियोंभरा स्थान पा गया / समाजमें जब भी शास्त्रार्थ होता या कोई समस्या उठ खड़ी होती, सभीका ध्यान बीनानगरके उस एकान्त साधककी ओर चला जाता और निश्चय ही बहाँसे उसका समाधान निकल आता। इन पंक्तियोंका लेखक तो पपौराजी विद्यालयके अध्ययनकाल (सन् 1938) से ही उनका नाम सुनता चला आ रहा था / संयोगसे मेरे आद्य विद्या-गुरु श्री पण्डित डॉ० दरबारीलालजी कोठिया न्यायाचार्यके सौजन्यसे वे पपौराजीके एक नैमित्तिक अधिवेशन में पधारे। अत्यन्त साधारण, किन्तु शुद्ध खद्दरधारी पण्डित बंशीधरजीको अपने बीच पाकर हम लोग कृतकृत्य थे। हमारी छात्रसभामें भी उनका उद्घोधक भाषण हुआ। शब्दावली तो मुझे स्मरण नहीं, किन्तु उसका सारांश यही था कि "जिनवाणी एवं जैन समाजके उद्धारका भार नवीन पीढ़ी पर है। इसके साथ ही राष्ट्र के निर्माणको जिम्मेवारी भी उन्हीं पर है। अतः छात्रोंको अपने अध्ययनके साथ-साथ स्वस्थ रहकर समाज एवं राष्ट्रकी सभी समस्याजोंको समझकर अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार उनके उद्धार एवं निर्माणको दिशामें भी कार्य करने की योग्यता हासिल करना चाहिए।" सन् 1957 के आसपास मैंने डॉ० हीरालालजी एवं डॉ० ए० एन० उपाध्येके आदेशसे हस्तलिखित अप्रकाशित ग्रन्थोंपर शोधकार्य प्रारम्भ किया था। उस प्रसंगमें मैं महाकवि रइधकी पाण्डुलिपियोंकी खोजमें राजस्थान एवं गुजरातके बाद बीना पहुंचा था। वहीं मेरी उनसे प्रथम साक्षात् भेंट थी। मैंने उसी समय परखा कि नवीन उन्ननीषु पीढ़ीके प्रति वे कितने सहृदय, एवं सहयोगी-प्रवृत्तिके सज्जनोत्तम व्यक्ति हैं / भले ही वहाँके शास्त्र-भण्डारमें मुझे रइधूकी कोई भी प्रति नहीं मिली, किन्तु उसकी खोजसे लेकर आतिथ्य तककी उनकी स्नेह-छाया मुझे अवश्य मिली। जैन समाजमें कर्म-सिद्धान्तके ज्ञाता दो विद्वान् सर्वविदित हैं-सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री एवं सिद्धान्ताचार्य पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य / दोनों ही शुद्ध खद्दरधारी, दोनों ही पक्के गाँधीवादी, दोनों ही जैन-सिद्धान्तके मर्मज्ञ, अभूतपूर्व प्रतिभाके धनी, दोनों ही मनस्वी एवं बेजोड़ स्वाभिमानी और दोनों ही राष्ट्रकी सेवामें समर्पित और स्वतन्त्रता-प्राप्तिके आन्दोलनकारी होनेके कारण जेलकी यातनाओंके भोगी। दोनोंकी इतनी प्रगाढ़ मैत्री कि पूज्य पं० फछचन्द्रजो कहा करते थे कि हम दोनोंकी विचार-धारामें इतना मतैक्य है कि किसी भी प्रश्नके उत्तरमें भाषामें भले ही हीनाधिक अन्तर आ जाय, किन्तु विचारोंमें कभी भी अन्तर नहीं आ सकता / दार्शनिक-मान्यताको लेकर सम्भवतः यही स्थिति आगे नहीं चल सकी / 'जयपुर इसकी स्पष्ट झलक मिलती है। किन्तु मतभेद रहते हुए भी मनभेदकी स्थितिको वे दोनों ही पसन्द नहीं करते / यही उनकी महानता एवं बड़प्पन है / पण्डितजीका जीवन एक खुली पुस्तकके समान है। वे व्यापारी अवश्य हैं किन्तु अणुव्रतोंके नियमोंके प्रतिपालक भी हैं / यह आश्चर्यका विषय है कि व्यापार करते हुए भी जैन-दर्शनके गहन रहस्योंका उद्घाटन वे कैसे कर पाते हैं ? किन्तु निरपेक्षवृत्तिसे व्यापारमें लगे हुए पण्डितजी उसे आश्चर्य नहीं मानते, क्योंकि वे उस पथके पथिक हैं, जिसे भारतके सुप्रसिद्ध जौहरी एवं चिन्तक रायचन्द्र भाई (महात्मा गाँधीके गुरु) जैसोंने भी अनुसृत किया है। बुन्देलभूमि प्रारम्भसे हो साधक विद्वानोंको खानि रही है। उसकी प्रथम पंक्तिके विद्वानोंमें पण्डित बंशीधरजीका नाम चिरकाल तक प्रेरणाका अजस्र-स्रोत बना रहेगा। उन्हें हमारा शतशः नमन हैं / वे शतायुः हों। | Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्र एवं समाजकी अतुलनीय विभूति * डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन, मानद निदेशक अ० शो० पी०, उज्जैन खादीकी स्वच्छ श्वेत नुकीली टोपी, खादीके कुर्तेके ऊपर जवाहर जाकेट एवं खादीकी धोती, आँखों पर चश्मा, भोला चेहरा और सतर्क नेत्र, संक्षेपमें यह है हमारे आदरणीय पण्डित बंशीधरजीका बाह्य व्यक्तित्व और आन्तर व्यक्तित्व है उनका स्वाभिमानपूर्ण आगमिक एवं दार्शनिक चिन्तनसे ओतप्रोत तेजस्वी रूप। आप कहेंगे पण्डितजीका नाम बंशीधर क्यों है ? बंशीधरका अर्थ होता है श्रीकृष्ण / इनका नाम तो जैनेन्द्र, ऋषभ, अभिनन्दन, सत्यंधर आदि होना चाहिए था। इसका उत्तर यह है कि आजसे लगभग सौडेढ़-सौ वर्ष पूर्व समाजमें जैन पण्डित नहीं थे। जन्म और मृत्यु के समय ब्राह्मण पण्डित ही हमारे शरण थे। यही कारण है कि हमारे वयोवृद्ध पण्डित-जनोंके नामोंपर उन्हींकी संस्कृतिकी छाप है। जैसे पण्डित गणेशप्रसादजी वर्णी, बाबा भगीरथजी वर्णी, पं० गोपालदासजी बरैया, पं० देवकीनन्दनजी, पं० जगन्मोहनलालजी, आदि / उसी परम्परामें हमारे अभिनन्दननीय पण्डितजीका नाम पं० बंशीधर रखा गया है। आदरणीय पण्डितजीने स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसीमें जैनधर्म एवं दर्शनका अध्ययन समाप्त कर समाज, साहित्य एवं पत्रकारिताके लिए अपनी सेवाएँ अर्पण करते हुए, राष्ट्रीय स्वतन्त्रता-संग्राममें भी योगदान किया। मैं आदरणीय पण्डितजीका जीवन जैन पण्डितोंके लिए आदर्श मानता हूँ। इसका कारण यह है कि उन्होंने विद्याको आर्थिक आधार न बनाते हुए स्वतंत्र व्यवसाय द्वारा अपनी आजीविका चलायी / इसी कारण उन्हें समाजमें विशिष्ट सम्मान प्राप्त हुआ। आदरणीय पण्डितजी चौरासी वर्षकी आयुमें निष्प्रमादभावसे अपने जीवनके आदर्शोको पूर्ण करने में संलग्न हैं, यह बात आजके विद्वानोंके लिए अनुकरणीय है। वेदोंमें "जीवेम शरदः शतम" कहकर सौ वर्षों तक जीनेका आदर्श रखा गया है। साथ ही "अदीनाः स्याम शरदः शतम्" कहकर सौ वर्षों तक मनोबलको ऊँचा रखनेकी बात भी कही गयी है। हम आदरणीय पण्डितजीके शतायु होनेकी कामनाके साथ उनकी आनिःश्रेयस् आध्यात्मिक समृद्धिको हृदयसे कामना करते हैं। विद्वत्ता और सहृदयताके संगम .डॉ० रतनचन्द्र जैन, रीडर-भोपाल विश्वविद्यालय, भोपाल 'पंडित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य' यह नाम बचपन में अपने पिताश्री (पंडित बालचन्द्रजी प्रतिष्ठाचार्य)के मुँहसे सुना था। वे बड़े आदरसे यह नाम लिया करते थे। व्याकरणाचार्यजीकी विद्वत्ताकी धाक मेरे पिताजी के मन में बड़े गहरे पैठी थी। उनके बारेमें बार-बार चर्चा करके पिताजी संभवतः हमलोगोंको उन जैसा ही बननेकी प्रेरणा देते थे। बचपनमें एक बार उनके दर्शन भी पिताजीने सागरमें कराये थे। खद्दरकी धोती, कुर्ता और टोपीमें भव्य लग रहे थे। उस समय उनकी आयु लगभग पैंतालीस वर्ष रही होगी। दिव्य तेज मुखपर झलक रहा था। पिताजीसे वे अत्यन्त विनम्रतापूर्वक मिले थे। पिताजी अवस्थामें उनसे कुछ ज्येष्ठ थे / Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २/व्यक्तित्व तथा कृतित्व : 65 'व्याकरणाचार्य' उपाधि भी हमारे मनमें अत्यन्त श्रद्धा पैदा करनेवाली थी। संस्कृत-व्याकरणकी क्लिष्टतासे कौन अध्येता परिचित नहीं है। लोहेके चने हैं। ऐसे विषयमें जिसने आचार्यत्व प्राप्त किया हो वह अपनी अपूर्व मेधाके कारण कितना विस्मयोत्पादक, अतएव श्रद्धाका पात्र न होगा। पंडितजीने स्वतंत्रता संग्राममें भी भाग लिया था और जेल गये थे। संस्कृत और जैन सिद्धान्तके उद्भट विद्वानकी इस देशभक्ति और स्वातंत्र्यप्रियताका जब हमें बोध हुआ तब हमारा मस्तक गर्वसे ऊँचा उठ गया और श्रद्धा द्विगुणित हो गई। __ लम्बा अरसा बीत गया। सन् 1980 में सागर ( म०प्र० ) में पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराजके ग्रीष्मयोगके अवसर पर एक महानिबन्ध-प्रतियोगिताकी घोषणा हुई थी। विषय था 'मोक्षमार्गमें निश्चय-व्यवहारकी उपयोगिता।' मेरा निबन्ध इसमें पुरस्कारयोग्य एवं प्रकाशनार्थ पाया गया था। बादमें ज्ञात हुआ कि इसके तीन निर्णायकोंमेंसे एक व्याकरणाचार्यजी भी थे / इस विषयमें माननीय डॉ० दरबारीलालजी कोठियाने एक रोचक किस्सा सुनाया। मेरे निबन्धको प्रति जब व्याकरणाचार्यजीको प्राप्त हई तब उन्होंने 'निश्चय-व्यवहार' विषय देखकर अरुचिपूर्वक उसे वि०प० के कार्यालयको लौटा दिया, क्योंकि एक अरसेसे एक विशेष विचारधाराके अन्तर्गत निश्चय-व्यवहारका अत्यन्त गलत प्रतिपादन किया जा रहा था। इससे व्याकरणाचार्यजीका मन अत्यन्त विरस हो गया था / किन्तु आदरणीय डॉ० कोठियाजी द्वारा उसे अवश्य पढ़ने की प्रेरणा करने पर उसे उन्होंने कार्यालयसे पुनः मंगाया और उसे पढ़कर अत्यन्त प्रसन्न हए / उन्होंने अपने प्रतिवेदनमें इसे सर्वश्रेष्ठ घोषित किया / यहीसे पण्डितजीका नकटय प्राप्त हुआ। प्रतियोगिताका परिणाम घोषित होनेके लगभग चार माह बाद मुझे श्रद्धेय व्याकरणाचार्यजीका एक पत्र प्राप्त हआ, जिसमें लिखा था कि बीनाकेक सज्जन मेरे महानिबन्धको पस्तकरूपमें प्रकाशित करना चाहते हैं। यदि मैं इच्छक होऊँ तो शीघ्र उनसे आकर मिल / पण्डितजीका पत्र पाकर मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ। अपना अहोभाग्य समझा कि जैनदर्शनके एक वयोवृद्ध, मूर्धन्य विद्वान्ने मुझे अपने पास बुलाया है / मेंने पण्डितजीको अपने पहँचनेकी तिथि सूचित की और उनके पास बीना पहँचा। पहँचनेपर मैंने उनके चरणोंका स्पर्श किया / पण्डितजी बोले-'रतनचन्द्र, मुझे तुम्हारा निबन्ध बहुत अच्छा लगा। मेरा हृदय प्रसन्न हो गया / ' पण्डितजीने स्वयं चलकर स्नान वगैरहका स्थान बतलाया, अपने साथ भोजन कराया और अपने विश्रामकक्षमें ले जाकर विश्राम करनेके लिए कहा / साथ ही पूछा-'विश्रामके बाद दूध-चाय क्या लोगे ? जो लेना हो. निःसंकोच कहना, अपना ही घर समझना।' यह कहकर पण्डितजी दुकानमें चले गये / बाजारका दिन था। दुकानमें सहयोग देना था। पण्डितजीके इस अननुभतपूर्व वात्सल्यमय आतिथ्यसे मैं गद्गद हो गया। लगा जैसे अपने घरमें आ गया हैं। पण्डितजीके मानवीय व्यक्तित्वका साक्षात्कार कर मैं अपूर्व आनन्द और श्रद्धाके सागरमें डूब गया। विद्वत्ता और सहृदयताका अद्भुत संगम देखकर नेत्र सजल हो गये। पचहत्तर वर्षको अवस्थामें पण्डितजीकी दिनचर्या देखकर बड़ा आश्चर्य हआ। पण्डितजो रात्रिको नौ बजे सो जाते हैं और सुबह तीन बजे उठते हैं / उठकर स्वाध्याय और लेखन करते हैं / उन्होंने अधिकांश लेखन इसी समय किया है। यही समय उन्होंने मुझे चर्चा के लिए दिया था। मैं भी तीन बजे उठ गया। पण्डितजीसे चर्चा हई। उन्होंने मेरे निबन्धमें कुछ स्पष्टोकरण सुझाये। मैंने समाधानके लिए अनेक प्रश्न उनके सामने रखें। पण्डितजीने शान्तभावसे समाधान किया। पण्डितजोको समझानेको शैली अत्यन्त 2-1 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 : सरस्वती-वरवपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ सहृदयतापूर्ण है / जिज्ञासुकी समझमें न आनेपर वे खिन्न और उदासीन नहीं होते, अपितु बार-बार स्नेहपूर्वक समझाते हैं। मैंने उनसे कतिपय प्रश्नोंपर बहशः प्रश्न किये, किन्तु एक भी बार उत्तप्त नहीं हुए और बड़े शान्तभावसे बार-बार समझाते रहे / जिज्ञासुको सत्यकी अनुभूति करा देनेको कितनी उत्कट भावना है है पण्डितजीमें, यह मैंने अनुभव किया। पिछले कुछ वर्षोंसे जैन समुदायमें जो एकान्तवादी विचारधारा चल पड़ी है और पूज्य वर्णीजीके द्वारा स्थापित संस्थाओंमें अध्ययन करनेवाले पण्डितजनोंने भी उसमें शामिल होकर सिद्धान्तोंका आगमविरुद्ध प्रतिपादन किया है, उससे व्याकरणाचार्यजीको जितना खेद है उतना शायद किसी अन्य विद्वान् को हो / 'जयपुर (खानिया) चर्चा में आगमसम्मत विचारधाराकी पुष्टि करनेवाले विद्वानों में व्याकरणाचार्यजी प्रमुख थे। प्रतिपक्षने उक्त चर्चाका विवरण 'जयपुर तत्त्वचर्चा' नामसे दो ग्रन्थभागोंमें प्रस्तुत किया है। इसमें प्रतिपक्षने अपनी एकान्तवादी विचारधाराको ही सही ठहराया है। इसकी समीक्षा हेतु अनेक ग्रन्थोंकी रचनाका परमावश्यक, श्रमसाध्य एवं प्रशंसनीय कार्य व्याकणाचार्यजीने ही किया है / सत्यका आग्रह भगवान महावीर और महात्मा गाँधीका सच्चा अनुयायी ही कर सकता है। उसे लौकिक हानियोंकी परवाह नहीं होती। पण्डितजीने जिनवाणीकी जो प्रभावना को है वह स्वर्णाक्षरोंमें लिखी जाने योग्य है। पण्डितजीके प्रति मेरे मन में अगाध श्रद्धा इसलिए है कि उनमें कोरा पाण्डित्य नहीं है। उनके पास एक मृदु तथा वात्सल्यसे परिपूर्ण निर्भय हृदय भी है, जिससे उनका पाण्डित्य सफल हआ है। पण्डितजी दीर्घायु हों और स्वस्थ रहें, इस कामनाके साथ उन्हें मेरे कोटिशः नमन एवं श्रद्धा-सुमन समर्पित हैं। स्वाभिमानी विद्वान * डॉ० भागचन्द्र जैन भास्कर, अध्यक्ष, पालि-प्राकृतविभाग, नागपुर वि० वि० नागपुर 'सोरई' जैसे दूर-दराज़ गाँवमें जन्मे व्यक्तित्वने टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियोंपर चलकर वाराणसी में ज्ञानसाधना की और राष्ट्रीय तथा सामाजिक आन्दोलनोंके कठोर झंझावातोंमें झूलते हए, बीनाको अपना स्थायी निवास स्थान बनाया / इस लम्बी यात्राने उन्हें अनेक पड़ाव दिये, चिन्तन-मन्थन करनेके लिए और उसका निष्यन्द निकला स्वतन्त्रतापूर्वक अजीविकोपार्जन / इस निश्चयकी पृष्ठभूमिमें थी पं० जीकी स्वाभिमानी वृत्ति और आत्मविश्वासी प्रवृत्ति / वृत्ति और प्रवृत्तिके बीच घूमता हुआ उनका मानस तेजस्वी व्यक्तित्व, कभी थका नहीं, बल्कि अविराम नैतिक पथका निष्प्रमादी, परिश्रमो, पुरुषार्थी पथिक बनकर उसने विद्वानोंको श्रेणीमें अग्रगण्य बननेका सौभाग्य पाया / ___ स्वाभिमानी, पर अभिमानसे दूर, व्यापारी, पर लिप्सासे मुक्त, अध्यवसायी, पर कठघरोंसे कटे हुए पण्डिजीके व्यक्तित्वने नई पीढ़ीको जो समय-समयपर मार्गदर्शन दिया वह अपने आपमें अनूठा रहा है। पण्डितजीकी विद्वत्ता और सहजताका परिचय मुझे, प्रथम बार तब मिला, जब बीनामें जैनतत्त्वमीमांसा (श्री पं० फलचन्द्रजी द्वारा लिखित) का प्रथम बाचन हआ। लगभग सन 1958 में / उस विद्वत् समदायमें वे जिन महोंको अपने अकाटय तौके साथ उठाते थे. उनका परिहार सरल नहीं था। व्याकरणाचार्यको सिद्धान्तशास्त्रोंमें इतनी गहरी पैठ देखने लायक ही बनती थी। संगोष्ठीकी जीवन्त उपयोगिता उनके ही परिश्रमका फल थी। . Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : 67 उसके बाद तो पंडितजीका स्नेह मुझे काफी मिला। श्रीलंकासे वापिस आनेपर उन्होंने बीनामें जो मेरा सत्कार किया कराया उससे तो मैं और भी अभिभूत हो गया। वस्तुतः पण्डितजोकी गुणग्राहिताने उनकी स्वाभिमानी वृत्तिमें चार चाँद लगा दिये। अध्यापन कार्यसे दूर रहकर भी विद्वत्ताको पनपाये रखनेका जो सुन्दर उदाहरण पंडितजीने प्रस्तुत किया है वह वेमिसाल है, अनुपम है। उनके इस उदाहरणका अनुकरण यदि उस समयके विद्वानोंने किञ्चित भी किया होता तो पण्डित-परम्पराको जो अपमानके घट समाजने जहाँतहाँ पिलाये, उसका साहस उसे नहीं हो पाता। और पण्डित-परम्पराको अक्षुण्ण बनाये रखनेकी समस्या भी मुखर नहीं हो पाती / दीनता और नैराश्यसे उभरने तथा स्वाभिमानके साथ जीवन यापन करते हुए शैक्षणिक और सामाजिक सेवा करनेके लिए स्वतन्त्र व्यवसायमें जुट जानेके अतिरिक्त कोई दूसरा सुन्दर विकल्प नहीं है। पचासी वर्षकी अवस्थामें भी पण्डितजी पूर्णतः स्वस्थ हैं। यह प्रसन्नताका विषय है। वे स्वस्थ रहें और अपने ज्ञानपुञ्जका प्रकाश प्रसृत करते रहें, यही हमारी मनोकामना है / संस्मरण * शाह अमृतलाल जैन, बीना संकलन * डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल श्री शाह अमृतलालजी जैन/बीना निवासी/आयु 67 वर्ष व्यवसाय किरानाके व्यापारी / श्री अमतलालजी पण्डित बंशीधरजीके साले हैं। बीनानिवासी होनेके कारण पिछले 60 वर्षोंसे पण्डितजीके घनिष्ट सम्पर्क में रहे तथा उनकी प्रत्येक गतिविधिको सूक्ष्म दृष्टिसे देखा है / जब मैंने पण्डितजीके विषयमें अपने संस्मरण सुनानेको कहा तो कहने लगे पण्डितजी आरम्भमें ही कठोर अनुशासन प्रिय थे. अपने सिद्धान्तोंके पक्के हैं तथा उनमें जरा भी ढिलाई पसन्द नहीं करते थे / यद्यपि मैं रिश्तेमें उनका साला है लेकिन उनका मेरे साथ भी वैसा ही अनुशासन प्रिय व्यवहार रहता था, जैसा अन्य व्यक्तियोंके साथ रहता था / आरम्भमें तो मुझे उनका व्यवहार जरा सख्त लगता था लेकिन कुछ समय पश्चात् उनका वही व्यवहार हमारे लिए अनुकरणीय बन गया। प्रश्न-आपने तथा आपके परिवारके अन्य सदस्योंने पण्डितजीके जीवनका किन-किन दिशाओंमें अनुकरण किया। उत्तर-पहले तो शाहजी प्रश्नका उत्तर क्या दिया जाये, इसको सोचने लगे। लेकिन कुछ देर बाद कहने लगे कि हमारे पूर्वज तो केवल अपने व्यवसायमें ही संलग्न रहा करते थे। न सामाजिक झगड़ोंमें पड़ते और न राजनीतिसे वे कोई सम्बन्ध रखते थे। किन्तु पण्डितजीकी सतत प्रेरणा एवं मार्गदर्शनसे हम लोग सामाजिक राजनैतिक एवं सार्वजनिक क्षेत्रोंमें कार्य करने लगे। तथा अपना व्यापार व्यवसाय करते हुए सामाजिक संस्थाओंके सभी पदोंपर कुशलतापूर्वक कार्य किया तथा सभी क्षेत्रोंमें पूर्ण ईमानदारीके काम करनेके कारण समाज एवं सार्वजनिक क्षेत्रमें हमने जो सम्मान प्राप्त किया उसके लिए हम पण्डितजीके पूर्ण आभारी हैं। प्रश्न-पण्डितजीकी लोकप्रियताके क्या उदाहरण दे सकते हैं ? उत्तर--क्यों नहीं / बीनामें पण्डितजीकी लोकप्रियता सदैव अपने सर्वोच्च शिखरपर रही / पंडितजी Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ बीनाकी सभी संस्थाओंके मंत्री, उपाध्यक्ष एवं अब्बल पदपर रहे। जब चुनाव होते तो पण्डितजीके और हम लोगोंके सबसे अच्छे वोट आते । पण्डितजीने जब यहाँकी संस्थाओंका कार्यभार सम्हाला तो उनको रोकड़में कुछ हो रुपये मिले थे। लेकिन जब उन्होंने संस्थाओंसे अपना त्यागपत्र दिया तो उन सबको लाखोंकी सम्पत्तिवाली संस्था बनाकर छोडा । पण्डितजी तो पूर्ण निष्ठा एवं ईमानदारीसे कार्य करते थे। लेकिन जब समाजके कुछ लोगोंको उनकी लोकप्रियता सहन नहीं हुई तो परस्पर जातीयताको उलझा दिया गया। और अन्तमें पण्डितजीने सन् १९७१ में अपना सम्बन्ध तोड़ लिया। और समाजके पूर्ण आग्रहके बाद भी अब वे संस्थाओंका मामला हाथमें लेनेको तैयार नहीं होते । हमने भी पण्डितजीके साथ ही संस्थाओंसे अपना हाथ खींच लिया। इस सम्बन्धमें मुझे एक घटना और याद आती है कि कभी-कभी सागर जिलेके कलेक्टर एवं पंजीयन अधिकारी दसरे जिलेके विभिन्न टस्टों के अधिकारियोंसे कहा करते थे कि यदि ट्रस्टका प्रयास-संचालन देखना एवं सीखना हो तो श्री नाभिनन्दन दिगम्बर जैन हितोपदेशिनी सभा बीनाके मंत्री पं० बंशीधरजीके पास जाकर सीखिये और फिर मेरे पास आइये । हिसाब-किताबमें पण्डितजी कितने पक्के एवं व्यवस्थित हैं उसको वे अधिकारीगण बराबर सराहना करते रहे । श्री शाहजीने पण्डितजीको लोकप्रियताकी एक और घटना सूनायी। वे कहने लगे कि सन् १९४२के आन्दोलनमें पण्डितजीको लोकप्रियता देखकर बीनाको पुलिसको उनको बीनामें गिरफ्तार करनेका साहस नहीं हआ। लेकिन जब पण्डितजो सागरमें कचहरीका कार्य करके वापिस लौट रहे थे, तो बीना जंकशनपर आपका गिरफ्तार कर लिया गया । पण्डितजीके गिरफ्तारीके समाचार बिजलीकी तरह बीना शहरमें फैल गये । और रात्रिमें ही कम-से-कम दस हजारकी भीड़ बीना जंक्शनपर जाकर पण्डितजीकी जयके नारे लगाने लगी। पुलिसको चिन्ता हई कि कहीं भीड बेकाबू होकर तोड-फोड नहीं कर डाले, इसलिए पण्डितजीको आग्रहपूर्वक पुलिस बाहर लाई और जब पण्डितजीने भीडको वापिस लौटने के लिए कहा तभी लोगोंने बीना जंक्शन खाली किया। आपने अन्तमें कहा कि ऐसे कितने संस्मरण सुनाये जा सकते है। हम तो पण्डितजीके आदर्शोपर चलने वाले हैं और हमारा पूरा परिवार उन्हें समर्पित रहा है। उनके अभिनन्दनग्रन्थ प्रकाशित होनेके समाचार सुनकर हमें अत्यधिक प्रसन्नता हई है। हम तो उनकी दीर्धाय एवं यशस्वी जीवनकी ही मंगलकामना करते हैं। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनतत्वमीमांसाकी मीमांसा : शास्त्रीयमान्यताके परिप्रेक्ष्यमें •पण्डित बलभद्र जैन, निदेशक-कुन्द-कुन्द भारती, नई दिल्ली [१] प्रस्तुत पुस्तक "जैनतत्त्वमीमांसाकी मीमांसा" जैनसमाजके बहश्रत और तत्त्वचिन्तक विद्वान् पण्डित वंशीधरजी व्याकरणाचार्य द्वारा लिखी गई है । यह पुस्तक समाजके विश्रुत विद्वान् पण्डित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री द्वारा लिखिति 'जैनतत्त्व मीमांसा' नामक पुस्तकके उत्तरस्वरूप लिखी गई है। इस उत्तर-प्रत्युत्तरका सन्दर्भ समझनेके लिये इसकी पृष्ठभूमिमें जाना होगा। इसमें सन्देह नहीं है कि दोनों ही विद्वानोंकी गणना जैनसमाजके उच्चकोटिके विद्वानोंमें की जाती है। दोनोंने जो कुछ लिखा, वह तर्कपूर्ण और सप्रमाण लिखा। उनको भाषा संयत एवं सभ्यजनोचित है । उनकी शैलीमें प्रौढ़ता है। दोनों विद्वानोंकी पुस्तकें पढ़नेसे जैनदर्शनके अनेक दुरूह विषयोंको समझनेका अवसर सुलभ होता है । विषय जितने गहन हैं, उनको अपने पक्षकी दृष्टिसे सिद्ध करनेवाले तर्क भी उतने ही गहन है । यदि उन्हें समझना है, तो उसके लिये गहन, मनन और चिन्तनकी आवश्यकता होगी । तभी यह निष्कर्ष निकल सकेगा कि किसके तर्कमें अधिक पैनापन है; किसको प्रस्थापनाएं नवीन हैं और कौन सिद्धान्त एवं परम्पराके अधिक निकट है। निःसन्देह दोनों विद्वान दो विचारधाराओंका प्रतिनिधित्व करते है। पं० फूलचन्द्रजीको विचारधारा कानजी स्वामीकी सोचके अधिक निकट है । पं. बंशीधरजीकी कोई स्वतन्त्र विचारधारा नहीं है। उनकी विचारधारा वही है, जो समाजमें परम्परागत शास्त्रीय विचारधारा है। श्री कानजी स्वामी स्थानकवासी समाजके सौराष्ट्रके आचार्य थे। वे अपनी उग्र विचारधाराके लिये उस समाजमें भी बहुचचित थे। वहाँ कुछ परिस्थिति ऐसी बनी कि उन्हें दिगम्बर समाजमें आना पड़ा। वे दिगम्बर समाजमें किसी दिगम्बर जैन मनि या आचार्यसे विधिवत् दीक्षा लेकर नहीं आये। वे सामान्य ढंगसे नहीं आये । वे एक तूफानकी तरह आये । तूफान जब आता है, तो सूखे पत्तोंकी तो गिनती क्या है, बहुत कुछ उलट पुलट हो जाता है। कानजी स्वामीके प्रबल तूफानमें छोटे-मोटे जैन विद्वानोंकी तो बात ही क्या है जिन्हें जैनतत्त्वोंका गहन अध्ययन नहीं है, इसमें बड़े-बड़े सिद्धान्ताचार्य और पी० एच० डी० प्रोफेसर भी बह गये, जो यह कहने में भी नहीं चूके कि कानजी स्वामीके तो हमारे ऊपर अनन्त उपकार हैं । अनन्त उपकार तो केवल तीर्थंकर भगवानके होते हैं । सम्भवतः उनके व्यक्तिगत उपकारोंको वे अनन्त उपकार मानते हों। इस तफानमें दिगम्बर समाजके अनेक सेठ और सम्पन्न लोग भी बह गये, क्योंकि इस नये जमावडेमें सम्यग्दर्शनके लिये त्याग और चारित्रकी नहीं, मुमुक्षु-मण्डलके स्वाध्यायमें बैठने या उससे सहानुभूति रखनेकी आवश्यकता थी। सेठ सक्रिय सहानुभूति दिखा हो सकते हैं। इससे इस लोक और परलोक दोनों लोकोंमें लाभ दिखाई देता है। यह तो स्वीकार करना होगा कि कानजी स्वामीके इस तूफानी मिशनके कारण समाजके सर्वसाधारण वर्गमें समयसार आदि आध्यात्मिक शास्त्रोंके स्वाध्यायको रुचि बढ़ी है। किन्तु यह भी स्वीकार करना होगा कि इस स्वाध्यायका एकमात्र श्रेय केवल कानजी स्वामीको ही नहीं दिया जा सकता। स्वामीजीके अवतरणसे पूर्व प्रशममति क्षल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी के प्रभावक व्यक्तित्त्वके कारण त्यागीवर्गका झकाव समयसार आदि ग्रन्थोंके स्वाध्याय एवं पठन-पाठनकी ओर हो रहा था। ज्य वर्णीजी जहाँ प्रकाण्ड विद्वान थे, वहीं वे चारित्रधारी भी थे। चारित्रहीन ज्ञानका विशेष महत्त्व नहीं है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० : सरस्वती वरदपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ ओ कानजी स्वामी और पूज्य वर्णीजी दोनों ही जैनसमाजकी महान विभूतियोंमें थे, जैनसमाजके ऊपर दोनोंका महान प्रभाव था। दोनोंके प्रभावका अन्तर अथवा मूल्याङ्कन आदरणीय पण्डित बंशीधरजीके शब्दोमें इस प्रकार किया जा सकता है "जहाँ कानजी स्वामीके अल्प सम्पर्क में आया हआ प्रत्येक व्यक्ति अपनेको समयसारका वेत्ता और सम्यग्दृष्टि समझने लगता है, वहाँ पूज्यपाद वर्णीजीके सम्पर्क में आया हुआ प्रत्येक व्यक्ति अपने अन्तःकरण में तत्त्वजिज्ञासुताका हो भाव उत्पन्न करता है।" -जैनतत्त्वमीमांसाकी मीमांसा, पृ० ३ । वास्तवमें कानजी स्वामीका व्यक्तित्व बड़ा प्रभावक था । सम्पूर्ण जैन समाज में अध्यात्मके सम्बन्धमें धारावाहिकरूपमें भाषण देनेवाला ओजस्वी वक्ता कानजी स्वामीके समान दूसरा कोई नहीं था। किन्तु वे दूसरी समाजसे दिगम्बर समाजमें आये थे। इसलिये उनके पुराने अच्छे-बुरे संस्कार भी उनके साथ आये थे। मसलन वे आचार्यपदसे आये थे। यहाँ आकर आचार्य तो नहीं रहे, किन्तु उस पदका जो अहंभाव था, वह निकल नहीं सका । फलतः वे अपने आपको महाव्रती संयमी मनियोंसे भी ऊचा समझते रहे और दुसरे लोग भी ऐसा ही समझें. इसके लिये वे मनियोंकी निन्दा भी करते थे। वे अपने आपको सकमार और कोमल समझते थे. इसलिये संयम और चारित्रकी कठोरतासे प्रयत्नपूर्वक अपने आपको बचाते रहे। इसीलिये वे व्यवहारचारित्रकी सदा निन्दा करते रहे और उसे बन्धका कारण कहते रहे। शद्धोपयोगकी अपेक्षासे पुण्य शभोपयोगको शास्त्रोंमें हेय बताया है, किन्तु स्वामीजी पुण्यको विष्ठा बताते रहे। जबकि वे स्वयं पुण्यका भोग करते रहे, अपने जीवनके अन्तिम दिनोंमें जब पुण्य क्षीण हो गया और भयंकर रोगसे भयंकर पीड़ा होने लगी. तो तथाकथित आत्मानुभव गायब हो गया और शरीरके मोहके कारण वेदनासे आर्तनाद करते रहे। स्वामीजी प्रारम्भसे ही जैनधर्मकी सैद्धान्तिक विचारधाराके विरुद्ध बोलते रहे। वे कार्य सम्पादनमें पदार्थकी स्व-उपादान शक्तिकी भूमिकाको निर्णायक मानकर निमित्तको सर्वथा अकिंचित्कर मानते रहे। उन्होंने कार्य-कारणव्यवस्थाको अमान्य कर दिया। उनकी मान्यता है कि द्रव्योंका परिणमन परनिरपेक्ष और क्रमनियमित होता है। वे यह भी अस्वीकार करते है कि जीवके वैभाविक परिणामोंके कारण कार्मणवर्गणाएँ कर्मरूप परिणमित होती है और कर्मोदयके कारण जीवमें विभावभाव होते हैं। वे अकालमरणको भी नहीं मानते । अर्थात उनकी मान्यतामें जैनधर्मकी सम्पूर्ण द्रव्य-व्यवस्था ही काल्पनिक है। स्वामीजीकी इन और ऐसी ही अन्य स्वतंत्र मान्यताओंके कारण जैन समाजके विद्वदवर्गमें तीव्र रोष व्याप्त हो गया और इसके विरोध पत्र-पत्रिकाओंमें लेख निकलते रहे। तब उनका समाधान करने और स्वामीजीकी स्वतंत्र मान्यताओंपर दार्शनिक मुलम्मा चढ़ानेके लिये पं० फूलचन्द्रजीने 'जैनतत्त्व मीमांसा पर लिखी। उसको जैन सिद्धान्तकी मान्यताओंके विरुद्ध समझकर पण्डित बंशीधरजीने 'जैनतत्त्व मीमांसाकी मीमांसा' नामक सयुक्तिक और सप्रमाण पुस्तक उत्तरस्वरूप लिखी। मेरी विनम्र रायमें इस पुस्तकने तत्व मोमांसा'का मलम्मा उतार दिया है। यहाँ मेरा विचार 'जैनतत्त्व मीमांसाको मोमांसा'की मीमांसा करनेका है। [२] 'जनतत्त्व मीमांसा में पं० फलचन्द्रजोने कुछ प्रस्थापनाएँकी है। किन्तु आगमविरुद्ध होनेसे पं० बंशीधरजीने सही परिप्रेक्ष्यमें इनकी मीमांसा की है। वे प्रस्थापनाएं इस प्रकार हैं . Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ७१ प्रत्येक पर्याय और उसका काल नियत है वस्तुमें पर्याय या परिणमनरूप कार्यकी उत्पत्ति केवल उसकी स्वतःसिद्ध स्वभावभत नित्य उपादानशक्ति और कार्योत्पत्तिक्षणसे अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती पर्यायरूप अनित्य उपादानशक्तिके बलपर होती है। अनित्य उपादानशक्तिका दूसरा नाम समर्थ उपादान है। समर्थ उपादान प्रत्येक समयका अलग-अलग होता है। कार्य समर्थ उपादानके अनुसार ही होता है। स्वभाव और समर्थ उपादानमें फर्क है । स्वभाव कालिक होता है। इसीका दूसरा नाम नित्य उपादान है और समर्थ उपादान, जिस कार्यका वह उपादान होता है, उस कार्यके एक समय पूर्व होता है। ये समर्थ उपादान प्रत्येक वस्तुमें उतने ही माने जाते हैं, जितने कालके कालिक समय है। उनसे क्रमशः जो-जो पर्याय उत्पन्न होती है, वे नियत हैं, उनकी उत्पत्तिका काल भी नियत है। प्रत्येक कार्य अपने स्वकालमें केवल उपादानकी अपनी योग्यताके आधारपर ही उत्पन्न होता है । तब निमित्त भी वहाँपर तदनुकूल विद्यमान रहते हैं । निमित्त अकिंचित्कर है निमित्तोंके सदभावमें भी तबतक कार्यकी सिद्धि नहीं होती, जबतक उसके अनुरूप उपादानकी तैयारी म हो । अतः निमित्त अकिचित्कर हैं। उपादानके ठीक होनेपर निमित्त मिलते ही हैं। उन्हें मिलाना नहीं पड़ता। अर्थात् जब कार्य अपने उपादानके बलपर उत्पन्न हो रहा हो, तब उसके अनुकूल निमित्त रहते ही हैं। इन प्रस्थापनाओंको अतिसंक्षेपमें इस प्रकार कहा जा सकता है -प्रत्येक पदार्थकी पर्याय नियत है, उसका काल भी नियत है, पर्यायका क्रम भी नियत है अर्थात् वह क्रमनियत अथवा क्रमबद्ध ही होती है । -कार्य वस्तुको अपनी उपादानशक्तिके बलपर होता है। उपादानके ठीक होनेपर निमित्त स्वतः ही मिल जाते हैं, वे स्वयं तो अकिचित्कर हैं। सारी जैनतत्त्व मीमांसा इन्हीं दो धरियोंपर चक्कर काट रही है। इन्हींमेंसे अनेक नई मान्यताओंका जन्म होता है । ये तो बीज है, जिनमेंसे कोंपल, पत्ते, टहनी और डालें फूटती हैं। जैसे निश्चय ही मान्य है, व्यवहार तो उपचार मात्र है। अतः वह मान्य नहीं है। फलतः व्यवहारचारित्र भी मोक्षमार्गमें साधक नहीं है, बल्कि वह आस्रव और बन्धका कारण है। आदि ऐसी ही टहनियाँ और डालें हैं। पण्डित फूलचन्द्र जीकी इन प्रस्थापनाओंका जो तर्क और युक्तिसंगत एवं परम्परा और आगम द्वारा समर्थित उत्तर दिया है और 'जैन तत्त्वमीमांसा'की दार्शनिक शैली में जो मीमांसा पण्डित बंशीधरजीने की है, उसे समझने और उसपर गहन मनन करनेकी आवश्यकता है। कार्योत्पत्तिके समय निमित्तोंकी सत्ताको तो सभी स्वीकार करते हैं, किन्तु जैनतत्त्व मीमांसाकार कार्योत्पत्तिमें उनकी सार्थकताको अस्वीकार करते हए उन्हें अकिचित्कर मानते हैं। वे कहते हैं कि प्रत्येक वस्तुके त्रैकालिक परिणमन निश्चित हैं और वे अपनी उपादानशक्ति द्वारा ही सम्पन्न होते हैं । इसकी मीमांसा करते हुए पण्डित बंशीधरने तर्क दिया है ... प्रत्येक वस्तुमें परिणमन दो प्रकारके होते हैं--एक तो स्वप्रत्ययपरिणमन और दूसरे स्वपरप्रत्ययपरिणमन । केवल स्व-उपादानके बलपर होनेवाले परिणमनको स्वसापेक्ष या स्वप्रत्ययपरिणमन कहते हैं तथा स्व (उपादान) तथा पर (निमित्त) दोनोंके बलपर होनेवाले परिणमनको स्व-परसापेक्ष अथवा स्व-परप्रत्यय परिणमन कहा जाता है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ यहाँ यह समझना आवश्यक है कि यदि वस्तुमें विवक्षित रूपसे परिणमित होनेकी योग्यता नहीं है तो अनेक निमित्त मिलकर भी उसमें उस परिणमनको उत्पन्न नहीं कर सकते । उसी प्रकार विवक्षित रूपसे परिणमित होनेको योग्यता होनेपर भी उस रूप परिणमित होनेके लिये यदि निमित्तोंकी अपेक्षा अपेक्षित हो तो जबतक निमित्तोंका सहयोग उसे प्राप्त नहीं होगा, तबतक वस्त केवल परिणमित होने की योग्यताके बलपर कदापि उस रूप परिणमित नहीं होगी। नियमसार गाथा १४ में स्पष्ट कथन है कि पर्याय दो प्रकारकी होती है-एक स्वपरसापेक्ष और दूसरी निरपेक्ष । इनमें निरपेक्ष पर्याय स्व-उपादानके बलपर होती है और स्वपरसापेक्ष पर्याय उपादान और निमित्त दोनोंके सहयोगसे होती है समयसारकी गाथा ८० और ८१ बताती हैं कि जीवके परिणामके निमित्तसे पुद्गल कर्मरूप परिणमित होते हैं और पुद्गल कर्मोका निमित्त पाकर जोवका परिणमन होता है। जीव पदगलके परिणमनका और कर्म जीवके परिणमनका कर्ता नहीं है किन्तु निमित्त-नैमित्तिकभावसे दोनोंका परिणमन होता है। जैसे यह कहा जाता है कि जब कार्य होता है, उस समय निमित्त स्वयं उपस्थित हो जाता है । इसे सही परिप्रेक्ष्यमें कहा जाय तो उसे यों कह सकते हैं अथवा यों कहना समीचीन होगा कि जब कार्य निष्पन्न होता है, उस समय उसकी सहकारी सामग्रीको निमित्त संज्ञा प्राप्त होती है। इसे अन्वय-व्यतिरेक शैलीमें इस तरह भी कहा जा सकता है कि जहाँ-जहाँ कार्य होगा वहाँ-वहाँ निमित्त अवश्य होंगे। जहाँ-जहाँ निमित्त नहीं होंगे, वहाँ-वहाँ कार्य निष्पन्न नहीं होगा। इस विषयको समझनेके लिये समयसारकी गाथा ३०१, ३०२ तथा उनका कलश-श्लोक अत्यन्त उपयोगी होंगे । इन गाथाओं और कलश श्लोकोंका आशय संक्षेपमें इस प्रकार है जिस प्रकार शुद्ध (स्वत- सिद्ध निज निर्मल स्वभावका धारक) स्फटिकमणि परिणमनस्वभाववाला होते हए भी स्वयं (अपने आप अर्थात् निमित्तभूत परवस्तुके सहयोगके बिना) रक्तादिरूपताको प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार शुद्ध (स्वतःसिद्ध निजज्ञान स्वभावका धारक) आत्मा परिणमनस्वभाववाला होते हए भी स्वयं (अपने आप अर्थात् निमित्तभूत परवस्तुके सहयोगके बिना) रागादिरूपताको प्राप्त नहीं होता, किन्तु रागादि पुद्गलकर्मोका सहयोग पाकर ही वह रागादिरूप होता है । पण्डित बंशीधरजीकी यह परम्परासे समर्थित मान्यता कि निमित्त सर्वथा अकिंचित्कर नहीं होते. अपितु वे भी सार्थक होते है, आचार्य कुन्दकुन्दकी मान्यताके अधिक निकट है और वह आर्षानुमोदित है । और अपरपक्ष शास्त्रीय आधार प्रस्तुत करने में असफल रहा है। व्याकरणाचार्यजीकी इस सफल प्रस्थापनासे अपरपक्ष द्वारा उठाये गये अनेक कल्पित-विकल्प भी निरस्त हो जाते हैं। जैसे (१) प्रत्येक वस्तुमें कार्यरूप में परिणत होनेकी उतनी ही उपादानशक्तियाँ विद्यमान है, जितने कालके कालिक समय संभव हैं। (२) वस्तुके प्रत्येक परिणमनका समय निश्चित है । (३) कार्योत्पत्तिमें निमित्तोंका होना अकिंचित्कर है । निश्चय और व्यवहार निश्चय और व्यवहार-ये दो दृष्टिबिन्दु एवं अपेक्षायें है। किन्तु दोनों विद्वानोंमें इनके सम्बन्ध मत-भिन्नता है। एक पक्ष निश्चयको परमार्थसत्य और व्यवहारको उपचरित कहकर उसकी अवहेलनापर Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ७३ बल देता है। उपचरितका अर्थ वह पक्ष अवास्तविक, कल्पित करता है। प्रायः उदाहरण दिया जाता है। जैसे किसी घड़ेमें घी रखा जाता है। उसे व्यवहारमें घोका घड़ा कहते हैं। घड़ा तो मिट्टीका है, घीका नहीं । किन्तु उपचारसे, व्यवहारके लिये उसे घीका घड़ा कह देते हैं। यह है व्यवहारको उपचरित मानने वाला पूर्वपक्ष । यहाँ पूर्वपक्षसे हमारा आशय पं० फूलचन्द्रजीसे है और उत्तरपक्षसे आशय व्याकरणाचार्यजीसे है। पहले हमें यह समझना आवश्यक है कि निश्चय और व्यवहार कहने में आचार्योंकी दृष्टि क्या थी? इस विषयमें आचार्य कुन्दकुन्दने सन्तुलित दृष्टि अपनाई है। उन्होंने दोनों ही दृष्टियोंसे वस्तु-स्वरूपका कथन किया है। पंचास्तिकाय, तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थोंमें द्रव्यकी परिभाषा दो प्रकारसे की है-(१) जिसकी सता है अर्थात् जो सत्स्वरूप है, वह द्रव्य है और जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पाये जायें, वह सत्स्वरूप है। (२) जो गुण और पर्याय वाला है वह द्रव्य है । द्रव्यमें अखण्ड एकरूपता या ध्रौव्यता निश्चय है, उसमें भेदरूपता या उत्पाद, व्ययरूप परिणमन व्यवहार है। वस्तुका कालिक स्वभाव अर्थात् गुण निश्चय है और पर्यायदृष्टि व्यवहार है। द्रव्यमें अभेद, अखण्ड, एकत्वकी दृष्टि निश्चय है, भेद, खण्ड, अनेकत्वकी दृष्टि व्यवहार है। वस्तु या वस्तुरूपकी सामान्यरूपता निश्चय है और विशेषरूपता व्यवहार है । समयसारकी गाथा ६, ७ में आचार्य कुन्दकुन्दने उदाहरण देकर बताया है कि आत्मा स्वरूपकी दृष्टिसे न प्रमत्त है, न अप्रमत्त है, बल्कि ज्ञायकस्वरूप है, यह निश्चय है। व्यवहारसे-भेददृष्टिसे आत्मामें दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है। अर्थात् स्वाश्रयता-स्वसापेक्षता निश्चय है और स्वपरसापेक्षता व्यवहार है। उपादानता निश्चय है और निमित्तता व्यवहार है । वस्तुके इन निश्चय और व्यवहाररूप धर्मोको नाम, स्थापना, द्रव्य और भावरूप निक्षेपोंमें अन्तर्भूत किया गया है और उन धर्मोके ज्ञायक ज्ञानको और उनके प्रतिपादक शब्दको नयोंमें अन्तर्भूत किया गया है । और इन नयोंको श्रुतप्रमाण कहा गया है। इस प्रकार व्यवहार भी निश्चयके समान वास्तविक (सद्भूत) है, उपचरित नहीं, जैसा कि पं० फूलचन्द्रजी मानते हैं। जहाँ शास्त्रमें व्यवहारको उपचरित कहा गया है, वहाँ उसका अर्थ कल्पित या मिथ्या नहीं, बल्कि वहाँ उपचारका अर्थ पराश्रितता है। __आचार्य अमृतचन्द्रने समयसारकी गाथा १२ की टीका करते हुए किसी प्राचीन शास्त्रसे एक गाथा उद्धृत की है "जइ जिणमयं पवज्जइ, ता मा ववहारणिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जइ, तित्थं अण्णेण उण तच्चं ॥" इसका अर्थ यह है-यदि तुम जिनमतका प्रवर्तन करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयोंको मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहारनयके बिना तो तीर्थका नाश हो जायेगा और निश्चयनयके बिना तत्त्व (वस्तुस्वरूप)का लोप हो जायेगा। __ यहाँ 'तीर्थ' शब्द विशेष उल्लेखनीय है। तीर्थशब्दमें सम्पूर्ण व्यवहारमार्ग गर्भित है-जैनधर्मको धारण करनेवाले मनुष्योंकी सामाजिक संगठना, मन्दिर-मूर्तियाँ, देव-गुरु-शास्त्र और उनके प्रति भक्ति, पूजा अर्चा, व्रत, उपवास, तीर्थक्षेत्र आदि । यदि व्यवहार सर्वथा मिथ्या है तो मिथ्याके ऊपर खड़ा धर्म भी मिथ्या होगा। फिर मिथ्याको माननेका लाभ क्या । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि व्यवहारके बिना परमार्थका उपदेश नहीं हो सकता । लोकमें भी देखा जाता है कि आदर्श तो लक्ष्य होता है और व्यवहार उस लक्ष्यकी प्राप्तिका साधन । ये दोनों नय हैं। नय सापेक्ष होते हैं, निरपेक्ष नहीं । निरपेक्ष नय तो मिथ्या होते है। आचार्य अमतचन्द्रने स्यादवादको दोनों नयोंके विरोधका विध्वंसक बताया है। २-१० Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ निश्चयनय और व्यवहारनयके समान निश्चयरत्नत्रय और व्यवहाररत्नत्रयके सम्बन्धमें भी जैनतत्त्वमीमांसामें भ्रान्त धारणा अपनाई है। आप लिखते हैं "इस जीवको निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्ति होनेपर व्यवहाररत्नत्रय होता ही है। उसे प्राप्त करनेके लिये अलगसे प्रयत्न नहीं करना पड़ता है । व्यवहाररत्नत्रय स्वयं धर्म नहीं है। निश्चयरत्नत्रयके सद्भावमें उसमें धर्मका आरोप होता है, इतना अवश्य है। इसी प्रकार रूढ़िवश जो जिस कार्यका निमित्त कहा जाता है, उसके सद्भावमें भी तबतक कार्यकी सिद्धि नहीं होती, जबतक जिस कार्यका वह निमित्त कहा जाता है, उसके अनुकूल उसके उपादानकी तैयारी न हो। अतएव कार्यसिद्धिमें निमित्तोंका होना अकिंचित्कर है।" व्याकरणाचार्यजीने इस भ्रान्त मान्यताकी मीमांसा करते हुए आचार्य विद्यानन्दकी अष्टसहस्री और आचार्य प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डसे उद्धरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि इन आचार्योंने निमित्तकारणकी अकिंचित्करताके विरोध और उसकी कार्यकारिताके समर्थन में ही अपना अभिमत प्रकट किया है। इससे यह बात निर्णीत होती है कि कार्य यद्यपि उपादानगत योग्यताके आधारपर ही होता है, परन्तु निमित्तकारणके सहयोगसे ही होता है । अतएव कार्योत्पत्तिमें निमित्त आकिंचित्कर न होकर कार्यकारी ही होता है। स्वपरप्रत्यय कार्य उपादानगत निजी योग्यताके आधारपर होते हुए भी निमित्तकारणके सहयोगसे होता है । इसी प्रकार निश्चयरत्नत्रय और व्यवहाररत्नत्रयके सम्बन्धमें भी व्याकरणाचार्यजीका अभिमत निर्धान्त है। आप लिखते है:-"यद्यपि निश्चयरत्नत्रयसे ही जीवको मोक्षकी प्राप्ति होती है, परन्तु उसे निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्ति व्यवहाररत्नत्रयके आधारपर ही होती है। इस तरह मोक्षके साक्षात् कारणभूत निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्किा कारण होनेसे व्यवहाररत्नत्रयमें भी परम्परया मोक्षकारणता सिद्ध हो जाती है। अतः मोक्ष-कार्यके प्रति व्यवहाररत्नत्रय भी अकिंचित्कर न होकर कार्यकारी ही सिद्ध होता है।" उपसंहार प्रस्तुत निबन्धमें हमारा काम पण्डित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीकी बहुचर्चित पुस्तक 'जैनतत्त्वमीमांसा'की मीमांसा करना नहीं है। उसकी शल्यक्रिया तो पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्यने कर दी है। हमारा काम तो उस शल्यक्रियाको मीमांसा करना है क्या शल्यक्रिया वैज्ञानिक पद्धतिसे की गई है ? उपकरण आयुर्विज्ञान सम्मत काममें लाये गये हैं ? शल्यक्रिया सफल हुई या असफल ? और विकृत अंश एवं विकारोंको शल्यक्रिया करनेसे छोड़ा तो नहीं गया? यदि एक वाक्यमें, शब्दोंकी कंजूसी करते हुए, मैं कहना चाहूँ तो कह सकता है कि शल्यक्रिया सर्वांशतः सफल रही है। और यदि मुझे क्षमा किया जाय तो दोनों आदरणीय विद्वानोंके प्रति सम्पूर्ण आदरके भाव रखते हुए यही कह सकता हूँ कि पण्डित फूलचन्द्रजी कानजी स्वामीकी मान्यताओंकी पैरबी करनेवाले वकीलके रूपमें उभरे हैं। सिद्धान्तग्रन्थोंके समर्थ टीकाकारके रूप में उनकी जो छबि समाजने देखी थी, वह छवि इस पुस्तकसे निखरी नहीं। दूसरी ओर अज्ञातवासमें पड़े हए पण्डित बंशीधरजी उक्त पुस्तककी मीमांसा करके, उसके एक-एक वाक्यका, एक-एक नवकल्पित प्रस्थापनाका युक्ति और शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा उत्तर देकर आर्षपरम्पराके सजग प्रहरीकी छवि बनाने में सफल हुए हैं। विषयकी गहरी पकड़, तर्कमें पैनापन, विषयको प्रस्तुत करने योग्य समुचित शब्दावली और कथ्यको शास्त्रीय आधार देनेकी तत्परता व्याकरणाचार्यजीकी अपनी विशेषता है । वे आर्षपरम्पराके कट्टर समर्थक, गहन तत्त्वचिन्तक और सिद्धान्तके मर्मज्ञ विद्वान् है, उनकी पुस्तक पढ़नेपर पाठकके मनपर सहज ही यह छाप पड़ती है। वे समाजसे हर प्रकारका सम्मान पानेके अधिकारी हैं। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शनमें कार्य-कारणभाव और कारक व्यवस्था : एक समीक्षा • डॉ० पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर कार्यकारणभाव और उसके आधारभूत कारकोंकी शास्त्रीय विवक्षाको न समझनेके कारण कुछ लोगोंने प्रचारित करना आरम्भ कर दिया कि कार्य स्वयं उपादानसे होता है, उसके लिये अन्य कारण या निमित्तकी आवश्यकता नहीं है। इस भ्रान्तिको दूर करनेके लिये जैनदर्शनके मर्मज्ञ, व्याकरणाचार्य पं. बंशीधरजीबीनाने 'जैनदर्शनमें कार्यकारणभाव और कारकव्यवस्था' नामक पुस्तककी संरचना की है। कार्यकारणभाव कारकव्यवस्थासे सम्बद्ध है, अतः सबसे पहले उन्होंने कारकका लक्षण लिखा है(साक्षात्) क्रियाजनकत्वं कारकत्वम्' अथवा 'करोति क्रियां निवर्तयति' इति कारकम् । जिसमें साक्षात् क्रियाजनकत्व हो वह कारक है। साक्षात् पदका विनिवेश होनेसे 'देवदत्तस्य पुत्रः ओदनं भुंक्ते' यहाँ देवदत्तमें कर्तृत्वका परिहार हो जाता है। देवदत्त भले ही दिवंगत हो गया हो तो भी पुत्रमें भोजाकियाका कर्तृत्व सुरक्षित है । यही कारण है कि संस्कृतमें सम्बन्धको कारक नहीं माना है। ___ कारकके ६ मेद हैं-१ कर्ता, २ कर्म, ३ करण, ४ सम्प्रदान, ५ अपादान और ६ अधिकरण । कार्य करने में जो स्वतन्त्र हो उसे कर्ता कहते हैं । कर्ता अपनी कियाके द्वारा जिसे प्राप्त करना चाहता है, जिसे बनाना चाहता है अथवा जिसे विकृत-परिवर्तित करना चाहता है उसे कर्म कहते हैं। जो कर्ताके अधीन हो अथवा जिसकी अनिवार्य सहायतासे कर्ता कार्य करता है उसे करण कहते हैं। कर्ता अपने द्वारा निष्पाद्य पदार्थको जिसके लिये देना चाहता है उसे सम्प्रदान कहते हैं । जिससे किसी वस्तुको पृथक् किया जाता है उसे अपादान कहते हैं और कर्ता जहाँ स्थित होकर वांछित कार्यको निष्पन्न करता है उसे अधिकरण कहते हैं। कार्यकी सिद्धि कारकोंकी पारस्परिक सापेक्षतासे ही होती है । कर्ता दो प्रकारका है-एक स्वयं कर्ता और दूसरा प्रेरककर्ता । प्राप्य, विकार्य और विवय॑के भेदसे कर्म भी तीन प्रकारका है। जिस प्रकार बाह्य षट्कारककी व्यवस्था है उसी प्रकार अभ्यन्तर षटकारककी भी व्यवस्था है । बाह्य षट्कारककी व्यवस्था विभिन्न वस्तुओं पर निर्भर रहती है जबकि अभ्यन्तर षट्कारककी व्यवस्था एक ही वस्तु पर निर्भर होती है। बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकारकी षट्कारकव्यवस्था व्यवहारनयका विषय है। निश्चयनयको विवेचनामें आत्मद्रव्यको षटकारकचक्रकी प्रक्रियासे उत्तीर्ण-रहित माना गया है क्योंकि निश्चयनय एक अखण्ड वस्तुका प्रतिपादन करता है। इस सब व्यवस्थाका प्रतिपादन लेखकने इस ग्रन्थमें अनेक प्रश्नोत्तरोंके माध्यमसे प्रस्तुत किया है । जिनागममें कारणके दो भेद कहे गये हैं-एक उपादान और दूसरा निमित्त । जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है उसे उपादान कारण कहते हैं । जैसे कार्मणवर्णणारूप पुद्गल कर्मरूप परिणत हो जाता है, मिट्टी घटरूप हो जाती है और आटा रोटी बन जाता है। निमित्तकारण वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत नहीं होता, परन्त उपादानके कार्यरूप परिणत होने में सहायक होता है। जैसे कार्मण-वर्गणाके कार्यरूप परिणत होने में जीवका रागादिभाव और योगव्यापार सहायक होता है। निमित्तकारण भी अन्तरङ्ग और बहिरङ्गके भेदसे दो प्रकारका है। जैसे सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिमें त्व आदि सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमका होना अन्तरङ्ग निमित्त है और जिनबिम्बदर्शन अथवा देशना आदि बहिरङ्ग निमित्त हैं । अन्तरङ्ग निमित्तके होनेपर कार्य नियमसे होता है और बहिरङ्ग निमित्तके होनेपर कार्यकी सिद्धि हो भी और न भी हो। जैसे प्रत्याख्यानावरणकर्मका क्षयोपशम Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ होनेपर शिरका एक सफेद बाल दिखने मात्रसे गृहत्यागका भाव हो जाता है और प्रत्याख्यानावरणकषायका क्षयोपशम न होनेपर शिरके समस्त बाल सफेद हो जानेपर भी गृहत्यागका भाव उत्पन्न नहीं होता। अन्तरङ्गकारणके होनेपर बाह्यकारण कुछ भी हो सकता है । जिनागममें अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग कारणकी अनुकूलताको समर्थ कारण कहा गया है और समर्थकारणसे ही कार्य की उत्पत्ति कही गई हैं। इस बातको लेखकने स्वप्रत्यय और स्व-पर प्रत्ययके भेदसे स्पष्ट किया है। द्रव्यमें कार्यरूप परिणत होनेकी निजकी योग्यता स्वप्रत्यय है और स्व तथा पर-के प्रत्यय-कारणसे जो होता है उसे स्वपरप्रत्यय कहा है। धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्यमें जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप परिणमन है वह मुख्यतः स्वप्रत्यय है और उपचारतः कालद्रव्यके सहयोग पर निर्भर है। लेखकने जोर देकर इस बातको सिद्ध किया है कि मात्र परप्रत्ययसे कोई कार्य नहीं होता। 'निष्क्रियाणि च' सूत्रकी व्याख्यामें पूज्यपाद और अकलंक स्वामीने प्रश्न उठाया है कि क्रियारहित द्रव्यमें उत्पादादि किस प्रकार होंगे? और उनके न होनेपर उसमें द्रव्यत्व कैसे संघटित होगा ? इस प्रश्नका समाधान उन्होंने स्वप्रत्ययसे किया है। स्वप्रत्ययमें अगुरुलघुगुणको स्वीकारा है और स्व-परप्रत्ययमें कालद्रव्य और अश्व, महिष आदिकी गतिको । ठीक है कि जीव और पदगलमें गति और स्थितिकी योग्यता निजकी हैं। पर धर्म और अधर्म द्रव्यका सहकार उनकी गति और स्थितिमें अनिवार्य आवश्यक है । अतः कार्यकी उत्पत्तिमें निमित्तकी अकिंचित्करता-कार्यकारणव्यवस्थाके प्रतिकूल है । जिनागममें इसे स्वीकृत नहीं किया गया है । __ उपादान और उपादेय भाव एक द्रव्यमें बनता है और निमित्त-नैमित्तिकभाव दो द्रव्योंमें बनता है । समयसारमें स्वीकृत किया गया है कि जीवके रागादि भावका निमित्त पाकर पुद्गलद्रव्यरूप कार्मणवर्गणा कर्मरूप परिणमन करती है और पौद्गलिक-चारित्रमोहकी उदयावस्थाका निमित्त पाकर जीवमें रागादिभाव उत्पन्न होते हैं। फलतः कर्मका उपादानकारण कार्मणवर्गणा है और निमित्तकारण जीवका रागादिभाव । इसी प्रकार रागादिभावका उपादानकारण आत्मा है और निमित्तकरण चारित्रमोहका उदय । इस निमित्तनैमित्तिकभावको स्वीकृत करते हए भी यह स्पष्ट किया गया है कि आत्मा कर्मरूप और कर्म आत्मारूप परिणमन नहीं करते । अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्यरूप परिणमन हो भी नहीं सकता. क्योंकि उनमें अत्यन्ताभाव है। इस निमित्तनैमित्तिक-~-कार्यकारणभावको यदि स्वीकृत नहीं किया जाता है तो सप्ततत्त्वकी मान्यता, छह द्रव्योंकी पारस्परिक उपयोगिता, स्वभाव-विभावकी परिभाषा, कर्मबन्ध और संवरके विविध कारणोंका निर्देशन सिद्ध नहीं हो सकता और उसके सिद्ध न होनेपर जैनदर्शनका प्रासाद ढह जावेगा। इन सभी बातोंका वर्णन लेखकने इसमें युक्ति और आगमके आधारपर बड़ी कुशलतासे किया है। ग्रन्थके अन्तमें क्या उपादान कारण ही कार्यका नियामक होता है ?' इस शीर्षकवाले परिशिष्टमें उपादानउपादेयभाव और कार्यकारणभावका विशद विश्लेषण किया है। सम्पूर्ण पुस्तक लेखकके गहन अध्ययन और ज्ञानगरिमाको सुचित करती है। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शनमें कार्यकारणभाव और कारकव्यवस्था : एक अनुशीलन •श्री नीरज जैन, सतना वस्तुस्वरूपकी विवेचनामें कारकव्यवस्थाका सर्वोपरि महत्त्व है। वास्तवमें जिस प्रकार एकपर एक घड़े रखकर मंगल अवसरपर स्वागत-द्वार बनाया जाता है, उसमें यदि पहला घड़ा उल्टा रख दिया जाय, तो फिर उसपर उल्टे ही घड़े रखे जा सकेंगे। एक भी सीधा घड़ा उल्टे घड़ेपर नहीं बिठाया जा सकता, उसी प्रकार यदि कारकव्यवस्थाके समझने में कोई भल रह जाय तो वस्तुस्वभावके बारेमें विपरीत अनुमान ही लगते चले जायेंगे और उनपर आधारित विपरीत मान्यतायें ही चिंतकके मनमें बनती चली जायेंगी। ऐसे मनमें सम्यक् धारणाके लिये फिर कोई अवकाश ही नहीं होगा। इसलिये वस्तु-स्वरूपको किसी भी विवक्षाको समझनेके लिये कारकव्यवस्थाका सही ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। "जैनदर्शनमें कार्यकारणभाव और कारकव्यवस्था" नामकी छोटी-सी पुस्तकमें श्रीमान् पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्यने सर्वप्रथम कारक-व्यवस्थापर हो विचार किया है । आचार्य अमृतचन्द्रजी महाराजके उद्धरण देकर उन्होंने भली-भाँति 'स्व-प्रत्यय' और 'स्वपर-प्रत्यय' परिणमनकी सिद्धि करते हुए तर्कके आधारपर इस बातका निषेध किया है कि एक ओर जहाँ मात्र ‘पर-प्रत्यय' कोई कार्य नहीं होता, वहीं दूसरी ओर 'स्वपर-प्रत्यय' कार्यको मात्र 'स्व-प्रत्यय' मान लेना भी आगमकी अवहेलना होगी। स्वपर-प्रत्ययरूप अशुद्ध या वैभाविक परिणमनको पारिणामिक भावकी तरह परनिरपेक्ष और स्वाभाविक परिणाम नहीं माना जा सकता। तत्त्वार्थसूत्र में द्रव्यका विवेचन करते हए “सत्-द्रव्यलक्षणम्' के साथ 'उर गद-व्यय-ध्रौव्ययक्तं सत" सूत्र कहा गया है। इसमें कहीं भी यह शर्त नहीं जोड़ी गई कि वह उत्पाद-व्यय किसी निमित्तका मुखापेक्षी होगा या निमित्तके लिए कभी वह परिणमन रुका रहेगा। इन सूत्रोंका अर्थ करते समय आचार्योंने उत्पादव्यय-ध्रौव्यरूप परिणमनपर विस्तारसे विचार किया है। सूत्र में छहों द्रव्योंके स्वाभाविक परिणमनकी बात सामान्यसे कही गई है । छहों द्रव्योंका शुद्ध या स्वाभाविक परिणमन तो होता ही है, परन्तु उनमेंसे जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंका अशुद्ध या वैभाविक परिणमन भी होता है । वास्तवमें इसी वैभाविक परिणमनका नाम ही संसार है । यदि इस वैभाविक परिणमनको भी वस्तुकी पर-निरपेक्ष, स्वाभाविक परिणति मान लिया जायगा तो शुद्ध जीवके पुनः अशुद्ध होनेका प्रसंग आ सकता है, जो जैन दर्शनको स्वीकार्य नहीं है। इस विसंगतिसे बचनेके लिये आचार्योंने द्रव्यके परिणमनको दो रूपोंमें व्याख्यायित किया है। एक "स्वप्रत्ययपरिणमन" और दूसरा 'स्वपर-प्रत्यय परिणमन'। मोटे रूपमें हम इसे इस प्रकार कह सकते हैं कि द्रव्यका जो भी शुद्ध परिणमन है वह मात्र "स्वप्रत्यय" होता है । उसमें किसी दूसरे निमित्तकी आवश्यकता नहीं है, परन्तु जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंमें होनेवाला अशुद्ध या वैभाविक परिणमन एक-दूसरेके सहकारके बिना सम्भव नहीं है । बिना दूसरेके-निमित्तके वैभाविक परिणमन कर सकें उनमें ऐसी शक्ति नहीं है, क्योंकि वैसा द्रव्यका स्वभाव नहीं है। अतः सिद्ध है कि यद्यपि द्रव्य हमेशा अपनी नित्य उपादानशक्तिसे ही परिणमन करेगा। परन्तु अशुद्ध परिणमनके लिए तो परका सहकार उसे अनिवार्य होगा। इसलिये ऐसे परिणमनको "स्वपर-प्रत्यय परिणमन" कहा गया है। कार्य-कारणभाव व्याकरणाचार्यजीने द्रव्यके परिणमनकी इस शुद्ध और अशुद्ध व्यवस्थाको कार्यकारणसम्बन्धके आधार Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ : सरस्वतो-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ पर बहुत सरलताके साथ, शास्त्रीय प्रमाणोंका साक्ष्य सामने रखते हुए, स्पष्ट रूपसे निरूपित किया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि दर्शनकी ऐसी गूढ़-गुत्थियोंको सरलताके साथ, थोड़े-से शब्दोंमें सुलझाकर रख देना उसीके द्वारा सम्भव है जिसकी दृष्टिमें वस्तु-स्वरूपकी व्यापकता स्पष्टरूपसे झलकती हो और जिसके मनमें आचार्योंके प्रति बहुमान तथा आगमके प्रति अटल श्रद्धान हो । समीक्ष्य आलेखके सन्दर्भ में पण्डितजी एक तत्त्वदर्शी विद्वानके रूपमें इन सारी कसौटियोंपर खरे उतरते हैं। उनका यह लगभग सवासौ पृष्ठका निबन्ध 'गागरमें सागर' कहा जा सकता है । प्रमेयकमलमार्तण्डके व्याख्यानमें परीक्षामुखसूत्रके दूसरे अध्यायके दूसरे सूत्रके व्याख्यानमें दूसरे सूत्रका उद्धरण देते हुए पण्डितजोने यह स्पष्ट किया है कि-"कार्यकारणभावके प्रसंगमें उपादान में दो प्रकारकी शक्तियाँ स्वीकार की गई हैं--एक द्रव्यशक्ति और दूसरी पर्यायशक्ति । इनमें अनादिनिधन स्वभाववाली होनेसे द्रव्यशक्ति नित्य मानी गई है और सादि-सांत स्वभाववाली होनेसे पर्याय-शक्ति अनित्य ही मानी गई है । द्रव्यशक्ति यद्यपि नित्य है तथापि उसका यह अर्थ नहीं है कि सहकारी कारणके बिना ही वस्तुमें कार्यकी उत्पत्ति सम्भव हो जायेगी, क्योंकि पर्यायशक्तिसे समन्वित द्रव्यशक्ति ही कार्यका निष्पादन करने में समर्थ होती है । द्रव्यमें वह पर्याय-परिणति सहकारीकारणके सहयोगसे ही होती है। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि जब कार्यरूप परिणत होनेकी योग्यता-विशिष्ट द्रव्यको उप युक्त सहकारी कारणका सहयोग प्राप्त होता है तभी पर्याय उत्पन्न होती है।" इस प्रकार द्रव्यको योग्यताके बिना जिस प्रकार कार्यकी उत्पत्ति असम्भव है उसी प्रकार उसमें सहकारीकारण भी. अनिवार्य रूपसे, सहायक है, अकिंचित्कर नहीं है। द्रव्यमें कार्यरूप परिणत होनेकी निजी योग्यताका नाम ही "द्रव्यशक्ति" अथवा "नित्य उपादानकारणतां" है। वह परिणमन जब केवल 'स्वप्रत्यय" होता है तब एक-के-पश्चात्-एक ही रूपमें, नियतधाराको लेकर, सहकारकारणकी अपेक्षासे रहित सतत होता रहता है। परन्तु ऐसी परिणतिमें पूर्व परिणमनको उत्तरपरिणमनका कारण मान लिया गया है। इस प्रकार उस पूर्व परिणमनका नाम ही “पर्याय-शक्ति” या “अनित्य उपादानकरणता" है । परन्तु जब हम "स्वपर-प्रत्यय" परिणमनकी बात करते हैं तब द्रव्यमें पूर्व पर्यायरूप जो आनत्य उपादानकारणता है उसका विकास निमित्तकारणसापेक्ष ही होता है । इस तरह जब जैसे निमित्तोंका सहयोग उपादानकारणभूत वस्तुको प्राप्त होता है तब उस वस्तुका वैसा ही परिणमन अपनी योग्यताके कारण होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि स्वपर-प्रत्यय परिणमन भी स्व-प्रत्यय कार्यकी तरह वस्तुकी अपनी योग्यताके अनुसार ही होता है परन्तु वह योग्यता अकेली ही कार्य उत्पादनमें समर्थ नहीं हुआ करती । पर्यायशक्तिरूप अनित्य उपादानकारणता वहाँ अनिवार्य होती है और उस पर्याय-परिणतिका विकास निमित्तकारणका सहयोग मिलनेपर ही सम्भव होता है । यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि द्रव्यमें अनेक प्रकारकी परिणप्ति करनेकी योग्यता एक साथ होती है । परन्तु "स्वपर-प्रत्यय' विधानसे जैसे-जैसे निमित्तकारण मिलते जाते हैं, तदनुसार ही पर्यायशक्तिका विकास होनेके कारण द्रव्यकी परिणति वैसी ही हो पाती है। सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्रजीने लिखा है--'उपादानकारण ही कार्यका नियामक होता है। पण्डित बंशीधरजीने अपनी पुस्तकके अन्तमें विस्तृत विवेचना करते हुए पण्डित फूलचन्द्रजीको इस विवक्षाविहीन धारणाका खण्डन करते हुए सम्यक् प्रकारसे यह सिद्ध किया है कि-'स्वपर-प्रत्यय कार्यका नियामक न केवल उपादान होता है और न केवल निमित्त ही होता है, किन्तु उपादान और निमित्त दोनों ही मिलकर उसके नियामक होते हैं। यह लिखना कि जैनाचार्य उपादानकारणको ही कार्यका नियामक मानते हैं, जैनाचार्योंका अपवाद और उनके द्वारा रचित आगमका अपलाप करना ही है। पुस्तकका यह परिशिष्ट भी देखने योग्य है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ७९ क्रमबद्ध पर्यायका परीक्षण केवलीके ज्ञानमें सभी द्रव्योंकी, भूत, भविष्यत, वर्तमानकी, सभी पर्यायें एक साथ प्रकट झलकती हैं, इस कथनका सहारा लेकर कुछ लोंगोंने 'क्रमबद्ध-पर्याय'का एक नया विधान किया है । आश्चर्यकी बात है कि 'क्रमबद्ध-पर्याय' शब्दका प्रयोग सम्पूर्ण जैन आगममें, किसी भी आचार्यके द्वारा, कहीं भी नहीं किया गया है। चालीस-पचास साल पहले जबसे सोनगढ़ में यह शब्द गढ़ा गया तभीसे आगमके ज्ञाता मनीषियोंने इसे मिथ्यात्व-पोषक धारणा बताकर बराबर इसका विरोध किया है। पण्डित बंशीधरजीने इस सन्दर्भ में भी अपना स्पष्ट मत व्यक्त करते हुए लिखा है कि-'पूर्वोक्त प्रकार केवलज्ञानमें जब प्रत्येक वस्तुकी कालिक पर्यायें यथास्थान नियत हैं तो उनकी उत्पत्तिका प्रसंग ही उपस्थित नहीं होता है क्योंकि केवलज्ञानीको तो प्रत्येक वस्तूकी त्रैकालिक पर्यायें यथावस्थित रूप ही सतत वर्तमानवत् प्रतिभासित होती रहती हैं। इस तरह उत्पाद्योत्पादकभावकी व्यवस्था श्रुतज्ञानमें ही सम्भव होती है । अर्थात् श्रुतज्ञानी जीव ही अभीप्सित फलकी आकांक्षासे कार्यको सम्पन्न करनेका संकल्प करता है, कार्यकारणभावकी रूपरेखा निश्चित करता है, कार्योत्पत्तिके साधन जुटाता है और तब कार्योत्पत्तिके लिए पुरुषार्थ करता है। इसलिए श्रुतज्ञानको व्यवस्थामें बाधक कारणोंको स्थिति स्वीकार करनेमें कोई असंगति नहीं उत्पन्न होती है।' इस प्रकार पण्डितजीका यह निष्कर्ष पूरी तरह आगमका अनुगामी है कि विवक्षित कार्य तभी होता है जब उपादानगत योग्यता हो, अनुकूल निमित्तसामग्रीका सहयोग हो और कार्यके बाधक कारणोंका अभाव हो । केवलीके ज्ञानमें सभी पदार्थ अपनी-अपनी त्रैकालिक पर्यायोंके साथ प्रतिक्षण, वर्तमानवत् समानरूपसे प्रतिभासित होते रहते हैं, परन्तु केवलीका ज्ञान किसी भी द्रव्यके परिणमनमें नियामक नहीं है। वस्तुका परिणमन उसकी अपनी योग्यता और निमित्तोंकी अनुकूलताके अनुसार होता है। ___ विषयका उपसंहार करते हुए पण्डितजीने यह निष्कर्ष निकाला है कि-"जैनदर्शनमें कार्यकारणभावको उपर्युक्त प्रकारसे दो प्रकारका स्वीकार किया गया है-एक तो उपादानोपादेयभावरूप कार्यकारणभाव और दूसरा निमित्तनैमित्तिकभावरूप कार्यकारणभाव । इनमेंसे स्वप्रत्ययकार्य की उत्पत्तिमें केवल उपादानोपादेयभावरूप कार्यकारणभाव ही कार्यकारी होता है और स्वपर-प्रत्यय कार्यकी उत्पत्तिमें उपादानोपादेयभावरूप तथा निमित्तनैमित्तिकभावरूप दोनों ही तरहके कार्यकारणभाव कार्यकारी होते हैं। विशेष इतना है कि उपादानोपादेयभावरूप कार्यकारणभाव तो उपादानके कार्यरूप परिणत होनेके आधारपर कार्यकारी होता है। लेकिन निमित्तनैमित्तिकभावरूप कार्यकारणभाव उपादानकारणकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी होता है। इस तरह दोनों ही कार्यकारणभाव अपने-अपने ढंगकी कार्यकारिताके आधारपर वास्तविक ही सिद्ध होते हैं और कोई भी कार्यकारणभाव कार्योत्पत्तिमें अकिंचित्कर सिद्ध नहीं होता है । अतः निमित्तननिमित्तकभावरूप कार्यकारणभाव कथनमात्ररूपमें व्यवहारनयका विषय नहीं होता, किन्तु वास्तविक अर्थात् सद्भावात्मक या कार्यकारीरूपमें ही व्यवहारनयका विषय होता है। दोनों कार्यकारणभाव विकल्पात्मक होनेसे केवलज्ञानके विषय नहीं होते। इतना ही नहीं, वे विकल्पात्मक होनेसे मति ज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके भी विषय नहीं होते, केवल विकल्पात्मक श्रुतज्ञानके ही विषय होते हैं।" इस प्रकार "जैनदर्शनमें कार्यकारणभाव और कारकव्यवस्था' नामकी यह छोटी-सी पुस्तक लिखकर व्याकरणाचार्यजीने जैनदर्शनके बहत संवेदनशील सन्दर्भीपर अपनी अनुभव-सिद्ध लेखनी चलाकर उनका सहज और समर्थ विश्लेषण किया है। साथ ही अपनी तर्क-शक्ति और आगम प्रमाण द्वारा उन्होंने वर्तमानमें प्रवर्तमान अनेक भ्रान्त धारणाओंका निराकरण करके मुमुक्षु-समुदायपर बड़ा उपकार भी किया है । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा : एक मूल्यांकन • डॉ० फूलचन्द्र जैन प्रेमी. अध्यक्ष-जैनदर्शन विभाग, स० सं० वि० वि०, वाराणसी सिद्धान्ताचार्य पं. बंशीधरजी व्याकरणाचार्य द्वारा लिखित 'जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा" नामक समीक्षा-ग्रन्थ मेरे समक्ष है। पिछले कुछ महीनोंसे मैं इसका निरन्तर अध्ययन और मनन कर रहा है। राष्ट्रभाषामें इस प्रकारके समीक्षा-ग्रन्थ प्राचीन विद्वानों द्वारा लिखित मूल-ग्रन्थोंसे कम महत्त्वके नहीं हैं। भले ही किसी भी विषयकी समीक्षा करने या उसके विषयमें सोचनेका अपना नजरिया (दृष्टिकोण) अलग (विशेष) हो। इस ग्रन्थके अध्ययनसे यह स्पष्ट है कि इसके लेखक सैद्धान्तिक विषयोंके मर्मज्ञ विद्वान तो है ही, साथ ही किसी भी सैद्धान्तिक विषयको सूक्ष्मता और विस्तारसे प्रतिपादन करनेकी क्षमता भी उनमें विशेष है। इस ग्रन्थके विद्वान सम्पादक डाँ० दरबारीलालजी कोठियाने अपने सम्पादकीय वक्तव्यमें ठीक ही लिखा है कि "व्याकरणाचार्यजीके चिन्तनकी यह विशेषता है कि वे हर विषयपर गम्भीरतासे विचार करते हैं और जल्दबाजीमें वे नहीं लिखते । फलतः उनके चिन्तनमें जहाँ गहराई रहती है, वहाँ मौलिकता और समतुला भी दष्टिगोचर होती है। यह सब भी जैनागम, जैनदर्शन और जैन न्यायके समवेत प्रकाशमें उन्होंने किया है। इस दष्टिसे उनका यह समीक्षा-ग्रन्थ निश्चय ही तत्त्व-निर्णय-परक एवं महत्त्वपूर्ण है।" __ प्रस्तुत ग्रन्थ जिस ग्रन्थकी समीक्षा हेतु लिखा गया है वह है पं० टोडरमल ग्रन्थमाला, जयपुरसे १९६७ में प्रकाशित एवं सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री वाराणसी द्वारा सम्पादित “जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा" नामक ग्रन्थ । इस समीक्षा-ग्रन्थका भी अपना इतिहास है। सोनगढ़ से प्रवर्तित अध्यात्म एवं कुछ अन्य सिद्धान्त अनेक जैन विद्वानोंकी दृष्टिमें एकाङ्गी थे। अतः वे इस धाराका विरोध करते थे । किन्तु कुछ विद्वान् इस धाराके प्रबल समर्थक थे । इससे समाजमें निरन्तर परस्पर विवाद एवं विरोधकी स्थिति बनी हुई थो । यद्यपि यही स्थिति आजतक विद्यमान है । अन्तर मात्र इतना ही है कि पहले सैद्धान्तिक रूपमें ही अधिक विरोध होता था, किन्तु आज सैद्धान्तिक कम और विरोधके लिए विरोध अधिक है जबकि खण्डन-मण्डन या या विरोधकी परम्पराका निर्वाह होना चाहिए। प्रस्तूत समीक्षा-ग्रन्थके रचयिता विद्वानने ओछे तरीके न अपनाकर शास्त्रीय और आगमिक प्रमाणों द्वारा उन सिद्धान्तों और मान्यताओंकी समीक्षा करके प्रशस्त मार्ग अपनाया, जो सिद्धान्त उनकी दृष्टिमें ठीक नहीं थे। इस दृष्टिसे मैं प्रस्तुत समीक्षा-ग्रन्थकर्ता विद्वानका प्रशंसक हूँ। विद्वान समीक्षकने भावी पीढी के लिए भी सैद्धान्तिक विषयोंकी समीक्षा एवं उनसे ज्ञानप्रा आदर्श-मार्ग एवं स्वस्थ परम्पराका पथ-प्रदर्शन किया है। सोनगढ़की विचारधाराके प्रति बढ़ते सैद्धान्तिक विरोधके कारण समाजके अन्दर विखराव एवं विवाद की बढ़ती स्थितिको देखकर पूज्य स्व० आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज एवं अनेक विद्वानोंके मनमें इन विवादोंको परस्पर सैद्धान्तिक तत्त्वच के माध्यमसे दूर करनेकी प्रबल भावना उत्पन्न हुई, ताकि समाजके सौहार्दपूर्ण वातावरणमें कमी न आये। इसी शुभ उद्देश्यसे ब्र० सेठ हीरालालजी एवं ब्र० लाडमलजी द्वारा आचार्यश्रीकी प्रेरणासे तत्त्वच हेतु एक विद्वत्-सम्मेलन बुलानेका निश्चय किया गया। तदनुसार ऐतिहासिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक गुलाबी नगर जयपुरके समीपस्थ खानिया तीर्थक्षेत्रमें विराजमान आचार्य श्री शिवसागरजीके सान्निध्य में दोनों पक्षोंके विद्वानोंको परस्पर तत्त्वचर्चा हेतु सादर आमन्त्रित किया १. प्रकाशक-श्रीमती लक्ष्मीबाई (पत्नी पं० बंशीधर शास्त्री) पारमार्थिक फण्ड, बीना (सागर) म०प्र०, सन् १९८२, पृष्ठ सं० ५०५, मूल्य ५० रु० । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ८१ चर्चाका आयोजन पूज्य आचार्य श्रीके संघके सानिध्य एवं आदरणीय ६० वंशीधरजी न्यायालंकारकी मध्यस्थता में दि० २२ अवटबरसे १ नवम्बर १९६३ तक हुआ । इस तत्त्वव में परस्पर चर्चाओंके हेतु दोनों पक्षोंके विद्वानोंमें प्रथमपक्ष (पूर्वपक्ष) के प्रतिनिधि सर्वश्री पं० माणिकचन्द्रजी न्यायाचार्य, फिरोजाबाद, पं० मक्खनलालजी शास्त्री, मुरैना, पं० जीवंधरजी न्यायतीर्थ, इन्दौर, पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य, बोना और पं० पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर तथा द्वितीयपक्ष (उत्तर पक्ष) की ओरसे सर्वश्री पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, श्री नेमीचन्द्रजी पाटनी, आगरा तथा पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री ये तीन प्रतिनिधि थे। उपर्युक्त विद्वानोंके अतिरिक्त अनेक गण्यमान्य विद्वान् भी चर्चाओंमें उपस्थित थे, जिनमें प्रमुख हैंसर्वश्री पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री वाराणसी, पं० रतनचन्द्रजी मुख्तार, सहारनपुर, पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार, पं० अजितकुमारजी शास्त्री दिल्ली, पं० राजेन्द्रकुमारजी, मथुरा, पं० दयाचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, सागर, पं० इन्द्रलालजी शास्त्री, जयपुर, पं० परमानन्दजी शास्त्री दिल्ली, ब्र० श्रीलालजी काव्यतीर्थ श्री महावीरजी, ब्र० सूरजमलजी, खानिया, पं० नरेन्द्रकुमारजी भिसीकर कारंजा, पं० मिश्रीलालजी शास्त्री लाडनू, बाबू नेमिचन्द्र जी वकील, सहारनपुर, पं० हेमचन्द्रजी एवं श्री मनोहरलाल जी अजमेर, पं० पन्नालालजी सोनी, कपूरचन्द्रजी वरैया लश्कर । इनके अतिरिक्त भी अनेक विद्वान् एवं श्रावक, श्रीमन्त यहाँ उपस्थित थे। इस तत्त्वचर्चाको मूल पृष्ठभूमिमें आ० पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री द्वारा लिखित "जैन तत्त्वमीमांसा"' नामक बहुचर्चित ग्रन्थ भी प्रमुख रहा है; क्योंकि जिन विषयोंपर विरोध था, प्रायः उनका प्रतिपादन इस ग्रन्थमें किया गया है । आचार्य श्री शिवसागरजी महाराजके संघकी उपस्थितिमें उस समय तक समागत सत्रह विद्वानोंकी एक गोष्ठी हुई, जिसमें इस तत्त्वचर्चा हेतु निम्नलिखित कुछ सामान्य नियम निर्धारित किये गये, जिन्हें भविष्यमें उपयोगिताकी दृष्टिसे उधत किया जा रहा है। १. तत्त्वचर्चा वीतरागभावसे होगी । २. तत्त्वचर्चा लिखित होगी। ३. वस्तुसिद्धिके लिए आगम ही प्रमाण होगा। ४. पूर्व आचार्यानुसार प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दीके ग्रन्थ प्रमाण माने जायेंगे । ५. चर्चा शंका-समाधानके रूपमें होगी। ६. दोनों ओरसे शंका-समाधानके रूपमें जिन लिखित पत्रोंका आदान-प्रदान होगा, उनमेंसे अपने-अपने पत्रोंपर अधिक-से-अधिक ५-५ विद्वानों और मध्यस्थके हस्ताक्षर होंगे। इसके लिए दोनों पक्षोंकी ओरसे अधिक-से-अधिक ५-५ प्रतिनिधि नियत होंगे। ७. किसी एक विषय-सम्बन्धी किसी विशेष प्रश्नपर शंका-समाधानके रूपमें पत्रोंका आदान-प्रदान अधिक-से-अधिक तीन बार तक होगा। दिनांक २२ अक्टूबर १९६३ को आचार्यश्रीके सानिध्यमें इस तिथि तक समागत २३ विद्वानोंकी १. जैन तत्त्व-मीमांसा-लेखक एवं संपादक-पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, अशोक प्रकाशन-मंदिर, वाराणसी ५। २. सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दनग्रन्थ : (पंचम खण्ड), पृ० ६४५-६४६ । २-११ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२: सरस्वती वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ उपस्थितिमें चर्चा-विषयक नियमोंमें ट्वाँ नियम यह भी स्वीकृत किया गया कि चर्चा में सामाजिक, पंथ तथा व्यक्तिके सम्बन्ध में कोई चर्चा न होगी । चर्चा आ० पं० मक्खनलालजी शास्त्री द्वारा निम्नलिखित विषय प्रस्तुत किये गये - १. द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गति होता है या नहीं ? २. जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है या नहीं ? ३. जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ? ४. व्यवहारधर्म निश्चयधर्म में साधक है या नहीं ? ५. द्रव्योंमें होनेवाली सभी पर्यायें नियतक्रमसे ही होती हैं या अनियतक्रमसे ? ६. उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें निमित्तकारण सहायक होता है या नहीं ? यद्यपि मूल ग्रन्थ दो भागों ( पुस्तकों) में जयपुरसे प्रकाशित हुआ है । अतः इनकी समीक्षा भी दो भागों – पुस्तकोंमें लिखी गयी है । किन्तु अभी तक इसका प्रथमभाग प्रकाशित हुआ है । दूसरा भाग लगभग तैयार है और प्रकाशनकी प्रतीक्षा में है । प्रस्तुत ग्रन्थके प्रथम भागमें अनेक प्रतिशंकाओं सहित निम्नलिखित चार शंकाओंके किये गये समाधानों की सभी शास्त्रीय प्रमाणों सहित समीक्षा प्रस्तुत की गई है - शंका १– द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गति भ्रमण होता है या नहीं ? शंका २ - जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है या नहीं ? शंका ३ - जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ? शंका ४ - व्यवहारधर्म निश्चयधर्म में साधक है या नहीं ? प्रस्तुत ग्रन्थके इस खण्डमें इन चारों प्रश्नोत्तरोंकी समीक्षा के चार-चार प्रकरण निर्धारित हैं(१) सामान्य समीक्षा, (२) प्रथम दौरकी समीक्षा, (३) द्वितीय दौरकी समीक्षा, (४) तृतीय दौरकी समीक्षा । प्रथम प्रश्नोत्तर और इसकी समीक्षा पूर्वपक्ष द्वारा प्रस्तुत "द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुरांतिभ्रमण होता है या नहीं ? — इस प्रथम प्रश्नका समाधान उत्तरपक्षने संक्षेपमें इस प्रकार प्रस्तुत किया कि " द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्मा विकारभाव तथा चतुर्गति भ्रमणमें व्यवहारसे निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्तृकर्म सम्बन्ध नहीं है । यह समाधान पूर्वपक्षको पूर्ण प्रतीत नहीं हुआ तो अपने प्रश्नको समझाते हुए पूर्वपक्ष ने कहा कि हमारे प्रश्नका आशय यह था कि जीवमें जो क्रोध आदि विकारी भाव उत्पन्न होते हुए प्रत्यक्ष देखे जाते हैं क्या वे द्रव्यकर्मोदय के बिना होते हैं या द्रव्यकर्मोदयके अनुरूप होते हैं ? संसारी जीवका जो जन्म-मरणरूप चतुर्गतिभ्रमण प्रत्यक्ष दखाई दे रहा है क्या वह भी कर्मोदयके अधीन हो रहा है या यह जीव स्वतंत्र अपनी योग्यतानुसार चतुर्गतिभ्रमण कर रहा है ? प्रथम प्रश्नके इस स्पष्टीकरण पर उत्तरपक्षने कहा कि इस प्रश्नका समाधान करते हुए प्रथम उत्तर में ही हम यह बतला आये हैं कि संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिपरिभ्रमण में द्रव्यकर्मका उदय निमित्तमात्र | विकारभाव और चतुर्गति-परिभ्रमणका मुख्यकर्ता तो स्वयं आत्मा ही है। इस तथ्यकी पुष्टिमें हमने समयसार, पंचास्तिकायटीका, प्रवचनसार और उसकी टीकाओंके अनेक प्रमाण दिये हैं । किन्तु पूर्वं Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ , व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ८३ पक्ष इस उत्तरको अपने प्रश्नका समाधान माननेके लिए तैयार नहीं प्रतीत होता। एक ओर तो वह द्रव्यकर्मके उदयको निमित्त रूपसे स्वीकार करता है और दूसरी ओर दव्यकर्मोदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतर्गति परिभ्रमणमें व्यवहारनयसे बतलाये गये निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको अपने मूल प्रश्न का उत्तर नहीं मानता। समीक्षा विद्वान् समीक्षकका ऐसा मानना है कि उत्तरपक्षने पूर्वपक्षके प्रश्नका जो उत्तर दिया उसकी पुष्टिमें प्रस्तुत की गई समयसारकी ८० से ८२ तककी तीन गाथाओंको प्रमाणरूपमें प्रस्तुत किया है, उसमें गाथा सं० ८१ का अर्थ इस प्रकार किया है ण वि कुब्वइ कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोण्हं पि॥ अर्थात जीव कर्ममें विशेषता ( पर्याय ) को उत्पन्न नहीं करता। इसी प्रकार कर्म जीवमें विशेषता ( पर्याय ) को उत्पन्न नहीं करता । परन्तु परस्परके निमित्तसे दोनोंका परिणाम जानो।' किन्तु उत्तरपक्ष द्वारा उपर्युक्त अर्थ करके स्वयं स्वीकृत सिद्धान्तको उपेक्षा की गई है। इस गाथाका अर्थ इस प्रकार होना चाहिए--"जीव कर्मगुणको नहीं करता अर्थात् कर्मगुणरूप परिणत नहीं होता और कर्म जीवगुणको नहीं करता अर्थात् जीवगुण रूप परिणत नहीं होता। परन्तु परस्परके निमित्तसे दोनोंका परिणाम जानो। इसी प्रकार समयसारकी गाथा सं० ८२२ एक वस्तुमें अन्य वस्तुके कर्तृत्त्वका निषेध करती है, जो निर्विवाद है किन्तु इस प्रश्नके उत्तरमें इसकी उपयोगिता नहीं है। अन्य प्रमाणोंके विषयमें भी यही कहा जा सकता है। इस प्रकार उत्तरपक्ष संसारी जीवके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्मको निमित्तकारण तो मानता है, परन्तु वह वहीं उसे उस कार्यरूप परिणत न होने और उपादानकारणभूत संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी न होने के आधारपर सर्वथा अकिञ्चित्कर ही मानता है जबकि पूर्वपक्ष उस कार्य के प्रति उस उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकमको निमित्तकारण मानता है। इस प्रकार विद्वान् समीक्षकने प्रथम प्रश्नोत्तरके १८९ पृष्ठोंमें ९९ कथनों द्वारा अलग-अलग समीक्षायें प्रस्तुत करके अपने सैद्धान्तिक ज्ञानको गहनताका परिचय दिया और इस प्रथम प्रश्नोत्तरकी समीक्षाके अन्तमें उपसंहार किया है। द्वितीय प्रश्नोत्तरकी समीक्षा पर्वपक्ष जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म और अधर्म मानता है। जबकि उत्तरपक्ष जीवित १. जयपुर तत्त्वचर्चा, पृष्ठ १ । २. एएण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण । पुग्गलकम्मकयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ॥ -समयसार ८२ ३. समीक्षा, भाग १, पृ० ९ । ४. वही, पृ० ११ । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म और अधर्म स्वीकार करनेके लिए तैयार नहीं है । अतः पूर्वपक्षने निम्नलिखित प्रश्न रखा। पूर्वपक्ष-जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है या नहीं ? उत्तरपक्ष- जीवित शरीरकी क्रिया पुद्गलद्रव्यकी पर्याय होनेके कारण उसका अजीवतत्त्वमें अन्तर्भाव होता है अतः वह स्वयं जीवका न तो धर्मभाव है और न अधर्मभाव ही है।' आ० पं० जीने उत्तरपक्षके कथनका विस्तृत विश्लेषण किया है। वस्तुतः जीवित शरीरकी क्रिया दो प्रकारकी होती है-प्रथम जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रिया तथा द्वितीय शरीरके सहयोगसे होने वाली जीवकी क्रिया। इन दोनोंमेंसे पूर्वपक्षके प्रश्नका सम्बन्ध शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियासे है, क्योंकि धर्म और अधर्म ये दोनों जीवकी हो परिणतियाँ हैं और उनके सुख-दुःखरूप फलका भोक्ता भी जीव ही होता है । अतः जिस जोवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म और अधर्म होते हैं उसका कर्ता जीवको मानना ही युक्तिसंगत है, शरीरको नहीं। विद्वान् समीक्षकका ऐसा मानना है कि उत्तरपक्षने जो प्रश्नोत्तर दिया है उससे उत्तरपक्षका यह मान्यता ज्ञात होती है कि वह जोवित शरीरकी क्रियाको मात्र पुद्गलद्रव्यकी पर्याय मानकर उसका अजीवतत्त्वमें अन्तर्भाव करके उससे आत्मामें धर्म और अधर्म होनेका निषेध करता है। उत्तरपक्षकी इस मान्यतामें पूर्वपक्षको जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियाकी अपेक्षा तो कुछ विरोध नहीं हैं, परन्तु आत्मामें होनेवाले धर्म और अधर्मके प्रति पूर्वपक्ष द्वारा कारणरूपसे स्वीकृत शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाकी अपेक्षा विरोध है। उत्तरपक्ष यदि शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाको स्वीकार न करे या स्वीकार करके भी उसे पुद्गलद्रव्यकी पर्याय मानकर उसका अजीवतत्त्वमें अन्तर्भाव करे तथा उसको आत्मामें होनेवाले धर्म और अधर्मके प्रति कारण न माने तो उसके समक्ष यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आत्मामें धर्म और अधर्मकी उत्पत्तिका आधार क्या है ? किन्तु उत्तरपक्ष के पास इसका कोई उत्तर नहीं है । पर पूर्वपक्षके समक्ष यह प्रश्न उपस्थित नहीं होता, क्योंकि यह शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाको आत्मामें होनेवाले धर्म और अधर्मके प्रति कारणरूपसे आधार मानता है। . इस प्रकार द्वितीय प्रश्नोत्तरको विस्तृत समीक्षा यहाँ की गई है। द्वितीय प्रश्नका उत्तर तीन दौरोंमें सम्पन्न हुआ था। यहाँ इन सबकी तथा साथ ही सत्रह कथनों द्वारा उनकी समीक्षा की गई है। तृतीय प्रश्नोत्तरकी समीक्षा पूर्वपक्षका प्रश्न-जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ? उत्तर पक्ष-(क) इस प्रश्नमें यदि 'धर्म' पदका अर्थ पुण्यभाव है तो जीवदयाको पुण्यभाव मानना मिथ्यात्व नहीं है, क्योंकि जीवदयाकी परिगणना शुभपरिणामों में की गई है और शुभ परिणामको आगममें पुण्यभाव माना है । परमात्मप्रकाशमें भी कहा है सुहपरिणामें धम्मु पर असुहे होइ अहम्मु । दोहिं वि एहि विवज्जियउ सुधु ण बंधइ कम्मु ॥२-७१॥ १. जयपुर तत्त्वचर्चा, पृ० ७६ । २. समीक्षा, भाग १, पृ० १९० । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २/व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ८५ अर्थात् शुभ परिणामसे मुख्यतया धर्म-पुण्यभाव होता है और अशुभ परिणामसे अधर्म-पापभाव होता है तथा इन दोनों ही प्रकारके भावोंसे रहित शुद्ध परिणामवाला, जीव कर्मबन्ध नहीं करता। (ख) यदि इस प्रश्नमें 'धर्म' पदका अर्थ वीतरागपरिणति लिया जाय तो जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्योंकि जीवदया पुण्यभाव होने के कारण उसका आस्रव और बन्धतत्त्वमें अन्तर्भाव होता है, संवर और निर्जरातत्त्वमें अन्तर्भाव नहीं होता। समीक्षा प्रस्तुत तृतीय प्रश्न उपस्थित करनेका पूर्वपक्षका उद्देश्य यह था कि आगममें जिस प्रकार जीवदयाको पुण्यरूप मान्य किया गया है उसी प्रकार उसे वहाँ धर्मरूप भी मान्य किया गया है । और फिर जीवदयाके भी तीन भेद हैं-१. पुण्यभूत जीवदया, २. जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप जीवदया और ३. इस निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारणभत व्यवहारधर्मरूप जीवदया। इन तीन रूपोंको पूर्वपक्ष तो मानता है किन्तु उनमेंसे उत्तरपक्ष केवल पुण्यभूत जीवदयाको मान्य करता है, धर्मरूप जीवदयाको मान्य नहीं करता है इतना ही नहीं, वह पूर्वपक्षकी धर्मरूप जीवदयाकी मान्यताको मिथ्यात्व कहता है। इसी बातको लक्ष्य करके उपयुक्त तृतीय प्रश्न उपस्थित किया गया । इस परिपेक्ष्यमें विद्वान् समीक्षकका कहना है कि जिस प्रकार जीवदयाको पुण्य मानना मिथ्यात्व नहीं है उसी प्रकार उसे जीवके शुद्ध स्वभावभत निश्चयधर्मके रूपमें व इस निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारण भूत व्यवहारधर्मके रूपमें धर्म मानना भी मिथ्यात्व नहीं है। पुण्यभूत जीवदया व्यवहारधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारण होती है तथा इस आधारपर ही आगममें पुण्यभत जीवदयाको परम्परा मोक्षका कारण माना गया है। वास्तवमें तो पुण्यभावरूप जीवदया शुभप्रवृत्तिरूप होनेसे कमोंके आस्रव और बन्धका ही कारण होती है और पूर्वपक्ष भी ऐसा ही स्वीकार करता है। इससे सिद्ध है कि पूर्वपक्ष पुण्यभावरूप जीवदयाको उस प्रकार मोक्षका कारण नहीं मानता जिस प्रकार व्यवहारधर्मरूप जीवदया मोक्षका कारण होती है। पूर्वपक्ष जीवदयाको पुण्यरूप भी मानता है, जीवके शुद्ध स्वभावभत निश्चयधर्मरूप भी मानता है और निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारणभूत व्यवहारधर्मरूप भी मानता है तथा अपनी इस मान्यताकी पुष्टिके लिए ही उसने आगमप्रमाणोंको उपस्थित किया है। उत्तरपक्षने तत्त्वचर्चा पृष्ठ संख्या १२५ से १२८ तकका विवेचन जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप अशुभसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिरूप व्यवहारधर्म तथा भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप आत्माके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मके स्वरूप भेदको नहीं समझकर ही किया है । फलतः उत्तरपक्षको वहाँ स्वयंके द्वारा उपस्थित और पूर्वपक्ष द्वारा उपस्थित आगम प्रमाणोंका अर्थ करने में बहुत खींचातानी करनी पड़ी है। प्रश्नोत्तर ४ और उसको समीक्षा पूर्वपक्ष--व्यवहारधर्म निश्चयधर्ममें साधक है या नहीं ? १. तत्त्वचर्चा, पृष्ठ ९३ । २. समीक्षा, भाग १, पृ० २४९ । ३. वही, पृ० २५२। ४. वही, पृ० २५८। ५. ज० तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा, पृ० २७२ । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य उत्तरपक्ष--निश्चयरत्नत्रयस्वरूप निश्चयधर्मकी उत्पत्तिकी अपेक्षा यदि विचार किया जाता है तो व्यवहारधर्म निश्चयधर्ममें साधक नहीं है, क्योंकि निश्चयधर्मकी उत्पत्ति परनिरपेक्ष होती है। आगे उत्तरपक्षने नियमसारकी गाथा सं० १३, १४ एवं २८ का प्रमाण देते हुए कहा कि यतः निश्चयरत्नत्रय स्वभावपर्याय है. अतः उसकी उत्पत्तिका साधक व्यवहारधर्म नहीं हो सकता । तथापि चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर सविकल्प दशामें व्यवहारधर्म निश्चयधर्मके साथ रहता है, अतः व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका सहचर होनेके कारण साधक (निमित्त) कहा जाता है।' समीक्षा-उत्तरपक्षके इस समाधानपर पूर्वपक्षका कहना है कि चंकि स्वभावपर्याय परनिरपेक्ष है और इस तरह निश्चयधर्म जब परनिरपेक्ष सिद्ध होता है तो इसे व्यवहारधर्म सापेक्ष कैसे माना जा सकता है ? पूर्वपक्षने आगमप्रमाणोंके आधारपर व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका साधक स्वीकार किया है । उत्तरपक्षने निश्चयधर्मकी उत्पत्ति परनिरपेक्ष होती है-इसकी पुष्टिके लिए नियमसारकी जिन गाथाओंको प्रमाणरूपमें प्रस्तुत किया है इनके आधारपर उनकी मान्यता सिद्ध नहीं होती। क्योंकि ये गाथायें उपयोगप्रकरणकी है। इन गाथाओंके आधारपर केवलदर्शनोपयोगको इन्द्रियरहित और असहाय होनेसे स्वभावरूप और शेष सभी दर्शनोपयोगोंको इन्द्रियसहित और ससहाय होनेसे विभावरूप बतलाना तो ठीक है, परन्तु दर्शनोपयोगको स्वभावरूपताके आधारसर परनिरपेक्ष बतलाना ठीक नहीं है और इस तरह निश्चयधर्मकी उत्पत्तिको उसकी स्वभावरूपताके आधारपर परनिरपेक्ष स्वीकार कर उसमें व्यवहारधर्मके साथ साध्य-साधकभावका निषेध करना ठीक नहीं है। जबतक जीव स्वभावकी ओर अग्रसर नहीं होता, तबतक उसे व्यवहारधर्मके पालन में भी सजग रहना आवश्यक है। जीव स्वभावमें स्थिर तभी होता है जब वह उसके अनुकूल पुरुषार्थ करता है । जीव स्वभावकी ओर अग्रसर न होनेके कालमें भी यदि व्यवहारधर्मकी उपेक्षा करता है तो वह स्वभावमें तो स्थिर होगा नहीं, साथ ही व्यवहारधर्मसे च्युत होकर अपने अनन्त-संसारकी ही वृद्धि करेगा ! इस तरह विद्वान् समीक्षकने अनेक प्रमाणों द्वारा उत्तरपक्षके समाधानकी विस्तृत समीक्षा लगभग ३७ पृष्ठोंमें की है, जो तत्त्व-जिज्ञासुओंको अवश्य पढ़ने योग्य है । यद्यपि विद्वानोंको प्रायः अपनी-अपनी मान्यताओंका व्यामोह होता है। किन्तु निःस्वार्थभावसे आगमोंका आलोडन करके विद्वानों द्वारा जो 'नवनीत'के रूप में तत्त्व-विमर्श किया जाता है, वही प्रत्येक तत्त्वजिज्ञासु द्वारा ग्राह्य है। वस्तुतः जिस समय समाजमें सिद्धान्त और भावनाके बीच एक दरार पड़ रही हो उस समय इस तरहकी प्रशस्त तत्त्वचर्चाओंका अपना ऐतिहासिक महत्त्व हो जाता है। आरम्भमें इस तत्त्वचर्चाका मूल वीतरागभाव स्वीकार भी किया गया है। किन्तु लगता है कि वह वीतरागकथा विजिगीषुकथाकी ओर मड गयी। जैसा कि उसके परिणामसे विदित है। यद्यपि भले ही इन चर्चाओंकी मूल भावना न समझकर आग्रहवश नेतृवर्ग अपना-अपना राग आलापते रहें, किन्तु तटस्थवृत्ति वाले लोग ऐसे आयोजनोंका महत्त्व समझते हैं । प्रस्तुत समीक्षाग्रन्थके लेखक विद्वान् चूँकि इस तत्त्वचर्चामें पूर्वपक्षकी ओरसे प्रमुख प्रतिनिधि थे, अतः इसकी समीक्षाके सर्वाधिक अधिकारी भी वही थे और इस दायित्वका निर्वाह उन्होंने पूरी निष्ठाके साथ किया है। १. जयपुर तत्त्वचर्चा, पृष्ठ १२९ । २. जयपुर तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा, पृ० २८३-२८४ । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ८७ इस ग्रन्थके सुयोग्य सम्पादक श्रद्धेय आदरणीय डॉ० कोठियाजीने इसके सुन्दर सम्पादनमें काफी परिश्रम किया है । यदि अनेक स्थानोंपर भावों, सिद्धान्तों एवं चर्चाओं आदिकी पुनरावृत्तिसे बचा जाता, तो और सौन्दर्य आ जाता। इस ग्रन्थकी विशेषता है कि विद्वान् समीक्षकने मूल समीक्ष्य ग्रन्थ अर्थात् "जयपुर खानिया तत्त्वचर्चा" को भी इस समीक्षा-ग्रन्थके साथ प्रकाशित किया है, ताकि तटस्थ जिज्ञासु निष्पक्षभावसे मूल अंशका भी अध्ययन कर यथार्थता ग्रहण कर सकें। मूल ग्रन्थमें जहाँ शंकापक्षको "अपरपक्ष' नामसे प्रस्तुत किया गया है, वहाँ इस समीक्षा-ग्रन्थमें इसे 'पूर्वपक्ष' और समाधानपक्षको 'उत्तरपक्ष' नामसे प्रस्तुत करके प्राचीन न्यायशास्त्रको परम्पराके गौरवकी पुनः प्रतिष्ठा को गयी है। पर तत्त्वचर्चा अपने मूल उद्देश्य-वीतरागचर्चासे भटककर विजिगीषुचर्चा बन गयी । अस्तु । मुझे स्मरण है, जब मैं कटनीकी जैन शिक्षा-संस्थामें अध्ययन कर रहा था, उस समय सन् १९६४६५ के लगभग श्रद्धेय गुरुवर्य ५० जगन्मोहनलालजी शास्त्री, आदरणीय पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीको सहयोग देने हेतु उनके समीक्ष्य मूलग्रन्थ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चाकी कुछ विषय-सामग्रीका संकलन कर रहे थे, उनकी आज्ञानुसार उनके निवासपर प्रातः साफ प्रतिलिपि करने हेतु जाता था। अतः उस पुस्तकपर लिखे गये इस समीक्षा-ग्रन्थका मूल्यांकन (समीक्षात्मक अनशीलन) लिखना, मेरे लिए प्रसन्नताका विषय है। मैं पुनः समीक्षक विद्वान्को हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित करता हैं कि उन्होंने सैद्धान्तिक मतभेदोंकी समीक्षा शालीनतापूर्वक उच्च-समीक्षा-ग्रन्थ द्वारा करके एक स्वस्थ परम्पराका निर्वाह किया और साथ ही साथ तन्व-जिज्ञासुओंको लाभान्वित किया है। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग्य और पुरुषार्थ : एक नया अनुचिन्तन : समीक्षात्मक अध्ययन • डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, निदेशक महावीर-ग्रन्थ अकादमी, जयपुर भाग्य और पुरुषार्थ विषयपर विद्यार्थी अवस्थामें हम लोग वाद-विवाद किया करते थे। एक बक्ता भाग्यकी वकालात करता और कहता कि "सकल पदारथ है जग माहीं भाग्यहीन नर पावत नाहीं।" दुसरी ओरसे पुरुषार्थका समर्थन करने वाला कहता कि 'उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी, देवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति" और पुरुषार्थ करनेको ही एकमात्र सफलताकी कुंजी बतलाता। वर्तमानमें यद्यपि ये विषय 'आउट ऑफ डेट' माने जाने लगे हैं, लेकिन फिर भी कभी-कभी भाग्य और पुरुषार्थपर वाद-विवाद छिड़ ही जाता है। पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यकी लघपुस्तक "भाग्य और पुरुषार्थः एक नया अनुचिन्तन" है । इसपर समीक्षात्मक लेख लिखनेके लिए डॉ० कोठिया साहबका पत्र मिला, तो मैंने समझा कि पुस्तकमें वही लकीर पीटने जैसी बात होगी और लेखकने भाग्य और पुरुषार्थमेंसे किसी एकका समर्थन किया होगा। लेकिन जब पुस्तक देखी और पढ़ी तो वह हमारे अनुमानसे एकदम विपरीत मिली तथा लेखकके भाग्य और पुरुषार्थपर उनके चिन्तनशील विचारोंको पढ़कर बड़ी प्रसन्नता हुई। पंडितजीने भाग्य और पुरुषार्थपर अपना एक नया चिन्तन किया है और उनके वर्णनके गूढ़ तत्त्वोंको इसमें उड़ेल दिया है। पुस्तकमें भाग्यका लक्षण देते हुए लिखा है कि सामान्यरूपसे जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालरूप सभी पदार्थों में अपनी योग्यताके बलपर प्राकृतिक ढंगसे जो प्राप्त होता है उसे भाग्य कहते है । और जीवद्वारा अपने आध्यात्मिक और लौकिक जीवनमें पौद्गलिक मन, वचन और कायके अवलम्बनपूर्वक जो प्रयत्न किया जाता है उसे पुरुषार्थ कहते हैं । पंडितजीने भाग्य शब्दका आगे चलकर और भी स्पष्टीकरण किया है। उन्होंने लिखा है कि भाग्यका अर्थ वह वैभाविक शक्ति है जो सभी जीवोंमें तथा कर्मवर्गणा और नोकर्मवर्गणारूप पुद्गलोंमें सम्भवतः पायी जाती है और उस वैभाविक शक्तिके आधारपर होनेवाली वैभाबिक पर्याय ही भाग्यका रूप होती हैं। लेखकने पुरुषार्थको दो भागोंमें विभाजित किया है । एक शुभ पुरुषार्थ और दूसरा अशुभ पुरुषार्थ । शुभ पुरुषार्थ पुण्यकर्मोके उदयमें किया जाता है अर्थात् पुण्यार्जनके लिए जो पुरुषार्थ किया जाता है वह शुभ पुरुषार्थ है तथा पापकर्मोके उदयमें जो कुछ किया जाता है वह अशुभ पुरुषार्थ कहलाता है। जिन पापकार्योंसे जीवको दुर्गति मिलती है, कष्ट मिलता है, वेदना सहनी पड़ती है वह सब जीवके अशुभ पुरुषार्थका हो फल है । वह जीव अपने वर्तमान शुभ और अशुभ पुरुषार्थ के बलपर आगामी कर्मों और नोकर्मोंका बन्ध करता है। इस प्रकार प्रत्येक जीवमें, कर्मवर्गणा और नोकर्मवर्गणारूप पुद्गलोंमें विभाव परिणमन होनेकी यह प्रक्रिया अनादिकालसे चल रही है। पंडितजीका भाग्य-पुरुषार्थपर लिखनेका उद्देश्य यह है कि जीव किस प्रकार अपने पुरुषार्थके बलपर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। और अपने इस कथनको पूर्णतः सत्य सिद्ध करनेके लिए उसमें विभिन्न पक्षोंका आश्रय लिया है। लेखकने पुरुषार्थ के चार भेद बतलाते हुए कहा है कि प्रथम पुरुषार्थ जीवों द्वारा संकल्पी पाप या मिथ्याचारित्ररूप अशुभ प्रवृत्तिके रूपमें किया जाता है। द्वितीय पुरुषार्थ जीवों द्वारा आरम्भी पाप या अविरतरूप अशुभ प्रवृत्तिके रूपमें किया जाता है । तृतीय पुरुषार्थ जीवों द्वारा अशुभप्रवृत्तिके एकदेशत्याग--देशविरत अथवा पुण्यरूप प्रवृत्तिके रूपमें किया जाता है और चतुर्थ पुरुषार्थ जीवों द्वारा अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ८९ होनेवाली शुभ प्रवत्तिरूप व्यवहार धर्मके रूपमें किया जाता है। पुरुषार्थ करनेको यह प्रक्रिया एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय संज्ञी तकके सभी जीवोंमें अनादिकालसे यथासम्भव रूपमें होती चली आ रही है । ___पुस्तकमें आगे गुणस्थानोंकी विस्तृत चर्चा की है तथा कहा है कि तिर्यञ्चगतिकी अपेक्षा उसमें आदिके पाँच गुणस्थान सम्भव हैं तथा मनुष्यगतिकी अपेक्षा उसमें प्रथम गुणस्थानसे लेकर चतुर्दश गुणस्थान तक सभी गुणस्थान सम्भव हैं। इस प्रकार पंडितजीने भाग्य और पुरुषार्थके वर्णनमें गुणस्थानोंकी जो चर्चा की है वह वास्तवमें पंडितजीके गहन अध्ययनका सुपरिणाम है। पंडितजीकी दृष्टि बहुत पैनी है, इसलिए विषयका विवेचन बहुत गम्भीर एवं गहन है। लेकिन पुस्तककी भाषा सरल होते हुए भी पंडितजीने अपने विवेचनमें लम्बे-लम्बे वाक्योंका प्रयोग किया है जिससे पाठक उनमें उलझ जाता है और लेखक क्या बात कह रहा है उसे ससझ पाना उसके लिए कठिन हो जाता है। पुस्तकमें पहले विषयको तीन विवेचनोंके माध्यमसे रखा गया है और फिर उन तीन विवेचनोंके तीन स्पष्टीकरण दिये गये हैं। इस प्रकार छह प्रकरण और अन्तमें एक परिशिष्ट जोड़कर पुस्तकके विषयको तत्त्वचर्चाके रूप में प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक पूर्णतः पठनीय है तथा वह पाठकको नई दिशा देने वाली है। व प्रस्तुत पुस्तक वीरसेवामंदिर ट्रस्ट-प्रकाशनकी ओरसे सन् १९८५में प्रकाशित हुई थी। इस ट्रस्टके संस्थापक आचार्य जुगलकिशोरजी मुख्तार थे तथा ट्रस्टके सम्पादक एवं नियामक जैन जगतके विद्वान् डॉ० दरबारीलालजी कोठिया हैं । इस ट्रस्टकी ओरसे अब तक प्रस्तुत पुस्तक सहित ३८ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रस्तुत पुस्तक ५४ पृष्ठोंमें पूर्ण होती है तथा उसकी कीमत चार रुपये रखी गयी है। पुस्तकप्राप्तिका स्थान-वीरसेवामन्दिरट्रस्ट प्रकाशन, बी-३२/१३ बी०, नरिया, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-५ है। Niulatein २-१२ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी : एक समीक्षा डॉ० सुदर्शन लाल जैन, रीडर-संस्कृत विभाग, का० हि० वि० वि० वाराणसी सिद्धान्ताचार्य पण्डित बंशीधर व्याकरणाचार्य द्वारा रचित प्रस्तुत लघुकाय ग्रन्थ विषयकी दृष्टिसे बहुत गम्भीर है। आपकी अन्य रचनायें भी गम्भीर विषयोंका ही प्रतिपादन करती हैं। द्रव्यस्वरूप और पर्यायोंकी द्विविधता ... जैनदर्शनके अनुसार द्रव्यका स्वरूप है 'सत्' और 'सत्' उसे कहते है जो उत्पत्ति और विनाशरूप पर्यायोंके होते रहनेपर भी ध्रुव ( नित्य ) बना रहे ।' इसी अर्थका पोषक द्रव्यका दूसरा लक्षण भी किया गया है। वह है-'जिसमें गुण और पर्याय हों वह द्रव्य है ।'२ इन दोनों लक्षणोंमें भेद नहीं है। इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है प्रत्येक द्रव्यमें स्वाभाविक रूपसे स्वतःसिद्ध अनन्त गुण रहते हैं तथा प्रत्येक द्रव्यमें द्रव्यपर्याय और प्रत्येक गुणमें गुणपर्याय रहती हैं । इस तरह पर्याय दो तरहकी होती हैं-(१) द्रव्यपर्याय और (२) गुणपर्यायें । चूँकि गुण द्रव्यके स्वतःसिद्ध स्वभाव है। अतः गुण भी 'सत्' कहलाते हैं। प्रत्येक द्रव्य और प्रत्येक गुणमें हमेशा उत्पाद-व्ययकी प्रक्रिया चालू रहती है। द्रव्य और गणकी स्व-स्व उत्तरपर्यायकी उत्पत्तिका नाम है उत्पाद्' और उनकी स्व-स्व पूर्वपर्यायके विनाशका नाम है 'व्यय' । पर्यायोंके बदलने पर भी द्रव्य अपनी द्रव्यताको और गुण अपनो गुणरूपताको कभी नहीं छोड़ते हैं । अतः वे नित्य हैं, ध्रुव हैं। स्पष्टीकरण छह द्रव्योंमें धर्म, अधर्म, काल और आकाश इन चार शुद्ध द्रव्योंकी पर्याय स्वप्रत्यय, जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य शुद्ध भी होते हैं और अशुद्ध भी होते हैं । शुद्ध जीव (मुक्त) और शुद्ध पुद्गल (परमाणु) में स्वप्रत्यय तथा शेष जीव-पुद्गलोंमें स्वपरप्रत्यय पर्याय होती हैं। तथा षटगुणहानि-वृद्धिरूप गुणपर्यायोंको छोड़कर शेष सभी गुणपर्यायें भी स्व-परप्रत्यय होती हैं । षट्गुणहानिवृद्धिरूप गुणपर्याय स्वप्रत्यय ही होती हैं। जो पर्याय निमित्तकारणभूत बाह्यसामग्रीकी सहायताके बिना ही मात्र उपादानकारणजन्य हो वह स्वप्रत्ययपर्याय है। जो पर्याय निमित्तकारणभूत बाह्यसामग्रीकी सहायतापूर्वक उपादानकारणजन्य हो वह स्व-परप्रत्यय पर्याय है। स्वप्रत्यय पर्यायें क्रमबद्ध ही होती हैं और स्व-परप्रत्यय पर्याय क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध दोनों रूप होती हैं यही सिद्ध करना इस पुस्तकके लिखनेका उद्देश्य है । क्रमबद्ध-अक्रमबद्धका अर्थ तथा विवाद-स्थल क्रमबद्धताका अर्थ है पर्यायोंका नियतक्रमसे उत्पन्न होना और अक्रमबद्धताका अर्थ है पर्यायोंका अनियतक्रमसे उत्पन्न होना । यहाँ इतना विशेष है कि एकजातीय दो आदि अनेक पर्यायें कदापि युगपत् एक ही समयमें उत्पन्न नहीं होतीं, अपितू एक जातीय पर्याय एकके पश्चात् एकरूप क्रमसे ही उत्पन्न होती है। इसमें किसीको भी विवाद नहीं है । विवादका स्थल है स्व-पर प्रत्यय पर्यायोंको बाह्यनिमित्तकारण सापेक्षताके आधारपर अक्रमबद्ध माना जाए या नहीं। स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिके सन्दर्भमें मख्य दो मत हैं(१) पुरातन सिद्धान्तवादी-ज्ञप्ति की अपेक्षा स्व-परप्रत्यय पर्याय क्रमबद्ध होनेपर भी उत्पत्तिको अपेक्षा १. सद् द्रव्यलक्षणम् । उत्पाद्व्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । -तत्त्वार्थसूत्र ५-२९-३० । २. गुणपर्ययवद्र्व्य म् । तत्त्वार्थसूत्र ५-३८ । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ९१ क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध दोनों होती हैं। (२) सोनगढ़ सिद्धान्तवादी-उत्पत्ति और ज्ञप्ति दोनों अपेक्षाओंसे स्व-परप्रत्यय पर्यायें क्रमबद्ध ही होती हैं, अक्रमबद्ध नहीं । सोनगढ़ सिद्धान्तवादियोंका पूर्वपक्ष सोनगढ़ सिद्धान्तवादियोंके पास अपनी मान्यताको बल देनेवाले मुख्यरूपसे दो तर्क हैं (१) आत्मख्याति टीकाका क्रमनियमित शब्द-समय सारके सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारकी ३०८-११ तककी गाथाओंकी आत्मख्याति टीकामें आया है-"जीवो हि तावत् क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव नाजीव;, एवमजीवोऽपि क्रमनियमितात्मपरिणामरुत्पद्यमानोऽजीव एव न जीवः ।" यहाँ आए ‘क्रमनियमित'. शब्दकी व्याख्या करते हुए डॉ० हुकुमचन्द्र भारिल्लने अपनी पुस्तक 'क्रमबद्ध पर्याय' पृष्ठ १२३ पर लिखा है-क्रम = क्रमशः तथा नियमित निश्चित । अर्थात जिस समय जो पर्याय आनेवाली है वही आएगी, उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता है। इससे पुरुषार्थका निषेध और निश्चित भाग्यवादकी पुष्टि होती है। इसका यह भी तात्पर्य है कि सभी स्व-परप्रत्यय पर्याय भी पूर्व निश्चितक्रमानुसार होनेसे क्रमबद्ध हैं। (२) केवलज्ञानका विषय होना-सर्वज्ञके केवलज्ञानमें प्रतिसमय युगपत् सम्पूर्ण द्रव्योंको कालिक सभी स्व-परप्रत्यय पर्याय प्रतिभासित होती हैं। अत: स्व-परप्रत्यय पर्यायोंको भी क्रमबद्ध हो मानना चाहिए अन्यथा अक्रमबद्ध ( अनियतक्रम) होनेपर उन स्व-परप्रत्यय पर्यायोंका केवलज्ञानमें प्रतिसमय युगपत क्रमबद्ध प्रतिभासित होना असंभव है। ये दो ही मुख्य तर्क हैं जिनके आधारपर स्व-परप्रत्यय पर्यायोंको क्रमबद्ध सिद्ध किया जाता है । पुरातन सिद्धान्तवादियोंका उत्तरपक्ष (१) 'क्रमनियमित'का सही अर्थ-आत्मख्याति टीकाके 'क्रमनियमित' शब्दका अर्थ ‘क्रमवर्ती समयके साथ नियमित ( बद्ध )' यह सोनगढी अर्थ ठीक नहीं है अपितु ‘एक जातीय स्व-पर प्रत्यय पर्याय एकके पश्चात् एकरूप क्रममें नियमित ( बद्ध )' यह अर्थ उचित है। (२) उत्पत्ति और ज्ञप्तिका भेद-यह निर्विवाद सत्य है कि सर्वज्ञके केवलज्ञानमें कालिक स्व-परप्रत्यय पर्यायें युगपत् एक ही समयमें क्रमबद्ध ही प्रतिभासित होती हैं परन्तु इस आधारपर उन पर्यायोंकी उत्पत्तिको भी क्रमबद्ध मानना न्यायसंगत नहीं है क्योंकि उन त्रैकालिक पर्यायोंका केवलज्ञानमें युगपत् एक ही समयमें क्रमबद्ध प्रतिभासित होना अन्य बात है तथा उनकी उपादान, प्रेरक तथा उदासीन निमित्तकारणोंकी यथा प्राप्तिके बलसे यथासंभव क्रमबद्ध या अक्रमबद्ध रूपमें उत्पन्न होना अन्य बात है। अतः उत्पत्तिकी अपेक्षा विचार करनेपर स्व-परप्रत्यय पर्याय प्रेरक और उदासीन निमित्तकारण-सापेक्ष होनेसे क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध दोनों सिद्ध होती है। ज्ञप्तिकी अपेक्षा विचार करनेपर हम कह सकते है कि उत्पन्न हुई, उत्पन्न हो रही और आगे उत्पन्न होनेवाली उन पर्यायोंका प्रतिभासन केवलज्ञानमें युगपत् एक ही समयमें क्रमबद्ध रूपमें होता है। पर्यायोंकी उत्पत्तिका निश्चय श्रुतज्ञानके आधारपर संभव है, केवलज्ञानके विषय-आधार पर नहीं। दोनों सिद्धान्तोंमें भेदका हेतु परातन सिद्धान्तवादी स्व-परप्रत्यय पर्यायकी उत्पत्तिमें देश और कालको महत्त्व न देकर उपादान १. देखें, मूलग्नन्थ, पृ० १२,१७,३५ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ९२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ कारणभूत बाह्यसामग्रीको महत्त्व देते हैं । परन्तु सोनगढ़ी स्व-परप्रत्यय पर्यायकी उत्पत्तिमें उपादानकारणभूत अन्तरंग सामग्रीको महत्त्व देते हुए भी निमित्तकारणभूत बाह्यसामग्रीको महत्त्व न देकर उस देश और कालको महत्त्व देते हैं जहाँ और जिस कालमें पर्यायकी उत्पत्ति हुई थी, हो रही है या होगी। अर्थात् देश-कालको नियामक मानते हैं । परन्तु पुरातन सिद्धान्ती देश-कालको कार्योत्पत्तिमें उपयोगी नहीं मानते हैं। कार्यकारणभाव अन्वय-व्यतिरेकके आधारपर उपादान और निमित्तसामग्रीके साथ ही मानते हैं। यही दोनोंमें भेदका हेतु है। केवलज्ञानको विषय-मर्यादा इसके अतिरिक्त पूर्ण क्षायिक केवलज्ञानमें संयुक्त या बद्ध पदार्थोंका प्रतिभासन संयुक्त या बद्ध दशामें संयुक्त या बद्ध रूपसे न होकर पृथक्-पृथक् रूपसे होता है परन्तु मति, अवधि और मनःपर्ययज्ञानोंमें बद्ध पदार्थोंका ज्ञान बद्ध रूपसे ही होता है। अतः सभी जीव और पुद्गल परस्पर बद्ध होते हुए भी जब केवलज्ञानमें सतत् अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता या पर्यायरूपता-सहित पृथक्-पृथक् ही प्रतिभासित हो रहे है तो उस स्थितिमें उन पदार्थों की संयुक्तदशाका एवं जीव-पुद्गलकी बद्धदशाका प्रतिभासन केवलज्ञानमें नहीं हो सकता है। केवलज्ञानमें जब प्रतिक्षण पदार्थोंकी पृथक्-पृथक् रूपताका प्रतिभासन हो रहा है तो उनकी अवास्तविक दशाका प्रतिभासन संभव नहीं। अतः केवलज्ञानके प्रतिभासन हेतुसे 'स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी क्रमबद्धतामात्र सिद्ध नहीं होती है।' यह केवलज्ञानकी विषय-मर्यादा कहाँ तक आगमोचित है-इसका पं० श्यामसुन्दरलाल शास्त्रीने अपने प्राक्कथन ( ५०२ ) में संकेत किया है। वस्तुतः केवलज्ञानको विषयमर्यादाके संदर्भ में विद्वान् लेखकने जो अपना पक्ष दिया है वह विद्वानोंके लिए अधिक विचारणीय है। यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि जिसके क्रोध कषायका उदय चल रहा है वही चलते रहना चाहिए, क्योंकि सोनगढ़ सिद्धान्तमें पर्यायोंकी क्रमबद्धता है। किन्तु देखा जाता है कि निमित्त मिलते ही उस व्यक्तिके क्रोधकषाय रुककर क्षमाकी धारा प्रवाहित होने लगती हैं। इससे स्पष्ट है कि पर्यायें क्रमबद्ध भी है और अक्रमबद्ध भी हैं। निमित्तको अकिंचित्कर नहीं कहा जा सकता और न प्रत्यक्ष दृष्टका अपलाप किया जा सकता है । अग्नि जल रही है और पानी डालते ही वह बुझ जाती है। स्पष्ट है उसका क्रमबद्ध परिणमन रुककर अक्रमबद्ध परिणमन ( विजातीय शान्त परिणमन ) हो जाता है। अग्निके दाहपरिणामसे विजातीय अदाह परिणाम होने लगता है। यह निमित्तभूत जलका ही प्रभाव है। फिर कैसे वह अकिचित्कर है? और कहाँ पर्याय क्रमबद्ध रही ? । __इस तरह सूक्ष्मदर्शी विद्वान्ने, जो न केवल वैयाकरण ही हैं अपितु एक अच्छे आगमज्ञ और दार्शनिक भी हैं, युक्ति और आगमके द्वारा पर्यायोंकी क्रमबद्धता और अक्रमबद्धताको सिद्ध किया है। ऐसा मानना ही अनेकान्तसिद्धान्तके अनुकूल है। इसके अतिरिक्त विद्वान् लेखकने प्रसङ्गानुकूल पुद्गलोंका आवश्यक सूक्ष्म विवेचन भी प्रस्तुत पुस्तकमें किया है। १. मूलग्रन्थ, पृ० ७-९ २. वही, पृ० २४-३१,३५ ।। ३. वही, पृ० ३१-३४॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी : एक अध्ययन • पं० विजयकुमार जैन - साहित्य दर्शनाचार्य, श्रीमहावीरजी जेन आगम ग्रन्थोंपर सोनगढ़ी विचारधाराको थोपनेके बाद एक नया आन्दोलन और चल पड़ा है । इस विचारधारा के अनुसार वस्तुतत्त्वको एकान्त दृष्टिसे समझा-समझाया जाता है । पर एकान्तदृष्टिसे वस्तुका सम्यग् विवेचन नहीं होता । सम्यग् विवेचनके अभाव में गृहीत तत्त्व तो मिथ्या होता ही है, हमारी दृष्टि भी मिथ्या हो जाती है । सोनगढ़ विचारधारा वस्तुत्पत्ति या द्रव्यपरिणमनमें निमित्त और उपादान दोनों कारणों में से उपादानकारणको ही कारण मानती है । निमित्तको तो वह अकिंचित्कर स्वीकार करती है । वह तो उपस्थित मात्र रहता है, ऐसा उसका कथन है । इसी तरह वह पर्यायोंको क्रमनियमित मानकर नियतिवादको अङ्गीकार करता है । आचार्य परम्परा के अनुसार परिणमनमें दोनों कारणोंका सम सहकार है, जैसा कि समन्तभद्र स्वामी कहते हैं । बाह्येतरोपाधिसमग्रतेय कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः । अर्थात् बाह्य-निमित्त और इतर अन्तरङ्ग कारणोंकी समग्रतासे ही कार्य होता है, यही द्रव्यका अपना स्वभाव है । सोनगढ़ विचारधारा के पुष्ट करने हेतु डॉ० हुकुमचन्द्रजी भारिल्लने 'क्रमबद्ध पर्याय' पुस्तक लिखी, जिसमें पर्यायों को एकान्ततः क्रमनियमित मानकर नियतिवादको पुष्ट किया गया है। जैन दर्शन और जैन न्यायके ख्यातिप्राप्त विद्वान् स्व० डॉ० पण्डित महेन्द्र कुमारजी न्यायाचार्यने अपने 'जैनदर्शन' ग्रन्थ में सोनगढ़की इस एकान्त विचारधाराका विविध तर्कोंसे विशदरूप में खण्डन किया है । जैन मनीषी पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य ने भी इस लघु पुस्तिका में सर्वथा पर्यायोंकी क्रमबद्धताको असंगत और जैन तत्त्वदृष्टिसे विपरीत बताते हुए बहुत स्पष्ट रूपमें बताया है कि पर्याय क्रमबद्ध ही नहीं, अक्रमबद्ध भी होती हैं । सर्वप्रथम उमास्वामी महाराज के 'गुणपर्ययवद्द्रव्यम्' ( त० सू० ५-३८ ) का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए - (१) द्रव्यपर्याय (२) गुणपर्यायके रूप में दो प्रकारकी पर्यायें बतायी हैं । दुसरे अनुच्छेदमें सूत्रकारके ' सद्द्रव्यलक्षणम्' ( त० सू० ५-३० ) सूत्र पर विचार करते हुए द्रव्य तथा द्रव्यके स्वभावभूत-गुणोंको 'सत्' स्पष्ट किया हैं । अनन्तर इसी अनुच्छेद में बताया है कि द्रव्यमें ही नहीं गुणोंमें भी प्रतिसमय उत्पाद व्यय चल रहा है। साथ ही उत्पाद और व्ययकी व्याख्या भी स्पष्ट की गई है । आगे पर्यायों को दूसरे प्रकारसे द्विरूप बताया गया है । ( १ ) स्वप्रत्यय ( २ ) स्व- परप्रत्य । जो पर्यायें निमित्तकारणभूत बाह्य सामग्रीके बिना ही उपादानकारणजन्य हैं वे स्वप्रत्यय व जो पर्याय निमित्तकारणभूत बाह्य सामग्रीकी सहायतापूर्वक उपदानकारणजन्य हैं वे स्वपरप्रत्यय पर्यायें हैं । इन द्विविध पर्यायोंकी पुष्टिके लिये समयसार के सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकारकी गाथा ३०८-३११, ३१२, सर्वार्थसिद्धि व नियमसारादिके प्रमाण दिये हैं । ३१३, आगे बताया गया है कि निमित्त (१) प्रेरक और (२) अप्रेरक ( उदासीन ) दो प्रकार के होते हैं । प्रेरक निमित्त वे हैं जिनके साथ कार्यकी अन्वयव्यतिरेक व्याप्तियाँ हों तथा उदासीन निमित्त वे हैं जिनकी कार्यके साथ अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ हों । श्री व्याकरणाचार्यजीने बताया है कि प्रेरक निमित्तोंके बलसे कार्य आगे पीछे भी किया जा सकता है । तथा अनुकूल उदासीन निमित्तोंका भी यदि उपादानको सहयोग प्राप्त न हो तो उस उपादानकी विवक्षित कार्यरूप परिणति नहीं हो सकती है । जैसे - उपादानरूप शिष्यकी पठनक्रिया निमित्तकारण (प्रेरक) भूत अध्यापक और अप्रेरक प्रकाश आदि निमित्तोंकी सहायता के बिना नहीं हो सकती है । ( २ ) प्रेरक निमित्तकारणभूत इञ्जन और अप्रेरक रेलपटरीरूप निमित्तोंके बिना रेल नहीं चल सकती । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ (३) प्रेरक निमित्तकारणभूत कुम्भकार एवं अन्य विविध दण्डादि प्रेरक और उदासीनभूत कीली आदि अप्रेरक निमित्त कारणोंकी सहायतासे हो उपादानकारणभूत मिट्टी स्थास, कोश, कुशूल व घट पर्याय रूप परिणत होती है। इस प्रकार स्व-परप्रत्यय पर्याय नियत क्रमबद्ध और अनियत क्रमबद्ध भी होती है। यद्यपि आम्रफलका परिपाक अपने समय पर होता है, पर क्रत्रिम उष्मासे उन्हें समयके पूर्व पकाया जा सकता है । वहाँ परिपाकरूप परिणमन अक्रमबद्ध ही होगा। जीवका मरण उसकी निश्चित आयु पर ही होगा, पर विषपान, शस्त्राघात, अग्निदाह, अकस्मात् दुर्घटना आदि वश पहले भी अर्थात् अक्रमबद्ध समयपूर्व भी देखा जाता है। सोनगढ़सिद्धान्तवादी केवलज्ञान-विषयतापर ही पर्यायोंका परिणमन मानते हैं पर उन्हें इस केवलज्ञानविषयतापर स्वयं विश्वास नहीं है। अन्यथा ९० वर्ष जितनी लम्बी आयु भोग लेने पर भी श्रीकानजी स्वामी अन्तिम समय मरणभयसे पीड़ित न होते और शान्तिपूर्वक सल्लेखनामरणकी उपेक्षा कर जस्लोक अस्पताल में बाल-बालमरणपूर्वक शरीर न छोड़ते । प्रत्युत जैनागमानुसार संयमके सोपानपर चढ़ते ।। सोनगढ़की विचारधारा भवितव्यतापर जोर देती है। पर भवितव्यताके अनुसार ही कार्य हो, तो बुद्धि, पुरुषार्थ और अन्य सहायक कारणोंके बिना भी कार्य हो जायगा। किन्तु ऐसा नहीं है। आचार्य समन्तभद्रस्वामीका वचन है-'अलंध्यशक्तिर्भवित्तव्यतेयं हेतुद्वयाविष्कतकालिंगा'-कि भवितव्यता, बुद्धि, व्यवसाय एवं विविध कारणसामग्रोपर अवलम्बित है। 'जं जस्स जम्मि देशे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि' इत्यादि कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथाओंका अभिप्राय अपने प्रयत्नमें असफल लोगोंको साम्यभावमें स्थिर करना ही है। स्वपर-प्रत्यय पर्यायोंके विषयमें उत्पत्ति और ज्ञप्तिका यह अन्तर सोनगढ़विचारधाराके पक्षधर लचन्द्रजी शास्त्री वाराणसीने भी जैन तत्त्वमीमांसा' में निम्न प्रकार स्वीकार किया है कि 'यद्यपि हम यह मानते हैं कि केवलज्ञानको सब द्रव्यों और उनकी सब पर्यायोंको जानने वाला मानकर भी क्रमबद्ध पर्यायोंकी सिद्धि मात्र केवलज्ञानके आलम्बनसे न करके कार्य-कारणपरम्पराको ध्यानमें रखकर ही की जानी चाहिए।' इस प्रकार सोनगढ़सिद्धान्तवादी वर्गको कार्यकारणभावके आधारपर होनेवाली स्वपर-प्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिको क्रमबद्ध तथा अक्रमबद्ध तथा केवल ज्ञानसे होनेवाली उनकी ज्ञप्तिको क्रमबद्ध मान्य करनेमें आचार्यपरम्पराके समान कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। केवलज्ञान ही क्यों, मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनपर्ययज्ञानमें भी ज्ञप्ति-अपेक्षा ऐसा क्रमबद्ध प्रतिभासन यथायोग्य होता है। उनका विश्लेषण तो श्रुतज्ञान ही कारणसामग्रीके आधारपर करता है । आखिर पाँचों ज्ञानोंमें केवल श्रुतज्ञान ही वितर्कात्मक है । अतएव पदार्थोके परिणमनमें केवलज्ञानकी विषयताको आधार न मानकर कार्यकारणभावको ही आधार मानना चाहिए, यही आगमपरम्परा है और तदनुसार पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी । यही निष्कर्ष आदरणीय पण्डित व्याकरणाचार्यजीने इस प्रबन्धमें प्रस्तुत किया है। अनेकान्तमय आगम भी यही कहता है। व्याकरणाचार्यजीने तर्क और आगमके आधारपर इसमें गहन चिन्तन किया है तथा पर्यायोंको क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध सिद्ध किया है । अतएक Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासनमें निश्चय और व्यवहार : एक परिशीलन • स्वस्ति श्री भट्टारक चारुकीर्तिजी, मूडबिद्री अनन्तधर्मणस्तत्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः । अनेकान्तमयी मूर्तिनित्यमेव प्रकाशताम् ।। मेरे सामने जैन समाज के मूर्धन्य मनीषी श्री पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यकी कृति "जैनशासनमें निश्चय और व्यवहार" है । वर्तमान में समाज में सर्वाधिक चर्चित विषय व्यवहार और निश्चय है । इस चर्चासे समाज में विवेक व स्वाध्यायकी प्रवृत्ति ता जागृत हुई ही है, साथ ही जो व्यवहार और निश्चयसे सर्वथा अपरिचित थे वे भी इस ओर आकर्षित हुए हैं । अनेकान्तवादके महत्त्व व चर्चासे) भी अनेक लोग परिचित हुए हैं । इसका श्रेय सोनगढ़ धामके आध्यात्मिक श्री कानजी स्वामीको है । रहस्यसे ( उभय नयोंकी सन्त आत्मार्थी सत्पुरुष सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि नय क्या है ? तत्त्वार्थवार्तिककारने लक्षणकी परिभाषा इस प्रकार दी है -- -समयसारकलश २ "व्यतिकीर्ण वस्तुव्यावृत्तिहेतुर्लक्षणम् ।" -- अर्थात् परस्पर सम्मिलित वस्तुओंमेंसे किसी एक वस्तुको अलग करने वाले हेतु (चिह्न) को लक्षण कहते हैं । ant परिभाषा इस प्रकार है। 'प्रमाण गृहीतार्थेक देशा ग्राही प्रमातुरभिप्रायः नयः " - अर्थात् प्रमाणसे ज्ञात पदार्थ के एक देश (अंश) को ग्रहण करनेवाले ज्ञाताके अभिप्रायविशेषको नय कहते हैं । अथवा "ज्ञातुरभिप्रायः नयः " -- ज्ञाताका अभिप्राय नय है । नयोंके द्वारा ही वस्तुके अनेक गुणांशोंका विवेचन संभवनीय है । किसी प्रसंगविशेषका ज्ञान नय द्वारा ही हो सकता है । स्पष्ट है कि जितने प्रकारके वचन हैं उतने ही प्रकारके नय कहे जा सकते हैं । वस्तुका ज्ञान प्रमाण और नयोंसे । होता है। तथ्य यह है कि नयके द्वारा वस्तुके एकदेश और प्रमाणके द्वारा वस्तु सर्वांशका ज्ञान होता है वस्तु उत्पाद व्यय - ध्रौव्यात्मक है । ध्रौव्यके अभाव में उत्पाद-व्ययका अभाव है और उत्पाद-व्ययके अभाव में ध्रौव्यका अभाव है । वस्तुके द्रव्यत्वका बोध घ्रौव्यसे होता है व पर्यायत्वका बोध उत्पाद व्ययसे होता है । वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है । वस्तुके पूर्ण ज्ञानके लिए यह आवश्यक है कि उसका द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टिसे अवगाहन किया जाय । नयका कार्य एक दृष्टिसे उसके एक अंश ( पक्ष ) का ज्ञान प्राप्त करना है, जबकि उभयदृष्टिकोण से उसके दोनों (पक्षों) का ज्ञान होता है । निरपेक्ष नयोंसे प्राप्त ज्ञान मिथ्या है और सम्यक्ज्ञान वही है जो सापेक्ष नयोंसे प्राप्त किया जाता है, क्योंकि 'निरपेक्षा या मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत्' ऐसा सिद्धान्त है । वस्तुतः वस्तुका यथार्थ बोध प्राप्त करनेके लिए उभय नका आश्रय परमावश्यक है । यद्यपि आत्मानुभव 'नयातीत' व 'पक्षातीत' है । उसे इन विकल्पोंकी कोई आवश्यकता नहीं है - वह इनसे अतिक्रान्त है तथापि अतिक्रमणकी योग्यता प्राप्त करनेके लिए वस्तुका परिचय भी आवश्यक है । २-१३ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ अध्यात्मशास्त्रमें विशेष रूपसे निश्चय व व्यवहारनयका कथन पाया जाता है। प्रमुख रूपसे नयके ये ही दो भेद हैं। इन्हें द्रव्याथिक नय और पर्यायाथिक नय भी कहते हैं। जो भेददृष्टि या खण्डदृष्टिको लेकर कथन करता है वह व्यवहारनय है और जो अभेद या अखण्डदृष्टिको लेकर कथन करता है वन निश्चयनय है । अभेदविधिसे जाननेवाले नयको निश्चयनय तथा भेदविधिसे जाननेवाले नयको व्यवहारनय कहा गया है। जिस प्रकार द्रव्यार्थिक व पर्यायाथिक नय श्रुतप्रमाणके अंश होनेसे सत्य है उसी प्रकार निश्चयनय और व्यवहारनय भी श्रुतप्रमाणके अंश होनेसे सत्य है। वस्तुको द्रव्यकी प्रधानतासे जाननेवाला नय द्रव्याथिक नय है और वस्तुको पर्यायकी प्रधानतासे जाननेवाला नय पर्यायाथिक है। निष्कर्ष यह कि वस्तुको अभेदविधिसें जाननेवाला-निश्चय-नय है और वस्तुको भेदविधिसे जाननेवाला व्यवहारनय है। उभय नयोंके सम्बन्धमें कहा गया है : "स्वाश्रितो निश्चय" तथा "पराश्रितो व्यवहारः" जिस समय व्यवहारनयसे कथन किया जाता है उस समय निश्चयनय गौण हो जाता है और जिस समय निश्चयनयसे कथन किया जाता है उस समय व्यवहारनय गौण हो जाता है। उभय नय अपनी-अपनी जगह सम्यक् हैं । एक नय अपर नयको गौण भले ही कर ले, तथापि उसको समाप्त नहीं कर सकता। यदि इस प्रकार सम्भव हो तो समस्त नय निरस्त होकर निरपेक्ष हो जाएँगे, तब नयोंका जो सापेक्षवाद सिद्धान्त है वह मिथ्या हो जाएगा। एक ही नयको विश्वस्त मान लेना या एक ही नयको आधार बना लेना एकान्त है और उभय नयोंको समझकर उभयरूपमें कथन करना स्याद्वाद है। स्याद्वादके द्वारा समस्त विवाद व कलह शान्त हो जाते हैं। वस्तुको सर्वथा एकान्त समझना मिथ्यात्व है। स्याद्वादके आश्रय द्वारा ही वस्तुमें निहित अनन्तधर्मोका ( विभिन्न नयोंसे ) ज्ञान होता है। नय तो स्याद्वादके अङ्गोपाङ्ग हैं । नय न तो पूर्ण सत्य है और न असत्य है, अपितु सत्यांश है। किसी वस्तुका पूर्ण ज्ञान तभी होगा जब उसका सर्वाङ्ग अध्ययन हो । जो सत्यदृष्टा है या सत्यका प्रेमी है उन्हें तो सदा सापेक्षताके सिद्धान्तको स्वीकार करना होगा। व्यवहारनय और निश्चयनयमें साधन व साध्यका सम्बन्ध है। जिस प्रकार मिट्टी साधन है, घड़ा साध्य है। जैनागमोंके कथनानुसार व्यवहारनय बाह्यदृष्टिपरक है और निश्चयनय आभ्यन्तरदृष्टि वाला है। यथा--यह जीव हाड़, मांस, रक्त, मज्जा, वीर्य आदिका पिण्ड है, कर्मबद्ध है, यह बाह्यदष्टि है या व्यवहारनयका कथन है और यह जीव शुद्ध, बुद्ध , अविनाशी, अजरामर व सहजानन्दमय है, यह भीतरी दृष्टि है या निश्चयनयका कथन है-दोनोंमेंसे किसीको असत्य या मिथ्या नहीं कहा जा सकता--सापेक्षतः दोनों सत्य हैं और निरपेक्षतः दोनों मिथ्या है। आ. कुन्दकुन्दने समयसारकी १२वीं गाथामें कहा है : सुद्धो सुद्धोदेसो णायबो परमभावदरिसीहि । __ ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ठिदा भावे ।। -जो परमभावको देखनेवाले हैं उनके द्वारा तो शुद्ध तत्त्वका कथन करनेवाला शुद्ध नय जाननेके योग्य है और जो अपरमभावमें स्थित हैं उनके लिये व्यवहारनयका उपदेश कार्यकारी है। यह अवस्था ( अपरमभाव ) जीवनको साधक दशा मानी गई है। साधक दशा क्षीणमोह १२वें गुणस्थान या चउदहवें गणस्थानके उपान्त्य समय तक रहती है। जिन जीवोंको आत्माकी शुद्धताका ज्ञान नहीं हआ है उन्हें तो व्यवहारनय प्रयोजनवान् है, क्योंकि तीर्थ और तीर्थफल इसी पर निर्भर है। जैसा कि कहा भी है :-- शा Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ९७ जइ जिणम पवज्जह तो मा ववहार-णिच्छए मुयह । एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्च ।। --- अर्थात् यदि जिनेन्द्र भगवानके मतकी प्रवृत्ति चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों ही नयोंको मत त्यागो, क्योंकि यदि व्यवहारनयको त्याग दोगे तो तीर्थकी प्रवृत्तिका लोप हो जावेगा अर्थात् धर्मका उपदेश ही नहीं हो सकेगा । फलतः धर्मका लोप हो जावेगा। और यदि निश्चयनयको त्याग दोगे तो तत्त्वके स्वरूपका ही लोप हो जावेगा, क्योंकि तत्त्वको कहनेवाला तो वही है। अतः व्यवहारनय न तो सर्वथा हेय हो है और न अनुपयोगी ही। अध्यात्मशास्त्रके मर्मज्ञ श्रीमद् रायचन्द्रजी इसी तथ्यको स्पष्टरूपसे व्यक्त करते हुए कहते हैं : लह्य स्वरूप न वृत्ति नु ग्रह्य व्रत अभिमान । ग्रहे नहीं परमार्थने लेवा लौकिक मान ॥२८॥ अथवा निश्चय नय आहे मात्र शब्दनी मांय । लीये सद्व्यवहारने साधन रहित थाय ॥२९॥ निश्चय वाणी सांभली साधन तजवा नोय । निश्चय राखी लक्ष मां साधन करवा सोय ॥१३१॥ नय निश्चय एकांत थी आमां नथी कहेल । एकांते व्यवहार नहीं बन्ने सपि रहेल ॥१३२॥ -आत्मसिद्धिशास्त्र ( रायचन्द्र ) --अर्थात् 'यदि कोई निश्चयदृष्टि अर्थात् नैतिक जीवनमें आन्तरिक प्रवृत्तियोंको ही प्रधानता प्रदान करता है और बाह्याचरण ( व्रत, पूजा, दान आदि) का लोप करता है तो वह साधनासे दूर है । वास्तविकता यह है कि तात्त्विक निश्चयदृष्टिको अर्थात् आत्मा असंग, अबद्ध और नित्य सिद्ध है-इस वाणीको सुनकर साधन अर्थात् बाह्य क्रिया वर्जन नहीं करना चाहिए, अपितु परमार्थपथको आदर्शरूपमें स्वीकार करके अर्थात् उस पर लक्ष्य रख करके बाह्य क्रियाओंका आचरण करते रहना चाहिए, क्योंकि यथार्थ लौकिक जीवनमें एकान्त नैश्चयिकदृष्टि अथवा एकान्त व्यवहारदृष्टि अलग-अलग अपना अस्तित्व नहीं रखतीं, अपितु एकसाथ कार्य करती हैं । वस्तुतः इस जीवनका निर्माण अन्तःपक्ष व बहिःपक्ष-दोनोंसे मिलकर ही बनता है । नैतिकताके क्षेत्रमें आन्तरिक शभ व बाह्य व्यवहार नैतिक जीवनके दो भिन्न पक्ष अवश्य हैं परन्तु अलगअलग तथ्य नहीं। उन्हें अलग-अलग देखा जा सकता है किन्तु अलग-अलग किया नहीं जा सकता । अस्तु । प्रस्तुत कृतिके लेखक जैनदर्शनके मूर्धन्य विद्वान् समाजमान्य विद्वद्वर्य श्री पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य जैनागमके मर्मज्ञ प्रकाण्ड मनीषी हैं। प्रशम-हृदयी व भद्रपरिणामी है। इस वृद्धावस्थामें अस्वस्थ रहते हुए भी, इस समय समाजमें सर्वाधिक चचित विषयपर आपने सन्तुलित लेखनी चलाई है। जैनागमके अधिकारी विद्वान् द्वारा प्रस्तुत 'जैनशासनमें निश्चय और व्यवहार' का अध्ययन व मनन करके निमित्त-उपादान, निश्चय-व्यवहार आदिको स्याद्वाद व अनेकान्तके आधारपर समझकर मुमुक्ष जीव स्वात्मकल्याणकी ओर प्रवृत्त हों, यही सत्कामना है। 'जैन जयतु शासनम् ।' Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासनमें निश्चय और व्यवहार : एक विमर्श • डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य ज्ञेय (वस्तु) के यथार्थ ज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहा गया है। ज्ञेयका यथार्थ ज्ञान दो तरहसे होता है । एक प्रमाणसे और दूसरे नयसे । आचार्य गृद्धपिच्छने सम्यग्ज्ञानका विवेचन करते हुए लिखा है कि प्रमाण और नयोंके द्वारा सभी पदार्थोंका अधिगम-यथार्थ ज्ञान होता है। उनके आद्य टीकाकार आचार्य पूज्यपादने उनके इस कथनकी व्याख्या करते हुए कहा है कि प्रमाण दो प्रकारका है-एक स्वार्थ और दूसरा परार्थ । मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल इन पाँच ज्ञानोंमें श्रुतज्ञानको छोड़कर शेष चारों ज्ञान स्वार्थ हैं और श्रुतज्ञान स्वार्थ तथा परार्थ दोनों प्रकारका है । उनमें ज्ञानात्मक श्रुत स्वार्थ प्रमाण और वचनात्मक श्रुत परार्थ प्रमाण है। उन्हीं के भेद नय है । आगे पूज्यपादने प्रमाण और नयके अन्तरको भी स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि सकलादेश (अखण्ड रूपमें पूरी वस्तु) को जानना प्रमाण है और विकलादेश (खण्ड रूपमें अंशात्मक वस्तु) को जानना नय है । नयके अन्तर और उसकी विशेषताको और अधिक स्पष्ट करते हुए आगमप्रमाणके उद्धरण द्वारा उन्होंने पुनः लिखा है कि प्रमाणसे वस्तुको जानकर उसकी किसी अवस्था (धर्म-अंश) विशेषसे पदार्थका निश्चय करना नय है। इस विवेचनसे हम इस निष्कर्षपर पहुँचते हैं कि जैन संस्कृतिमें वस्तुका यथार्थ ज्ञान करने के लिए प्रमाण और नय इन दो को मूल वस्त्वधिगमोपाय माना गया है। जैन मनीषियोंने इसीसे इन दोनोंका विवेचन करनेके लिए प्रमाणग्रन्थों और नयग्रन्थोंकी स्वतंत्र एवं संयुक्त रूपमें दर्जनोंकी संख्यामें रचना की है। सच पूछा जाय, तो प्रमाणको अपेक्षा नयोंका ज्ञान लौकिक और पारमार्थिक दोनों दष्टियोंसे विशेष आवश्यक है। इसीसे ही सम्भवतः श्रुतज्ञानकी महिमा सर्वाधिक गायी गयी है, क्योंकि श्रुतसे ही अल्पज्ञोंको सज्ज्ञान (आत्मज्ञान) की प्राप्ति होती है, जो संसारकी निवृत्ति और मोक्षका कारण है । जैसा कि निम्न आगमप्रमाणसे प्रकट है श्रुते भक्तिः श्रुते भक्तिः श्रुते भक्तिः सदाऽस्तु मे । सज्ज्ञानमेव संसारवारणं मोक्षकारणम् ॥-सं० देव-शास्त्र-गुरु-पूजा नयोंका प्रतिपादन शास्त्रकारोंने दो तरहसे किया है। एक तो वस्तुको जाननेकी दृष्टिसे और दूसरे हेयोपादेयकी दृष्टिसे । प्रथम प्रकारसे द्रव्याथिक और पर्यायाथिक इन दो मूल नयोंका कथन किया गया है, क्योंकि ज्ञेय वस्तु मूल दो अंशों-द्रव्य और पर्याय अथवा सामान्य और विशेषमें समव्याप्त है। द्रव्य (सामान्य) को ग्रहण करनेवाला द्रव्याथिक नय है और पर्याय (विशेष) को विषय करनेवाला पर्यायाथिक नय है। इन दोनों मूल नयोंके भी भेदों और उपभेदोंका विवेचन विस्तारपूर्वक विशदताके साथ किया गया है। द्रव्याथिकके नैगम, संग्रह और व्यवहार इन तीनका तथा पर्यायार्थिकके ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत इन चारका कथन शास्त्रोंमें बहुलतया उपलब्ध है। १. 'प्रमाणनयैरधिगमः'-त० सू० १-६ । २. 'तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थ परार्थं च । तत्र स्वार्थ प्रमाणं श्रुतवय॑म् । __ श्रुतं पुनः स्वार्थं भवति परार्थं च । ज्ञानात्मकं स्वार्थं वचनात्मकं परार्थम् । -स० सि० १-६ ।' ३. 'सकलादेशः प्रमाणधीनो विकलादेशो नयाधीन इति ।'-वही, १-६ ।। ४. एवं ह्यक्तं "प्रगह्य प्रमाणतः' परिणतिविशेषादर्थावधारणं नयः"-वही १-६ । ५. प्रमाणसंग्रह, न्यायविनिश्चय, प्रमाणपरीक्षा, परीक्षामुख, प्रमाणमीमांसा, न्यायदीपिका आदि । ६. नयचक्र, द्वादशारनयचक्र, नयविवरण, आलापपद्धति आदि । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ९९ यद्यपि ये नय अपने-अपने अंशोंको जब ग्रहण करते-जानते हैं तो उनमें परस्पर विरोध दिखाई देता है और लगता है कि जब वस्तु द्रव्यरूप (शाश्वत) है तब वह पर्यायरूप (अशाश्वत) कैसे हो सकती है ? दोनों ही अंश (द्रव्य और पर्याय) परस्पर विरोधी हैं। वे एक ही वस्तुमें नहीं रह सकते । तब दो विरोधी नयों (द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक) की प्रवृत्ति वस्तुमें सम्भव नहीं है ? किन्तु इन नयोंके विरोधको मिटानेवाला 'स्यात्पद' है, जिसका प्रयोग स्याद्वाददर्शन (आर्हत दर्शन) में अभिप्रेत है। उसके बिना वस्तुसत्यका न कथन हो सकता है और न ज्ञान । आचार्य समन्तभद्रने स्पष्ट कहा है कि अभिप्रेत विशेषकी प्राप्तिके हेतु 'स्यात्कार'का प्रयोग, जो प्रत्येक वाक्यमें अन्तनिहित रहता है, वक्ता चाहे उसे बोले या न बोले, वस्तुसत्यका बोधक है। आचार्य अमृतचन्द्रने भी जिनवचनोंको उभयनयोंमें दिखाई देनेवाले विरोधको मिटाने वाले स्यात्पद' से अंकित बतलाया है। एकान्ती और अनेकान्तीके भाषाप्रयोग (कथन) में यही अन्तर बतलाया गया है । तात्पर्य यह कि द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक तथा उनका समूह ज्ञेय वस्तुका यथार्थ ज्ञान करानेके लिए उपदिष्ट है। द्वितीय प्रकारसे निश्चय और व्यवहार इन दो नयोंका निरूपण किया गया है। निश्चयका अर्थ परमार्थ, वास्तविक, भूतार्थ, परसंयोगसे रहित है और व्यवहारका अर्थ उपचार, अवास्तविक, अभूतार्थ, परसंयोगसे सहित है। विश्व षड द्रव्यात्मक है। उनमेंसे एक चेतन द्रव्य--आत्मा उपादेय है और बाकीके सब हेय । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश इन छह द्रव्योंमें जोव चेतन द्रव्य है, शेष पाँचों द्रव्य अचेतन है। जीवका पदगल (कर्म और नोकर्म) के साथ अनादि सम्बन्ध है, जिसके कारण जीव उससे प्रभावित है । आचार्य अमृतचन्द्रने स्पष्ट लिखा है कि यद्यपि जीव शुद्ध चित् (चेतन) मात्रकी मूर्ति है । परन्तु उसमें जो पररूप परिणति हो रही है उसका निमित्तकारण मोहनीय नामके कर्मका उदय है। इस मोहनीय कर्मके उदयसे ही निरन्तर (अनादि कालसे) वह उत्पन्न राग-द्वेषादिसे कलुषित (विकृत) है। इसीसे जीव कर्म और नोकर्मसे बद्ध तथा स्पृष्ट है। यह संयोगी अवस्था है और वह उपादेय नहीं है--हेय है । निश्चयनय यही बतलाता है । वह जीवकी निज परिणति–रागादिरहित चैतन्यपरिणतिको ही उपादेय कहता है । उसकी दृष्टिमें जीवमें न कर्म है, न नोकर्म है और न उनके निमित्तसे होनेवाले राग-द्वेष-क्रोध-मान-मायालोभ आदि परिणमन हैं। किन्तु कर्म और नोकर्मका सम्बन्ध जीवके साथ है और उनके निमित्तसे उसीमें रागादि परिणमन होते हैं, यह अयथार्थ नहीं है, यथार्थ है । अतएव जीव बद्ध है, स्पृष्ट है, अशुद्ध है और अज्ञ है। यह व्यवहारनय बतलाता है। इसीसे जैन दर्शन स्याद्वाददृष्टिसे हर वस्तुको, जो अनेकान्तात्मक है, स्वीकार करता है । अकलंकदेवने लिखा है कि अनेकान्तकी प्रतिपत्ति प्रमाण है, एक धर्मकी, जो अन्य धर्मोकी अपेक्षा रखे-उनका तिरस्कार न करे, प्रतिपत्ति नय है और एक धर्मको स्वीकार कर वस्तुके शेष धर्मोका प्रतिक्षेप (तिरस्कार) दुर्नय है। यह कथन उन्होंने समन्तभद्रस्वामीके द्वारा प्रतिपादित नयलक्षणके व्याख्यान १. 'अभिप्रेतविशेषाप्तेः स्यात्कारः सत्यलांछनः ॥'-आप्तमी० ११२ । २. उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाङ, जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः । सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चैः, अनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ।।-समयसार कलश ४ । ३. परपरिणतिहतोर्मोहनाम्नोऽनुभावादविरतमनभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः ।। मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्तेर्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः ।। स० सा० कलश ३ । ४. 'अनेकान्तप्रतिपत्तिः प्रमाणमेकधर्मप्रतिपत्तिर्नयस्तत्प्रत्यनीकप्रतिक्षेपो दुर्नयः, केवलविपक्षविरोधप्रदर्शनेन स्वपक्षाभिनिवेशात'-अष्टश०, आप्तमी० का० १०६ की व्याख्या । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य सन्दर्भ में किया है, जिसमें समन्तभन्द्रने' बतलाया है कि स्याद्वाद (श्रुतप्रमाण) के द्वारा गृहीत वस्तुके नित्यत्वादि पृथक-पृथक् धर्मका प्रकाशक नय है । अकलंकने एक ही धर्मको स्वीकार कर शेष धर्मोंका प्रतिक्षेप करनेवाले नयको दुर्नय क्यों कहा, इसका वे स्वयं उत्तर देते हए कहते हैं, क्योंकि वह विपक्षका निषेध करके अपने ही पक्षका अभिनिवेश (आग्रह) करता है, जबकि वस्तु वैसी नहीं है । वस्तु तो नयों और उपनयोंके द्वारा ज्ञात होने वाले त्रिकालव” एकान्तों (धर्मों) का, जिन्हें एक-दूसरेसे पृथक् नहीं किया जा सकता है अर्थात् जिनमें अविष्वभाव सम्बन्ध है, समुच्चय है । जब वस्तु और उसे ग्रहण करनेवाले नयोंकी ऐसी स्थिति है। तब एक पक्षको स्वीकार कर इतर पक्षका निषेध करना मिथ्या एकान्त ही कहा जायगा। उससे बचनेके लिए हमें स्यात्पदांकित वचनोंका ही प्रयोग कर जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित अनेकान्ततत्त्वका प्ररूपण करना चाहिए।३ आचार्य अमतचन्द्रने यह बिलकुल ठीक लिखा है कि जो शिष्य व्यवहार और निश्चयको सम्यक् प्रकारसे (एक दूसरेकी उपेक्षा या तिरस्कार न करके) दोनोंमें मध्यस्थ (तटस्थ) रहता है वही शिष्य स्याद्वादशासनके अविकल (पूर्ण) फलको प्राप्त करता है। इसीसे वे५ अनेकान्तमयी मूर्ति (जिनवाणी) को, जो अनन्तधर्मा वस्तुके प्रत्येक धर्मका सहीसही प्रकाशन करती है, सदैव प्रकाशमान रहनेकी मङ्गल-कामना करते हैं। इतना ही नहीं, वे एकान्तोंके विवादोंमें आगत विरोधको मिटाने वाले और जिनशासनके प्राण अनेकान्तको विनम्रतापूर्वक प्रणाम करते हैं। प्रस्तुत रचनामें विद्वत्समाजके सिद्धान्तविद् मनोषी श्रद्धेय व्याकरणाचार्यजीने वर्तमानमें निश्चय और व्यवहारकी सन्धिसे भटके हए लोगोंको निश्चय और व्यवहारके सुमेलका स्मरण दिलाया है तथा दोनोंको देशना सर्वथा एकान्तका त्याग करके कथंचित् एकान्तपरक करनेकी प्रेरणा की है। निश्चय और व्यवहारके जितने रूप हो सकते हैं उन सबका इसमें विस्तारपूर्वक विशदताके साथ विवेचन किया है। उनका यह आवश्यक प्रयास निःसन्देह स्तुत्य है। विश्वास है यह सन्तलित और गम्भीर, किन्तु विशद शैलीमें रचित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ विद्वानों, जिज्ञासुओं और स्वाध्याय-प्रेमियों द्वारा निश्चय ही समादत होगा। १. 'स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यंजको नयः ॥'-आप्तमी० का० १०६ । २. नयोपनयकान्तानां त्रिकालानां समुच्चयः । अविभ्राइभावसम्बन्धो द्रव्यमेकमनेकधा ।।-वही, का० १०७ ३. दुनिवार-नयानीक-विरोध-ध्वंसनौषधिः । स्यात्कारजीविता जोयाज्जैनी सिद्धान्तपद्धतिः ॥-पंचास्तिकाय टी. प्रार० । ४. व्यवहार-निश्चयौ यः प्रबृध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ॥-पुरुषार्थसि० श्लो०८ ५. अनन्तधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः । अनेकान्तमयी मूर्तिनित्यमेव प्रकाशताम् ।।-स० सा० कलश २ । परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।।--पुरुषार्थसि० श्लो०२। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनस्वी मनीषी : कुछ संस्मरण .५० बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, हैदराबाद यह संस्मरणात्मक लेख श्रद्धेय पं० बालचन्द्र जोने मेरे पास १३ अप्रैल १९८९ को भेजा था और । वे १७ अप्रैल १९८९ को स्वर्गस्थ हो गये. यह दैवकी विडम्बना है। भेजते समय वे नहीं जानते होंगे कि उनका इहलौकिक जीवन मात्र ४-५ दिनका है । सं०] पं० बंशीधरजी एक मनस्वी विद्वान् है। वे अभावोंसे खूब जूझे हैं। किन्तु कभी स्वाभिमानको नहीं खोया और अपनी मनस्विता बनाये रखा। यद्यपि मैं उनका भतीजा है, किन्तु उनसे तीन माह ज्येष्ठ होनेसे आरम्भसे मित्रवत् रहे है । अतः उनके जीवनसे सम्बन्धित कुछ महत्त्वपूर्ण संस्मरण दे रहा हूँ। बचपनमें हम दोनों समवयस्क होनेसे सोंरईमें साथ-साथ प्रेमसे खेलते-कूदते व लड़ते-झगड़ते भी रहे हैं। दैववशात वि० सं० १९७५ में एक सार्वभौमिक बीमारी फैली, जिसे लाल बुखार (इनफ्लूजा) कहा जाता था। इस बीमारीमें बंशीधरजीके बड़े भाई छतारेलाल (आयु लगभग १५, १६ वर्ष) और उनकी मां राधाबाई दोनोंकी ही २-४ दिनके अन्तरसे मृत्यु हो गयी, तब बंशीधरजी अकेले रह गये थे। उस समय उनकी अवस्था लगभग १२-१३ वर्ष रही होगी। संयोगसे उनके मामा उन्हें वारासिवनी (म० प्र०) अपने घर लिवा ले गये। पर वहाँ उच्च शिक्षाके साधन न होनेसे उन्हें काका पं० शोभारामजी उपदेशक भारतवर्षीय दि० जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, बम्बई अपने साथ सागर लिवा ले आये और वहाँ पं० मुन्नालालजी रांधेलीय न्यायतीर्थ द्वारा सत्तर्क सुधातरंगिणी पाठशालामें उनके अध्ययनकी व्यवस्था करा दी गयी। संयोगसे मैं भी तीन माह पहले सागर पहुँच गया था और उक्त पाठशालामें पढ़ता था। बादको पूज्य पं० गणेशप्रसाद वर्णी हम दोनोंको बनारस ले गये और स्याद्वाद-विद्यालयमें प्रवेश करा दिया, यह उनका महोपकार था। मैं विद्यालयमें ८ वर्ष रक्षा और बंशीधरजी ११ वर्ष रहे। बंशीधरजी उस समयके विद्यार्थियों में अत्यन्त मेधावी छात्र होनेके कारण विद्यालयकी ओरसे अतिरिक्त दस रुपए छात्रवृत्ति मिलती थी। बंशीधरजीको अन्याय पसन्द नहीं रहा। एक छात्र प्रेमचन्द कटनीको अमृतसरके सेठ मुसद्दीलालजी आठ रुपए मासिक छात्रवृत्ति देते थे। यह विद्यालयके उपाधिष्ठाता बाबू हर्षचन्द्रजीको मालूम हुआ तो उन्होंने वह छात्रवृत्ति विद्यालयमें रोक ली और प्रेमचन्द्रको यह स्वीकार करनेके लिए बाध्य किया कि वह छात्रवृत्तिकी मांग न करे। इसपर बंशीधरजीने उपाधिष्ठाताजीसे कहा कि छात्रवृत्ति तो प्रेमचन्द्रको दे दी जाय और भोजन फीसके रूपमें वह छात्रवृत्ति उनसे विद्यालयमें जमा कर ली जाय। यह बात उपाधिष्ठाताजीको मान्य नहीं हुई और प्रेमचन्द्रको विद्यालयसे पृथक् कर दिया। इसका बंशीधरजीने विरोध किया, तो उपाधिष्ठाताजीने उनसे भी कहा कि क्यों न आपको भी विद्यालयसे पृथक् कर दिया जाय ?' उत्तरमें बंशीधरजीने लिखकर दे दिया कि प्रेमचन्द्र छात्रका मामला समाप्त हो जानेपर मैं स्वयं ही विद्यालय दूंगा। बंशीधरजी उपाधिष्ठाताजीकी बातका इसलिए विरोध कर रहे थे कि वे वह छात्रवृत्ति एक अन्य छात्रको दिलाना चाहते थे, जो उनकी जातिका था। उपाधिष्ठाताजीकी कार्यवाहीकी अधिकारी वर्ग में कडी प्रतिक्रिया हई और अध्यक्षजीने प्रेमचन्द्रका मामला अपने हाथ में ले लिया। बंशीधरजीने भी अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार विद्यालयसे अलग होकर लाला छेदीलालजीके मन्दिरके नीचेके हाल में एक वर्ष रहते हुए व्याकरणाचार्यका अन्तिम खण्ड उत्तीर्ण किया। यह थी बंशोधरजीको न्यायप्रियता और मनस्विता, जो छात्रावस्थासे ही प्रकट हो चुकी थी। इनकी मनस्विताकी इसी प्रकारकी एक दूसरी घटना है । ये सन् १९४२ में भारत छोड़ो आन्दोलनमें सक्रिय भाग लेनेसे सागरसे बीना आते समय बीना स्टेशनपर गिरफ्तार कर सागर जेल में भेज दिये गये और वहाँसे अमरावती जेल में भेजे गये। वहाँ जेलका सुपरिन्टेन्डेन्ट उस्मान अली था, जो बहुत क्रूर था । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर ध्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ उसने सागरके पं० ज्वालाप्रसाद ज्यौतिषी व पदमनाभ तैलंगको बिना अपराधके गनाहखानेमें भेज दिया था। इसका इन्होंने विरोध किया और उसके द्वारा निर्धारित कार्यक्रममें ये सम्मिलित नहीं हुए। तो उक्त सुपरिन्टेन्डेन्ट जेलर माधवरावके साथ इनके बैरकमें आया और इनसे कहा कि कार्यक्रममें क्यों सम्मिलित नहीं हुए, क्या तुम्हें भी गुनाहखाने में जाना है ?' इन्होंने उत्तर दिया कि 'मैं ज्वालाप्रसाद ज्यौतिषी व पद्मनाभ तैलंगको गुनाहखाने में भेजनेका विरोध करता हूँ ? तब उसने जेलरसे कहा कि 'इन्हें भी गनाहखानेमें भेज दो।' इस तरह इन्हें गुनाहखानेमें भेज दिया गया और इनकी 'बी' श्रेणीको बदलकर 'सी' श्रेणी कर दी गयी तथा 'बी' श्रेणीकी सारी सुविधाएँ 'सी' श्रेणीमें परिवर्तित कर दी गयीं। किन्तु बंशीधरजीने अन्याय पक्षका विरोध करना नहीं छोड़ा और न सुपरिन्टेन्डेन्टसे माफी मांगी। यह थी उनकी न्यायनिष्ठा ।। तीसरी घटना इनके गहस्थ-जीवनकी है। बंशीधरजीका विवाह बीनामें शाह मौजीलालजीकी एकमात्र सुपुत्री लक्ष्मीबाईके साथ सन् १९२८ में हुआ था। शाहजी चाहते थे कि बंशीधरजी बीनामें घरपर ही रहें। इन्होंने कर्तव्यको दृष्टिसे अपने श्वसुर साहब (शाह मौजीलालजी) की कठिनाईको ध्यानमें रखकर बीनामें रहना स्वीकार कर लिया। किन्तु उनसे लोन लेकर कपड़ेका व्यवसाय करनेका निर्णय किया । उनका यह वस्त्रव्यवसाय आज करीब साठ वर्षसे सुचारुरीत्या चल रहा है । अब तो उनके सुयोग्य दो पुत्रोंने उसे सम्हाल लिया है और अपनी योग्यता एवं पिताजीके मार्ग दर्शनमें उसे कई गुना बढ़ा लिया है। तथा उनकी ही तरह न्याय-निष्ठा एवं प्रतिष्ठाको बना रखा है । यह है पं० बंशीधरजीका स्वाभिमान और न्याय्यजीवनकी प्रतिष्ठा। ध्यातव्य है कि बंशीधरजीने वस्त्र-व्यवसायी होकरके भी अपने ज्ञानका निस्पहभावसे उपयोग करना नहीं छोड़ा। प्रवचना करना, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओंमें अनुसन्धान एवं चिन्तनपूर्ण लेख लिखना, संस्थाओंका योग्यतापूर्वक संचालन करना, सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय कार्योंमें भाग लेना, आरम्भसे अबतक, ये सभी प्रवृत्तियाँ उनकी चाल हैं। संस्कृति और सिद्धान्तपर कहींसे कोई बार होता है तो वे उसके निराकरणके लिए उद्यत रहते हैं। सोनगढ़ की ओरसे प्रचारित एवं प्रसारित एकान्त अध्यात्मको वे जैनदर्शनके अनेकान्तवाद और स्याद्वादके प्रतिकूल मानते है। वे ही क्यों, सारा जैनागम और दि० जैन परम्परा उसके विरुद्ध है। निमित्त अकिंचित्कर है आदि सोनगढ़ की मान्यताएँ आगमविरुद्ध है। पं. बंशीधरजीने आगमका पक्ष लेकर इन मान्यताओंका दृढ़तासे निरसन किया है। पं० बंशीधरजी निश्चय ही गम्भीर चिन्तक और प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्वके स्वामी हैं । न्यायप्रियता और स्वाभिमान उनके जन्मजात गुण हैं । श्रद्धा-सुमन .पं० शोभालाल जैन, साहित्याचार्य, जयपुर पंडित बंशीधर व्याकरणाचार्यजीसे मेरा प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं रहा है, लेकिन उनके द्वारा लिख गये गहन सैद्धान्तिक एवं आध्यात्मिक लेखोंसे जो बंध, संवर और निर्जरा सम्बंधी तिकड़ीको समझाने एवं सुलझाने में सच्चे गुरुके समान कार्य कर रहे है । दुसरा सम्बंध, मेरा पूज्यनीय डॉ दरबारीलालजी कोठियाके माध्यमसे है। जैन जगतके अदभत नैयायिकके रूपमें ख्याति प्राप्त डॉ० कोठियाजी साहब इनके भतीजे हैं। अतः पंडितजीके विषयमें कुछ कहना सूर्यको दीपक दिखाना है। ऐसे महान व्यक्तित्त्वके अभिनन्दनके लिये समाजका अभिनन्दन-ग्रंथ प्रकाशित कर उनकी सेवामें प्रस्तुत करना अपनी कृतज्ञता प्रकट करना है । ऐसे मंगल अवसर पर मैं भी उन्हें अपने श्रद्धा-सुमन समर्पित करता हूँ। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोष-कण गोलापूर्व जातिके परिप्रेक्ष्यमें प्रो० यशवन्त कुमार मलैया प्राध्यापक-कम्प्यूटर साइंस विभाग, कोलो रैडो स्टेट यूनिवर्सिटी, फोर्ट कॉलिंस, सी ओ 80523 (303) 491-7031 [विद्वान् लेखकने अपने इस शोध-लेखमें कई महत्त्वपूर्ण तथ्योंको प्रस्तुत किया है, जो न केवल अनुसन्धित्सुओंके लिए दिशा-बोधक है, अपितु इतिहासके मनीषियोंके लिए भी विमर्श-योग्य हैं । उनसे लेखककी व्यापक मनीषा और गहरा चिन्तन प्रकट होता है । आशा है इस शोध-निबन्धसे आदरणीय पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीके शब्दोंमें 'ऐतिहासिक दृष्टिसे अति उपयोगी एक कमीकी पूर्ति हो सकेगी।-प्र०सं०] भूमिका सामाजिक विभाजन केवल भारतमें ही सीमित नहीं है । हर समुदायमें समाज किसी न किसी कारणसे बंटा हुआ है । भारतमें यह जाति-व्यवस्थाके रूपमें काफी विकसित व प्रभावशाली स्थितिमें स्थित है । मानव जातिके विकासके अध्ययनमें जाति-व्यवस्थाका विशेष महत्त्व है। अन्य समुदायोंके विभाजनमें जो गुण पाये जाते है, उन पर जाति-व्यवस्थाके अध्ययनसे काफी प्रकाश पड़ता है। भारतमें व भारतके बाहर, अनेक विद्वानोंने जाति-व्यवस्थाके कई पक्षोंका अध्ययन किया है। संबंधित साहित्यको देखते हुए, यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इस व्यवस्थाके कई पक्ष अभी ठीकसे नहीं समझे जा सके है। विशेषतौर पर जाति व्यवस्थाके ऐतिहासिक उद्भव व विकासका वैज्ञानिक अध्ययन काफी कम हुआ। ___इतिहासका वैज्ञानिक अध्ययन अक्सर राजवंशोंके आधार पर हुआ है। राजवंशों व राज्योंके इतिहासका महत्त्व स्वाभाविक है। परन्तु अक्सर सामान्य जनतासे संबंधित इतिहास पर ध्यान कम दिया जाता है। बहुतसी सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक शक्तियोंका जो अलग-अलग कालमें प्रभाव पड़ा है, वह राजवंशके इतिहासमें दृष्टव्य नहीं है । भारतके सामाजिक इतिहासमें जाति-व्यवस्थाका उचित अध्ययन न होनेसे बहुतसे अनुत्तरित प्रश्न मौजूद हैं। जातियोंकी उत्पत्ति व विकास संबंधित जो साहित्य उपलब्ध है, उसमेंसे बहुतसा किसी विशेष उद्देश्यको लेकर लिखा गया है। इस कारणसे किसी भी वैज्ञानिक अध्ययनमें इस सामग्रीका उपयोग काफी सावधानीसे किया जाना चाहिये। अक्सर किसी एक जातिको ऊँचा दिखाने का प्रयास किया गया है। यह प्रवृत्ति सामान्य लेखकोंमें ही नहीं, विद्वानोंमें भी देखी जा सकती है। चारणों व भाटोंने हरएक राजपूतवंशकी उत्पत्ति या तो रघुवंशी रामचन्द्रसे या यदुवंशी श्रीकृष्णसे बताई है। चारणों आदि को ऐतिहासिक तथ्योंमें कुछ फेर-बदल करने में संकोच नहीं था। लेकिन यह देखकर आश्चर्य होता है कि अंबेडकर जैसे. लेखकने शूद्रोंकी उत्पत्ति क्षत्रियोंसे सिद्ध करने का प्रयास किया था। प्रस्तुत लेखका उद्देश्य एक विशेष जातिको उदाहरण के रूपमें लेकर उसका अध्ययन करना है । गोलापूर्व जैन जातिकी उत्पत्ति व विकासके संबंधमें जो महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रश्न हैं, उनपर विचार किया गया है । जैसा कि आगे प्रस्तुत है, यह अध्ययन तुलनात्मक है। अन्य जैन व हिन्दु जातियोंके अध्ययनके बिना अनेक प्रश्नोंका समाधान असंभव था। किसी भी ऐतिहासिक अध्ययनमें किसी भी धारणाको निस्संदेह प्रमाणित कर सकना असम्भव है। फिर भी लेखकका विश्वास है कि इस अध्ययनसे महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। २-१४ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं. बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ जाति सम्बन्धी जानकारीके सात प्रमुख स्रोतोंका यहाँ प्रयोग किया गया है। जाति-सम्बन्धी कुछ जानकारी प्राचीन संस्कृत व प्राकृत ग्रन्थोंसे मिलती है। इनका विशेष उपयोग आठवीं-दसवीं शताब्दीतक की स्थितिके निर्धारण हैं। देशी भाषाओंमें लिखे कई ग्रन्थ या छोटी-छोटी रचनायें मिलती हैं जो किसी एक जातिको लेकर लिखी गई हैं। ये अठारहवीं शताब्दी तकके आसपासके दृष्टिकोणोंसे लिखी गई हैं। अंग्रेजोंका: राज्य होनेके बाद भारतीय इतिहासका आधनिक तरीकोंसे अध्ययन हआ। अंग्रेज व अन्य यूरोपियन विद्वानोंने बड़े परिश्रमसे शिलालेखों, संस्कृतके ग्रन्थों आदिका अध्ययन किया। जातियोंके रीति-रिवाज, परम्परागत धारणाएँ आदिके बारेमें पुस्तकें लिखी गईं। इस अध्ययनके नेतृत्वका श्रेय यूरोपियन विद्वानोंका है, पर इसमें तत्कालीन भारतीय पंडितोंका योगदान कम नहीं था। भारतमें चेतना व आत्मविश्वास आनेके कारण बहुतसी जातियोंके विद्वानोंने अपनी-अपनी जातिके इतिहास व वर्तमान स्थितिपर पस्तकें लिखीं। बीसवीं शताब्दीमें बहतसे शिलालेख प्रकाशमें आये हैं, और आते जा रहे है, जिससे जातियोंके अध्ययनमें काफी मदद मिली है। स्वतन्त्रताके बाद कई भारतीय व विदेशी लेखकोंने जाति-व्यवस्थापर पुस्तकें व लेख लिखे है। पर इनमेंसे अधिकतरका उद्देश्य वर्तमान स्थिति व परिवर्तन रहा है. जातियोंके इतिहासपर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। जाति सम्बन्धी अनेक शब्दोंमें काफी भ्रांति पाई जाती है । महत्त्वपूर्ण शब्दोंकी यहाँ परिभाषा देना आवश्यक है । जाति शब्द अंग्रेजीके Caste का पर्यायवाची है जो पोर्चुगीज भाषासे निकला है । बोलचालमें जात, उर्दमें जात व संस्कृतमें ज्ञाति इसीके पर्यायवाची हैं । शिलालेखों व प्राचीन ग्रन्थोंमें अन्वय शब्दका प्रयोग जातिके अर्थ में भी किया गया है और सम्प्रदायके अर्थमें भी । परम्परागत तौरपर जातिके दो प्रमुख लक्षण है । (१) एक जातिके सदस्योंका विवाह उसीके अन्तर्गत होता है। इस नियमके अपवाद हमेशा रहे हैं। किसी जातिका स्वतन्त्र अस्तित्व बना रहनेके लिये दो बातें आवश्यक हैं। पहली-जातिके अधिकतर सदस्योंका सम्बन्ध जातिके अन्तर्गत होना चाहिये। दूसरी-जो सम्बन्ध अन्य जातियोंमें हों, उसकी संततिका करीब आधा भाग, जातिका सदस्य बना रहे। (२) हर जाति कुछ गोत्रोंमें विभक्त रहती है। एक ही गोत्रमें विवाह सम्बन्ध नहीं होता। इस नियमका अपवाद बहुत बिरली स्थितियोंमें ही होता है । कई बार एक जाति किसी कारणसे कई उपजातियोंमें बँट जाती है। अगर कोई उपजाति स्वतन्त्र अस्तित्व बनाये रखने में सक्षम है, तो उसे भी एक स्वतन्त्र जाति माना जा सकता है। एक जैसे रीति-रिवाज व सामाजिक स्थितिवाली अनेक जातियोंके समूहको कभी-कभी एक ही संज्ञा दी जाती है। जिस समूहमें उपरोक्त दो लक्षण हों, उसे एक जाति कहा जा सकता है । जातियाँ स्थाई इकाइयाँ नहीं हैं, इनमें संघटन, विघटन व परिवर्तन की शक्तियाँ काम करती रहती हैं। ___ कई बार वर्ण-व्यवस्थाको ही भ्रमसे जाति-व्यवस्था मान लिया जाता है। दोनों व्यवस्थाओं में कुछ सम्बन्ध तो है, पर वे अलग-अलग हैं। मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रोंमें आर्योको चार वर्गों में बाँटा गया है। परन्तु उस समय भी बहुतसी जातियाँ ऐसी थीं, जो किसी एक वर्णमें नहीं रखी जा सकती थी। इन्हें वर्णसंकर माना गया। इनमेंसे कायस्थ जाति प्रसिद्ध है, इन्हें क्षत्रिय माना जाय या शूद्र, यह विवाद अभीतक चला आया है। कई बार यह प्रश्न ब्रिटिश अदालतोंमें भी उठाया गया था । कौनसी जाति किस वर्ण में है, इसका निर्णय कैसे किया जाये ? इसके बारेमें तीन प्रमुख मत है। आजकल सामान्य लोग जो प्रयोग करते हैं, उसे उदार मन कहा जा सकता है। इस मतसे विभाजन वर्तमान सामाजिक व आर्थिक स्थिति देखकर निर्णय किया जाता है। पिछली दो-तीन पीढ़ियोंके पहलेके इतिहासपर विचार नहीं किया जाता है। उदार मतसे भूस्वामी जातियाँ जैसे मराठे, कुर्मी, जाट आदि क्षत्रिय मानी जाती Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : १०५ यह मत क्षत्रिय, हैं, और जो भी जातियाँ वाणिज्यमें लगी हैं, उन्हें वैश्य माना जाता है । दूसरा परम्परागत मत संस्कृत व शास्त्र आदिसे परिचित ब्राह्मणों का मत है। इसके अनुसार वही जातियाँ द्विज ( ब्राह्मण, वैश्य) हैं जिन्हें परम्परागतरूपसे ब्राह्मण उपवीत देते आ रहे हैं। मनु आदि लेखकोंके समयमें द्विज दक्षिणापथमें नहीं बसते थे, इस कारण से दक्षिणापथमें द्विज वही हो सकते हैं जो उत्तरसे जाकर बसे हों। गुजरात व महाराष्ट्र दक्षिणापथ में माने जाते हैं (इसीलिये गुजराती व महाराष्ट्री ब्राह्मण पंचद्रविड़में आते हैं) । परम्परागत मतसे राजपूत, खत्री आदि क्षत्रिय माने जाते हैं, पर कुर्मी जाट आदि नहीं । कई बनिया जातियाँ इस मतसे सच्छूद्र मानी जाती हैं। अधिकतर बनिया जातियाँ जिनमें जैन व हिन्दू दोनों ही हैं, उनके हिन्दू विभागको वैश्य माना गया है ब्राह्मणोत्पत्तिमार्तण्ड' इसी मतको लेकर लिखी गई है । तीसरा मत कठोर मत है जिसके अनुसार द्विजों में वर्तमानकालमें सिर्फ ब्राह्मण ही हैं, क्षत्रिय व वैश्य वर्णोंका नाश हो चुका है । यह नाश कैसे हुआ व कब हुआ, इसके बारेमें संतोषजनक उत्तर नहीं मिलते । फिर भी यह मत ऐतिहासिक दृष्टिसे काफ़ी महत्त्वपूर्ण है । यह मत समय-समय पर कुछ ब्राह्मण पंडितों द्वारा व्यक्त किया गया था । एक बार यह ब्रिटिश अदालतमें भी उठाया जा चुका है'। ऐसा कहा जाता है कि क्षत्रियोंका नाश परशुराम द्वारा संहार किये जानेपर हुआ । चन्द्रगुप्त मौर्य व उसके उपरांतके राजवंशोंको शूद्र माना गया है । वर्तमान में जितने भी राजपूत घराने हैं, किसीके बारेमें ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता जिससे उनका रामायण-महाभारतकालीन क्षत्रियोंसे संबंध माना जा सके । अगर पं० ओझा की गणना मानी जाय तो महाभारतका युद्ध ईस्वीपूर्व १४७१ के आसपास हुआ था। वर्तमान राजपूत वंशों में सबसे पुराने उल्लेख चाहमानों (चौहानों) का ५५१ ई० का माना जा सकता है ८१९ । राष्ट्रकूट (राठौर) वंशका प्रथम उल्लेख ६३० ई०, गुर्जर प्रतिहारों (पडिहार) का ७३० ई०, मेवाड़के गुहिल (गुहिलौत ) वंशका ७३५ ई०, कच्छपघट (कछवाहे) वंशका करीब १००० ई० के आसपास का माना गया है । ये राज्यकी स्थापना के बाद ही प्रसिद्ध हुए हैं । राजपूतोंके पहले उत्तर-पश्चिमी भारतमें शक, हूण, गुर्जर, अभीर आदि जातियोंका व्यापक प्रभाव था । बहुतसे लेखकोंका " मत है कि राजपूतों की उत्पत्ति इन्हीं कबीलोंसे हुई है । इन जातियोंमेंसे जो परिवार प्रभावशाली हो गये, ब्राह्मणोंने उन्हें राजपूत संज्ञा देकर क्षत्रिय मान लिया । गूजर जातिको राजपूत नहीं माना जाता, पर बडगूजर जो गूजर जाति से निकले समझे जाते हैं, राजपूत माने जाते हैं । कछवाहा व काछी (जो आज भी कच्छपघटोंके मूलस्थान में काफ़ी संख्या में हैं ) जातिका भी कभी - कभी ऐसा ही संबंध माना जाता है । इसी प्रकार से गोंडों में से राजगोंड, भारोंसे राजभार, भीलोंसे भिलाल आदिकी उत्पत्ति मानी जाती है । उदयपुरके गुहिलौत (सिसोदिया) व कोचीनके राजपरिवार" की उत्पत्ति अंशत: ब्राह्मणोंसे ही मानी जाती है। पंजाबकी खत्री जाति में यज्ञोपवीत व वेदाध्ययनकी परम्पराको देखकर कभी-कभी उन्हें ही क्षत्रियोंका वंशज माना जाता है | इस परम्पराका उल्लेख आर्यसमाज की स्थापना ( ई० १८७७ ) से भी पहलेका मिलता है । कोई-कोई इन्हें वर्णसंकरोंमेंसे मानते हैं । इसी तरहसे बनिया जातियोंमे से किसीके भी आठवीं शताब्दी के पहलेके उल्लेख नहीं मिलते । इनकी उत्पत्ति या तो राजपूतोंसे (ओसवाल, खण्डेलवाल, बघेरवाल आदि) या क्षत्रियोंसे ( अग्रवाल, गोलाराडे आदि) या ब्राह्मणोंसे (पद्मावतीपुरवार २, अग्रहारी) से बताई जाती । यदि सभी बनिया जाति अन्य वर्णोंसे उत्पन्न हैं, तो कठोर मत के दृष्टिकोणसे प्राचीन वैश्य जातिका अस्तित्व नहीं रह गया है । उपरोक्त तीनों मतों में से कौनसा मत सही है, यह जानना मुश्किल है । लेखकका व्यक्तिगत मत यह है कि वर्तमान जातियोंको चार वर्णोंमें बाँटनेका कोई भी प्रयास उपयोगी नहीं है । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ यहाँ पर ब्राह्मण जातियोंके बारेमें कुछ जानकारी उपयोगी है। ब्राह्मणोंमें सबसे पुरानी जाति कान्यकुब्ज (कनौजिया) है । सरयूपारी (सरवरिया), बंगालके राढ़ी व वैदिक, सनाढ्य, जिझौतिया व छत्तीसगढ़ी कान्यकुब्जोंसे ही निकले हैं। इनके अलावा महाराष्ट्री देशस्थ, कश्मीरी आदिकी उत्पत्ति भी कान्यकुब्जोंसे बताई जाती है । केरलके नंबूद्री अहिच्छत्रसे निकले माने जाते है, जो कन्नौजके ही पास है।" पंचद्रविड व पंचगौडमेंसे लगभग सभीकी उत्पत्ति ब्रह्मर्षिदेश अर्थात् कन्नौजसे मानी जाना चाहिये । कुछ ब्राह्मण जातियाँ देवताओं, ऋषियों या राजाओंकी बनायी कही जाती है, उन्हें अन्य ब्राह्मणोंसे नीचा माना जाता है । कुछ ब्राह्मण जातियाँ यवन या फ़ारससे अद्भुत मानी जाती हैं-संस्कृतसे मिलती-जुलती भाषा बोलनेके कारण उन्हें ब्राह्मणोंमें मान लिया गया। भारतके बाहर थाईलैंड व बाली (इण्डोनेशिया) के ब्राह्मण कंबुज (कंबोडियाके) ब्राह्मणोंके अंतर्गत है। इनके पूर्वज दक्षिण भारतके थे । बहुत सी ब्राह्मण जातियोंको अन्य ब्राह्मण मान्यता नहीं देते, उन्हें शूद्रोंके समकक्ष मानते हैं। इस लेखका प्रमुख उद्देश्य गोलापूर्व (गोलापूरब) जैन जातिका तुलनात्मक अध्ययन है। यह जाति अधिकतर बुन्देलखण्डमें बसती है। शिलालेखोंमें इसे गोल्लपूर्व भी लिखा गया है। सन् १९१४ ई० में प्रकाशित अखिल भारतीय दिगम्बर जैन डायरेक्टरीके अनुसार इसकी जनसंख्या १०,८३४ थी। इस डायरेक्टरीकी जनगणना एकदम सही नहीं थी. फिर भी इसके आधारपर गोलापूर्वोकी वर्तमान जनसंख्याका अनुमान लगाया जा सकता है । इस गणनाके आधार ये हैं १. सन् १९११ व १९२१ के बीच जैनोंकी जनसंख्या करीब-करीब स्थाई थी। 3 अतः जैनोंकी जनसंख्या सन् १९११ व सन् १९१४ में करीब-करीब बराबर रही होगी। २. जैनोंकी जनसंख्या वृद्धिकी दर, भारतमें जनसंख्याकी वृद्धिके दरके लगभग बराबर रही है । सन् १९५१ में जैन भारतकी आबादीके ०.४५% थे, सन् १९७१ में ०.४७% थे । स्वतंत्रतासे पूर्व जैनोंकी प्रतिशत आबादी घटती रही थी। ( सन् १८८१ में ४८% से सन् १९४१ में ३७% ) पर इसका प्रमुख कारण मुसलमानोंकी काफ़ी अधिक वृद्धिकी दर था। ३. जैनोंकी संख्या मध्यप्रदेश व महाराष्ट्र में अधिक बढ़ी है, व गुजराज, राजस्थान व उत्तर प्रदेशमें कम । इसका कारण संभवतः जैनोंमें अन्यत्रसे मध्यप्रदेश व महाराष्ष्ट में आकर बसते रहना प्रतीत होता है । जो भी हो, गोलापूर्वोमें जनसंख्या वृद्धिकी दर समस्त जैन समाजकी दरके लगभग बराबर ही रही होगी। सन् १९११ के आसपास जैनोंकी संख्या १२,४८,१८२१३ व गोलापोंकी १०,८३४ थी१४ सन १९४१ में जैनोंकी संख्या १४,४९,२३६ व गोलापूर्वोकी १२,५६९ हो गई५ 'इससे इस ३० वर्षों में समस्त जैन समाजमें १६.१०% व गोलापूर्वोमें १६.०१% वृद्धि निकलती है। ४. भारतकी जनसंख्या सन् १९११ से सन् १९८१ तक ९७% बढ़ी। अगर वर्तमान दशाब्दीमें वृद्धिकी दर १९७१-१९८१ की दरके बराबर मानी जाये (अर्थात् २४.८%), तो सन् १९८१ व १९८६ के बीच ११.७% वृद्धि हुई होगी। विभिन्न धर्मावलंबियोंकी जनसंख्या, १९८१ की जनगणनासे उपलब्ध नहीं है। फिर भी उपरोक्त अनुमानोंसे गणना की जाय, तो गोलापूर्व जैनोंकी १९८६ में जनसंख्या २३,८४० के आसपास होना चाहिये । इस गणनामें संभवतः ५% से अधिकका दोष नहीं होना चाहिये, इससे जनसंख्याका अनुमान २२,६०० से २५,००० के बीच किया जाना चाहिये। इसी प्रकारसे अन्य दिगम्बर जैन जातियोंकी जनसंख्याका अनुमान दिगम्बर जैन डायरेक्टरीकी संख्यामें २०-२० का गुणा करके किया जा सकता है। इस गणनासे गोलालारे लगभग १२,०००, गोलसिंघारे १,४०० व परवार ९५,२०० होना चाहिये। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : १०७ ये सभी दिगम्बर जैन हैं । इनमें से कुछ हिन्दू भी कहे जाते हैं पर उनके बारेमें कोई जानकारी नहीं मिल सकी । १६ संभवतः इसी नामकी अन्य हिन्दू जातियाँ होनेके कारण यह भ्रम हुआ होगा । गोलापूर्वीका एक भाग पचविसे कहलाता है । बुन्देलखंडकी सभी जैन जातियोंमें परस्पर भोजन व्यवहार रहा है, अर्थात् सभी जातियोंमें एक पंक्ति में बैठनेका अधिकार रहा है । १६, १७ रसैल व हीरालाल के अनुसार गोलापूर्व जैन व नेमा जातियों में पक्के भोजनका व्यवहार था । १६ इनमें गोलापूर्वी व परवारों में कहीं-कहीं विवाह सम्बन्ध होनेका भी लिखा है । हिन्दी विश्वकोष में इनके कपड़ा, घी आदिके व्यापारका उल्लेख किया है ।" जैनोंमें ८४ जातियाँ कही गई हैं, ८४ जातियोंके नामोंकी अनेक सूचियाँ उपलब्ध हैं । 13, १७ इनमेंसे अनेक में गोला पूर्व जातिका नाम है । 2 गोला पूर्व जातिके प्राचीन शिलालेख अनेक स्थानोंमें मिलते हैं । बीसवीं शताब्दीके पूर्व गोलापूर्व जातिके बारेमें जानकारी केवल एक ही प्रमुख स्रोतसे उपलब्ध थी । बुन्देलखण्डमें मलहराके पास खटौरा ग्रामके निवासी नवलसाह चंदेरियाने ई० १७६९ में वर्धमान पुराणको रचना की थी। इसमें ८४ जातिके वैश्योंकी एक सूचीके बाद गोलापूर्व जातिकी उत्पत्तिका वर्णन किया है । गोलापूर्वोके ५८ गोत्रोंकी एक सूची दी है । नवलसाहने अपने परिवार के इतिहासका भी काफ़ी पुराने अर्सेसे वर्णन किया है । १७ वर्तमान शताब्दी में सन् १९११ में अखिल भारतीय दिगम्बर जैन डायरेक्टरीका प्रकाशन हुआ । ४ इसमें सभी दिगम्बर जातियोंके बारेमें अत्यन्त परिश्रमसे एकत्र जानकारी मौजूद है । सन् १९४० में अखिल भारतीय गोला पूर्व डायरेक्टरीका प्रकाशन हुआ, १५ जो गोलापूर्व जातिके बारे में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रकाशन है । अभी कुछ वर्ष पहले एक अन्य गोलापूर्वं जातिकी डायरेक्टरीका प्रकाशन हुआ था, पर उसमें जानकारी अधूरी होनेके कारण उसकी उपयोगिता सीमित है । गोलापूर्व जातिके सम्बन्धमें अनेक प्राचीन शिलालेख प्रकाशमें आये हैं । शोध पत्रिकाओं में गोलापूर्व जाति पर कुछ लेख उपलब्ध हैं । अभी हालमें दमोह नगर व छिंदवाड़ा जिलेके गोलापूर्व जैन समाज द्वारा स्थानीय जनगणना भी प्रकाशित हुई है । १८, १९ जातियोंकी उत्पत्ति कैसे हुई, इसके बारेमें अभी तक स्पष्ट नहीं जाना जा सका है। इसका वैज्ञानिक अध्ययन करनेकी आवश्यकता है। हर जैन जाति कि उत्पत्तिके बारेमें तीन महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछे जा सकते हैं १. जाति की उत्पत्ति कहाँसे हुई ? २. जातिकी उत्पत्ति कब हुई ? ३. उत्पत्तिका कारण क्या था ? अनेक जातियोंकी उत्पत्ति के बारेमें कई किंवदंतियाँ पाई जाती हैं। परम्परागत धारणाओंकी पुष्टि करने के प्रयासको अपेक्षा उचित नियमोंका प्रयोग करके निष्कर्ष निकालना अधिक महत्वपूर्ण रहेगा । अनेक जातियोंकी उत्पत्ति बारेमें जो धारणायें पाई जाती हैं, वे अक्सर कल्पित हैं। अक्सर जातिके नामको लेकर जाति की उत्पत्तिका अनुमान लगानेकी कोशिश की गई है। इस कारण से कई भ्रमजनित कल्पनायें मौजूद हैं, जिनमें से कुछके उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं । १. बनारसीदासने अपने अर्धकथानक में लिखा है कि विहोली ग्रामके राजपुतोंने णमोकार मंत्रकी माला पहनी, इस कारणसे वे श्रीमाल कहलाये । वास्तवमें श्रीमाल जातिका नाम श्रीमाल ( भीनमाल ) स्थानसे हुआ है। २ २. ओसवाल शब्दकी उत्पत्ति अश्ववाल ( अर्थात् राजपूत) से कभी - कभी बताई जाती है । पर यह शब्द निश्चित ही ओसिया ( उपकेश) मूलस्थान के कारण है । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ . ३. जिझौतिया ब्राह्मणोंके बारेमें कहा जाता है कि वे बुन्देलखण्डमें बुन्देले महाराजा जुझार सिंहके कालमें आये, इसलिये वे जुझौतिया कहलाये । जुझौतिया नाम वास्तव में जुझौति (जैजाकभुक्ति) से पड़ा, जो बुन्देलखण्ड क्षेत्रका पुराना नाम है। ४. कछवाहा राजपूत वर्तमानमें अपने को कुशवाहा लिखते हैं और रामके पुत्र कुशसे उत्पत्ति बताते है । पर सबसे पुराने शिलालेखोंमें इन्हें कच्छपघट या कच्छपघात कहा गया है । ५. कान्यकुब्ज (कनौजिया) व सरयूपारी ब्राह्मण अपनेको किसी कान्यजी व कुब्जजीका वंशज कहते हैं ।२° वास्तवमें कान्यकुब्ज ब्राह्मणोंका नाम कन्नौजके पास वास करनेसे हुआ है। ६. खण्डेलवाल शब्दकी उत्पत्ति खण्डु ऋषिसे या राजा गिरखण्डेलसे बताई जाती है२१,२२,२७ । पर यह वास्तव में खण्डेला स्थानके कारण है । ७. महेसरी (माहेश्वरी) शब्दकी उत्पत्ति महेश्वर अर्थात् शिवजीसे कही जाती है । पर संभवतः यह नाम भरतपुरके पार महेशन स्थानके कारण है । अग्रवाल जातिकी उत्पत्तिके बारेमें अनेक पुस्तकोंमें ऊहापोह मिलता है। इनके अग्रवाल कहलानेका कारण समाजमें अग्रणी होना, अगरुकी लकड़ीका व्यापार करना, आगरा शहर आदि कहे जाते हैं। पर इन्हें शिलालेखोंमें अग्रोतकान्वयका कहे जाने आदिके कारण यह निश्चित है कि ये वर्तमान अग्रोहा (प्राचीन अगोदक) स्थानसे निकले हैं। कई बार भ्रमका कारण मूलपुरुषकी कल्पना है। यह इतनी व्यापक है कि कुछ लेखकोंने इसे जाति शब्दकी परिभाषामें स्थान दिया है । पर किसी भी जातिमें मूलपुरुष होना संभव प्रतीत नहीं होता। १. एक ही व्यक्तिके पुत्रोंसे एक स्वतंत्र जाति कभी नहीं बन सकती क्योंकि एक ही व्यक्तिके वंशजोंमें विवाह सम्बन्ध निषिद्ध हैं ।२२। २. किसी दस-बीस परिवारोंसे भी कोई स्वतन्त्र जाति नहीं बन सकती। क्योंकि जिस समाजमें इन परिवारोंका विवाह सम्बन्ध पूर्वकालमें होता होगा उनसे अचानक सम्बन्ध तोड़ना मुश्किल है। किसी समाजसे दस-बीस परिवार तभी अलग हो सकते है जब किसी कारणसे इन परिवारोंकी जातिच्युत कर दिया गया हो। यहाँ पर अग्रवाल जातिका उदाहरण उपयोगी है। अक्सर अग्रवालोंको महाराजा अग्रसेनके पुत्रोंसे उत्पन्न कहा जाता है । जैसा कि बदलूराम गुप्ता । २२ का मत है, यह स्पष्ट ही तर्क संगत नहीं है । अग्रवाल शब्दकी उत्पत्ति अग्रोहाके कारण है, यह तो निश्चित है । यह हो सकता है कि किसी अग्रसेनके कारण अग्रोतक नाम हआ हो । पर अगर यह सही है तो अग्रसेन व अग्रवाल जातिका कोई सीधा सम्बन्ध संभव प्रतीत नहीं होता। क्योंकि अगोदक नाम ई० पूर्व पहली-दूसरी शताब्दीके अवशेषोंमें पाया गया है जबकि अग्रवाल या किसी अन्य वैश्य जातिका ८ वीं शताब्दीके पूर्व अस्तित्व होनेका कोई प्रमाण नहीं मिलता। किसी जातिकी उत्पत्ति के बारेमें अनुसंधानमें निम्नलिखित नियम उपयोगी होंगे। १. कुछ अपवादोंको छोड़कर लगभग सभी वैश्य जातियोंके नाम किसी विशेष स्थानके कारण पड़े है। अगर कोई स्पष्ट कारण न हो, तो सबसे पहले इस स्थानको पहचाननेका प्रयास किया जाना चाहिये । २. कई बार इस मूलस्थानकी पहिचान किसी प्रख्यात स्थानसे की जाती है, पर ऐतिहासिक दृष्टि व गलत प्रमाणित होता है । इस पहिचानमें इस तथ्योंसे पुष्टि की जानी चाहिये। (क) उस जातिका उस स्थानके आस-पास वास । (ख) बहतसे परिवारोंका उस स्थानके आस-पाससे आना। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ग) जाति में उस स्थानके आस-पास की बोलीका चलन होना । (घ) उस स्थानके आस-पास से निकली अन्य समान जातियोंमें पंक्तिभोज या विवाह (द्विविधि या अनुलोम ) की परम्परा । (ङ) प्राचीन शिलालेखों या प्राचानी ग्रंथोंसे जातिका निवास उस स्थानके आस-पाससे प्रमाणित होना । (च) अगर उस जाति में स्थान सूचक गोत्र हैं, तो ये गोत्र-स्थान आस-पास होना चाहिये । २/ व्यक्तित्व तथा कृतित्व १०९ इन नियमोंके उपयोगसे गलन निष्कर्षसे बचा जा सकता है। माहेश्वरी जातिके महेश्वर ( इन्दौरके पास ३) अग्रवालोंकी आगरासे उत्पत्तिकी धारणा इनसे गलत प्रमाणित होती है । जैसवालोंकी जैसलमेरसे उत्पत्ति २४ भी गलत है क्योंकि इस जातिका अस्तित्व जैसलमेरकी स्थापना के पूर्व भी शिलालेखोंसे प्रमाणित होता है । ऊपर दूसरे नियममें जो पाँच परीक्षण दिये हैं, उसमेंसे किसी एकके सही होने या न होनेसे कोई संभावित मूलस्थान सही या गलत सिद्ध नहीं होता। पर यदि सभी पाँच परीक्षण सही है, तब संभावित मूलस्थान करीब-करीब निश्चित है। किसी जातिको उत्पत्ति कब हुई, इसका निर्धारण करना अधिक कठिन है । अगर किसी जाति की उत्पत्ति किसी ऐतिहासिक घटना के कारण हुई, तब केवल उस ऐतिहासिक घटनाके समयकी गणना करना काफ़ी है। उदाहरण के लिये चमारों में सतनामी जातिको उत्पत्ति घासीदासके उपदेशसे हुई । " सन् १८२५ के आस-पास ओसवाल जातिको उत्पत्ति रत्नप्रभसूरि के उपदेश हुई । रत्नप्रभसूरिका समयका निर्धारण नहीं हो पाया है, पर ५वीं से १०वीं शताब्दीके बीच माना जाता है। अधिकतर जातियों की उत्पत्ति किसी एक विशेष समय नहीं हुई होगी। जो एक ही ही स्थानपर अनेक पीढ़ियोंसे रहते होंगे, उनमें ही सजाति होनेकी अधिकतर जातियोंकी रचना ( evolution) में काफ़ी समय लगा होगा। करीब ७ पीढ़ियों तकका पारिवारिक इतिहास याद किसी नाम से प्रसिद्ध होने में कमसे कम ७ X २० कल्पना उचित है तो किसी जातिका अस्तित्व उसके अवश्य रहा होगा । तरहके व्यवसाय, संस्कारके लोग एक भावना हुई होगी । ४२ इस प्रक्रियासे अगर यह माना जाये कि सामान्यतः रखा जाता है, तो किसी भी जातिमें एकत्व आने व उसके १४० वर्षोंका अन्तर माना जा सकता है। अगर यह सबसे पुराने उल्लेखसे कमसे कम डेढ़ सौ वर्ष पहले ३७ गोत्रोंके सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछा जा सकता है। जातिकी उत्पत्ति पहले हुई या गोत्रोंकी ? गोत्रोंके बिना जातिका अस्तित्व असंभव है । कुछ गोत्र जातिके पहले या जातिके साथ ही उत्पन्न हुये होंगे । कई बार एक ही गाँव में रहने वालोंको एक ही पूर्वजसे उत्पन्न माना जाता है, 30 और उस गाँवके नामसे ही एक गोत्र बन जाता है। गोत्र व्यवसायके कारण भी बनते हैं क्योंकि अक्सर लोग अपना पैतृक व्यवसाय ही सीखते थे । ब्रिटिश राज्यके पहले गोलापूर्व जातिको उत्पत्ति के बारेमें एक ही ग्रन्थ में उल्लेख मिलता है ।२५ मलहरा (जिला छतरपुर) के पास खटौरा ग्राम में नवलसाह चंदेरियाने ई० १७६९ में वर्धमान पुराण की रचना की थी। इसके अन्तिम अधिकार में कविने अपने आत्मपरिचयके सिलसिले में गोलापूर्व जातिके बारेमें काफ़ी महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है। इसके अनुसार किसी गोयलगढ़ के निवासी भगवान् आदिनाथ के उपदेशसे श्रावक हुये व गोलापूर्व कहलाये कविने इक्ष्वाकु वंशका उल्लेख किया है, यह स्पष्ट नहीं है कि यह शब्द आदि जिनेश के लिये प्रयुक्त है या गोयलगढ़ के वासियोंके लिये । 1 यहाँ पर कविकी ऐतिहासिक जानकारीकी परीक्षा आवश्यक है जैसा कि आगे प्रमाणित किया Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ गया है। खटौरा ग्राम उस क्षेत्रमें स्थित है जहाँ गोलापूर्व प्राचीनकालसे रहते आ रहे है । कविने १३४ वर्ष पूर्व बुन्देले जुझार सिंह (१६२७-१६३५) के राज्यकालमें (ई० १६३४) में अपने पूर्वजों द्वारा गजरथ चलाये जानेका उल्लेख किया है, और तबसे अपनी वंशावली दी है। कविने इनके भी बहुत पहले (चतुर्थ काल चंदेरीमें अपने पूर्वज गोल्हन शाहका उल्लेख किया है । यह सही मालम होता है क्योंकि चंदेरिया नाम चंदेरीमे रहने के कारण ही पड़ा होगा, और बारहवीं शताब्दीके शिलालेखोंमें गल्हण, रल्हण, खेल्हण, कल्हण आदि नाम पाये गये हैं। कविने बुन्देलखण्ड की गहोई जातिको गृहपति कहा है और उनमें 'जैन लगार' का उल्लेख किया है। प्राचीन शिलालेखोंसे यह बात प्रमाणित होती है। बीसवीं शताब्दीके आरम्भमें गहोई जातिमें कोई भी जैन नहीं थे, वह अपने प्राचीन नामकी जानकारी संभवतः गहोई जातिमें भी नहीं थी ।२.१६ __ स्पष्टतः गोलापूर्व जातिकी स्थापना भगवान् आदिनाथके समयमें असंभव है। पर किसी गोयलगढ़से उत्पत्ति संभव है। यति श्रीपालचन्द्रने चौरासी जैन जातियोंकी उत्पत्तिके स्थान दिये है। इसमें कई सही है, पर कुछ कल्पित मालूम होते हैं। इनमें गौलवाल जातिके लिये गौलागढ़ स्थान दिया है परन्तु गोयलगढ़की पहिचान नहीं हो सकी है। किसी-किसीने ग्वालियर माना है। परन्तु ग्वालियरके आसपास न तो गोलापूर्वोके कोई शिलालेख पाये गये हैं, न वहाँ गोलापूर्वोकी आबादी रहने का प्रमाण मिलता है । परमानन्द शास्त्रीने इसे चंदेरी के पास गोलाकोट (जिला गुना) माना है। पर इस स्थानके आसपास भी न तो गोलापूर्वोके शिलालेख मिलते हैं, और न ही गोलापूर्वोकी विशेष जनसंख्या रही है। नाथूराम प्रेमी" का अनुमान था कि इस जातिका उद्धव सूरतके आसपास कहींसे हुआ है, पर यह निश्चित ही गलत है। गोलापूर्व शब्दकी कुछ अन्य उत्पत्तियां बतायी जाती हैं, पर वे स्पष्टतः कल्पनायें हैं । गोला (या गोल्ला) शब्द किसी स्थानका सूचक है, इस स्थानकी पहिचान एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न रहा है । यहाँपर ये बातें विचारणीय हैं। (१) जैनोंमें ही एक गोलालारे जाति है, इसे शिलालेखोंमें गोलाराडे कहा गया है । जिस प्रकार महाराष्ट्र के निवासी मराठे, सौराष्ट्रके निवासी सोरठे (सोरठिया) काराष्ट्रके निवासी कर्हाडे, उसी तरह गोलाराष्ट्र (अर्थात् गोला देश) के निवासी गोलाराडे कहलाये । इसी प्रकारके अहारके लेखोंमें गर्गराट जातिका उल्लेख है ।२७ ये ही गंगराड होंगे जिनकी उत्पत्ति गंगराड स्थानसे बताई गई है। वर्तमानमें गंगेरवाल कहलाते है, इन्हें ही नवलसाहने गागड़ कहा है। गंगराड स्थान संभवतः वर्तमान गंगाधर (जिला झालवाड़) है।८।। (२) गोलसिंघारे (गोल शृंगार) भी गोला स्थानसे निकले होंगे । (३) आगरा जिलेके आसपास एक गोलापूर्व ब्राह्मण जाति निवास करती है।५,२२ इसके अलावा दजियों व कलारों में भी गोलापूर्व नामके विभाग है ।१६ एक ही स्थानसे निकली अनेक जातियाँ अक्सर एक ही नामसे कहलाती हैं । ये उदाहरण दृष्टव्य हैं ।१६,२५ (क) कनौजिया (कान्यकुब्ज, कन्नौजके) : ब्राह्मण, अहीर, बहना, भड़भूजा, भाट, दहायत, दर्जी, धोबी, हलवाई, लुहार, माली, नाई, पटवा, सुनार व तेली। (ख) जैसवाल [जैस (जिला रायबरेली) के] : बनिया, बरई, (पनवाड़ी) कुरमी, कलार, चमार व खटीक । (ग) श्रीवास्तव (श्रावस्तीके) : कायस्थ, भडभूजा, दर्जी, तेली । (घ) खंडेलवाल (खंडेलाके) : ब्राह्मण, बनिया । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : १११ (ङ) पल्लीवाल (पालीके) : ब्राह्मण, बनिया। (च) श्रीमाल, श्रीमाली (श्रीमाल या भीनमालके) : ब्राह्मण, बनिया । (छ) बघेल (बघेलखण्डके) : भिलाल, गोंड, धोबी, माली, पंवार । (४) एक जैन धातु प्रतिमाकी स्थापकको गोलावास्तव्य लिखा गया है । १५ (५) आठवीं शताब्दी में उद्योतनसूरि रचित कुवलयमालामें इन देश-भाषाओंका उल्लेख है-मगध, गोल्ला, मध्यदेश, आंध्र, अन्तर्वेदी, कोशल, मालव, कर्नाटक, सिन्धु, गुर्जर, मरु, महाराष्ट्र, ताजिक, टक्क और कीर।३० दसवीं शताब्दीके राजशेखरने काव्यमीमांसामें, पुष्पदंतने नयकुमारचरिउमें व बारहवीं शताब्दीके रामचन्द्रमाणचन्द्रने नाट्यदर्पणमें भी यही देश-भाषायें लिखी हैं ।३० (६) चंद्रगिरि (श्रवणबेल्गोल) के एक ई० ११६३ के लेखमें गोल्लदेशके गोल्लाचार्यका उल्लेख है। इनके विषयमें आगे विचार किया गया है । यह स्पष्ट है कि जैनोंमें गोलापूर्व, गोलालारे, गोलासघारे व अजैनोंमें गोलापूर्व ब्राह्मण, दर्जी व कलार, ये सभी किसी गोला (या गोल्ला) स्थानके वासी थे। इस गोल्ला देशकी स्थिति इतिहासमें एक महत्त्वपूर्व समस्या रही है । इस समस्या पर इस लेखमें आगे विचार किया गया है । गोलापूर्व शब्दमें पूर्वका अर्थ क्या है। यह पूर्व दिशा-सूचक नहीं है। बुन्देलखण्डको जैन जातियोंमें गोलापूर्व ही सबसे पूर्वके वासी थे। परन्तु गोलापूर्व ब्राह्मणोंका निवास उत्तर दिशामें है। पूर्व समयका सूचक है । पूर्वकालसे गोल्ला देशमें रहनेके कारण ही ये गोल्लापूर्व कहलाये । इसी प्रकारसे अयोध्यापूर्व जाति, जिसका वर्धमानपुराण व विजातीय-विवाह-मीमांसा3 में उल्लेख है, का नाम पड़ा होगा (यह अब अयोध्यावासी कहलाती है)। गोल्लादेशकी स्थिति श्रावस्तीसे उदभत अनेक जातियोंका अस्तित्व होनेपर भी, श्रावस्ती कहाँ है, इसका स्मरण नहीं रहा था । श्रावस्ती (वर्तमान सहेठ-महेठ) की पहिचान ब्रिटिश राज्यकालमें उत्खनन होनेके बाद हुई । इसी प्रकारसे गोल्लादेशकी स्थिति कहाँ थी, इसकी स्मति नहीं रही है, यद्यपि वहाँसे कई जातियाँ निकली हैं। भारतमें गोला (या मिलते-जुलते) नामके अनेक स्थान है ।२ ग्वालियर व गोला कोटका उल्लेख पीछे किया गया है। उत्तर प्रदेशमें गोला नामके दो ग्राम गोरखपर व खीरी जिलेमें हैं । गोलागोकर्णनाथ एक प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ है। उत्तर प्रदेश में हो शाहजहानपुर जिले में गोलारायपुर नामका एक प्राचीन ग्राम है जहाँ बौद्धकालीन अवशेष पाये गये थे। दक्षिणमें कृष्णा जिले में गोलि व बेलग्राम जिले में गोलिहल्लि नामके स्थान हैं, पर इनमेंसे कोई भी उपयुक्त मालूम नहीं होता। कुवलयमाला आदि ग्रन्थोंमें गोल्ला देशकी विशेष देश-भाषाका उल्लेख होनेसे मालम होता है कि यह काफ़ी बड़ा क्षेत्र रहा होगा। कालान्तरमें इस प्रदेशका कोई अन्य नाम पड़ गया होगा, व गोल्ला देशकी स्मृति समाप्त हो गई होगी। अगर गोलापूर्व, गोलालारे व गोलसिंघारे जातियों के प्राचीन कालीन निवास स्थानका पता चल सके, तो गोल्लादेशको स्थिति पर प्रकाश पड़ सकता है । यहाँपर उपरोक्त ५ नियमोंका प्रयोग किया जायेगा। १. जातियोंका वर्तमान निवास : वर्तमान में गोलापर्व व गोलालारे जातियां बिखरकर अनेक स्थानोम बस गई हैं। फिर भी गोलालारे जाति अधिकतर झाँसी (उत्तर प्रदेश) व भिड (मध्य प्रदेश) के आसपास बसती है१४ व गोलापूर्व मध्यप्रदेशके बुन्देलखण्ड भागमें (टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, सागर, दमोह) में बसत २-१५ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ हैं।१५ सन् १९१५ की दिगम्बर जैन डायरेक्टरीसे मालूम होता है कि उस समयमें गोलालारोंकी सबसे अधिक जनसंख्या ललितपुर जिला झाँसी (४००) व भिण्ड (२७०) में बसती है। यह संभव है कि ये ललितपुरमें अच्छा व्यवसाय होनेके कारण अन्यत्रसे आकर बसे हों (कहावत है-ललितपुर कबहुँ ना छोडिये, जब तक मिले उधार)। इनका उद्गम कभी-कभी भिडके आसपाससे माना जाता है, जो सही प्रतीत होता है। सन् १९४० की गोलापूर्व डायरेटरीके अनुसार गोलापूर्वोकी सबसे अधिक जनसंख्या पुरानी ओरछा रियासतमें (१,६७८) अर्थात् टीकमगढ़ जिलेमें व सागर जिलेकी बंडा तहसीलमें (१,७३२) में थी । ये दोनों लगे हुए हैं । जैन तीर्थ आहार व कई अन्य जैन तीर्थ, इसी क्षेत्रमें हैं। दिगम्बर जैन डायरेक्टरी के अनुसार गोलसिंघारे सबसे अधिक इटावा उत्तर प्रदेश (२९८) में बसे हैं।१४ २. गोलापूर्व बुन्देलखंडके आंतरिक भाग (अहारके आसपास) से ही अन्यत्र जाकर बसे हैं, ऐसा प्रतीत होता है ।२५ सागरके फुसकेले सिंघई लगभग १२५ वर्ष पहले मदनपुर (जि० झाँसी) से आये थे । पाटन (जि. सागर) के रांधेले सिंघई कई पीढ़ियों पहले अहारसे आकर बसे हैं। हटा (जि० दमोह) के टैंटवार सिंघई बमनी (जि. छतरपुर) से करीब २०० वर्ष पहले आये थे। रीठी (जि० जबलपुर) के पड़ेले १२५ वर्ष पहले पठा (जि० टीकमगढ़) के वासी थे। कटनीके पटवारी कोठिया करीब ९० वर्ष पहले गोरखपुरासे आये थे। इन परिवारोंके सदस्य अब अनेक अन्य स्थानोंमें जाकर बस गये है। सन् १९०२ के दमोह गजेटियरके अनुसार दमोहके गोलापूर्व टीकमगढ-टेहरीके आसपाससे आये हैं। ३. सभी गोलापूर्वोमें बुन्देलखंडी बोलनेका ही चलन है । जो बुन्देलखण्डके बाहर कई पीढ़ियोंसे हैं, वे खड़ी बोली बोलने लगे हैं। ४. बुन्देलखण्डकी सभी जैन जातियोंमें परस्पर पंक्तिभोजका व्यवहार रहा है । परवार-मूर-गोत्रावली व वर्धमान पुराणमें साढ़े बारह समकक्ष जैन जातियाँ कहीं हैं जिनमें परवार, गोलापूर्व, गोलालारे व गोलसिंघारे शामिल है। गोलापूर्वो व परवारों में कभी-कभी विवाह सम्बन्ध भी हुआ करता था ।६ एकबार एक प्रस्ताव रखा गया था कि पचविसे गोलापूर्वोके गोलालारे जातिमें मिला लिया जाये (पर मान्य नहीं हुआ था) | बुन्देलखण्डकी जैन जातियोंमें कुछ गोत्रोके नाम एकसे हैं। पंचरत्न गोत्र गोलापूर्व, गोलालारे व परवार तीनों जातियोंमें है। इस सबसे यह निष्कर्ष निकलता है कि ये जातियाँ एक-दुसरेके आस-पास हो निवास करती होंगी। गोलापूर्व जातिके प्राचीन शिलालेख अहारक्षेत्रके आस-पास बड़ी संख्यामें पाये गये हैं। पपौराजीमें ई० ११४५ के, नावईमें ई० ११४६ का, अहारजीमें ११४६ व ११५६ के, छतरपुरमें ११४९ का, ललितपुरमें ११८६ का, महोबामें ११६२ व ११८६ के लेख पाये गये हैं। इस क्षेत्रमें कई अनेक अन्य शिलालेख पाये गये हैं, जिनपर किसी जातिके नामके उल्लेख नहीं हैं, इनमेंसे कई गोलापूर्वोके होंगे। महोबामें एक कुंआ खोदते समय २४ जैन प्रतिमायें प्राप्त हुई थीं । इनमेंसे उपरोक्त एक पर सं० १२१९ (ई० ११६२), दो पर सं० १२४३ (ई०११८६) पर गोलापूर्वान्वयके उल्लेख हैं। चार अन्य पर सं० ८२२, सं०८३१, सं० ११४४ (६०१०८७) व सं० १२०९ (ई० ११५२) के लेख है, पर किसी जातिका उल्लेख नहीं है। सं० ८३१ व सं०८२२ के लेखोंका संवत् विक्रम सं० (ई० ७६५ व ७७४) या शक सं० (ई० ९०० व ९०९) हो सकता है। पर यह भी हो सकता है कि ये कलचुरि सं० हों (ई. १०७१ व १०८०)। इस समयके आसपास कलचुरि-चेदिके कर्णदेवने चंदेलोंके राज्यपर कुछ वर्षों के लिये अधिकार कर लिया था। कुछ ही वर्षों बाद चंदेल कीर्तिवर्माने पुनः अधिकार कर लिया था। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ११३ ___ यहाँपर बहोरीबंदके लेखका उल्लेख आवश्यक है। यह जैजाकभुक्ति (चंदेलोंके राज्य) के बाहर डाहल कलचुरि-चेदि राज्य) में था। यहाँ शांतिनाथकी प्रतिमापर एक लम्बा,प्रसिद्ध लेख है, पर उस पर संवत् स्पष्ट नहीं पढ़ा गया है । किसी-किसीने इसे वि० सं० १०१० (ई० ९५४) पढ़ा है३१ । इसमें गयाकर्णदेव सामन्त गोल्हणदेवके समयमें गोलापूर्वाम्नायके, माधवनन्दिके अनुयायी साधु महाभोजद्वारा शांतिनाथके मंदिरके निर्माणका उल्लेख है । यहाँ “गोलापूर्वाम्नाये" शब्द महाभोजके लिये प्रयुक्त लगता है। वैसे जैसे उपकेशगच्छ व ओसवाल जाति दोनों ओसियासे उदभत हैं, हो सकता है गोलापूर्वाम्नाय कोई गच्छ या गण रहा हो। कलचुरि राजा गयाकर्ण वही हैं जिनका विवाह गुहिल विजयसिंहकी पुत्री अल्हणदेवीके साथ हुआ था। चंदेल मदनवर्माने किसी चेदि राजाको हराया था, इसे गयाकर्ण ही माना गया है" । गयाकर्णका समय ई० ११२३ से ११५३ माना गया है । यह स्पष्ट है कि यह लेख वि० सं० १०१० का नहीं हो सकता। यह स्पष्ट है कि बारहवीं शताब्दीके मध्यमें गोलापूर्व जाति काफ़ी दुरत क फैलकर बस चुकी थी। अहारके ई० १२३१ के लेखमें "प्रख्यातवंशे गोलापूर्वान्वये" लिखा गया है। इससे यह माना जा सकता है कि गोलापर्व जाति बारहवीं शताब्दीसे कई सौ वर्ष पहले विद्यमान थी। गोलाराडे जातिके लेख ग्यारहवीं शताब्दोके अन्तसे मिलते हैं। ७ भिडके आसपास इनके प्राचीन लेख पाये गये हैं या नहीं, यह ज्ञात नहीं हो सका है। गोलसिंघारे जातिके ई० १६३१ के पूर्व उल्लेख देखनेमें नहीं आये। ५. गोलापूर्व जातिमें कुछ गोत्र कुछ स्थानोंके नामपर हैं । चंदेरिया, पपौरहा, मरैया, भरतपुरिया, भिलसैया, जतहरिया, धवलिया, बदरौहिया, हीरापुरिया; कनकपुरिया, पटोरिया, दगँया, सिरसपुरिया व गडोले ग्रामके नामपर ही हुए हैं । चंदेरिया चंदेरी (जि० गुना), पपौरहा पपौरा (जि० टीकमगढ़); हीरापुरिया हीरापुर (जि. सागर), धमोनिया धामोनी (जि. सागर) व मरैया मरौरा (जि. झाँसी) के वासी थे। भिलसैया सम्भवतः उसी भेलसी ग्रामके वासी थे जहाँ नवलशाह चंदेरियाके पूर्वज रहते थे। अन्य ग्रामोंकी पहिचानके लिये शोधको आवश्यकता है। गोलालारे जातिमें चिनौरिया, जसौरिया, जैपुरिया, नागपुरिया, पचमढ़िया आदि गोत्र हैं, पर सम्बन्धित ग्राम पहिचानमें नहीं आये हैं । उपरोक्त पाँच नियमोंपर विचारसे ये निष्कर्ष निकलते हैं (मानचित्र-१)। गोलापूर्व जातिका मूलस्थान पपौरासे धामोनी (करीब चालीस मील) व आसपास नश्चित है। यह टीकमगढ़ व छतरपुरका दक्षिणी भाग व बंडा तहसीलका उत्तरी भाग है। इस क्षेत्रमें ही पपौरा, अहार, द्रोणागिरि व नैनागिरि जैन तीर्थ हैं । ३. गोलालारे : इस जातिका मूलस्थान भिंडके आसपास प्रतीत होता है । इसे निश्चित करनेके लिये शोधकी आवश्यकता है। ३ गोलसिंघारे: ये भी भिडके आसपाससे उत्पन्न लगते हैं। इनके प्राचीन लेख न मिलनेसे लगता है कि सम्भवतः ये गोलालारे जातिकी ही शाखा है। ___ गोलापूर्व ब्राह्मणोंके बारेमें विशेष जानकारी नहीं मिल सकी है । ये भिंडके उत्तरमें आगरा व इटावा जिले में अधिकतर रहते हैं। सन् १९४० में ये अपनी जनसंख्या ३-४ लाख बताते थे।१५ परन्त जनसंख्याके अनुमान अक्सर गलत होते हैं। यथा अग्रवालोंकी जनसंख्या एक करोड़ बताई गयी है जो स्पष्टतः असम्भव है ।२२ फिर भी गोलापूर्व-ब्राह्मणोंकी वर्तमान जनसंख्या कम-से-कम ६०-८० हजार होना चाहिये । इनकी उत्पत्तिके बारेमें कुछ किंवदन्तियाँ हैं, पर वे काल्पनिक ही मालूम होती है। इन्हें सन्नाढ्य ब्राह्मणोंसे उद्भूत . Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४: सरस्वती वरदपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ मानचित्र : १ गोलापूर्व, गोलालारे, गोलसिंघारे व परवार जातियों के प्राचीन निवास-क्षेत्र गो परारमण गोलारे गोहामिचारे रोजरो किसगट) on दमानी परवार रिब्द ह ल Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व ११५ माना जाता है, जो सही प्रतीत होता है । इनका गोलापूर्व जैनोंके साथ क्या सम्बन्ध है इसपर आगे विचार किया गया है । गोलापूर्व दजियों व कलारोंके बारेमें कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है । गोलापूर्व डायरेक्टरीमें गोलापूर्व क्षत्रियोंका उल्लेख है, पर ऐमा लगता है इनका अस्तित्व नहीं है । गोलापूर्व ब्राह्मण कृषक है, उनके ही किसी समुदायको भ्रमसे क्षत्रिय मान लिया गया होगा। गोल्ला देशकी स्थितिका निश्चित प्रमाण श्रवणबेल्गोलाके दो लेखोंसे होता है। ये लेख अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं व इनसे न केवल गोल्ला देशकी स्थिति, बल्कि बुन्देलखण्डके इतिहासपर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। चन्द्रगिरिपर स्थित ई० ११६३ के एक लेखमें गोल्लदेशके गोल्लाचार्यका उल्लेख है। ई० १११५ के एक अन्य लेखमें 'चंदिल" कुलके, गोल्लदेशके भूपालका उल्लेख है। "चंदिल" निस्संदेह चंदेल कुलके लिये है। गोल्लदेश वही देश है जहाँ चंदेलोंका राज्य था। चन्देलोंका राज्य अक्सर जैजाकभुक्ति कहलाता है। अलविरूनोने लगभग ई० १०३० इसे जजहति कहा है।३१ यह नाम चन्देल जयशक्ति (लगभग ई० ८५५) के कारण पड़ा था जिसे जैज्जाक भी कहते थे।३२ इसी क्षेत्रका दूसरा व प्राचीनतर नाम गोल्लादेश था। ई० १५३१ में ओरछापर बुन्देलोंका राज्य हो जानेके कारण यह कालान्तरमें बुन्देलखण्ड कहलाया। गोल्लाचार्य कौन थे? ई० १११७ में, या उसके पूर्व चन्देल जयवर्मा गद्दीपर बैठे थे। जयवर्माने थोड़े ही समय बाद गद्दी छोड़ दी व उसके चाचा पृथ्वीवर्माका राज्य हआ। पथ्वीवर्माके पुत्र मदनवर्माके राज्यकालके ई० ११२९ से ११६३ तक लेख मिलते हैं। मदनवर्माके बाद उसका पौत्र परमाद्धि (परमाल) का राज्य हुआ जिसके ई० ११६५ से १२०१ तकके लेख मिलते हैं। हो सकता है जयवर्माने दीक्षा ली हो और उन्हें ही गोल्लाचार्य कहा गया हो । परन्तु सबसे अधिक सम्भावना मदनवर्मा की है । इस सम्भावनापर आगे विचार किया गया है। चन्देलोंके राज्यका विस्तार कभी कम, कभी अधिक रहा है । खजुराहोंके ई० ९५५ के लेखमें धंगका राज्य उत्तरमें यमुनासे लेकर दक्षिणमें चेदिको सीमातक, पूर्व में कालंजरसे पश्चिमो गोपाद्रि (ग्वालियर) व भेलसा (विदिशा) तक लिखा गया है।' मदनवर्माके लेखोंके विस्तारसे पता चलता है कि उसका राज्य खजुराहो, महोबा व कालंजर के अलावा भेलसा मउ (जि० झाँसी) तक रहा था। चन्देलोंके राज्यका अस्थाई विस्तार उत्तर-पश्चिममें कान्यकुब्ज व अहिच्छत्र तक रहा था। यह प्रतीत होता है कि चन्देलोंका राज्य ग्वालियर, भिडके आसपास कभी रहा था, पर स्थायीरूपसे नहीं। बुन्देलखण्ड वह क्षेत्र कहलाता है जहाँ बुन्देलोंका राज्य रहा था । मध्य प्रदेश में इसके दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर व पन्ना जिले है। सागर व दमोह जिलोंके उत्तरी भाग भी बुन्देलखण्डमें है। उत्तर प्रदेशमें झाँसी, हमीरपुर व बाँदा जिले बुन्देलखण्डमें माने जाते है । ग्वालियरके पास दतिया जिलेमें भी बुन्देलोंका राज्य रहा है । भिंड, इटावा व आगरा जिलेकी भाषा बुन्देली नहीं ब्रज मानी जाती है । अगर गोल्लादेशमें एक ही देशभाषा थी तो वहाँ वर्तमान में दो बोलियाँ कैसे हो सकती हैं ? वास्तव में बुन्देली व आगराभिडकी बोली लगभग एक ही हैं। इन्हें “पश्चिमी हिन्दी" कहा गया है। यह बात ग्वालियरके लिये भी लागू होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि गोल्लादेशका विस्तार उत्तर दक्षिणमें भिडसे सागर जिलेके उत्तरी भागतक था। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि बुन्देलखण्डके ब्राह्मण गोलापर्व नहीं कहलाते । इसका कारण स्पष्ट है । बुन्देलखण्डमें कान्यकुब्जसे ब्राह्मण आकर बसते रहे हैं । चन्देलोंके राज्यमें यह भाग जैजाकभक्ति कहलानेसे, Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ सरस्वती वरद्पुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ यहाँके ब्राह्मण जिमीतिया कहलाने लगे। जो कान्यकुब्ज ब्राह्मण पिछले सौ-दो सौ सालसे आकर बसे हैं, वे अपनेको कान्यकुब्ज हो कहते हैं व जिझौतिवासे अपनेको ऊंचा मानते हैं। गोल्लादेशका जो भाग जैजाकभुक्ति नहीं कहलाया वहाँ के ब्राह्मण गोलापूर्व कहलाते रहे । कुवलयमाला आदि ग्रन्थोंसे पता चलता है कि टबसे १२वीं शताब्दी के आसपास भारत के अधिकांश भागमें करीब १८ प्रमुख देश भाषायें बोली जाती थीं। इनमें से सभीकी पहिचान की जा सकती। वर्तमान भारतीय बोलियों व भाषाओंसे इनका काफ़ी मेल लगता है यहाँवर Historical Atlas & South Asia में के मानचित्रोंका प्रयोग किया गया है । आंध्र : वर्तमान तेलुगू भाषाका क्षेत्र अर्थात् आंध्र प्रदेश । कर्णाटक वर्तमान कन्नड भाषी प्रवेश, कुछ उत्तरी भागको छोड़कर समस्त कर्णाटक प्रदेश | सिंधु सिंधी भाषी । मुलतानको छोड़कर व कच्छको मिलाकर पाकिस्तानका सिंध प्रदेश | गुजर गुजराती क्षेत्र गुजरातका अधिकतर भाग व राजस्थानका घोड़ासा भाग । महाराष्ट्र मराठी भाषी गोआ, कर्णाटकका कुछ उत्तरी भाग विदर्भका काफ़ी भाग गोंड आदि जातियोंसे बसा था, व महाराष्ट्रका भाग नहीं माना जाता था । ताजिक : वर्तमान सोवियत संघ व चीनमें ताजिक भाषी प्रदेश । प्राचीनकाल में यहाँके यारकन्द व खोतान आदि में पंजाब आदिसे व्यापारिक सम्बन्ध थे व भारतीय संस्कृतिका काफ़ी प्रभाव था । टक्क पंजाबी भाषी पाकिस्तानी व भारतीय पंजाब सम्भवतः हरियाणाका कुछ भाग मुलतानको भी इसी क्षेत्र में माना जाना चाहिये । मह : राजस्थानी ( मारवाड़ी) प्रवेश । वर्तमान में मारवाड़ी व मालवीको सम्बन्धित माना जाता है । राजस्थानमें अरावलीके दक्षिणकी भाषाको मालवी माना जाना चाहिये । ब्रज-भाषी प्रदेशमें इस क्षेत्रके बाहर माना जाना चाहिये । मालव : वर्तमान मालवा व दक्षिणी राजस्थान । मगध बिहारी व भोजपुरी (पूर्वी उत्तर प्रदेश ) भाषी प्रदेश । कोशल: कोशल नामक दो स्थान थे। एक तो काशीके आसपास और एक मध्य प्रदेशके छत्तीसगढ़ क्षेत्रमें जो दक्षिण कोशल कहा जाता है। वर्तमानमें दोनों क्षेत्रकी भाषायें पूर्वी-हिन्दी के अन्तर्गत आती हैं। अतः कोशल देश- भाषाका क्षेत्र पूर्वी हिन्दी (अवधी, बघेली व छत्तीसगढ़ी ) का क्षेत्र ही माना जाना चाहिये । इसमें छत्तीसगढ़ीका दक्षिणी भाग नहीं माना जाना चाहिये जहाँ गोंड आदि जातियोंका निवास था । 1 मध्यदेश: इस शब्दका प्रयोग उत्तर भारतके काफ़ी भागके लिये किया जाता था। देश-भाषाओंके संदर्भ में, यह स्पष्ट ही यह वर्तमान पश्चिमी हिन्दी (हिन्दुस्तानी, ब्रज व बुन्देलखण्डी) क्षेत्रका उत्तरी भाग है जहाँ खड़ी बोली बोली जाती है । अन्तर्वेद यह गंगा-यमुनाके बीचका दोआव है। दोजाबेके अधिकतर भागको देश- भाषाकी ही यह संज्ञा होगी । गोल्ला : उपरोक्त क्षेत्रोंको निकाल देनेसे एक ही भाग बचता है-यमुना व नर्मदाके बीचका पश्चिमी हिन्दीका भाग, जिसमें ब्रज व बुन्देली बोली जाती है। इसके अधिकतर भागकी राजनैतिक गोल्लादेश से पहिचान कारकी ही जा चुकी है। मानचित्र - २ में ये सभी क्षेत्र दिखाये गये हैं। दक्षिणी मध्यप्रदेश, विदर्भ व उड़ीसा के काफ़ी बड़े भूखण्ड में आज भी बड़ी संख्या में गोंड आदि आदिवासी बसते हैं। प्राचीनकाल में इस क्षेत्रमें न तो महत्त्व Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ११७ मानचित्र : २ MINNI HTTA LAM ब कुवलयमाला कहा (८वीं शताब्दी) में वर्णित देश- भाषायें Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ पूर्ण स्थान थे न ही अधिक आवागमन था। सम्भवतः इसी कारण से इस क्षेत्रको उपरोक्त देशभाषाओंमें शामिल नहीं किया गया। बंगाल, उत्कल, तमिलनाडु व केरल दुरस्थ होनेके कारण उपरोक्त सूचीमें नहीं जोडे गये । यहाँपर एक भ्रांतिका निराकरण आवश्यक है। महाभारतमें व बौद्ध ग्रन्थोंके सोलह महाजनपदोंकी सूचीमें चेदिका उल्लेख है । इसे लेखकोंने बुन्देलखण्ड माना है।33736 परन्तु यह सही प्रतीत नहीं होता । चेदि जातिका प्राचीन स्थान कुरु (दिल्लीके आसपास) व वत्स (कौशाम्बी के आसपास) के बीच, यमुनाके किनारेपर था, व इसकी राजधानी शुक्तिमति (या सोत्थिवती) थी जो वर्तमान बाँदा जिलेमें है। इनकी ही एक शाखा कलिंगमें जा बसी, जिसमें महामेघवाहनका प्रतापी वंशज खारवेल (ई० पू० प्रथम शताब्दी) हुआ। ई० ५८० से १२१० के बीच कलचुरिया वंशका राज्य (जबलपुर, सतना आदि जिले) चेदि कहलाया । बाँदा जिलेकी भाषा बुन्देली नहीं है, बल्कि पूर्वी हिन्दी है । कलचुरियोंके राज्य क्षेत्र की वर्तमान भाषा बघेली व छत्तीसगढ़ी है । वर्तमान बुन्देलखण्डका थोडासा ही भाग प्राचीन चेदि जनपदमें था। कलचुरियोंका बुन्देलखण्डपर राज्य बहुत ही थोड़े समयके लिये था । स्पष्ट है, बुन्देलखण्डका अधिकांश भाग चेदि कभी नहीं कहलाया। सम्भवतः केन नदी चेदिकी पूर्वी सीमा मानी जानी चाहिये। गोल्लादेशका इतिहास गोल्लादेशके उल्लेख बहुत कम मिलते हैं। इसका प्रमुख कारण नवमी-दसवीं शताब्दीमें इसका नाम बदलकर जैजाकभुक्ति हो जाना रहा था। गोल्लादेश नाम कैसे हुआ व कब हुआ, ये महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं। भारतमें कई प्रदेशोंका नाम शासक जातियोंके कारण पड़ा है। गुजरात (व पंजाबमें गुजरात नामक विभाग) गूजर या गुर्जर जातिके कारण हआ है। मालवा मालव-जातिके कारण, आंध्र आंध्र-जातिके कारण कठियावाड़ काठी जातिके कारण व सौराष्ट्र सौराष्ट्र-जातिके कारण कहलाये । रुहेलखंड, बुंदेलखंड, बघेलखंड, गोंडवाना, राजपूताना आदि नाम भी जातियोंके कारण हुए। यह प्रतीत होता है कि गोल्ला देश भी किसी प्राचीन गोल्ला जाति के कारण कहलाया। इन सभी स्थानोंमें प्राचीन काल में राज्य करने वाली जातियोंके अलावा बहुत सी अन्य जातियाँ रहती हैं जिनका प्राचीन राज्यकरने वाली जातियोंसे कोई संबंध नहीं है । उदाहरणके लिये गुजरातको अधिकतर जातियोंका गूजरोंसे कोई संबंध नहीं हैं, फिर भी वे गुजराती या गुर्जर कहलाती है। इसी प्रकारसे प्राचीन गोल्ला जातिका बन्देलखंडको जैन जांतियोंका कोई संबंध नहीं है। गोल्ला संस्कृतके गोप या गोपाल का ही रूप है। हिंदीमें गोपालका रूपांतर ग्वाल है । दक्षिण भारतमें गोपालका रूपांतर गोल्ला है, वहाँ की कई जातियोंके चरवाहे गोल्ला कहलाते हैं। प्राचीन कालमें गोप जातिका उल्लेख श्रीकृष्णके साथ हुआ है। गोप जाति व आभीर जाति प्राचीन कालमें एक ही थी या नहीं, यह कहना मुश्किल है। आभीर जातिका उल्लेख पातंजलिके महाभाष्यमें, महाभारतमें व प्राचीन यवन (ग्रीक) लेखकों द्वारा भी हुआ है। ई० १८१ के एक लेखमें शक महाक्षत्रप रुद्रसिंहके आभीर सेनापति रुद्र भतिका उल्लेख है। आभीर राजा ईश्वरसेनके कालमें किसी शक महिला द्वारा दिये दानका उल्लेख है। पुराणोंमें ६७ वर्ष जिन १० आभीर राजाओंका उल्लेख है, वे शायद ईश्वरसेनके ही वंशके हो। किसी-किसोके मतसे इसने ही कलचरि संवत चलाया था।33 । समुद्रगुप्तके ई० ३५०के लेखमें आभीर आदि जातियोंपर शासनका उल्लेख है । ई० १२०० के एक लेखमें देवगिरिके यादव सिंघण-त्रिभवनमल्लके सेनापति खोलेश्वर द्वारा आभीर आदि जातियोंपर विजयका उल्लेख है । ई० छठवीं शताब्दीमें गोप व आभीर शब्दोंका समान अर्थ में उपयोग होने लगा। वर्तमानमें अहीर या ग्वाल भारतके कई भागोंमें बड़ी संख्या में रहते हैं। आभीरोंका राजपूतोंसे प्राचीन कालसे Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ११९ संबंध रहा है । हो सकता है कि कुछ राजपूत कुल आभीरोंसे ही निकले हों। राजपूतोंमें एक गोला जाति है जो राजपूत राजपरिवारोंकी सेवा करती थी। बुन्देलखंडके अहीरोंमें एक दौआ अहीर होते हैं। बुन्देले राजपूतोंमें इसी जातिकी दाईयाँ रखी जाती थीं । १६ गोल्ला देश नाम प्राचीन काल में ग्वालोंके कारण पड़ा, इसका संकेत इन तथ्योंसे मिलता है। १, आगरा जिलेमें व आसपास काफी अहीर बसते हैं।' २. ई० १९३१ की जनगणनाके अनुसार, टीकमगढ़ जिले (ओरछा रियासत) में भूस्वामी जातियोंमें अहीर सर्वाधिक हैं। ३. झाँसी जिलेका एक दक्षिणी भाग अहीरवाड कहलाता है । १६.३३ ४. सागर जिले में खुरईके आसपास ग्वालोका राज सत्रहवीं शताब्दीके अंत तक रहने के जनश्रुति है। गोल्लादेश नाम कितना प्राचीन है ? महाभारतके भीष्मपर्व मे बहुत बड़ी संख्यामें जनपदोंके नाम दिये गये हैं ।३४ इनमें दोके नाम गोपालकच्छ व गोपराष्ट्र है। गोपालकच्छ कच्छके आसपासका कोई स्थान होगा जहाँ गोप जातिका प्रभाव रहा होगा। गोपराष्ट्र गोलाराडका संस्कृत रूप मालूम होता है । यह वही स्थान होना चाहिये जहाँसे गोलाराडे (गोलालारे) जाति निकली है। कालांतरमें गोल्ला देशकी सीमा दशार्ण (भेलसाके आसपास) तक फैल गई। यहाँ ग्वालियरका उल्लेख आवश्यक है। ग्वालियर शब्दकी उत्पत्ति किसी ग्वालिप ऋषिसे बताई जाती है। पर प्राचीन लेखोंमें इसे गोपाद्रि या गोपाचल कहा गया है। ये ग्वाल-गढ़ के ही संस्कृत रूपांतर हैं।" यह ग्वाल जातिके कारण ही ग्वालगढ़ या गोपाद्रि कहलाया है। ग्वालियरके जिले में प्राचीनतम लेख हूण (शक) तोरमाण व उसके पुत्र मिहिरकूलके है। तोरमाण पंजाबमें शाकल स्थानका राजा था, स्कंदगुप्तकी मृत्युके बाद उसने भारत के मध्य-भागपर अधिकार कर लिया। कुवलयमाला-कहा (ई० ७७९) के अनुसार तोरमाण हरिगुप्त नामके जैन आचार्यका अनुयायी था। इसके एरण (जि. सागर) के पास ई० ४९५ का लेख व सिक्के मिले हैं।। ई० ५३२ के आसपास कोस्मस इंडिकेप्लस्तेस नामके ग्रीक लेखकने अरब, फारस,भारत आदि देशोंकी यात्राका विवरण लिखा है।" इसने "गोल्लास्" नामके किसी शक्तिशाली राजाका उल्लेख किया है। ग्रीक भाषामें नामोंके बाद स् लगता है (जैसे संस्कृतमें विसर्ग लगती है), इस कारणसे नाम गोल्ला होना चाहिये। इतिहासकारोंका अनुमान रहा है कि यह राजा मिहिरकुल ही है जिसे ई० ५३३ के एक लेखके अनुसार यशोधर्माने परास्त किया था। मिहिरकुल शब्दके कुल या गुलसे ही गोल्ला शब्द बना था, ऐसा अनुमान किया गया है। परन्तु उपरोक्त अध्ययनसे यह अधिक संभव लगता है कि मिहिरकूलको गोल्ला देशका अधिपति . होने के कारण गोल्लास् कहा गया हो। नौवीं शताब्दीके आरंभमें गोल्लादेशके अधिकतर भागपर चंदेलोंका अधिकार हो गया। चंदेलोंको उत्पत्ति स्पष्ट नहीं है, पृथ्वीराजरासोके महोबाखंडमें इनकी उत्पत्तिके बारेमें एक कहानी बताई गई है, पर वह काल्पनिक है। कुछ इतिहासकारोंका अनुमान है कि इनको उत्पत्ति गोंड जातिसे हुई थी। यह अनुमान इनका विवाह संबंध गोंडोके साथ होते रहनेसे किया गया है। आरंभमें ये गुर्जर-प्रतिहारोंके अधीन थे, पर ई० ९५५ के आसपास स्वतंत्र हो गये। इनको राजधानी महोबा व खजुराहोमें थी जहाँ इनके बनवाये अनेक व्य हिंदू मंदिर विद्यमान है, कालंजरके प्रसिद्ध किलेपर इनका अधिकार था। धंग (लगभग, ई० ९५५१००२) व विद्याधर (लगभग ई० १०१९-१०३७) के समयमें इनके राज्यका काफ़ी विस्तार हुआ। गजनीके सुबुक्तगीनने जब भारतपर आक्रमण किया, तब धंगने लाहौरके जयपाल आदि भारतीय राजाओंके साथ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० : सरस्वती-धरद्पुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ मिलकर उसका मुकाबिला किया था। इनके राज्यका अधिकतम विस्तार उत्तरमें अहिच्छत्र से मिथिला तक व दक्षिणमें नर्मदा नदी तक रहा था, पर स्थायी अधिकार बुन्देलखंडके आसपास ही रहा था। यही भाग जैजाकभुक्ति कहलाया। अनेक चंदेल राजाओंके समयमें जैन मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा हुई । मदनवर्माके राज्य कालमें प्रतिष्ठित जैन मूर्तियोंकी संख्या आश्चर्यजनक है । अहारका प्राचीन नाम मदनसागर या मदनेशसागर था। यह स्थान मदनवर्माके द्वारा ही बसाया गया प्रतीत होता है। इस स्थानपर गोलापूर्व, जैसवाल, गृहपति, पौरपाट, खण्डेलवाल, मेडवाल, लमेंच, मइडित, माधव, गोलाराड, गगराट, वैश्य , माथुर, महेशपउ (माहेश्वरी), देउवाल व अवधपुरा इन जातियों द्वारा प्रतिष्ठापित जैन मूर्तियाँ पाई गई हैं ।२७ दुर-दूरसे आकर यहाँ जैनोंने प्रतिष्ठायें क्यों कराई, यह स्पष्ट नहीं है। किसी भी अन्य स्थानपर इतनी सारी जैन जातियोंके लेख नहीं मिले हैं । हो सकता है कि किसी कारणसे यह प्रसिद्ध तीर्थ बन गया हो या व्यापारका केन्द्र हो गया हो । यह तो स्पष्ट है कि मदनवर्मा जैनधर्मका संरक्षक था। यह सम्भव है कि मदनवर्मा ही वह चन्देल नरेश हो जो दीक्षा लेकर गोल्लाचार्य कहलाया । एक महत्त्वपूर्ण राजवंशके नरेश द्वारा जैन दीक्षा लिया जाना असम्भव नहीं है । मान्यखेटके राष्ट्रकुट अमोघवर्ष (ई० ८१४.८७८) जिनका राज्य दक्षिणापथके अधिकतर भागपर था, ने भी ई० ८६० के आसपास राजपाटका त्याग कर दिया था व सम्भवतः दीक्षा ले ली थी।६ मदनवर्मा के समयमें ही गजरात व राजस्थानके शासक अणहिलपाटकके चालुक्य कुमारपाल (ई० ११४३-११७२) जैनधर्मके पालक व महान संरक्षक थे। यदि मदनवर्मा ही गोल्लाचार्य थे, तब जैन दीक्षा धारण करने वाले अन्तिम मुकूटबद्ध (स्वतंत्र) राजा मदनवर्मा थे, न कि चन्द्रगुप्त मौर्य (जैसा कभी-कभी माना जाता है)। जैनधर्मको रक्षाका श्रेय गुजरात-मारवाड़में कुमारपालको व दक्षिणमें अमोघवर्षको दिया जाता है। सम्भव है, बुन्देलखण्डमें जैनधर्मकी रक्षा मदनवर्मा द्वारा हई हो । मदनवर्माके पुत्र परमाद्धि (या परमाल) के कालमें चाहमान पृथ्वीराजने आक्रमण किया। इसका विवरण पृथ्वीराज-रासो व आल्ह-खंडमें हुआ है। कालान्तरमें इनकी शक्तिका क्षय हो गया । ई० १३१५ के आसपास हए वीरवाके बाद इनकी हैसियत जमींदारों जैसी ही रह गई। गढ़मंडल (गोंडवाना) की रानी दुर्गावती, जिसकी ई० १५६४ में आसफ़खाँसे लड़ाई हुई थी, के पिता कीरतराय इसी वंशके थे । जब चन्देलोंका क्षय हो रहा था, तब क्रमशः बुन्देलोंका उदय हुआ। सन् १५३१ में रुद्रप्रतापने ओरछाकी स्थापना की व उसे राजधानी बनाया। सभी बुन्देले राजपरिवार रुद्रप्रतापके ही वंशज हैं। इन्हें गाहडवालों व स्थानीय योद्धा जातियोंसे उद्भूत कहा जाता है। अन्य राजपूतोंमें सामान्यतः विवाहके लिये कुल टाला जाता है, पर बुन्देलोंका विवाह बुन्देलोंमें ही होता है । बुन्देल वंशके राजा निर्भीक व स्वाभिमानी प्रवृत्तिके रहे हैं। इनमेंसे कई मुगलोंके महत्त्वपूर्ण मनसबदार रहे हैं, फिर भी उनका मुगलोंसे विद्रोह व संघर्ष ही चलता रहा था।४° बुन्देले शासकोंमें परस्पर फूट रहने के कारण बुन्देलखण्डमें कभी लम्बे समय तक शान्ति नहीं रही। मराठोंके समयमें बुन्देलखण्ड क्रमशः मराठोंके अन्तर्गत हो गया। ब्रिटिश राज्य हो जानेपर, सागर व दमोह जिलोंमें स्थायी शासन हआ व रेल आदिके कारण संचार व्यवस्था हो गई। बन्देलखण्डके आन्तरिक भागोंसे यहाँ जैन बड़ी संख्या में आकर बसने लगे। गोलापूर्व जातिका उद्भव और विकास ऊपरके विवेचन से यह स्पष्ट है कि गोलापूर्व जैन बारहवीं शताब्दीमें पपौरासे धामोनीके बीच रहते थे, व कम से कम डेढ़-दो सौ वर्षोंसे इनका वहीं निवास था। गोल्ला देशके उत्तरी भागमें रहनेवाली गोलालारे व गोलापूर्व ब्राह्मण जातियोंसे इनका क्या संबंध है, इस पर विचार आवश्यक है । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : १२१ यदि एक ही क्षेत्रमें बसी दो जातियोंका स्वतंत्र अस्तित्व है तब यह माना जाना चाहिये कि उनमें कुछ अन्तर अवश्य है। पर यदि दो एक जैसी जातियाँ अलग-अलग स्थानोंमें बसी हों, तब यह संभव है कि वे कभी एक ही रही हों । गोलापूर्व जाति गोल्ला देशके दक्षिण-पूर्वी भागमें बसी है, जबकि गोलाराडे जाति उत्तरी भाग में । हो सकता है कि वे एक ही जाति रहो हों व अलग-अलग स्थानोंमें बसनेके कारण अलग-अलग नामोंका प्रयोग करने लगी हों। दोनों जातियोंमें दो-एक गोत्र एक ही है । पर इससे इनका एकत्व सिद्ध नहीं होता । हो सकता है कि एक जातिके कुछ लोग दुसरी जातिके क्षेत्रमें जा बसे हों व उनकी धर्मरक्षाके लिये दुसरी जाति वालोंने उन्हें अपने में मिला लिया हो। इस प्रकारका खंडेलवाल जैनोंके बारेमें सुननेमें आता है । बीजावर्गी जातिमें जैनोंकी संख्या कम होनेसे उन्हें खंडेलवालोंने अपने में मिला लिया । गोलापूर्व, गोलालारे व गोलसिंघारे तीनों जातियोंका इक्ष्वाकु वंशसे उत्पन्न कहा गया है, गोलापर्वोको ई० १८५० के द्रोणागिरके लेखमें, गोलालारोंको ई० १४५४ के नागकुमारचरितमें, व गोलसिंघारोंको ई० १६४० के ग्वालियरके एक यंत्र लेख में" । परन्तु इन लेखोंके प्राचीन न होनेसे इन्हें अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता । गोलापूर्व व गोलालारे जातिका ११वी १२वीं शताब्दीसे अलग-अलग अस्तित्व रहा है। ये दोनों जातियाँ कभी एक थीं, ऐसा प्रामाणित नहीं किया जा सकता, पर असम्भव भी प्रतीत नहीं होता । नवलसाह चंदेरियाने जिस गोयलगड़का उल्लेख किया है वह ग्वालियर ही प्रतीत होता है । हो सकता है कि गोल्लापूर्व जाति ग्यारहवीं शताब्दी के कई सौ वर्ष पहले ग्वालियरके आस पास रहती हो व गोलालारे जातिसे इसका कोई सम्बन्ध रहा हो । गोलसिंघारे जाति लघुसंख्यक है ( सन् १९१४ में सिर्फ ६२९) व इनका निवास भिंडके पासमें ही रहा है । इस कारणसे गोलसिंघारे गोलालारोंकी ही शाखा हों, यह सम्भव है। कुछ लेखकोंने यह संभावना व्यक्त की है कि गोलापूर्व जेन व गोलापूर्व ब्राह्मणोंमें कुछ सम्बन्ध रहा हो१५, १६ । पर यह संभव नहीं लगता । एक ही नामकी कई ब्राह्मण व बनियाँ जातियाँ हैं जो पूर्णतः स्वतंत्र हैं। गोलापूर्व जैनोंमें इक्ष्वाकु जातिसे उत्पन्न होनेकी परंपराके कारण ने ब्राह्मणोंसे उद्भत नहीं लगते । गोलापूर्व ब्राह्मण कृषिसे जीविकोपार्जन करते है, इस कारणसे इन्हें अन्य ब्राह्मणोंसे नीचा माना जाता है। कुछ लेखकोंने इन कारणोंसे इनके ब्राह्मण न होनेकी शंका व्यक्त की है। १. ये कृषि करते हैं, वेदोंका अध्ययन आदिकी इनमें परंपरा नहीं है। २. इनके गोत्रोंमेंसे बहुतों के नाम ऋषियों पर नहीं, ग्रामों आदिके नामों पर आधारित हैं। ३. इनमें बीसा-दसाका भेद है । ये मांस, प्याज, लहसुन नहीं खाते हैं । इनका यह व्यवहार बनियों की तरह है।१६ ध्यानसे विचार करने पर यह शंका गलत मालूम होती है। इनका आचार-व्यवहार ठीक सनाढ्य ब्राह्मणों जैसा है व ये उनसे ही उत्पन्न माने जाते हैं। कई जातियों में दोहरी गोत्र परंपरा रही है। एक विभाजन संस्कृत गोत्रों द्वारा होता है व दूसरा देशी-भाषाके । देशी-भाषाके गोत्र अक्सर पुर, मूल आदि कहलाते हैं। बिहारके सकलद्वीपी ब्राह्मणोंमें, पंजाबके सारस्वत ब्राह्मणोंमें व उ०प्र० व बिहारके भुंइहर ब्राह्मणोंमें इसी तरहके दोहरे गोत्र हैं ।३८ व्यवहारमें देशी-गोत्रोंको टालना संस्कृत गोत्रोंको टालनेसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। गोलापूर्व ब्राह्मणोंमें जो स्थान सूचक नाम है, वे देशी-भाषाके गोत्र है। कान्यकुब्ज ब्राह्मणोंमें भी दोहरी गोत्र परंपरा होने के संकेत मिलते हैं । २० दस-बीसा भेद कान्यकुब्ज ब्राह्मणोंमें भी है जो बनियोंके भेदसे भी अधिक सूक्ष्मतासे प्रयुक्त होता है। इनमें 'विश्वा' सिर्फ १० व २० ही नहीं बल्कि ५,७, १८, १९ आदि भी होते हैं। कान्यकुब्जवंश प्रबोधिनी व ब्राह्मणोत्पत्तिमार्तडमें सभी कान्यकुब्जोंके विश्वा दिये हैं। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ उपरोक्त कारणोंसे गोलापूर्व जैनों व गोलापूर्व ब्राह्मणों में कोई संबंध प्रतीत नहीं होता। गोलापूर्वब्राह्मणोंके एक-दो गोत्र जैनोंके गोत्रोंसे मिलते-जुलते है, पर यह संयोग ही लगता है। - नवलसाह चंदेरियाने गोलापूर्व जातिको तीन भागोंमें विभक्त कहा है विसविसे, दशविसे व पचविसे । वर्तमानमें दशविसे सुनने में नहीं आते। इस बारेमें कल्पना की गई है कि किसी समय कोई विवाद हुआ जिससे जाति तीन भागोंमें बट गई। एक भागमें २०x२० = ४०० घर थे, दूसरेमें १०x२० % २०० व तीसरेमें ५४ २० = १०० घर । इनसे हो तीन भेदोंकी उत्पत्ति हुई । परन्तु लगभग सभी बनिया जातियों में इस प्रकारका भेद देखते हुए यह कल्पना सही नहीं लगती। गोलापूर्वोमें सिर्फ १.८%पचविसे हैं (सन् १९१४ में १९४) बाकी ९९.२% सामान्य है । पचविसोंमें सिर्फ ८ गोत्र हैं। ये केवल २३ ग्रामोंमें बसते थे जो अधिकतर रहली तहसील (जि. सागर), हटा तहसील (जिला दमोह) व जबलपर जिलेमें हैं । पचविसे यहाँ काफी समयसे बसे हैं। बहुतसे सम्पन्न हैं व मन्दिरोंके निर्माता हैं। इस क्षेत्रमें अन्य गोलापूर्व पिछले डेढ़-दो सौ वर्षोंसे ही आकर बसे हैं, जबकि पचविसे बहुत पुराने समयसे वहींके वासी हैं । दमोह व जबलपुर जिले डाहल मंडल में हैं, यहाँ कलचुरि-चेदि राज्य था, कलचुरियोंके राज्यकालकी बड़ी संख्यामें जैनमुर्तियाँ पाई गई है। इनमेंसे कई भव्यजिनबिंब कुंडलपुर, बहोरीबंद, कटनी, जबलपुर व सतनाके मन्दिरोंमें है । इनमें अधिकतरमें लेख नहीं हैं । ये किस जाति द्वारा स्थापित की गयीं यह ज्ञात नहीं है, वर्तमान यहाँके सभी जैन अन्यत्रसे आकर बसे मालूम होते हैं। केवल बहोरीबंदकी मूर्ति पर गोलापूर्व जातिका उल्लेख है। यह असंभव नहीं है कि पचविसे उन गोलापूर्वोके वंशज हों जो यहाँ प्राचीनकालमें आकर बसे हों। अधिकतर बनिया जातियाँ श्रेणियोंमें विभक्त हैं। ये उदाहरण द्रष्टव्य हैं । ३,१७ गोलापूर्व : विसविसे, दशविसे (लप्त), पचविसे, बिनैकया। परवार : अष्टशाख, चौसखा, लुहरोसेन (बिनकया)। अग्रवाल : बीसा, दसा, पचा। हूमड : बीसा, दसा । श्रीमाली : बीसा, दसा। ओसवाल : बीसा. दसा, पाँचा, अढ़ाइया । गहोई : बीसा, दसा, पचा। नेमा : बीसा, दसा, पचा। पोरवाल : बीसा, दसा, पाँचा। खंडेलवाल : एक ही श्रेणी । लघुश्रेणियोंकी उत्पत्तिके बारेमें कई कहानियाँ कही जाती है। इनका सार यह है। उत्तमश्रेणी बीसा कहलाती, यह अंक पूर्णता या शुद्धताका द्योतक है। जो बीसासे जातिच्युत हुये वे दसा कहलाये । जो ऐसे संबंधकी संतान है जो जातिमान्य नहीं है (विधवा या अस्वीकार्य जातिकी पत्नी) वे लघुश्रेणीके माने जाते है। जिसने लघश्रेणीके साथ व्यवहार रखा. वे भी लघश्रेणीमें माने गये। जो ऐसे स्थानों में जाकर बसे जहाँ जातिका निवास नहीं है उन्हें भी जाति-च्युत माना जाता था। जो दसा श्रेणीसे जातिच्युत हुआ वे पचा कहलाये। परंपरागत रूपसे विवाह अपनी ही श्रेणीमें होता था, पर किसी जातिके पंक्तिभोज (पक्की पंगतमें) में सभी श्रेणियोंको साथ बैठनेका अधिकार रहा है।३.१६ धर्माचरण, मंदिर आदि Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २/व्यक्तित्व तथा कृतित्व १२३ बनवानेका अधिकार भी सभी श्रेणियोंको रहा है । कालांतरमें लघुश्रेणियोंका सम्मान बढ़ता जाता है और वे अन्ततः उत्तम श्रेणीके बराबर हो जाती हैं।,१६ ऐसा माना गया है कि लघुश्रेणीके परिवारोंके कई पीढ़ियों से सम्मानपूर्वक रहनेसे वे उच्चश्रेणीमें मिल जाते हैं। वर्तमानमें कई जातियोंमें बीसा-दसाका भेद महत्त्वहीन हो गया है जो उचित ही है । जातियोंके सांस्कृतिक व धार्मिक अस्तित्त्वकी रक्षामें लघुश्रेणियोंका बड़ा योगदान रहा है । लधश्रेणियोंके अस्तित्वसे लोग जातिच्युत होकर भी जातिके सदस्य रहे। हमड़ जातिमें दसा श्रेणी बीसा श्रेणीसे दस गुनी है, हूँमड़ जातिका अस्तित्व बने रहने में दसा श्रेणीका ही योग सर्वाधिक रहा है। गोलापूर्वोमें दशविसे श्रेणीका अस्तित्व नहीं रह गया है। सम्भवतः डेढ़-दो सौ वर्ष पहले इस श्रेणीको मख्य श्रेणीमें मिला लिया गया। पचविसे दुरके स्थानोंमें बसे होनेसे उनका अलग अस्तित्व बना रहा । ई० १९२१ में एक कमेटी ने पचविसोंमें समान संस्कार व धर्माचरण देखकर यह निश्चित किया कि इनसे व अन्य गोलापूओं में विवाह संबंध उचित है । तबसे पचविसों व अन्य गोलापूर्वोमें भेद समाप्त माना जाना चाहिये । जो अभी कुछ ही पीढ़ियोंसे जाति च्युत हुए हैं उन्हें बिनैकया कहते हैं। इनके साथ विवाह संबंध करने में संकोच किया जाता है। इनकी संतति कालान्तरमें पुनः मुख्य श्रेणी में आ जायेगी। विभिन्न श्रेणियोंकी उत्पत्ति कब हुई, यह कहना मुश्किल है। कान्यकुब्जोंमें सैकड़ों वंशकर्ता पुरुषोंके अलग-अलग विश्वा निश्चित है। किसी-किसीके मतसे ये ई० ११७९ में कन्नौज नरेश गाउडवाल जयचंदके समयमें निर्धारित किये गये। पर ये किसी प्राचीन वंशावलीमें नहीं पाये गये हैं। पोरवाल (पोरवाड़) में दसाबीसा भेद ई०१३वीं शताब्दीसे वस्तूपाल-तेजपालके समयसे कहा जाता है। वस्तुपाल-तेजपाल दोनों भाइयोंने आबके प्रसिद्ध देवालयोंका निर्माण कराया था । इनके पिता असराजने श्रीमाल जातिकी बालविधवा कुमारदेवीसे विवाह किया था। विधवा विवाह पर बन्धन धार्मिक नहीं, सामाजिक रहा है। दक्षिणभारतके सेतवाल, चतुर्थ, पंचम, बोगार आदि कई जैन जातियोंमें विधवा विवाह परंपरागत रूपसे होता आया है। संभवतः इसी कारणसे दक्षिणमें बीसा-दसाभेद नहीं है । यह सम्भव है कि गोलापूर्व व अन्य जातियोंमें श्रेणीभेद १२वीं-१३वीं शताब्दीमें उत्पन्न हुआ हो। खंडेलवालोंमें भी श्रेणियाँ रही होंगी, पर जब उनका शेखावाटीके बाहर व्यापक प्रसार हुआ होगा, तब लुप्त हो गयी होंगी। गोलापूर्व जातिकी उत्पत्ति ईक्ष्वाकु कुलसे कहो गई है । वास्तवमें कुछ जातियोंको छोड़कर सभी पुरानी बनिया जातियोंकी उत्पत्ति क्षत्रियोंसे कही जाती है। इन जातियोंकी उत्पत्ति इनसे बताई जाती है१०.१३ १७ 3९ Ili गोलापूर्व : ईक्ष्वाकु। गोलालारे : ईक्ष्वाकु । गोलसिंघारे : ईक्ष्वाकु । जैसवाल : यदु। लमेंचू : यदु। अग्रवाल : यदु (गर्ग गोत्र) ओसवाल : पँवार, सोलंकी, भट्टी आदि अग्निकुलके राजपूत । पोरवाड : गुर्जर जाति । खंडेलवाल : सोम, हेम. चौहान, राठोर, चन्देल, कछवाहा आदि राजपूत कुल । माहेश्वरी : राजपूत (कई कुल या केवल झाला) Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ : सरस्वती - वरद्पुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ बघेरवार कई राजपूत कुल । पल्लीवाल : बड़गूजर राजपूत । परवार राजपूत । असाटी : किसान संभवतः अहीर | राजस्थानकी अधिकतर जैन जातियाँ राजपूतोंसे उत्पत्ति बताती हैं । परन्तु बहुतसे राजपूत घरानों (कछवाहा, भट्टी आदि) का उद्भव उसी समय हुआ जब बनियोंका उद्भव हो रहा था । शिलालेखों के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि कुछ प्राचीन कुलोंको छोड़कर, अधिकतर राजपूत कुल काफी बाद में उत्पन्न हुए । चन्देलोंके उल्लेख ९वीं शताब्दी के आरम्भ में, कछवाहोंके १०वीं शताब्दी के मध्यमें, मिलते हैं । राजपूत कुल स्वतंत्र जातियाँ नहीं थीं, बल्कि परिवार थे। उत्तम राजपूतों में आज भी कुलका गोत्रकी तरह प्रयोग होता है । बनिया जातियोंकी उत्पत्ति के समय (१०वीं शताब्दी के आसपास) यह सम्भव नहीं लगता कि राजपूत कुल दूर-दूर जाकर बस चुके हों वे एक ही स्थानमें अनेक कुलोंके राजपूत बसे हों । यह अवश्य सम्भव है कि बनियों की उत्पत्ति उन्हीं जातियोंसे हुई हो जिससे राजपूत उत्पन्न हुए हैं । गोला पूर्व आदि जातियोंके ईक्ष्वाकु या यदु कुलोंसे उत्पत्तिके उल्लेख प्राचीन नहीं हैं अतः उन्हें विशेष महत्त्व नहीं दिया जा सकता। यदि प्राचीन उल्लेख मिलें तो भी उन्हें प्रामाणिक नहीं माना जा सकता क्योंकि प्राचीन क्षत्रियोंके राज्यकाल व बनिया जातियोंकी उत्पत्ति में करीब डेढ़ हजार या अधिक वर्षोंका अन्तर । दक्षिण भारत के कुछ राजवंशीने ईक्ष्वाकु व यादव शब्दोंका प्रयोग किया था। आंध्र में तीसरी शताब्दी के मध्य में एक राज्यकुल ईक्ष्वाकु कहलाता था । जिला रायपुर में श्रीपुर (सिरपुर ) स्थान में ५वींसे १०वीं शताब्दी के बीच सोमवंशी या पांडुवंशी ( अर्थात् यदुकुलके) कुलका अस्तित्व रहा है । ग्यारहवीं शताब्दी में बंगालमें यादव नामका राजकुल रहा है । परन्तु इनकी भी उत्पत्ति प्राचीन क्षत्रियोंसे निश्चित नहीं है । पर ईक्ष्वाकु व यदु कुलोंके वंशज अवश्य रहे होंगे व कुछ बनिया जातियोंकी इनसे उत्पत्ति असंभव नहीं है । कई अन्य जातियोंकी तरह गोलापूर्वी में भी दोहरी गोत्र परंपरा रही है । नवलसाह चंदेरियाने अपना गोत्र प्रजापति व बैंक चंदेरिया लिखा है । वर्तमान में गोलापूर्वोंमें दोहरी गोत्र परम्पराका कोई स्मरण नहीं है और न ही प्रजापति गोत्रका अस्तित्व है । नवलसाहने वर्धमान पुराण में ५८ बैंक (गोत्र) की एक सूची दी है । इसमें एक या दो गोत्र गलतीसे दो बार गिन लिये गये हैं । नवलसाहका गोत्रोंके नामोंका संग्रह पूरा नहीं था । कालांतर में किसीने इस सूची में संशोधन करके कुछ गोत्रोंके नाम निकालकर कुछ अन्य नाम जोड़ दिये । वर्धमानपुराणकी जिस प्रतिका उद्धरण गोलापूर्व डायरेक्टरीमें है वह संशोधित प्रति है । संशोधनकारने बेंक शब्दके स्थानपर गोत्र शब्दका प्रयोग किया है व सवैया इकतीसा छंदमें एक जगह "ठीक कीजिये" जोड़ा है। मुद्रित वर्धमान पुराण मूल प्रतिपर आधारित है । सभी प्राप्त गोत्रावलियोंको देखकर लगता है कि गोत्रोंकी कुल संख्या ७३ के आसपास तक रही है । गोला पूर्व डायरेक्टरीकी जनगणनामें केवल ३३ ही गोत्र मिले थे । ऐसा प्रतीत होता है कि गोत्रोंकी संख्या घटती बढ़ती रही है । कुछ परिवार अपने स्थानके नामका प्रयोग करने लगे व कालांतर में उस स्थानके नामपर नया गोत्र बन गया । कुछ गोत्र व्यवसायके कारण बन गये होंगे। किसी-किसी गोत्रके सभी परिवार विप्लव, महामारी या दुर्भिक्ष में मारे गये । कुछ गोत्र सम्भवतः अन्य जातियोंमें मिल गये हों । अहार ई० १६६३ के लेखमें गोलापूर्व जातिमें पैंथवार गोत्रका उल्लेख है, यह सभी गोत्रावलियों में भी है पर अब नष्ट हो चुका है । सन् १९४१ में छोड़कटे केवल १६ व पञ्चरत्न केवल १३ थे । दुर्गले गोत्रका केवल एक व्यक्ति था । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २/व्यक्तित्व तथा कृतित्व : १२५ कई जातियोंमें गोत्रोंके नामोंके अर्थका अनुमान लगाया जाना असंभव या कठिन है । अग्रवालोंमें गोइल (गोयल), सिंघल, कंसिल, जिंदल, मित्तल आदिको उत्पत्तिका अनुमान लगाना मुश्किल है, संभव है कि ये गर्गकी तरह ब्राह्मण ऋषियोंके नामपर आधारित हों। इसी प्रकार परवारोंमें गोइल्ल, भारिल्ल, बाझल्ल आदि शब्दोंकी उत्पत्तिका अनुमान कठिन है । गोलापों में कुछ गोत्रोंके नामोंके अर्थका अनुमान किया जा सकता है । गोत्रोंको इन भागोंमें विभाजित किया जा सकता है। (१) आजीविकाके आधारपर :-वर्तमान कपासिया, कोठिया, सनकुटा, करैया। लुप्त, गोरिहा, सोनी। सौनारे गोत्र गोलालारोंमें व सोनी गोत्र खंडेलवालोंमें व ओसवालोंमें भी है। खंडेलवालों व ओसवालोंमें सोनी गोत्रको सोनीगरा चौहानोंसे उत्पन्न वहा जाता है,२४ पर यह सोनेके व्यवसायसे ही सम्बन्धित है। (२) याकारांत : उनमेंसे अधिकतर स्थानों के नामपर आधारित होते हैं। वर्तमान-कनकसेनया, गुगौरया (या गुबारया), चंदेरिया (चंदेरीके), जुझौतिया (संभवत खजुराहो. • महोबा तरफ़के), धवौलिया, पटौरिया, पतरिया, बनोनया, बिलबिलया (या बिलबिले), भिलसैया (भेलसी ग्राम या भेलसाके), मरैया (मरौराके)। लुप्त-कनकपुरिया, कहारिया, कोनिया, खैरानिया, जतरिया, दरगैया, धमौनिया (धामोनीके), पिपरैया, पपौरहा (पपौराके), बड़घरिया, भरतपुरिया, मझगैया, लखनपुरिया, सपौलिया (या सपेले), सिरसपुरिया, सोरया, सौतिया व हीरापुरिया (हीरापुरके)। इनमेंसे अधिकतर स्थान गोलापूर्वोके केन्द्रीय स्थान (पपौरा, धमोनी आदि) में ही होना चाहिये । अगर इनमेंसे कुछ स्थान भिंड-ग्वालियरके आसपासके सिद्ध होते हैं तो इससे दो निष्कर्ष निकल सकते हैं-या तो गोलापूर्व वास्तवमें ग्वालियरके आसपासके वासी थे, और या इन स्थानोंके गोलालारे दक्षिणमें आ बसे व कालांतरमें गोलापूर्वोमें मिल गये । (३) ले या ऐकारांत :---इनमें से कुछ स्थान सूचक प्रतीत होते हैं जैसे वर्तमान-गड़ौले, दुगैले, बिलबिले व लुप्तः खडैरे, तिगैले; चारखेरे, पचलौरे, सपेले। कुछ अन्य स्पष्ट नहीं है जैसे वर्तमान-खुर्देले, गोदरे, पड़ेले (पांडेले), फुसकेले, रांधेले, रौतेले, सांधेले व लुप्त-छवेले, बोदरे। कुछ नाम दोनों प्रकारसे मिलते हैं जैसे बिलबिले-बिलतिलया, सपेले-सपौलिया। कोई-कोई रांधेलीय, खर्देलीय, सांधेलीय लिखने लगे हैं, पर यह आधुनिक संस्कृतिकरण लगता है। यहाँपर यह बात विचारणीय है कि कई जातियोंमें कई गोत्र लकारांत हैं । ऐसा प्रतीत होता है किएले,-इल व-इल्ल एक ही प्रत्ययके रूप है । १. अहारके एक लेखमें खंडेलवालको खडिल्लवाल लिखा गया है। २. श्रवणवेल्गोलाके एक लेख में चन्देलको चंदिल कहा है। ३. गोलापूर्वो में-एले; परवारों व गहोडयोंमें-इल्ल या-अल्ल, अग्रवालोंमें-इल या-अलका अर्थ समान हो सकता है । चन्देल, बुन्देल, बघेल आदिमें-एलका अर्थ भी वही होना चाहिये । यह प्रयोग प्राचीन लगता है, संभव है यह उपरोक्त-या प्रत्ययका ही प्राचीन रूप हो । ४. संस्कृतके कुछ गोत्रोंके नाम देशी भाषामें नहीं, संस्कृतमें है। दक्षिणके जैनोंमें अक्सर संस्कृत गोत्र रहते है, पर उत्तर भारत में संस्कृत गोत्रों (ऋषियोंके नामोंको छोड़कर) कम ही मिलते है। वर्तमान-- खाग, नाहर, रस, पञ्चरत्न, निर्मोलक । लुप्त-इंद्रमहाजन, गन्धकार, दण्डकार (या दंडधार), साधारण, शेखर। इन्द्रमहाजन कोई अत्यंत संपन्न परिवार व गंधकार इत्रके व्यवसायी लगते हैं। ५. अन्य, वर्तमान-टेंटवार, चौंसरा, छोड़कटे (या छोकड़े), संधी, अलेह, उचा। लुप्त-टीका Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ : सरस्वतो-वरपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ केरावत, सोंधनी, धना (या धनी), पैंथवार, पचरसे, सरखड़े। संधी, अलेह व उचा गोत्र गोत्रावलियोंमें नहीं है, पर दमोहकी जनगणनामें पाये गये हैं। इनमें से भी कई स्थान-सूचक ही प्रतीत होते हैं। कभी-कभी गोलापूर्वो में पटवारी, चौधरी, प्रधान व बड़कूर गोत्र कहे जाते हैं पर ये वास्तवमें पारिवारिक पद हैं। हो सकता है बड़घरिया भी कभी पद रहा हो व कालांतरमें गोत्रकी तरह प्रयुक्त होने लगा हो। बुन्देलखंडमें गजरथके साथ पंचकल्याणक-प्रतिष्ठा करानेकी परम्परा है। इस प्रकार प्रतिष्ठा करानेसे सामाजिक उपाधि दी जाती है। साह (साध) तो सभी कहलाते हैं, पहले रथसे सिंघई (संघपति) दूसरेसे सवाई सिंघई, तीसरेसे सेठ (श्रेष्ठि) व चौथेसे सवाई (या श्रीमंत) सेठ। ये पद पूर्वजोंकी समृद्धिके द्योतक हैं । गोत्रोंकी जनसंख्याका अध्ययन करनेसे मालूम होता है कि संपन्न परिवारोंकी अधिक वंशवृद्धि हुई है। गोलापूर्वोमें सबसे अधिक (ई० १९४१ में १६८७) फुसकेले हैं जो सिंघई, सवाई सिंघई या सेठ हैं। खाग (१५०५) सिंघई, सवाई सिंघई, सेठ व सवाई सेठ हैं। चन्देरिया (१२३५) सिंघई व सवाई सिंघई हैं । सबसे कम जनसंख्या दुगले (१), छोडकटे (१६) व पंचरत्न (१३) हैं. इनमेंसे कोई भी सिंघई आदि पदोंके धारी नहीं है । इन पदोंकी परम्परा प्राचीन लगतो है, घुवारा के ई० १२१५ के लेखमें गोलापूर्व सिंघईका उल्लेख है ।२५ वर्धमानपुराण लिखे जानेके बाद व गोलापूर्व डायरेक्टरीके प्रकाशनके पूर्व कुछ ऐसी घटनायें घटी जिनका गोलापूर्व जातिपर अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। १. करीब आधे गोत्र नष्ट हो गये। २. लोग यहाँ-वहाँ जाकर बस गये। अपने वंशके बारेमें परंपरागत ज्ञान भुला दिया गया। नवलशाहने दोहरी गोत्र परम्पराका उल्लेख किया है, उसकी वर्तमानमें गोलापूर्वोमें स्मृति शेष नहीं है । नवलसाहने फुस केले गोत्रके चार मूल ग्रामोंका नाम लिखा है । कान्यकुब्ज ब्राह्मणों आदिमें भी इस प्रकार की परम्परा है। पर गोलापूर्वो में यह जानकारी भी लप्त हो गई है। ३. बिसबिसे व दसबिसे श्रेणियोंमें अचानक जनसंख्या कम हो जानेसे उपयुक्त विवाह सम्बन्ध मिलना मुश्किल हो गया। इस कारणसे दोनोंका स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त होकर एक ही श्रेणी रह गई। केवल जो पचविसे दुरके स्थानोंमें बसे थे, उनका स्वतंत्र अस्तित्व बना रहा। गोलापूर्वोकी जनसंख्याके इस भारी नाशका कारण स्पष्ट नहीं है। हो सकता है यह महामारी या दुर्भिक्षके कारण हुआ हो। यह भी सम्भव है कि यह राजनैतिक दुर्व्यवस्थाके कारण हुआ हो। ऐसा कहा जाता है कि मराठा सेनाने जिन स्थानोंपर आक्रमण किया, उनमेंसे कई बहुत वर्षों तक उजाड़ पड़े रहे। इसके पीछे मराठा सेनामें पिंडारी आदि वर्गोका होना हो सकता है । अन्य सम्बन्धित जातियाँ आसपास बसी हई जैन जातियोंमें परस्पर धार्मिक व सामाजिक व्यवहार रहा है। इस कारणसे जातियोंने एक-दूसरेपर काफ़ी प्रभाव डाला होगा। यहाँपर गोलापूर्वोके आसपास बसने वाली अन्य जातियों पर विचार किया गया है। ___ अहार क्षेत्रमें प्राप्त लेखोंमें सबसे अधिक गोलापूर्वोके है। ये प्राचीनकालसे अब तकके हैं। प्राचीन लेखोंमें १५ जैसवाल जातिके (ई० ११४३ से १२३१ तक) व १३ हपति जातिके (ई० ११४६ से ११८० तक) है। इससे प्रतीत होता है कि जैसवालोंका निवास आसपास ही रहा होगा। वर्तमानमें जैसवाल जैनोंको Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : १२७ राजस्थानी जाति माना जाता है। इनकी उत्पत्ति जैसलमेर२४ या उज्जैनसे१० असम्भव है, इनका मूल स्थान रायबरेली जिले में प्राचीन जैस या जायस ही प्रतीत होता है। ई० १२५६ में जायस जातिके लक्खनने अणवय-रयण-पाइउकी रचना की थी । इनका निवास यमुनाके किनारे रायवड्डीया स्थानपर था। ऐसा प्रतीत होता है कि इनमेंसे जो राजस्थानमें जाकर बसे वे अधिकतर जैन बने रहे, पर जो उत्तर प्रदेशमें ही रहे, वे अधिकतर वैष्णव हो गये । वर्तमानमें बुन्देलखण्डके आसपास इनका निवास नहीं है। शिलालेखोंसे व वर्धमान पुराणके उल्लेखसे यह स्पष्ट है कि बुन्देलखण्डकी वर्तमान गहोई जाति ही प्राचीनकालमें गृहपति कहलाती थी। गहोई शब्दकी उत्पत्ति गुह्य शब्दसे कही जाती है पर यह काल्पनिक है।१६ बुन्देलखण्डमें बारहवीं शताब्दीमें अनेक स्थानोंपर इस जातिद्वारा स्थापित जैन मूर्तियाँ पाई गई हैं। इसी जातिमें पाणाशाह नामके एक श्रेष्ठीने अनेक मंदिरोंका निर्माण कराया था, इनके बारेमें कई किंवदंतियाँ कही जाती हैं। इन्हें गोलापूर्व कहा गया है, पर यह लेखोंके आधारपर गलत सिद्ध होता है। इनमें जातिका संगठन परवारोंसे मिलता है। इनमें बारह गोत्र हैं, हर गोत्र ६ अल या आंकोंमें विभक्त है, विवाहमें अपना गोत्र व माँ, नानी व दादीका अल टाला जाता है । इनमें ई० ११५० के एक लेख में कोच्छल गोत्रका उल्लेख है। अलोंके नाम मोर, सोहनिया, नगड़िया, पहाड़िया, पोपरवानिया, दादरिया, म ले आदि हैं । १६ ये प्राचीनकालमें शैव भी रहे हैं। वर्तमानमें इनमेसे कोई भी जैन नहीं हैं। नवलसाहने इनमें जैन लगारका उल्लेख किया है। वर्तमान में इनकी उत्पत्ति खरगपुरसे बताई जाती है। इनकी उत्पत्तिके बारेमें एक कहानी कही जाती है जो स्पष्टतः काल्पनिक है। प्राचीनकालमें, विशेषकर बौद्ध ग्रन्थोंमें गृहपति शब्दका प्रयोग सम्पन्न बनियोंके लिये किया गया है, इस जातिकी उत्पत्ति किसी स्थानके गृहपतियोंसे हई होगी। वर्तमान में ये वैष्णव हैं, व इनका जैनोंसे सम्बन्ध नहीं हैं । भार्गव ब्राह्मण इनके पुरोहित हैं । वर्तमान शताब्दीके आरम्भमें इनमें से कोई भी जैन नहीं पाये गये थे। इनके जैन न रहनेका कारण ज्ञात नहीं है। ये बुन्देलखण्डके उत्तरी भागमें बसे जान पड़ते हैं। जिस प्रकार गोलापूर्व डाकुओंके भयमें दक्षिणमें जाकर बसते रहे हैं, उसी प्रकार ये उत्तर प्रदेशमें जाकर बसते रहे हैं । सम्भव है, इनपर ब्राह्मणोंपर प्रभाव होनेसे इन्होंने जैन परम्पराका त्याग कर दिया हो। गोलापूर्व जातिपर सबसे अधिक प्रभाव परवार जातिका प्रतीत होता है। ये ही गोलापूर्वोके सबसे निकटके हैं व बुन्देलखण्डके जैनोंमें इनकी संख्या सबसे अधिक है। इन शिलालेखोंमें पुरवाड या पौरपट्ट लिखा गया है। इसे हिन्दी विश्वकोषमें उड़ीसावासी लिखा है। इस भ्रमका कारण शैरिंगका एक ग्रन्थ है। उत्तर प्रदेशके मैनपुरी जिलेमें काफ़ी परवार बसे हैं, इनमेंसे अधिकतर वैष्णव हो गये हैं। इन्होंने पुर शब्दकी उत्पत्तिका अनुमान पुरी (जगन्नाथपुरी) से लगाया जिसका शैरिंगने उल्लेख किया है। रसेल व हीरालालने इसे राजस्थानसे उत्पन्न माना है ।१६ वास्तवमें शिलालेखों आदिके आधारपर इनका आदिस्थान चन्देरी (जि० गुना) के आसपास होना चाहिये । गुनाके पश्चिममें लगे हुए राजस्थानके झालावाड़ व कोटा जिले हैं जो परवार पश्चिमकी तरफ जा बसे, वे राजस्थानी या मालवी बोलने लगे। झाँसी जिलेमें मदनपरके पुरपट्टन नामके प्राचीन स्थानका अवशेष है२१, सम्भव है परवार वहींसे निकले हों। इन का पोरवाड़ (प्राग्वाट) या परमार जातियोंसे कोई सम्बन्ध नहीं है। इनमें १२ गोत्र है, हर गोत्र १२ मूरोंमें विभाजित है । परम्परागतरूपसे अपना गोत्र व माँ, नानी, दादी आदिके ७ मूर (कुल आठ शाखायें) विवाहके लिये टाली जाती हैं । पर कोई-कोई चार ही शाखायें टालते थे। इस कारणसे इनमें अष्टशाख (उत्तम) व चौसाख दो श्रेणियाँ हैं (इसी प्रकारका बिहार-बंगालके ग्वालोंमें सतमूलिया-नौमूलिया श्रेणियाँ है३१)। बिनायके लहरीसेन Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ (लघुक्षणी) कहलाते हैं व चार अन्तर्गत श्रेणियोंमें विभक्त है। इनका सम्मान प्रति पीढ़ी बढ़ता है व कालान्तरमें वे सामान्य परवारोंके समान हो जाते हैं। इसी जातिमें ई० १४४८-१४९५ में तारणस्वामी हुए हैं। परवारोंमें जो तारणपंथी हुए वे समैय्या या चरणागरे कहलाते हैं । ये दसा-बीसामें बँटे हैं। इनमें व सामान्य परवारों में अनुलोम सम्बन्ध रहे हैं। १६ जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, इनमें व गोलापूर्वोमें भोजनका सम्बन्ध रहा है व कभी-कभी विवाह सम्बन्ध भी होता रहा है। विवाह आदिकी परम्पराओंमें गोलापूणे व परवारोंमें कुछ अन्तर है, पर अधिकतर रीति-रिवाज एकसे हैं । परवार कई अन्य जैन जातियों (अग्रवाल, गोलापूर्व, गोलालारे से अधिक गौरवर्ण होते हैं। नेमा जातिका भोजन सम्बन्ध गोलापूर्वोके साथ लिखा गया है ।१६ यह जाति बुन्देलखण्डमें कुछ शताब्दियोंसे है, पर प्राचीन शिलालेखोंमें इसका उल्लेख नहीं है। यह जाति मालवा, राजस्थान, यहाँतक कि गुजरातमें भी बसी है। हो सकता है यह मालवामें निमाड़से निकली हो। कई पीढ़ियों पहले बुन्देलखण्डके पास कई नेमा परिवार जैन थे पर अब क्रमशः वैष्णव हो गये है। दिगंबर जैन नेमा अधिकतर विदर्भमें कारंजालाड, खोलापुर व नांदगांव (खण्डेश्वर) में बसे हैं ।१४ यति श्रीपालचन्द्रके अनुसार इनका मूलस्थान हरिश्चन्द्रपुरी नामक कोई नगर रहा है । ___ असाटी बुन्देलखण्डकी ही बनिया जाति है जो मूलतः टीकमगढ़ जिलेमें बसती थी। इनके प्राचीन उल्लेख नहीं मिले है, इनके पूर्वजोंको किसान माना गया है।६ सम्भवतः इनका उद्भव गुजराती पटेलों (पाटीदार)३° की तरह हुआ हो जो अब क्रमशः किसानसे बनिया होते जा रहे हैं । असाटी जैन सन् १९११ में कुछ गाँवोंमें बसते थे, ये अब भी जैन है या नहीं, कहा नहीं जा सकता। क्षुल्लक (गणेशप्रसाद वर्णीजी इसी जातिके थे। सन्दर्भ-सूची ३१. यशवन्त कुमार मलैया, "शोधकण'', अनेकान्त । २५. यशवन्त कुमार मलैया, “गोलापूर्व जाति पर विचार", अनेकांत, वर्ष २२, अं० २, जून १९७२, पृष्ठ ६८-७२। १७. यशवन्त कुमार मलैया, "वर्धमान पुराणके सोलहवें अधिकार पर विचार", अनेकांत । 10. M. A. Sherring, Hindu Tribes and Castes as Represented in Banares, Thurber and Co., 1872. १४. श्री अखिल भारतवर्षीय दिगंबर जैन डायरेक्टरी, प्र० ठाकुरदास भगवानदास जवेरी, १९१४ । १५. श्री अखिल भारतवर्षीय दि० जै० गोलापूर्व डायरेक्टरी, प्र० मोहनलाल जैन काव्यतीर्थ । २०. नारायण प्रसाद मिश्र, कान्यकुब्ज वंशावली, प्र० श्री वेंकटेश्वर प्रेस, बंबई, १९५९ । ३. हरिकृष्ण शास्त्री, ब्राह्मणोत्पत्तिमार्तण्ड, प्र० श्री वेंकटेश्वर प्रेस, बंबई, १९५४ । २७. पं० गोविन्ददास जैन कोठिया न्यायतीर्थ, प्राचीन शिलालेख, श्री १०८ दि० ज० अतिशय क्षेत्र अहार जी प्र० सेठ हीरालाल, दीपचन्द, अनंदीलाल जैन हटा (टीकमगढ़), १९६२ । ३९. रमेशचन्द्र गुणार्थी, राजस्थानी जातियोंकी खोज, प्र. आर्यब्रदर्स बुकसेलर, अजमेर, १९६५ । १९. श्री वि० जै० गोलापूर्व समाज, दमोह, प्र० पं० रविचन्द्र जैन, दमोह, १९८५ । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : १२९ १८. प्रदर्शिका श्री दि० ० गोलापूर्व समाज, छिंदवाड़ा, नं० प्रो० शीलचन्द्र सुमन, हिन्दी विभाग, डेनियल सन कालेज, छिंदवाड़ा, १९८५ (?)। ४१. कुंदनलाल जैन, 'बघेरवाल जातिकी स्थापना"; सन्मति संदेश, अप्रैल १९६७, पृ० ३५-३७ ।। २१. बलभद्र जैन, भारतके दिगंबर जैनतीर्थ (प्रथम भाग , प्र०भारतीय दि० जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, १९७६ । (तृतीय भाग)। ३१. पं० फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री, न्यायाचार्य डा० दरबारोलाल कोठिया अभिनन्दन ग्रन्थ, १९८२ । 37. D. E. Pocock, Kani and Patidar, Oxford University Press, 1972. 31. Dr. Sachau (Tr.) Alberuni's India, S. Chand and Co., 1964. 4. N. M. Dutt, "Origin and Growth of Caste in India, Vol. II, Firma K. L. ___Mukhopadhyaya, Calcutta. 1965 (Orig. 1931). 38. J. H. Hutton, Caste in India, Fourth Ed., Oxford University Press, 1963. 16. R. V. Russel and Hira Lal, Tribes and Caste of the Central Provinces of India, ___Vol. I and Vol. II, Cosmo Publications, 1975 (Orig. 1916). 13. V. A. Sangve, Jain Community, a Social Survey, II. Ed. Popular Pra kashan, 1980. 4. C. M. Duff. The Chronology of Indian History, Vol. 1. Cosmo Publications, ___ 1972 (Orig. 1890 ?). ६. रा० ब० पं० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, भारतीय प्राचीन लिपिमाला, मुंशीराम मनोहरलाल, १९७१ (मूल० १९१८)। 30. Sarda Srinivasan, "Dravidian words in Desinamala, "Jaurnal of the Oriental ____ Institute, University of Baroda, Vol. XXI, No. 2, Sept-Dec. 1971, P. 114. २. हिन्दी विश्वकोश (Encyclopedia India) सं० नगेन्द्र नाथ बसु, १९२३ । २६. परमानन्द शास्त्री, "जैन समाजकी कुछ उपजातियाँ", अनेकांत, जून १९६९, पृ०५० । 9. E. A. H. Blunt, The Caste System of Northern India, 1931. 24. K. C. Jain, Ancient Cities and Towns of Rajsthan, Motil. I Banarasidas, 1972. १. बी० आर० अम्बेडकर, शूद्रोंकी खोज, अमृत बुक कं०; नई दिल्ली, १९५० । 7. The Sturggle For Empire (The History and Culture of the Indian People), Ed. ___A. K. Majumdar, Bhartiya Vidya Bhavan, 1966. 40. The Mogul Empire, 36. The Age of Imperial Kanuj, - ?. The Classical Age, - 33. Age of Imi. unity. 32. A. K. Warder, An Introduction to Indian Historiography, Popular Praka shan, 1972. 8. A Historical Atlas of South Asia, Ed. J. E. Schwartzberg, University of Chicago Press, 1978. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ 5. S. Bhattacharya, A Dictionary of Indian History, George Braziller New Yark, 1967. 21. Badlu Ram Gupta, The Aggarwals, a Socio-Economic Study, S. Chand and Co., 1975. 42. V. S. Pramar, "Who Created Caste," The Times of India, New Delhi, July 14. 1974. २३. चन्द्रराज भंडारी विशारद आदि, अग्रवाल जातिका इतिहास (प्रथम भाग), प्र. अग्रवाल हिस्ट्री आफिस, भानपुरा, इन्दौर, १९३७ । १२. श्री अहिच्छत्र पार्श्वनाथ स्मारिका, ८। 29. G. S. Gharye, Caste and Race in India, 1932. 11. Iycl; The Caste Tribes of Kochin, २५. यति श्रीपालचन्द्र । 28. Dr. Mankekar, Mewar Saga, Vikas Publishing House, 1976, P. 34. 34. Sudama Misra, “Janpad States tn Ancient India". Bhartiya Vidyaprakashan, 1973. 35. Vakatoko. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TEX ਸੰ ਗੀ ਚ ਸ਼ਾਹ www.aindlibrary.org Page #271 --------------------------------------------------------------------------  Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और सिद्धान्त १. तीर्थकर महावीरको धर्मतत्त्व-देशना २. जैन-दर्शनमें आत्मतत्त्व ३. निश्चय और व्यवहार मोक्ष-मार्ग ४. निश्चय और व्यवहार धर्मम साध्य-साधकभाव ५. निश्चय और व्यवहार शब्दोंका अर्थाख्यान ६. व्यवहारकी अभूतार्थताका अभिप्राय ७. संसारी जीवोंकी अनन्तता ८. जैनदर्शनमें भव्य और अभव्य ९. जीव-दया : एक परिशीलन १०. जैनागममें कर्मबन्ध ११. कर्म-बन्धके कारण १२. गोत्रकर्मके विषयमें मेरा चिन्तन १३. भुज्यमान आयुमें अपकर्षण और उत्कर्षण १४. क्या असंज्ञी जीवोंमें मनका सद्भाव है ? १५. पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर महावीरकी धर्मतत्त्व-देशना आगम और आगमाभासकी परिभाषा परीक्षामुखसूत्र ग्रन्थके तृतीय समुद्देश में आगमकी परिभाषा निम्न प्रकार बतलायी गयी है आप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः ॥३-९९। अर्थ-आप्तके वचन आदिके आधारपर जो पदार्थ-ज्ञान हमें होता है वह आगम है। सूत्रमें 'वचन' शब्दके आगे पठित 'आदि' शब्दका अभिप्राय सूत्रकी टीका प्रमेयरत्नमालामें अंगुलि आदिके संकेतोंके रूप में ग्रहण किया गया है । अतः जिस प्रकार आप्तके वचनोंके आधारपर हमें होने वाला पदार्थ-ज्ञान आगम है उसी प्रकार उसकी अंगुल्यादिके संकेतोंके आधारपर हमें होनेवाला पदार्थ-ज्ञान भी आगम है। यह परिभाषा भावात्मक आगमकी है। लेकिन सूत्रका यह भी आशय है कि हमें उपयुक्त प्रकारसे होनेवाले ज्ञानरूप भावात्मक-आगमके उद्भवमें निमित्तभूत आप्तके वचनों और उसकी अंगुलि आदिके संकेतोंको द्रव्यात्मक-आगम जानना चाहिए। स्वामी समन्तभद्रने वचनरूप द्रव्यात्मक-आगमकी रत्नकरण्डकश्रा निम्न लिखित परिभाषा बतलाई है आप्तोपज्ञमनुल्लंध्यमदृष्टेष्टविरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत् सावं शास्त्रं कापथघट्टनम् ।।९।। अर्थ-शास्त्र (वचनरूप द्रव्यात्मक-आगम) वह है, जो आप्तके द्वारा कहा गया हो, अन्य मतों द्वारा अकाट्य हो, दृष्ट (प्रत्यक्ष) और इष्ट (अनुमान) द्वारा अबाधित हो, तत्त्व (तथ्यात्मक व सत्यात्मक प्रयोजनभूत वस्तु)का प्रतिपादक हो, सम्पूर्ण जीवोंके लिए हितकर हो और कुमार्ग (जीवोंके लिए अहितकर मार्ग) का निषेध करने वाला हो। स्वामी समन्तभद्रने उक्त परिभाषामें आगमका प्रत्यक्ष और अनुमानसे समथित होना न बतलाकर जो "अदष्टेष्टविरोधकम्" पद द्वारा प्रत्यक्ष और अनुमानसे अबाधित होना बतलाया है, इसका अभिप्राय यह है कि आप्तके वचनरूप सम्पूर्ण द्रव्यात्मक-आगमका हमारे प्रत्यक्ष और अनुमानसे अल्पज्ञ होनेके कारण समर्थित होना सम्भव नहीं है, लेकिन अबाधित होना अवश्य सम्भव है--इस तरह आप्तके वचनरूप जो द्रव्यात्मकआगम हमारे प्रत्यक्ष और अनुमानसे समर्थित हो, वह तो आगम है ही, लेकिन आप्तके वचनरूप जो द्रव्यात्मकआगम हमारे प्रत्यक्ष और अनुमानसे अबाधित हो, उसे भी आगम जान लेना चाहिए । परीक्षामुखसूत्र ग्रन्थके उक्त सूत्रमें व रत्नकरण्डकश्रावकाचारके उक्त पद्यमें पठित 'आप्त' शब्दसे यह भी निर्णीत होता है कि पुरुष आप्त और अनाप्त के भेदसे दो प्रकारके होते हैं। उनमेंसे आप्तके वचन व उसकी अंगलि आदिके संकेत ही आगम हैं, अनाप्तके वचन और उसकी अंगलि आदिके संकेत आगम नहीं हैं। अतः अनाप्त के वचन व उसकी अंगुलि आदिके संकेतोंको आगमाभास जानना चाहिए। १. आदिशब्देनांगुल्यादिसंज्ञापरिग्रहः । २. परनिरपेक्ष (स्वतःसिद्ध) वस्तुस्थितिरूप । ३. परसापेक्ष वस्तुस्थितिरूप । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ आप्त और अनाप्तके लक्षण स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें ही आप्तका लक्षण निम्न प्रकार बतलाया है--- आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ।।५।। अर्थ-जो अपने सम्पूर्ण दोषोंको नष्ट कर चुका हो, सर्वज्ञ हो गया हो और धर्म-मार्गका प्रवर्तक बन चुका हो, उसे ही आप्त जानना चाहिए, क्योंकि इन तीन गुणोंके प्रकट हुए बिना आप्तता सम्भव नहीं है। परीक्षामुखसूत्र ग्रन्थके उपर्युक्त सूत्रकी टीका प्रमेयरत्नमालामें आप्तका लक्षण निम्न प्रकार निश्चित किया गया है यो यत्रावंचकः स तत्राप्तः। अर्थ-जो पुरुष जिस विषयमें अवंचक है अर्थात् दूसरोंके साथ ठगाई नहीं करता है, वह पुरुष उस विषयमें आप्त है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार और प्रमेयरत्नमालाके उपर्युक्त उद्धरणोंसे यह बात निर्णीत होतो है कि सर्वज्ञ तो आप्त होता ही है क्योंकि वह पूर्ण वीतरागी हो जानेसे सर्वथा अवंचकवृत्ति हो जाता है । लेकिन अल्पज्ञ भी यदि किसी विषयमें अवंचकवृत्ति हो तो उसे भी उस विषयमें आप्त जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि हितकर उपदेशका नाम आगम है और जो हितकर उपदेश देता है वह आप्त है। उस उपदेशकी हितकारिताका आधार उपदेश देनेवाले पुरुषकी अवंचक-वृत्ति ही हुआ करती है तथा अवंचकवृत्तिका निर्णय उसमें (उपदेश देनेवाले पुरुषमें) पाई जानेवाली वीतरागता (निःस्वार्थवृत्ति) से होता है। अतः आप्तताका निर्णय पुरुषमें विद्यमान वीतरागता (निःस्वार्थवृत्ति)के आधारपर ही करना चाहिए। इस तरह सर्वज्ञके साथ अल्पज्ञ भी आप्तकी कोटिमें गभित हो जाता है। उक्त कथनसे यह भी सिद्ध होता है कि अल्पज्ञ भी सर्वज्ञको तरह तभी आप्त हो सकता है जब कि वह अवंचक वृत्ति हो । इसका फलितार्थ यह है कि अल्पज्ञ आप्त और अनाप्तके भेदसे दो प्रकारके होते हैं। उनमेंसे जो अल्पज्ञ अपने में यथासम्भव पाई जानेवाली वीतरागता (निःस्वार्थ वृत्ति) के आधारपर अवंचक वृत्ति होते हैं, वे आप्त कहलाते हैं और जो अल्पज्ञ अपने में पाई जानेवाली सरागता (स्वार्थपूर्ण वृत्ति)के आधारपर वंचकवृत्ति होते हैं, वे अनाप्त कहलाते हैं । आगम और आगमाभासका प्रवर्तन आगम और आगमाभासका प्रवर्तन अनादिकालसे चला आ रहा है, जिसका विवेचन इस प्रकार है कि निश्चयकाल (स्वतःसिद्ध कालनामा पदार्थ) नित्य (अनादिसे अनन्त काल तक रहनेवाला) है। इस निश्चय-कालकी पुद्गल-परमाणुके अत्यन्त मन्द-गमनके आधारपर विभक्त अखण्ड-वृत्तिरूप समय और यथायोग्य समयोंके समूहरूप आवलो, घड़ी, मुहूर्त, घण्टा, प्रहर, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष तथा वर्षोंके भी समूह --यह सब व्यवहारकाल है । यद्यपि ये सब निश्चय-कालकी पर्याएं है परन्तु इन्हें व्यवहारकाल इसलिए कहते हैं कि इनका अस्तित्व मूलतः परवस्तुभूत पुद्गल-परमाणुके अत्यन्त मन्द गमनके आधारपर निष्पन्न होनेसे इनमें पराश्रितता पाई जाती है। इस व्यवहारकालका प्रवर्तन प्रवाहरूपसे अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चलता | Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ५ जायगा । आगममें बतलाया गया है कि व्यवहारकालका यह प्रवर्तन एकके बाद एक कल्पके रूपमें चल रहा है। एक कल्पकी मर्यादा बीस कोडाकोड़ी सागर वर्षोंकी है, जो कि असंख्यात वर्ष प्रमाण होती है। प्रत्येक कल्प भी अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीके रूप में अपना प्रवर्तन किया करता है। अवसर्पिणी वह है, जिसमें मानव-समाज अपनी उच्चतम स्थितिको एक-एक समयके आधारपर धीरे-धीरे समाप्त कर क्रमशः हीनतम स्थिति तक पहँचता है और उत्सपिणी वह है, जिसमें मानव-समाज अपनी हीनतम स्थितिको एक-एक समयके आधारपर ही धीरे-धीरे समाप्त कर क्रमशः उच्चतम स्थिति तक पहुँचता है। इस तरह का प्रवर्तन सषमा-सषम (अत्यन्त सुखमय समय), सुषमा (सुखमय समय). सुषमा-दुःषमा (दुःख मिश्रित सुखमय समय). दुःषमा-सुषमा (सूख मश्रित दुःखमय समय), दुःषमा (दुःखमय समय) और दुःषमादुःषमा (अत्यन्त दुःखमय समय)-इन छह भेदोंके रूपमें तथा इसके पश्चात् उत्सर्पिणीका प्रवर्तन दुःषमादुःषमा (अत्यन्त दुःखमय समय), दुःषमा (दुःखमय समय), दुःषमा-सुषमा (सुखमिश्रित दुःखमय समय), सुषमा-दुःषमा (दुःखमिश्रित सुखमय समय), सुषमा (सुखमय समय) और सुषमा-सुषमा (अत्यन्त सुखमय समय) इन छह भेदोंके रूप में हुआ करता है। इससे यह निष्कर्ष निकला कि क्रमशः एकके बाद एकके रूपमें अवसर्पिणो और उत्सर्पिणीका प्रवर्तन होते हुए अनादिसे अबतक अनन्त कल्पकाल व्यतीत हो चुके हैं तथा आगे इन बीते हुए कल्प-कालोंसे अनन्तगुणे कल्पकाल व्यतीत हो जानेपर भी काल-द्रव्य (निश्चयकाल) का अस्तित्व अनादि-निधन होनेसे कल्पकालोंका प्रवर्तन कभी समाप्त नहीं होगा। प्रत्येक कल्पकालकी अवसर्पिणीके चतुर्थ दुःषमा-सुषमा भागमें और प्रत्येक उत्सर्पिणीके तृतीय दुःषमा-सुषमा भागमें संसारी जीवोंके लिए मोक्ष-प्राप्तिके साधनभत धर्म-तीर्थका प्रवर्तन करनेवाले चौबीस महापुरुष उत्पन्न होते हैं, जिन्हें आगममें 'तोथ कर' नामसे पुकारा गया है। इस तरह अनादि-कालसे अबतक अनन्त तीर्थकरोंकी अनन्त चोबीसियाँ हो चकी है और आगे भी सतत तीर्थंकरोंकी चौबीसियोंके होनेका यही क्रम चलता जायगा। प्रत्येक तीर्थकरने अपने समयमें अपनी दिव्यवाणी (दिव्यध्वनि) द्वारा जो धर्मतीर्थका उपदेश संसारी जीवोंको दिया था, उसे आगममें देशना नामसे पुकारा गया है और उस देशनाको तथा उस देशनाके आधारपर गणधर आदि अल्पज्ञ आप्तों द्वारा ग्रथित उपदेशको ‘आगम' नामसे पुकारा गया है। इस तरह कहना चाहिए कि आगमका प्रवर्तन अनादि-कालसे चला आ रहा है और अनन्त कालतक चलता जायगा । यही स्थिति आगमाभासके प्रवर्तनकी समझना चाहिए । वर्तमान आगमकी आधारभूमि वर्तमानकाल अवसर्पिणीका पंचम भाग दुःषमाकाल है। इससे २५१४ वर्ष पूर्व इसी अवसर्पिणीका चतुर्थ भाग दुःषमा-सुषमा काल चल रहा था। उस समय तक इस अवसर्पिणी में होनेवाले चौबीस तीर्थंकरोंमें अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर इस भारतभुमिपर विद्यमान थे, जिन्होंने अपनी पूर्व वीतरागता और सर्वज्ञताके आधार जगतके प्राणियोंको हितकारी उपदेश दिया था, जिसे तीर्थंकर महावीरकी देशना कहते है। यद्यपि तीर्थकर महावीरकी वाणी आज हमें उपलब्ध नहीं है, फिर भी उनकी वाणीके आधारपर उत्तरोत्तर अल्पज्ञ आप्तों द्वारा रचित आगम वर्तमानमें भी उपलब्ध है, जिसके द्वारा उनकी ( तीर्थंकर महावोरकी) देशनाकी झांकी हमें वर्तमानमें भी उपलब्ध हो रही है। इस तरह कहना चाहिए कि वर्तमान आगम यद्यपि अल्पज्ञ आप्तों द्वारा रचा गया है, परन्तु उसकी आधारभूमि तीर्थकर महावीरकी देशना ही है । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ : सरस्वती-वरदपुत्र 40 बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ अल्पज्ञको आप्त माननेका प्रयोजन ऊपर कहा गया है कि वर्तमानमें जितने कल्याणकारी उपदेशके रूपमें आगम उपलब्ध है वह साक्षात् तीर्थकर महावीरकी वाणी नहीं है, अल्पज्ञ आप्तोंकी ही वाणी है । अब यदि अल्पज्ञोंको आप्त नहीं माना जाता तो सर्वज्ञके अभाव रहनेके कारण वर्तमानमें कल्याणकारी मार्ग समाप्त हो जाता। दूसरी बात यह है कि अल्पज्ञको आप्त न माननेपर लोक-व्यवहारकी चल रही सम्पूर्ण व्यवस्था ही छिन्न-भिन्न हो जाती। तीसरी बात यह भी है कि सर्वज्ञकी सत्ता और उसके उपदेशकी प्रामाणिकताका निर्णय हम अल्पज्ञ आप्तों द्वारा विरचित आगमके आधारपर ही तो वर्तमानमें कर सकते हैं। अतः अल्पज्ञको आप्त न माननेपर सर्वज्ञकी सत्ता और उसके उपदेशकी प्रामाणिकताके निर्णयके लिए आधार हो समाप्त हो जाता। ये सब कारण हैं जिसकी वजहसे अल्पज्ञको भी आप्त मानना अनिवार्य हो जाता है। इतनी बात अवश्य है और जैसा कि पूर्व में बतलाया भी जा चुका है कि सर्वज्ञकी आप्तता तो असंदिग्ध है क्योंकि वह पूर्ण वीतरागी हो जानेसे सर्वथा अवंचक वृत्ति हो जाता है परन्तु अल्पज्ञकी आप्तताका निर्णय उसमें अवंचक वत्तिका निर्णय हो जानेपर ही हो सकता है ऐसा जानना चाहिए। फिर भी जैसे सर्वज्ञका उपदेश जीवोंको हितकर होनेसे आगम कहलाता है वैसे ही अल्पज्ञ आप्तोंके उपदेशको भी जीवोंको हितकर होनेसे आगम मानना चाहिए। सर्वज्ञसे अल्पज्ञ-आप्तके उपदेश में अन्तर भी है यद्यपि ऊपर यह बतलाया गया है कि जिस प्रकार सर्वज्ञका उपदेश जीवोंको हितकर होनेसे आगम कहलाता है। उसी प्रकार अल्पज्ञ आप्तोंके उपदेशको भी जीवोंको हितकर होनेसे आगम मानना चाहिए। परन्तु सर्वज्ञसे अल्पज्ञ आप्तके उपदेशमें यह अन्तर भी समझना चाहिए कि जहाँ सर्वज्ञका उपदेश उसकी सर्वज्ञताके कारण हमारे प्रत्यक्ष और अनुमानसे नियमतः समर्थित या अबाधित होनेसे निर्विवाद रूपसे आगम कहलाता है, वहाँ अल्पज्ञ आप्तका उपदेश उसकी अल्पज्ञताके कारण जबतक हमारे प्रत्यक्ष और अनुमानसे समर्थित या अबाधित रहेगा तभी तक वह आगम कहलावेगा। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अल्पज्ञ आप्तका कोई उपदेश यदि कालान्तरमें प्रत्यक्ष या अनुमानसे बाधित हो जाय, तो उसे तब हमारे लिए आगम न मानने में कठिनाई नहीं होना चाहिए। उदाहरणके रूपमें यह कहा जा सकता है कि चन्द्रमाकी रचना और भमितलसे उसकी दुरी जिस रूपमें आगममें बतलायी गई है, उससे विलक्षण ही चन्द्रमाकी रचना और भूमितलसे उसकी दुरो, उत्कर्षकी एक सीमा तक पहुँचे भौतिक विज्ञानने निर्णीत की है, जिसे अस्वीकार करना सम्भव नहीं है, इसलिये इस सम्बन्धमें यही मानना श्रेयस्कर है कि वर्तमान आगमके रचयिता आप्त चँकि अल्पज्ञ थे, अतः तथ्यपूर्ण स्थितिका पता लगानेके साधनोंकी कमीके कारण जैसा उनकी समझमें आया वैसा प्रतिपादन चन्द्रमाकी रचना और भमितलसे उसकी दूरी आदिका उस समय उन्होंने वर्णन किया था। इस प्रतिपादनको सर्वज्ञ आप्तके उपदेशके आधारपर किया हुआ नहीं समझना चाहिए। कारण कि सर्वज्ञके ज्ञानमें असंख्य परमाणओंके पिण्ड-स्वरूप चन्द्रमाका प्रत्येक परमाणु अपनी परिणतियोंके साथ पृथक्-पृथक ही प्रतिभाषित हो रहा है, ऐसी दशामें उसको उन समस्त परमाणुओंका चन्द्र पिण्डरूपसे ज्ञान होना सम्भव नहीं है तथा श्र तज्ञानका अभाव हो जानेसे श्रतज्ञानकी विषयभत चन्द्रमाकी भूमितलसे दुरी आदिका ज्ञान भी सर्वज्ञको सम्भव नहीं है, अतः निर्णीत होता है कि इन बातोंका प्रतिपादन सर्वज्ञ द्वारा नहीं किया गया है। ___ इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि सर्वज्ञ स्वतः-सिद्ध, अनादि-निधन और अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ताविशिष्ट प्रत्येक वस्तुका दृष्टा और ज्ञाता है तथा प्रत्येक वस्तुकी स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय सभी पर्याएँ पाए Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ७ भी वस्तुरूपसे उसके दर्शन और ज्ञानमें प्रति समय प्रतिबिम्बित और प्रतिभासित होती हैं । दो आदि वस्तुओंका संयोग या बन्ध (मिश्रण) उनके दर्शन और ज्ञानमें प्रतिविम्बित और प्रतिभासित नहीं होता है । इसका कारण यह है कि संयुक्त अथवा बद्ध (मिश्रित) वस्तुओंकी अखण्ड एकरूपता कदापि सम्भव नहीं है क्योंकि एक वस्तुके गुण-धर्म कभी दूसरी वस्तुमें प्रविष्ट नहीं हो सकते हैं । जैसे द्वयणुक दो पुद्गल परमाणुओंके बन्ध ण) से बना है, परन्तु उसमें प्रत्येक परमाणु एक-दूसरे परमाणुके निमित्तसे अपना-अपना पृथक्-पृथक् ही परिणमन कर रहा है। दोनों परमाणुओंका एक परिणमन नहीं हो रहा है । अतः जब दो परमाणु मिलकर एक परिणमन नहीं कर रहे हैं, तो वे उस मिले हुए रूपमें सर्वज्ञके ज्ञानके विषय कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते हैं। इससे सिद्ध होता है कि सर्वज्ञके दर्शन व ज्ञानमें द्वयणुकमें विद्यमान दोनों परमाणु एकदूसरेके निमित्तसे होनेवाले अपने-अपने परिणमनके साथ तादात्म्यको प्राप्त होते हुए पृथक्-पृथक् ही प्रतिबिम्बित और प्रतिभासित होते हैं। यही बात द्वयणकसे ऊपर छोटे-बड़े सभी स्कन्धोंके विषयमें जान लेना चाहिए। एक प्रश्न यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि जब चन्द्रमाकी रचना और उसकी भूमितलसे दूरी आदिका तथ्यात्मक (जैसा है वैसा) ज्ञान अल्पज्ञ आप्तोंको नहीं था तो फिर उन्होंने उनका अतथ्यात्मक (जैसा नहीं है वैसा) प्रतिपादन क्यों किया है ? समाधान उक्त प्रश्नका समाधान यह है कि अल्पज्ञ आप्तोंने चन्द्रमाकी रचना और उसकी भूमितलसे दूरी आदि का अतथ्यात्मक प्रतिपादन केसी कषायवश नहीं किया है, केवल तथ्यात्मक (जैसा है वैसा) प्रतिपादनके लिए साधनोंकी कमी होनेके कारण ही वह अतथ्यात्मक (जैसा नहीं है वैसा) प्रतिपादन जैसा समझमें आया वैसा प्रयोजनभूत समझकर किया है। इसलिये इन्हें मिथ्यादष्टि या मिथ्याज्ञानी नहीं समझना चाहिए, क्योंकि गोम्मटसार जीवकाण्ड में यह स्पष्ट लिखा है कि सम्यग्दष्टि जीव तथ्यात्मक वस्तुका श्रद्धान तो करता ही है लेकिन साधनोंके अभावमें वह अतथ्यात्मक वस्तुको भी तथ्यात्मक समझकर उसका भी श्रद्धान करता है और ऐसा श्रद्धान करते हुए भी वह मिथ्यादृष्टि न होकर सम्यग्दृष्टि ही बना रहता है। इतना अवश्य है कि यदि उसे कालान्तरमें अपनी भल किसो प्रकार समझमें आ जावे, फिर भी वह उस अतथ्यात्मक प्रतिपादनको तथ्यात्मक माननेका ही आग्रह करता है तो तब वह सम्यग्दृष्टि न रहकर मिथ्यादृष्टि ही हो जाता है। इस तरह आज भौतिक विज्ञान द्वारा किया गया चन्द्रमाकी रचना व उसकी भूमितलसे दूरी आदिका निर्णय अल्पज्ञ आप्तों द्वारा प्रतिपादित आगमसे विपरीत होते हुए भी यदि तथ्यात्मक हो तो उसे स्वीकार करने में हमें संकोच नहीं होना चाहिए, क्योंकि इससे हमारे आध्यात्मिक तत्त्वज्ञानको कोई ठेस पहँचनेकी सम्भावना नहीं है। एक बात और है कि अल्पज्ञ आप्तों द्वारा लोक-कल्याण भावनासे जान-बूझकर भी अतथ्यात्मक विवेचन कर दिया जाता है । जैसे भोले बच्चेकी माँ बच्चेकी सुरक्षाकी दृष्टिसे कह दिया करती है कि "बेटा। १. सम्माइट्ठी जीवो उवइटुं पवयणं तु सद्दहदि । सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥ २७ ॥ सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जतं जदा ण सद्दहदि । सो चेव हवइ मिच्छाइट्री जीवो तो पहुदि ॥ २८॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ सड़क पर नहीं जाना, क्योंकि वहाँ हौवा बैठा हुआ है" तो यह कथन यद्यपि अध्यात्मक है, परन्तु बच्चेके प्रति कल्याण- भावनाकी दृष्टिसे कहा जानेके कारण लोकमें सत्य मान लिया जाता है। इसी तरह गायकी सुरक्षाकी दृष्टिसे अल्पश आप्तों द्वारा कसाईको गायके जाने का सही मार्ग न बतलाया जाकर जो गलत मार्ग भी बतला दिया जाता है, उसे भी सत्यात्मक लोक में मान लिया जाता है। यही कारण है कि स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डकाकाचार में किसी प्राणौके लिए विपत्तिकारक सत्य वचनको भी असत्य और हितकारक असत्य वचनको भी सत्य वचन कहा है।" तथा संकल्पी हिंसाके समान पाप होते हुए भी स्वपर-कल्याणभावनाके आधारपर की गई आरम्भी हिंसाको यथास्थान उचित बतलाया गया है।" आगमके भेद और उनके लक्षण वर्तमान में जितना भी आगम है, उसे चार भागों में विभक्त किया गया है- १. द्रव्यानुयोग, २. करणानुयोग, ३. चरणानुयोग और ४. प्रथमानुयोग । " १. द्रव्यानुयोग वह है, जिसमें अध्यात्म (आत्महित) को लक्ष्यमें रखकर विश्वकी समस्त वस्तुओंकी स्वतन्त्र सत्ता, उपयोगिता और उनकी स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्ययपर्यायोंका निर्धारण किया गया हो। इस अनुयोगसे संसारी प्राणियोंके लिए अपना लक्ष्य निर्धारित करनेमें सहायता मिलती है । २. करणानुयोग वह है, जिसमें अध्यात्म (आत्महित) की लक्ष्यमें रखकर संसारी प्राणियोंकी पाप, पुण्य और धर्ममय पर्यायों और उनके कारणोंका विश्लेषण किया गया है। इस अनुयोगसे संसारी प्राणियोंको अपनी पाप, पुण्य और धर्ममय पर्यायों व उनके कारणोंका परिज्ञान होता है । ३. चरणानुयोग वह है जिसमें अध्यात्म (आत्महित) को लक्ष्यमें रखकर संसारी प्राणियोंको पाप, पुण्य और धर्मके मागका परिज्ञान कराया गया हो। इस अनुयोग से संसारी प्राणियोंमें अपने लक्ष्यकी पूर्ति के लिए पुरुषार्थ जाग्रत होता है । ' ४. प्रथमानुयोग वह है, जिसमें अध्यात्म (आत्महित) को लक्ष्य में रखकर तथ्यात्मक ( जैसे हो वैसे) और आपेक्षिक सत्यताको प्राप्त प्रयोजनभूत कथानकोंके आधारपर संसारी प्राणियों को पाप पुण्य और धर्मके फलोंका दिग्दर्शन कराया गया हो। इस अनुयोगसे प्राणियोंमें अपने लक्ष्य की पूतिके मार्ग में श्रद्धा ( रुचि ) जात होती है । अध्यात्म (आत्महित) और उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है ? श्रद्धेय पं० दौलतरामजीने छालाके प्रथम पद्य में अध्यात्म (आत्महित) का अर्थ मुख बतलाया है और प्रथम ढालके प्रथम पचमें यह बतलाया है कि संसारके सभी अनन्तानन्त जीव सुख चाहते हैं और दुःखसे डरते हैं ।" सुखप्राप्तिका साधन (मार्ग) स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डक श्रावकाचार में धर्मको बतलाया है १, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक ५५ । २. वही श्लोक ५३ । ३. प्रथमं चरणं करणं द्रव्यं नमः (शान्तिपाठ) व रत्नकरण्डकधावकाचारके पद्य ४३, ४४, ४५, व ४६ ॥ ४. आतमको हित है सुख इत्यादि । ५. जे त्रिभुवनमें जीव अनन्त, सुख चाहें दुःखतें भयवन्त । ६. देशयामि समीचीन धर्म कर्मनिर्वहणम् । संसारदुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥ २ ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : ९ इसलिए कहना चाहिए कि तीर्थकर महावीरकी देशनाका मुख्य उद्देश्य भी संसारी प्राणियोंको दुःखके जनक अधर्मसे हटाकर सुखके जनक धर्मकी ओर मोड़ना ही था, जिसका प्रतिपादन चरणानुयोगमें किया गया है । धर्म और अधर्मका स्वरूप ___ धर्म और अधर्मका स्वरूप बतलानेके पूर्व इस सम्बन्धमें लोकको दृष्टिको भी समझ लेना आवश्यक है, जो निम्न प्रकार है : १. प्रायः प्रत्येक मनुष्यकी दृष्टिमें वही सम्प्रदाय श्रेष्ठ है, जिसमें वह पैदा हुआ है, वही दर्शन सत्य है जिसे वह मानता है और उसी क्रियाकाण्डसे स्वर्ग या मोक्ष प्राप्त हो सकता है, जो उसे कुल-परम्परासे प्राप्त है। इसके अतिरिक्त शेष सभी सम्प्रदाय निम्न कोटिके, सभी दर्शन असत्य और सभी क्रियाकाण्ड आडम्बर मात्र हैं। इस तरह लोकका प्रायः प्रत्येक मनुष्य इसी आधारपर अपनेको धर्मात्मा और दुसरोंको अधर्मात्मा मान रहा है। २. लोकमें धर्मात्मा व्यक्तिके लिए आस्तिक और अधर्मात्मा व्यक्तिके लिए नास्तिक शब्दोंका प्रयोग किया जाता है और इन दोनों शब्दोंकी व्युत्पत्ति व्याकरणरमें निम्न प्रकारकी गई है अस्ति परलोके मतिर्यस्य स आस्तिकः, नास्ति परलोके मतिर्यस्य स नास्तिकः । अर्थात् जो परलोकको मानता है, वह धर्मात्मा है और जो परलोकको नहीं मानता है वह अधर्मात्मा है। वास्तवमें देखा जाय तो धर्म और अधर्मकी ये व्याख्याएँ पूर्णतः सही न होकर ये व्याख्याएँ ही पूर्णतः सही हैं कि लोकमें जिस मार्ग पर चलनेसे अभ्युदय (शान्ति) और अन्तमें निःश्रेयस (मुक्ति अर्थात् आत्मस्वातन्त्र्य) प्राप्त हो सकता है, वह तो धर्म है और जो लोक तथा परलोक सर्वत्र दुःखका कारण हो वह अधर्म है । तीर्थकर महावीरकी देशनामें इस बातको लक्ष्य में रखकर ही चरणानुयोगमें प्रतिपादित धर्मके दश भेद स्वीकार किए गए हैं। धर्मके दश भेद और उनका स्वरूप क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये धर्मके दश भेद है। जीवन में क्रमिक-विकासके आधारपर ही तीर्थंकर महावीरकी देशनामें धर्मकी यह दश संख्या निश्चित की गयी है । आगे इनका पृथक्-पृथक् विकास-क्रमके आधारपर स्वरूप-विवेचन किया जा रहा है। १ क्षमा-कभी क्रोधावेशमें नहीं आना, कभी किसीको कष्ट नहीं पहँचाना, कभी किसीके साथ गाली-गलौज या मार-पीट नहीं करना तथा सबके साथ सदा सहिष्णुताका बर्ताव करना। २. मार्दव-कभी अहंकार नहीं करना, कभी किसीको अपमानित नहीं करना, सबके साथ सदा समानताका व्यवहार करना और मनमें कभी प्रतिष्ठाकी चाह नहीं करना। ३. आर्जव-कभी किसीके साथ छल-कपट नहीं करना, कम देकर अधिक लेने और असली वस्तुमें नकली वस्तु देनेका कभी प्रयत्न नहीं करना-इस तरह अपने जीवनको लोकका विश्वासपात्र बना लेना। ४. सत्य-सबके साथ सदा सहानुभूति और सहृदयताका व्यवहार करना, हित, मित और प्रिय १. तत्त्वार्थसूत्र ९।६। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ वचन बोलना, आवश्यकतानुसार दूसरोंकी यथाशक्ति तन, मन और धनसे सहायता करना तथा जीवनके लिए उपयोगी कौटुम्बिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, मानवोचित और सांस्कृतिक-संरक्षणका पूरा-पूरा प्रयत्न करना। ५. शौच-अपने जीवनकी सुरक्षा और शान्तिके लिए कुटुम्ब, समाज, नगर, राष्ट्र, विश्व और संस्कृतिके संरक्षणका पूरा-पूरा प्रयत्न करते हुए जीवन-रक्षामें उपयोगी साधनोंके संग्रह और उपयोगका यथोचित ध्यान रखना अर्थात् न तो जीवन रक्षाके लिए पराश्रित-वृत्ति अपनाना और न उपयोगमें कंजूसी करना। ६. संयम-अपने जीवनकी सुरक्षामें साधन-भूत सामग्रीके संग्रह और उपयोगमें कुटुम्ब, समाज, नगर, राष्ट्र, विश्व और संस्कृतिके संरक्षणका पूरा-पूरा ध्यान रखते हुए अपनी आवश्यकताओं और अपने अधिकारोंकी सीमा निर्धारित करना और अनावश्यक, प्रकृति-विरुद्ध, संस्कृति-विरुद्ध और लोक-विरुद्ध एवं अधिकारके बाहर उपयोग नहीं करना--इस प्रकार जीवनमें सादगी बना लेना। ७. तप-बाह्य प्रयत्नों द्वारा शरीरको आत्मनिर्भर बनानेका प्रयत्न करना तथा अन्तरंग प्रयत्नों द्वारा आत्माकी स्वालवम्बन शक्तिको जागृत करना-इस प्रकार जीवन की वर्तमान आवश्यकताओंको कम करना। ८. त्याग-बाह्य-प्रयत्नों द्वारा उत्तरोत्तर वृद्धिंगत शरीरकी आत्मनिर्भरता और अन्तरंग-प्रयत्नों द्वारा उत्तरोत्तर वद्धिगत आत्माकी स्वावलम्बनशक्तिके अनुरूप भोगसामग्रीके संग्रह और उपभोगमें धीरेधीरे यथायोग्य क्रमसे कमी करते जाना अर्थात जीवनरक्षाकी साधनभत उपयोग-सामग्रीका धीरे-धीरे यथाक्रमसे यथाशक्ति त्याग करना । ९. आकिंचन्य-उपर्युक्त दोनों प्रकारके प्रयत्नों द्वारा ही उत्तरोत्तर वृद्धिगत शरीरकी आत्मनिर्भरता व आत्माकी स्वावलम्बन-शक्तिके अनुरूप जीवन-रक्षाकी साधनभूत उपभोग-सामग्रीके अवलम्बनको यथोक्त क्रम से कम करते-करते अन्तमें अकिंचन ( नग्न, दिगम्बर-मद्राधारी बनकर मोक्ष (आत्मस्वातन्त्र्य ) की पूर्णता प्राप्त करने के लिए गृहवासको छोड़कर बनवासी हो जाना। १०. ब्रह्मचर्य-उपर्युक्त दोनों प्रकारके प्रयत्नों द्वारा उत्तरोत्तर वृद्धिंगत शरीरकी आत्म-निर्भरता और आत्माकी स्वालम्बन-शक्तिके आधारपर ही भूख, प्यास, रोग आदि शारीरिक बाधाओंके पूर्णतः नष्ट हो जाने ( शरीरके पूर्णरूपसे आत्मनिर्भर हो जाने ), तथा आत्माकी स्वालम्बन, शक्तिका चरम-विकास हो जानेपर आत्माके स्वभावभूत अनन्त-चतुष्टय (असीमित-दर्शन, असीमित-ज्ञान असीमित-वीर्य और असीमितसुख ) का उद्भव हो जानेके पश्चात् यथासमय आयुकी समाप्ति हो जानेपर संसार ( शरीरके साथ आत्माके विद्यमान सम्बन्ध ) का सर्वथा विच्छेद हो जाना और तब आगे अनन्तकालतक आत्माका अपने स्वतन्त्रस्वरूप में ही रमण करते रहना। इस प्रकार दश धर्मोके स्वरूपका आगमके आधारपर जो यह दिग्दर्शन कराया गया है, वह मानवजीवनमें धर्मके क्रमिक-विकासको बतलाता है तथा इससे तीर्थंकर महावीरकी देशनामें प्रतिपादित धर्मका स्वरूप और उसका प्रारम्भिक व सर्वोत्कृष्ट रूप सरलतासे समझमें आ जाता है। १. तत्त्वार्थसूत्र ९।१६ । २. तत्त्वार्थसूत्र ९।२० । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ११ उक्त दश-धर्मोंका वर्गीकरण पूर्व में स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डकश्रावकाचारके अनुसार धर्मको सुखका कारण बतलाया गया है । धर्म और सुखका यह कार्य-कारणभाव दीपक और प्रकाशकी तरह सहभावी है । अर्थात् जिस प्रकार जहाँ दीपक है वहाँ प्रकाश अवश्य रहता है और जहाँ दीपक नहीं है वहाँ प्रकाश भी नहीं रहता है । इसी प्रकार जहाँ धर्म होगा वहाँ सुख अवश्य होगा और जहाँ धर्म नहीं होगा वहाँ सुख भी नहीं होगा। पूर्वमें धर्मका जो यह स्वरूप निर्धारित किया गया है कि लोकमें जिस मार्गपर चलनेसे अभ्युदय ( जीवन में सुख शान्ति ) और अन्तमें निःश्रेयस (मक्ति अर्थात् आत्मस्वातन्त्र्य ) प्राप्त हो सकता है, वह धर्म है। इससे स्पष्ट होता है कि सुख दो प्रकारका होता है--एक तो अभ्युदय अर्थात् लौकिक-जीवनमें शान्तिरूप सुख और दूसरा निःश्रेयस अर्थात् मुक्ति या आत्म-स्वातन्त्र्यरूप पारमार्थिक-सुख । इसके आधारपर धर्म भी मूलतः दो भेदोंमें विभक्त हो जाता है-एक तो अभ्यदय अर्थात् लौकिक-जीवनमें शान्तिरूप सुखका कारणभूत लौकिक-धर्म और दूसरा निःश्रेयस अर्थात् मुक्ति या आत्म-स्वातन्त्र्यरूप पारमार्थिक-सुखका कारणभूत पारमार्थिक-धर्म । जो मनुष्य उक्त पारमार्थिक-सुखको प्राप्त करना चाहता है, उसे तो पारमार्थिक-धर्मकी शरणमें ही जाना होगा, लेकिन जो मनुष्य पारमार्थिक-धर्मकी शरण में अपनी अशक्तिवश नहीं जा सकता है, उसे कम-से-कम अपने लौकिकजीवनमें शान्तिरूप सुखकी प्राप्तिके लिए लौकिक-धर्मकी शरण में जाना आवश्यक है । तात्पर्य यह है कि मनुष्यका मुख्य कर्तव्य तो पारमार्थिक सुखको प्राप्तिके लिए पारमार्थिक-धर्म पर चलना ही है, लेकिन जो मनुष्य पारमार्थिक-धर्मपर चलने में असमर्थ है, उसे कम-से-कम लौकिक-जीवनमें सुख-शान्तिके उद्देश्यसे लौकिक-धर्मपर अवश्य ही चलना चाहिए । तीर्थकर महावीरकी देशनामें जो धर्मके उपर्युक्त दश भेद बतलाए गए हैं, वे इसी आशयसे बतलाए गए हैं। इसलिए उन दश धर्मों के दो वर्ग निश्चित हो जाते है-एक तो लौकिकधर्मोका वर्ग और दुसरा पारमार्थिक-धर्मोंका वर्ग । क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच और संयम ये छह धर्म तो लौकिक-धर्म कहलाने योग्य हैं और तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये चार धर्म पारमार्थिक-धर्म कहलाने योग्य हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि पारमाथिक-सुखकी प्राप्तिके लिए जिस प्रकार तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य रूप पारमार्थिक-धर्मोंका मानव-जीवन में महत्व है, उसी प्रकार लौकिक-जीवन में सुख शान्ति प्राप्त करनेके लिए क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच एवं संयम रूप लौकिक-धर्मो का भी मानव-जीवन में महत्व है। यही कारण है कि धर्मके उल्लिखित दोनों वर्गों को मानवकी बहत्तर कलाओंमेंसे प्रधान कलाके रूप में स्वीकार किया गया है। धर्मोंके क्रमिक-विकासकी दृष्टिसे एक बात यह भी स्पष्ट होती है कि मानवजीवनमें जब तक उक्त लौकिक धर्मो का समावेश नहीं होता, तब तक उसमें उक्त पारमार्थिक-धर्मों का विकास होना असम्भव ही है। मानव जीवनमें लौकिक-धर्मोके महत्त्वका कारण मानव जीवनमें लौकिक-धर्मोके महत्त्वका उपर्युक्त एक कारण तो यही है कि जब तक मानव-जीवनमें लौकिक धर्मोका समावेश नहीं होगा, तब तक उसमें पारमार्थिक धर्मोका विकास होना असम्भव है, लेकिन सामान्यरूपसे मानव-जीवनमें लौकिक-धर्मो का महत्त्व इसलिए है कि तीर्थंकरकी देशनाके अनुसार प्रत्येक सप्राण शरीरमें उस शरीरसे अतिरिक्त जीवका अस्तित्व है । इतना ही नहीं, वह जीव शरीरके साथ इतना घुला-मिला है कि शरीरके अस्तित्वके साथ ही उसका अस्तित्व उसे समझमें आता है, उसके बिना नहीं। जीवके भीतर जो ज्ञान करनेकी शक्ति है वह भी शरीरको अंगभूत इन्द्रियोंके सहयोगके बिना पंगु बनी रहतो १. कला बहत्तर पुरुषकी तामें दो सरदार । एक जीवकी जीविका द्वितीय जीव उद्धार ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ है और यह भी बात है कि जीन शरीरके इतना अधीन हो रहा है कि उसके जीवन की स्थिरता शरीरकी स्वास्थ्यमय स्थिरतापर अवलम्बित है । जीवकी शरीरावलम्बनताका यह भी एक विचित्र किन्तु तथ्यपूर्ण अनुभव है कि यदि शरीरमें शिथिलता आदि विकार पैदा हो जाते हैं, तो जीवको क्लेश होता है और जब उन विकारोंके नाशके अनुकूल साधनोंका सहयोग उसे प्राप्त हो जाता है, तो उन विकारोंका नाश हो जानेपर जीवको सुखानुभव होने लगता है। तात्पर्य यह है कि यद्यपि वे साधन अपना प्रभाव शरीरपर ही डालते हैं, परन्तु शरीरकी अधीनताके कारण सूखानुभोक्ता जीव होता है। अब यदि यह कथन मनुष्यके ऊपर लागू किया जाय तो समझमें आ जायगा कि मानव-प्राणी भी शरीरके अधीन है और उसका वह शरीर भी भोजनादिकके अधीन है । इसीलिए प्रत्येक मनुष्य भोजनादिक के उपभोगमें प्रवृत्त होता है। प्रत्येक मनुष्यको भोजनादिककी प्राप्ति अन्य मनुष्योंके सहयोगसे ही होती है। यही कारण है कि तीर्थकर महावीरने "परस्परोपग्रहो जीवानाम् (त० सु० ५।२१) का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। वैसे तो यह सिद्धान्त सम्पूर्ण संसारी जीवोंपर लागू होता है, परन्तु मानव-जीवनमें तो इसकी वास्तविकता स्पष्ट परिलक्षित होती है और इसीलिए मनुष्यको सामाजिक प्राणी स्वीकार किया गया है जिसका अर्थ यह है, कि प्रत्येक मनुष्यको अपने जीवनमें सुख प्राप्त करनेके लिए कुटुम्ब, नगर, राष्ट्र और यहाँ तक कि विश्वके सहयोगकी आवश्यकता है। इसका निष्कर्ष यह है कि प्रत्येक मनुष्यको अपने जीवनमें सुख प्राप्त करनेके लिए कुटुम्ब, नगर, राष्ट्र और विश्वके रूप में मानव-संगठनके छोटे-बड़े जितने रूप हो सकते हैं, उन सबको ठोस रूप देनेका सतत् प्रयत्न करते रहना चाहिए । इसलिए तीर्थकर महावीरकी देशना में प्रत्येक मनुष्यको सर्वप्रथम उपदेश दिया गया है कि “आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्" अर्थात् दूसरोंका जो आचरण उसको अपने प्रतिकूल जान पड़ता है वैसा आचरण उसको दूसरोंके साथ नहीं करना चाहिए, इतना ही नहीं, दूसरोंसे अपने प्रति वह जैसा आचरण चाहता है, वैसा ही आचरण उसे दूसरोंके साथ भी करना चाहिए । वास्तवमें देखा जाय तो वर्तमानमें प्रत्येक मनुष्यकी यह दशा है कि वह दूसरोंको निरपेक्ष भावसे सहयोग देनेके लिए तो तैयार ही नहीं होता है, परन्तु अपनी प्रयोजन-सिद्धिके लिए वह न केवल दूसरोंसे निरपेक्ष-सहयोग प्राप्त करनेका सतत् प्रयत्न करता रहता है, प्रत्युत दूसरोंके साथ संघर्ष करने, उन्हें तिरस्कृत करने और उन्हें धोखेमें डालनेसे भी नहीं चूकता है। इतना ही नहीं, प्रत्येक मनुष्यका यह स्वभाव बना हुआ है कि वह अपना प्रयोजन रहते अथवा न रहते भी दूसरोंके साथ हमेशा अनुचित आचरण करनेमें आनन्दित होता है। तीर्थंकर महावीरके समयमें भी मानव-समाजकी यही दशा थी और उन्होंने जाना था कि यह दशा मानव-समाजको विघटित करके प्रत्येक मनुष्यके जीवनको त्रस्त करनेवाली है, अतः उन्होंने अपनी देशनामें यह सिद्धान्त प्रस्थापित किया था कि मानव-जीवनमें शान्ति-स्थापनाकी रीढ़ सामाजिक संगठनको सुदृढ़ करनेके लिए प्रत्येक मनुष्यको दूसरे मनुष्योंके साथ, प्रत्येक कुटुम्बको दूसरे कुटुम्बोंके साथ, प्रत्येक नगरको अन्य नगरोंके साथ और प्रत्येक राष्ट्रको अन्य सभी राष्ट्रोंके साथ अपना प्रयोजन रहते न रहते कभी भी अनुचित आचरण नहीं करना चाहिए। इतना ही नहीं, आवश्यकता पड़नेपर सभीको सभीके साथ निरपेक्ष-भावसे सतत सहायकपनेका आचरण करते रहना चाहिए । तीर्थकर महावीरकी देशनामें तो यज्ञोंमें धर्मके नामपर होनेवाले पशुओंको रक्षाके अनुकूल जनमत जागृत करनेके लिये यहाँ तक कहा गया था कि जब प्राणीमात्र एक-दूसरे प्राणीका उपकारक है तो प्रत्येक Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १३ मनुष्यको सतत् “सत्वेषु मैत्री वाला पाठ याद रखना चाहिए और दूसरोंके साथ पूर्वोक्त स्वरूपवाले क्षमा, मार्दव, आर्जव तथा सत्य धर्मोके रूपमें ही अपना पवित्र आचरण बना लेना चाहिए। इस तरह प्रत्येक मनुष्य, प्रत्येक कुटुम्ब, प्रत्येक नगर और प्रत्येक राष्ट्र अर्थात् विश्वका मानवमात्र जब तीर्थंकर महावीर द्वारा उपदिष्ट पूर्वोक्त स्वरूपवाले क्षमा, मार्दव, आर्जव और सत्य धर्ममय अपना जीवन बना ले तभी वह अपनेको मानव या सभ्य कहलाने का अधिकारी हो सकता है तथा विश्वमें सच्ची अहिंसाका प्रसार भी इसी आधारपर हो सकता है और मानव-जीवन में इसी आधारपर सुख-शान्तिकी लहर दौड़ सकती है । ऊपर मनुष्यके सामाजिक-जीवनकी झाँकी बतलायी गयी है। इसके अतिरिक्त मनुष्यको जीवनमें सुखी बननेके लिए अपने व्यक्तिगत जीवनको भी धर्ममय बनाना होगा। अर्थात् लोकमें बहुतसे मनुष्य ऐसे देखने में आते हैं कि वे लोभके वशीभूत होकर सम्पत्तिके संग्रहमें जितना आनन्द लेते हैं, उतना आनन्द वे उसके उपभोगमें नहीं लेते, यहाँ तक कि वे अपने शरीरकी आवश्यकताओंकी पूर्ति में भी बड़ी कंजूसीके साथ काम लेते है। इसी तरह लोकमें बहुतसे मनुष्य ऐसे देखने में आते हैं कि वे लोलुपतावश पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंका आवश्यकतासे अधिक उपभोग करते हुए भी कभी तृप्त नहीं होते। बात तो वास्तवमें यह है कि भोजनादि पदार्थ मनुष्यको मनसन्तुष्टि के लिए बिलकुल उपयोगी नहीं है, केवल शरीरके लिए ही वे उपयोगी सिद्ध होते है, फिर भी मनुष्य अपने मनके वशीभूत होकर ऐसा भोजन करनेसे नहीं चूकता, जो उसकी शारीरिक प्रकृतिके बिलकुल प्रतिकूल पड़ता है। इसी प्रकार वस्त्र या अन्य सभी उपयोगमें आनेवाली वस्तुओंके विषयमें प्रायः प्रत्येक मनुष्य जितनी मानसिक अनुकूलताकी बात सोचता है, उतनी शारीरिक अनुकूलताकी बात वह कभी नहीं सोचता है। ऐसा करनेसे मनुष्यके जीवनका ह्रास तो होता ही है, परन्तु साथ ही उसके इस आचरणका मानव-समाजके ऊपर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । इसलिए तीर्थकर महावीरके उपदेशमें यह बात बतलायी गयी है कि भोजन आदि बाह्य-सामग्री जीवनके लिए बड़ी उपयोगी है । अतः मनुष्यको उसका जीवन में उपयोग तो करना चाहिए, लेकिन उसका दुरुपयोग न हो-इस बातका भी उसे पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए। इस तरह प्रत्येक मनुष्यको उपर्युक्त क्षमा, मार्दव, आर्जव और सत्य धर्मोके साथ ही संग्रहवृत्तिको समाप्त करनेवाले शौच-धर्म तथा विलासपूर्ण-वृत्तिको समाप्त करनेवाले संयम-धर्मका अवलम्बन अपने जीवनमें अवश्य लेना चाहिए। वास्तवमें विचार किया जाय तो लोक-शान्ति और जीवन-शान्तिके लिए क्षमा, मार्दव आजव. सत्य. शौच और संयम ये छह धर्म है। इसलिए जबतक मानव-समाज इनके महत्त्वको न समझकर इनकी उपेक्षा करता रहेगा, तबतक उसके जीवन में कुटुम्बमें, नगरमें, राष्ट्रमें और विश्वमें कभी भी शान्ति स्थापित नहीं हो सकती, और न कोई भी मनुष्य पारमार्थिक सुखके कारणभूत पारमार्थिक धर्मकी ओर ही वास्तविक रूपमें अग्रसर हो सकता है। पारमार्थिक धर्मोको मोक्ष-कारणता ऊपर बतलाया गया है कि पारमार्थिक धर्म निःश्रेयस अर्थात् मक्ति या आत्मस्वातन्त्र्यरूप पारमार्थिक सूखके कारण है और यह भी बतलाया गया है कि मानव-जीवनमें जबतक उपर्युक्त लौकिक-धर्मोका समावेश नहीं होगा, तबतक उसमें उक्त पारमार्थिक धर्मोका विकास होना सम्भव नहीं है । अर्थात् उपर्युक्त प्रकार १. सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरोतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ।।-सामायिक पाठ । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ लौकिक धर्मोपर चलनेवाला मानव जब शारीरिक और ऐहिक दृष्टिसे सुखी हो जाता है, तभी वह यह सोचनेके लिए सक्षम होता है कि मेरा जीवन शरीरके अधीन है और शरीरकी स्थिरता के लिए मुझे भोजन, वस्त्र, आवास और इनकी पूर्ति के लिए कुटुम्ब, नगर, राष्ट्र तथा विश्व तकका सहारा लेना पड़ता है । इस तरह मैं मानव-संगठनके विशाल- जाल में फँसा हुआ हूँ । ऐसी स्थिति में वह अपना भावी कर्त्तव्यका मार्ग इस प्रकार निश्चित करता है कि जिससे वह शरीर बन्धन से छुटकारा पा सके। उसके उस कर्त्तव्य मार्गको तीर्थकर महावीरकी देशनामें इस प्रकार बतलाया गया है कि सर्व प्रथम उसे अनशन आदि पूर्वोक्त बाह्य प्रयत्नों (तपों) द्वारा शरीरमें आत्म-निर्भरता लानेका व प्रायश्चित आदि पूर्वोक्त अन्तरंग प्रयत्नों (तपों) द्वारा आत्मामें स्वावलम्बनता लानेका पुरुषार्थ करना चाहिए तथा इन बहिरंग और अन्तरंग प्रयत्नोंके आधारपर ही जैसी - जैसी शरीरकी आत्मनिर्भरता और आत्माकी स्वावलम्बनता बढ़ती जाए, उसके आधारपर उसे बाह्य-पदार्थां अवलम्बनको छोड़ने रूप त्याग धर्म (अणुव्रत आदि श्रावक धर्म) और इसके भी आगे आकिंचन्य धर्म (महाव्रत आदि मुनि-धर्म) को अंगीकार कर लेना चाहिए । इस तरहका पुरुषार्थ उसे तबतक करते रहना चाहिए, जबतक कि उसका शरीर पूर्णं आत्मनिर्भर न हो जावे और आत्मा पूर्ण स्वावलम्बी न बन जावे । शरीरके पूर्ण आत्मनिर्भर हो जाने और आत्माके पूर्ण स्वावलम्बी बन जानेपर वह सर्व प्रथम जीवन्मुक्त परमात्मा बनता है और अन्तमें वह शरीरसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद कर लेनेपर ब्रह्मचर्यका धारक ( आत्मलीन परमात्मा ) बन जाता है अर्थात् निःश्रेयस ( मुक्ति या आत्मस्वातन्त्र्य) को प्राप्तकर पारमार्थिक सुखका भोक्ता परमात्मा बन जाता है और वह सर्वदा अजर व अमर बना रहता है । तीर्थंकर महावीरकी देशनामें उपदिष्ट धर्मतत्त्वका यह विवेचन आगमके एक भेद चरणानुयोगके आधार पर किया गया है, क्योंकि तीर्थंकर महावीरके धर्मतत्त्वको समझने के लिए हमें चरणानुयोग ही एक सहारा है । चरणानुयोगमें धर्मतत्त्वको समझने के लिए यद्यपि और भी कई प्रकार बतलाए गए हैं, परन्तु वे सब प्रकार भी धर्मतत्त्वको उपर्युक्त रूपमें ही प्रदर्शित करते हैं । यथा--- १. मिथ्यादर्शन ( सुख की अभिलाषासे दुःखके कारणोंमें रुचि रखना), मिथ्याज्ञान ( दुःखके कारणोंको सुखके कारण समझना) और मिथ्याचारित्र ( सुखकी प्राप्ति के लिए दुःखजनक प्रवृत्ति करना) यह सब अधर्म हैं तथा इनके ठीक विपरीत अर्थात् सम्यग्दर्शन ( सुखकी अभिलाषासे सुखके कारणोंमें ही रुचि रखना ), सम्यग्ज्ञान (सुखके कारणों को ही सुखके कारण समझना) और सम्यक्चारित्र ( सुख प्राप्ति के लिए सुखके ही कारणों में प्रवृत्त होना) यह सब धर्म है ।' २. हिंसा करना, झूठ बोलना, चोरी करना, भोगविलासमे जीवन बिताना और धनादिकके संग्रहको ही जीवनका लक्ष्य बना लेना -- यह सब अधर्म है तथा इस प्रकारकी प्रवृत्तियोंको जीवनसे निकाल देना-यह सब धर्म है । २ ३. धार्मिक प्रवृत्ति (धर्मपुरुषार्थ ), आर्थिक प्रवृत्ति ( अर्थ पुरुषार्थं ) और भोग में प्रवृत्ति ( काम पुरुषार्थं ) इनका जीवनमें समन्वय नहीं करना अधर्म है तथा इनका जीवनमें समन्वय करते हुए अन्तमें केवल धर्मपुरुषार्थ - पर आरूढ़ हो जाना अर्थात् मोक्षपुरुषार्थमय जीवनको बना लेना धर्म है । पहले प्रकार में जो सम्यग्दर्शनादिकको धर्म कहा गया है, उनमेंसे सम्यग्दर्शनका अन्तर्भाव तो क्षमा, १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक ३ । २. हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् । - तत्त्वार्थसूत्र ७१९ । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १५ मार्दव, सत्य, शौच और संयम धर्मोंमें हो जाता है, क्योंकि कोई भी मनुष्य जबतक अपने जीवनमें इन छह धर्मोंको स्थान नहीं देगा तब तक सम्यग्दृष्टि त्रिकालमें नहीं हो सकता है। इसका भी कारण यह है कि सम्यग्दृष्टिकी वृत्ति और प्रवृत्ति कभी अन्याय, अत्याचार आदि उच्छृंखलताओंको लिए हुए नहीं हो सकती है। और यदि इस तरह की वृत्ति और प्रवृत्ति किसीकी होती है तो वह सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता है । इसी प्रकार सम्यक्चारित्रका अन्तर्भाव तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य धर्मो में हो जाता है। जैसा कि इन धर्मो के पूर्व में किए गए स्वरूप विवेचनसे स्पष्ट हो जाता है । सम्यग्ज्ञानके सम्बन्धमें यदि विचार किया जाए तो कहा जा सकता है कि ज्ञान अपने आपमें न तो धर्म है और न अधर्म है, इसलिए जब तक उसका सम्बन्ध मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्र से रहता है तब तक तो उसका अन्तर्भाव अधर्म में होता और जब उसका सम्बन्ध सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्रसे हो जाता है तब उसका अन्तर्भाव धर्म में हो जाता है । दूसरे प्रकारमें जो अहिंसादिकको धर्म कहा गया है उनका समावेश क्षमा आदि धर्मो में निम्न प्रकार होता है। अहिंसा और अचौर्य ये दोनों निवृत्तिपरक धर्म है क्योंकि हिंसासे निवृत्ति अहिंसा, और चोरीसे निवृत्ति अचीर्य कहलाता है। दूसरोंके लिए अप्रिय वचन बोलना अथवा वध, बन्धन, ताड़न, छेदन, भेदन आदि क्रियाओं द्वारा कष्ट पहुँचाना हिंसा है, अतः इन सबसे निवृत्ति स्वरूप अहिंसाका समावेश क्षमाव में होता है। इसी प्रकार दूसरोंकी वस्तुओंको उनकी आज्ञाके बिना अपनी बना लेना चोरी है। यह चोरी अपने आपमें अधर्म न होकर दूसरोंको कष्ट पहुँचाने रूप हिंसाका कारण होनेसे ही अधमं है अतः कारणमें कार्यका उपचार होनेसे चोरी भी एक तरहसे हिंसाका ही रूप सिद्ध होती है, इसलिए चोरोसे निवृत्तिरूप अचौर्यधर्मका समावेश भी क्षमाघ में हो जाता है। तथा यदि और बारीकीसे अहिंसा व अचार्यका विश्लेषण किया जाय तो अहिंसाका समावेश क्षमाके साथ-साथ मार्दवधर्म में होता है, कारण कि अप्रिय वचन बोलने का अर्थ दूसरोंका तिरस्कार करना ही तो है अतः दूसरोंका तिरस्कार नहीं करने रूप अहिंसाका समावेश मार्दवधर्म में भी हो जाता है । इसी तरह अचीर्य धर्मका समावेश आर्जव धर्ममें करना उचित है कारण कि छल-कपट करना चोरीका ही रूपान्तर है । सत्य धर्म प्रवृत्तिपरक धर्म है । लोकमें दूसरोंको कष्ट नहीं पहुँचाना, इनका तिरस्कार नहीं करना और उन्हें धोखे में नहीं डालना -- यह तो धर्म है ही, परन्तु अहिंसा और अचौर्य धर्मोकी सीमा केवल इस तरहके अधर्म से निवृत्ति रूपमें ही नहीं समाप्त हो जाती है प्रत्युत इस निवृत्तिके आगे इनका कुछ प्रवृतिपरक रूप भी होता है । इसलिये उक्त प्रकारसे अहिंसा और अचौर्यवृत्तिके धारक मनुष्यको तीर्थकर महावीरकी देशनामें यह उपदेश दिया गया है कि दूसरोंके प्रति हित-मित प्रिय वचन बोलो, उनके साथ सहानुभूति और सहृदयताका व्यवहार भी करो तथा आवश्यकतानुसार उन्हें यथाशक्ति तन-मन-धन से सहायता भी पहुँचाओ। इस तरह अहिंसादि पाँच धर्मो में समाविष्ट सत्यन्धर्म और क्षमा आदि दश धर्मो में समाविष्ट सत्य धर्म – इन दोनोंमें कोई अन्तर नहीं रह जाता है। ये अहिंसा आदि तीन धर्म और क्षमा आदि चार धर्म लौकिक धर्म हो हैं, कारण कि ये सभी मानव-संगठनकी स्थिरताके आधार हैं । 'कुशील' शब्दका लौकिक दृष्टिसे अर्थ होता है-पर वस्तुओंका जोवनको हानिकर एवं अमर्यादित होकर उपभोग करना, इसलिए इससे विपरीत अर्थके बोधक ब्रह्मचर्य धर्मका समावेश संयम धर्ममें होता है। परन्तु यहाँ पर इतना और ध्यान रखना चाहिए कि पारमार्थिक धर्मकी ओर बढ़ने वाले मनुष्य के लिए जो उपभोग आज आवश्यक है, कल वह उसे अनावश्यक भी हो जाता है। अतः ऐसे अनावश्यक उपभोगका त्याग Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ धर्म में और अन्ततोगत्वा आकिंचन्य धर्ममें समाविष्ट होता है । लोकमें और धर्मग्रन्थोंमे ब्रह्मचर्य धर्मका जो पर-पुरुष या पर-स्त्री-रमणका त्याग अथवा आगे स्वपुरुष और स्वस्त्री - रमणका भी त्याग अर्थ किया जाता है। वह यद्यपि मिथ्या नहीं है परन्तु वह अपूर्ण अवश्य है, कारण कि मनके वशीभूत होकर अथवा शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जितना पर वस्तुओंका अवलम्बन जीवनमें लिया जाता है वह सभी कुशीलमें अन्तर्भूत होता है । इसलिए परवस्तुओंके अवलम्बनका मानसिक दृष्टिसे तो सर्वथा त्याग हो जाना तथा शारीरिक दृष्टिसे शक्ति के अनुसार त्यागकर देना ही ब्रह्मचर्य धर्म है । 'अपरिग्रह' शब्द के दो अर्थ होते हैं - एक तो ईषत् परिग्रह ( संग्रह ) अर्थात् परिग्रह ( संग्रह ) का परिमाण और दूसरा परिग्रह ( संग्रह ) का त्याग । इस तरह परिग्रहके परिमाण रूप अपरिग्रह धर्मका समावेश लौकिक धर्म होनेके कारण शौच धर्ममें और परिग्रहके त्याग रूप अपरिग्रह धर्मका समावेश पारमार्थिक धर्म के रूप में त्याग तथा आकिंचन्य धर्ममें होता है । और अन्तमें उपभोग तथा परिग्रह दोनोंका त्याग दशम ब्रह्मचर्य में अन्तर्भूत होता है । यदि उक्त पाँचों पापोंके उद्भव के सम्बन्धमें विचार किया जाय तो समझ में आ जायगा कि उनमें से कुशील ( भोग ) और परिग्रह ( संग्रह ) ये दोनों पाप जीवकी लोभ-वृत्तिके परिणाम हैं तथा हिंसा, झूट और चोरी क्रोध, मान और माया-वृत्तिके परिणाम हैं लेकिन इनमें यदि परस्परके कार्यकारणभावपर विचार किया जाय, तो कहा जा सकता है कि कुशील ( भोग ) और परिग्रह ( संग्रह ) ये दोनों पाप ही सब पापोंके मूल हैं क्योंकि प्रायः देखने में आता है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी स्वार्थपूर्ति के लिये ही हिंसा करनेमें उद्यत होता है, झूठ बोलता है और चोरी भी करता है । इस तरह कहना चाहिए कि सबसे भयंकर पाप जीवकी स्वार्थवृत्तिका परिचायक लोभ ही है । यही कारण है कि चरणानुयोग-आगममें " लोभ पापका बाप बखाना" के रूपमें लोभको पापका बाप कहकर पुकारा गया है । अर्थात् ये सभी प्रकारके धर्म इस प्रकार धर्मकी चाहे सम्यदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप व्याख्या की जावे, चाहे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्यं और अपरिग्रह रूप व्याख्या की जावे अथवा चाहे क्षमा आदि उपर्युक्त दश धर्म रूप व्याख्या की जावे – इन सभी व्याख्याओंमें भावका कुछ भी अन्तर नहीं है । पूर्वोक्त प्रकार धर्मके लौकिक और पारमार्थिक दोनों वर्गों में समाविष्ट होते । इसी धर्मका एक प्रकार जो धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थोके समन्वयरूप त्रिवर्गके रूपमें व केवल धर्म पुरुषार्थकी स्थितिको प्राप्त मोक्षपुरुषार्थरूप अपवर्गके रूप में बतलाया गया है वह भी त्रिवर्ग के रूपमें तो धर्मके लौकिक वर्ग में और अपवर्गके रूपमें धर्मके पारमार्थिक वर्ग में समाविष्ट होता है । यहाँपर मैं इतना और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि तीर्थंकर महावीरकी देशनाके अनुसार धर्मका सद्भाव सम्यग्दर्शनके रूपमें देवगति और नरक गतिमें तथा सम्यग्दर्शन और यत्किचित् चारित्र के रूपमें तिर्यग्गति में भी स्वीकार किया गया है । परन्तु लोकमें और धर्मग्रन्थों ( चरणानुयोग ) में धर्मके विषयमें जो कुछ सोचा और कहा गया है, उसमें मुख्यतया मानव-जीवनको ही लक्ष्य बनाया गया है । वास्तव में बात भी ऐसी है कि धर्मका जो महत्त्व मानव-जीवन में प्रस्फुटित होता है वह नारकियों, देवों और तियंचोंके जीवन में प्रस्फुटित नहीं होता, क्योंकि संसारमें मानव ही ऐसा प्राणी है जिसे अपना जीवन सुखमय बनानेके लिए मानव समाजको लेकर संगठनात्मक प्रयत्न करना और अपने जीवनके अधिकारोंकी सीमा निर्धारित करना अनिवार्य होता है तथा मोक्ष की प्राप्ति भी मानव जीवनसे ही होती है । इस तरह चरणानुयोगकी दृष्टिसे निर्णीत किया जाय, तो तीर्थंकर महावीरका तत्वज्ञान धर्मतत्त्व Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : १७ रूपमें ही निर्णीत होता है और यह धर्मतत्त्व जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है--लौकिक तथा पारमार्थिक सुखमें कारणभूत लौकिक और पारमार्थिक धर्मों के रूपमें विभक्त हो जाता है। इस धर्मतत्त्वको इसी रूपमें यदि प्रत्येक मनुष्य, प्रत्येक कूटम्ब, प्रत्येक नगर और प्रत्येक देश--इस तरह सम्पूर्ण विश्वकी मानव जाति हृदयंगम करके अपने जीवनका अंग बना ले तो एक तो विश्वमें सर्वत्र संघर्षकी स्थिति समाप्त होकर परस्पर प्रेमभावका संचार हो सकता है। दूसरे प्रत्येक मानव अन्तमें अपने महान लक्ष्य पूर्वोक्त पारमार्थिक सुखकी प्राप्तिकी ओर भी यथाशक्ति अग्रसर हो सकता है । यद्यपि तीर्थकर महावीरका तत्त्वज्ञान द्रव्यानुयोगकी दृष्टिसे छह प्रकारके द्रव्योंके रूपमें व करणानुयोग की दृष्टिसे सप्ततत्त्व या नवतत्त्वोंके रूप में भी निर्णीत होता है। साथ ही इस सभी प्रकारके तत्त्वज्ञानकी व्यवस्थाके लिए तीर्थकर महावीरकी देशनामें कर्मवाद, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और सप्तभंगीवाद तथा प्रमाणवाद और नयवादकी भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। परन्तु जिस प्रकार ऊपर धर्मतत्त्वकी विस्तारसे विवेचना की गयी है, उसी प्रकार इन सबकी विवेचना भी विस्तारको अपेक्षा रखती है, जो कि स्वतन्त्र रूपसे अनेक लेखोंका रूप धारण करने योग्य है । अतः आवश्यक होकरके भी इन सबपर लेखमें विचार नहीं किया गया है। ये सभी विषय आवश्यक इसलिए हैं कि इनका सम्बन्ध मनुष्यके पारमार्थिक जीवनसे तो है ही, परन्तु उसके लौकिक जीवनसे भी कम सम्बन्ध नहीं है क्योंकि विचारकर देखा जावे तो समझमें आ सकता है कि प्रत्येक मनुष्य का एक क्षण भी इनके बिना नहीं व्यतीत होता अर्थात् प्रत्येक मनुष्य अपने जीवनके प्रत्येक क्षणमें इनका उपयोग तो करता ही रहता है. परन्तु इनके स्वरूपसे वह हमेशा अनभिज्ञ बना हुआ है। INEA HONEIN Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शनमें आत्मतत्त्व १. जैन दर्शनके प्रकार प्रचलित दर्शनोंमेंसे किसी-किसी दर्शनको तो केवल भौतिक दर्शन और किसी-किसी दर्शनको केवल आध्यात्मिक दर्शन कहा जा सकता है । परन्तु जैन-दर्शनके भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार स्वीकार किये गये हैं। विश्वको सम्पूर्ण वस्तुओंके अस्तित्व, स्वरूप, भेद-प्रभेद और विविध प्रकारसे होनेवाले उनके परिणमनका विवेचन करना ‘भौतिक दर्शन' और आत्माके उत्थान, पतन तथा इनके कारणोंका विवेचन करना 'आध्यात्मिक दर्शन' है । साथ ही भौतिक दर्शनको 'द्रव्यानुयोग' ओर आध्यात्मिक दर्शनको 'करणानुयोग' भी कह सकते हैं। इस तरह भौतिकवाद, विज्ञान (साइन्स) और द्रव्यानुयोग ये सब भौतिक दर्शनके और अध्यात्मवाद तथा करणानयोग ये दोनों आध्यात्मिक दर्शनके नाम हैं। २. जैन संस्कृतिमें विश्वकी मान्यता ___'विश्व'' शब्दको कोष-ग्रन्थों में सर्वार्थवाची शब्द स्वीकार किया गया है, अतः विश्व शब्दके अर्थमें उन सब पदार्थों का समावेश हो जाता है जिनका अस्तित्व संभव है। इस तरह विश्वको यद्यपि अनन्त पदार्थोंका समुदाय कह सकते हैं । परन्तु जैन-संस्कृतिमें इन सम्पूर्ण अनन्त पदार्थोंको निम्नलिखित छः वर्गोंमें समाविष्ट कर दिया गया है-जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इनमेंसे जीवोंकी संख्या अनन्त है, पद्गल भी अनन्त हैं, धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों एक-एक हैं तथा काल. असंख्यात है। इन सबको जैन-संस्कृतिमें अलग-अलग द्रव्य" नामसे पुकारा गया है क्योंकि एक प्रदेशको आदि लेकर दो आदि संख्यात और अनन्त प्रदेशोंके रूपमें अलग-अलग इनके आकार पाये जाते हैं या बतलाये गये हैं। जिस द्रव्यका सिर्फ एक ही प्रदेश होता है उसे एकप्रदेशी और जिस द्रव्यके दो आदि संख्यात, असंख्यात या अनन्त प्रदेश होते हैं उसे बहुप्रदेशी द्रव्य माना गया है। इस तरह प्रत्येक जीव तथा धर्म और १. अमरकोष-तृतीयकाण्ड-विशेष्यनिघ्नवर्ग, श्लोक-६४, ६५ । २. 'अनन्त' शब्द जैन-संस्कृतिमें संख्याविशेषका नाम है। इसी तरह आगे आनेवाले संख्यात और असंख्यात शब्दोंको भी संख्याविशेषवाची ही माना गया है। जैन-संस्कृतिमें संख्यातके संख्यात, असंख्यातके असंख्यात और अनन्तके अनन्त-भेद स्वीकार किये गये हैं। (इनका विस्तृत विवरण-तत्त्वार्थराजवार्तिक-१-३८ । ३. अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः, जीवाश्च और कालश्च ।-त० अ० ५-१, ३ व ३८ । ४. यद्यपि विश्वके सम्पूर्ण पदार्थों की संख्या ही अनन्त है लेकिन अनन्त संख्याके अनन्त-भेद होनेके कारण जीवोंकी संख्या भी अनन्त है और पुद्गलोंकी संख्या भी अनन्त है । इसमें कोई विरोध नहीं आता। ५. द्रव्याणि ।-तत्त्वार्थसूत्र ५।२ । ६. द्रव्यसंग्रह गा०२७ । ७. एकप्रदेशवदपि द्रव्यं स्यात् खण्डवजितः स यथा ।-पंचाध्यायी, १-३६ । ८. पंचाध्यायी, ११२५ । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १९ अधर्म ये तीनों द्रव्य समान असंख्यात प्रदेशोंके रूपमें बहप्रदेशी द्रव्य हैं, अनन्त पुदगल सिर्फ एक प्रदेश वाले द्रव्य है और अनन्त' पुद्गल दो आदि संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त प्रदेशोंके रूप में बहुप्रदेशी द्रव्य माने गये हैं। इसी प्रकार आकाशको अनन्त प्रदेशोंके रूपमें बहप्रदेशी और संपूर्णकालोंमेंसे प्रत्येल कालको एकप्रदेशी५ द्रव्य स्वीकार किया गया है। यहाँपर इतना ध्यान और रखना चाहिये कि संपूर्ण काल द्रव्य असंख्यात होकर भी उतने हैं, जितने कि प्रत्येक जीवके या धर्म अथवा अधर्म द्रव्यके प्रदेश बतलाये गये हैं। इन सब द्रव्योंमेंसे आकाश द्रव्य सबसे बड़ा और सब ओरसे असीमित विस्तार वाला द्रव्य है तथा बाकीके सब द्रव्य इसी आकाशके अन्दर ठीक मध्यमें सीमित होकर रह रहे हैं । इस प्रकार जितने आकाशके अन्दर उक्त सब द्रव्य याने सब जीव, सब पद्गल, धर्म, अधर्म, और सब काल विद्यमान हैं उतने आकाशको लोकाकाश और शेष समस्त सीमारहित आकाशको अलोकाकाश नामसे पुकारा गया है।' यहाँपर भी इतना ध्यान रखनेकी जरूरत है कि आकाशके जितने हिस्से में धर्म द्रव्य अथवा अधर्म द्रव्यका जिस रूपमें वास है वह हिस्सा उसी रूपमें लोकाकाशका समझना चाहिये । इस तरह लोकाकाशके भी धर्म अथवा अधर्म द्रव्यके समान ही असंख्यात प्रदेश सिद्ध होते हैं तथा धर्म और अधर्म द्रव्योंकी ही तरह सम्पूर्ण अनन्त जीव द्रव्यों, संपूर्ण अनन्त पुद्गल द्रव्यों तथा संपूर्ण असंख्यात काल द्रव्योंका निवास भी आकाशके इसी हिस्सेमें समझना चाहिये। धर्म और अधर्म इन दोनों द्रव्योंकी बनावटके बारेमें जैन-ग्रन्थोंमें लिखा है कि जब कोई मनुष्य यथासंभव अपने दोनों पैर फैलाकर और दोनों हाथोंको अपनी कमरपर रखकर सीधा खड़ा हो जावे, तो जो आकृति उस मनुष्यकी होती है वही आकृति धर्म और अधर्म दोनों द्रव्योंकी समझनी चाहिये । यही कारण है कि लोकको पुरुष के आकार वाला बतलाया गया है और जिसे--ब्रह्माण्ड या परब्रह्म भी इसीलिए कहा गया है। धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्यको बनावटके बारेमें जैन-ग्रन्थोंमें यह भी लिखा है कि इन दोनों द्रव्योंकी ऊँचाई चौदह रज्जु, मोटाई उत्तर-दक्षिण सर्वत्र सात रज्जु और चौड़ाई पूर्व-पश्चिम नीचे बिल्कुल अन्तमें सात रज्जु, ऊपर क्रमसे घटते वटते मध्यमें सात रज्जुकी ऊँचाईपर एक रज्जु, फिर इसके ऊपर क्रमसे बढ़तेबढ़ते साढ़े तीन रज्जकी ऊँचाईपर पांच रज्जु तथा उसके भी ऊपर क्रमसे घटते-घटते बिल्कूल अन्तमें साढ़े तीन रज्जुकी ऊँचाईपर एक रज्जु हैं । १. असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मकजीवानाम् ।-तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५, सूत्र ८। २. नाणोः ।-तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५, सूत्र ११ । यहाँपर 'अणु' एकप्रदेशी द्रव्य है' यही अर्थ ग्रहण किया, गया है।-पंचाध्यायी, अध्याय १ श्लोक ३६ । ३. संख्येयासंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ।-तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५, सूत्र १० । यहाँपर 'च' शब्दसे अनन्तसंख्याका भी ग्रहण किया गया है। ४. आकाशस्यानन्ताः ।-तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ५, सूत्र ९।। ५. देखिये, टिप्पणी नं० ७ “कालाणुर्वा यतः स्वतः सिद्धः" । ६. ते कालाणू असंखदव्वाणि ।-द्रव्यसंग्रह गा० २२ । ७. लोकाकाशेऽवगाहः । तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५, सूत्र १२ । ८. पंचाध्यायी, अ० २, श्लोक २२ । ९. तत्त्वार्थराजवातिक-५-३८ । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० सरस्वती-वरवपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ जब कि धर्म और अधर्म द्रव्योंकी बनावटके समान ही लोकाकाशकी बनावट है तो इसका मतलब यही है कि लोकाकाशके एक-एक प्रदेशपर धर्म और अधर्म द्रव्योंका एक-एक प्रदेश साथ-साथ बैठा हुआ है' तथा इसी तरह लोकाकाशके उस उस प्रदेशपर धर्म और अधर्म द्रव्योंके प्रदेशोंके साथ-साथ एक-एक काल द्रव्य भी विराजमान है। इस तरह सम्पूर्ण असंख्यात काल द्रव्य मिलकर धर्म द्रव्य, अथ में द्रव्य तथा लोकाकाशकी बनावटका रूप धारण किये हुए हैं । इन चारों द्रव्योंमेंसे आकाश द्रव्य तो असीमित अर्थात् व्यापक होने की वजहसे निष्क्रिय है ही, साथ ही शेष धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और संपूर्ण काल द्रव्योंको भी जैन-संस्कृति में निष्क्रिय द्रव्य ही स्वीकार किया गया है अर्थात् इन चारों प्रकारके द्रव्योंमें हलन चलनरूप क्रियाका सर्वथा अभाव है। ये चारों ही प्रकार के द्रव्य अकंप स्थिर होकर ही अनादिकालसे रहते आये हैं और रहते रहेंगे। इनके अतिरिक्त सभी जीव और सभी पुद्गल द्रव्योंको क्रियावान् द्रव्य स्वीकार किया गया है और यह भी एक कारण है कि जिस प्रकार धर्मादि द्रव्योंकी बनावट नियत है उस प्रकार जीव द्रव्यों और पुद्गल द्रव्योंकी बनावट नियत नहीं है । प्रत्येक जीव यद्यपि धर्म या अधर्म अथवा लोकाकाशके बराबर प्रदेशों वाला है और कभी-कभी कोई जीव अपने प्रदेशों को फैलाकर समस्त लोक में व्याप्त होता हुआ उस आकृतिको प्राप्त भी कर लेता है । परन्तु समान्यरूपसे प्रत्येक जीव छोटे-बड़े जिस शरीरमें जिस समय पहुँच गया हो, उस समय वह उसीकी आकृति" का रूप धारण कर लेता है। पुद्गल द्रव्योंमें यद्यपि एकप्रदेशी सभी पुद्गल क्रियावान् होते हुए भी नियत आकारवाले हैं परन्तु अवगाहन शक्तिकी विविधताके कारण दो आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशोंवाले पुद्गलोंके आकार नियत नहीं है। यही वजह है कि दो आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशोंवाले अनन्तों पुद्गल लोकाकाशके एक-एक प्रदेशमें भी समाकर रह रहे हैं। वद्यपि सामान्यरूपसे प्रत्येक जीवका निवास लोकाकाशके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें माना गया है, परन्तु परस्पर अव्याघातशक्तिके प्रभावसे एक ही क्षेत्रमें अनन्तों जीव भी एक साथ रहते हुए माने गये हैं । प्रत्येक जीव चेतना-लक्षण वाला है और चेतनारहित होने के कारण धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और संपूर्ण काल द्रव्योंको अजीब माना गया है। इसी प्रकार सभी पुद्गल रूपी माने गये है अर्थात् सभी पुद्गलों में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चार गुण पाये जाते हैं। यही कारण है कि इनका ज्ञान हमें स्पर्शन, रसना, नासिका और नेत्र इन बाह्य इन्द्रियोंसे यथायोग्य होता रहता है। पुद्गलोके अतिरिक्त सब जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और सब काल इन सभीको अरूपी स्वीकार किया गया है अर्थात् इनमें रूप, रस, गंध और स्पर्श इन चारों पुद्गल गुणोंका सर्वथा अभाव पाया जाता है। अतः इनका ज्ञान भी हमें उक्त बाह्य 'इन्द्रियोंसे नहीं १. धर्माधर्मयोः कृत्स्ने । तत्त्वात्र ५।१२। २. द्रव्यसंग्रह, गाथा २२ । ३. निष्क्रियाणि च । तत्त्वार्थ० ५४७ । ४. केवलसमुद्धातके भेद लोकपूरण समुद्धातमें यह स्थिति होती है। ५. द्रव्यसंग्रह, गाथा १० । ६. रूपिणः पुद्गला स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः । तत्त्वा० ५२३ । ७. इन्द्रियग्राह्य होनेसे ही पुद्गल द्रव्योंको मूर्त और इन्द्रियग्राह्म न होनेसे ही शेष सब द्रव्योंको अमूर्त भी माना गया है । -पंचाध्यायी २ श्लोक ७ ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त २१ होता है । यद्यपि अनन्तों पुद्गलोंका ज्ञान भी हमें बाह्य इन्द्रियोंसे नहीं होता है परन्तु इससे उन पुद्गलोंमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्शका अभाव नहीं मान लेना चाहिये । कारण कि इन गुणोंका सद्भाव रहते हुए भी इन पुद्गलोंमें पायी जानेवाली सूक्ष्मता ही उक्त बाह्य इन्द्रियोंसे उनका ज्ञान होनेमें बाधक है । इसी तरह शब्दका ज्ञान जो हमें बाह्य कर्ण इन्द्रियसे होता है । इससे शब्दकी पौद्गलिकता सिद्ध होती है । जीवके अस्तित्व और स्वरूपके विषय में इस लेखमें आगे विचार किया जायगा। शेष द्रव्योंके अस्तित्व और स्वरूपके विषय में यहाँपर विचार किया जा रहा है जिनका स्वभाव पूरण और गलनका है' अर्थात् जो परस्पर संयुक्त होते-होते बड़े-से-बड़े पिण्डका रूप धारण कर लें और पिण्डमेसे वियुक्त होते-होते अन्तमें अलग-अलग एक-एक प्रदेशका रूप धारण कर लें, उन्हें पुद्गल कहा गया है । ऐसे स्थूल पुद्गल तो हमें सतत दृष्टिगोचर हो ही रहे हैं लेकिन सूक्ष्म से सूक्ष्म और छोटे-से-छोटे पुद्गलोके अस्तित्वको भी जिनका ज्ञान हमें अपनी बाह्य इन्द्रियोंसे नहीं हो पाता है-विज्ञानने सिद्ध करके दिखला दिया है । अणुबम और उद्जनबम आदि पदार्थ उन सूक्ष्म और छोटे पुद्गलोंकी अचित्य शक्तिका दिग्दर्शन करा रहे हैं। सब जीव और सब पुद्गल क्रियाशील द्रव्य हैं वे जिस समय किया करते हैं और जबतक करते हैं तब तक उनकी उस क्रियामें सहायता करना धर्म द्रव्यका स्वभाव है। इसी तरह कोई जीव या कोई पुद्गल क्रिया करते-करते जिस समय रुक जाता है और जब तक रुका रहता है उस समय और तबतक उसके ठहरने में सहायता करना अधर्म द्रव्यका स्वभाव है। यद्यपि जैन संस्कृति में जीव और पुद्गल द्रव्योंको स्वतः क्रियाशील माना गया है परन्तु यदि अधमं द्रव्य नहीं होता तो गतिमान् जीव और पुद्गल द्रव्योंके स्थिर होने का आधार ही समाप्त हो जाता और यदि धर्मं द्रव्य नहीं होता तो ठहरे हुए जीव और पुद्गलोके गतिमान् होने का भी आधार समाप्त हो जाता, अतः जैन-संस्कृति में धर्म और अधर्म दोनों द्रव्योंका अस्तित्व स्वीकार किया गया है और यही कारण है कि मुक्त जीव स्वभावतः ऊर्ध्वं गमन करते हुए भी ऊपर लोकके अग्रभाग में जैन मान्यता के अनुसार इसलिये रुक जाते हैं क्योंकि उसके आगे धर्म द्रव्यका अभाव है । सब द्रव्यों को उनकी निज निज आकृतिके अनुसार अपने उदरमें समा लेना आकाश द्रव्यका स्वभाव है ।" प्रत्येक द्रव्यका लम्बे, चौड़े, मोटे, गोल, चौकोर, त्रिकोण आदि विभिन्न रूपों में दृष्टिगोचर होता हुआ छोटा बडा आकार हमें आकाश अस्तिको माननेके लिये बाध्य करता है। अन्यथा आकाश द्रव्यके अभाव में सब वस्तुओंके परस्पर विलक्षण आकारोंका दिखाई देना असंभव हो जाता। इस प्रकार यद्यपि प्रत्येक जीव, प्रत्येक पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश स्वतः परिणमनशील द्रव्य माने गये हैं परन्तु इन सबके उस परिणमनका क्षणिक विभाजन करना काल द्रव्यका स्वभाव है अर्थात् द्रव्यों १. अणवः स्कन्धारच भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते भेदादणुः त० सू०५-२५, २६, २७ । । । । । २. द्रव्यसंग्रह, गा० १७ । ३. द्रव्यसंग्रह, गा० १८ । ४. धर्मास्तिकायाभावात् । - तत्वा०-११९ । ५. आकाशस्यान्गाहः । तत्त्वा०-५।१८। ६. वर्तनापरिणाम क्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य । तस्वा०-५।२२ । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ : सरस्वतो-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ की अवस्थाओंमें जो भतता, वर्तमानता और भविष्यत्ताका व्यवहार होता रहता है अथवा कालिक दृष्टिसे जो नये-पुराने या छोटे-बड़ेका व्यवहार वस्तुओंमें होता है उससे कालद्रव्योंके अस्तित्वको स्वीकार किया गया है। आकाश द्रव्य एक क्यों है ? इसका सीधा-सादा उत्तर यही है कि वह सीमारहित द्रव्य है । 'सीमारहित' शब्दका व्यापकरूप अर्थ होता है और 'सीमासहित' शब्दका व्याप्य रूप अर्थ होता है तथा व्यापक द्रव्य वही होगा जिससे बड़ा कोई दुसरा द्रव्य न हो। अतः आकाश द्रव्यका एकत्व अपरिहार्य है और इस आकाशकी बदौलत ही दुसरे द्रव्योंको ससीम कहा जा सकता है। धर्म और अधर्म इन दोनों द्रव्योंको भी जैन-संस्कृतिमें जो एक-एक ही माना गया है उसका कारण यह है कि लोकाकाशमें विद्यमान समस्त जीव द्रव्यों और समस्त पुद्गल द्रव्योंको गमनमें सहायक होना धर्म द्रव्यका काम है और ठहरने में सहायक होना अधर्म द्रव्यका काम है । वे दोनों काम एक, अखण्ड और लोकाकाश भरमें व्याप्त धर्म द्रव्य और इसी प्रकार एक, अखण्ड और लोकाकाश भरमें व्याप्त अधर्म द्रव्यके माननेसे सिद्ध हो जाते हैं । अतः इन दोनों द्रव्योंको भी अनेक स्वीकार न करके एक-एक ही स्वीकार किया गया है। काल द्रव्यको अणुरूप (एकप्रदेशी) स्वीकार करके उसके लोकाकाशके प्रमाण विस्तारमें रहनेवाले असंख्यात भेद स्वीकार करनेका अभिप्राय यह है कि काल द्रव्यसे संयुक्त होनेपर ही वस्तुमें वर्तमानताका व्यवहार होता है और यदि किसी वस्तुका काल द्रव्यसे संयोग था, अब नहीं है तो उस वस्तुमें भूतताका तथा यदि किसी वस्तुका आगे काल द्रव्यसे संयोग होने वाला हो, तो उस वस्तुमें भविष्यताका व्यवहार होता है। अब यदि काल द्रव्यको धर्म और अधर्म द्रव्योंकी तरह एक अखण्ड लोकाकाश भरमें व्याप्त स्वीकार कर लेते हैं तो किसी भी वस्तुका कभी भी काल द्रव्यसे असंयोग नहीं रहेगा। ऐसी हालतमें प्रत्येक वस्तु सतत और सर्वत्र विद्यमान ही मानी जायगी, उसमें भूतता और भविष्यत्ताका व्यवहार करना असंगत हो जायगा। लेकिन जब काल द्रव्योंको अणु रूपसे अनेक मान लेते हैं तो जितने काल द्रव्योंसे जिस वस्तुका जब संयोग रहता है उन काल द्रव्योंकी अपेक्षा उस वस्तुमें तब वर्तमानताका व्यवहार होता है और जिनसे पहले संयोग रहा है किन्तु अब नहीं है उनकी अपेक्षा भूतताका तथा जिनसे आगे संयोग होने वाला है उनकी अपेक्षा भविष्यत्ताका व्यवहार भी उस वस्तुमै सामञ्जस हो जाता है । जैसे एक हो व्यक्तिमें एक ही साथ हम 'यहाँ है, पहले वहाँ था, और आगे वहाँ होगा' इस तरह वर्तमानता, भूतता और भविष्यत्ताका जो व्यवहार किया करते है उसका कारण यही है कि जहाँके काल द्रव्योंसे पहले उसका संयोग था उनसे अब नहीं है । अब दुसरे काल द्रव्योंसे उसका संयोग हो रहा है और आगे दूसरे काल द्रव्योंसे उसका संयोग होनेकी संभावना है। इस प्रकार जब दूसरे अणुरूप भी द्रव्य पाये जाते हैं और उनमें भी भूतता, वर्तमानता और भविष्यत्ताका व्यवहार होता है तो इनमें यह व्यवहार कालकी अणुरूप स्वीकार किये बिना संभव नहीं हो सकता है अत. काल द्रव्यको अणुरूप मानकर उसके लोकाकाशके प्रमाण असंख्यात भेद मानना हो युक्तिसंगत है । इस तरहसे अनन्त जीव, अनन्त पुद्गल, एक धर्म, एक अधर्म, एक आकाश और असंख्यात काल इन सब द्रव्योंके समुदायका नाम ही विश्व है क्योंकि इनके अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु विश्वमें शेष नहीं रह जाती १. आ आकाशादेकद्रव्याणि ।-तत्त्वा० ५।६। इस सूत्रमें धर्म, अधर्म और आकाशको एक-एक ही द्रव्य बतलाया गया है। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : २३ है । ये सब द्रव्य यद्यपि अपने-अपने स्वतन्त्र रूपमें अनादि हैं और अनिधन ' हैं फिर भी अपनी-अपनी अवस्थाओंके रूपमें परिणमनशील हैं । अतः सब वस्तुओंके परिणमनशील होने की वजहसे ही विश्वको 'जगत्' नामसे भी पुकारा जाता है क्योकि 'गच्छतीति जगत्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'जगत्' शब्दका अर्थ 'परिणमनशील वस्तु' स्वीकार करनेका ही यहाँपर अभिप्राय है । ३. द्रव्यानुयोग में आत्म-तत्त्व ऊपर जैन संस्कृति के अनुसार जितना कुछ विश्वके पदार्थों का विवेचन किया गया है वह सब विवेचन द्रव्यानुयोगकी दृष्टिसे ही किया गया है । उस विवेचन में विश्वके पदार्थों में जीवद्रव्यको भी स्थान दिया गया है इसलिए यहाँ पर द्रव्यानुयोगकी दृष्टिसे उसका भी विवेचन किया जाता है । जीव द्रव्यका ही अपर नाम 'आत्मा' है । इसका ग्रहण स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण इन बाह्य इन्द्रियोंसे न हो सकने के कारण "विश्वके पदार्थोंमें आत्माको स्थान दिया जा सकता है या नहीं ?" - यह प्रश्न प्रत्येक दर्शनकारके समक्ष विचारणीय रहा है। इतना होते हुए भी हम देखते हैं किसी भी दर्शनकार ने स्वकीय ( स्वयं अपने ) अस्तित्वको अमान्य करनेकी कोशिश नहीं की है । वह ऐसी कोशिश करता भी कैसे ? क्योंकि उसका उस समयका संवेदन ( अनुभवन) उसे यह बतलाता रहा कि वह स्वयं दर्शनकी रचना कर रहा है इसलिए वह यह कैसे कह सकता था कि "उसका निजी कोई अस्तित्व ही नहीं है ?" यही बात सभी संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके विषयमें कही जा सकती है अर्थात् कोई भी संज्ञी पंचेन्द्रिय अपने अस्तित्व विषयमें संदेहशील नहीं रहते हैं । कारण कि जिस समय जो कुछ वे करते हैं उस समय उन्हें इस बातका अनुभवन होता ही है कि वे अमुक कार्य कर रहे हैं । इस तरह जब वे अपने अनुभव के आधारपर स्वयं अपने को यथासमय उस कार्यका कर्ता स्वीकार करते रहते हैं तो फिर वे ऐसा संदेह कैसे कर सकते हैं कि 'उनका अपना कोई अस्तित्व है या नहीं ?' यहाँपर अपने अस्तित्वका अर्थ ही आत्माका अस्तित्व है । प्रश्न - यद्यपि यह बात ठीक है कि सभी संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंको सतत स्वसंवेदन ( अपना अनुभवन ) होता रहता है परन्तु शरीरके अन्दर व्याप्त होकर रहने वाला 'मैं' शरीरसे पृथक् तत्त्व हूँ - ऐसा संवेदन तो किसीको भी नहीं होता है, अतः यह बात कैसे मानी जा सकती है कि 'शरीरसे अतिरिक्त 'आत्मा' नामका कोई स्वतन्त्र तत्त्व है ?' उत्तर- जितने भी निष्प्राण घटादि पदार्थ हैं उनकी अपेक्षा प्राणवाले शरीरोंमें निम्नलिखित तीन विशेषताएँ पायी जाती हैं (१) निष्प्राण घटादि पदार्थ दूसरे पदार्थोंका ज्ञान नहीं कर सकते हैं जब कि प्राणवान् शरीरोंमें दूसरे पदार्थों का ज्ञान करनेको सामर्थ्य पायी जाती है । (२) निष्प्राण घटादि पदार्थ स्वतः कोई प्रयत्न नहीं कर सकते हैं जबकि प्राणवान् शरीरोंको हम स्वतः प्रयत्न करते देखते हैं । (३) निष्प्राण घटादि पदार्थों में 'मैं सुखी हूँ या दुःखी हूँ, मैं गरीब हूँ या अमीर हूँ, मैं छोटा हूँ या १. पंचाध्यायी, अध्याय १, श्लोक ८ । २. वही, अध्याय १, श्लोक ८९ । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ बड़ा है' आदि रूपसे स्वसंवेदन' नहीं पाया जाता है जबकि प्राणवाले शरीरोंमें उक्त प्रकारसे स्वसंवेदन करने की यथायोग्य योग्यता पायी जाती है। इस प्रकार निष्प्राण घटादि पदार्थों और प्राणवान् शरीरोंमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्शकी समानता पायी जाने पर भी प्राणवान् शरीरोंमें जो परपदार्थज्ञातत्व, प्रयत्नकर्तत्व और स्वसंवेदकत्व ये तीनों विशेषताएँ पायी जाती हैं उनका जब घटादि निष्प्राण पदार्थों में सर्वथा अभाव विद्यमान है तो इससे यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्राणवान शरीरोंके अन्दर किसी ऐसे स्वतन्त्र पदार्थकी सत्ता स्वीकृत करनी चाहिये, जिसकी वजहसे ही उनमें (प्राणवान् शरीरोंमें) उक्त प्रकारसे ज्ञातृत्व, कर्तृत्व और भोक्तत्व ये विशेषताएँ पायी जाती हैं तथा जिसके अभावके कारण ही निष्प्राण घटादि पदार्थों में उक्त विशेषताओंका भी अभाव पाया जाता है। इस पदार्थको ही 'आत्मा' नामसे पुकारा गया है। ___ तात्पर्य यह है कि ज्ञातृत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व ये तीनों ही प्राणशब्दके वाच्य हैं। ये जिस शरीरमें जब तक विद्यमान रहते हैं तब तक वह शरीर प्राणवान् कहलाता है तथा जब जिस शरीरमें इनका सर्वथा अभाव हो जाता है तब वह शरीर तथा जिन पदार्थों में इनका सतत अभाव पाया जाता है वे घटादि पदार्थ निष्प्राण कहे जाते हैं। हम देखते है कि शरीरके विद्यमान रहते हुए भी कालान्तरमें उक्त प्राणोंका उसमें सर्वथा अभाव भी हो जाता है अतः यह मानना अयुक्त नहीं है कि वे शरीरसे ही उत्पन्न होने वाले धम नहीं हैं तो जिसके वे धर्म हो सकते है, वही 'आत्मा' है। प्रश्न-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँचों भूतों ( पदार्थों ) के योगसे ही शरीरका निर्माण होता है और तब उस शरीरमें उक्त प्राणोंका प्रादुर्भाव अनायास ही ( अपने आप ही) हो जाता है। यही कारण है कि शरीरमें पृथ्वीतत्त्वका मिश्रण होनेसे हमें नासिका द्वारा गन्धका ज्ञान होता रहता है क्योंकि गन्ध पृथ्वीका गुण है, जल तत्त्वका मिश्रण होनेसे हमें रसना द्वारा रसका ज्ञान होता रहता है क्योंकि रस जलका गुण है, अग्नि तत्त्वका मिश्रण होनेसे नेत्रों द्वारा हमें रूपका ज्ञान होता रहता है क्योंकि रूप अग्निका गुण है, वायु तत्त्वका मिश्रण होनेसे हमें स्पर्शन द्वारा स्पर्शका ज्ञान होता रहता है, क्योंकि स्पर्श वायुका गुण है और इसी तरह आकाश तत्त्वका मिश्रण होनेसे हमें कर्णों द्वारा शब्दका ग्रहण होता रहता है क्योंकि शब्द आकाशका गुण है ? उत्तर-पहली बात तो यह है कि 'शब्द आकाशका गुण है' इस सिद्धान्तको शब्दके लिए कैद कर लेने वाले विज्ञानने आज समाप्त कर दिया है। इसलिए शब्दका ज्ञान करनेके लिये शरीरमें अब आकाश तत्त्वके मिश्रणको स्वीकार करनेकी आवश्यकता नहीं रह गयी है। इसके अलावा शब्दमें जब घात-प्रतिघात रूप शक्ति पायी जाती है तो इससे एक बात यह भी सिद्ध होती है कि शब्द आकाशका या दूसरी किसी वस्तुका गुण न होकर अपने आपमें द्रव्य रूप ही हो सकता है क्योंकि गुणमें वह शक्ति नहीं पायी जाती है कि वह स्वयं असहाय होकर किसी दूसरे पदार्थका घात कर सके अथवा दूसरे पदार्थ से उसका घात हो सके। और यदि शब्दको कदाचित् गुण भी मान लिया जाय, तो फिर आकाशके अलावा वह किसका गुण हो सकता है ? इसका निर्णय करना असम्भव है । यही कारण है कि जैन-संस्कृतिमें शब्द को रूप, रस, गन्ध और स्पर्श वाला पदगल द्रव्य माना गया है तथा जैन-संस्कृतिकी यह मान्यता तो है ही, कि पृथ्वी, जल, अग्नि, १. पंचाध्यायी अध्याय २ श्लोक ५। २. वही, अध्याय २, श्लोक ९७ । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/धम और सिद्धान्त : २५ और वायु इन चारों ही तत्त्वोंमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चारों ही गुण विद्यमान रहते हैं। अतः रूप, रस, गन्ध और स्पर्शका ज्ञान करने के लिये शरीरमें पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन पृथक्-पृथक् चारों तत्त्वोंके संयोगकी आवश्यकता नहीं रह जाती है। इतना अवश्य है कि शरीर भी घटादि पदार्थोकी तरह रूप, रस, गन्ध और स्पर्श वाला एक पुद्गल पिण्ड है और जिस प्रकार घटादि पदार्थ निष्प्राण है उसी .. प्रकार यह शरीर भी अपने आपमें निष्प्राण ही है। फिर भी जब तक इस शरीरके अन्दर आत्मा विराजमान रहती है तब तक वह प्राणवान् कहा जाता है। दूसरी बात यह है कि उक्त प्राणरूप शक्ति जब पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन सबमें या इनमेंसे किसी एकमें स्वतन्त्र रूपसे नहीं पायी जाती है तो इन सबके मिश्रणसे वह शरीरमें कैसे पैदा हो जायेगी ? यह बात समझके बाहरकी है । कारण कि स्वभावरूपसे अविद्यमान शक्तिका किसी भी वस्तुमें दूसरी वस्तुओं द्वारा उत्पाद किया जाना असम्भव है । इसका मतलब यह है कि जो वस्तु स्वभावसे निष्प्राण है उसे लाख प्रयत्न करनेपर भी प्राणवान नहीं बनाया जा सकता है। अतः शरीरके भिन्न-भिन्न अंगोंको कोई कदाचित् अलग-अलग पृथ्वी आदि तत्त्वोंके रूपमें मान भी ले, तो भी उस शरीरमें स्वभाव रूपसे असम्भव स्वरूप प्राणशक्तिका प्रादुर्भाव कैसे माना जा सकता है ? इसलिए विश्वके समस्त पदार्थों में चित (प्राणवान ) और अचित ( निष्प्राण इन दो परस्पर-विरोधी पदार्थोंका मूलतः भेद स्वीकार करना आवश्यक है। तीसरी बात यह है कि कोई-कोई प्राणवान् शरीर ऐसे होते हैं जिनमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्शका ज्ञान करनेकी योग्यता होनेपर भी शब्द-श्रवणकी योग्यताका सर्वथा अभाव रहता है, कोई-कोई प्राणवान् शरीर ऐसे होते हैं जिनमें रस, गन्ध और स्पर्शका ज्ञान करने की योग्यता होनेपर भी शब्द-श्रवण और रूप-ग्रहणकी योग्यताका सर्वथा अभाव रहता है, कोई-कोई प्राणवान् शरीर ऐसे होते हैं जिनमें रस और स्पर्शका ज्ञान करने की योग्यता होनेपर भी शब्द, रूप और गन्धका ज्ञान करनेकी योग्यताका सर्वथा अभाव रहता है। इसी प्रकार कोई-कोई प्राणवान् शरीर ऐसे होते हैं जिनमें केवल स्पर्श-ग्रहणकी ही योग्यता पायी जाती है, शेष योग्यताओंका उनमें सर्वथा अभाव रहता है । ऐसी हालतमें इन शरीरोंमें यथासम्भव पंचभतोंके मिश्रणका अभाव मानना अनिवार्य होगा। अब यदि पंच के मिश्रणसे शरीरमें चितशक्तिका उत्पाद स्वीकार किया जाय तो उक्त शरीरोंमें चित्शक्तिका उत्पाद असम्भव हो जाएगा, लेकिन उनमें भी चित्शक्तिका सद्भाव तो पाया ही जाता है। चौथी बात यह है कि सम्पूर्ण शरीरमें एक ही चित्शक्तिका उत्पाद होता है या शरीरके भिन्न-भिन्न अंगोंमें अलग-अलग चितशक्ति उत्पन्न होती है ? यदि सम्पूर्ण शरीरमें एक ही चित्शक्तिका उत्पाद होता है । तो नियत रूपसे स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा स्पर्शका ही, रसना इन्द्रिय द्वारा रसका ही, नासिका द्वारा गन्धका ही, नेत्रों द्वारा रूपका ही और कर्णों द्वारा शब्दका ही ग्रहण नहीं होना चाहिये। यदि शरीरके भिन्न-भिन्न अंगोंमें पथक-पथक चित्शक्ति उत्पन्न होती है तो हमें स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण द्वारा एक हो साथ स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्दका ग्रहण होते रहना चाहिये । लेकिन यह अनुभव-सिद्ध बात है कि जिस कालमें हमें किसी एक इन्द्रियसे ज्ञान हो रहा हो, उस कालमें दूसरी सब इन्द्रियोंसे ज्ञान नहीं होता है। यदि कहा जाय कि चित्शक्तिका धारक स्वतन्त्र आत्माका अस्तित्व शरीरमें माननेसे नियत अंगों १. पंचाध्यायी, अध्याय २, श्लोक ९६ । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ द्वारा ही रूपादिकका ज्ञान क्यों होता है ? तो इसका उत्तर यह है कि भिन्न-भिन्न अंगोंके सहयोगसे ही आत्मा अपनी स्वाभाविक चित्शक्तिके द्वारा पदार्थोंका ज्ञान किया करती है। अतः सब अंगोंके विद्यमान रहते हुए भी, जिस ज्ञानके अनुकूल अंगका सहयोग जिस कालमें आत्माको प्राप्त होगा, उस कालमें वही ज्ञान उस आत्माको होगा, अन्य नहीं । पाँचवीं बात यह है कि पंचभूतोंके संयोगसे शरीरमें चितशक्तिका उत्पाद मान लेने पर भी हमारा काम नहीं चल सकता है । कारण कि ज्ञानकी मात्रा रूप, रस, गन्ध स्पर्श और शब्दका ज्ञान कर लेनेमें ही समाप्त नहीं हो जाती है । इन ज्ञानोंके अतिरिक्त स्मरण, एकत्व और सादश्य आदिके ग्रहणस्वरूप प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और शब्द-श्रवण अथवा अंगुल्यादिके संकेतोंके अनन्तर होनेवाला अर्थज्ञानरूप आगमज्ञान (शब्दज्ञान) ये ज्ञान भी तो हमें सतत होते रहते हैं। इस तरह इन ज्ञानोंके लिये किन्हीं दूसरे भूतोंका संयोग शरीरमें मानना आवश्यक होगा। यदि कहा जाय कि ये सब प्रकारके ज्ञान हमें मन द्वारा हआ करते हैं तो यहाँ पर प्रश्न होता है कि शरीर तथा मन दोनोंमें एक ही चितशक्तिका उत्पाद होता है या दोनोंमें अलग-अलग चितशक्तियाँ एक साथ उत्पन्न हो जाया करती है अथवा मनमें स्वभाव रूपसे चित्शक्ति विद्यमान रहती है ? ___ पहले पक्षको स्वीकार करने पर मनसे ही स्मरणादि ज्ञान हो सकते हैं, स्पर्शन आदि बाह्य इन्द्रियोंसे नहीं, इसका नियमन करनेवाला कौन होगा ? दूसरे पक्षको स्वीकार करने पर जिस कालमें हमें स्पर्शन आदि बाह्य इन्द्रियोंसे ज्ञान होता रहता है उसी कालमें हमें स्मरणादि ज्ञान होनेका भी प्रसंग उपस्थित हो जायगा, जो कि अनुभवके विरुद्ध है। तीसरा पक्ष स्वीकार करने पर "पंचभूतोंके सम्मिश्रणसे शरीरमें चित्शक्तिका प्रादुर्भाव होता है" इस सिद्धान्तका व्याघात हो जायगा। यदि कहा जाय कि स्वाभाविक चित्शक्ति-विशिष्ट मनको स्वीकार करनेसे यदि काम चल सकता है तो आत्मतत्त्वको माननेकी आवश्यकता ही क्या रह जाती है ? तो इसका उत्तर यह है कि जैन-संस्कृतिमें एक तो मनको भी रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुण विशिष्ट पुद्गल द्रव्य स्वीकार किया गया है; दुसरे एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और बहुतसे पंचेन्द्रिय जीव ऐसे पाये जाते है जिनके मन नहीं होता है। इसलिए चित्शक्ति विशिष्ट-आत्मतत्त्वको स्वीकार करना ही श्रेयस्कर है। यह आत्मा ही मन तथा स्पर्शन आदि इन्द्रियोंके सहयोगसे पदार्थोका यथायोग्य विविध प्रकारसे ज्ञान किया करता है। तात्पर्य यह है कि जितने संज्ञी' पंचेन्द्रिय जीव हैं उनके मन तथा स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण ये पाँचों इन्द्रियाँ विद्यमान रहती हैं। अतः वे इन सबको सहायतासे पदार्थोंका ज्ञान किया करते हैं । जो जीव असंज्ञी पंचेन्द्रिय होते हैं उनके मन नहीं होता, उनमें केवल उक्त पाँचों इन्द्रियाँ ही विद्यमान रहती हैं। अतः वे मनके बिना इन पाँचों इन्द्रियोंसे ही पदार्थोंका ज्ञान किया करते हैं। इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवोंके मन और कर्ण इन्द्रियके अतिरिक्त चार इन्द्रियाँ, त्रीन्द्रिय जीवोंके मन तथा कर्ण और नेत्र इन्द्रियोंके अतिरिक्त तीन इन्द्रियाँ, द्वीन्द्रिय जीवोंके मन तथा कर्ण, नेत्र और नासिका इन्द्रियोंको छोड़कर शेष दो इन्द्रियाँ पायी जाती हैं एवं एकेन्द्रिय जीवोंके मन तथा कर्ण, नेत्र, नासिका और रसनाके अतिरिक्त सिर्फ एक स्पर्शन १. संज्ञिनः समनस्काः ।-तत्त्वार्थसूत्र २-२४ । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : २७ इन्द्रिय ही पायी जाती है। इसलिए ये सब जीव उन-उन इन्द्रियोंसे ही पदार्थोंका ज्ञानका किया करते हैं। इस प्रकार प्राणवान् शरीरोंमें जो "परपदार्थज्ञात त्व" शक्ति पायी जाती है वह शरीरका धर्म न होकर आत्माका ही धर्म है-ऐसा मानना ही उचित है । इसी तरह प्राणवान् शरीरोंमें जो "प्रयत्नकर्तृत्व" शक्ति पायी जाती है उसे भी शरीरका धर्म न मानकर आत्माका ही धर्म मानना चाहिये, क्योंकि परपदार्थज्ञातृत्व शक्ति जिन युक्तियों द्वारा शरीरकी न होकर आत्माकी ही सिद्ध होती है उन्हीं युक्तियों द्वारा प्रयत्नकर्तृत्व शक्ति भी शरीरकी न होकर आत्माकी ही सिद्ध होती है। प्रयत्नके जैन-संस्कृतिमें तीन भेद माने गये हैं-मानसिक, वाचनिक और कायिक । इनमेंसे मानसिक प्रयत्नको वहाँ पर 'मनोयोग', वाचनिक प्रयत्नोंको 'वचनयोग' और कायिक प्रयत्नको ‘काययोग' कहकर पुकारा गया है। मनका अवलम्बन लेकर होनेवाले आत्माके प्रयत्नोंको मनोयोग कहते हैं, इसी प्रकार वचन (मख) और कायका अवलम्बन लेकर होनेवाले आत्माके उस-उस यत्नको क्रमसे वचनयोग और काययोग कहते हैं। वचनोंको बोलनेका नाम ही आत्माका वाचनिक यत्न है और शरीरके द्वारा प्रतिक्षण हमारी जो प्रशस्त और अप्रशस्त प्रवृत्तियाँ हुआ करती हैं उन्हींको आत्माका कायिक प्रयत्न समझना चाहिये । मानसिक प्रयत्नका स्पष्टीकरण निम्नप्रकार है मन पौद्गलिक पदार्थ है, यह बात तो हम पहले ही बतला चुके हैं। वह मन दो प्रकारका है-एक मस्तिष्क और दूसरा हृदय । जितना भी स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और शाब्द (श्रुत) रूप ज्ञान हमें होता रहता है वह सब मस्तिष्ककी सहायतासे ही हुआ करता है अतः ये सब ज्ञान आत्माके मानसिक ज्ञान कहलाते हैं। इसी प्रकार जितने भी क्रोध, अहंकार, माया, लोभ, लिप्सा, भय, संक्लेश आदि मोहके विकार तथा यथायोग्य मोह का अभाव होने पर क्षमा, मृदुता, सरलता, निर्लोभता, तुष्टि, निर्भयता, विशुद्धि आदि गुण हमारे अन्दर प्राप्त होते रहते हैं वे सब हृदयकी सहायतासे ही हुआ करते हैं अतः उन सबको भी आत्माके मानसिक प्रयत्नोंमें अन्तर्भूत करना चाहिये । इन तीनों प्रकारके प्रयत्नोंमेंसे संज्ञो पंचेन्द्रिय जीवोंके तो ये सब प्रयत्न हुआ करते हैं, लेकिन असंज्ञी पंचेन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय जीवोंके सिर्फ वाचनिक और कायिक प्रयत्न ही हआ करते हैं क्योंकि मनका अभाव होनेसे इन जीवोंके मानसिक प्रयत्नका अभाव पाया जाता है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय जीवोंके सिर्फ कायिक प्रयत्न ही होता है, कारण कि उनमें मनके साथ-साथ बोलनेका साधनभूत मुखका भी अभाव पाया जाता है अतः उनके मानसिक और वाचनिक प्रयत्न नहीं होते हैं। द्वीन्द्रियादिक जीव चलते- . फिरते रहते हैं इसलिए उनके शारीरिक प्रयत्नोंका तो पता हमें चलता ही रहा है, परन्तु एकेन्द्रिय वक्षादिक जीवोंकी जो शरीर-वृद्धि देखने में आती है वह उनके शारीरिक प्रयत्नका ही परिणाम है। यह बात हम पहले बतला आये हैं कि जितने भी संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणी है, उन्हें पदार्थोंका ज्ञान अथवा प्रयत्न करते समय स्वसंवेदन अर्थात् 'अपने अस्तित्वका भान' सतत होता रहता है, परन्तु संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणियोंके अतिरिक्त जितने भी असंज्ञी पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय प्राणी हैं उन्हें मनका अभाव होनेके कारण यद्यपि पदार्थ-ज्ञान अथवा प्रयत्न करते समय संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंकी १. वनस्पत्यन्तानामेकम् । कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ।-त० सू० २-२२, २३ । २. कायवाङ्मनःकर्मयोगः ।-तत्त्वार्थसूत्र ६-१ । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ तरह अपने अस्तित्वका भान नहीं होता है अर्थात् 'मैं अमुक पदार्थका ज्ञान कर रहा हूँ' अथवा 'मैं अमुक कार्य कर रहा हूँ' ऐसा ज्ञान उन्हें नहीं हो पाता है, फिर भी उस समय उनकी उस ज्ञान-रूप या उस क्रिया-रूप परिणति होते रहनेके कारण उस परिणतिका अनुभवन तो उन्हें होता ही है अन्यथा चींटी आदि प्राणियोंको अग्नि आदि के समीप पहुँचने पर यदि उष्णताजन्य दुख-रूप सामान्य अनुभवन न हो तो फिर वहाँसे वे हटते क्यों हैं ? इसी प्रकार शक्कर आदि अनुकूल पदार्थोके पास पहुँचनेपर यदि मिठासजन्य सुख-रूप सामान्य अनुभवन उन्हें न हो, तो वे उन पदार्थोसे चिपटते क्यों हैं ? इससे यह बात सिद्ध होती है कि एकेन्द्रिय आदि सभी प्राणियोंको यथायोग्य स्वसंवेदन होता ही है । एक बात और है कि जैन-दर्शन में प्रत्येक ज्ञानको स्वपरप्रकाशक स्वीकार किया गया है, अतः एकेन्द्रिय आदि सब प्राणियों के स्वसंवेदकत्वका सद्भाव अनिवार्य रूपसे मानना पड़ता है। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तकके जीवोंका जो स्वसंवेदन होता है उसे जैन-संस्कृतिमें 'कर्मफलचेतना' नामसे पुकारा गया है; क्योंकि इन जीवोंम मनका अभाव होनेके कारण कर्ता, कर्म, क्रिया और फलका विश्लेषण करने की असामर्थ्य पायी जाती है तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके स्वसंवेदनकी 'कर्मचेतना२ नामसे पुकारा गया है; कारण कि मनका सद्भाव होनेसे इन जीवोंमें कर्ता आदिके विश्लेषण करने की सामर्थ्य विद्यमान रहती है। इन्हीं संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंमेंसे ही जो जीव हित और अहितकी पहचान करके पदार्थज्ञान अथवा प्रवृत्ति करने लग जाते है उनके स्वसंवेदनको 'ज्ञानचेतना' के नामसे पुकारा जाने लगता है। प्राणवान् शरीरोंमें होने वाला यह स्वसंवेदन भी पूर्वोक्त युक्तियोंके आधारपर शरीरका धर्म न होकर आत्माका ही धर्म सिद्ध होता है अतः जैन-संस्कृतिमें पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालकी तरह आत्माका भी परपदार्थज्ञातृत्व, प्रयत्नकर्तुत्व और स्वसंवेदकत्वके आधारपर स्वतःसिद्ध और अनादिनिधन अस्तित्व माना गया है। ४. करणानुयोगमें आत्मतत्व हम देखते हैं कि प्रत्येक प्राणी दुःखसे डरता है और सुखकी चाह करता है, यही कारण है कि जिन दार्शनिकोंने आत्माके अस्तित्वको नहीं माना है उन्होंने भी "महाजनो येन गतः स पन्थाः" के रूप में जगतको सुखके साधनोंपर चलनेका उपदेश दिया है । तात्पर्य यह है कि आत्माके अस्तित्वके बारे में विवाद हो सकता है, परन्तु जगतके प्रत्येक प्राणीको जो सुख और दुःखका अनुभवन होता रहता है इस अनुभवनके आधारपर अपनी सूखी और दुःखी हालतोंकी सत्ता माननेसे कौन इन्कार कर सकता है ? इसलिए ऊपर जो द्रव्यानयोगकी अपेक्षा स्वतःसिद्ध और अनादिनिधन चित्शक्तिविशिष्ट आत्मतत्त्वके अस्तित्वकी सिद्धि करने का प्रयत्न किया गया है, इतने मात्रसे ही हमारे प्रयत्नको इतिश्री नहीं हो जाती है। इसके साथ ही आखिर हमें यह भी तो सोचना है कि सुखी और दुःखी हालतें आत्माकी ही मानी जायँ या आत्माका इनसे कोई सम्बन्ध ही नहीं है ? और यदि इन हालतोंको आत्माकी हालतें मान लिया जाय तो क्या ये हालतें आत्माकी स्वतःसिद्ध हालतें हैं या किन्हीं दूसरे कारणोंसे ही आत्मामें इनकी उत्पत्ति हो रही है ? और क्या ये नष्ट भी की जा सकती हैं ? १. पंचाध्यायी (उत्तरार्ध) २-१९५ । २. पंचाध्यायी (पूर्वाध)२-१९५। ३. वही, २-१९४, २१७ । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : २९ वेदान्त दर्शनमें इन सुख और दुःख रूप हालतोंको आत्माकी हालतें नहीं स्वीकार किया गया है। वहाँपर तो आत्माको सत्, चित् और आनन्दमय ही स्वीकार किया गया है। सुख और दुःख 'जिनका अनुभवन हमें सतत होता रहता है ये सब मायाके रूप हैं और मिथ्या है तथा इनसे आत्मा सदा अलिप्त रहती है। जैन-संस्कृतिमें भी आत्माको वेदान्त दर्शनकी तरह यद्यपि सत्, चित् और आनन्दस्वरूप ही माना गया है परन्तु सतत प्रत्येक प्राणीके अनुभवनमें आने वाले सुख और दुःखको जहाँ वेदान्त दर्शनमें मिथ्या स्वीकार किया गया है वहाँ जैन-संस्कृतिमें इन्हें स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होनेकी वजहसे उसी आनन्दगुणके विकारी परिणमन माना गया है। जैन-दर्शनमें वेदान्त दर्शनकी अपेक्षा आत्मतत्त्वकी मान्यताके विषय में यही विशेषता है । जैन-संस्कृतिमें आत्माके आनन्दगणके इन विकारी परिणमनोंका कारण आत्माका पुदगलद्रव्यके साथ अनादि संयोग माना गया है और साथ ही वहाँ यह भी स्वीकार किया गया है कि पुदगल द्रव्यके संयोगको आत्मासे सर्वथा पृथक् किया जा सकता है तथा आनन्द गुणके सुख-दुःख रूप विकारोंको भी नष्ट किया जा सकता है। इस प्रकार स्वतः सिद्ध और अनादिनिधन चितशक्ति-विशिष्ट आत्मतत्त्वको स्वीकार करनेके साथसाथ जैन-संस्कृतिमें यह भी स्वीकार किया गया है कि आत्मा अनादिकालसे परतन्त्र (बद्ध) है परन्तु स्वतन्त्र (बन्धरहित) हो सकता है; अशुद्ध है परन्तु शुद्ध हो सकता है; मोह, राग तथा द्वेष आदि विकारोंका घर है, परन्तु ये सब विकार दूर किये जा सकते हैं; संसारी है परन्तु मुक्त हो सकता है; अल्पज्ञानी है परन्तु पूर्ण ज्ञानी हो सकता है। इसी तरह कभी तिर्यक्, कभी मनुष्य, कभी देव और कभी नारकी होता रहता है, परन्तु इन सबसे परे सिद्ध भी हो सकता है। यदि जैन संस्कृतिके द्रव्यानुयोग पर दृष्टि डाली जाय तो मालूम होता है कि आत्माकी बद्धता और अबद्धता, अशुद्धि और शुद्धि आदिके विषयमें कुछ भी जानकारी देने में वह सर्वथा असमर्थ है । कारण कि द्रव्यानयोग सिर्फ द्रव्यके स्वरूपका ही प्रतिपादन कर सकता है और द्रव्यका स्वरूप वही हो सकता है जो उस द्रव्यमें सतत विद्यमान रहता हो अत आत्माका स्वरूप स्वतः सिद्ध और अनादिनिधन चित्शक्तिको ही माना जा सकता है। आनन्द यद्यपि मुक्तात्माओंमें तो पाया जाता है, परन्तु संसारी आत्माओंमें उसका अभाव रहता है। इसी तरह बद्धता और अबद्धता, अशुद्धि और शुद्धि आदि कोई भी अवस्था आत्माका स्वरूप नहीं हो सकती है । कारण, यदि संसारी आत्मामें अबद्धता और शुद्धि आदि अवस्थाओंका अभाव है तो मुक्तात्माओंमें बद्धता और अशुद्धि आदि अवस्थाओंका अभाव रहता है। इसलिए द्रव्यानुयोगकी दृष्टिसे जब आत्मतत्त्वके बारेमें कुछ निर्णय करना हो तो वह निर्णय यही होगा कि आत्मा स्वतः सिद्ध और अनादिनिधन चित्शक्तिस्वरूपका धारक है। कारण कि यह स्वरूप संसारी और मुक्त दोनों प्रकारको सब आत्माओंमें पाया जाता है। यही कारण है कि द्रव्यानुयोगकी दृष्टिमें एकेन्द्रियसे लेकर समस्त संसारी आत्मायें और समस्त मुक्त आत्मायें समान मानी गयी हैं। क्योंकि समस्त संसारी और सिद्ध आत्माएँ सब काल और सब अवस्थाओंमें स्वतःसिद्ध और अनादिनिधन चित्शक्ति-रूप स्वरूपसे रहित नहीं होती है। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं कि यदि द्रव्यानुयोग आत्माकी बद्धता और अबद्धता, अशद्धि और शद्धि आदिका प्रतिपादन नहीं करता है तो ये सब आत्माकी अवस्थाएँ नहीं मानी जा सकती है. कारण कि यदि इन्हें आत्माकी अवस्थाएँ नहीं माना जायगा तो संसारी और मुक्तका भेद समाप्त हो जायगा और इस तरह १. पंचाध्यायी, २-३५ । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्य मुक्तिके लिये प्रयास करना भी निरर्थक हो जायगा। इसी तरह संसारी जीवोंमें भी 'अमक जीव एकेन्द्रिय है और अमुक जीव द्वीन्द्रिय, त्रोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेद्रिय अथवा संज्ञो पंचेन्द्रिय है, अमुक जीव मनुष्य है अथवा तिर्यक् , नारकी या देव है' इत्यादि प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमगम्य विविधताओंका लोप कर देना होगा । हमारे अन्दर कभी क्रोध, कभी मान, कभी माया, कभी लोभ, कभी मोह, कभी काम, कभी सुख और कभी दुःख आदि अवस्थाओंका जो सतत अनुभवन होता रहता है इसे गलत मानना होगा तथा अच्छेबुरे कामोंका जीवनमें भेद करना असंभव हो जायगा या तो अहिंसा आदि पुण्य कर्मोकी कीमत घट जायगी अथवा हिंसा आदि पापकर्मों की कीमत बढ़ जायगी। इस प्रकार समस्त संसारका प्रतीतिसिद्धि और प्रमाणसिद्ध जितना भेद है सब निरर्थक हो जायगा। इसलिए जैन-संस्कृतिमें द्रव्यानुयोगके साथ करणानुयोगको भो स्थान दिया गया है और जिस प्रकार द्रव्यानुयोग वस्तु-स्वरूपका प्रतिपादक होने के कारण आत्माके स्वरूपका प्रतिपादक है उसी प्रकार करणानुयोगको आत्माकी उक्त प्रकारको विविध अवस्थाओंका प्रतिपादक माना गया है । अर्थात् आत्माको बद्धता आदिका ज्ञान हमें द्रव्यानुयोगसे भले ही न हो परन्तु करणानुयोगसे तो हमें उनका ज्ञान होता ही है अतः जिस प्रकार द्रव्यानुयोगकी दृष्टिसे आत्मा स्वतःसिद्ध और अनादिनिधन चित्शक्ति-विशिष्ट है उसी प्रकार वह करणानुयोगकी दृष्टिसे वद्ध और अबद्ध आदि अवस्थाओंको भी धारण किये हए है । लेकिन ये बद्ध आदि दशाएँ आत्माकी स्वतःसिद्ध अवस्थाएँ नहीं है, बल्कि उपादान और सहकारी कारणों के सहयोगसे ही इनकी निष्पत्ति आत्मामें हुआ करती है। आत्मा अनादि कालसे परावलम्बी बनी हुई है इसलिए अनादि कालसे ही बद्ध आदि अवस्थाओंको प्राप्त किये हुए है और जब तक परावलम्वी बनी रहेगी तब तक इन्हीं अवस्थाओंको धारण करती रहेगी, क्योंकि बद्ध आदि अवस्थाओंका परावलम्बन कारण है। लेकिन जिस दिन आत्मा इस परावलम्बनवृत्तिको छोड़ने में समर्थ हो जायेगी उस दिन वह बन्ध-रहित अवस्थाको प्राप्त कर लेगी। अतः हमें आत्माकी स्वावलम्बन-शक्तिमें जागरणके लिए अनकल कर्तव्य-पथको अपनानेकी आवश्यकता है, जिसका उपदेश हमें जैन-संस्कृतिके चरणानुयोगसे मिलता है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक संस्कृतिके हमें दो रूप देखने को मिलते हैं-एक दर्शन और दूसरा आचार । जैन-संस्कृतिके भी यही दो रूप बतलाये गये हैं। इनसे पहले रूप यानी दर्शनको पूर्वोक्त प्रकारसे द्रव्यानुयोग और करणानयोग इन दो भागोंमें विभक्त कर दिया गया है और दूसरे रूप याने आचारका प्रतिपादन चरणानुयोगमें किया गया है । इस प्रकार चित्शक्ति-विशिष्ट आत्मतत्त्वका स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार करते हए उनकी अनादिकालीन पौदगलिक परतन्त्रतासे होने वाली विविध प्रकारकी विकारी अवस्थाओंसे छुटकारा पाने के लिये प्रत्येक व्यक्ति आत्माकी स्वावलम्बनवृत्तिके जागरणके साधनभूत अहिंसा आदि पाँच व्रतरूप अथवा क्षमा आदि दश धर्म रूप कर्तव्यपथपर आरुढ़ हो । आत्माके विषयमें यही जैन-संस्कृतिका रहस्य है। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय और व्यवहार मोक्ष-मार्ग जैनागमकी व्यवस्था यह है कि प्रत्येक जीव अनादिकालसे संसारी बनकर हो रहता आया है। परन्तु संसार-प्राप्त संपूर्ण जीवोंमें बहुतसे ऐसे भी जीव हो गये है, जिन्होंने अनादिकालीन अपने उस संसारको समाप्त कर दिया है और उनमें आज भी बहतसे ऐसे जीव हैं जो अपने अन्दर उस अनादिकालीन संसारको समाप्न करनेकी सामर्थ्य' छिपाये हुए हैं। संसारकी परिसमाप्ति जीवके साथ अनादिकालसे ही सम्बद्ध ज्ञानावरणादि आठ द्रव्यकर्मों, शरीरादि नोकर्मो और इनके निमित्तसे जीवमें उत्पन्न होनेवाले भावकर्मोका समूल क्षय हो जानेपर हुआ करती है। इस तरह कहना चाहिये कि उक्त संपूर्ण कर्मोके समूल क्षय हो जाने अथवा यों कहिये, कि उक्त संपूर्ण कर्मोंसे जोव द्वारा सर्वथा छुटकारा पा जानेका नाम मोक्ष जानना चाहिये। जैनागममें यह भी बतलाया गया है कि जीवोंको मोक्षकी प्राप्ति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी उपलब्धि हो जानेपर ही संभव है। अतः वहाँपर यह और बतलाया गया है कि उक्त सम्यग्दर्शन आदि तीनोंका समाहार ही मोक्षका मार्ग है। चूंकि मोक्षमार्गस्वरूप उक्त सम्यग्दर्शनादिक तीनों निश्चय तथा व्यवहारके भेदसे दो-दो भेद रूप होते हैं अतः इस आधारपर मोक्षमार्गको भी निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्ष-मार्गके रूपमें दो भेद रूप जान लेना चाहिये। इससे यह सिद्धान्त फलित होता है कि जीवको मोक्षकी प्राप्ति व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यकचारित्ररूप व्यवहारमोक्षमार्ग तथा निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यक्चारित्ररूप निश्चयमोक्षमार्ग दोनोंका अवलम्बन प्राप्त होनेपर ही होती है। इतना अवश्य है कि निश्चयसम्यग्दर्शनादिरूप निश्चयमोक्षमार्ग तो मोक्षका साक्षात् कारण होता है और व्यवहारसम्यग्दर्शनादिरूप व्यवहारमोक्षमार्ग उसका परंपरया अर्थात निश्चयमोक्षमार्गका कारण होकर कारण होता है। श्रद्धेय पंडितप्रवर दौलतरामजीने छहढालाकी तीसरी ढालके प्रारम्भमें इस विषयपर संक्षेपसे बहत ही सुन्दर प्रकाश डाला है और वह निम्न प्रकार है १. आप्तमीमांसा, श्लोक १००। जीवभव्याभव्यत्वानि च । तत्त्वार्थसूत्र २-७। २. बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ।-तत्त्वार्थसूत्र, १०-२ । ३. समयसार, गाथा १७, १८ । ४. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।-तत्त्वार्थसूत्र १-१ । पंचास्तिकाय, गाथा १०६ । ५. पंचास्तिकाय, गाथा १६०, १६१ । ६. निश्चयव्यवहारमोक्षकारणे सति मोक्ष-कार्य सम्भवति । -पंचा० कागा०१०६ की टीका, आ० जयसेन । ७. निश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधनभावत्वात । -पंचास्तिकाय, गाथा १६०, टीका, आचार्य अमृतचन्द्र । निश्चयमोक्षमार्गसाधनभावेन पूर्वोद्दिष्टव्यवहारमोक्षमार्गनिर्देशोऽयम् । -पंचास्तिकाय, गा० १६२. टीका, आचार्य अमृतचन्द्र । व्यवहारमोक्षमार्गसाध्यभावेन निश्चयमोक्षमार्गोपन्यासोऽयम् । -पंचास्तिकाय गाथा १६३ की टीका, आचार्य अमृतचन्द्र । साधको व्यवहारमोक्षमार्गः साध्यो निश्चयमोक्षमार्गः। -परमात्मप्रकाश-टीका, पृष्ठ १४२ । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ "आतमको हित है सुख सो सुख आकुलता-बिन कहिये । आकुलता शिव माहिं न तातें शिवमग लाग्यौ चहिये ।। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण शिवमग, सो दुविध विचारौ । जो सत्यारथ रूप यो निश्चय, कारण सो ववहारौ ॥१।।" इस पद्य में श्रद्धेय पंडितजीने कहा है कि आत्माका हित सुख है और वह सुख जीवमें आकुलताका अभाव होनेपर उत्पन्न होता है। उस आकूलताका अभाव भी मोक्षमें ही है । अतः जीवोंको मोक्षके मागमें प्रवृत्त होना चाहिये। मोक्षका मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप हैं। यह सम्यग्दर्शनादिरूप मोक्षमार्ग निश्चय तथा व्यवहारके भेदसे दो प्रकारका होता है अर्थात सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों व्यवहाररूप भी होते हैं और निश्चयरूप भी होते हैं। इस तरह कहना चाहिये कि जो सम्यग्दर्शनादिक निश्चयरूप होते हैं वे निश्चय-मोक्षमार्गमें गर्भित होते हैं और जो सम्यग्दर्शनादिक व्यवहाररूप होते हैं वे व्यवहार-मोक्षमार्गमें गभित होते हैं। इनमें से जो मोक्षमार्ग मोक्षका साक्षात् कारण होता है वह निश्चय-मोक्षमार्ग है और जो मोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्गका कारण होता है वह व्यवहारमोक्षमार्ग है। यहाँ हम मुख्यतया इसी विषयको स्पष्ट करना चाहते हैं। इसलिये यहाँ पर हम सर्व प्रथम निश्चयसम्यग्दर्शनादिरूप निश्चय-मोक्षमार्ग तथा व्यवहारसम्यग्दर्शनादिरूप व्यवहार-मोक्षमार्गके स्वरूपका प्रतिपादन कर रहे हैं। निश्चयसम्यग्दर्शनादिरूप निश्चयमोक्षमार्गका स्वरूप निश्चयसम्यग्दर्शनादिरूप निश्चयमोक्षमार्गका स्वरूप प्रतिपादन करनेके लिये भी श्रद्धेय ५० दौलतरामजीके छहढालाकी तीसरी ढालका निम्नलिखित पद्य पर्याप्त है 'परद्रव्यनतें भिन्न आपमें रुचि सम्यक्त्व भला है। आप रूपको जानपनो सो सम्यग्ज्ञान कला है ।। आप रूपमें लीन रहे थिर सम्यक्चारित सोई। अब ववहार मोख मग सुनिये हेतु नियत को होई ॥२॥' इस पद्यका आशय यह है कि समस्त चेतन-अचेतनरूप परपदार्थोकी ओरसे मुड़ कर अपने आत्मस्वरूपकी प्राप्तिकी ओर जीवकी अभिरुचि (उन्मुखता या झुकाव) हो जानेका नाम निश्चयसम्यग्दर्शन है, जीवको अपने आत्मस्वरूपका ज्ञान हो जानेका नाम निश्चयसम्यग्ज्ञान है और बुद्धिपूर्वक तथा अबुद्धिपूर्वक होने वाली क्षायजन्य पाप व पुण्यरूप समस्त प्रकारकी प्रवृत्तियोंसे निवृत्ति पाकर जीवका अपने आत्मस्वरूपमें लीन हो जाना ही निश्चयसम्यक्चारित्र है। इस पद्य के अन्तिम चरणमें श्रद्धेय पंडितजीने संकेत किया है कि आगे सम्पूर्ण छहढालामें निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यक्चारित्ररूप निश्चय मोक्षमार्गके कारणभूत व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यकचारित्ररूप व्यवहारमोक्षमार्गका विवेचन किया जायगा। इस तरह पंडित दौलतरामजीके द्वारा छहढालामें किये गये विवेचनके अनुसार व्यवहारमोक्षमार्गरूप व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यकचारित्रका स्वरूप निर्धारित होता है। उसीका यहाँपर विशेष कथन किया जाता है। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ३३ व्यवहारसम्यग्दर्शनका स्वरूप जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष नामके सात तत्त्वोंके प्रति जीवके अन्तःकरणमें श्रद्धा अर्थात् इनके स्वरूपादिकी वास्तविकताके सम्बन्धमें ज्ञानकी दृढ़ता (आस्तिक्य भाव) जागृत हो जानेका नाम व्यवहारसम्यग्र्शन है । इसके आधारपर ही जीवोंको उपर्युक्त निश्चयसम्यग्दर्शनकी उपलब्धि हुआ करती है। आचार्य उमास्वामके तत्त्वार्थसूत्रमें व स्वामी समन्तभद्रके रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें सम्यग्दर्शनका जो स्वरूप उपलब्ध होता है वह व्यवहारसम्यग्दर्शनका ही स्वरूप है । यद्यपि उमास्वामीके तत्त्वार्थसूत्रमें उपर्युक्त सात तत्त्वोंके श्रद्धानका नाम ही सम्यग्दर्शन कहा है। लेकिन स्वामी समन्तभद्रके रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें सम्यग्दर्शनका लक्षण इस रूपमें बतलाया है कि परमार्थ अर्थात् वीतरागताके आदर्श देवों, परमार्थ अर्थात् वीतरागताके पोषक शास्त्रों और परमार्थ अर्थात् वीतरागताके मार्गमें प्रवृत्त गुरुओंके प्रति जीवके अन्तःकरणमें भक्तिका जागरण हो जाना सम्यग्दर्शन है। अतः तत्त्वार्थसूत्र और रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें प्रतिपादित सम्यग्दर्शनके इन लक्षणोंमें उपर्यक्त प्रकारसे यद्यपि भेद दिखाई देता है। परन्तु गहराईसे विचार करने पर मालूम हो जाता है कि रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें प्रतिपादित लक्षणसे भी निष्कर्षके रूपमें जीवके अन्तःकरणमें उपर्यक्त सात तत्त्वोंके प्रति आस्तिक्यभावकी जागति हो जाना ही सम्यग्दर्शनका स्वरूप निश्चित होता है। व्यवहारसम्यग्ज्ञानका स्वरूप वीतरागताके पोषक अथवा सप्ततत्त्वोंके यथावस्थित स्वरूपके प्रतिपादक आगमका श्रवण, पठन, पाठन, अभ्यास, चिन्तन और मननका नाम व्यवहारसम्यग्ज्ञान है। इस प्रकारके व्यवहारसम्यग्ज्ञानके आधार पर ही जीवोंको समस्त वस्तुओंके और विशेष कर आत्माके स्वतःसिद्ध स्वरूपका बोध होता है । जैसे आत्माका स्वतःसिद्ध स्वरूप ज्ञायकपना अर्थात् समस्त पदार्थों को देखने-जाननेकी शक्ति रूप है। चूंकि यह स्वरूप स्वतःसिद्ध है । अतः यह आत्मा के अनादि, अनिधन स्वाश्रित और अखण्ड (स्वरूपके साथ तादात्म्यको लिए हए) अस्तित्वको सिद्ध करता है। हमें आत्माके इस तरहके स्वरूपको समझने में उपर्युक्त प्रकारके आगमका श्रवण, पठन, पाठन, अभ्यास, चिन्तन और मनन सहायक होता है। विचार कर देखा जाय तो सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेसे पूर्व ही इस प्रकारके सम्यक् अर्थात् वीतराग ताके पोषक ज्ञानको प्राप्त करनेकी प्रत्येक जीवके लिये आवश्यकता है। आचार्य कुन्दकुन्दके समयसारकी गाथा १८ से भी यही संकेत प्राप्त होता है क्योंकि उसमें बतलाया है कि पहले आत्मारूपी राजाकी पहिचान करो, फिर उसका श्रद्धान अर्थात् आश्रयण करो और तत्पश्चात् उसके अनुकूल आचरण करो तो मोक्षकी प्राप्ति होगी। इस तरह मोक्षमार्गमें यद्यपि सम्यग्दर्शनसे पूर्व ही सम्यग्ज्ञानको स्थान देना चाहिये । परन्तु वहाँपर इसको जो १. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । त० सू० १-२ । जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।-तत्त्वार्थसूत्र १-४। २. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक ४ । ३. समयसार, गाथा ६ । ४. पंचाध्यायी, श्लोक ८ । ५. समयसार, गाथा १८ । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्रके मध्यमें स्थान दिया गया है, इसका एक कारण तो यह है कि जीवको सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो जानेपर ही उसके उक्त प्रकारके ज्ञानकी सम्यकरूपता अर्थात सार्थकता सिद्ध होती है। और दूसरा कारण यह है कि जीवको उसकी (उक्त प्रकारके ज्ञानकी) उपयोगिता मध्यदीपक न्यायसे सम्यग्दर्शनकी तरह सम्यक्चारित्रपर आरूढ़ होनेके लिए भी सिद्ध होती है। इसके अतिरिक्त एक तीसरा कारण यह भी है कि मोक्षमार्गके रूपमें सम्यग्दर्शनकी पूर्ति सर्वप्रथम अर्थात् चतुर्थगुणस्थानसे लेकर अधिक-से-अधिक सप्तमगुणस्थान तक नियमसे हो जाती है, सम्यग्ज्ञानकी पूर्ति उसके बाद तेरहवें गुणस्थानके प्रथम समयमें होती है और सम्यक्चारित्रकी पूर्ति सम्यग्ज्ञानको पुतिके अनन्तर चौदहवें गुणस्थानके अन्त समयमें ही होती है । इस विषयको आगे स्पष्ट किया जायगा। व्यवहारसम्यक्चारित्रका स्वरूप बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक होने वाली समस्त कषायजन्य पाप और पुण्यरूप प्रवृत्तियोंसे निवृत्ति पाकर अपने आत्मस्वरूपमें लीन (स्थिर) होनेरूप निश्चयसम्यक्चारित्रकी प्राप्तिके लिए यथाशवित अणुव्रत, महाव्रत, समिति, गुप्ति, धर्म और तप आदि क्रियाओंमें जीवकी प्रवृत्ति होने लग जाना व्यवहार सम्यक्चारित्र है। उक्त प्रकारके निश्चयसम्यक्चारित्रका अपर नाम यथाख्यातचारित्र है तथा उसे वीतरागचारित्र भी कहते हैं । उसकी प्राप्ति जीवको यद्यपि उपशमश्रेणीपर आरूढ़ होकर ११वें गुणस्थानमें पहुँचनेपर भी होती है और क्षपक श्रेणीपर आरूढ़ होकर १२वें गुणस्थानमें पहुँचनेपर भी होती है। परन्तु ११वें गुणस्थान और १२वें गुणस्थानके निश्चयसम्यक्चारित्रमें परस्पर अन्तर पाया जाता है । अर्थात् उपशमश्रेणीपर आरूढ़ होकर ११वें गणस्थानमें पहुँचने वाला जीव अन्तर्महर्तके अल्पकालमें ही पतनकी ओर उन्मख हो जाता है और तब उसका वह निश्चयसम्यक चारित्र भी उसी समय समाप्त हो जाता है। इसके विपरीत क्षपकश्रेणीपर आरूढ़ होकर १२वें गणस्थानमें पहुंचने वाला जीव कदापि पतनकी ओर उन्मुख नहीं होता। इसलिए उसका वह निश्चयसम्यकचारित्र स्थायी रहा करता है साथ ही वह जीव अन्तर्मुहुर्तके अल्पकालमें ही १२वें गुणस्थानसे १३वें गुणस्थानमें पहुँच कर नियमसे सर्वज्ञताको प्राप्त कर लेता है। मोक्ष-मार्गके प्रकरणसे १२वें गुणस्थानमें प्राप्त होने वाले स्थायी निश्चयचारित्रको ही ग्रहण किया गया है । यहाँपर एक बात हम यह कह देना चाहते हैं कि उपर्युक्त निश्चयसम्यक्चारित्रकी प्राप्तिके लिए हो चतुर्थ गुणस्थानका अविरतसम्यग्दृष्टि जीव मुमुक्षु होकर पुरुषार्थ करके पांचवें गुणस्थानमें अणुव्रत धारण करता है तथा इससे भी आगे बढ़कर छठे गुणस्थानमें वह महाव्रत धारण करता है। इतना ही नहीं, घोर तपश्चरण करके आगे बढ़ता हुआ वह सातवें गुणस्थानमें शुद्धोपयोगकी भूमिकाको प्राप्त होकर आत्मपरिणामोंकी उत्तरोत्तर बढ़ती हुई यथायोग्य विशुद्धिके अनुसार उपशमश्रेणीपर आरूढ़ होता है या क्षपक श्रेणीपर आरूढ़ होता है। इस तरह कहना चाहिये कि जब तक उस जोवको उक्त निश्चयसम्यकचारित्रकी प्राप्ति नहीं हो जाती है तब तक वह पाँचवें और छठे गुणस्थानोंमें बुद्धिपूर्वक और सातवेंसे लेकर दशवें तकके गुणस्थानोंमें अबुद्धिपूर्वक उपर्यक्त व्यवहारसम्यक्चारित्रमें ही प्रवृत्त रहता है। इस व्यवहारसम्यक चारित्रका भी अपर नाम संक्षेपसे सरागचारित्र और विस्तारसे सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसांपरायरूप चारित्र है। १. रत्नकरंडकश्रावकाचार, श्लोक ९७। २. प्रवचनसार, गाथा ७ । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ | धर्म और सिद्धान्त : ३५ यद्यपि अणुव्रत और महाव्रत तथा समिति, गुप्ति, धर्म एवं तपश्चरण आदि बाह्यक्रियायें उस-उस कषायके उदय और अनदयके अनुसार पूर्वोक्त सम्यग्दर्शनसे रहित कोई-कोई मिथ्यादष्टि जीव भी करने लगते हैं । इतना ही नहीं, इन क्रियाओंको संलग्नतापूर्वक करनेपर उनमेंसे कोई-कोई जीव यथासंभव स्वर्गमें नववें ग्रैवेयक तक जन्म भी धारण कर लेते हैं। परन्तु इतनी बात अवश्य है कि इन क्रियाओंकी निश्चयसम्यक्चारित्रकी प्राप्तिपूर्वक मोक्षप्राप्तिरूप सार्थकता उक्त सम्यग्दर्शनके प्राप्त होनेपर ही हुआ करती है अन्यथा नहीं, क्योंकि जीव जब तक मिथ्यादष्टि बना रहता है तब तक उसके अनन्तानुबन्धी कषायका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम न हो सकनेके कारण यथायोग्य अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण कषायोंका क्षयोपशम होना असम्भव ही रहा करता है जब कि अणुव्रत और महाव्रतरूप व्यवहारसम्यक् चारित्र यथायोग्य इन कषायोंका क्षयोपशम होनेपर ही जीवको प्राप्त हुआ करता है। इसका अभिप्राय यह है कि जब जीवके अप्रत्याख्यानावरण कषायका उदय समाप्त होकर प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय कार्यरत हो जाता है तब वह जीव व्यवहारसम्यक्चारित्रके रूपमें अणुव्रतोंको धारण करता है। और जब जीवके अप्रत्याख्यानावरण कषायके साथ-साथ प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय भी समाप्त होकर मात्र संज्वलन कषाय व नोकषायका उदय कार्यरत हो जाता है तब वह जीव व्यवहारसम्यक्चारित्रके रूपमें महाव्रत धारण करता है। यह स्थिति अनन्तानुबन्धी कषायके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम' के अभावमें मिथ्यादृष्टि जीवके कदापि संभव नहीं है । अतः उसके (मिथ्यादृष्टि जीवके) यथायोग्य कषायके अनुदयके साथ-साथ यथायोग्य कषायके उदयमें बाह्य क्रियाके रूपमें अणुव्रत, महाव्रत आदिकी स्थितिका होना तो संभव है। लेकिन जब तक उस जीवको सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हो जाता है तब तक अनन्तानुबन्धी कषायका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम न हो सकनेके कारण यथायोग्य अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायोंकी उदय-समाप्ति असंभव होनेसे अणुव्रत, महाव्रत आदिकी स्थितिको व्यवहारसम्यकचारित्रका रूप प्राप्त होना संभव नहीं है। यहाँपर यह भी ध्यान रखना चाहिये कि जीवको सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जानेपर नियमसे अनन्तानुबन्धी कषायका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम हो जानेपर भी सामान्यतया यह नियम नहीं है कि उसके अणुव्रत अथवा महाव्रतरूप व्यवहारसम्यक्चारित्र अथवा अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण कषायोंकी उदयसमाप्ति हो ही जाना चाहिये । किन्तु नियम यह है कि जिस सम्यग्दृष्टि जीवके अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण कषायोंका उदय समाप्त हो जाता है उसके ही यथायोग्य अणुव्रत व महाव्रतरूप व्यवहारसम्यकचारित्रकी स्थिति उत्पन्न होती है, शेष सम्यग्दृष्टि जीव तब तक अवती ही रहा करते हैं, जब तक उनके अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण कषायोंका उदय समाप्त नहीं हो जाता है। निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्गरूप सम्यग्दर्शनादिकका यह सम्पूर्ण विवेचन हमने चरणानुयोगकी दृष्टिसे ही किया है । इस तरह इस विवेचनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि चरणानुयोगमें सम्यग्दर्शनादिरूप निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्गके रूपमें जो दो प्रकारके मोक्षमार्गका कथन किया गया है उसका आशय निश्चयमोक्षमार्गको तो मोक्षका साक्षात् कारण बतलाया है और व्यवहारमोक्षमार्गको उसका (मोक्षका) परंपरा अर्थात निश्चयमोक्षमार्गका कारण होकर कारण बतलाना है। इसी प्रकार उसका आशय निश्चयसम्यग्दशन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यक्चारित्रको तो कार्यरूप तथा व्यवहारसम्यग्दर्शन, १. गोम्मटसार जोवकाण्ड, गाथा ३० । २. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ३१ । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यक्चारित्रको क्रमशः उन निश्चय सम्यग्दर्शनादिकका कारण रूप बतलाना ही है। इससे हमें यह शिक्षा प्राप्त होती है कि मोक्षको प्राप्तिके लिए प्रत्येक जीवको मोक्षके साक्षात् कारणभूत निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यकचारित्रकी तथा इन निश्चयसम्यग्दर्शनादिककी प्राप्तिके लिए व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यक्चारित्रकी अनिवार्य आवश्यकता है । इस तरह दो प्रकारके मोक्षमार्गकी मान्यता उचित हो है, अनुचित नहीं है। ____ अब यदि कोई व्यक्ति निश्चयमोक्षमार्गरूप निश्चयसम्यग्दर्शनादिककी प्राप्तिके बिना ही केवल व्यवहारमोक्षमार्गरूप व्यवहारसम्यग्दर्शनादिकके आधार पर ही मोक्ष-प्राप्तिकी मान्यता रखते हैं तो वे गलतीपर हैं कारण कि फिर तो व्यवहारसम्यग्दर्शनादिकको व्यवहारमोक्षमार्ग कहना हो असंगत होगा, क्योंकि न्यतामें वे व्यवहारसम्यग्दर्शनादिक मोक्षके साक्षात कारण हो जानेसे निश्चय मोक्षमार्गरूप ही हो जावेंगे। इस कथनका तात्पर्य यह है कि निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शनादिकमें पठित 'निश्चय' शब्द हमें निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शनादिकमें मोक्षकी साक्षात् कारणताका बोध कराता है और व्यवहारमोक्षमार्ग अथवा व्यवहार सम्यग्दर्शनादिकमें पठित 'व्यवहार' शब्द हमें व्यवहारमोक्षमार्ग अथवा व्यवहारसम्यग्दर्शनादिकमें मोक्षकी परंपरया कारणताका अर्थात् निश्चयमोक्षमार्ग अथवा निश्चयसम्यग्दर्शनादिकी कारणतापूर्वक मोक्षकी कारणताका बोध कराता है। हमारे इस कथनकी पुष्टि, आगममें जो पूर्वोक्त प्रकार निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शनादिकको साध्यरूप या कार्यरूप तथा व्यवहारमोक्षमार्ग या व्यवहारसम्यग्दर्शनादिकको साधनरूप या कारणरूप प्रतिपादित किया गया है, उससे हो जाती है। इसी प्रकार जो व्यक्ति ऐसा कहते हैं कि जीवको मोक्षकी प्राप्ति तो निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शनादिककी उपलब्धि हो जाने पर ही होती है। अतः हमें व्यवहारमोक्ष-मार्ग या व्यवहारसम्यग्दर्श दिकपर लक्ष्य न देकर निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शनादिकके ऊपर ही लक्ष्य देना चाहिये, तो ऐसे व्यक्ति भी गलती पर हैं, क्योंकि वे इस बातको नहीं समझ पा रहे हैं कि जीव जब तक व्यवहारमोक्षमार्गपर आरूढ़ नहीं होगा तब तक उसे निश्चय-मोक्षमार्गकी उपलब्धि होना संभव नहीं है क्योंकि यह बात पूर्वमें स्पष्ट की जा चुकी है कि मोक्षमार्गके अंगभूतनिश्चय सम्यक्चारित्रकी उपलब्धि जीवको उपशमश्रेणी पर आरूढ़ होनेके अनन्तर अस्थायी रूपमें तो ११वें गुणस्थानमें पहुँचने पर होती है तथा स्थायीरूपमें क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होनेके अनन्तर १२वें गुणस्थानमें पहुँचने पर होती है। इस प्रकार कहना चाहिये कि जीव पंचम गुणस्थानसे लेकर जब तक उपशम या क्षपक श्रेणी मांडकर ११वें या १२वें गुणस्थानमें नहीं पहुँच जाता तब तक अर्थात् १०वें गुणस्थान तक उसके पूर्वोक्त व्यवहारसम्यकचारित्र ही रहा करता है। इससे एक यह मान्यता भी खण्डित हो जाती है कि व्यवहारमोक्ष-मार्ग पर आरूढ़ हुए बिना ही निश्चयमोक्षमार्गकी प्राप्ति जीवको हो जाती है, क्योंकि प्रत्येक जीव जब यथायोग्य गुणस्थानक्रमसे आगे बढ़ता हुआ ही ११वें गुणस्थानमें अथवा १२वें गुणस्थानमें पहुँच सकता है जहाँ कि निश्चयसम्यक्चारित्रकी उपलब्धि उसे होती है तो इससे यह बात निश्चित हो जाती है कि व्यवहारमोक्षमार्ग पर आरूढ़ हए बिना निश्चयमोक्षमार्गकी उपलब्धि कदापि जीवको संभव नहीं है। हमारे इस कथनसे एक मान्यता यह भी खण्डित हो जाती है कि जिस जीवको निश्चयसम्यकचारित्र Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : ३७ की प्राप्ति हो जाती है उसके व्यवहारसम्यक् चारित्र अनायास ही हो जाता है उसे उसकी प्राप्तिके लिये पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता है। हमारे उपर्युक्त कथनसे इस मान्यताके खण्डित होने में एक आधार यह भी है कि आगममें व्यवहारसम्यक चारित्रको निश्चयसम्यकचारित्रमें कारण बतलाया गया है, इस तरह कारण होनेकी वजहसे जब जीवमें व्यवहारसम्यक्चारित्रका निश्चयसम्यक्चारित्ररूप कार्यके पूर्व सद्भाव रहना आवश्यक है तो इस स्थितिमें फिर यह बात कैसे संगत कही जा सकती है "कि जिस जीवको निश्चयसम्यकचारित्रकी प्राप्ति हो जाती है उसको व्यवहारसम्यकचारित्र अनायास ही हो जाता है-उसे उसकी प्राप्तिके लिये पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता है ?" इस विषयमें दूसरा आधार यह भी है कि जो व्यक्ति व्यवहारमोक्षमागं या व्यवहारसम्यग्दर्शदादिकके ऊपर लक्ष्य न देकर केवल निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शनादिकके ऊपर लक्ष्य देनेकी बात कहते हैं वे भी निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यकदर्शनादिककी उपलब्धिके लिये पुरुषार्थ करनेका उपदेश जीवोंके देते हैं तो इसका आशय यही होता है कि प्रत्येक जीवको निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शनादिककी उपलब्धिके लिये व्यवहारमोक्षमार्ग या व्यवहार सम्यग्दर्शनादिककी प्राप्तिका ही प्रयत्न करना चाहिये, क्योंकि निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शनादिकी उपलब्धिके लिये जो भी प्रयत्न किया जायगा वह प्रयत्न व्यवहारमोक्षमार्ग या व्यवहारसम्यग्दर्शनादिकके अलावा और कुछ नहीं होगा। अर्थात् उस प्रयत्न (पुरुषार्थ) का नाम ही व्यवहारमोक्षमार्ग या व्यवहारसम्यग्दर्शनादिक है जो निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शनादिककी उपलब्धिके लिये किया जाता है। एक बात और है कि हमारे पूर्व प्रतिपादनके अनुसार व्यवहारसम्यक्चारित्रका अपर नाम सरागचारित्र है जैसा कि निश्चयसम्यकचारित्रका अपर नाम वीतरागचारित्र है और यह बात निर्विवाद है कि दशवें गुणस्थान तक जीवमें सरागचारित्र ही रहा करता है, वीतरागचारित्र नहीं, तथा यों भी कहिये कि दशवें गुणस्थान तक ही सरागचारित्र रहा करता है, आगेके गुणस्थानोंमें नहीं, इस तरह इसका अभिप्राय यह होता है कि सरागचारित्रका अभाव हो जाने पर ही वीतरागचारित्रकी उपलब्धि जीवको हुआ करती है और इसका अभिप्राय भो यह हुआ कि व्यवहारसम्यक् चारित्रका अभाव हो जाने पर ही निश्चयसम्यकचारित्रकी उपलब्धि जीवको हुआ करती है अथवा यों कहिये कि जिस जीवको निश्चयसम्यकचारित्रकी उपलब्धि हो जाती है उसके फिर व्यवहारचारित्रका अभाव ही हो जाया करता है। इस तरह तब इस बातको कैसे संगत माना जा सकता है कि 'जीवको निश्चयसम्यकचारित्रकी उपलब्धि हो जाने पर व्यवहारसम्यकचारित्रकी उपलब्धि अनायास हो जाती है ?" और यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्रने समयसार गाथा ३०५ की टीकामें व्यवहाराचारसूत्र' का उद्धरण देकर व्यवहारसम्यकचारित्रको तब तक अमृत-कुम्भ कहा है जब तक जीवको निश्चयसम्यकचारित्रकी उपलब्धि नहीं हो जाती है तथा भगवान कुन्दकुन्द. ने उसी व्यवहारसम्यकचारित्रको तब विषकुंभकी उपमा दे दी है जब जीवको निश्चय सम्यकचारित्रकी उपलब्धि हो जाती है। इस तरह यह बात निर्णीत हो जाती है कि जब तक जीवको निश्चयसम्यक-चारित्र की उपलब्धि नहीं हो जाती है तब तक उसके लिए मोक्षप्राप्तिके उद्देश्यसे परंपरया कारणके रूपमें अथवा निश्चयसम्यकचारित्रके साधनके रूपमें व्यवहारसम्यक चारित्र नियमसे उपयोगी सिद्ध होता है। इसलिये मोक्षप्राप्तिके उद्देश्यसे निश्चयसम्यकचारित्रकी प्राप्तिके लिये प्रत्येक जीवको व्यवहारसम्यक चारित्रको धारण १. समयसार, गाथा ३०५, आचार्य अमृतचन्द्र टीका। २. समयसार, गाथा ३०६, ३०७ । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ करनेका सतत प्रयत्न करना चाहिये। इतनी बात अवश्य है कि कोई भी चारित्र तब तक 'व्यवहारसम्यक चारित्र' नाम नहीं पा सकता है जब तक कि वह चारित्र सम्यग्दर्शनके सद्भावमें न हो, जैसाकि पूर्व में हम स्पष्ट कर आये है। इस प्रकार आगमप्रमाणके आधार पर किये गये उपर्युक्त विवेचनसे यह मान्यता, कि 'जिस जीवको निश्चयसम्यकचारित्रकी प्राप्ति हो जाती है उसके व्यवहारसम्य चारित्र अनायास ही हो जाता है उसे उसकी प्राप्तिके लिये पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता है," निश्चित रूपमें खण्डित हो जाती है। इतना स्पष्ट विवेचन करने पर भी अब यदि कोई व्यक्ति यह कहता है कि व्यवहारमोक्षमार्ग तो संसारका ही कारण है, मोक्षका नहीं, तो उसका ऐसा कहना भी दुराग्रहपूर्ण ही माना जायगा । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि यदि व्यवहारमोक्षमार्ग संसारका ही कारण है मोक्षका नहीं, तो फिर उसे आगममें 'मोक्षमार्ग' शब्दसे पकारना ही असंगत है । दूसरी बात यह है कि संसारका मुख्य कारण तो मोहनीयकर्मके उदयसे होनेवाले जीवके मिथ्यादर्शन, 'मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप परिणाम ही है । यद्यपि यह बात सत्य है कि व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यक चारित्रको प्राप्त करके भी जीव जब तक निश्चय-सम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यकचारित्रको प्राप्त नहीं कर लेता है तब तक उसे मोक्षका प्राप्त होना असंभव है। अर्थात वह तब तक संसारमें हो रहा करता है। परन्तु इस आधार पर उन व्यवहारसम्यग्दर्शनादिकको सर्वथा संसारका ही कारण मान लेना असंगत बात है । फिर भी इतना तो माना जा सकता है कि चूंकि व्यवहार-सम्यग्दर्शनादिक निश्चय-सम्यग्दर्शनादिककी उत्पत्तिमें कारण होते हैं अतः इस रूपमें वे कथंचित् मोक्षके भी कारण है और चूँकि व्यवहार-सम्यग्दर्शनादिकके सद्भावमें भी जीवको जब तक निश्चय-सम्यग्दर्शनादिककी उपलब्धि नहीं हो जाती तब तक मोक्षकी प्राप्ति असंभव है । अतः उनमें कथंचित् संसारकी कारणता स्वीकार करना भी असंगत नहीं है। इस स्पष्टीकरणमें कही हुई इन सब बातोंको समझने के लिये यहाँ पर थोड़ा करणानुयोगकी दृष्टिसे भी सम्यग्दर्शनादिकके सम्बन्धमें विचार किया जा रहा है। करणानुयोगकी दृष्टिसे निश्चय और व्यवहार सम्यग्दर्शनादिकका स्वरूप इसके पूर्व कि हम करणानुयोगकी दृष्टिसे निश्चय और व्यवहार सम्यग्दर्शनादिकका विवेचन करें, आवश्यक जानकर करणानुयोगके सम्बन्धमें ही कुछ विवेचन कर देना चाहते हैं । करणानुयोगमें पठित 'अनुयोग' शब्दका अर्थ आगम होता है। इस तरह सम्पूर्ण जैनागमको यदि विभक्त किया जाय तो वह चार भागोंमें विभक्त हो जाता है-प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानयोग। इनमेंसे प्रथमानुयोग वह है जिसमें अध्यात्मको लक्ष्यमें रखकर महापुरुषोंके जीवनचरित्रके आधारपर पाप, पुण्य और धर्मके फलका दिग्दर्शन कराया गया है। चरणानयोग वह है जिसमें अध्यात्मको लक्ष्यमें रखकर पाप, पुण्य और धर्म की व्यवस्थाओंका निर्देश किया गया है । करणानुयोग वह है जिसमें जीवोंकी पाप, पुण्य और धर्ममय परिणतियों तथा उनके कारणोंका विश्लेषण किया गया है और द्रव्यानुयोग वह है जिसमें विश्वको सम्पूर्ण वस्तुओंके पृथक् अस्तित्वको बतलाने वाले स्वतःसिद्ध स्वरूप एवं उनके परिणमनोंका निर्धारण किया गया है। यहाँपर हम इन सब अनुयोगोंके आधारपर वस्तुस्वरूपपर प्रकाश न डाल कर प्रकरणके लिये उपयोगी प्रतिज्ञात करणानयोगके आधारपर ही वस्तुस्वरूपपर प्रकाश डाल रहे हैं। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ३९ आत्माका स्वरूप ज्ञायकपना अर्थात् विश्वके समस्त पदार्थोंको देखने-जाननेकी शक्ति रूप है । यह कथन हम पूर्वमें भी कर आये हैं। इसमें निर्दिष्ट ज्ञायकपना आत्माका स्वत सिद्ध स्वभाव है, इसलिये इस आधार पर एक तो आत्माका स्वतन्त्र और अनादि तथा अनिधन अस्तित्व सिद्ध होता है। दुसरे, जिस प्रकार आकाश अपने स्वतःसिद्ध अवगाहक स्वभावके आधारपर विश्वके सम्पूर्ण पदार्थों को अपने अन्दर एक साथ हमेशा समाये हुए है उसी प्रकार आत्माको भी अपने स्वतःसिद्ध ज्ञायक स्वभाव के आधारपर विश्वके सम्पूर्ण पदार्थों को एक साथ हमेशा देखते-जानते रहना चाहिये । परन्तु हम देख रहे हैं कि जो जीव अनादिकालसे संसार परिभ्रमण करते हुए इसी चक्रमें फंसे हुए हैं उन्होंने अनादिकालसे अभी तक न तो कभी विश्वके सम्पूर्ण पदार्थोंको एक साथ देखा व जाना है और न वे अभी भी उन्हें एक साथ देख-जान पा रहे हैं । इतना ही नहीं, इन संसारी जीवोंमें एक तो तरतमभावसे ज्ञानकी मात्रा अल्प ही पायी जाती है। दुसरे, जितनी मात्रामें इनमें ज्ञान होता हुआ देखा जाता है वह भी इन्द्रियादिक अन्य साधनोंकी सहायतासे ही हुआ करता है। एक बात और है कि ये संसारी जीव पदार्थोंको देखने-जानने के पश्चात् उन जाने हुए पदार्थोंमें इष्टपने या अनिष्टपनेकी कल्पनारूप मोह किया करते हैं और तब वे इष्ट कल्पनाके विषयभूत पदार्थोंमें प्रीतिरूप राग तथा अनिष्ट कल्पनाके विषयभूत पदार्थोंमें अप्रीति (घृणा) रूप द्वेष सतत किया करते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि उन्हें सतत इष्ट कल्पनाके विषयभूत पदार्थों की प्राप्तिमें और अनिष्ट कल्पनाके विषयभूत पदार्थोकी अप्राप्तिमें हर्ष हुआ करता है तथा अनिष्ट कल्पनाके विषयभूत पदार्थोंकी प्राप्तिमें और इष्ट कल्पनाके विषयभूत पदार्थोंकी अप्राप्तिमें विषाद हुआ करता है । यद्यपि ऐसा भी सम्भव है कि किन्हींकिन्हीं (सम्यग्दृष्टि) संसारी जीवोंको इस प्रकारसे हर्ष-विषाद नहीं होते, फिर भी वे जीव जब शरीरकी अधीनतामें ही रह रहे हैं और उनका अपना-अपना शरीर अपनी स्थिरताके लिये अन्य भोजनादिककी अधीनताको स्वीकार किये हुए है तो ऐसी स्थितिमें शरीरके लिये उपयोगी (आवश्यक) उन पदार्थोकी प्राप्ति व अप्राप्तिमें उन्हें भी यथायोग्य सुख या दुःखका संवेदन तो हुआ ही करता है और तब उन्हें अपने दुःखसंवेदनको समाप्त करने व सुख-संवेदनको प्राप्त करने के लिये उन पदार्थों की प्राप्ति व उपभोगमें प्रवृत्त होना पड़ता है। इसके भी अतिरिक्त जिनका संसार अभी चाल है ऐसे संसारी जीव अनादिकालसे कभी देव, कभी मनुष्य, कभी तिर्यच और कभी नारकी होते आये हैं, वे कभी एकेन्द्रिय, कभी द्वीन्द्रिय, कभी त्रीन्द्रिय, कभी चतुरिन्द्रिय और कभी पञ्चेन्द्रिय भी होते आये हैं। इतना ही नहीं, इन्होंने कभी पृथ्वीका, कभी जलका, कभी तेजका, कभी वायुका और कभी वनस्पतिका भी शरीर धारण किया है । हम यह भी देखते हैं कि एक ही श्रेणीके जीवोंके शरीरोंमें भी परस्पर विलक्षणता पायी जाती है । साथ ही कोई तो लोक में प्रभावशाली देखे जाते हैं व कोई प्रभावहीन देखे जाते हैं। और भी देखा जावे तो लोक एक जीवमें उच्चताका तथा दूसरे जीवमें नीचताका भी व्यवहार किया करता है। इसी प्रकार प्रायः किसीको यह पता नहीं कि कौन जीव कब अपने वर्तमान शरीरको छोड़ कर चला जायगा और दूसरा शरीर धारण कर लेगा। जीवोंमें ये सब विलक्षणतायें क्यों हो रही हैं ? इसका समाधान आगमग्रंथोंमें इस तरह किया गया है कि प्रत्येक संसारी जीव अपने स्वतःसिद्ध देखने-जाननेरूप स्वभाव वाला होकरके भी अनादिकालसे स्वर्णपाषाणकी तरह पौद्गलिक कर्मोंके साथ सम्बद्ध (मिश्रित यानी एक क्षेत्रावगाही रूपसे एकमेकपनेको प्राप्त) हो रहा है। ये कर्म ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायके भेदसे मुल रूपमें आठ प्रकारके हैं। इनमें से ज्ञानावरण कर्मका कार्य जीवको जाननेकी शक्तिको आवत करना है, १. समयसार, गाथा १६० । गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा २। २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ८ । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ दर्शनावरण कर्मका कार्य जीवकी देखनेकी शक्तिको आवृत करना है, वेदनीय कर्मका कार्य जीवको शरीरादिक परपदार्थोके आधारपर यथायोग्य सुख अथवा दुःखका संवेदन कराना है, मोहनीय कर्मका कार्य जीवको पर पदार्थोके आधारपर ही यथायोग्य मोही, रागी और द्वेषी बनाकर उचित अनुचित रूप विविध प्रकारकी प्रवृत्तियोंमें व्यापृत करनेका है, आयुःकर्मका कार्य जीवको उसके अपने शरीरमें सीमित काल तक रोक रखनेका है, नामकर्मका कार्य जीवको मनुष्यादिरूपता प्राप्त करानेका है, गोत्र कर्मका कार्य कुल, शरीर तथा आचरण आदिके आधारपर जीवमें उच्चता तथा नीचताका व्यवहार करानेका है और अन्तरायकर्मका कार्य जीवकी स्वतःसिद्ध स्वावलम्बन शक्तिका घात करना है।' करणानुयोगकी व्यवस्था यह है कि इन सब प्रकार के कर्मोंको जीव हमेशा अपने विकारी भावों (परिणामों) द्वारा बाँधता है और जीवके वे विकारी परिणाम पूर्वमें बद्ध पुद्गल कर्मके उदयमें हुआ करते हैं। इस तरह जीवके साथ बँधे हुए ये कर्म उसमें अपनी सत्ता बना लेते हैं तथा अन्तमें उदयमें आकर अर्थात् जीवको अपना फलानुभव कराकर ये निर्जरित हो जाते हैं। लेकिन इतनी बात अवश्य है कि उस फलानुभवसे प्रभावित होकर यह जीव इसी प्रकारके दूसरे कर्मोंसे पुनः बंधको प्राप्त हो जाता है । ये कर्म जीवको जिस रूपमें अपना फलानुभव कराते हैं, वह जीवका औदयिक भाव है क्योंकि जीवका उस प्रकारका भाव उस कर्मका उदय होनेपर ही होता है।४ कदाचित् कोई जीव अपनेमें सत्ताको प्राप्त यथायोग्य कर्मको अपने पुरुषार्थ द्वारा इस तरह शक्तिहीन बना देता है कि वह कर्म अपनी फलदानशक्तिको सुरक्षित रखते हुए भी जीवको एक अन्तर्मुहुर्त के लिये फल देने में असमर्थ हो जाता है । कर्मकी इस अवस्थाका नाम उपशम है। इस तरह कर्मका उपशम होनेपर जीवकी जो अवस्था होती है उसे उस जीवका औपशमिक भाव कहते हैं। कदाचित् कोई जीव अपने पुरुषार्थ द्वारा कर्मको सर्वथा शक्तिहीन बना देता है जिससे वह कर्म उस जीवसे अपना सम्बन्ध समूल विच्छिन्न कर लेता है । कर्मकी इस अवस्थाका नाम क्षय है और इसके होनेपर जीवकी जो अवस्था होती है उसे जीवका क्षायिक भाव कहते हैं। इसी प्रकार कदाचित् कोई जीव अपना पुरुषार्थ इस तरह करता है कि जिसके होनेपर कर्मके कुछ निश्चित अंश तो उदयरूपताको प्राप्त रहते हैं, कुछ निश्चित अंश उपशमरूपताको प्राप्त रहते है और कुछ निश्चित अंश क्षयरूपताको प्राप्त रहते हैं । कर्मकी इस प्रकारकी अवस्थाका नाम क्षयोपशम है। कर्मका इस प्रकारका क्षयोपशम होनेपर जीवकी जो अवस्था होती है उसे जीवका क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। इस क्षायोपशमिक भावका अपर नाम मिश्रभाव १. प्रत्येक कर्मके कार्यको जाननेके लिए गो० कर्मकाण्डकी गाथा १० से गाथा ३३ तकका अवलोकन करना चाहिये। २. समयसार, गाथा ८० । ३. विपाकोऽनुभवः । स यथानाम । ततश्च निर्जरा। तत्त्वार्थसूत्र ८-२१, २२, २३ । ४. पंचाध्यायी, अध्याय २, श्लोक ९६७ । ५. पंचाध्यायी, अध्याय २, श्लोक ९६४ । ६. पंचाध्यायी, अध्याय २, श्लोक ९६५ । ७. पंचाध्यायी, अध्याय २, श्लोक ९६६ । ८. औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामको च । -तत्त्वार्थसूत्र २-१ । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ४१ भी आगममें बतलाया गया है। इस प्रकार कहना चाहिये कि यथायोग्य कर्मोके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके होनेपर जीवकी भी क्रमशः औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक अवस्थायें हो जाया करती हैं। उपर्युक्त आठ कर्मों मेंसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों की प्रत्येक संसारी जीवमें अनादिकालसे क्षयोपशमरूप अवस्था हो रही है क्योंकि कभी इनको सर्वथा उदय रूप अवस्था नहीं होती। इतना अवश्य है कि अनन्त संसारी जीवोंने अपने पुरुषार्थ द्वारा इन तीनों कर्मोका सर्वथा क्षय कर डाला है और यदि कोई संसारी जीव अब भी पुरुषार्थ करे तो वह भी इनका सर्वथा क्षय कर सकता है। इस तरह ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मोंके यथायोग्य निमित्तसे सामान्यरूपमें जीवकी क्षायोपशमिक और क्षायिक दो ही प्रकारको अवस्थायें होना संभव है, औदयिक और औपशमिक अवस्थायें इनमें संभव नहीं हैं। इतना अवश्य है कि यदि इन कर्मोके यथायोग्य अन्तर्भेदोंकी अपेक्षा विचार किया जाय तो उनके निमित्तसे फिर जीवकी औदयिक अवस्था भी संभव है। जैसे जीवमें केवलज्ञान और केवलदर्शनका जब तक सर्वथा अभाव विद्यमान है तब तक इनके घातक केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण कर्मोंका उदय विद्यमान रहनेके कारण जीवकी केवलज्ञान और केवलदर्शनके अभावरूप औदयिक अवस्थायें भी मानी जा सकती हैं। इसी प्रकार वेदनीय, आय, नाम और गोत्र इन चार कर्मोको प्रत्येक जीवमें अनादिकालसे तो उदयः रूप अवस्थायें ही रही हैं । कभी इनकी उपशम या क्षयोपशम रूप अवस्था न तो हुई और न होगी, लेकिन इनके सम्बन्धमें भी यह बात है कि अनन्त संसारी जीवोंने अपने पुरुषार्थ द्वारा इन चारों कर्मोका सर्वथा क्षय अवश्य कर डाला है और यदि कोई संसारी जीव अभी भी पुरुषार्थ करे तो इनका सर्वथा क्षय कर सकता है। इस तरह कहना चाहिये कि इन कर्मों के निमित्तसे जीवकी औदयिक और क्षायिक दो अवस्थायें ही संभव है । परन्तु यहाँ पर इतना ध्यान रखना चाहिये कि इनके क्षयके निमित्तसे होनेवाले क्षायिक भावोंकी गणना आगमोक्त क्षायिक भावोंमें करना उपयोगी न होनेके कारण आवश्यक नहीं समझा गया है। इनके क्षयके निमित्तसे होनेवाले जीवके क्षायिक भावोंको या तो अव्याबाध, अवगाहना, सूक्ष्मत्व और अगुरुलगुत्व गुणोंके रूपमें प्रतिजीवी भाव आगममें कहा गया है या फिर सामान्यतया संपूर्ण कर्मों के क्षयसे उत्पन्न होनेवाला सिद्धत्व भाव इन्हें कह दिया गया है। इन सात कर्मोके अतिरिक्त जो मोहनीय कर्म शेष रह जाता है उसकी प्रत्येक संसारी जीवमें अनादिकालसे तो उदयरूप अवस्था ही विद्यमान रहती है। लेकिन भूतकालमें अनन्त संसारी जीवोंने अपने पुरुषार्थ द्वारा अनेक बार यथायोग्य उपशम या क्षयोपशम करके अन्तमें उसका सर्वथा क्षयकर मुक्तिको प्राप्त कर लिया है। अनेक संसारी जीवोंमें वह अभी भी यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम रूपमें बना हुआ है तथा जिन जीवोंमें वह अभी भी उदय रूपमें बना हआ है वे भी अगर परुषार्थ करें तो उसकी इस उदयरूप हालतको परिवर्तित करके उपशम, क्षय या क्षयोपशमरूप अवस्था बना सकते हैं। इसका अभिप्राय यह हुआ कि मोहनीय कर्मका यथायोग्य उदय, उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम होने पर जीवकी क्रमशः औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये चारों प्रकारकी अवस्थायें संभव होती हैं। इस प्रकार जिन संसारी जीवोंने अनादिकालसे अभी तक अपने पुरुषार्थ द्वारा समस्त कर्मोंका क्षय कर डाला है वे तो मोक्षको प्राप्त हो चुके है और जो संसारी जीव आगे जब इन सभी कर्मोका सर्वथा क्षय कर लेंगे वे भी तब मोक्षको प्राप्त हो जायेंगे । १. पंचाध्यायी, अध्याय २, श्लोक ९६२ । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ : सरस्वती-वरदपुत्र ६० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ ऊपर बतलाये गये ढंगसे उपर्युक्त आठ कर्मोके यथायोग्य उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके आधार पर होनेवाली जीवोंकी अवस्थाओंकी उपयोगी कुल संख्या आगममें संक्षेपसे पचास बतलायी गयी है तथा इनमें तीन पारिणामिक भावोंको भी मिला देनेपर जीवकी अवस्थाओंकी संख्या तिरेपन हो जाती है। इन तिरेपन भावोंकी आगममें जो गणना की गयी है वह इस प्रकार है कि सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्रके रूपमें दो भाव औपशमिक हैं । केवलज्ञान, केवलदर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य तथा सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र ये नौ भाव क्षायिक रूप हैं। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्ययके रूपमें चार सम्यग्ज्ञान, कुमति, कुश्रुत और कु-अवधिके रूपमें तीन मिथ्याज्ञान, चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन और अवधिदर्शनके रूपमें तीन दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य के रूपमें पाँच लब्धियाँ ( शक्तियाँ ) तथा सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और संयमासंयम ये अठारह भाव क्षायोपशमिक रूप हैं। नरक, तिर्यच, मनुष्य और देवके रूपमें चार गतियाँ, क्रोध मान, माया और लोभके रूपमें चार कषाय, पुल्लिग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंगके रूपमें तीन लिंग, परपदार्थोंमें अहंकार और ममकाररूप मिथ्यादर्शन, ज्ञानविशेषका अभावरूप अज्ञान, चारित्रका अभावरूप असंयतत्व, संसारी अवस्थारूप असिद्धत्व तथा कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्लके रूपमें छह लेश्यायें ये इक्कीस भाव औदयिक रूप है। इसी प्रकार जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन भाव पारिणामिक ___आगममें आठ कर्मोंके भेदोंकी गणना इस प्रकार की गयी है कि ज्ञानावरणकर्म मतिज्ञानावरण आदिके रूपमें पाँच प्रकारका, दर्शनावरणकर्म चक्षुर्दर्शनावरण आदिके रूपमें नौ प्रकारका, वेदनीयकर्म साता तथा असाताके रूपमें दो प्रकारका, मोहनीयकर्म मिथ्यात्व आदि के रूपमें अट्ठाईस प्रकारका, आयुःकर्म नरकायु आदिके रूपमें चार प्रकारका, नामकर्म गति, जाति आदिके रूप में तेरानवे प्रकारका, गोत्रकर्म उच्च तथा नीच के रूप में दो प्रकारका और अन्तरायकर्म दानान्तराय आदिके रूप में पांच प्रकारका होता है ।२ ___आगममें यह भी बतलाया गया है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चारों कर्म जीवके यथायोग्य अनुजीवी गुणोंका घात करने में समर्थ होनेके कारण घाती कहलाते है तथा वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चारों कर्म जीवके अनुजीवी गुणोंका घात करनेमें असमर्थ होनेके कारण अघाती कहलाते हैं। इतना ही नहीं, आगममें यह भी बतला दिया गया है कि संपूर्ण घाती कर्म तथा अघाती कर्मोंकी कुछ प्रकृतियाँ मिलकर पाप प्रकृतियाँ कहलाती हैं और अघाती कर्मोकी शेष प्रकृतियाँ पुण्य प्रकृतियाँ कहलाती हैं। . ऊपर जो जीवके तिरेपन भावोंकी गणना की गयी है उनमेंसे तीन पारिणामिक भावोंको छोड़कर शेष पचास भाव उक्त कर्मों से उस कर्मके यथायोग्य उदय, उपशम, क्षय या क्षयोपशमके आधारपर उत्पन्न होनेके कारण ही पूर्वोक्त प्रकार क्रमशः औदयिक, औपशमिक, क्षायिक या क्षायोपशमिक नामसे पुकारे जाते हैं । इन औदयिकादिरूप पचास भावों मेसे मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्ररूप जो औदयिक भाव हैं वे भाव संसारके १. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय २ सूत्र २, ३, ४, ५, ६, ७ । २. वही, अध्याय ८ सूत्र, ६,७, ८, ९, १०, ११, १२, १३ । गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ३८ । ३. पंचाध्यायी, अध्याय २ श्लोक ९९८ । ४. वही, अध्याय, २, श्लोक ९९९ । ५. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ४३,४४ । ६. वही, गाथा ४१, ४२ । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ४३ कारण हैं' तथा सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्ररूप जो औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक भाव हैं वे भाव मोक्षके कारण हैं। यद्यपि मिथ्याज्ञानरूप क्षायोपशमिक भावको भी बन्धका कारण तथा सम्यग्ज्ञानरूप क्षायोपशमिक और क्षायिकभावको भी मोक्षका कारण आगममें स्वीकार किया गया है । परन्तु इसके विषय में यह बात ध्यान देने योग्य है कि ज्ञानकी संसारकारणता और मोक्षकारणता यथायोग्य मोहनीयकर्म के उदय, उपशम, क्षय व क्षयोपशमसे सम्बद्ध होकर ही मानी गयी है। यही कारण है कि चतुर्दश गुणस्थान- व्यवस्थामें केवल मोहनीय कर्मको ही उदय, उपशम, क्षय तथा क्षयोपशमके आधारपर आगममें प्रमुखता दी गयी है । 3 उक्त कथनका विस्तार यह है कि उक्त औदयिक भाव मोहनीयकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण जीवके संसारके कारण होते हैं। औपशमिक भाव मोहनीयकर्मके उपशमसे उत्पन्न होने के कारण यद्यपि संसारके कारण नहीं होते, परन्तु ये जीवमें अन्तर्मुहूर्त तक ही ठहरते हैं अर्थात् मुहूर्तके अन्दर अन्दर ही ये नष्ट हो जाते हैं, इसलिए मोक्षके कारण होकर भी इनसे जीवको साक्षात् मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती है। इन्हें छोड़कर मोहनीयकर्मकी उस उस प्रकतिके सर्वथा क्षयसे उत्पन्न होनेवाले क्षायिक भाव ही जीवकी मोक्ष प्राप्ति में साक्षात् कारण हुआ करते हैं । अर्थात् उक्त क्षायिक भावोंको प्राप्त कर लेनेपर जीव नियमसे मुक्तिको प्राप्त करता है। कारण कि ये भाव जीवको एक बार प्राप्त हो जानेपर फिर कभी नष्ट नहीं होते हैं। आयोपशमिक भावोंके विषय में व्यवस्था यह है कि इनमें सर्वघाती प्रकृतिके वर्तमान समय में उदय आनेवाले निषेकोंका उदयाभावी क्षय और उसी सर्वघाती प्रकृतिके आगामी कालमें उदय आनेवाले निषेकोंका सदवस्थारूप उपशम तथा देशघाती प्रकृतिका उदय विद्यमान रहा करता है अतः इनमें देशघाती प्रकृतिका उदय कार्यकारी रहनेके कारण तो संसारको कारणता व सबंधाती प्रकृतिका उदयाभावीक्षय तथा सदवस्थारूप उपशम भी कार्यकारी रहने के कारण मोक्षकी कारणता इस तरह दोनों ही प्रकारकी कारणतायें विद्यमान रहा करती हैं । यही कारण है कि आगममें यह बात स्पष्ट कर दी गयी है कि जीवमें जिस कालमें जितना दर्शन, ज्ञान और चारित्रका अंश प्रकट रहता है उतने रूपमें उसके कर्मबन्ध नहीं होता है और उसी कालमें जितना दर्शन, ज्ञान और चारित्रका अपना-अपना विरोधी रागांश प्रकट रहता है उतने रूप में उसका कर्मबन्ध भी होता है।" इस प्रकार क्षायोपशमिक भावोंमें यद्यपि संसार और मुक्ति उभयकी कारणता विद्यमान रहा करती है फिर भी उन्हें आगममें मोक्षका ही कारण बतलाया गया है, संसारका नहीं ।" यह बात हम पूर्व में भी कह चुके है। इसको यों भी स्पष्ट किया जा सकता है कि आगम में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको औपशमिक, क्षयिक व क्षायोपशमिकका भेद न करके सामान्यरूपसे ही मोक्षका कारण प्रतिपादित किया गया है व औदयिक भावरूप मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रको संसारका कारण प्रतिपादित किया गया है। इतनी बात अवश्य आगम में स्पष्ट कर दी गयी है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप मोक्षमार्गपर आरूढ़ हुआ जीव यदि शुद्धोपयोगको भूमिकाको प्राप्त करके क्षपकक्षेणीपर आरूढ़ हो जावे तो वह मोक्ष सुखको ही प्राप्त करता है।" लेकिन यदि कोई जीव शुद्धोपयोगको भूमिकाको प्राप्त होकर भी क्षपक १. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक, ३ । २. तत्वार्थसूत्र ११ । ३. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४ । ४. पुरुषार्थसिद्धध्याय श्लोक २१२, २१३, २१४ । ५. वही, श्लोक २११ । ६. तत्त्वार्थसूत्र, १-१ । ७-८. रत्नकरण्डकश्रावकाचार श्लोक २. १ । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ श्रेणीपर आरूढ़ न होकर उपशमश्रेणीपर आरूढ़ हआ अथवा शुद्धोपयोगकी भूमिकाको प्राप्त न होकर शुभोपयोगकी भमिकामें ही प्रवर्तमान रहा और ऐसी हालतमें उसका यदि मरण हो गया तो वह जीव स्वर्गसुखको प्राप्त करता हुआ परंपरया मोक्षसुखको प्राप्त करता है। इसके साथ ही आगममें यह बात भी स्पष्ट कर दी गयी है कि यदि कोई जीव अपनेको भूलकर स्वर्गसुखमें रम जाय तो फिर इसमें भी संदेह नहीं कि वह मारोचकी तरह यथायोग्य अनेक भवों तक सांसारिक विभिन्न प्रकारको कुयोनियोंमें भी भ्रमण करता है। इस कथनसे इतनी बात स्थिर हो जाती है कि अशुभोपयोग और अशुभ प्रवृत्तिरूप मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्या-चारित्र संसारके कारण हैं, शुभोपयोग और शुभ प्रवृत्तिरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र स्वर्गादिसुखपूर्वक परंपरया मोक्षके कारण हैं। तथा शुद्धोपयोग व शुद्ध प्रवृत्तिरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र साक्षात् मोक्षके कारण हैं। ___ इस प्रकार करणानुयोगके आधारपर किए गए उपर्युक्त विवेचन और इसके पूर्व चरणानयोगके आधारपर किए गए विवेचनसे हमारा प्रयोजन यह है कि चरणानुयोगकी दृष्टिसे जो निश्चय और व्यवहाररूप मोक्षमार्गद्वयका अथवा निश्चयसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और व्यवहार सम्यग्ज्ञान तथा निश्चयसम्यक्चारित्र और व्यवहारसम्यक्चारित्रका विवेचन किया गया है एवं करणानुयोगकी दृष्टिसे जो औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन, क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्ज्ञान तथा औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यक्चारित्रका विवेचन किया गया है। इन दोनों प्रकारके विवेचनोंका यदि समन्वय किया जाय तो यह निर्णीत हो जाता है कि जिसे चरणानुयोगकी दृष्टिसे निश्चय सम्यग्दर्शन कहा गया है उसे करणानयोगकी दष्टिसे औपशमिक व क्षायिक सम्यग्दर्शन समझना चाहिये तथा जिसे चरणानुयोगकी दृष्टिसे व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा गया है उसे करणानुयोगकी दृष्टिसे क्षायोपशामिक सम्यग्दर्शन समझना चाहिये। इसी प्रकार जिसे चरणानयोगकी दृष्टिसे निश्चयसम्यग्ज्ञान कहा गया है उसे करणानयोगकी दृष्टिसे क्षायिक-सम्यग्ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान समझना चाहिये और जिसे चरणानुयोगकी दृष्टिसे व्यवहारसम्यग्ज्ञान कहा गया है उसे करणानुयोगको दृष्टिसे क्षायोपशमिक सम्यक्ज्ञान समझना चाहिये और इसी प्रकार जिसे चरणानुयोगकी दृष्टिसे निश्चयसम्यक्चारित्र यथाख्यातचारित्र या वीतरागचारित्र कहा गया है उसे करणानुयोगकी दृष्टिसे औपशमिक व क्षायिक सम्यक्चारित्र समझना चाहिये और जिसे चरणानु योगकी दृष्टिसे अणुव्रत, महाव्रत आदिरूप व्यवहारसम्यक्चारित्र, सरागचारित्र या सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसांपरायचारित्र कहा गया है उसे करणानुयोगकी दृष्टिसे क्षायोपशमिक चारित्र समझना चाहिये ।। उपर्युक्त कथन हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचा देता है कि व्यवहार और निश्चय दोनों ही प्रकारके मोक्षमार्गका प्रारम्भ चतुर्थ गुणस्थानसे ही होता है, चतुर्थ गुणस्थानसे पूर्व किसी भी तरहके मोक्षमार्गका प्रारम्भ नहीं होता है, ऐसा जानना चाहिये । आगे इसी बातको स्पष्ट किया जा रहा है। सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके यिषयमें यह बात कही गयी है कि वह दर्शनमोहकी मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यकप्रकृतिरूप तीन तथा चारित्रमोहकी अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इस २. छहढाला, ४॥१४॥ १. प्रवचनसार, गाथा ११ । ३. वही, गाथा १२ । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ | धर्म और सिद्धान्त ४५ तरह सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम होनेवर ही उत्पन्न हुआ करता है। अर्थात् आगम में कहा गया है कि उक्त सात प्रकृतियोंके उपशमसे औपशमिक सम्ययस्व और उमत सात ही प्रकृतियोंके क्षयसे क्षायिकसम्यक्त्व उत्पन्न होता है । इसी प्रकार उक्त सात प्रकृतियोंमेंसे ही मिथ्यात्व व सम्यक्मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन छह सर्वघाती प्रकृतियोंके वर्तमान समयमें उदय आने वाले निषेकका उदवाभावी क्षय व आगामी दाल में उदय आने वाले निषेकका सदवस्थारूप उपशम एवं सम्यक्प्रकृतिरूप देशघातिप्रकृतिका उदय होनेपर क्षायोपशमिकसम्यक्त्व उत्पन्न होता है । आगम में यह बात भी कही गयी है कि उक्त औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक तीनों ही प्रकारके सम्यग्दर्शन जीवको क्षायोपशमिक, विशुद्धि, देशना प्रायोग्य और करणलब्धि पूर्वक ही उत्पन्न हुआ करते हैं।* माथमें इन लब्धियोंके सम्बन्धमें वहीं पर यह विशेषता भी बतला दी गयी है कि पांचों लब्धियोंमेंसे पूर्वकी चार लब्धियाँ तो भव्य तथा अभव्य दोनों ही प्रकारके जीवोंके संभव हैं । परन्तु करणलब्धि ऐसी लब्धि है। कि वह भव्य जीवके ही संभव है, अभव्यके नहीं।" इसका आशय यह हुआ कि जो भव्य जीव पूर्वको चार लब्धियोंके साथ-साथ करणलब्धिमें प्रवृत्त होकर उक्त सात प्रकृतियोंकी पूर्वोक्त प्रकार उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमरूप जैसी स्थिति बना लेता है उसीके अनुरूप वह अपने में औपशमिक, क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक कोई भी सम्यग्दर्शन उत्पन्न कर लेता है । इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि उपर्युक्त औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक इन तीनों सम्यग्दर्शनोंमें से कोई भी सम्यग्दर्शन ऐसा नहीं है जो चतुर्थ गुणस्थानसे पूर्वके किसी भी गुणस्थानमें उत्पन्न हो सकता हो, क्योंकि प्रथम गुणस्थानमें तो सम्यग्दर्शनकी घातक सर्वघाती मिध्यात्वप्रकृतिका उदय विद्यमान रहता है, द्वितीय गुणस्थान में सम्यग्दर्शनको घातक सर्वघाती अनन्तानुबन्धी कषायका उदय विद्यमान रहता हैं और तृतीय गुणस्थान में सम्यग्दर्शनकी घातक सर्वंघाती सम्यक्मिथ्यात्व प्रकृतिका उदय विद्यमान रहता 1" चूंकि यह बात हम पूर्व में कह चुके हैं कि क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनका ही अपर नाम व्यवहारसम्यग्दर्शन है और औपशमिक तथा क्षायिक इन दोनों सम्यग्दर्शनोंका ही अपर नाम निश्चयसम्यग्दर्शन है । अतः यह बात निर्णीत हो जाती है कि व्यवहार और निश्चय दोनों ही प्रकारके सम्यग्दर्शनोंमेंसे कोई भी सम्यग्दर्शन चतुर्थ गुणस्थानसे पूर्व के किसी भी गुणस्थानमें उत्पन्न नहीं होता है। इतना अवश्य है कि चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर सातवें गुणस्थान तकके जीवोंमें उक्त तीनों प्रकारके सम्यग्दर्शनोंमे से कोई भी एक सम्यग्दर्शन संभव है। इसलिये चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक के जीव या तो क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा व्यवहारसम्यदृष्टि रह सकते हैं या फिर औपशमिक अथवा क्षायिक सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा निश्चयसम्यग्दृष्टि रह सकते हैं । इसके अतिरिक्त यह बात भी ध्यान में रखना चाहिये कि सातवें गुणस्थानका जो जीव उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणीपर आरूढ होने के लिए अधःकरण परिणामोंमें प्रवृत्त होता है उसके व्यवहाररूप क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन १२. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा २६ पूर्वा० । ३. वही, गा० २५ का उत्तरार्ध । ४-५ वही गाथा ६५० । ६. वही गाथा १५ । ७. वही गाथा १९ । ८. वही, गाथा २१ । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्य न रहकर नियमसे निश्चयरूप औपशमिक या क्षायिक सम्यदर्शन ही रहा करता है। इसमें भी इतनी विशेषता है कि उपशश्रेणीपर आरूढ़ होनेवाले जीवके निश्चयरूप औपशमिक और क्षायिक दोनों सम्यग्दर्शनोंमेंसे कोई एक सम्यग्दर्शन रह सकता है । लेकिन क्षपकश्रेणीपर आरूढ़ होनेवाले जीवके निश्चयरूप क्षायिक सम्यग्दर्शन ही रहता है, औपशमिक सम्यग्दर्शन नहीं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आठवें गुणस्थानसे लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तकके जीव या तो औपशमिकसम्यग्दृष्टिके रूपमें निश्चयसम्यग्दष्टि रहा करते हैं या फिर क्षायिकसम्यग्दृष्टि के रूप में निश्चयसम्यग्दृष्टि रहा करते हैं। इन गुणस्थानोंमें रहनेवाला कोई भी जीव कभी भी क्षायोपमिक सम्यग्दृष्टिके रूपमें व्यवहारसम्यग्दृष्टि नहीं रहता है । इसी प्रकार बारहवें गुणस्थानमें और इससे आगेके गुणस्थानोंमें रहनेवाला कोई भी जीव केवल क्षायिकसम्यग्दृष्टिके रूपमें ही निश्चयसम्यग रहा करता है। इसी प्रकार मोक्षमार्गके अंगभूत सम्यग्ज्ञानका प्रारम्भ भी चतुर्थ गुणस्थानसे ही होता है। इसमें भी चुतर्थगुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक तो प्रत्येक जीवमें क्षायोपशमिक सम्यग्ज्ञानके रूपमें व्यवहारसम्यग्ज्ञान ही रहा करता है निश्चयसम्यग्ज्ञान महीं, तथा इसके आगे तेरहवें और चौदहवें गणस्थानोंमें क्षायिकज्ञानके रूपमें निश्चयसम्यग्ज्ञान ही रहा करता है, व्यवहार सम्यग्ज्ञान नहीं। कारण कि तेरहवें गुणस्थानसे पूर्व बारहवें गुणस्थानके अन्त समयमें मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण इन पांचों ही ज्ञानावरणोंका एक साथ सर्वथा क्षय हो जानेके कारण क्षायोपशमिक ज्ञानोंका तेरहवें गणस्थानके प्रथम समयमें सर्वथा अभाव हो जाता है। यद्यपि भव्य तथा अभव्यके भेदसे सहित एकेन्द्रियादिक समस्त संसारी जीवोंमें अनादिकालसे मतिज्ञान, श्रुतज्ञानके रूपमें क्षायोपशमिक ज्ञानोंका नियमसे सद्भाव पाया जाता है। परन्तु उन ज्ञानोंमें व्यवहारसम्यग्ज्ञानका रूप तब तक नहीं आता जब तक जीवमें सम्यग्दर्शनका प्रादुर्भाव नहीं हो जाता है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि एक तो संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवका क्षायोपशमिक ज्ञान ही व्यवहारसम्यग्ज्ञानका रूप धारण कर सकता है, एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तकके जीवोंका क्षायोपशमिक ज्ञान कदापि व्यवहारसम्यग्ज्ञानका रूप नहीं धारण करता है । दसरे. भव्यजीवोंका क्षायोपशमिक ज्ञान ही व्यवहारसम्यग्ज्ञानका रूप धारण कर सकता है, अभव्य जीवोंका नहीं। और तोसरे संज्ञीपंचेन्द्रिय भव्य जीवोंका क्षायोपशमिक ज्ञान भी सम्यग्दर्शनको तरह चतुर्थगुणस्थानमें ही व्यवहारसम्यग्ज्ञानका रूप धारण करता है, इससे पूर्वके गणस्थानोंमें नहीं, क्योंकि वह सम्यग्दर्शनके सदभावमें सम्यग्ज्ञानरूपताको प्राप्त होता है। मोक्षमार्गके अंगभूत व्यवहार तथा निश्चय दोनों ही प्रकारके सम्यकचारित्रोंके विषयमें आगमकी व्यवस्था यह है कि एकदेश क्षायोपशमिक सम्यक् चारित्रके रूपमें व्यवहारसम्यकचारित्रका प्रारम्भ पंचम गणस्थानसे ही होता है, इससे पूर्वके चारों गुणस्थानोंमें तो असंयत भाव ही रहा करता है। कारण कि इन चारों गणस्थानोंमें अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयका अभाव नहीं होता है। यही क्षायोपशमिकरूपताको प्राप्त व्यवहारसम्यक्-चारित्र संज्वलनकषायके उदयके सद्भाव तथा प्रत्याख्यानावरणकषायके उदयके अभावमें षष्ठगुणस्थानमें सर्वदेशात्मक महाव्रतका रूप धारण कर लेता है तथा आगे संज्वलन कषाय व १. छहढाला, ४-१ । २-३. तदियकसायुदयेण य विरदाविरदो गुणो हवे जुगवं । विदियकसायदयेण य असंजमो होदि णियमेण ॥ गो० जी०४६८। ४. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ४६५ । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ४७ नोकषाय धीरे-धीरे कृश होकर जब दश गुणस्थानमें केवल सूक्ष्म लोभका उदय कार्यकारी रह जाता है तब वही क्षायोपशमिक-रूपताको प्राप्त व्यवहारसम्यकचारित्र सूक्ष्मसांपरायचारित्रके रूपमें अपनी चरम सीमामें पहुँच जाता है। और इस तरह दशवें गुणस्थानके अन्तमें समस्त कषायोंका यदि उपशम होता है तो ग्यारहवें गुणस्थानके प्रारम्भमें औपशमिकचारित्रके रूपमें निश्चयसम्यक्चारित्र प्रकट हो जाता है तथा दशवें गुणस्थानके अन्तमें यदि समस्त कषायोंका क्षय होता है तो १२वें गुणस्थानके प्रारम्भमें क्षायिकचारित्रके रूपमें निश्चयसम्यक् चारित्र प्रगट हो जाता है और यह क्षायिकचारित्र रूप निश्चयचारित्र १३वें तथा १४ वें गुणस्थानोंमें भी बना रहता है । जीवको जब औपशमिक अथवा क्षायिक रूपमें निश्चयचारित्रकी प्राप्ति हो जाती है तब क्षायोपश मिकरूपताको प्राप्त व्यवहारसम्यकचारित्रकी समाप्ति नियमसे हो जाती है । कारण कि जीवमें प्रत्येक कर्मका यथासम्भव उदय, उपशम, क्षय अथवा क्षायोपशममेंसे एक कालमें एक ही अवस्था रह सकती है, दो आदि अवस्थायें कभी एक साथ नहीं होती। इसलिए एक कर्मके उदयादिककी निमित्तताके आधारपर होनेवाले औदयिकादि भावोंका सद्भाव भी जीवमें एक साथ नहीं रह सकता है। यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि औपशमिकचारित्ररूप निश्चयसम्यक-चारित्र केवल ११ वें गुणस्थानमें ही रहता है, कारण कि जीव अन्तर्मुहर्तके अल्पकालमें ही इससे पतित होकर यथायोग्य कषायका उदय हो जानेसे फिर क्षायोपशमिकचारित्ररूप व्यवहार चारित्रमें आ जाता है। इस तरह क्षायिक चारित्ररूप निश्चयचारित्र ही ऐसा है जो १२वें में उत्पन्न होकर १३वें और १४वें गणस्थानोंमें भी अपना सद्भाव कायम रखता है । अब यह प्रश्न हो सकता है कि जब जीवको पूर्वोक्त प्रकार अधिक-से-अधिक सप्तम गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दर्शनरूप निश्चयसम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो जाती है और १२वें गुणस्थानके प्रारम्भमें क्षायिकचारित्ररूप निश्चयसम्यग्चारित्रकी प्राप्ति हो जाती है तो फिर १२वें गुणस्थानमें ही जीव मुक्त क्यों नहीं हो जाता है ? इसका समाधान निम्न प्रकार है १२ वें गुणस्थानमें क्षायिकचारित्रकी उपलब्धि हो जानेपर भी जीवके मुक्त न होनेका एक कारण तो यह है कि उस समय तक उसे ज्ञानावरणकर्मका पूर्णतः क्षय न होनेसे क्षायिकज्ञानरूप निश्चयसम्यग्ज्ञानको प्राप्ति नहीं हो पाती है। दूसरा कारण यह है कि १२वें गुणस्थानवर्ती क्षायिकचारित्ररूप निश्चयचारित्रमें जीव यद्यपि भावात्मक चारित्रके रूप में पूर्ण स्वावलम्बी हो जाता है परन्तु तब भी उसमें परावलम्बनपूर्ण योगात्मक क्रिया तो होती ही रहती है क्योंकि उसके भी मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणाके निमित्तसे प्रदेशपरिस्पन्दन होता है। अतः उसके स्वावलम्बनके रूपमें निश्चयचारित्रकी पूर्णता नहीं हो पाती है। यह योगात्मक क्रिया केवलज्ञानरूप क्षायिकनिश्चयसम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति हो जानेके अनन्तर भी जीवके हुआ करती है । अतः केवलज्ञान प्राप्त हो जाने पर तेरहवें गुणस्थानके प्रथम समयमें जीव मुक्त नहीं हो पाता है । इसी प्रकार केवलज्ञानकी प्राप्तिके अनन्तर जब जीवकी योगात्मक क्रिया भी समाप्त हो जाती है तब जीवको मुक्ति प्राप्त नहीं होती है। इसका कारण यह है कि जीव द्रव्यात्मकदृष्टिसे उस समय भी परावलम्बी रहा करता है क्योंकि अघाती कर्मोंका उदय उस समय भी उसे प्रभावित किये रहता हैं । इस तरह यह निर्णीत होता है कि १४वें गुणस्थानके अन्त समयमें अघाती कर्मोंका भी पूर्णतया क्षय हो जानेसे जब जीव द्रव्यात्मकदृष्टिसे भी पूर्ण स्वावलम्बी हो जाता है तभी उसके निश्चयसम्यक्चारित्रकी १, २, ३, ४ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ४७३, ४६७, ४७४ । ५. तत्त्वार्थश्लोकवा० पृ० ७०, पंक्ति ९ । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ : सरस्वती-बरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ पूर्णता समझनी चाहिए । इस तरह मोक्षमार्गकी पूर्णता १४वें गुणस्थानके अन्त समयमें होनेसे उससे पूर्व जीव मुक्ति नहीं पा सकता है दूसरे उस समय निश्चयचारित्रकी पूर्णता हो जानेसे मोक्षमार्गकी भी पूर्णता हो जानेपर यह जीव फिर एक क्षणके लिए भी संसारमें नहीं ठहरता है।' क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन, क्षायोपशामिक सम्यग्ज्ञान और क्षायोपशमिक सम्यक्चारित्रको व्यवहारमोक्षमार्ग या व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यकचारित्र इसलिए कहा जाता है कि इनमें मोक्षकी साक्षात् कारणता नहीं है, परंपरया अर्थात् निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यक्-चारित्रका कारण होकर ही मोक्षकी कारणता विद्यमान है। जैसा कि पूर्व में हम विस्तारसे स्पष्ट कर चुके हैं। इसी प्रकार क्षायिकसम्यग्दर्शन, क्षायिकसम्यग्ज्ञान और क्षायिक सम्यकचारित्रको निश्चयमोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यक चारित्र इसलिए कहा जाता है कि इनमें मोक्षकी साक्षात् कारणता रहा करती है। यह बात भी हम पूर्व में विस्तारसे स्पष्ट कर चुके हैं। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन, क्षायोपशमिक सम्यग्ज्ञान और क्षायोपशमिक सम्यकचारित्रको व्यवहार मोक्ष-मार्ग या व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यक्-चारित्र नामसे पुकारने में तथा औपशमिक व क्षायिक सम्यग्दर्शन, क्षायिक सम्यग्ज्ञान और औपशमिक व क्षायिक-चारित्रको निश्चय मोक्षमार्ग या निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यक्-चारित्र नामसे पुकारनेमें प्रकारान्तरसे यह युक्ति भी दी जा सकती है कि आगममें स्वाश्रितपनेको वस्तुका निश्चय धर्म व पराश्रित पनेको वस्तुका व्यवहार धर्म माना गया है। इस तरह औपशमिक व क्षायिक सम्यग्दर्शन, क्षायिक सम्यकज्ञान और औपशमिक व क्षायिक सम्यक चारित्र ये सभी चँ कि यथायोग्य अपने-अपने प्रतिपक्षी कोंके सर्वथा उपशम या सर्वथा क्षय हो जानेपर ही जीवमें उद्भूत होते हैं । अतः पूर्णरूपसे स्वाश्रयता पायी जानेके कारण इन्हें निश्चय नामसे पुकारना योग्य है तथा क्षायोपशामिक सम्यग्दर्शन, क्षायोपशमिक सम्यग्ज्ञान और क्षायोपशमिक सम्यक्-चारित्र ये सभी चूँकि अपने-अपने प्रतिपक्षी कर्मोंके सर्वघाती अंशोंके यथायोग्य उदयाभावी क्षय तथा सदवस्थारूप उपशम एवं देशघाती अंशोंके उदयके सद्भावमें ही जीवमें उद्भूत होते है, अतः पूर्ण रूपसे स्वाश्रयता नहीं पायी जाने अथवा कथंचित पराश्रयता पायी जानेके कारण इन्हें व्यवहारनामसे पुकारना योग्य है। यहाँ पर कोई कह सकता है कि द्रव्यलिंग और भावलिंगके रूपमें भी दर्शन, ज्ञान और चारित्रका वर्णन आगममें पाया जाता है। इनमेंसे तद्रूपताका अर्थ भाव-लिंग होता है और अतपताका अर्थ द्रव्यलिंग होता है। इस तरह जो जीव यथायोग्य मोहनीयकर्मका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम न रहनेके कारण दर्शन, ज्ञान और चारित्रकी भावरूपताको प्राप्त न होते हुए भी तद्रपके समान बाह्याचरण करते हैं उनमें तो द्रव्यलिंगके रूप में ही दर्शन, ज्ञान और चारित्र रहा करते हैं, लेकिन जो जीव यथायोग्य मोहनीय कर्मका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम हो जानेके कारण दर्शन, ज्ञान और चारित्रकी भावरूपताको प्राप्त होकर तदनकल बाह्याचरण करते हैं उनमें भावलिंगके रूपमें दर्शन, ज्ञान और चारित्र रहा करते हैं । इनमेंसे जो जीव द्रव्यलिंगके रूपमें दर्शन, ज्ञान और चारित्रके धारक हैं, वे व्यवहार मोक्ष-मार्गी और जो जीव १. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पृष्ठ ७१, पंक्ति १५ । तत्त्वा० श्लो० वा०, पृष्ठ ७१, पंक्ति २७ । तत्त्वार्थश्लोक वा०, पृष्ठ ७१, वार्तिक ९३, ९४ । २. आत्माश्रितो निश्चयनयः, पराश्रितो व्यवहारनयः। -समयसार, गाथा ५७२ की आत्मख्याति टीका । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त ४९ भाव लिंगके रूपमें दर्शन, ज्ञान और चारित्रके धारक हैं वे निश्चयमोक्षमार्गी आगममें स्वीकार किये गये हैं । इसका तात्पर्य यह हुआ कि जो क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि, क्षायोपशमिक सम्यक्ज्ञानी और क्षायोपशमिक सम्यक् चारित्री जीव हैं उन्हें भी निश्चयमोक्षमार्गी या निश्चयसम्यग्दृष्टि, निश्चयसम्यग्ज्ञानी और निश्चयसम्यक चारित्र ही कहना उचित है, उन्हें व्यवहारमोक्षमार्गी या व्यवहारसम्यग्दृष्टि, व्यवहारसम्यग्ज्ञानी और व्यवहारसम्यक् चारित्री कहना उचित नहीं है । उपर्युक्त समस्या का समाधान यह है कि व्यवहार और निश्चय इन दोनों शब्दोंके प्रकरणानुसार विविध अर्थ आगम में स्वीकार किये गये हैं । जैसे कहीं भेदरूपता व्यवहार है और अभेदरूपता निश्चय है कहीं नानारूपता व्यवहार है और एकरूपता निश्चय है, कहीं पर्यायरूपता व्यवहार है और द्रव्यरूपता निश्चय है, कहीं विशेषरूपता व्यवहार है और सामान्यरूपता निश्चय है कहीं व्यतिरेकरूपता व्यवहार है और अन्वयरूपता निश्चय है, कहीं विभावरूपता व्यवहार है, और स्वभावरूपता निश्चय है, कहीं अभावरूपता व्यवहार है और भावरूपता निश्चय है, कहीं अनित्यरूपता व्यवहार है और नित्यरूपता निश्चय है, कहीं असद्रूपता व्यवहार है और सद्रूपता निश्चय है, कहीं विस्ताररूपता व्यवहार है और संक्षेप या संग्रह - रूपता निश्चय है, कहीं पराश्रय-रूपता व्यवहार है और स्वाश्रय-रूपता निश्चय है, कहीं विधेयरूपता, साधनरूपता व कारणरूपता व्यवहार है और उद्देश्यरूपता, साध्यरूपता व कार्यरूपता निश्चय है, कहीं परम्परारूपता व्यवहार है और साक्षात्रूपता निश्चय है, कहीं निमित्तरूपता व्यवहार है और उपादानरूपता निश्चय है, कहीं बहिरंग-रूपता व्यवहार है और अंतरंग-रूपता निश्चय है, कहीं उपचार, अभूतार्थ, अद्भुतरूपता व्यवहार है और परमार्थ, भूतार्थ, सद्भूतरूपता निश्चय है । इन या इसी प्रकारके और भी व्यवहार और निश्चय शब्दके संभव अर्थोंमेंसे जहाँ किस प्रकारका अर्थ ग्रहण करनेसे प्रकरणकी सुसंगति होती हो वहाँ पर उसी प्रकारका अर्थ व्यवहार और निश्चय शब्दोंका ग्रहण कर लेना चाहिये । इस प्रकार द्रव्यलिंग के रूपमें जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र किसी जीवमें रहा करते हैं उन्हें बाह्यरूपताके आधारपर व्यवहारदर्शन, ज्ञान और चारित्र कहना तथा भावलिंगके रूपमें जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र किसी जीवमें रहा करते हैं उन्हें अन्तरंगरूपताके आधारपर निश्चयदर्शन, ज्ञान और चारित्र कहना भी संगत है एवं क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन, क्षायोपशमिक सम्यक् ज्ञान और क्षायोपशमिक चारित्रको पराश्रयताके आधारपर व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यक्ज्ञान और व्यवहारसम्यक्चारित्र नामोंसे पुकारना तथा औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दर्शन, क्षायिक ज्ञान व औपशमिक और क्षायिक चारित्रको स्वाश्रयता के आधारपर निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यक्ज्ञान और निश्चयसम्यक् चारित्र नामसे पुकारना भी संगत है। जैनागम में जो नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके रूपमें चार निक्षेपों का वर्णन पाया जाता है उनमें से नाम, स्थापना और द्रव्य इन तीनको तो व्यवहारनिक्षेपरूप जानना चाहिये तथा भावको निश्चयनिक्षेपरूप जानना चाहिये । जैसे वास्तवमें अर्थात् निश्चयरूप में तो वही जीव जैनी कहा जा सकता है जो भावसे जैनी हो अर्थात् सम्यग्दृष्टि हो । लेकिन जो जीव सम्यग्दृष्टि बननेकी क्षमताको प्राप्त है उस जीव को भी द्रव्यरूपसे व्यवहारमें जैनी कहा जा सकता है। इसी प्रकार जो जीव न तो सम्यग्दृष्टि है, न सम्यग्दृष्टि बनने क्षमता प्राप्त है लेकिन चूँकि जैन कुलमें उत्पन्न हुआ है अतः उसे भी व्यवहारमें नामरूपसे जैनी कहा जाता है तथा जो जीवन तो सम्यग्दृष्टि है, न उसमें सम्यग्दृष्टि बननेकी क्षमताको प्राप्त है लेकिन गृहस्थ के छह आवश्यक कृत्यों को अवश्य कर रहा है उसे स्थापनारूपसे व्यवहारमें जंनी माना जाता है । इस तरह १. देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने || यशस्तिलकचम्पू, आश्वास ८, प्रकीर्ण विधिकल्प । ७ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ सर्वत्र हमें व्यवहार और निश्चयकी प्रक्रियाको सुसंगत कर लेना चाहिये। श्रद्धय पंडितप्रवर आशाधरजीने सागारधर्मामत (अध्याय २ श्लोक ५४) में नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके रूपमें विभक्त सभी जैनोंकी जो तरतमभावसे महत्ता बतलायी है उससे व्यवहारकी महत्ता प्रस्फटित होती है। मैं समझता हूँ कि अब तकके विवेचनसे आगम द्वारा स्वीकृत निश्चय और व्यवहार दोनों मोक्ष-मार्गोंकी निर्विवाद स्थिति एवं सार्थकता अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है। सम्यग्दृष्टिका स्वभाव __'दिव्य ध्वनि' वर्ष २, अंक १२ में 'सम्यग्दृष्टिका स्वभाव' शीर्षकसे आगमप्रमाणके आधार किसी व्यक्तिके विचार मुद्रित हैं। व्यक्तिज्ञानकी कमीके कारण आगमका कैसा अनर्थ करता है, उसका परिचय इससे प्राप्त हो जाता है । मैं यहाँ उसीका उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ ___कर्तृत्वं न स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत् । ___अज्ञानादेव कायं तदभावादकारकः ।।-समयसार कलश १९४ । इसका अर्थ वहाँ पर यह मुद्रित है "जैसे इस चैतन्यमूर्ति आत्माका स्वभाव परद्रव्यके भोगनेका नहीं है, उसी प्रकार इसका स्वभव परके कर्तापनेका भी नहीं है। अज्ञानके कारण यह जीव अपने आपको परका कर्ता भोक्ता मानता है। जब यह अज्ञान दूर हो जाता है तब यह अपनेको परका कर्ता-भोक्ता नहीं मानता है ।" इसका यथावत् अभिप्राय तो एक विस्तृत लेख द्वारा हो प्रकट किया जा सकेगा। पर मैं इतना ही यहाँ संकेत कर देना चाहता हूँ कि उक्त मुद्रित अर्थ भ्रमपूर्ण है। यथावत् अर्थ निम्नलिखित होना चाहिए “कर्तृत्व अर्थात् राग-द्वेष और मोहरूप परिणमन होना तथा पुद्गलकर्मोंसे बद्ध होना जीवका स्वभाव नहीं है। जिस प्रकार कर्मोंके फलकों भोगना अर्थात् कर्मोदयनिमित्तक राग-द्वेष-मोहादिरूप अपनी परिणतियोंका अनुभवन करना यानी सुखी-दुखी होना जीवका स्वभाव नहीं है, क्योंकि जब तक जीवमें अज्ञान अर्थात् कर्मोदयनिमित्तक राग-द्वेष और मोहरूप परिणमन हो रहा है, तब तक वह कर्ता अर्थात् उपादानरूपसे राग-द्वेष और मोह आदि अपनी परिणतियोंका व निमित्तरूपसे पौद्गलिक कर्मोके बन्धका कर्ता हो रहा है। इस तरह यदि जीवमें होनेवाली राग-द्वेष और मोहरूप अज्ञानपरिणतिका अभाव हो, जावे तो फिर न तो उसके भविष्यमें राग-द्वेष तथा मोहरूप भावोंका कर्तृत्व रहेगा और जब यह कर्तृत्व नहीं रहेगा तो वह पौद्गलिक कर्मोका बन्ध भी नहीं करेगा।" मद्रित अर्थ में जो 'मानता है' ऐसा अर्थ निक्षिप्त किया गया है, इससे यह प्रकट होता है कि अज्ञानसे जीव अपनेको कर्ता केवल मान रहा है, है नहीं। जबकि यथावत् अर्थ यह है कि अज्ञानसे कर्ता है, केवल कर्तापन अपनेमें मान नहीं रहा है। यदि मानने रूप अर्थको सही माना जायगा, तो फिर यह भी मानना होगा कि जीव स्वभावसे संसारी नहीं है, केवल अज्ञानसे वह अपनेको संसारी मान रहा है। जबकि जीव ऐसा ही है, वह अपनेको केवल संसारी मान नहीं रहा है। उक्त पद्य में अज्ञान का अर्थ भी ज्ञानका राग-द्वेष-मोह रूप परिणमन अर्थात विकृत परिणमन ही विवक्षित है, असत्य जानने रूप स्थिति अथवा ज्ञानका अभाव विवश्चित नहीं है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय और व्यवहार धर्ममें साध्य-साधकभाव धर्मका लक्षण वस्तुविज्ञान (द्रव्यानुयोग) की दृष्टिसे “वत्थुसहावो धम्मो' इस आगमवचनके अनुसार धर्म यद्यपि आत्माके स्वतःसिद्ध स्वभावका नाम है । परन्तु अध्यात्म (करणानुयोग और चरणानुयोग) की दृष्टिसे धर्म उसे कहते हैं जो जीवको संसार-दुःखसे छुड़ाकर उत्तम अर्थात् आत्मस्वातंत्र्यरूप मोक्ष-सुखमें पहुँचा देता है। आध्यात्मिक धर्मका विश्लेषण रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें आध्यात्मिक धर्मका विश्लेषण सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्रके रूपमें किया गया है, जिन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रके विरोधी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसारके कारण होते हैं । आध्यात्मिक धर्मका निश्चय और व्यवहार दो रूपोंमें विभाजन और उनमें साध्य-साधकभाव श्रद्धेय पं० दौलतरामजीने छहढालामें कहा है कि आत्माका हित सुख है । वह सुख आकुलताके अभावमें प्रकट होता है । आकूलताका अभाव मोक्षमें है। अतः जीवोंको मोक्षके मार्गमें प्रवृत्त होना चाहिए। मोक्षका मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप है। एवं वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो भागोंमें विभक्त हैं । जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र सत्यार्थ अर्थात् आत्माके शुद्धस्वभावभूत हैं उन्हें निश्चयमोक्षमार्ग कहते हैं व जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र निश्चयमोक्षमार्गके प्रकट होने में कारण हैं उन्हें व्यवहारमोक्षमार्ग कहते हैं । छहढालाके इस प्रतिपादनसे मोक्षमार्गका सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके रूपमें विश्लेषण उनकी निश्चय और व्यवहार दो भेदरूपता व निश्चय और व्यवहार दोनों मोक्षमार्गों में विद्यमान साध्य-साधक भाव इन सबका परिज्ञान हो जाता है । इसके अतिरिक्त पंचास्तिकायको गाथा १०५ की आचार्य जयसेन कृत टीकामें भी व्यवहारमोक्षमार्गको निश्चयमोक्षमार्गका कारण बतलाकर दोनों मोक्षमार्गोंमें साध्य-साधक भाव मान्य किया गया है । तथा गाथा १५९, १६० और १६१ की आचार्य अमतचन्द्रकृत टीकामें भी ऐसा ही बताया गया है। निश्चयधर्मकी व्याख्या करणानुयोगकी व्यवस्थाके अनुसार जीव अनादिकालसे मोहनीयकर्मसे बद्ध रहता आया है और उसके उदयमें उसकी स्वतःसिद्ध स्वभावभूत भाववतीशवितका शुद्ध स्वभावभूत परिणमनके विपरीत अशुद्ध विभावभूत परिणमन होता आया है । भाववतीशक्तिके इस अशुद्ध विभावरूप परिणमनकी समाप्ति करणानुयोगकी व्यवस्थाके अनुसार मोहनीयकर्म के यथास्थान यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम पूर्वक ही होती है। इस तरह जीवकी भाववतीशक्तिके अशुद्ध विभावभूत परिणमनके समाप्त हो जानेपर उसका जो शुद्ध स्वभावभूत परिणमन होता है, उसे ही निश्चयधर्म जानना चाहिए । इसके प्रकट होने की व्यवस्था निम्न प्रकार है १. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक २ । २. वही, श्लोक ३। ३. छहढाला, ३-१ । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ (क) सर्वप्रथम जीवमें दर्शमोहनीयकर्मकी यथासंभवरूप में विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिरूप तीन व चारित्रमोहनीयकर्म के प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कषायकी नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इन सात प्रकृतियोंका यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर उस जीवकी भाववतीशक्तिका चतुर्थंगुणस्थानके प्रथम समय में औपशमिक, क्षायिक या क्षायोपशमिक निश्चयसम्यग्दर्शनके रूपमें व निश्चयसम्यग्ज्ञान के रूपमें शुद्ध स्वभावभूत परिणमन प्रकट होता है । (ख) इसके पश्चात् जीवमें चारित्रमोहनीय कर्मके द्वितीय भेद अप्रत्याख्यानावरण कषायकी नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका क्षयोपशम होनेपर उस जीवकी भाववतीशक्तिका पंचगुणस्थानके प्रथम समय में देशविर ति निश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें शुद्ध स्वभावभूत परिणमन प्रकट होता है। (ग) इसके भी पश्चात् जीवमें चारित्रमोहनीयकर्मके तृतीय भेद प्रत्याख्यानावरण कषायकी नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका क्षयोपशम होने पर उस जीवको भाववतीशक्तिका सप्तमगुणस्थानके प्रथम समय में सर्वविरति निश्चय सम्यक्चारित्रके रूपमें शुद्ध स्वभावभूत परिणमन प्रकट होता 1 ऐसा सप्तमगुणस्थानवर्ती जीव अन्तर्मुहूर्त काल के अन्तरालसे सप्तमसे षष्ठ और षष्ठसे सप्तम इस तरह दोनों गुणस्थानोंमें यथायोग्य समय तक सतत झूलेकी तरह झूलता रहता है । (घ) यदि वह सप्तम गुणस्थानवर्ती जीव पहलेसे ही उक्त औपशमिक या क्षायिक निश्चयसम्यग्दर्शनको प्राप्त हो अथवा सप्तम गुणस्थानके कालमें ही वह उक्त औपशमिक या क्षायिक निश्चयसम्यग्दर्शनको प्राप्त हो जावे, तो वह तब करणलब्धि के आधारपर नवनोकषायोंके साथ चारित्रमोहनीयकर्मके द्वितीय भेद अप्रत्याख्यानावरण और तृतीय भेद प्रत्याख्यानावरण इन दोनों कषायोंकी क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका तथा उसके चतुर्थ भेद संज्वलन कषायकी क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका भी यथा, स्थान निश्चयसे उपशम या क्षय करता और उपशम होनेपर उसकी भाववतीशक्तिका एकादश गुणस्थानके प्रथम समय में औपशमिक, यथाख्यातनिश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें अथवा क्षय होनेपर उसकी भाववतीशक्तिका द्वादश गुणस्थानके प्रथम समय में क्षायिक यथाख्यात निश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें शुद्ध स्वभावभूत परि मन प्रकट होता है ।" व्यवहार धर्मक व्याख्या व्यवहारधर्मकी व्याख्या करनेसे पूर्व यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि नारकी, देव और नियंत्र इन तीनों प्रकारके जीवोंमें केवल अगृहीत मिथ्यात्व पाया जाता है, अतः इनमें व्यवहारधर्मका व्यवस्थितक्रमसे विवेचन करना संभव नहीं है । केवल मनुष्य ही ऐसा जीव है जिसमें अगृहीतमिथ्यात्व के साथ गृहीतमिथ्यात्व भी पाया जाता है । फलतः मनुष्यों में व्यवहारधर्मका व्यवस्थितक्रमसे विवेचन करना संभव हो जाता है | अतः यहाँ मनुष्यों की अपेक्षा व्यवहारधर्मका विवेचन किया जाता है । चरणानुयोगकी व्यवस्थाके अनुसार पापभूत अघाती कर्मोंके उदयमें अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि १. निश्चयमोक्षमार्गस्य परम्परया कारणभूतो व्यवहारमोक्षमार्गः । (क) निश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधकभावत्वात् । समय०, गा० १५२ की टीका (ख) निश्चयमोक्षमार्ग साधकभावेन व्यवहारमोक्षमार्गनिर्देशोऽयम् । वही, गा० १६० की टीका (ग) व्यवहारमोक्षमार्ग साध्यभावेन निश्चयमोक्षमार्गोपन्यासोऽयम् । वही, गा० १६१ की टीका Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ५३ मनुष्योंकी भाववतीशक्तिके हृदयके सहारेपर अतत्त्वश्रद्धानके रूपमें और मस्तिष्कके सहारेपर अतत्त्वज्ञानके रूप में मिथ्यापरिणमन होते रहते हैं तथा जब उनमें पुण्य भूत अघाती कमोंका उदय होता है तब अतत्त्वश्रद्धान और अतत्त्वज्ञानरूप परिणमनोंकी समाप्ति होनेपर उनकी उस भाववतीशक्तिके हृदयके सहारेपर तत्त्वश्रद्धानके रूपमें और मस्तिष्कके सहारेपर तत्त्वज्ञानके रूपमें सम्यक्परिणमन होने लगते हैं। भाववतीशक्तिके दोनों प्रकारके सम्यक्परिणमनों से तत्त्वश्रद्धानरूप परिणमन सम्यग्दर्शनके रूपमें व्यवहारधर्म कहलाता है और तत्त्वज्ञानरूप परिणमन सम्यग्ज्ञानके रूपमें व्यवहारधर्म कहलाता है। ___ चरणानुयोगकी व्यवस्थाके अनुसार भाववतीशक्ति के परिणमनस्वरूप उक्त अतत्त्वश्रद्धान और अतत्त्वज्ञानसे प्रभावित मिथ्यादष्टि मनुष्य अपनी क्रियावतीशक्तिके परिणमनस्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापभूत प्रवृत्तियाँ किया करते हैं और कदाचित् साथमें लौकिक स्वार्थकी पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ भी करते है। तथा जब वे भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप उक्त तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानसे प्रभावित होते हैं, तब वे अपनी क्रियावतीशक्तिके परिणमनस्वरूप उक्त संकल्पीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंको सर्वथा त्यागकर मानसिक, वाचनिक और कायिक आरम्भीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंके साथ कर्तव्यवश पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ भी करने लगते हैं। इतना ही नहीं, भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप उक्त तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानके आधारपर वे अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्य कदाचित् क्रियावतीशक्तिके परिणमनस्वरूप उक्त संकल्पीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंके सर्वथा त्यागपूर्वक उक्त आरंभीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंका भी एकदेश अथवा सर्वदेश त्याग करते हुए अनिवार्य आरम्भीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंके साथ पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ करते हैं। इस प्रकार अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्य भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानसे प्रभावित होकर अपनी क्रियावतीशक्तिके परिणमनस्वरूप संकल्पीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंको सर्वथा त्यागकर जो अपनी क्रियावतीशक्तिके परिणमनस्वरूप आरंभीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंके साथ पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ करते है, उन्हें नैतिक आचारके रूपमें व्यवहारधर्म कहा जाता है। तथा वे ही मनुष्य जब संकल्पीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंके सर्वथा त्यागपूर्वक आरंभीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंका एकदेश अथवा सर्वदेश त्याग करते हुए पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ करते हैं, तब उन्हें सम्यकचारित्रके रूपमें व्यवहारधर्म कहा जाता है। प्रसंगवश मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि अभव्य और भव्य मिथ्यादष्टि मनुष्योंकी भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप हृदयके सहारेपर होनेवाला अतत्त्वश्रद्धान व्यवहारमिथ्यादर्शन कहलाता है। और उनकी उस भाववतीशक्तिके ही परिणमनस्वरूप मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाला अतत्त्वज्ञान व्यवहारमिथ्याज्ञान कहलाता है । तथा मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान इन दोनोंसे प्रभावित उन मनुष्योंकी क्रियावतीशक्तिके परिणमनस्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पीपापभूत जो अशुभ प्रवृत्ति हुआ करती है वह व्यवहार मिथ्याचारित्र कहलाता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि उक्त प्रकारके व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानके विपरीत व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानसे प्रभावित होकर वे भव्य और अभव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्य संकल्पीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंका सर्वथा त्याग करते हुए यदि अशक्तिवश आरम्भी पापका अणुमात्र भी त्याग नहीं कर पाते हैं तो उनकी यह आरम्भी पापरूप अशुभ प्रवृत्ति व्यवहाररूप अविरति कहलाती है। ___ यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जिस प्रकार पूर्व में मोहनीयकर्मकी उन-उन प्रकृतियोंके यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशमपूर्वक होनेवाले भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप निश्चयसम्यकदर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान व देशविरति, सर्वविरति और यथाख्यातसम्यकचारित्रके रूपमें निश्चयधर्मका विवेचन किया Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं.० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ गया है उसी प्रकार यहाँ प्रथम गुणस्थानमें मोहनीयकर्मकी मिथ्यात्व और अनन्तानबन्धी कषायके उदयमें भाववतीशक्तिके परिण मनस्वरूप मिथ्यात्वभत निश्चयमिथ्यादर्शन, निश्चयमिथ्याज्ञान और निश्चयमिथ्याचारित्रके रूपमें, द्वितीय गणस्थानमें मोहनीयकर्मकी केवल अनन्तानुबन्धी कषायके उदयमें भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप सासादनसम्यक्त्वभूत निश्चयमिथ्यादर्शन, निश्चयमिथ्याज्ञान और निश्चयमिथ्याचारित्रके रूप में एवं तृतीय गुणस्थानमें मोहनीयककी सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयमें भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप सम्यग्मिथ्यात्वभत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रके रूपमें निश्चय अधर्मका भी विवेचन कर लेना चाहिए। यहाँ भी यह ध्यातव्य है कि चतुर्थगुणस्थानके जीवमें नव नोकषायोंके उदयके साथ अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषायोंके सामूहिक उदयमें जीवकी भाववतीशक्तिका जो परिणमन होता है उसे भाव-अविरति जानना चाहिए। इसे न तो भावमिथ्याचारित्र कह सकते हैं और न विरतिके रूपमें भावसम्यकचारित्र कह सकते हैं, क्योंकि भावमिथ्याचारित्र अनन्तानुबन्धी कषायके उदयमें होता है और विरतिके लिए कम-से-कम अप्रत्याख्यानावरण कषायका क्षयोपशम आवश्यक है । उपर्युक्त दोनों प्रकारके स्पष्टीकरणोंके साथ ही यहाँ निम्नलिखित कुछ विशेषताएँ भी ज्ञातव्य है : १. अभव्य जीवोंके केवल प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान हो होता है, जबकि भव्यजीवोंके प्रथम गुणस्थान-मिथ्यादृष्टिसे लेकर चतुर्दश अयोगकेवली गुणस्थानपर्यन्त सभी गुणस्थान होते है। २. निश्चयधर्मका विकास भव्य जीवोंमें ही होता है, अभव्य जीवोंमें नहीं होता । तथा भव्य जीवोंमें भी उस निश्चयधर्मका विकास चतुर्थगुणस्थानके प्रथम समयसे प्रारम्भ होता है, इसके पूर्व के गुणस्थानोंसे नहीं होता। ___३. जीवके चतुर्थगुणस्थानके प्रथम समयमें जो निश्चयधर्मका विकास होता है, वह उस जीवकी भाववतीशवितके परिणमनस्वरूप निश्चयसम्यग्दर्शन और निश्चयसम्यग्ज्ञानके रूपमें होता है। इसके पश्चात् जीवके पंचम गुणस्थानके प्रथम समयमें निश्चयधर्मका विकास उस जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप देशविरति-निश्चयसम्यकचारित्रके रूपमें होता है तथा इसके भी पश्चात् जीवके निश्चयधर्मका विकास सप्तमगुणस्थानके प्रथम समयमें उस जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप सर्वविरति-निश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें होता है और जीवमें उसका सद्भाव पूर्वोक्त प्रकार षष्ठ गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थान तक उत्तरोत्तर उत्कर्षके रूपमें विद्यमान रहता है। दशम गुणस्थानके आगे जीवके एकादश गुणस्थानके प्रथम समयमें निश्चयधर्मका विकास जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप औपशमिक, यथाख्यात-निश्चयसम्यक्चारित्रके रूप में होता है अथवा दशम गुणस्थानसे ही आगे जीवके द्वादश गुणस्थानके प्रथम समयमें निश्चयधर्मका विकास उस जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप क्षायिक-यथाख्यात-निश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें होता है तथा यह जीवके आगेके सभी गुणस्थानोंमें विद्यमान रहता है । ४. पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है कि पहला व्यवहारधर्म सम्यग्दर्शनके रूपमें जीवकी भाववतीशक्तिका हृदयके सहारेपर होनेवाला परिणमन है और दूसरा व्यवहारधर्म सम्यग्ज्ञानके रूपमें जीवकी भाववतीशक्तिका मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाला परिणमन है एवं तीसरा व्यवहारधर्म नैतिक आचार तथा देशविरति व सर्वविरतिरूप सम्यक्चारित्रके रूपमें मन, वचन और कायके सहारेपर होनेवाला जीवकी क्रियावतीशक्तिका परिणमन है। इस सभी प्रकारके व्यवहारधर्मका विकास प्रथमगुणस्थानमें सम्भव है और अभव्य व भव्य दोनों प्रकारके जीवोंमें हो सकता है। इतना अवश्य है कि उक्त सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानरूप तथा नैतिक Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त: ५५ आचाररूप व्यवहारधर्मका विकास प्रथम गुणस्थान में नियमसे होता है क्योंकि इस प्रकारके व्यवहारधर्मका विकास किये बिना अभव्य जीवमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चार लब्धियोंका तथा भव्य जीव इन लब्धियोंके साथ करणलब्धिका भी विकास नहीं हो सकता है । प्रथम गुणस्थान में देशविरति और सर्वविरति सम्यक् चारित्ररूप व्यवहारधर्मके विकसित होने का कोई नियम नहीं है, परन्तु देशविरति सम्यक् - चारित्ररूप व्यवहारधर्मका विकास, चतुर्थ गुणस्थानमें नियमसे होकर पंचम गुणस्थानमें भी नियमसे रहता है । एवं सर्वविरति-सम्यक्चारित्ररूप व्यवहारधर्मका पंचम गुणस्थान में नियमसे विकास होकर षष्ठसे दशम गुणस्थान तक उसका सद्भाव नियमसे रहता है । यहाँ इतना अवश्य ध्यातव्य है कि सप्तम गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थान तक उस व्यवहारधर्मका सद्भाव अंतरंग रूपमें ही रहा करता है । तथा द्वितीय और तृतीय गुणस्थानोंमें यथासंभव रूप में रहनेवाला व्यवहारधर्म भी अबुद्धिपूर्वक ही विद्यमान रहता है। एकादश गुणस्थानसे लेकर आगे के सभी गुणस्थानोंमें व्यवहारधर्मका सर्वथा अभाव रहता है । वहाँ केवल निश्चयधर्मका ही सद्भाव रहता है । जीवको मोक्ष की प्राप्ति निश्चयधर्मपूर्वक होती है प्रकृत में 'मोक्ष' शब्दका अर्थ जीव और शरीर के विद्यमान सहयोगका सर्वथा विच्छेद हो जाना है । जीव और शरीर के विद्यमान संयोगका सर्वथा विच्छेद चतुर्दश गुणस्थानमें तब होता है जब उस जीवके साथ बद्ध चार अघाती कर्मोंका सर्वथा क्षय हो जाता है । जीवको चतुर्दश गुणस्थानकी प्राप्ति तब होती हैं जब त्रयोदश गुणस्थान में कर्मास्रवमें कारणभूत जीवके योगका सर्वथा निरोध हो जाता है । जीवको त्रयोदश गुणस्थानकी प्राप्ति तब होती है जब जीवके साथ बद्ध ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घाती कर्मोंका द्वादश गुणस्थान में सर्वथा क्षय हो जाता है । जीवको द्वादश गुणस्थानकी प्राप्ति तब होती है जब जीवके साथ बद्ध मोहनीय कर्मप्रकृतियोंका पूर्व में यथासमय क्षय होते हुए दशम गुणस्थानके अन्त समय में शेष सूक्ष्म लोभप्रकृतिका भी क्षय हो जाता है । द्वादश गुणस्थानका अर्थ 'दशम गुणस्थानके अन्त समयमें मोहनीय कर्मका सर्वथा क्षय हो जानेपर जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मकी पूर्णता हो जाना है । इस विवेचनसे निर्णीत होता है कि जीवको मोक्षकी प्राप्ति निश्चयधर्मपूर्वक होती है । जीवको निश्चयधर्मकी प्राप्ति व्यवहारधर्मपूर्वक होती है। जीवके भाववतीशक्तिका निश्चयधर्मके रूपमें प्रारंभिक विकास चतुर्थं गुणस्थानके प्रथम समयमें होता है और उसका वह विकास पंचमादि गुणस्थानोंमें उत्तरोत्तर बृद्धिको प्राप्त होकर एकादश गुणस्थानके प्रथम औपशमिक यथाख्यात निश्चय सम्यक्चारित्र के रूपमें अथवा द्वादश गुणस्थानके प्रथम समयमें क्षायिक-यथाख्यात निश्चयसम्यक् चारित्रके रूपमें पूर्णताको प्राप्त होता है । निश्चयधर्मका यह विकास मोहनीय कर्मकी उन-उन प्रकृतियों के यथास्थान यथासम्भव रूपमें होनेवाले उपशम, क्षय या क्षयोपशमपूर्वक होता है । तथा मोहनीयकर्मकी प्रकृतियोंका यथायोग्य वह उपशम, क्षय या क्षयोपशम भव्य जीवमें आत्मोन्मुखरूप करणलब्धिका विकास होनेपर होता है व उसमें उस करणलब्धिका विकास क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियों के विकासपूर्वक होता है । एवं जीवमें इन लब्धियोंका विकास व्यवहारधर्मपूर्वक होता है । यह व्यवहारधर्म अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिरूप होता है । जीवको इसकी प्राप्ति तब होती है जब उस जीवमें भाववतीशक्तिके हृदयके सहारेपर होनेवाला तत्त्वश्रद्धानरूप व्यवहारसम्यग्दर्शन और मस्तिष्क के सहारेपर होनेवाला तत्त्वज्ञानरूप व्यवहारसम्यग्ज्ञानकी उपलब्धि हो जाती है । इसके विकासकी प्रक्रियाको पूर्वमें व्यवहार Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ धर्मकी व्याख्या में बतलाया जा चुका है। इस विवेचनसे यह निर्णीत होता है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्मकी उत्पत्तिमें कारण होता है । यहाँ यह ध्यातव्य है कि जीवको अपनी भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप निश्चयकी उत्पत्तिमें कारणभूत मोहनीयकर्मका यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम करनेके लिए इस व्यवहारधर्मके अन्तर्गत एकान्तमिथ्यात्वके विरुद्ध प्रशमभाव, विपरीतमिथ्यात्वके विरुद्ध संवेगभाव, विनयमिथ्यात्वके विरुद्ध अनुकम्पाभाव, संशयमिथ्यात्वके विरुद्ध आस्तिक्यभाव और अविवेकरूप अज्ञानमिथ्यात्वके विरुद्ध विवेकरूप सम्यग्ज्ञानभावको भी अपने में जागृत करनेकी आवश्यकता है । इसी प्रकार जीवको समस्त जीवोंके प्रति मित्रता (समानता) का भाव, गुणीजनोंके प्रति प्रमोदभाव, दुःखी जीवोंके प्रति सेवाभाव और विपरीत दृष्टि, वृत्ति और प्रवृत्ति वाले जीवोंके प्रति मध्यस्थता (तटस्थता) का भाव भी अपनानेकी आवश्यकता है। इस तरह सर्वांगीणताको प्राप्त व्यवहारधर्म उपर्युक्त प्रकार निश्चयधमकी उत्पत्तिमें साधक सिद्ध हो जाता है। - Cel Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय और व्यवहार शब्दोंका अर्थाख्यान सम्पूर्ण जैनागमको चार भागोंमें विभक्त किया गया है-१. प्रथमानुयोग (धर्मकथानुयोग), २. चरणानुयोग, ३. करणानुयोग ४. और द्रव्यानुयोग। प्रथमानुयोग वह है जिसमें अध्यात्मको लक्ष्यमें रखकर महापुरुषोंके जीवनचरित्रके आधारपर पाप, पुण्य और धर्मका दिग्दर्शन कराया गया है। चरणानुयोग वह है जिसमें अध्यात्मको लक्ष्यमें रखकर पाप, पुण्य और धर्मकी व्यवस्थाओंका निर्देश किया गया है। करणानुयोग वह है जिसमें जीवोंकी पाप, पुण्य और धर्ममय परिणतियों तथा उनके कारणोंका विश्लेषण किया गया है और द्रव्यानुयोग वह है जिसमें विश्व की सम्पूर्ण वस्तुओंके पृथक-पृथक् अस्तित्वको बतलाने वाले स्वतःसिद्ध स्वरूप एवं उनके परिणमनोंका निर्धारण किया गया है। इनमेंसे चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोगमें आवश्यकतानसार विविध अर्थों में निश्चय और व्यवहार शब्दोंका बहुलताके साथ प्रयोग हुआ है, इसलिये इन दोनों शब्दोंका कहाँ क्या अर्थ ग्राह्य है, इस विषयपर यहाँ विचार किया जा रहा है । निश्चय और व्यवहार शब्दोंका व्युत्पत्यर्थ निश्चय और व्यवहार दोनों शब्दोंमेंसे निश्चय शब्द तो 'निस्' उपसर्गपूर्वक चयनार्थक 'चिञ्' धातुसे 'अप्' प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है और व्यवहार शब्द 'वि' तथा 'अव' उपसर्गपूर्वक 'हन्' धातुसे 'ण' प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है । इस प्रकार इन व्युत्पत्तियोंके अनुसार वस्तुमें संभवनीय अभेदाश्रित व भेदाश्रित तथा स्वाश्रित व पराश्रित परस्परविरुद्ध धर्मयुगलोंमें एक-एक धर्म तो निश्चय शब्दका तथा एक-एक व्यवहार शब्दका अर्थ समझना चाहिये । उक्त व्युत्पत्तियोंके अनुसार वस्तुमें संभवनीय अभेदाश्रित व भेदाश्रित तथा स्वाश्रित और पराश्रित परस्परविरुद्ध धर्मोके वे युगल निम्न प्रकार संग्रहीत किये जा सकते हैं अखण्डरूपता-खण्डरूपता, एकरूपता-नानारूपता, तद्रूपता-अतद्रूपता, भावरूपता-अभावरूपता, नित्यरूपता-अनित्यरूपता, स्वाश्रयरूपता-पराश्रयरूपता, संग्रहरूपता-विस्ताररूपता, सामान्यरूपता-विशेषरूपता, अन्वयरूपता-व्यतिरेकरूपता द्रव्यरूपता-पर्यायरूपता, गुणरूपता-पर्यायरूपता, स्वभावरूपता-विभावरूपता, उद्देश्यरूपताविधेयरूपता, साध्यरूपता-साधनरूपता, कार्यरूपता-कारणरूपता, उपादानरूपता-निमित्तरूपता, साक्षाद्रूपतापरम्परारूपता आदि । इसमें पूर्व-पूर्व धर्म तो अभेदाश्रित या स्वाश्रित होनेके कारण वस्तुका निश्चयधर्म और उत्तर-उत्तर धर्म भेदाश्रित या पराश्रित होने के कारण वस्तुका व्यवहारधर्म समझना चाहिये। यहाँपर सर्वप्रथम हम यह विवेचन करने जा रहे हैं कि चरणानुयोगमें प्रयुक्त निश्चय और व्यवहार शब्दोंका क्या-क्या अर्थ आगममें ग्रहण किया गया है ? चरणानुयोगमें निश्चय और व्यवहार शब्दोंका अर्थ जैन संस्कृतिके अध्यात्मका प्रधान और अन्तिम उद्देश्य जीवों द्वारा सांसारिक बन्धनोंसे छुटकारा पाकर आत्मस्वातंत्र्य प्राप्त कर लेना ही बतलाया गया है। जीवों द्वारा सांसारिक बन्धनोंसे छुटकारा पा लेनेका नाम मोक्ष है और इस मोक्षको प्राप्त करनेका जो उपाय है वह मोक्षमार्ग है। जैनागममें मोक्षमार्गको सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रके रूपमें प्रतिपादित किया गया है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान १. बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः । तत्त्वार्थसूत्र १०८२ । २. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । तत्त्वार्थसूत्र १।१ । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ और सम्यक् चारित्रको आगममें निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो-दो रूप बतलाया गया है ।' इस तरह मोक्षमार्ग वहाँपर दो भेदरूप बतला दिया गया है--एक निश्चयमोक्ष मार्ग और दूसरा व्यवहारमोक्ष-मार्ग । २ साथ ही इतना और स्पष्ट कर दिया गया है कि निश्चयमोक्ष मार्ग तो मोक्षका साक्षात् कारण है और व्यवहारमोक्ष मार्ग परम्परया, अर्थात् निश्चयमोक्षमार्गका कारण होकर मोक्षका कारण है । 3 श्रद्धेय पण्डित दौलतरामजीने छहढालामें तीसरी ढालके प्रारम्भमें इस विषयको बहुत ही सुन्दरताके साथ सारगर्भित दो पद्यों द्वारा स्पष्ट रूपमें प्रतिपादित किया है । वे पद्य ये हैं " आतम को हित हैं सुख, सो सुख आकुलता बिन आकुलता शिव माँहि न तातें शिवमग लाग्यौ सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण शिवमग सो दुविध जो सत्यारथ रूप सो निश्चय, पर द्रव्यन तें भिन्न, आप में कारण सो ववहारो ॥ १ ॥ रुचि, सम्यक्त्व भला है । की जानपनी, सो आप रूप आप रूप में लीन रहे थिर अब ववहार मोखमंग सुनिये, हेतु नियत को होई ॥२॥ सम्यग्ज्ञान कला है ॥ सम्यक् चारित सोई । प्रथम पद्य पण्डितजीने कहा है कि आत्माका हित सुख है, वह सुख आकुलताके अभाव में उत्पन्न होता है और आकुलताका अभाव मोक्षमें है, अतः जीवोंको मोक्षके मार्ग में प्रवृत्त होना चाहिये । मोक्षका मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप है । ये तीनों निश्चयरूप भी होते हैं और व्यवहाररूप भी होते हैं अतः मोक्षमार्ग भी निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो प्रकारका हो जाता है । इनमेंसे सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप निश्चयमोक्षमार्ग तो मोक्षका सीधा कारण है तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप व्यवहारमोक्षमार्ग इस निश्चयमोक्षमार्गका कारण होकर मोक्षका कारण है अर्थात् वह परम्परया मोक्षका कारण है । कहिये । चहिये ।। विचारौ । द्वितीय पद्य में पण्डितजीने कहा है कि समस्त चेतन-अचेतन पर द्रव्योंकी ओरसे मुड़कर अपने आत्मस्वरूपकी ओर जीवकी अभिरुचि ( उन्मुखता ) होना निश्चयसम्यग्दर्शन है, उसको अपने आत्मस्वरूपका ज्ञान हो जाना निश्चयसम्यग्ज्ञान है और बुद्धिपूर्वक तथा अबुद्धिपूर्वक होनेवाली कषायजन्य पाप और पुण्यरूप समस्त प्रकारकी प्रवृत्तियोंसे निवृत्ति पाकर उसका अपने आत्मस्वरूपमें स्थिर हो लीन हो जाना निश्चयसम्यक्चारित्र है । १. पंचास्तिकाय - गाथा १०६ । २. पंचास्तिकाय में व्यवहारमोक्ष मार्ग, गाथा १६० । पंचास्तिकायमें निश्चयमोक्ष मार्ग, गाथा १६१ । निश्चयव्यवहारमोक्षकारणे सति मोक्षकार्य संभवति । - पंचास्तिकाय, गाथा १६० की टीकामें आचार्यं जयसेन | ३. निश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधनभावत्वात् । - पंचास्तिकाय, गाथा १६० की टीकामें आचार्य अमृतचन्द्र । पंचास्तिकाय, गाथा १६२ की टीकामें आचार्य अमृतचन्द्र । पंचास्तिकाय गाथा १६३ की टीकामें आचार्य अमृतचन्द्र । साधको व्यवहारमोक्षमार्गः साध्यो निश्चयमोक्षमार्गः । - परमात्मप्रकाश, टीका, पृष्ठ १४२ एवं निश्चयव्यवहाराभ्यां साध्यगाधनभावेन तीर्थ गुरुदेवतास्वरूपं ज्ञातव्यम् । - - परमात्मप्रकाश, श्लोक ७ की टीका । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ५९ द्वितीय पद्य के अन्तिम चरणमें श्रद्धेय पण्डितजोने कहा है कि आगे छहढालामें निश्चय-सम्यग्दर्शनादि रूप उक्त निश्चयमोक्षमार्गके कारणभूत व्यवहारसम्यग्दर्शनादिरूप व्यवहार मोक्षमार्गका विवेचन किया जायगा। इस तरह छहढालामें किये गये विवेचनके अनुसार व्यवहारमोक्षमार्गरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रका पृथक-पृथक जो स्वरूप निर्धारित होता है उसका कथन यहाँपर किया जाता है। व्यवहारसम्यग्दर्शनका स्वरूप छहढालामें जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व कहे गये हैं और कहा गया है कि इनके प्रति जीवोंके अन्तःकरणमें श्रद्धा अर्थात् इनके स्वरूपादिको वास्तविकताके सम्बन्धमें ज्ञानकी दृढ़ता यानी आस्तिक्यभाव जागत हो जानेका नाम व्यवहारसम्यग्दर्शन है। इसके आधारपर ही जीवोंको निश्चय-सम्यग्दर्शनकी उपलब्धि होती है। __ आचार्य उमास्वामीने तत्त्वार्थसूत्रमें और स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें सम्यग्दर्शनका जो स्वरूप बतलाया है उसे व्यवहारसम्यग्दर्शनका ही स्वरूप समझना चाहिये। आचार्य उमास्वामीके तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार उपर्युक्त सात तत्वोंके श्रद्धानका नाम सम्यग्दर्शन है।' और स्वामी समन्तभद्रके रत्नकरण्डकश्रावकाचारके अनुसार परमार्थ अर्थात् वीतरागताके आदर्श देवों, परमार्थ अर्थात् वीतरागताके पोषक शास्त्रों और परमार्थ अर्थात् वीतरागताके मार्ग में प्रवृत्त गुरुओंके प्रति जीवोंके अन्तःकरणमें श्रद्धान (भक्ति या आस्था) का जागरण हो जाना सम्यग्दर्शन है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र और रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें निबद्ध सम्यग्दर्शनके उक्त लक्षणोंमें परस्पर भेद दिखाई देता है। परन्तु तत्त्वतः उनमें भेद नहीं है, क्योंकि स्वामी समन्तभद्र द्वारा रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें प्रतिपादित लक्षणसे भी निष्कर्षके रूपमें जीवोंके अन्तःकरणमें उक्त सात तत्त्वोंके प्रति आस्तिक्य भावकी जागति हो जाना ही सम्यग्दर्शनका स्वरूप निश्चित होता है । व्यवहारसम्यग्ज्ञानका स्वरूप वीतरागताके पोषक अथवा सात तत्त्वोंके यथावस्थित स्वरूपके प्रतिपादक आगमका श्रवण, पठन, पाठन, अभ्यास, चिन्तन, मनन और उपदेश यह सब व्यवहारसम्यग्ज्ञान है। इस प्रकारके सम्यग्ज्ञानसे जीवोंको समस्त वस्तुओंके और विशेषकर आत्माके स्वतःसिद्ध स्वरूपका बोध होता है। जैसे आत्माका स्वतःसिद्ध स्वरूप ज्ञायकपना अर्थात् समस्त पदार्थोंको देखने-जाननेकी शक्ति रूप है। इसके आधारपर ही आत्माका अनादि, अनिधन, स्वाश्रित और अखण्ड (स्वरूपके साथ तादात्म्यको लिए हए) स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध होता. है । आत्माके इस स्वरूपको समझनेके लिये उपर्यक्त प्रकारके आगमका श्रवण, पठन, पाठन, अभ्यास, चिन्तन, मनन और उपदेश सहायक होता है। विचार कर देखा जाय तो सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेसे पूर्व ही जीवोंको इस प्रकारके सम्यक् (वीतरागताके पोषक) आगमज्ञानकी संप्राप्ति आवश्यक है। इसलिये यद्यपि मोक्षमार्गमें सम्यग्दर्शनके पूर्व ही सम्यग्ज्ञानको स्थान मिलना चाहिये, परन्तु वहाँ इसको जो सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्रके मध्य स्थान दिया गया है इसका एक कारण तो यह है कि जीवको सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जानेपर ही उक्त प्रकारके ज्ञानका सम्यक्पना १. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । जीवाजीवासवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । -तत्त्वार्थसूत्र १-२, १-४ । २. श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥ ४ ॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ (सार्थकत्व) माना जा सकता है और दूसरा कारण यह है कि उक्त ज्ञानकी उपयोगिता मध्यदीपकन्यायसे सम्यग्दर्शनकी तरह सम्यक्चारित्रपर आरूढ़ होनेके लिये भी आवश्यक है । व्यवहारसम्यक्चारित्रका स्वरूप बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक होने वाली समस्त कषायजन्य पाप और पुण्यमय प्रवृत्तियोंसे निवृत्ति पाकर अपने आत्मस्वरूपमें लीन होने रूप निश्चयसम्यकचारित्रकी प्राप्तिके लिये यथाशक्ति अणुव्रत, महाव्रत, समिति, गुप्ति, धर्म और तप आदि क्रियाओंमें जीवकी प्रवृत्ति होना व्यवहारसम्यक्चारित्र है। निश्चयसम्यकचारित्रका अपर नाम यथाख्यातचारित्र है। इसे वीतरागचारित्र और करणानुयोगकी दृष्टिमें औपशमिक तथा क्षायिक चारित्र भी कहा जाता है। इनकी प्राप्ति जीवोंको उपशमश्रेणी चढ़कर ११वें गुणस्थानमें पहुँचनेपर औपशमिक चारित्रके रूपमें अथवा क्षपकश्रेणी चढ़कर १२वें गुणस्थानमें पहुँचने पर क्षायिक चारित्रके रूपमें होती है। परन्तु ११वें गुणस्थानके औपशमिक चारित्र और १२वें गुणस्थानके क्षायिक चारित्रमें इतना अन्तर है कि उपशमश्रेणी चढ़कर ११वें गुणस्थानमें पहुँचने वाला जीव अन्तर्मुहर्तके अल्पकालमें ही पतनकी ओर मुड़ जाता है। अतः जहाँ उसका औपशमिक चारित्र तत्काल (अन्तर्मुहुर्तमे) समाप्त हो जाता है वहाँ क्षपकश्रेणी चढ़कर १२वें गणस्थानमें पहुँचने वाले जीवका क्षायिक चारित्र स्थायी रहता है और वह जीव पतनकी ओर न मुड़ कर अन्तर्मुहूर्तके अल्पकालमें ही १२वें गुणस्थानसे १३३ गुणस्थान में पहुँच कर सर्वज्ञताको प्राप्त कर लेता है। इसी निश्चयचारित्रकी प्राप्तिके लिये चतुर्थ गुणस्थानका अविरतसम्यग्दृष्टि जीव पाँचवें गुणस्थानमें अणुव्रत धारण करता है तथा और भी आगे बढ़ कर छठे गुणस्थान में महाव्रत भी धारण करता है। इतना ही नहीं, घोर तपश्चरण करके आगे बढ़ता हुआ वह जीव सातवें गुणस्थानमें शुद्धोपयोगकी भूमिकाको प्राप्त हो कर आत्मपरिणामोंकी उत्तरोत्तर बढ़ती हुई यथायोग्य विशुद्धिके आधारपर उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी माड़ता है। इस तरह कहना चाहिये कि जब तक उस जीवको उपर्युक्त निश्चयसम्यक्चारित्रकी प्राप्ति नहीं हो जाती है तब तक वह पाँचवें और छठे गुणस्थानोंमें तो बुद्धिपूर्वक और सातवेंसे लेकर १०वें तकके गुणस्थानोंमें अबुद्धिपूर्वक उपर्युक्त व्यवहारचारित्रकी पालनामें ही लगा रहता है। इस व्यवहारचारित्रका भी अपर नाम सरागचारित्र और करणानुयोगकी दृष्टिमें क्षायोपशमिक चारित्र है। यद्यपि अणुव्रत और महाव्रत तथा समिति, गुप्ति, धर्म एवं तपश्चरण आदि क्रियाएँ पूर्वोक्त सम्यग्दर्शनसे रहित कोई-कोई मिथ्यादष्टि जीव भी करने लगते हैं। इतना ही नहीं, इन क्रियाओंको संलग्नताके साथ करनेसे वे यथासंभव स्वर्गमें जन्म धारण करके नवें अवेयक तक भी पहुँच जाते हैं, परन्तु यह बात ध्यानमें रखने योग्य है कि इन क्रियाओंकी निश्चयसम्यक्चरित्रकी प्राप्तिपूर्वक मोक्षप्राप्तिरूप सार्थकता सम्यग्दर्शनके आधार पर ही हुआ करती है, अन्यथा नहीं, क्योंकि जीव जब तक मिथ्यादृष्टि बना रहता है तब तक उसको अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायोंका क्षयोपशम होना असंभव है जबकि अणुव्रत और महाव्रत आदिरूप व्यवहारसम्यक्चारित्र यथायोग्य इन कषायोंका आगममें बतलायी गयी प्रक्रियाके अनुसार क्षयोपशम होनेपर ही उत्पन्न होता है। " इस विवेचनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि चरणानुयोगमें जो सम्यग्दर्शनादि रूप निश्चय और १. प्रवचनसार, गाथा ७ । २. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ३०, ३१ । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ /धर्म और सिद्धान्त : ६१ व्यवहारके भेदसे दो प्रकारके मोक्षमार्गका कथन मिलता है उसका आशय निश्चयमोक्षमार्गको तो मोक्षका साक्षात् कारण बतलाना है तथा व्यवहारमोक्षमार्गको मोक्षका परंपरया अर्थात् निश्चयमोक्षमार्गका कारण होकर मोक्षका कारण बतलाना है। विचार कर देखा जाय तो यह आशय 'मोक्षमार्ग' शब्दके साथ लगे हुए निश्चय और व्यवहार शब्दोंसे ही ध्वनित होता है। इसी प्रकार निश्चयमोक्षमार्गस्वरूप निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यकचारित्रको तो कार्यरूप तथा व्यवहारमोक्षमार्गस्वरूप व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यकचारित्रको उस निश्चयमोक्षमार्गस्वरूप सम्यग्दर्शनादिका कारणरूप बतलाना भी उसीका आशय है। यहाँपर भी यदि विचार करके देखा जाय तो यह आशय भी सम्यग्दर्शन आदि शब्दोंके साथ लगे हुए निश्चय और व्यवहार शब्दोंसे ही ध्वनित होता है। इस तरह ज्ञात होता है कि चरणानुयोगके प्रकृत प्रकरणमें मोक्षमार्ग शब्दके साथ लगे हुए निश्चय और व्यवहार शब्दोंका क्रमसे कारण की साक्षाद्रूपता और परंपरारूपता ही अर्थ होता है तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र शब्दोंके साथ लगे हुए निश्चय और व्यवहार शब्दोंका क्रमसे निश्चयरूप और व्यवहाररूप सम्यग्दर्शनादिकको कार्यरूपता और कारणरूपता ही अर्थ होता है। इस तरह यह विवेचन हमें इस निष्कर्षपर पहुँचा देता है कि मोक्षप्राप्तिके लिये जीवको मोक्षके साक्षात कारणभूत निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यक्चारित्रकी तथा परंपरया कारणभूत व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यक्चारित्रकी अनिवार्य आवश्यकता है। ऐसी स्थितिमें जो व्यक्ति निश्चयमोक्षमार्गरूप निश्चयसम्यग्दर्शनादिककी प्राप्तिके बिना केवल व्यवहारमोक्षमार्गरूप व्यवहार सम्यग्दर्शनादिकसे ही मोक्षप्राप्ति कर लेना चाहते हैं, वे गलती पर हैं । कारण कि उपर्युक्त विवेचनके अनुसार उन्हें अपने मोक्षप्राप्ति रूप उद्देश्यमें सफलता मिलना असंभव है। इसी तरह जो व्यक्ति ऐसा कहते हैं कि “जब निश्चयमोक्षमार्ग के बिना मोक्षकी प्राप्ति नहीं ह सकती है तो निश्चयमोक्षमार्गकी प्राप्तिका ही जीवको प्रयत्न करना चाहिये, व्यवहार मोक्षमार्गके ऊपर ध्यान देनेको कुछ भी आवश्यकता नहीं है", तो ये व्यक्ति भी गलतीपर है, क्योंकि ऊपरके विवेचनसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जीवको व्यवहारमोक्षमार्गपर आरूढ़ हुए बिना निश्चयमोक्षमार्गको प्राप्ति होना असंभव है। यह बात पूर्वमें ही स्पष्ट की जा चुकी है कि मोक्षमार्ग के अंगभूत निश्चयसम्यक्चारित्रकी प्राप्ति जीवकी औपशमिकरूपमें तो उपशमश्रेणी माड़ कर ११वें गुणस्थानमें पहँचनेपर ही होती है और क्षायिकरूपमें क्षपकश्रेणी माड़ कर १२वें गुणस्थानमें पहुँचनेपर ही होती है। इस प्रकार कहना चाहिये कि जब तक जीव उपशम या क्षपक श्रेणी माड़कर ११वें अथवा १२वें गुणस्थानमें नहीं पहुँच जाता है तब तक अर्थात् १०३ गुणस्थान तक उसके व्यवहारसम्यक्चारित्र, जिसे सरागचारित्र या करणानुयोगकी दृष्टिसे क्षायोपशमिकचारित्र कहा जाता है, ही रहा करता है। इससे यह मान्यता खण्डित हो जाती है कि "व्यवहारसम्यक्चारित्रको धारण किये बिना ही निश्चयसम्यक्चारित्र की उपलब्धि जीवको संभव है", कारण कि अविरतसम्यग्दृष्टि जीव ययायोग्य गुणस्थानक्रमसे बढ़ता हुआ ही ११वें या १२वें गुणस्थानमें पहुंच कर निश्चयसम्यक्चारित्र को उपलब्ध कर सकता है और यह बात स्पष्ट की जा चुकी है कि १०वें गुणस्थान तक व्यवहारसम्यकचारित्र ही सरागचारित्र या यों कहिये कि क्षायोपशमिकचारित्र के रूप में रहा करता है। उपर्यक्त कथनसे एक यह मान्यता भी खण्डित हो जाती है कि "जिस जीवको निश्चयसम्यकचारित्रकी प्राप्ति हो जाती है उसके व्यवहारचारित्र हो ही जाता है।" कारण कि पूर्वोक्त प्रकारसे व्यवहारसम्यक्चारित्रका अभाव हो जाने पर ही निश्चयसम्यफ्चारित्रकी प्राप्ति जीवको होती है। क्या कोई व्यक्ति इस बातको स्वीकार करेगा कि क्षायोपशमिकचारित्ररूप सरागचारित्र या व्यवहारचारित्रका सद्भाव रहते हुए भी Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ rtan औपशमिक या क्षायिकरूप वीतरागचारित्र, यथाख्यातचारित्र या निश्चयचारित्र रह सकता है ? अर्थात् कोई भी व्यक्ति इस बातको स्वीकार नहीं करेगा और यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्रने समयसार गाथा ३३५ की टीकामें व्यवहाराचार सूत्रका' उद्धरण देकर व्यवहारसम्यक् चारित्रको तब तक अमृतकुम्भ कहा है जब तक जीवको निश्चयसम्यक् चारित्रकी प्राप्ति नहीं हो जाती है और भगवान कुन्दकुन्दने उसी व्यवहारसम्यक्चारित्रको तत्र विश्वकुम्भकी उपमा दे दी है जब जीवको निश्चयसम्यक् चारित्रकी उपलब्धि हो जाती है । इस तरह यह बात निर्णीत हो जाती है कि जब तक जीवको निश्चयसम्यक् चारित्रकी प्राप्ति नहीं हो • जाती है तब तक मोक्षप्राप्तिके उद्देश्यसे परंपरया मोक्षके कारणभूत व्यवहारसम्यक्चारित्रकी नियमसे उपयोगिता है। लेकिन तभी तक व्यवहारसम्यक् चारित्रकी उपयोगिता है जब तक जीवको निश्चयसम्यक् चारित्रकी प्राप्ति नहीं हो जाती है, आगे नहीं । अब आगे इस बात पर विचार किया जाता है कि आगम में निश्चयमोक्षमार्गको जो भूतार्थ, सद्भूत, वास्तविक या सत्यार्थ आदि नामोंसे पुकारा जाता है और व्यवहारमोक्षमार्गको जो अभूतार्थं, असद्भूत, अवास्तविक या असत्यार्थ आदि नामोंसे पुकारा जाता है, तो इसमें आगमका अभिप्राय क्या है ? आगम में निश्चयमोक्षमार्गको जो भूतार्थ आदि नामोंसे पुकारा जाता है इसमें आगमका अभिप्राय इतना ही लेना चाहिये कि निश्चय मोक्षमार्गकी इससे साक्षात् कारणताका बोध हो जाता है और चूँकि मोक्षकी साक्षात् कारणताका व्यवहारमोक्षमार्ग में अभाव पाया जाता है, कारण कि उसमें तो परंपरयाही कारणता पायी जाती है । अतः उसे अभूतार्थ आदि नामोंसे पुकारा जाता है । लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं लेना चाहिये कि " व्यवहारमोक्षमार्गकी मोक्षकी प्राप्तिमें कुछ भी उपयोगिता नहीं है, वह तो वहाँ पर सर्वथा अर्कि - चित्कर ही हैं", कारण कि पूर्वोक्त प्रकारसे व्यवहार मोक्षमार्ग मोक्षप्राप्ति में परंपरया कारण नियमसे होता है । इस तरह व्यवहारमोक्षमार्ग मोक्षप्राप्तिकी साक्षात् कारणताका अभाव रहनेसे जहाँ अभूतार्थता आदि धर्म सिद्ध होते हैं वहाँ उसमें मोक्षप्राप्तिकी परंपरया कारणताका सद्भाव रहने से भूतार्थता आदि धर्म भी सिद्ध होते हैं । इस तरह कहना चाहिये कि निश्चयमोक्षमार्ग तो सर्वथा भूतार्थं आदि है क्योंकि उसमें मोक्षकी साक्षात् कारणता विद्यमान है और व्यवहारमोक्षमार्ग कथंचित् भूतार्थ आदि हैं क्योंकि उसमें मोक्षकी परंपरया कारणता विद्यमान है और कथंचित् अभूतार्थ आदि भी हैं क्योंकि उसमें मोक्षकी साक्षात् कारणताका अभाव है । इस तरह इसे सर्वथा अभूतार्थं तो नहीं माना जा सकता है, कारण कि जब पूर्वोक्त प्रकारसे व्यवहारसम्यक्चारित्रका सद्भाव १०वें गुणस्थान तक मानना अनिवार्य है, ११वें और १२वें गुणस्थानमें ही निश्चयसम्यक् चारित्रकी उपलब्धि जीवको होती है तो इसे मोक्षका सर्वथा अकारण कैसे माना जा सकता है, जिससे कि इसे सर्वथा अभूतार्थं आदि माना जा सके ? इस कथनका तात्पर्य यह है कि मोक्षप्राप्तिके साक्षात् कारणभूत निश्चयमोक्षमार्गकी प्राप्ति किसी भी जीवको व्यवहारमोक्षमार्गको अपनाये बिना संभव नहीं है । अर्थात् निश्चयमोक्षमार्गकी प्राप्ति के लिये प्रत्येक जीवको हर हालत में व्यवहारमोक्षमार्ग को अपनाना ही होगा । इतना स्पष्टीकरण हो जानेके बाद जो व्यक्ति व्यवहारमोक्षमार्गको संसारका कारण मानते हैं वे बहुत १. अपडिकमणं अपरिसरणं अप्पडिहारो अधारणा चेव । अणियत्ती य अणिदाऽगरुहाऽसोही य विसकुंभो ॥१॥ पडिकमणं परिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य | जिंदा गरुहा सोही अट्ठविहो अमयकुंभो दु ॥ २ ॥ -व्यवहाराचारसूत्र २. समयसार, गाथा, ३०६-३०७ । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ६३ भारी भूल करते हैं । कारण कि संसारके मुख्य कारण तो मोहनीय कर्मके उदयसे होने वाले मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ही हैं तथा व्यवहार अर्थात् क्षायोपशमिक मोक्षमार्ग में देशघाती प्रकृतियोंका उदय विद्यमान रहता है वह यद्यपि संसारका कारण होता है लेकिन उसमें ( क्षायोपशमिक मोक्षमार्गमें) जितना अंश यथाविधि उपशम या क्षयके रूपमें सर्वघाती कर्मके उदयाभावरूप रहा करता है वह कभी संसारका कारण नहीं होता हैं ।" यही कारण है कि देशघाती प्रकृतिके प्रभाव से ऐसा जीव मर कर उत्तम गतिमें ही जन्म लिया करता है और परंपरया उस देशघाती प्रकृतिके प्रभावको समाप्त करके मोक्ष भी प्राप्त कर लेता है । 3 निश्चयमोक्षमार्गकी सर्वथा भूतार्थता और व्यवहार मोक्षमार्गकी कथंचित् भूतार्थता और कथंचित् अभूतार्थताको सिद्धिमें एक तर्क यह भी है कि निश्चयमोक्षमार्ग सर्वथा बन्धका अकारण है जबकि व्यवहारमोक्षमार्गं पूर्वोक्त प्रकारसे कथंचित् बन्धका अकारण है और कथंचित् बन्धका कारण भी है । अतः मुक्तिका सर्वथा कारण होनेसे निश्चयमोक्षमार्ग को सर्वथा भूतार्थं आदि कहना उचित है और कथंचित् बन्धका कारण तथा कथंचित् बन्धका अकारण होनेसे जब व्यवहारमोक्षमार्ग में कथंचित् संसारकी कारणता और कथंचित् मुक्तिकी कारणता सिद्ध हो जाती है तो एक प्रकारसे उसे मुक्तिकी कथंचित् अकारणता के आधारपर कथंचित् वास्तविक या अभूतार्थं आदि मानना तथा मुक्तिको कथंचित् कारणता के आधार पर कथंचित् वास्तविक या भूतार्थं आदि मानना ही उचित है । उसे सर्वथा अभूतार्थं मानना तो बिलकुल अनुचित है, क्योंकि सर्वथा अभूतार्थता तो संसारके सर्वथा कारणभूत या मोक्षके सर्वथा अकारणभूत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रमें सिद्ध होती है । यदि व्यवहार अर्थात् क्षायोपशमिक मोक्षमार्ग में सर्वथा अभूतार्थता स्वीकार की जायगी तो फिर उसका मिथ्यादर्शनादिकी अपेक्षा भेद ही क्या रह जायेगा ? अर्थात् कुछ भेद नहीं रह जायगा । करणानुयोग में निश्चय और व्यवहार शब्दोंका अर्थ इस लेखके आरम्भमें हम कह आये हैं कि करणानुयोग वह है जिसमें जीवोंकी पाप, पुण्य और धर्ममय परिणतियों तथा उनके कारणोंका विश्लेषण किया गया है और आगे चल कर एक स्थान पर हम यह भी कह आये हैं कि आत्माका स्वभाव ज्ञायकपना अर्थात् विश्वके समस्त पदार्थो को देखने-जानने की शक्ति रूप है । प्रकृतमें जो कुछ विवेचन किया गया है वह सब इसके आधार पर ही किया गया है । उपर्युक्त प्रकार ज्ञायकपना आत्माका स्वतः सिद्ध स्वभाव है । इसलिये इस आधार पर एक तो आत्माका स्वतंत्र और अनादि-निधन अस्तित्व सिद्ध होता है, दूसरे, जिस प्रकार आकाश अपने स्वतः सिद्ध अवगाहक स्वभावके आधार पर विश्वकी सम्पूर्ण वस्तुओंको अपने उदरमें एक साथ हमेशा समाये हुए रह रहा है उसी प्रकार आत्माको भी अपने स्वतः सिद्ध ज्ञायक स्वभावके आधार पर विश्वकी संपूर्ण वस्तुओंको एक साथ हमेशा देखते-जानते रहना चाहिये, परन्तु जो जीव अनादिकालसे संसार - परिभ्रमण करते हुए अभी भी इसी चक्रमें फँसे हुए हैं उन्होंने अनादिकालसे अभी तक न तो कभी विश्वकी संपूर्ण वस्तुओंको एक साथ देखा जाना है और न वे अभी भी उन्हें एक साथ देख जान पा रहे हैं । इतना ही नहीं, इन संसारी जीवोंमें एक तो तरतमभावसे ज्ञानकी मात्रा अल्प ही पायी जाती है। दूसरे, जितनी मात्रामें इनमें ज्ञान पाया जाता है वह भी इन्द्रियादिक अन्य साधनोंकी अधीनतामें ही हुआ करता है । एक बात और है कि ये संसारी जीव पदार्थोंको देखने-जानने के १. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, श्लोक २१२, २१३, २१४ । २. प्रवचनसार, गाथा, ११-१२ । ३. पुरुषार्थं सिद्धघुपाय, श्लोक २९ । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ पश्चात् उन जाने हुए पदार्थोंमें इष्टपन या अनिष्टपनकी कल्पनारूप मोह किया करते हैं और तब वे इष्ट कल्पनाके विषयभूत पदार्थोंमें प्रीतिरूप राग तथा अनिष्ट कल्पनाके विषयभूत पदार्थोंमें अप्रीति (घृणा) रूप द्वेष सतत किया करते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि उन्हें सतत इष्ट कल्पनाके विषयभूत पदार्थोंकी प्राप्तिमें तो हर्ष हुआ करता है तथा अनिष्ट कल्पनाके विषयभूत पदार्थोकी अप्राप्तिमें और इष्ट कल्पनाके विषयभूत पदार्थों की अप्राप्तिमें विषाद हुआ करता है। यदि किन्हीं-किन्हीं जीवोंको इस प्रकारसे हर्ष और विषाद न भी हो, तो भी ऐसे जीव भी जब शरीरकी अधीनतामें ही रह रहे है और उनका अपना शरीर भी किन्हीं दूसरे पदार्थों की अधीनता स्वीकार किए हुए है तो ऐसी स्थितिमें शरीरके लिये उपयोगी आवश्यक पदार्थों की प्राप्ति व अप्राप्तिमें अथवा शरीरके लिये पीडाकारक पदार्थोंकी अप्राप्तिमें और प्राप्तिमें उन्हें भी क्रमसे सुख व दुःखका संवेदन हआ करता है । इसके अतिरिक्त सभी संसारी जीव अनादिकालसे अभी तक कभी देव कभी मनुष्य, कभी तिर्यंच और कभी नारक भी हुए है । कभी एकेन्द्रिय, कभी द्वीन्द्रिय, कभी श्रीइन्द्रिय, कभी चतुरिन्द्रिय और कभी पंचेन्द्रिय भी हुए हैं। इसी तरह कभी मनरहित असंज्ञी और कभी मनसहित संज्ञी भी हुए हैं । इन्होंने कभी पृथ्वीका, कभी जलका, कभी तेजका, कभी वायुका और कभी वनस्पतिका भी शरीर धारण किया है। हम यह भी देखते हैं कि एक ही श्रेणीके जीवोंके शरीरोंमें भी परस्पर विलक्षणता पायी जाती है। साथ ही कोई जीव लोकमें प्रभावशाली देखे जाते हैं और कोई जोव प्रभावहीन भी देखे जाते है। एक जीव में उच्चताका और एक जीवमें नीचताका भी व्यवहार लोकमें देखा जाता है। इसी प्रकार प्रत्येक जीवको जन्म-मरण भी धारण करना पड़ रहा है । यह सब क्यों हो रहा है ? इसका समाधान आगम-ग्रन्थोंमें इस प्रकार किया गया है कि प्रत्येक संसारी जीव अपने स्वतःसिद्ध जानने-देखनेके स्वभावको न छोड़ते हुए भी अनादिकालसे स्वर्ण-पाषाणकी तरह पौद्गलिक कर्मोके साथ सम्बद्ध (मिश्रित) यानी एकक्षेत्रावगाहीरूपसे एकमेकपनेको प्राप्त हो रहा है।' ये कर्म ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायके भेदसे आठ प्रकारके आगममें बतलाये गये है। आगममें यह भी बतलाया गया है कि ज्ञानावरणकर्मका कार्य जीवकी जाननेकी शक्तिको आवृत करना है, दर्शनावरणकर्मका कार्य जीवकी देखनेकी शक्तिको आवत करना है, वेदनीयकर्मका कार्य जीवको परपदार्थों के आधारपर यथायोग्य सुख और दुःखका संवेदन कराना है, मोहनीयकर्मका कार्य जीवको परपदार्थोंके आधार पर मोही, रागी और द्वेषी बनाकर उचित-अनुचितके भेदसे रहित प्रवृत्तियोंमें व्यवहृत कराना है, आयुकर्मका कार्य जीवको प्राप्त शरीरमें सीमित काल तक रोक रखना है, नामकर्मका कार्य जीवको मनुष्यादिरूपता प्राप्त कराना है, गोत्रकर्मका कार्य कुल, शरीर और आचरण आदिके आधारपर जीवमें उच्चता-नीचताका व्यवहार कराना है और अन्तरायकर्मका कार्य जीवकी स्वावलम्बन शक्तिका घात करना है। करणानुयोगकी व्यवस्था यह है कि इन सब प्रकारके कर्मोको जीव हमेशा अपने विकारी भावों (परिणामों) द्वारा बाँधता है और तब ये कर्म जोवके साथ बँध कर उसमें सीमित कालके लिये अपनी सत्ता बना १. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा २ । २. वही, गाथा ८। ३. किस कर्मका क्या कार्य है, इसकी सामान्य जानकारीके लिये गोम्मटसार कर्मकाण्डकी गाथा १० से गाथा ३३ तक देखना चाहिये। ४. समयसार, गाथा ८०॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त ६५ केते हैं तथा अन्तमें उदयमें आकर अर्थात् जीवको अपना फलानुभव कराकर ये कर्म तो निर्जरित हो जाते हैं" । लेकिन उस फलानुभवसे प्रभावित होकर अपने में उत्पन्न विकारी भावों द्वारा वह जीव दूसरे इसी तरह के नवीन कर्मोंसे पुनः बँध जाता है । ये कर्म उदयमें आकर अपना फलानुभव जिस रूपमें जीवको कराते हैं वह जीवका जौदधिक भाव कहलाता है क्योंकि जीवका उस रूप भाव उस कर्मका उदय होनेपर ही होता है, अन्यथा नहीं। कदाचित् कोई जीव अपने में सत्ताको प्राप्त यथायोग्य किसी कर्मको अपने पुरुषार्थ द्वारा इस तरह शक्तिहीन बना देता है कि वह कर्म अपनी फलदानशक्तिको सुरक्षित रखते हुए भी जीवको एक अन्तर्मुहूर्तके लिये फल देने में (उदय में) असमर्थ हो जाता है, कर्मकी इस अवस्थाका नाम उपशम है और इसके होने पर जीवकी जो अवस्था होती है उसे जीवका औपशमिक भाव कहते है । 3 कचित् कोई जीव अपने पुरुषार्थ द्वारा कर्मको सर्वथा शक्तिहीन बना देता है, जिससे वह कर्म उस जीवसे अपना सम्बन्ध सर्वथा समूल विछिन्न कर लेता है । कर्मकी इस अवस्थाका नाम क्षय है और इसके होने पर जीवकी जो अवस्था होती है उसे जीवका क्षायिक भाव कहते हैं । इसी प्रकार कदाचित् कोई जीव अपना पुरुषार्थ इस तरह करता है कि कर्मके कुछ अंश (देशघाती रूप) तो उदय रूप रहें, कुछ अंश (सर्वघाती रूप) उदयाभावी क्षयरूप हो जावें और कुछ अंश ( सर्वघातीरूप ) सदवस्थारूप उपशमकी स्थितिको प्राप्त हो जावें तो इसका नाम कर्मकी क्षयोपशम अवस्था है और इसके होने पर जीवकी जो अवस्था होती है उसे जीवका क्षायोपशमिक भाव कहते है" । क्षायोपशमिक भावका अपर नाम मिश्र भाव भी है । इस प्रकार कहना चाहिये कि कर्मोके यथायोग्य उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम होने पर जीवकी अवस्थायें भी क्रमशः औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिकरूप हो जाया करती है। अब इनमें यदि कारणताकी व्यवस्थाकी जाय तो कहा जा सकता है --- जोवकी इन औदयिकादि अवस्थाओं की उत्पत्तिमें कर्म तो अपनी उदयादि अवस्थाओंके आधाखर व्यवहारकारण होता है और जीव स्वयं निश्चयकारण है। जैसा कि नयचक्रकी निम्नलिखित गाथासे स्पष्ट होता है "बंधे च मोक्ख हेऊ अण्णो ववहारदो य णायव्वो । णिच्छयदो पुण जीवो भणिदो खलु सव्वदरिसीहि ॥ २३५॥ अर्थात् बन्ध और मोक्षमें अन्य अर्थात् कर्म अपनी यथायोग्य उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमरूप अवस्थाओंके आधार पर व्यवहाररूपसे कारण होता है और जीव निश्चयमपसे कारण होता है। यहाँ पर "कर्म व्यवहाररूपसे कारण होता है" इसका अभिप्राय यह है कि कर्म निमित्त या सहायकरूपसे कारण होता है और "जीव निश्चयरूपसे कारण होता है" इसका अभिप्राय यह है कि जीव उपादानरूपसे कारण होता है । इस प्रकार कहना चाहिये कि उक्त गाथा द्वारा कर्म में जीवके बन्ध और मोक्षकी उत्पत्तिके प्रति यथायोग्य उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके आधारपर निमित्तकारणताका सद्भाव सिद्ध १. विपाकोऽनुभवः । स यथानाम ततदच निर्जरा । तस्वार्थसूत्र ८२१, २२, २३ । २. पंचाध्यायी, २०६७ | धवला पुस्तक १ पृष्ठ २१२ । ३. पंचाध्यायी, २१९६८ । पंचास्तिकाय, गाथा ५८ तथा उसकी टीका ४. पंचाध्यायी, २-९६९ । धवल, पुस्तक १, पृ० २१२ । ५. वही, २।९६६ । ६. वही, २।९६२ । ९ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन अन्य होता है तथा जीव स्वयं अपने उस बन्ध और मोक्षके प्रति उपादान कारण होता है। इसका तात्पर्य यह है कि जब कर्मकी उदय, उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमरूप अवस्थाएँ होती है तब जीव अपनी विकारी योग्यताके कारण क्रमशः औदयिक, औपशमिक, क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक अवस्थाओंके रूप में अपनी परिणति बना लेता है। यानी जीव इन औदयिकादि परिणतियोंके रूपमें परिणत हो जाया करता है, कर्म तो अपनी उदयादि अवस्थाओंके आधारपर आत्माकी उन अवस्थाओंकी उत्पत्तिमें सहायक मात्र हुआ करता है। अर्थात् कर्मकी कोई परिणति यहाँपर जीवकी परिणति बन जाती हो-ऐसी बात नहीं है। "उपादीयत अनेन" इस विग्रहके आधारपर 'उप' उपसर्ग पूर्वक आदानार्थक 'आ" उपसर्ग विशिष्ट 'दा' धातुसे कर्ताके अर्थमें 'ल्युट' प्रत्यय होकर उपादान शब्द निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ यह होता है कि जो कार्यरूप परिणत हो उसे उपादान कहते हैं। इसी प्रकार 'निमेद्य ति" इस विग्रहके आधारपर 'नि' उपसर्ग पूर्वक स्नेहार्थक 'मिद्' धातुसे कर्ताके अर्थ में 'क्त' प्रत्यय होकर 'निमित्त' शब्द निष्पन्न हुआ है । 'मित्र' शब्द भी इसी स्नेहार्थक 'मिद्' धातुसे 'क' प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है। इस तरह कहना चाहिये कि जो मित्रके समान उपादानका स्नेहन करे अर्थात् उपादानको उसकी अपनी परिणतिमें मित्रके समान सहयोग प्रदान करे वह निमित्त कहलाता है। यद्यपि यहाँपर यह बात ध्यान देने योग्य है कि उपादान स्वयं कार्यरूप परिणत होनेके कारण "स्वाश्रितो निश्चयः"3 इस आगमवाक्यके अनुसार उसे कार्यका निश्चयकारण मानना उचित है और कार्यरूप परिणत न होकर उपादानको उसकी अपनी कार्यरूप परिणतिमें सहयोग मात्र देनेके कारण "पराश्रितो व्यवहारः"४ इस आगमवाक्यके अनुसार निमित्तको कार्यका व्यवहारकारण मानना उचित है, परन्तु साथ ही यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि उपादान और निमित्त दोनों कारणोंमें निश्चयकारणता और व्यवहारकारणताका अन्तर रहते हुए भी कार्यकी उत्पत्ति में दोनों ही कारण उपयोगी सिद्ध होते हैं। इसलिये जिस प्रकार उपादान कारणको निश्चयकारणके रूपमें भतार्थ, सद्भुत, वास्तविक या सत्यार्थ कहा जाता है उसी प्रकार निमित्तकारणको भी व्यवहारकारणके रूपमें भतार्थ, सद्भुत, वास्तविक या सत्यार्थ कहा जाना अयुक्त नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार उपादानका कार्यरूप परिणत होना वास्तविक है उसी प्रकार निमित्तका उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होना भी वास्तविक है। इतनी बात अवश्य है कि चूंकि निमित्त उपादानकी तरह कार्यरूप परिणत नहीं होता, अतः इस दृष्टिसे उसमें यदि अभूतार्थता आदि धर्मोंका सद्भाव माना जाय तो यह भी असंगत नहीं है। इस प्रकार कहना चाहिये कि उपादान चूँकि कार्यरूप परिणत होता है इसलिये सर्वथा भतार्थ आदि है और निमित्त चंकि कार्यरूप परिणत नहीं होता. इसलिये तो कथचित अभतार्थ आदि है लेकिन उपादा नकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होता है, अतः कथंचित् भूतार्थ आदि भी है । अतः जो व्यक्ति निमित्तको कार्योत्पत्तिमें सर्वथा अकिंचित्कर मानकर उसे सर्वथा अभतार्थ आदि मान लेना चाहते हैं उनका यह प्रयास गलत ही है। अनुभवमें यह बात आती है कि उपादानको कार्यपरिणतिमें निमित्तके सहयोगकी अनिवार्य रूपसे सर्वदा अपेक्षा रहा करती है और प्रत्यक्ष देखने में आता है कि जब तक उपादानको आवश्यकतानुसार स्वाभा १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक १३ । २. समयसार, गाथा ८६ की टीकामें आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा "यः परिणमति स कर्ता" आदि पद्यों द्वारा यही आशय व्यक्त किया गया है। ३-४. समयसार, गाथा २७३ की समयसार-टीका। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : ६७ विक रूपसे अथवा पुरुषकृत प्रयत्न द्वारा निमित्तका सहयोग प्राप्त नहीं होता है तब तक उपादान कार्यरूप परिणत नहीं होता है। इसका अभिप्राय यह है कि निमित्त उपादानमें कार्योत्पत्तिके लिये उसकी कार्योत्पत्ति न हो सकने रूप असामर्थ्यका नियमसे भेदन करने वाला है। आगममें भी इस बातको स्पष्ट स्वीकार किया गया है कि निमित्त कार्योत्पत्तिमें यदि उपादानसे कार्योत्पत्ति न हो सकने रूप असामर्थ्यका भेदन नहीं करता है तो फिर उसे निमित्त कहना ही असत्य होगा। इसलिये जो महानुभाव कहते हैं कि "कार्य तो उपादान स्वयं अपनी सामर्थ्य से ही उत्पन्न कर लेता है उसमें उसको निमित्तके सहयोगकी बिल्कुल अपेक्षा नहीं रहा करती है, वह तो वहाँपर सर्वथा अकिचित्कर ही बना रहता है," तो उनका ऐसा कहना गलत ही है। साथ ही जो व्यक्ति व्यवहारविमूढ़ होकर ऐसा कहते हैं कि “निमित्त अपने रूपका समर्पण कार्यमें करता है," तो उनका ऐसा कहना भी गलत है। कारण कि निमित्त यदि कार्य में अपना रूप समर्पित करने लग जाय तो फिर निमित्तमें उपादानकी अपेक्षा अन्तर ही क्या रह जायगा ? अर्थात् ऐसी स्थितिमें निमित्त स्वयं ही उपादान बन जायगा और तब उसे निमित्त कहना ही असंगत होगा। वेदान्त और चार्वाक दर्शनोंमें यही बात बतलायी गयी है कि वेदान्तके मतानुसार चित्से अचित्की उत्पत्ति होती है और चार्वाकके मतानुसार अचित्से चित्की उत्पत्ति होती है अर्थात् वेदान्त चित्को अचि त्का और चार्वाक अचित्को चित्का उपादान कारण मानते हैं । जैनदर्शन इन दोनों ही मान्यताओंका खण्डन करता है, कारण कि जैनदर्शनका यह सिद्धान्त है कि एक द्रव्य कभी दूसरे द्रव्यरूप परिणत नहीं होता और न कभी एक द्रव्यके गुण-धर्म ही किसी अन्य द्रव्यमें संक्रमित होते हैं । लेकिन वेदान्त और चार्वाकको उक्त मान्यताओंका खण्डन करता हुआ भी जैनदर्शन चित्को अचित्की परिणतिमें तथा अचित्को चित्को परिणतिमें निमित्त कारण अवश्य मानता है। यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्दने समयसारमें इन दोनों बातोंका विस्तारसे विवेचन किया है। अर्थात् समयसारमें स्थानस्थानपर यही बात देखनेको मिलती है कि उसमें जहाँ एक वस्तुमें दूसरी वस्तुकी उपादानकारणताके सद्भाव का दृढ़ताके साथ निषेध किया गया है वहाँ उतनी ही दृढ़ताके साथ एक वस्तुमें दूसरी वस्तु की निमित्तकारणतांका समर्थन भी किया गया है और यह बात हम पूर्वमें स्पष्ट ही कर चुके हैं कि निमित्तकारणता उपादानकारणताके रूपमें अभूतार्थ, असदभत, अवास्तविक और असत्यार्थ होते हए भी स्वयं अपने रूपमें तो वह भूतार्थ, सद्भूत, वास्तविक और सत्यार्थ ही है । यही कारण है कि आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें तत्त्वार्थसूत्रके प्रथम अध्यायके सत्र ७ की व्याख्या करते हुए वार्तिक श्लोक १३के अन्तर्गत पृष्ठ. ५१ पर सहकारी-निमित्त कारणकी उपादानको कार्यपरिणतिमें सहकारितारूपसे पारमार्थिकता (वास्तविकता) को स्पष्ट रूपसे स्वीकार किया है।५।। १. तदसामर्थ्यमखण्डयदकिंचित्करं किं सहकारिकारणं स्यात?-आन्तमीमांसा कारिका,१०की अष्टशती-टीका। २. जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि दुण संकमदि दवे। -समयसार, गाथा १०३ का पूर्वाद्ध । ३. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लोक १२, १३ । ४. समयसार, गाथा ८०, ८१ । क्रमभुवोः पर्याययोरेकद्रव्यप्रत्यासत्तरुपादानोपादेयत्वस्य वचनात । न चैवंविधः कार्यकारणभावः सिद्धान्तविरुद्धः। सहकारिकारणेन कार्यस्य कथं ततस्यादेकद्रव्यप्रत्यासत्तरभावादिति चेत् ? कालप्रत्यासत्तिविशेषात् तत्सिद्धिः । यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य कारणमितरत्कार्यमिति प्रतीतम् । तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठः सम्बन्धः संयोग-समवायादिवत् प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव, न पुनः कल्पनारोपितः, सर्वथाप्यनवद्यत्वात । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ : सरस्वती - वरवपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ यहाँपर उपादानकारणता और निमित्तकारणताके स्वरूपका, उनकी क्रमसे निश्चयरूपता और व्यवहाररूपताका एवं दोनोंकी अपने-अपने रूपमें वास्तविकताका जो विश्लेषण किया गया है, उसका प्रकृत में उपयोग यह है कि जीवकी पूर्वोक्त औदथिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक परिणतियोंके प्रति कर्ममें जो उदयादिकके आधारपर कारणता विद्यमान है वह तो व्यवहार रूपसे अर्थात् निमित्तरूपसे है और जीव स्वयं में उन औदयिकादि परिणतियोंके प्रति जो कारणताएँ विद्यमान हैं वे निश्चयरूपसे अर्थात् उपादानरूपसे हैं तथा साथ ही ये दोनों ही कारणतायें अपने-अपने रूपमें भूतार्थ, सद्भूत, वास्तविक और सत्यार्थ ही हैं क्योंकि जिस प्रकार उक्त औदयिकादि परिणतियोंके प्रति जीव स्वयंकी उपादानकारणता पूर्वोक्त प्रकारसे कल्पनारोपित नहीं है उसी प्रकार जीवकी उन औदयिकादि परिणतियोंके प्रति अपनी उदयादिपरिणतियोंके आधारपर सहयोगी होनेके कारण कर्ममें विद्यमान निमित्तकारणता भी कल्पनारोपित नहीं है । इतना अवश्य है कि चूँकि उपादानकारण होनेके सबब जीव ही कार्यरूप परिणत होता है, इसलिये उपादानकारणता तो सर्वथा भूतार्थ आदि है, लेकिन निमित्तकारण होनेके सक्य चूंकि कर्म स्वयं कार्यरूप परिणत नहीं होता, इसलिये वह कथंचित् अभूतार्थ आदि है फिर भी उपादानभूत जीवकी कार्यभूत औदयिकादि परिणतियोंमें अपनी उदयादिपरिणतियोंके आधारपर वह सहायक अवश्य होता है, अतः वह सहायकपनेकी अपेक्षा कथंचित् भूतार्थं आदि भी है। यहाँ पर इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि जीवकी औदयिकादि परिणतियों के प्रति जो कर्मनिष्ठ निमित्तकारणता है वह उसकी उदयादि परिणतियोंको छोड़कर और कुछ नहीं है अर्थात् कर्मका उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमरूपसे परिणत होना ही जीवकी औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक परितियों के प्रति कर्मकी क्रमशः निमित्तकारणता है । ऐसा नहीं समझना चाहिये कि कर्मकी उदयादिकपरिगतियाँ अलग हैं और जीवकी औदयिकादि परिणतियोंके प्रति उसमें ( कर्म में ) विद्यमान निमित्तकारणता अलग है । इसीलिये यदि इस तरहसे विचार किया जाय तो कर्मको उदयादिक परिणतियाँ उसकी अपनी स्वाश्रित या स्वात्मभूत परिणतियाँ होनेके कारण जहाँ "स्वाश्रितो निश्चयः " इस आगमवाक्यके आधारपर उसके freers हैं वहाँ कर्मकी वे ही परिणतियाँ जीवकी औदयिकादि परिणतियोंके प्रति यथायोग्य रूपमें निमित्तकारणताका रूप धारण कर लेनेसे "पराश्रितो व्यवहारः " इस आगमवाक्यके आधारपर निमित्तकारणताके रूपमें उसके व्यवहारधर्म भी हैं । अब ऐसी हालत में भी यदि निमित्तकारणताकी भूतार्थता आदिके विषय में विचार किया जाय तो यही निष्कर्ष निकलता है कि जीवकी औदयिकादि परिणतियोंके प्रति कर्म में विद्यमान निमित्तकारणता जहाँ उस कर्मकी उदयादि परिणतियोंके रूपमें भूतार्थ, सद्भूत, वास्तविक या सत्यार्थ धर्म है वहीं उसका कर्म में उदयादि परिणतियोंसे पृथक् स्वतंत्र अस्तित्व न रहनेके कारण वह कर्मका अभूतार्थ, असद्भूत, अवास्तविक या असत्यार्थ धर्म भी है । इस तरहसे भी जीवकी औदयिकादि परिणतियोंके प्रति कर्मनिष्ठ निमित्तकारणता उस कर्मका कथंचित् वास्तविक और कथंचित् अवास्तिक धर्म ही सिद्ध होती है । गधेके सींग - की तरह उसे सर्वथा अभूतार्थ आदिके रूपमें कदापि नहीं माना जा सकता है । इस कथनको निचोड़ यह है कि जीवकी जो औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक रूप परिणतियाँ हुआ करती हैं वे सब परिणतियाँ जीवकी अपनी ही परिणतियाँ हैं । इसलिये जीव इन परिणतियोंका उपादानकारण या निश्चयकारण होता है। साथ ही ये सभी परिणतियाँ क्रमशः कर्मके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके होनेपर ही होती हैं, इसलिये कर्म जीवकी इन औदयिकादि परिणतियोंका अपनी उदयादिक परिणतियों के आधार पर निमित्तकारण या व्यवहारकारण होता है । चूँकि कर्मके उदयादिकके अभाव में जीवकी ये औदयिकादि परिणतियाँ कदापि नहीं होती हैं, अतः कर्मको जीवकी इन परिणतियोंमें अकिंचित्कर Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : ६९ या निरुपयोगी मानना मिथ्या है और चकि कर्मकी कोई परिणति कदापि जीवकी परिणति नहीं बनती है, इसलिए कर्मको जीवकी औदयिकादि परिणतियोंका उपादानकारण या निश्चयकारण मानना भी मिथ्या है । इस प्रकार अब तकके विवेचनसे यह बात अच्छी तरह समझमें आ जानी चाहिये कि चरणानुयोगके प्रकरणमें मोक्षकार्यकी दृष्टिसे जो निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्गका कथन किया गया है वह कथन निश्चय और व्यवहार शब्दोंके आधारपर क्रमशः निश्चयमोक्षमार्गमें मोक्षकी साक्षात कारणताके और व्यवहारमोक्षमार्गमें मोक्षकी परंपरया कारणताके अस्तित्वका ही बोध कराता है। इसी प्रकार वहीं पर जो निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यक्चारित्रका तथा व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान, और व्यवहारसम्यक्चारित्रका कथन किया गया है वह कथन भी निश्चय और व्यवहार शब्दोंके आधार पर क्रमशः निश्चयसम्यग्दर्शनादिमें तो कार्यताके और व्यवहारसम्यग्दर्शनादिकमें कारणताके अस्तित्वका ही बोध कराता है। इसके अतिरिक्त करणानयोगके प्रकरणमें जीवके बन्ध और मोक्षरूप अथवा जीवकी औदयिकादिपरिणतिरूप कार्य और उसके अभावरूपकारणकी दृष्टि से जो नयचक्रकी उपर्युक्त २३५ वीं गाथाके अनुसार निश्चयकारण और व्यवहारकारणके रूपमें दो कारणोंका कथन किया गया है वह कथन निश्चयशब्दके आधार पर जीव स्वयंमें उपादानकारणताके और व्यवहारशब्दके आधार पर कर्ममें यथायोग्य उदयादिरूपसे निमित्तकारणताके अस्तित्वका ही बोध कराता है । अब आगे हम इस विषय पर विचार करना चाहते हैं कि द्रव्यानुयोगमें निश्चय और व्यवहार शब्दोंका क्या अर्थ ग्रहण किया गया है ? द्रव्यानुयोगमें निश्चय और व्यवहार शब्दोंका अर्थ लेखके प्रारम्भमें हमने यह भी कहा है कि द्रव्यानुयोग वह है जिसमें विश्वकी संपूर्ण वस्तुओंके पृथक्पृथक् अस्तित्वको बतलानेवाले स्वतः सिद्ध स्वरूप एवं उनके परिणमनोंका विवेचन किया गया है । यहाँ प्रकृत विषय पर इसीको आधार बनाकर विचार किया जा रहा है। - जैनागममें बतलाया गया है कि पृथक-पृथक् अपनी-अपनी स्वतंत्र सद्रूपता ही वस्तुका लक्षण है। प्रत्येक वस्तुकी यह सदूपता स्वतंत्र तभी मानी जा सकती है जबकि वह स्वतः सिद्ध हो, अतः कहना चाहिये कि प्रत्येक वस्तुकी अपनी-अपनी सद्रूपता स्वतःसिद्ध है और जब प्रत्येक वस्तुकी सद्रूपता स्वतःसिद्ध है तो इस आधार पर प्रत्येक वस्तुमें निम्नलिखित चार विशेषताएं अनायास सिद्ध हो जाती हैं। प्रत्येक वस्तु अनादि है (अनादिकालसे रहती आ रही है), अनधिन है (अनन्तकाल तक रहने वाली है), स्वाश्रित है, (स्वावलम्बनपूर्ण है) और अखण्ड है (अपने-अपने स्वरूपके साथ तादात्म्यको लिये हुए है।) इस विषयको पंचाध्यायीमें निम्न प्रकारसे स्पष्ट किया गया है ___ "तत्त्वं सल्लाक्षणिक सन्मात्रं वा यतः स्वतः सिद्धम् । तस्मादनादि-निधनं स्वसहायं निविकल्पं च ॥१-८॥" इस प्रकार विश्वमें अपनी-अपनी पृथक्-पृथक् स्वतःसिद्ध सद्रूपताको प्राप्त संपूर्ण वस्तुओंकी संख्या अनन्तानन्त है । इनमें भी जीवोंकी संख्या अनन्तानन्त है, पुद्गल जीवोंकी संख्यासे भी अनन्तानन्त गुणे हैं, काल असंख्यात है और धर्म, अधर्म तथा आकाश एक-एक है। इस प्रकार ये सभी अनन्तानन्त वस्तुएँ सामान्यरूपसे जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामके छह द्रव्य प्रकारोंमें समाविष्ट होती हैं। १. सर्वार्थसिद्धि-टीका-१-२९ । २. अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः । द्रव्याणि । जीवाश्च । कालश्च ।-तत्त्वार्थसूत्र ५-१, २, ३, ३९ । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्वन-ग्रन्थ प्रत्येक वस्तुमें अपने-अपने पृथक्-पृथक् अनन्तगुण विद्यमान हैं । इन्हें धर्म या स्वभाव भी कहते हैं।' वस्तुका जो एक गुण है वह उसका कभी अन्य गुण नहीं हो सकता है। इस तरह प्रत्येक वस्तुमें गुणोंकी संख्या अनन्त ही सिद्ध होती है । __प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक वस्तुका प्रत्येक गुण परिणमनशील है इसका यह अभिप्राय नहीं समझना चाहिये कि अगुरुलधुगुणके अतिरिक्त शुद्ध द्रव्यके अन्य गणोंके शक्त्यशोंमें हानि-वृद्धि होती है। इस प्रकार सभी वस्तुओंकी निम्नप्रकार स्थिति निश्चित होती है "वस्तुकी आकृति (प्रदेशवत्तारूप द्रव्यरूपता), वस्तुको प्रकृति (स्वभाववत्तारूप गुणरूपता और वस्तुकी तथा वस्तुके प्रत्येक गुणकी विकृति (परिणामवत्तारूप पर्यायरूपता)।" इस तरह कहना चाहिये कि द्रव्यानुयोगमें द्रव्यरूपताके साथ-साथ वस्तुकी अनन्त द्रव्यपयायों तथा वस्तुके अनन्तगुणों और उन गुणों से प्रत्येक गुणकी अनन्तगुणपर्यायोंके रूपमें वस्तुका जैनागममें विश्लेषण किया गया है। प्रत्येक वस्तुको अपनी-अपनी उक्त प्रकारकी द्रव्यरूपता और गुणरूपता दोनों ही शाश्वत (स्थायी) है तथा पर्यायरूपता समय, आवलि, मुहूर्त, घड़ी, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास और वर्ष आदिके रूपमें विभक्त होकर अशाश्वत (अस्थायी) है । इस तरह प्रत्येक वस्तुको जैनागममें सत् मानते हुए भी उस सत्ताको उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक स्वीकार किया गया है ।" अर्थात् जैनागममें प्रत्येक वस्तुमें द्रव्य पर्यायों और गुण पर्यायोंके रूपमें तो उत्पाद तथा व्यय और द्रव्यत्व और गुणत्वके रूपमें ध्रौव्यका सद्भाव स्वीकार किया गया है। परिणमन करते हुए भी प्रत्येक वस्तुको द्रव्यरूपता, गुणरूपता और पर्या यरूपता प्रतिनियत है । अर्थात् परिणमनमें वस्तु न तो अपने अस्तित्व (सद्रूपता) को छोड़ती है और न ही एक वस्तुकी अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता तथा पर्यायरूपता कभी अन्य वस्तुकी द्रव्यरूपता, गुणरूपता तथा पर्यायरूपता बन सकती है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि परिणमन करते हुए भी वस्तु न तो कभी सर्वथा नष्ट हो सकती है और न वह कभी अन्य वस्तुरूप भी परिणमती है। इस प्रकार जीव परिणमन करते हुए भी कभी सर्वथा नष्ट नहीं हो सकता है और न ही वह कभी अन्य द्रव्यरूप परिणत हो सकता है, वह हमेशासे जीव ही रहा आया है, जीव ही है और जीव ही रहेगा। यही व्यवस्था पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन सभी द्रव्योंमें समझना चाहिये । इतना ही नहीं, १. पंचाध्यायी, १-४८॥ २. पंचाध्यायी, १-४९, ५२। ३. (क) वस्त्वस्ति स्वतः सिद्धं यथा तथा तत्स्वतश्च परिणामि ।-पंचाध्यायी, १-८९ । (ख) वस्तु यथा परिणामि तथैव परिणामिनो गुणाश्चापि ।-पंचाध्यायी, १-११२ । प्रवचनसार, ज्ञेयतत्वाधिकार, गाथा ९३।। इह हि किल यः कश्चन परिच्छिद्यमानः पदार्थः स सर्व एव विस्तारायतसामान्यसमुदायात्मना द्रव्येणाभिनिवृत्तत्वाद् द्रव्यमयः । द्रव्याणि तु पुनरेकाश्रयविस्तारायतविशेषात्मकैर्गुणरभि निवृत्तत्वात् गुणात्मकानि । पर्यायास्तु पुनरायतविशेषात्मका उक्तलक्षणैर्द्रव्यैरपि गुणैरप्यभिनिर्वृत्तत्वाद् द्रव्यात्मका अपि गुणात्मका अपि । -प्रवचनसार, ज्ञेयतत्त्वाधिकार, गाथा १ की टीका, आचार्य अमृतचन्द्र । ५. सद् द्रव्यलक्षणम् । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । तत्त्वा० ५-२९, ३० । | Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ७१ एक जीव कभी दूसरे जीवरूप परिणत नहीं होता, एक पुद्गलाणु कभी दूसरा पुद्गलाणु नहीं बनता और एक कालाणु कभी दूसरा कालाणु नहीं हो जाता। इतना अवश्य है कि सभी वस्तुएँ यथायोग्य एक-दूसरी वस्तुके साथ संयुक्त होकर ही रह रही हैं । इसके अतिरिक्त जीवों और पुद्गलोंमें ऐसी :स्वतःसिद्ध (स्वाभाविक) वैभाविकी शक्ति नामकी विशेषता विद्यमान है, जिसके आधारपर सभी जीव अनादिकालसे यथायोग्य पुद्गलोंके साथ संबद्ध (मिश्रित) यानी एकक्षेत्रावगाहीरूपमें एकमेकपनेको प्राप्त रहे हैं। उनमेंसे बहुतसे जीवोंने यद्यपि पुद्गलोंके साथ विद्यमान अपनी अनादिकालीन उस बद्धता (मिश्रण) को समाप्त कर दिया है, परन्तु उनसे अनन्तगुणे जीव अभी भी उसी बद्धावस्थामें रह रहे हैं। बहुतसे पुद्गल अपनेमें विद्यमान उपर्युक्त वैभाविकी शक्तिके आधारपर अनादिकालसे जीवोंके साथ तो सम्बद्ध हो ही रहे हैं, साथ ही बहुतसे पुद्गल एक-दूसरे पुद्गलोंके साथ भी इसी तरह सम्बद्ध होकर रह रहे हैं । जिन जीवोंने पुद्गलोंके साथ अनादिकालसे विद्यमान अपनी बद्धस्थितिको समूल समाप्त कर दिया है वे अब कभी पुनः पुद्गलोंके साथ बद्ध नहीं होंगे। परन्तु पुद्गल एक बार जीवके साथ अथवा अन्य पुद्गलोंके साथ विद्यमान अपनी बद्ध स्थितिको समूल समाप्त करके भी पुन: उस योग्य बन जाया करते हैं। यही कारण है कि वे यथायोग्य जीवों, पुद्गलाणुओं और पुद्गलस्कन्धोंके साथ हमेशा ही बंधते और बिछुड़ते . रहते हैं। जिस प्रकार वस्तु परिणमन करते हुए भी कभी अपने द्रव्यत्वको नष्ट नहीं होने देती है और न कभी अन्य द्रव्यरूप ही परिणत होती है उसी प्रकार प्रत्येक वस्तुका प्रत्येक गुण परिणमन करते हुए भी न तो अपने गुणत्वको कभी सर्वथा नष्ट होने देता है और न वह कभी उस वस्तुके अन्य गुणरूप अथवा अन्य वस्तुके गुणरूप ही परिणत हो सकता है। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तुकी अथवा प्रत्येक वस्तुके प्रत्येक गुणकी प्रत्येक पर्याय यद्यपि उत्पाद और व्ययरूपताको धारण किये हुए है। परन्तु इन सभी पर्यायोंमें भी यह व्यवस्था बनी हुई है कि एक वस्तुकी कोई भी पर्याय केवल उसी वस्तुकी पर्याय होती है व एक गुणकी भी कोई पर्याय केवल उसी गुणकी पर्याय होती है। इस प्रकार कहना चाहिये कि प्रत्येक वस्तुकी द्रव्यरूपता, गुणरूपता और पर्यायरूपता ये तीनों ही उपयुक्त प्रकारसे सतत प्रतिनियतताको ही धारण किये हुए हैं। प्रत्येक वस्तुमें यथासंभव जो भी द्रव्यपरिणमन होते हैं वे सभी नियमसे स्वपर-प्रत्यय ही हुआ करते है । लेकिन प्रत्येक वस्तुमें जो गुणपरिणमन होते हैं उनमेंसे कुछ तो स्वप्रत्यय होते हैं और कुछ स्वपरप्रत्यय होते १. (क) सर्वत्रापि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवद्रव्यात्मनि लोके ये यावन्तः केचनाप्यस्तेि सर्व एव स्वकीय द्रव्यान्तर्मग्नानन्तस्वधर्मचक्रचम्बिनोऽपि परस्परमम्बिनोऽत्यन्तप्रत्यासत्तावपि नित्यमेव स्वरूपादापतन्तः पररूपेणापरिणमनादविनष्टानन्तव्यक्तित्वास्ट्रकोत्कीर्णा इव तिष्ठन्तः समस्तविरुद्धाविरुद्धकार्यहेतूतया शश्वदेव विश्वमनुगृह्णन्तो नियतमेकत्वनिश्चयगतत्वेनैव सौन्दर्यमापद्यन्ते, प्रकारान्तरेण सर्वसंकरादिदोषापत्तेः । -समयसार, गाथा ३, टीका, आचार्य अमृतचन्द्र । (ख) पंचास्तिकाय, गाथा, ७ । २. पंचाध्यायी, २-४५ । ३. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा १९६ । ४. (अ) जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि ण संकमदि दव्वे । -समयसार, गाथा १०३ । (आ) समयसार, गाथा ७६, ७७, ७८, ७९ । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ : सरस्वती वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ हैं । इस प्रकार सामान्यरूपसे यह बात निश्चित हो जाती है कि परिणमन दो प्रकारसे होते हैं । उनमें से एक प्रकार तो स्वप्रत्ययका है और दूसरा प्रकार स्वपरप्रत्ययका है ।" यह बात निश्चित ही समझना चाहिये कि वस्तुका कोई भी द्रव्यपरिणमन अथवा गुणपरिणमन परप्रत्यय नहीं होता है ।२ प्रत्येक वस्तुमें जो गुणका परिणमन उस वस्तुकी अपनी परिणमनशक्तिके आधारपर परकी अपेक्षाके बिना ही केवल स्वतः होता है वह स्वप्रत्यय परिणमन कहलाता है और प्रत्येक वस्तुमें जो द्रव्य या गुणका परिणमन उस वस्तुकी अपनी परिणमन शक्तिके आधारपर परवस्तुका सहयोग मिलनेपर होता है वह स्वपरप्रत्यय परिणमन कहलाता है । प्रत्येक वस्तुके अगुरुलघुगुणके शक्त्यंशोंमें अनन्तभागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और अनन्तगुणहानिके रूपमें तथा इसके अनन्तर अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि इस प्रकार षट्स्थानपतित हानि और वृद्धिरूपमें जो परिणमन समय-समय के विभागपूर्वक सतत हुआ करता है उसे तो स्वप्रत्यय परिणमन जानना चाहिये । इसके अलावा प्रत्येक वस्तुमें होनेवाले शेष सभी गुणपरिणमन और सभी द्रव्यपरिणमन स्वपरप्रत्यय ही हुआ करते हैं । ये सभी परिणमन यथायोग्य व्यवहारकालके समय, आवली, घड़ी, मुहूर्त, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास और वर्ष आदि विभागों में विभक्त किये जा सकते हैं । यद्यपि वेदान्त और चार्वाक जैसे दर्शनों में परप्रत्यय परिणमनोंको भी स्वीकार किया गया है । जैसा पूर्व में हम बतला आये हैं कि वेदान्तदर्शनमें चित्को अचित्का उपादान मान लिया गया है और चार्वाक दर्शनमें अचित्को चित्का उपादान मान लिया गया है । परन्तु जैनदर्शन में चूँकि पर-प्रत्यय परिणमनका सर्वथा निषेध कर दिया गया है और जो अनुभव सिद्ध भी है इसलिये वस्तुमें परप्रत्ययपरिणमन मानने वाले वेदान्त आदि दर्शनोंकी इन मान्यताओंका वहाँ पर ( जैनदर्शन में ) खण्डन किया गया है । और यही कारण है कि जैन मान्यता के अनुसार जीव, पुद्गल, धर्मं, अधर्म, आकाश और काल द्रव्योंकी जितनी संख्या विश्व में निर्धारित की गयी है वह नियत है, उसमें कभी घटा-बढ़ी नहीं हो सकती है । प्रत्येक वस्तुके अगुरुलघुगुणके शक्त्यंशोंके आधारपर होनेवाले षट्स्थानपतित हानि-वृद्धिरूप स्वप्रत्यय गुणपरिणमनोंका संकेत ऊपर हम कर चुके हैं । वस्तुके स्वपरप्रत्यय द्रव्यपरिणमनों और गुणपरिणमनोंका विवरण निम्न प्रकार जानना चाहिये । १. द्विविधः उत्पाद: स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्च । - सर्वार्थसिद्धि टीका, ५-२ । नोट - - यहाँ पर पर प्रत्ययसे तात्पर्यं स्वपरप्रत्ययका आगमानुसार ग्रहण किया गया है । २. समयसार, गाथा ११६ से १२० व १२१ से १२५ तक । ३. स्वनिमित्तस्तावदतन्तानामगुरुलघुगुणानामागमप्रामाण्यादभ्युपगम्यमानानां षट्स्थानपतितया वृद्धा हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेतेषामुत्पादो व्ययश्च । -- सर्वार्थसिद्धि, ५-७ । ४. स्वश्च परश्च, स्वपरी, स्वपरौ प्रत्ययौ ययोस्तौ स्वपरप्रत्ययौ । उत्पादश्च विगमश्च उत्पादविगमौ, स्वपरप्रत्ययौ उत्पादविगमौ येषां ते स्वपरप्रत्ययोत्पादविगमाः । के पुनस्ते ? पर्यायाः । द्रव्यक्षेत्रकालभावलक्षणी बाह्यः प्रत्ययः तस्मिन् सत्यपि स्वयमतत्परिणामोऽर्थो न पर्यायान्तरमास्कन्दति । तत्समर्थश्च स्वः प्रत्ययः । तावुभौ संभूय भावानामुत्पादविगमयोर्हेतु भवतः, नान्यतरापाये कुशूलस्थमाषपच्यमानोदकस्थघोटक माषवत् । -- तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ५ - २ । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ७३ जीवका शरीरके छोटे-बड़े आकारके अनुसार जो छोटा-बड़ा आकार यथासमय बनता रहता है तथा जीवकी नर-नारकादि पर्यायोंके रूपमें पर्याय बनती रहती हैं ये सभी तथा इसी प्रकारके प्रत्येक वस्तुमें अन्य वस्तुके यथायोग्य संयोग या मिश्रणसे होने वाले सभी द्रव्यपरिणाम स्वपरप्रत्यय द्रव्यपरिणमन कहलाते हैं । इसी प्रकार आत्माको ज्ञानशक्तिका पदार्थको जाननेरूप परिणमन आत्माकी उस ज्ञानशक्तिमें विद्यमान परिणमन करनेकी योग्यताके आधारपर उस-उस पदार्थका योग मिलनेपर ही हुआ करता है। यह आत्म-वस्तुका स्वपरप्रत्यय गुणपरिणमन है । इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये । आत्माकी ज्ञानशक्तिके पदार्थको जानने रूप परिणमनमें पदार्थ तो सर्वत्र कारण होता है। वह ज्ञानशक्ति चाहे मतिज्ञानरूप हो अथवा चाहे श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान या केवलज्ञानरूप हो । अर्थात् इन पाँचों ज्ञानोंमेंसे कोई भी ज्ञान पदार्थके अभावमें कदापि पदार्थज्ञानरूप परिणमन नहीं कर सकता है। यही कारण है कि केवलज्ञानकी शक्ति विश्व में विद्यमान सभी पदार्थोंसे अनन्तगुणी' होकर भी सर्वज्ञ उसके द्वारा केवल उन्हीं पदार्थों को जानता है जो अपनी सद्रूपताको धारण किये हुए हैं। इसका अभिप्राय यही है कि बिना पदार्थका सहयोग मिले केवलज्ञानका परिणमन पदार्थको जानने रूप नहीं हो सकता है। इस प्रकार केवलज्ञानशक्तिका पदार्थज्ञानरूप परिणमन पदार्थाधीन ही सिद्ध होता है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तो पदार्थके साथ-साथ यथायोग्य पाँच पौद्गलिक इन्द्रियों तथा छठे मनकी सहायतासे ही उत्पन्न हुआ करते हैं । इस प्रकार यह बात सिद्ध हो जाती है कि आत्माकी ज्ञानशक्तिके पदार्थको जाननेरूप परिणमनमें स्वगत योग्यताके साथ-साथ पदार्थों तथा आवश्यकतानुसार इन्द्रियों और मनकी कारणता भी रहा करती है। इतना ही नहीं, मतिज्ञानमें प्रकाश भी यथायोग्य कारण हुआ करता है और श्रुतज्ञानमें शब्द भी कारण हुआ करते हैं। यहाँ पर विचारणीय बात यह है कि पदार्थज्ञानरूप परिणमनमें आत्माकी ज्ञानशक्तिमें रहनेवाली कारणता भिन्न प्रकारकी है और पदार्थोंमें रहनेवाली कारणता भिन्न प्रकारकी है तथा इन्द्रियोंमें, मनमें और प्रकाशमें रहनेवाली कारणता भिन्न-भिन्न प्रकारकी है। इसी तरह श्रतज्ञानमें शब्दकी कारणता भी भिन्न प्रकारकी है। अर्थात आत्माकी ज्ञानशक्तिकी जो कारणता है वह उपादानरूप है क्योंकि वह ज्ञानशक्ति ही पदार्थज्ञानरूप परिणत होती है । पदार्थों में, मनमें, इन्द्रियोंमें, प्रकाशमें और शब्दमें जो कारणता है वह निमित्तरूप है क्योंकि ये सब स्वयं पदार्थज्ञानरूप परिणमन न करते हुए आत्माकी ज्ञानशक्तिके पदार्थज्ञानरूप परिणमनमें सहायक होते हैं। इनमें भी आत्माकी ज्ञानज्ञक्तिके पदार्थज्ञानरूप परिणमनमें पदार्थ अवलम्बनरूपसे निमित्त होता है अर्थात् पदार्थ जब आत्मप्रदेशोंपर दर्पणकी तरह प्रतिबिम्बित होता है तभी आत्माकी ज्ञानशक्तिका पदार्थज्ञानरूप परिणमन होता है, अन्यथा नहीं। इन्द्रियाँ और मन करणरूपसे निमित्त होते हैं। प्रकाश विद्यमानता रूपसे ही निमित्त होता है । श्रुतज्ञानमें शब्द श्रवणपूर्वक निमित्त होते हैं । पूर्वमें हम इस बातका कथन कर आये हैं कि कार्य के प्रति कार्यसे अभिन्न वस्तुमें विद्यमान उपादान वाश्रित धर्म होनेके कारण "स्वाश्रितो निश्चयः" इस आगमवाक्यके अनसार निश्चयरूप है और उसी कार्यके प्रति कार्यसे भिन्न वस्तु में विद्यमान निमित्तकारणता "पराश्रितो व्यवहारः" इस आगमवाक्यके अनुसार व्यवहाररूप है। पूर्व में हम यह भी कह आये हैं कि जिसमें निश्चयरूपता रहा करती है वह सर्वथा वास्तविक, भूतार्थ, सद्भूत या सत्यार्थ हुआ करता है और जिसमें व्यवहाररूपता रहा करती है वह कथंचित् वास्तविक आदि १. त्रिलोकसार, द्विरूपवर्गधारा प्रकरण, गाथा ६९, ७०, ७१, ७२ । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं०बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ होता है और कथंचित् अवास्तविक आदि भी होता है। इस प्रकार उपादान कारण चूँकि निश्चयरूप कारण है, इसलिये उसे सर्वथा वास्तविक होना ही चाहिये और यह सर्वथा वास्तविकता उपादानकारणमें इस तरह सिद्ध होती है कि कार्य जब तक रहता है तब तक कार्य में उपादानकी अपेक्षा रहा करती है, इसलिये वह सर्वथा वास्तविक आदि है । लेकिन निमित्तकी अपेक्षा तभी तक रहती है जब तक कार्य उत्पन्न नहीं हो जाता । कार्यके उत्पन्न हो जाने पर निमित्तकी अपेक्षा समाप्त हो जाती है । अतः जब तक कार्यमें उसकी अपेक्षा है तब तक निमित्तको उस अपेक्षाके रूपमें वास्तविक ही कहा जायगा और कार्यके उत्पन्न होने पर चूँकि उसकी अपेक्षा समाप्त हो जाती है, अतः तब उसे इस दृष्टिसे अवास्तविक ही कहा जायगा। दूसरी बात यह है कि निमित्त तो कार्योत्पत्तिमें सहायक ही होता है, अतः इस दृष्टिसे तो यह वास्तविक ही होगा और चूंकि वह कार्यरूप परिणत नहीं होता, अतः इस दृष्टिसे वह अवास्तविक ही होगा, यह हम पूर्व में स्पष्ट कर इस तरह उपादानमें तो सर्वथा वास्तविकता और निमित्तमें कथंचित् वास्तविकता तथा कथंचित् अवास्तविकता रहनेके कारण उपादान तो कार्य में निश्चयकारण होता है और निमित्त व्यवहारकारण होता है । इसी प्रकार जो वस्तु स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे सत् है वह परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे असत् है अर्थात् प्रत्येक वस्तुमें स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे सत्तारूप धर्म विद्यमान है तथा परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे असत्तारूप धर्म विद्यमान है । जैसे आत्मा चित् है । यहाँपर जिस प्रकार आत्मामें चिद्रूप धर्मकी सत्ता सिद्ध होती है उसी प्रकार उसके अचिद्रप धर्मकी असत्ता भी सिद्ध होती है। अतः कहना चाहिये कि आत्मामें चिद्र पताका सद्भाव और अचिद्रूपताका अभाव इन दोनों धर्मोंमेंसे चिद्रपताका सद्भाव आत्माका स्वरूपपरक धर्म होने, अत एव स्वाश्रित धर्म होनेके कारण निश्चयधर्म है व अचिद्रूपताका अभाव स्वरूपपरक धर्म न होने, एतावता पराश्रित धर्म होने के कारण व्यवहारधर्म है। ये दोनों ही भावात्मक और अभावात्मक धर्म आत्मामें अपनी-अपनी सत्ता जमाकर बैठे हैं । यही कारण है कि जैनागममें यह सिद्धान्त स्वीकार किया गया है कि प्रत्येक वस्तुमें प्रत्येक प्रकारकी सत्ता अपनी प्रतिपक्षभूत असत्ताके साथ ही रहती है। यदि ऐसा नहीं माना जायगा अर्थात् आत्मामें चिद्रू पताके सद्भावके साथ अचिद्र पताका अभाव नहीं माना जायगा तो फिर चिद्रूप आत्माका अचिद्र प पुद्गलादि द्रव्योंके साथ वास्तविक भेद सिद्ध नहीं हो सकेगा। इसलिये जिस प्रकार आत्मामें चिद्रूपताका सद्भाव वास्तविक है उसी प्रकार उसमें अचिद्रू पताका अभाव भी वास्तविक ही है । इतनी बात अवश्य है कि चिद्रूपताका सद्भाव अपनी स्वाश्रयताके कारण जहाँ सर्वथा वास्तविक है वहाँ अचिद्रूपताका अभाव पराश्रयताके कारण कथंचित् वास्तविक है और कथंचित् अवास्तविक भी है। इसका कारण यह है कि जिस प्रकार आत्मामें चिद्रू पताका सद्भाव एक और अखण्ड धर्म है उस प्रकार अचिद् पताका अभाव एक और अखण्ड धर्म नहीं है, क्योंकि पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन सभी अचिद्रूप वस्तुओंकी अचिद्रू पता भिन्नभिन्न है। इसलिये इनमेंसे प्रत्येककी अचिद्र पताका अभाव भी आत्मामें भिन्न-भिन्न ही होगा। आत्मामें नाना अचिद्र पताओंके अभाव (स्वान्यन्यावत्तियाँ) भी नाना सिद्ध हैं और तब अचिद्र पता भी सखण्ड व नानारूप सिद्ध हो जाती है । नानारूपता और खण्डरूपताको व्यवहारधर्म व एकरूपता और अखण्डरूपताको निश्चयधर्म इन दोनों शब्दोंको व्युत्पत्तिके आधार पर हम पूर्वमें प्रतिपादित कर ही चुके हैं। भावरूपताको निश्चयशब्दका प्रतिपाद्य और अभावरूपताको व्यवहारशब्दका प्रतिपाद्य मानने में एक कारण यह भी है कि प्रत्येक वस्तुका भावरूप धर्म अपने वैशिष्टयके कारण उस वस्तुको स्वतंत्रताका निर्णायक १. पंचाध्यायी, अध्याय १, १५ । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/ धर्म और सिद्धान्त : ७५ होता है, अभावरूप धर्म नहीं। इसका कारण यह है कि अभावरूप धर्म तो नाना वस्तुओंमें भी समानता लिये हुये पाये जाते हैं। जैसे जीवमें पुद्गलद्रव्यकी-अचिद्र पताका जैसा अभाव है वैसा ही पुद्गलद्रव्यकी अचिद् पताका अभाव आकाशादि वस्तुओंमें भी है अन्यथा आकाशादि वस्तुओंमें पुद्गलद्रव्यसे भेद करना असंभव हो जायगा। अथवा यों कहें कि पुद्गलादि अचिद्रप वस्तुओंकी अचिद्रूपताका जैसे अभाव एक जीवमें है वैसा ही अभाव अन्य जीवोंमें भी है तो इस तरह नाना जीवोंमें परस्पर पार्थक्य सिद्ध करना असंभव हो जायगा। इसलिये मानना पड़ता है कि प्रत्येक वस्तूका भावरूप धर्म ही उस वस्तुकी स्वतंत्रताका निर्णायक होता है अभावरूप धर्म नहीं । इस तरह भावरूप धर्मको निश्चयधर्म तथा अभावरूप धर्मको व्यवहारधर्म कहना उचित ही है। अनन्तानन्त जीवों, अनन्तानन्त पदगलों, असंख्यात कालद्रव्यों तथा एक धर्म, एक अधर्म और एक आकाश इन सबका अपना-अपना पृथक्-पृथक् भावरूप धर्म ही इन सब वस्तुओंके पृथक-पृथक् अस्तित्वको सुरक्षित रखे हुए है। अन्यथा जीवोंकी अनन्तता, पुद्गलोंको अनन्तता और कालद्रव्योंकी असंख्यातता भंग हो जायगी। इतना ही नहीं, सम्पूर्ण वस्तुओंमें एकत्वका प्रस्थापन होकर संपूर्ण जगत अद्वैतताके साँचे में ढल जायगा। एक बात और है। अभावको जैनदर्शनमें भावान्तर स्वभाव माना गया है, भावको अभावान्तर स्वभाव नहीं। इसका भी कारण यह है कि सत्तात्मक (भावात्मक) धर्मके आधार पर ही वस्तुकी स्वतंत्रताका भान हो सकता है, असत्तात्मक (अभावात्मक) धर्म वस्तुकी स्वतंत्रताका भान करने में कदापि सहायक नहीं हो सकता है। ये सब कारण हैं जिनके आधार पर हमें प्रत्येक वस्तुके भावात्मक धर्मको निश्चयधर्म और अभावात्मक धर्मको व्यवहारधर्म ही स्वीकार करना पड़ता है। यह सब निश्चय और व्यवहारकी व्यवस्था वस्तुके नित्यत्वअनित्यत्व, तत्त्व-अतत्त्व, अभेद-भेद, एकत्व-अनेकत्व आदि वस्तुधर्मों के विषयमें भी समझ लेना चाहिये। इस विषयको पंचाध्यायी ग्रन्थमें अध्याय प्रथमके श्लोक १५ से श्लोक २२ तक विस्तारसे स्पष्ट किया है । ऊपरके कथनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जिस प्रकार वस्तुके निश्चयधर्मको निश्चयरूपसे अर्थात् सर्वथारूपसे वास्तविक माना जाता है उसी प्रकार वस्तुके व्यवहारधर्मको व्यवहाररूपसे अर्थात् कथंचित् रूपसे वास्तविक मानना ही उचित है। गधेके सींगकी तरह सर्वथा अवास्तविक, कल्पित या मिथ्या मानना उचित नहीं है। इन सब निश्चय-व्यवहारधर्मोके अलावा भी यदि निश्चय-व्यवहारधर्मोंके विषयमें विचार किया जाय तो कहा जा सकता है कि जहाँ द्रव्यानुयोगको दृष्टिमें उपयुक्त प्रकारसे विधिरूप धर्म निश्चय और निषेधरूप धर्म व्यवहारधर्म माना जाता है वहाँ करणानुयोगकी दृष्टिमें निषेधरूप धर्म निश्चयधर्म और विधिरूप धर्म व्यवहारधर्म कहा जाने योग्य है । जैसे मुक्ति संसारका अभावरूप धर्म है लेकिन पराश्रितताका अभावरूप धर्म होकर भी आत्माकी स्वतंत्रतारूप स्वाश्रयताका बोधक होनेसे निश्चयधर्म है तथा संसार आत्माकी परतंत्रतारूप पराश्रितताका बोधक होनेके कारण भावरूप धर्म होकर भी व्यवहार है। इसी प्रकार उद्देश्यरूपताविधेयरूपता, कार्यरूपता-कारणरूपता, साध्यरूपता-साधनरूपता आदि परस्पर-विरोधी धर्मयुगलोंमें भी निश्चय और व्यवहारकी व्यवस्था बैठा लेना चाहिये । लब्धि और उपयोग, स्वभाव और विभाव, द्रव्य और पर्याय, गुण और पर्याय, अन्वय और व्यतिरेक, अन्तरंग और बाह्य आदिके विकल्पों में भी पूर्व-पूर्वका धर्म निश्चयरूप और उत्तर-उत्तरका धर्म व्यवहाररूप ही होता है। किस धर्मको वस्तुका निश्चयधर्म माना जाय और किस धर्मको वस्तुका व्यवहारधर्म माना जाय, इसका निर्णय हमें सर्वत्र निश्चय और व्यवहार शब्दोंके व्युत्पत्त्यर्थोके आधारपर प्रकरणानुसार ही कर लेना चाहिये । लेकिन सर्वत्र इस बातका ध्यान रखना ही चाहिये कि वे तो निश्चयधर्म हैं जो अपने-अपने ढंगसे सर्वथा वास्तविक हैं और वे व्यवहारधर्म हैं जो अपने-अपने ढंगसे कथंचित् वास्तविक और कथंचित् अवास्तविक है । इस तरह जो भी सर्वथा अवास्तविक धर्म हो उसे व्यवहार Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ धर्म कहना असंगत, मिथ्या या कल्पनारूप ही है। इसीलिये जो व्यक्ति सर्वथा अवास्तविक धर्मोको ही व्यवहार धर्मके रूपमें समझ बैठे हैं वे महान् भ्रमके शिकार हो रहे हैं। इसी तरह जिन लोगोंने व्यवहारधर्मको भी सर्वथा वास्तविक धर्म मान रक्खा है वे भी महान् भ्रमके शिकार हो रहे है। ___लोकमें भी व्यवहारधर्मको कथंचित् वास्तविक मानना अत्यन्त आवश्यक है । जैसे--"यह शरीर मेरा है" "यह मकान मेरा है", "यह द्रव्य मेरा है" "ये मेरे स्वजन है" "मैं अमक समाजका व्यक्ति 'ये मेरे स्वजन है", "मैं अमुक समाजका व्यक्ति हूँ" और "अमुक ग्राम या देशका रहनेवाला हूँ" इत्यादि व्यवहार यदि सर्वथा अवास्तविक ही हैं तो लोककी और अध्यात्मकी संपूर्ण व्यवस्था हो छिन्न-भिन्न हो जायगी, क्योंकि फिर तो सर्वत्र अराजकता फैल जायगी व अधार्मिकताका ही बोलबाला हो जायगा। विवेकी पुरुषोंकी तो कल्पना करके रूह काँपने लग सकती है। यहाँ पर यह भी ध्यान रखना चाहिये कि एक स्थानपर वस्तुका जो व्यवहारधर्म है वह दूसरे स्थान पर निश्चयधर्म हो सकता है। परन्तु ऐसे भी निश्चयधर्म होते हैं जो सर्वथा निश्चय होकर ही रहते हैं जैसेपुद्गलाणुओंके मिश्रणसे बनी हुई मिट्टीरूप स्कंधपर्याय व्यवहारधर्म है परन्तु वही मिट्टी घटोत्पत्तिमें निश्चयरूपताको प्राप्त हो जाती है। यही कारण कि मिट्टीरूप स्कंधपर्यायको द्रव्यके रूप में यदि कहा जाय तो वह अशुद्ध द्रव्य ही कहा जायगा। इस तरह केवल अणुरूप पुद्गल द्रव्य ही ऐसा है जिसे एकान्तः (सर्वथा) वास्तविक या शुद्ध द्रव्य कहा जा सकता है । यह व्यवस्था सर्वत्र लागू कर लेना चाहिये ।। ____ इस तरह हम पुनः कह देना चाहते हैं कि परसापेक्ष सर्वथा वास्तविकताका होना निश्चयकी कसौटी है, कथंचित् वास्तविकता और कथंचित् अवास्तविकताका होना व्यवहारकी कसौटी है तथा परनिरपेक्ष सर्वथा वास्तविकताका होना मिथ्यारूपता की कसौटी है। उपसंहार अध्यात्मके प्रकरणमें जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप मोक्षमार्गका विवेचन किया गया है और उससे जो निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यकचारित्रको निश्चयमोक्षमार्ग तथा व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यकचारित्रको व्यवहारमोक्षमार्ग कहा गया है। इनके विषयमें इसतरह निश्चय-व्यवहारका विभाजन करना चाहिये कि किसमें, किस तरहसे स्वाश्रयता या अभेदरूपता पायी जाती है और किसमें, किस तरहसे पराश्रयता या भेदरूपता पायी जाती है । इसप्रकार यह निर्णीत होता है कि औपशमिक सम्यग्दर्शन और क्षायिक सम्यग्दर्शन तथा औपशमिक सम्यक्चारित्र और क्षायिक सम्यक्चरित्र ये सभी निश्चयधर्मकी कोटिमें आते हैं । यह बात दूसरी हैं कि औपशमिक सम्यग्दर्शन और औपशमिक सम्यक्चारित्र अशाश्वत (अन्तर्मुहूर्तस्थायी) हैं, जबकि क्षायिकसम्यग्दर्शन और क्षायिक सम्यक्चारित्र शाश्वत (स्थायी) हैं। इन सबको निश्चयधर्म इसलिये कहा जाता है कि ये सभी उस-उस कर्मके उपशम या क्षयसे उत्पन्न होनेके कारण सर्वथा आत्माश्रित धर्म सिद्ध होते हैं । क्षायोपशमिकसम्यग्दर्शन और क्षायोपशमिकसम्यक्चारित्र ये दोनों व्यवहारधर्मकी कोटिमें आते हैं। इनको व्यवहारधर्म कहनेका कारण यह है कि ये दोनों उस-उस कर्मके क्षयोपशमसे पैदा होते हैं अर्थात् इनको उत्पत्तिमें उस-उस कर्मकी सर्वघाती प्रकृतियोंके वर्तमानमें उदय आनेवाले निषेकोंका उदयाभावी क्षय, आगामी कालमें उदय आनेवाले निषेकोंका सदवस्थारूप उपशम तथा देशघाती प्रकृतिका उदय, इसतरह कर्मका उदयांश, उपशमांश और क्षयांश तीनों ही कारण होते हैं। ऐसी स्थितिमें इनमें जहाँ कर्मके उपशम और क्षयकी अपेक्षा आत्माश्रितता पायी जाती है वहाँ कर्मके उदयकी अपेक्षा पराश्रितता भी पायी जाती है। इस तरह इनमें जहाँ Jain Education international Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त ७७ संसारकी कारणताका अभाव पाया जाता है वहीं संसारकी कारणताका सद्भाव भी पाया जाता है । अथवा यों कहिये कि जहाँ इनमें मोक्षकी कारणताका सद्भाव पाया जाता है वहीं मोक्षकी कारणताका अभाव भी पाया जाता है।" व्यवहार या क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनकी स्थिति जीवके चौथे गुणस्थानसे सप्तमगुणस्थान तक ही संभव है, औपशमिकरूप निश्चयसम्यग्दर्शनकी स्थिति चौथेसे सातवें तक तथा उपशमश्रेणी के सातवें, आठवें, नौवें और दशवे गुणस्थानोंमें एवं उपशांतमोह नामक ११ वें गुणस्थान में संभव है तथा क्षायिकरूप निश्चयसम्यग्दर्शनकी स्थिति पीसे सातवें तक तथा उपशमश्रेणी के सातवें, आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थानोंमें एवं ११ उपशान्तनामक गुणस्थान में भी संभव है। इसके अतिरिक्त क्षपक श्रेणीके सातवें, आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थानोंमें तथा क्षीणमोहनामक १२खँ गुणस्थान में एवं उसके आगे सर्वत्र नियमसे क्षायिक सम्यग्दर्शन विद्यमान रहता है। चीचे गुणस्थानसे पूर्व प्रथम गुणस्थान में मिथ्यात्वके रूपमें द्वितीय गुणस्थान में सासादन अर्थात् अनन्तानुबन्धी कषायके उदयसे उत्पन्न औदयिकभावके रूपमें तथा तृतीय गुणस्थान में सम्यगमिथ्यात्व (मिश्रभाव ) के रूप में सम्यग्दर्शनका सर्वथा अभाव रहा करता है अर्थात् इन गुणस्थानोंमें निश्चय और व्यवहार दोनों ही प्रकारके सम्यग्दर्शन नहीं रहा करते हैं। व्यवहार या क्षायोपशमिक चारित्र या यों कहिये कि सरागचारित्र नियमसे पाँचवे से लेकर दशवे गुण-स्थान तक रहा करता है, ११वे गुणस्थानमें नियमसे औपशमिकरूप निश्चयचारित्र, वीतरागचारित्र या यथास्यातचारित्र रहा करता है और १२वे गुणस्थानसे लेकर आगे १४वे गुणस्थानके अन्ततक क्षायिकरूप निश्चयचारित्र, वीतरागचारित्र या यथाख्यातचारित्र रहा करता है । आगे मोक्षमें चूँकि आत्मस्वरूप में कारणरूपता समाप्त होकर कार्यरूपताका प्रादुर्भाव हो जाता है । अतः वहाँपर चारित्रकी स्थितिको आगम में अस्वीकृत कर दिया गया है। यहाँ पर इतनी विशेषता और समझ लेना चाहिये कि यद्यपि निश्चयसम्प चारिण, क्षायिकत्व और यथाख्यातस्वकी दृष्टिसे १२वे गुणस्थानके प्रारम्भमें जीवको उपलब्ध हो जाता है। परन्तु यह सब उसका भावात्मकरूप है, द्रव्यात्मक दृष्टिसे अभी उसकी ( निश्वयसम्यक् चारित्रकी) पूर्णता शेष रह जाती है, क्योंकि अभी भी उसके कर्मोंके साथ बद्धता बनी हुई है । साथ ही निश्चयसम्यग्ज्ञानका पूर्णता और पूर्ण आत्माश्रिताके रूपमें अभी भी अभाव बना रहता है। इसके अलावा नोकर्मनिमित्तक योग भी आत्मा में हुआ करता है। तेरहवे गुणस्थानको आदिमें यद्यपि समस्त ज्ञानावरण, समस्त दर्शनावरण और समस्त अन्तराय कर्मका सर्वथा क्षय हो जानेसे निश्चयसम्यग्ज्ञानकी पूर्णता हो जाती है फिर भी द्रव्यात्मक रूप से निश्चयसम्यक् चारित्र अभी भी अपूर्ण बना रहता है । यद्यपि योगका निरोध हो जानेपर नोकर्मनिमित्तक योग समाप्त हो जाता है फिर भी अघातीकर्म अभी भी कार्यरत रहा करते हैं । इन अघाती कमोंका प्रभाव १४वे गुणस्थानके अन्त समयमें हो समाप्त होता है। अतः उसी समय आत्मा भी द्रव्यात्मकरूप में पूर्ण स्वावलम्बी बनता है, यही निश्चयसम्यक्चारित्रकी पूर्णता है और इसके होनेपर आत्मा भी तत्काल पूर्ण स्वतन्त्र्यमय मुक्तिको प्राप्त हो जाता है । ३ १. आगम में सरागसम्यक्त्वको जो व्यवहारसम्यक्त्व और वीतरागसम्यक्त्वको निश्चयसम्यक्त्व कहा गया है उसके साथ प्रकृतका विरोध नहीं समझना चाहिये, क्योंकि यहाँपर सम्यग्दर्शनके सम्यक्त्व सम्बन्ध में मात्र दर्शनमोहनीय कर्म के उदय अनुदयको अपेक्षासे विचार किया गया है। २. तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय १० के सूत्र ३ व ४ की श्लोकवार्तिकटीका | , २. तत्वार्थसूत्र, अ० १ के सूत्र १ की श्लोकवार्तिकटीकामे वार्तिकश्लोक ८७ से ९७ तक व इनका भाष्य । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य ऊपर पांचवे गुणस्थानसे दशवे गुणस्थान तक व्यवहारसम्यक्चारित्रका और ११वे से लेकर चौदहवें गणस्थान तक निश्चयसम्यकचारित्रका सदभाव बतला आये हैं। इससे यह भी सिद्ध हो कि प्रथमसे लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक व्यवहारसम्यक्चारित्रका अभाव ही पाया जाता है। इसी प्रकार यदि स्वाश्रयता और पूर्णताको ही निश्चयसम्यग्ज्ञानकी कसौटी माना जाय, जो कि तत्त्वतः सही है, तो क्षायिकरूप केवलज्ञान ही निश्चयसम्यग्ज्ञानकी कोटिमें आता है । अतः पराश्रयता और अपूर्णताके आधारपर मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चारों ही ज्ञान क्षायोपशमिक होनेके कारण व्यवहारसम्यग्ज्ञानकी कोटिमें ही आ जाते हैं। ऐसी स्थितिमें व्यवहारसम्यग्ज्ञानकी स्थिति चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर १२वें गुणस्थान तक सिद्ध होती है व तेरहवे गुणस्थान व उसके आगे ही निश्चयसम्यग्ज्ञानका सद्भाव सिद्ध होता है ।' चतुर्थ गुणस्थानसे पूर्वका ज्ञान मिथ्याज्ञान ही सिद्ध होता है । इस विवेचनका सार यह है कि प्रथमसे तृतीय गुणस्थान तक मोक्षमार्गताका सर्वथा अभाव है, कारण कि वहाँ तक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रका अभाव ही रहा करता है । अतः वहाँ पर संसारकी ही कारणता रहा करती है। व्यवहारसम्यग्ज्ञानरूप मोक्षमार्ग चतुर्थ गुणस्थानसे प्रारम्भ हो जाता है और १२वेंगुणस्थान तक रहता है व तेरहवें गुणस्थानमें निश्चयसम्यग्ज्ञान हो जाता है और वह आगे भी रहता है। व्यवहारसम्यग्दर्शन भी चतुर्थ गुणस्थानमें उत्पन्न होकर सातवे गुणस्थान तक रहता है। इसके आगे निश्चयसम्यग्दर्शन ही रहा करता है । परन्तु किसी जीवके निश्चयसम्यग्दर्शनकी प्राप्ति चतुर्थ गुणस्थानमें भी हो जाती है, किसीको पाँचवे में, किसीको छठेमें और किसीको सातवें में भी होती है। इस तरह निश्चयसम्यग्दर्शनका सद्भाव चौथेसे सातवें तकके गुणस्थान तक भी सम्भव हो जाता है । व्यवहारसम्यक्चारित्रकी प्राप्ति पाँचवें गुणस्थानमें होती है। इसका सद्भाव १० गुणस्थान तक रहता है । ११वें गुणस्थानमें व आगे निश्चयसम्यक् चारित्र ही रहता है तथा इसकी पूर्णता चतुर्दश गुणस्थान के अन्त समयमें होती है । पाँचवेंगुणस्थानसे पूर्व व्यवहारसम्यक्चारित्र भी नहीं रहता है। विषयका उपसंहार करते हुए हमने ऊपर यद्यपि निश्चय और व्यवहाररूप विभाजन मोक्षमार्गको दृष्टिमें रखकर अथवा यों कहिये कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको दृष्टिमें रखकर किया है। परन्तु लेखमें शास्त्रीय दृष्टिसे चर गानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग इन सभी अनुयोगोंके आधारसे भी विस्तारसे किया है। साथ ही लौकिक दृष्टिसे भी संक्षिप्त रूपमें किया है। इसलिये इसके सम्बन्धमें विस्तार न करके अब इस बातपर विचार करते हैं कि जब आगममें 'निश्चयनय' और 'व्यवहारनय' शब्दों का भी सर्वत्र बहुलतासे प्रयोग मिलता है तो इनका अर्थ और प्रयोजन क्या है ? निश्चयनय और व्यवहारनयका अर्थ और प्रयोजन नयोंको जैनागममें प्रमाणका अंश स्वीकार किया है। जैनागममें यह भी बतलाया गया है कि वस्तुतत्त्वको समझनेके लिये जो साधकतम (करणरूप) साधन हो उसे प्रमाण समझना चाहिये। इसके साथ १. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १, सुत्र १ को श्लोकवार्तिकटोकाके वार्तिक-श्लोक ९३, ९४, ९५ । २. नाप्रमाणं प्रमाणं वा नयो ज्ञानात्मको मतः । स्यात्प्रमाणकदेशस्तु सर्वथाप्यविरोधतः ।। -तत्त्वा०, श्लो० १-६, वा० २९ । ३. प्रकर्षेण संशयादिव्यवच्छेदेन मीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन तत्प्रमाणम ।। -प्रमेयरत्नमाला १-१ को टीका। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ७९ ही वहाँ पर यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि वस्तुतत्त्वको समझनेका साधकतम (करणरूप) साधन ज्ञान ही हो सकता है, अतः ज्ञानको ही प्रमाण जानना चाहिये। इस तरह चूँकि वस्तुतत्त्वको समझनेका साधनभूत ज्ञान ही पूर्वोक्त प्रकारसे प्रमाण होता है और प्रमाणका अंश ही नय होता है । अतः इसके अनुसार यह निर्णीत होता है कि जो वस्तुतत्त्वके अंशको समझनेका साधनभूत ज्ञान हो उसे नय कहना चाहिये । प्रमाणरूप ज्ञान जैनागममें पांच बतलाये गये हैं-मतिज्ञान, प्रतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । इनमेंसे मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये चारों ही ज्ञान अखण्डवस्तुका ज्ञान कराते हैं और इनमेंसे भी केवलज्ञान तो वस्तुका सर्वात्मना ज्ञान कराता है तथा मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान एकदेशात्मना वस्तुका ज्ञान कराते हैं। श्रुतज्ञानकी वस्तुका ज्ञान करानेकी प्रक्रिया इन चारों ज्ञानोंसे भिन्न प्रकारकी है। अर्थात् श्रुतज्ञान वस्तुका यद्यपि सर्वात्मना ज्ञान कराता है, परन्तु केवलज्ञानसे वस्तुका ज्ञान सर्वात्मना होता है वह युगपत् प्रत्यक्षरूपमें होता है और श्रुतज्ञानसे जो वस्तुका सर्वात्मना ज्ञान होता है वह क्रमशः एक-एक अंशके ग्रहणपूर्वक परोक्ष रूपमें होता है। इस तरह कहना चाहिये कि श्रुतज्ञान द्वारा वस्तुके एक-एक अंशका क्रमशः पृथक्-पृथक् ही ग्रहण होता है इसलिये श्रुतज्ञानमें नयोंकी व्यवस्थाको अनायास स्थान प्राप्त हो जाता है और यही कारण है कि आगममें श्रुतज्ञानमें ही नयोंकी व्यवस्थाका प्रतिपादन किया गया है तथा मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानमें नयव्यवस्थाका निषेध किया गया है। उपयुक्त कथनका अभिप्राय यह है कि वस्तुके एक-एक अंशका पृथक-पृथक रूपमें क्रमशः बोध होनेका नाम नय है। ऐसा बोध श्रुतज्ञानको छोड़कर मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानमें सम्भव नहीं है। श्रुतज्ञानमें कैसे संभव है ? इसका समाधान यह है कि श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति वचनके आधारपर ही हुआ करती है और चूँकि वचन सांश होता है अतः सांश वचनके आधारपर उत्पन्न होनेवाला जो श्रुतज्ञानरूपी बोध है उसमें भी सांशताकी सिद्धि हो जाती है। इसप्रकार श्रुतज्ञानमें नय व्यवस्थाकी सिद्धि हो जाती है। वचनमें सांशताकी सिद्धि अनुभवसिद्ध है, कारण कि वाक्योंके समूहरूप महावाक्यमें समाविष्ट जितने वाक्य हों उनका उच्चारण या लेखन क्रमसे ही होता है। इसी तरह प्रत्येक वाक्यमें जितने पद हों उनका १. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञानं प्रमाणम् ।--परीक्षामुख, ।१-१ । हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् । वही, ११२ । २. स्वार्थेकदेशनिर्णीतिलक्षणो हि नयः स्मृतः १-९८ ।-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १-६ वा० ४। ३. मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् । तत्प्रमाणे । आद्य परोक्षम्, प्रत्यक्षमन्यत् । -तत्त्वार्थसूत्र, ११९, २०, ११, १२ ४. मतेरवधितो वापि मनःपर्ययतोऽपि वा । ज्ञातस्यार्थस्य नांशेऽस्ति नयानां वर्तनं ननु ॥ निःशेषदेशकालार्थागोचरत्वदृविनिश्चयात् । तस्येति भाषितं कैश्चिद्युक्तमेव तथेष्टतः ।। त्रिकालगोचराशेषपदार्थांशेषु वृत्तितः । केवलज्ञानमूलत्वमपि तेषां न युज्यते ॥ परोक्षाकारतावृत्तेः स्पष्टत्वात्केवलस्य तु । श्रुतमूला नया सिद्धा वक्षमाणाः प्रमाणवत् ।। --तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १-६, वा० २४, २५, २६, २७! ५. नीयते गम्यते येन श्रुतार्थांशो नयो हि सः । तत्त्वा० श्लो० १-३३, वा० ६ । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ भी उच्चारण या लेखन क्रमसे होता है और प्रत्येक पदमें जितने अक्षर हों उनका भी उच्चारण या लेखन क्रमशः होता है। यही कारण है कि निरर्थक अक्षरोंके समूहका नाम शब्द कहलाता है, और शब्द यदि विभक्त्यन्त हो जावे तो वह पद कहलाने लगता है। पद दो प्रकारके होते हैं एक संज्ञापद और दूसरा क्रियापद । इन दोनोंके योगसे वाक्य बनता है। दो आदि वाक्योंके योगसे महावाक्य बनता है। इसी प्रकार दो आदि महावाक्योंके योगसे भी महावाक्यको निष्पत्ति होती है। सबसे बड़ा महावाक्य ग्रन्थ होता है । ग्रन्थके अन्तर्गत अध्याय आदिके रूपमें भी महावाक्य होते हैं । एक-एक अध्याय भी कई-कई महावाक्योंका समुदाय होता है। एक-एक महावाक्यमें दो आदि अनेक वाक्य होते हैं और एक-एक वाक्यमें दो आदि अनेक पद होते हैं। इस प्रकार वचनरूप श्रुतका रूप पदसे लेकर बड़े-से-बड़े महावाक्य तक हो जाता है । जैनागमका सबसे बड़ा महावाक्य द्वादशांग रूप है । इसके १२ अन्तर्भेद हैं । १२वें अन्तर्भेद दृष्टिवादके मुख्य पाँच भेद हैं और फिर इनके भी अनेक उपभेद हैं । ये सब भेद वचनरूप श्रुतके हैं तथा इनके श्रवण या पाठसे जो वस्तुतत्त्वका बोध श्रोता या पाठकको हुआ करता है वह ज्ञानरूप श्रुत कहलाता है । ज्ञानरूप श्रुत अर्थात् वचनके आधारपर जो बोध श्रोता या पाठकको हुआ करता है उसे आगममें स्वार्थश्रुत भी कहा गया है और वहींपर उस वचनरूप श्रुत या वचनको परार्थश्रुत भी कहा गया है। मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये चारों ही ज्ञान चूंकि ज्ञानरूप ही हुआ करते हैं, अतः अपनी ज्ञानरूपताके कारण ये चारों ज्ञान स्वार्थ प्रमाणरूप ही हुआ करते हैं। इस तरह कहना चाहिये कि प्रमाण दो तरहका होता है-एक स्वार्थरूप और दूसरा परार्थरूप । जो प्रमाण ज्ञानरूप हो उसे स्वार्थ प्रमाण और जो प्रमाण-वचनरूप हो उसे परार्थ-प्रमाण जानना चाहिये। इस प्रकार मति, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये चारों प्रमाण तो अपनी ज्ञानरूपताके कारण स्वार्थप्रमाणरूप ही होते हैं और श्रुतप्रमाण अपनी ज्ञानरूपताके कारण तो स्वार्थप्रमाणरूप होता है तथा अपनी वचनरूपताके कारण वह परार्थप्रमाणरूप भी होता है । जो वचन वक्ता या लेखकके अभिप्रायरूप वस्तुतत्त्वका पूर्णरूपसे प्रतिपादन करता है वह तो प्रमाणरूप होता है और जो वचन वक्ता या लेखकके अभिप्रायरूप वस्तूतत्त्वके एक देश (अंश)का प्रतिपादन करता १. सुप्तिङन्तं पदम्-पाणिनीय अष्टाध्यायी १-४-१४ । २. पदानां परस्परसापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वक्यम् । अष्टशती, अकलंकदेव, आप्तमी० का० १०३ । ३. वाक्योच्चयो महावाक्यम् ।-साहित्यदर्पण २-१। यहाँपर 'वाक्योच्चयः' पदका विशेषण इसकी टीकामें "योग्यताकांक्षासत्तियुक्तः" दिया गया है । इस तरह महावाक्यका लक्षण निम्न प्रकार हो जाता है "परस्परसापेक्षाणां वाक्यानां निरपेक्षः समुदायो महावाक्यम्"। इस लक्षणके आधारपर ही गोम्मटसार जीवकाण्डमें श्रुतमार्गणाप्रकरणमें गिनाये गये श्रुतके बीस भेदोंमेंसे आदिके अक्षर, पद और संघात (वाक्य) से आगे जितने भेद गिनाये गये हैं वे सब यहाँ वाक्यके भेद समझना चाहिये। ४. महावाक्यों के योगसे जो महावाक्य बनता है उसका लक्षण निम्न प्रकार जानना चाहिये-परस्परसापेक्ष महावाक्योंके निरपेक्ष समुदायका नाम भी महावाक्य है ।-(लेखक)। ५. प्रमाण द्विविध स्वार्थ परायः च । तत्र स्वार्थ प्रमाणं श्रुतवयंम् । श्रुतं पुनः स्वार्थ भवति परार्थं च । ज्ञानात्मकं स्वार्थ वचनात्मकं परार्थम् । तद्विकल्पा नयाः-सर्वार्थसिद्धि १-६ । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ८१ है वह नयरूप होता है।' इस तरह पद, यदि वाक्यसे सम्बद्ध हो तो वह नयरूप होगा और पद तभी नयरूप होगा, जबकि वह वाक्यसे सम्बद्ध होगा। स्वतन्त्र पद प्रमाणरूप तो होगा ही नहीं, लेकिन अर्थाशके भी प्रतिपादनमें असमर्थ रहनेके कारण वह नयरूप भी नहीं होगा। वाक्य यदि अपनी स्वतन्त्र हालतमें वक्ता या लेखकके पूर्ण अभिप्रायका प्रतिपादन करता है तो वह प्रमाणरूप होगा और यदि किसी महावाक्यका अवयव होकर वक्ता या लेखकके अभिप्रायके एकदेशका प्रतिपादन करता है तो वह नयरूप होगा। यही व्यवस्था वाक्योंके समहरूप महावाक्योंके और महावाक्योंके समूहरूप महावाक्योंमें भी जानना चाहिये । लेखविस्तारके भयसे यहाँपर इन सब बातोंपर विशेष प्रकाश नहीं डाला जा रहा है। जैनागममें नयोंकी व्यवस्था विविध प्रकारसे की गयी है। उनमें एक प्रकार तो नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नाम के सात नयोंका है। दूसरा प्रकार द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नामके दो नयोंका है और तीसरा प्रकार निश्चय तथा व्यवहार नामके दो नयोंका है।४ नयोंका इन प्रकारोंके अलावा एक प्रकार वह भी है, जिसमें वचनके सभी प्रकारोंका समावेश हो जाता है । इसे हम लोकसंग्राहक नयोंका प्रकार कहना उचित पमझते हैं । इस सम्बन्धमें गोम्मटसार कर्मकाण्डकी निम्नलिखित गाथा ध्यान देने योग्य है-- जावदिया वयणपहा तावदिया चेव होंति णयवादा । जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया ।।८९४।। अर्थात् जितने वचन बोलनेके मार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय हैं। नयोंके इन सब प्रकारोंका विवेचन यहाँ हमें नहीं करना है। प्रकृत प्रसंग तो निश्चयनय और व्यवहारनयका है । अत. इन्हीं दो नयोंपर ही हम यहाँ प्रकाश डाल रहे हैं। . सर्वप्रथम यहाँपर इस बातको समझना है कि उपयुक्त पदादि महावाक्य पर्यन्त वचन दो प्रकारका होता है-एक तो वस्तूतत्त्वको सत्य (यथावस्थित रूपमें प्रतिपादित करनेवाला वचन और दूसरा वस्तुतत्त्वको असत्य (जैसा नहीं है वैसा) रूपमें प्रतिपादित करनेवाला वचन । इनमेंसे वस्तुतत्त्वको सत्यरूपमें प्रतिपादित करनेवाला वचन सकलादेशी प्रमाणरूप होता है और वस्तुतत्त्वके एकदेशको सत्यरूपमें प्रतिपादित करनेवाला वचन विकलादेशो नयरूप होता है। इसी प्रकार वस्ततत्त्वको असत्यरूपमें प्रतिपादित करनेवाला वचन प्रमाणाभास और नयाभासके भेदसे दो प्रकारका होता है। जो वचन अवस्तुको वस्तुरूप में प्रतिपादित करता हो वह भी प्रमाणाभासरूप होता है तथा जो वचन वस्तूके एक अंशको संपूर्ण वस्तुरूपमें प्रतिपादित करता हो, वह वचन भी प्रमाणाभासरूप होता है। इसी प्रकार जो बचन वस्तूके अंशको दूसरे अंशरूपमें प्रतिपादित करता हो वह वचन नयाभासरूप होता है । १. सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीन इति ।-सर्वार्थसिद्धि १-६ । २. नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढवम्भूता नयाः । -तत्त्वार्थसूत्र १-३३ । ३. नयो द्विविधः । द्रव्याथिकः पर्यायाथिकश्च ।--सर्वार्थसिद्धि १-६।। (नयः) द्वधा द्रव्याथिकः पर्यायार्थिकश्चेति । द्रव्यं सामान्यमुत्सर्गः अनुवृत्तिरित्यर्थः, तद्विषयो द्रव्यार्थिकः । पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थः, तद्विषयः पर्यायाथिकः । -सर्वार्थसिद्धि १-३३ । ४. पुनरप्यध्यात्मभाषया नया उच्यन्ते । तावन्मूलनयौ द्वौ निश्चयो व्यवहारश्च । तत्र निश्चयोऽभेदविषयो व्यवहारो भेदविषयः । आलापपद्धति । ११ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ जैनागममें वस्तुको अनेकान्तात्मक माना गया है अर्थात् जैनागममें बतलाया गया है कि प्रत्येक वस्तु भावरूप और अभावरूप परस्पर-विरोधी अनन्तधर्मात्मक है और वे भावरूप तथा अभावरूप परस्पर-विरोधी अनन्तधर्म वस्तुमें अपने-अपने विरोधी धर्मके साथ ही रहा करते हैं। प्रत्येक भावरूप धर्म अपने विरोधी अभावरूप धर्मके साथ ही वस्तुमें रह रहा है। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तुमें नित्यरूप धर्म रह रहा है, तो उसका विरोधी अनित्यरूप धर्म भी उसमें रह रहा है। इस विषयको आवश्यकताके अनुसार पूर्वमें स्पष्ट किया गया है। पूर्व में हम यह भी बतला आये हैं कि प्रत्येक वस्तुमें विद्यमान परस्पर-विरोधी उन दो धर्मोमेंसे एक धर्म तो निश्चयरूप होता है और एक धर्म व्यवहाररूप होता है। इस आधारपर वस्तुतत्त्वके प्रतिपादनमें यह बात निर्णीत होती है कि जो वचन वस्तुतत्त्वके निश्चय और व्यवहाररूप दोनों अंशोंका प्रतिपादन करता है वह वचन प्रमाणरूप है । जैसे-“वस्तु नित्यानित्य है" । यह वचन वस्तुके निश्चय और व्यवहार दोनों अंशोंका प्रतिपादन करता है इसलिये प्रमाणरूप है। जो वचन वस्तुके निश्चयांशका निश्चयरूपसे प्रतिपादन करता है वह वचन निश्चयनयरूप है । जैसे-“प्रत्येक वस्तु अपनी अपनी परिणतिका उपादान कारण होता है" । यह वचन वस्तुमें विद्यमान उपादनकारणतारूप निश्चय धर्मका प्रतिपादन करता है, इसलिए निश्चयनयरूप है। जो वचन वस्तुके व्यवहारांशका व्यवहारांश रूपमें प्रतिपादन करता है वह वचन व्यवहारनयरूप है । जैसे—“चित् अचित्की परिणतिमें और अचित् चित्की परिणतिमें निमित्तकारण होता है"। वह वचन चित् में अचित्की परिणतिकी और अचितमें चित्की परिणतिको विद्यमान निमित्तकारणतारूप व्यवहारधर्मका प्रतिपादन करता है, इसलिये व्यवहारनयरूप है। जो वचन अवस्तुको वस्तुरूपमें प्रतिपादन करता है वह वचन प्रमाणाभास है, जैसे-“गधेके सींग होते हैं"। यह वचन सर्वथा असद्भूत वस्तुका प्रतिपादन करता है इसलिये प्रमाणाभास हैं। जो वचन एक वस्तुको अन्य वस्तुरूप प्रतिपादन करता है वह वचन भी प्रमाणाभास है जैसे-“संपूर्ण दृश्यमान जगत् ब्रह्मकी ही पर्याय है"। यह वचन अचेतनको चेतनरूप प्रतिपादित कर रहा है इसलिये प्रमाणाभास है। इसी प्रकार जो वचन वस्तुके एक अंशको वस्तु रूपमें प्रतिपादन करता है वह भी प्रमाणाभास है । जैसे-वस्तुको सर्वथा भावात्मक या सर्वथा अभावात्मक मानना अथवा सर्वथा नित्यात्मक या सर्वथा अनित्यात्मक मानना इत्यादि वचन वस्तुके अंशको वस्तुरूपमें प्रतिपादन करते हैं, इसलिये ये वचन भी प्रमाणाभास हैं । जो वचन वस्तुके एक अंशको बस्तुके अन्य अंशके रूपमें प्रतिपादन करते हैं वे वचन नयाभास होते हैं ऐसा ऊपर कहा गया है। इस आधार पर जो वचन वस्तुके व्यवहारांशका निश्चयांशरूपमें प्रतिपादन करनेवाला हो वह निश्चयनयाभास है । जैसे-"चित् ही अचितरूप परिणत होता है" । अथवा “अचित् ही चित् रूप परिणत होता है" यह वचन निश्चय नयाभास है क्योंकि चित् अचित्की उत्पत्तिमें और अचित चितकी उत्पत्तिमें निमित्तकारणरूप व्यवहारकारण ही होते हैं, उपादानकारणरूप निश्चयकारण नहीं होते हैं। इस तरह उक्त वाक्योंमें निमित्तकारणरूप व्यवहारका रणको उपादानकारणरूपमें निश्चयकारणरूप प्रतिपादित किया गया है, इसलिये वे दोनों वाक्य निश्चयनयाभास है। इसी प्रकार आत्मा और उसके स्वभावभूत चैतन्यका पृथक-पृथक अस्तित्व स्वीकार करके चैतन्यके योगसे आत्माको चितुरूप प्रतिपादन करना व्यवहारनयाभास है। आत्मा और चैतन्यमें सर्वथा अभेद मानना भी निश्चयनयाभास है। यहाँ प्रमाण और प्रमाणाभास तथा नय और नयाभासके रूपमें जितना विवेचन किया गया है वह सब वचनरूप श्रुतके सम्बन्धमें किया गया है। ज्ञानरूप श्रुतके सम्बन्धमें कहा जा सकता है कि इनसे होने वाला बोध भी उस रूपमें प्रमाण और प्रमाणाभास तथा नय और नयाभासरूप ही होगा। इसलिये यहाँ पर उसका विवेचन अलगसे नहीं किया जा रहा है। ऊपरके कथनसे यह बात स्पष्ट होती है कि वचनरूप प्रमाणश्रुत और नयश्रुतका पदार्थके साथ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३./ धर्म और सिद्धान्त : ८३ प्रतिपाद्य-प्रतिपादक सम्बन्ध रहता है और ज्ञानरूप प्रमाणश्रुत और नयश्रुतका पदार्थके साथ ज्ञाप्य-ज्ञापक भावरूप सम्बन्ध पाया जाता है । अर्थात् वचनरूप प्रमाणश्रुत और नयश्रुत क्रमशः वस्तु और वस्तुके अंशोंके प्रतिपादक होते हैं तथा वस्तु और वस्तुके अंश क्रमशः उनके प्रतिपाद्य होते हैं । इसी प्रकार ज्ञानरूप प्रमाणश्रुत और नयश्रुत क्रमशः वस्तु और वस्तुके अंशोंके ज्ञापक होते है तथा वस्तु और वस्तुके अंश क्रमशः उनके ज्ञाप्य होते हैं। इस प्रकार पूर्व में जितना चरणानुयोग आदिकी दृष्टिसे निश्चय और व्यवहाररूप अर्थोंका व्याख्यान किया गया है उसमें जितना निश्चयरूप अर्थ है उसका उसी रूपमें प्रतिपादन करने वाला वचनरूप निश्चयनय होता है और उसका उसी रूपमें बोध करने वाला ज्ञानरूप निश्चयनय होता है। इसी प्रकार उसमें जितना व्यवहाररूप अर्थ है उसका उसी रूपमें प्रतिपादन करनेवाला वचनरूप व्यवहारनय होता है और उसका उसी रूपमें बोध करानेवाला ज्ञानरूप व्यवहारनय होता है। इस बातको लक्ष्यमें रखकर ही सर्वत्र हमें वस्तुतत्त्वका निर्णय करनेका प्रयत्न करना चाहिये । इसका तात्पर्य यह है कि जब ऐसा आगममें बतलाया गया है कि मोक्षमार्ग दो प्रकारका है--एक निश्चयमोक्षमार्ग और दुसरा व्यवहारमोक्षमार्ग, तो दोनों ही मोक्षमार्गोंकी वास्तविकताको मानकर नयप्रक्रियासे इस बातका निर्णय करना चाहिये कि निश्चयमोक्षमार्ग तो मोक्षका साक्षात् कारण होता है और व्यवहारमोक्षमार्ग परम्यरया कारण होता है, जैसा कि पूर्व में प्रतिपादित किया गया है। इस तरह मोक्षमार्गकी स्वतंत्र-स्वतंत्र दो भेदरूपताके प्रसंगके भयसे जिनको व्यवहारमोक्षमार्गको अकिंचित्कर माननेका सहारा लेना पड़ता है उन्हें उस सहारेकी फिर आवश्यकता नहीं लेनी पड़ेगी। इसी प्रकार आत्माकी परिणतिको औदयिक, औपशमिक, क्षायिक या क्षायोपशमिक नामसे पुकारा जाता है, तो नयात्मक दृष्टिकोण रहनेसे इसका अर्थ यही होता है कि आत्माको उक्त, औदयिकादि परिणतियोंमें कर्मकी उदयादि परिणितियाँ निमित्तकारण हुआ करती है। यदि कर्मकी उदयादि परिणतियाँ आत्माकी औदयिकादि परिणतियोंकी उत्पत्तिमें निमित्तकारण नहीं होने पर उन्हें आत्माकी औदयिकादि परिणतियोंमें निमित्तकारण कहा जाता है तो फिर यह कथन तो असत्य ही हो सकता है। इसको व्यवहारनयका कथन किसी भी हालतमें नहीं कहा जा सकता है। इसे व्यवहार नय तभी कहा जा सकता है जबकि कर्मको उदयादिक परिणतियोंमें आत्माकी औदयिकादि परिणतियोंकी निमित्तकारणताका सद्भाव माना जायगा और उपादानकारण ही कार्यरूप परिणत होता है निमित्त कारण नहीं, क्योंकि उपादानकारणका कार्य ही कार्यरूप परिणत होना है, निमित्त कारणका कार्य तो उपादानको कार्यरूप परिणत होनेमें केवल सहायता देनेका ही रहता है । इसलिये किसीको ऐसा भय करनेकी आवश्यकता नहीं कि 'यदि कार्य में निमित्तकारणकी निमित्तकारणताको वास्तविक मान लिया जाता है तो निमित्तकारण ही कार्य बन जायेगा।" इसी प्रकार सर्वत्र समझ लेना चाहिये। आचार्य कुन्दकुन्दने 'समयसार' ग्रन्थमें आत्माको स्वतन्त्र और अनादि-निधन वस्तु सिद्ध करनेके लिये सर्वप्रथम उसके स्वतःसिद्ध ज्ञायकस्वभावका प्रतिपादन किया है। लेकिन जब आत्मा अनादिकालसे अपने उक्त स्वभावमें स्थिर न रहकर विकारी बन रहा है तो इसके लिये उन्होंने आत्माकी पदगलकर्मके साथ बद्धताको भी स्वीकार किया है। अर्थात् जिस प्रकार आत्माके स्वभाव ज्ञायकभावको आचार्य कुन्दकुन्द स्वतःसिद्ध मानते हैं उस प्रकार वे आत्माके विकारको स्वतःसिद्ध नहीं मानते हैं। इस बातको बतलानेके लिये सर्वप्रथम उन्होंने शुद्धनय और व्यवहारनयका आश्रय लिया है। इससे आचार्य कुन्दकुन्द यह दिखलाना चाहते हैं कि यदि आत्माको स्वतन्त्र और अनादि-निधन वस्तुके रूपमें जानना है तो आत्माके स्वतःसिद्धस्वरूपको बतलानेवाले शुद्धनयका अवलम्बन लेना होगा, कारण कि वस्तुके स्वतःसिद्धस्वरूपका प्रतिपादक शुद्धनय है अथवा यों कहिये कि वस्तुके स्वतःसिद्धस्वरूपका प्रतिपादन करना ही शुद्धनय है । इसी तरह यदि आत्माकी Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ अनादिकालसे चली आ रही विकारी संसाररूप अवस्थाको समझना है तो इसका ज्ञान शद्धनयसे तो होगा नहीं, कारण कि वह तो वस्तुके स्वतःसिद्धस्वरूपका ही ज्ञापक होता है, जबकि आत्माको विकारी संसाररूप अवस्था उसकी स्वतःसिद्ध अवस्था न होकर कर्मोदयजन्य अवस्था है । इसलिये इसको समझानेके लिये व्यवहारनयका अवलम्बन लेना होगा, कारण कि वस्तुके पराश्रितस्वरूपका प्रतिपादक व्यवहारनय है । अथवा यों कहिये कि वस्तुके पराश्रित धर्मका प्रतिपादन करना ही व्यवहारनय है। इसके भी अतिरिक्त यदि आत्माकी संसाररूप विकारी अवस्थाको समाप्त करके उत्पन्न होनेवाली मोक्षरूप अवस्थाको समझना है तो इसका भी ज्ञान शुद्धनयसे नहीं होगा; कारण कि यह अवस्थायी आत्माकी स्वतःसिद्ध अवस्था न होकर कर्मके उपशम, क्षय और क्षयोपशमजन्य अवस्था है । इसलिये इसको समझनेके लिये भी बस्तुके पराश्रित धर्म के प्रतिपादक व्यवहारनयका अवलम्बन लेना होगा। अब प्रश्न उठता है कि आत्माको संसार और मोक्ष दोनों ही प्रकारको अवस्थायें जब क्रमशः कर्मके उदयसे जन्य और कर्मके उपशम, क्षय तथा क्षयोपशमसे जन्य हैं । यानी आत्माकी संसाररूप अवस्थामें कर्मका उदय कारण है और मोक्षरूप अवस्थामें कर्मका उपशम, क्षय और क्षयोपशम यथायोग्य साक्षात् और परंपरया कारण है तो क्या कर्मके ये उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम आत्मामें तद्रूप परिणमनकी योग्यता के अभावमें आत्माको संसारी या मुक्त बना सकते हैं ? इस विषयमें आचार्य कुन्दकुन्दका कहना है कि वस्तुमें स्वगत योग्यताके अभावमें अन्य कोई भी कारण उसको किसी रूप परिणमन करानेमें असमर्थ ही रहा करता है। यही कारण है कि जैनागममें आत्माकी संसाररूप अवस्थाका कारण आत्माकी स्वतःसिद्ध वैभाविकी शक्तिको तथा आत्माको मोक्षरूप अवस्थाका कारण आत्माकी स्वतः सिद्ध भव्यत्वशक्तिको भी स्वीकार किया गया है। इस तरह यह बात निर्णीत होती है कि यथायोग्य कर्मका उदय होनेपर आत्मा अपनी वैभाविकी शक्तिके आधारपर संसारी बना हुआ है और कर्मका उपशम अथवा क्षयोपशम होते हुए अन्तमें सर्वथा क्षय हो जानेपर आत्मा अपनी भव्यत्वशक्तिके आधार पर मोक्षरूप अवस्थाको भी प्राप्त कर लेगा। इससे यह निष्कर्ष निकल आता है कि आत्माके संसारमै उसको वैभाविकी शक्ति और कर्मका उदय ये दोनों कारण हैं तथा आत्माके मोक्षमें उसकी भव्यत्वशक्ति और कर्मका यथायोग्य उपशम, क्षयोपशम और क्षय कारण हैं। अब यदि संसारके दोनों कारणोंके विषयमें यह विचार किया जाय कि संसारके दोनों कारणोंमेंसे कौन किस रूपमें कारण होता है और मोक्षके दोनों कारणोंमें से कौन किस रूप में कारण होता है ? तो आत्माके संसारमें कारणभूत उसकी वैभाविकी शक्ति उसके संसारमें तथा आत्माके मोक्षमें कारणभूत उसकी भव्यत्वशक्ति उसके मोक्षमें उपादानकारण है, कारण कि ये शक्तियाँ ही व्यक्त होकर क्रमशः संसार और मोक्षरूपताको प्राप्त होती हैं । इसी प्रकार आत्माके संसारमें कारणभूत कर्मका उदय व आत्माके मोक्षमें कारणभूत कर्मका उपशम, क्षय और क्षयोपशम निमित्त कारण है। कारण कि कर्मका उदय आत्माके संसाररूपसे और कर्मका उपशम, क्षय व क्षयोपशम आत्माके मोक्षरूप से कदापि परिणत नहीं होते, केवल आत्माके उस परिमणनमें सहयोग मात्र दिया करते हैं क्योंकि कर्मके उदयका सहयोग न मिलनेपर आत्माकी वैभाविकी शक्ति संसाररूप परिणत नहीं हो सकती है और कर्मके उपशम, क्षय और क्षयोपशमका सहयोग न मिलनेपर आत्माको भव्यत्वशक्ति भी मोक्षरूप परिणत नहीं हो सकती है। इस तरह उपयुक्त निमित्त और उपादान दोनों कारणोंमेंसे उपादानकारणको तो स्वाश्रयताके आधार पर निश्चयकारण कहना योग्य है और निमित्तकारणको पराश्रयताके आधारपर व्यवहारकारण कहना योग्य है । यह सब विषय पूर्वमें विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया जा चुका है। अब यदि इन दोनों ही कारणताओंके Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ८५ प्रतिपादन करने या बोध करने की दृष्टिसे विचार किया जाय, तो कहा जा सकता है कि उपादानकारणता रूप निश्चयकारणता प्रतिपाद्य-प्रतिपादकभावके आधारपर निश्चयनयरूप वचनका तथा ज्ञाप्य-ज्ञापक भावके आधारपर निश्चयनयरूप ज्ञानका विषय होती है और निमित्तकारणतारूप व्यवहारकारणता प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावके आधारपर व्यवहारनयरूप वचनका तथा ज्ञाप्य-ज्ञापकभावके आधारपर व्यवहारनयरूप ज्ञानका विषय होती है। इस तरह आचार्य कुन्दकुन्दने समयसारमें शुद्धनय और व्यवहारनयके विकल्पोंके समान निश्चयनय और व्यवहारनयके विकल्पोंका भी समावेश किया है। आगममें निश्चयनयके भी शुद्धनिश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनय इस तरह दो भेद कर दिये गये हैं। इनमेंसे आत्माका विकाररहित शुद्ध स्वरूप स्वाश्रितपनेकी दृष्टिसे शुद्धनिश्चयनयका विषय होता है और आत्माका विकारी अशद्ध स्वरूप भी स्वाश्रितपनेकी दष्टिसे अशुद्धनिचयनयका विषय होता है। आत्माके इसी स्वरूपको यदि पराथितपने की दृष्टिसे देखा जाय, तो फिर यह व्यवहारनयका विषय हो जाता है। व्यवहारनयके भी आगममें दो भेद किये गये है--एक सद्भुत व्यवहारनय और दूसरा असद्भूतव्यवहारनय । सद्भूतव्यवहारनय भी दो प्रकार का है--एक अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय और दूसरा उपचरितसद्भुतव्यवहारनय । इसी प्रकार असद्भतव्यवहारनय भी दो प्रकारका है--एक अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनय और दूसरा अचरित असदभत व्यवहारनय। इस विषयको आलापपद्धतिमें निम्न प्रकार निबद्ध किया गया है "तावन्मूलनयौ द्वौ निश्चयो व्यवहारश्च । तत्र निश्चयोऽभेदविषयो व्यवहारो भेदविषयः । तत्र निश्चयो द्विविधः-शुद्धनिश्चयोऽशुद्धनिश् चयश्च । तत्र निरुपाधिकगुणगुण्यभेदविषयकः शुद्धनिश्चयो, यथा केवलज्ञानादयो जीवः । सोपाधिक (गुणगुण्यभेद) विषयोऽशुद्ध निश्चयः । यथा मतिज्ञानादयो जीवः । व्यवहारो द्विविधः सद्भतव्यवहारोऽसद्भतव्यवहारश्च । तत्रैकवस्तुविषयः सद्भूतव्यवहारः, भिन्नवस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहारः । तत्र सद्भूतव्यवहारो द्विविधः उपचरितानुपचरितभेदात् । तत्र सोपाधिगणगणिनो दविषयःउपचरित सदभतव्यवहारो, यथा जीवस्य मतिज्ञानादयो गुणाः । निरुपाधिगुणगुणिनोर्भेदविषयानुपचरितसद्भुतव्यवहारो, यथा जीवस्य केवलज्ञानादयो गुणाः । असद्भुतव्यवहारो द्विविधः-उपचरितानुपचरितभेदात् । तत्र संश्लेषरहितवस्तुसम्बन्धविषय उपचरितासद्भूतव्यवहारो, यथा देवदत्तस्य धनम् । संश्लेषसहि तवस्तुसम्बन्धविषयोऽनुपचरि तासद्भतव्यवहारो, यथा जीवस्य शरीरम् ।" इसका अर्थ ऊपर स्पष्ट है । इस तरह नयोंके स्वरूपको यथावत् प्रकार समझनेको अत्यन्त आवश्यकता है, कारण कि संपूर्ण वस्तुतत्त्वको समझनेका साधन अल्पज्ञ प्राणियोंके लिये नय-व्यवस्था ही है। इस नय-व्यवस्थाको लौकिक दृष्टान्त द्वारा इस तरह समझा जा सकता है कि "कुम्भकारने दण्ड और चक्रके सहयोगसे मिट्टीसे घड़ा बनाया" ऐसा वाक्य यदि बोला जाता है तो इसका अभिप्राय निम्न प्रकार होता है यह संपूर्ण वाक्य वक्ताके संपूर्ण अर्थका यदि निराकांक्षरूपसे बोधक है, तो इसे अपने वर्तमान रूपमें प्रमाणवचन और इससे होने वाले बोधको प्रमाणज्ञान ही कहा जायगा। इस वाक्यके संपूर्ण अर्थमें इतने अर्थ गभित हैं अभेददृष्टिसे मिट्टी और घटमें जो अभेदका बोध होता है यह निश्चयनय है, कार्यकारण-भावकी दृष्टिसे जो भेदका बोध होता है यह सद्भतव्यवहारनय है, मिट्रीकी घटरूप परिणतिरूप उत्पाद में मिट्टी में जो उपादान Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ कारणताका बोध होता है यह भी निश्चयनय है । यहींपर कुम्भकारमें जो निमित्तकारणताका बोध होता है यह अनुपचरित असद्भुत व्यवहारनय है, कारण कि कुम्भकार मिट्रीकी घटरूप परिणतिमें साक्षात निमित्तकारण है, यहींपर चक्रमें जो निमित्तकारणताका बोध होता है वह उपचरितअसद्भूतव्यवहारनय है, क्योंकि मिट्टीकी घटरूप परिणतिमें परंपरया अर्थात कुम्भकारका सहयोगी होकर ही चक्र निमित्तकारण होता है, और यहींपर दण्डमें जो निमित्तकारणताका बोध होता है, वह उपचरितोपचरितअसद्भूतव्यवहारनय है क्योंकि मिट्टीकी घटरूप परिणतिमें दण्डनिष्ठ निमित्तकारणता दो परंपराओंसे अनुरक्त है अर्थात् दण्ड चक्रका सहयोगी होता है, चक्र कुम्भकारका सहयोगी होता है और तब कुम्भकार मिटीका सहयोगी होता है विषयको इस रूपमें भी समझा जा सकता है कि मिटीकी घटरूप परिणतिमें मिट्टी उपादानकारण अर्थात् वास्तविक कारण है। यह निश्चयनयका विषय है और यहीं पर कुम्भकार निमित्तकारण होनेसे व्यवहार कारण अर्थात् उपचरितकारण है, यह उपचरित असदभुत व्यवहारनयका विषय है। यहींपर चक्रमें जो निमित्त कारणता है वह उपचरितोपचरितअसदभतव्यवहारनयका विषय है तथा यहीं दण्डकी निमित्त कारणता है वह उपचरितोपचरितोपचरित असद्भुतव्यवहारनयका विषय है। इस तरह यह बात अच्छी तरह समझमें आ जानी चाहिये कि चाहे निश्चयनय हो, अथवा चाहे व्यवहारनय हो, इसमें भी चाहे सद्भूतव्यवहारनय हो अथवा चाहे असद्भतव्यवहारनय हो और इसमें भी चाहे अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनय हो या उपचरितअसद्भूतव्यवहारनय हों अथवा चाहे उपचरितोपचरितअसद्भूतव्यवहारनय हो-ये सभी नय अपने-अपने ढंगसे सद्भुतताप्राप्त बस्त्वंशोंको ही विषय करते हैं । इसलिये ऐसा नहीं समझना चाहिये कि निश्चयनयका विषय ही सद्भुत होता है तथा व्यवहारनयका विषय सर्वथा असद्भूत ही होता है। इतना अवश्य है कि निश्चयनय सर्वथा सद्भत विषयको ग्रहण करता है लेकिन चाहे सद्भूतव्यवहारनय हो अथवा चाहे असद्भूतव्यवहारनय हो दोनों ही कथंचित् सद्भूत विषयको ही ग्रहण करते हैं । कोई भी व्यवहारनय न तो सर्वथा असदभत विषयको ग्रहण करता है और न सर्वथा सदभत विषयको ही ग्रहण करता है क्योंकि सर्वथा असदभुत वस्तू गधेके सींगकी तरह सर्वथा अभावात्मक हो जानेसे वह, नय अथवा प्रमाण किसीका भी विषय नहीं होती है। सर्वथा सद्भत वस्तु तो निश्चयनयका ही विषय होती है, व्यवहारनयका नहीं । अन्त में इतना ध्यान और रखना चाहिये कि व्यवहारनयका विषय भी अभेद और स्वाश्रयताकी दृष्टिसे निश्चयनयका विषय हो जाता है और निश्चयनयका विषय भी भेद और पराश्रयताकी दृष्टिसे व्यवहारनयका विषय हो जाता है । जैसा कि पंचाध्यायीमें कहा है "इदमत्र समाधान व्यवहारस्य च न यस्य यद्वाच्यम्" | सर्वविकल्पाभावे तदेव निश्चयनयस्य स्याद् वाच्यम् ॥ ६४३ ।। अर्थात् जो व्यवहारनयका विषय है वहीं संपूर्ण विकल्पोंका अभाव होने पर निश्चयनयका विषय हो जाता है। तात्पर्य यह है कि संपूर्ण नय पृथक्-पृथक् एक-एक दृष्टि हैं और वस्तु अनन्तधर्मात्मक एवं अनेकान्तात्मक है, अतः सभी अविरुद्ध है। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारनयकी अभूतार्थताका अभिप्राय आचार्य कुन्दकुन्दके समयसार में निम्नलिखित गाथा पायी जाती है"ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणयो । भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो ॥११॥" अर्थ - ( जिन शासन में ) व्यवहार नयको अभूतार्थं और शुद्धनय अर्थात् निश्चयनयको भूतार्थ कहा गया है । जिस जीवने भूतार्थनयरूप शुद्धनय अर्थात् निश्चयनयका अवलम्बन लेकर वस्तुतत्त्वके स्वरूपकी पहिचान कर ली है वह जीव सम्यग्दृष्टि हो जाता है । तात्पर्य यह है कि जीवोंको वस्तुतत्त्वके स्वरूपकी पहिचान भूतार्थनयरूप शुद्धनय अर्थात् निश्चयनय द्वारा ही हो सकती है । अतः इसके लिए प्रत्येक जीवको इस नयका ही अवलम्बन लेना चाहिए । इस कथनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि जिन- शासन में निश्चयनय और व्यवहारनय ऐसे दो भेद नयोंके बतलाये गये हैं । नय प्रमाणका अंशरूप होता है और प्रमाण वचनात्मक और ज्ञानात्मक दो प्रकारका होता है । अतः निश्चय और व्यवहाररूप दोनों प्रकारके नय भी वचनात्मक और ज्ञानात्मकके भेदसे दो-दो प्रकारके सिद्ध होते हैं । वचनका अपने विषयभूत पदार्थ के साथ प्रतिपाद्य - प्रतिपादकसम्बन्ध रहता है । अर्थात् बचन अपने विषयभूत पदार्थका प्रतिपादक होता है और वह पदार्थ उस वचनका प्रतिपाद्य होता है । इसी तरह ज्ञानका अपने विषयभूत पदार्थ के साथ ज्ञाप्य ज्ञापकसम्बन्ध रहता है । अर्थात् ज्ञान अपने विषयभूत पदार्थका ज्ञापक होता है और वह पदार्थ उस ज्ञानका ज्ञाप्य होता है। चूंकि उपर्युक्त गाथामें व्यवहारनयको अभूतार्थनय कहा गया है, अतः इसका प्रतिपाद्य अथवा प्राप्य पदार्थ भी अभूतार्थ होना चाहिए और चूँकि उपयुक्त गाथा में ही निश्चयनयको भूतार्थनय कहा गया है अतः इसका प्रतिपाद्य अथवा ज्ञाप्य पदार्थ भी भूतार्थ होना चाहिए । यही कारण है कि उपयुक्त गाथाको टीकामें आचार्य श्रीअमृतचन्द्रने लिखा है कि"व्यवहारयो हि सर्व एव अभूतार्थत्वादभूतमर्थं प्रद्योतयति । शुद्धनय एक एव भूतार्थत्वाद्भूतमर्थं प्रद्योतयति ।" अर्थ - सम्पूर्ण व्यवहारनय अभूतार्थं होनेके कारण अभूत पदार्थका प्रद्योत करता है तथा शुद्धनय अर्थात् निश्चयनय एक ही ऐसा नय है कि वह भूतार्थं होनेसे भूत पदार्थका प्रद्योत करता है इस कथनका निचोड़ यह है कि वचनरूप व्यवहारनय अभूतार्थं होनेसे अपने विषयभूत अभूत अर्थका ही प्रतिपादन करता है और ज्ञानरूप व्यवहारनय भी अभूतार्थं होनेसे अपने विषयभूत अभूत अर्थका ही ज्ञापन करता है । इसी प्रकार वचनरूप निश्चयनय भूतार्थ होनेसे अपने विषयभूत भूत अर्थका ही प्रतिपादन करता है और ज्ञानरूप निश्चयनय भी भूतार्थ होनेसे अपने विषयभूत भूत अर्थका ही ज्ञापन करता है । चूँकि उपर्युक्त गाथा अनुसार जीवको सम्यग्दृष्टि बननेके लिए वस्तुतत्त्वके स्वरूपको पहिचान होना आवश्यक है। तथा वस्तुतत्त्व स्वरूपकी पहिचान उसकी भूतार्थताकी पहिचानके ऊपर निर्भर है और इस भूतार्थताकी पहिचान भी उपयुक्त गाथाकी टीकाके उपरिनिर्दिष्ट उद्धरणके अनुसार भूतार्थ कहे जानेवाले निश्चयनयके द्वारा ही हो सकती है । अतः आचार्य श्री कुन्दकुन्दने जीवको सम्यग्दृष्टि बननेके लिए भूतार्थ कहे जानेवाले निश्चयनयका अवलम्बन ग्रहण करनेका उपदेश दिया है । अब यहाँ प्रश्न यह उपस्थित होता है कि पदार्थकी भूतार्थता क्या वस्तु है, जिसके आधारपर Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ पदार्थ भूतार्थं कहलाता है और जिसका ग्रहण भूतार्थ कहे जानेवाले निश्चयनय द्वारा होता है ? इसी तरह पदार्थ की अभूतार्थता क्या वस्तु है, जिसके आधारपर पदार्थ अभूतार्थ कहलाता है और जिसका ग्रहण अभूतार्थ कहे जानेवाले व्यवहारनयद्वारा होता है ? आगे इसी विषयपर विचार किया जाता है । प्रत्येक वस्तु दो प्रकारके धर्म विद्यमान रहते हैं - एक तो वस्तुके स्वतःसिद्ध धर्म और दूसरे आपेक्षिक धर्म । प्रकृतिमें वस्तुके जितने स्वतः सिद्ध धर्म होते उन्हें ही भूतार्थं धर्मं समझना चाहिए और वस्तुके जितने आपेक्षिक धर्म होते हैं उन्हें ही अभूतार्थ धर्म समझना चाहिए । वस्तु स्वतः सिद्धधर्मोको भूतार्थ कहनेका कारण यह है कि इनके आधारपर वस्तुका स्वतन्त्र ( स्वावलम्बनपूर्ण), स्वतःसिद्ध (अन्यकी अपेक्षाके बिना ही स्वके आधारपर निष्पन्न), स्वाश्रित ( वस्तुको अपनी ही सीमा में रहनेवाला), व्यापक (स्वको व्याप्तकर रहनेवाला), प्रतिनियत (अन्य सभी वस्तुओं में नहीं पाया जानेवाला) और शुद्ध (अखण्ड अर्थात् अमिश्रित एकत्वविशिष्ट) स्वरूप निश्चित होता है । स्वतःसिद्ध धर्मोकी इस विशेषता के आधारपर ही अनन्त जीवद्रव्य, अनन्त अणुरूप पुद्गलद्रव्य, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और असंख्यात अणुरूप कालद्रव्य ये सभी वस्तुएँ अपने- अपने पृथक्-पृथक् व्यक्तित्वको धारण किये हुए विश्वमें अनादिकालसे रहती आयी हैं और अनन्तकाल तक रहनेवाली हैं । जीवद्रव्योंका अपना-अपना चित्स्वभाव ( ज्ञायकभाव ), पुद्गल द्रव्योंका अपना-अपना रूप-रस- गन्ध-स्पर्शवत्व, धर्मद्रव्यका जीवद्रव्यों और पुद्गलद्रव्योंकी हलन चलन क्रियामें सहकारित्व, अधर्मद्रव्यका जीवद्रव्यों और पुद्गलद्रव्यों की स्थिति में सहकारित्व, आकाशद्रव्यका समस्त द्रव्योंको अपने अन्दर समा लेने की सामर्थ्यरूप अवगाहकत्व और कालद्रव्योंका समस्त द्रव्योंकी वर्तमानतामें साहाय्यरूप वर्तना इनके अपने-अपने स्वतःसिद्ध धर्म हैं। अग्निको उष्णता और जलकी शीतलता भी क्रमसे अग्निका और जलका अपना-अपना स्वतःसिद्ध धर्म है क्योंकि इनके आधारपर अग्निका तथा नलका भी अपना-अपना स्वरूप और व्यक्तित्व निर्धारित होता है । वस्तु आपेक्षिक धर्म दो प्रकारके होते हैं । एक प्रकारके आपेक्षिक धर्म वे हैं जो भेदके आधारपर वस्तु में उत्पन्न होते हैं और दूसरे प्रकार के आपेक्षिक धर्म वे हैं जो अन्य वस्तुके आधारपर वस्तुमें उत्पन्न होते हैं । इन सभी आपेक्षिक धर्मोको अभूतार्थ कहनेका कारण यह है कि ये धर्म वस्तुमें सर्वदा विद्यमान न रहने के कारण उसके स्वरूप और व्यक्तित्वका निर्धारण करनेमे सहायक नहीं होते हैं । जीवके अन्दर मुक्ति और संसार तथा संसारमें भी विविध अवस्थाओं कृत भेदके आधारपर तरतमभावसे पाये जानेवाले दर्शन, ज्ञान और चारित्र भेद सापेक्ष आपेक्षिक धर्म हैं तथा जीवके अन्दर ही पौद्गलिककर्मोंके सहयोग के आधारपर तरतमभावसे पाये जानेवाले राग, द्वेष, मोह आदि औदयिक भाव तथा क्षायोपशमिक आदि भाव अन्य वस्तु सापेक्ष आपेक्षिक धर्म हैं । इसी प्रकार जलमें पायी जानेवाली उष्णता भी अन्य वस्तु सापेक्ष आपेक्षिक धर्म है । जीवमें पाये जानेवाले राग, द्वेष और मोहरूप औदयिक भाव उस उस पौद्गलिककर्मका उदय होनेपर ही उत्पन्न होते हैं तथा क्षायोपशमिकादिभाव उस उस पौद्गलिककर्मके क्षयोपशम आदिके होनेपर ही उत्पन्न होते हैं । इसी तरह जलमें पाई जानेवाली उष्णता भी अग्निके सहयोगसे उत्पन्न होती है । अतः सभी धर्म अन्य वस्तु-सापेक्ष आपेक्षिक धर्म कहे गये हैं । वस्तु स्वतः सिद्धधर्म वस्तुमें सर्वदा पाये जाते कथंचित् सद्भूत (सद्भाव प्राप्त ) और कथंचित् असद्भूत कभी भी इनका अभाव नहीं होता । अतः इन्हें ( अभाव प्राप्त ) धर्म माना गया है । जैसे जीवके Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ८९ चित्स्वभाव (ज्ञायकभाव ) में जब तक भेदको विवक्षा होती है तब तक दर्शन, ज्ञान और चारित्रका सद्भाव सिद्ध होता है और यदि भेदकी विवक्षा न रहे तो दर्शन, ज्ञान तथा चारित्रकी स्थिति भी नहीं रहती है । जीवमें भेदकी यह विवक्षा तभी तक रहती है जब तक कि दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूपसे चित्स्वभाव (ज्ञायक(भाव) के विभाजनको उपयोगिता सामने रहा करती है और यदि चित्स्वभावके दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूपसे विभाजनकी उपयोगिता न हो तो फिर जीवके चित्स्वभावमात्रकी ही स्थिति रह जाती है। इसप्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र जीवोंके कथंचित् सद्भूत और कथंचित् असद्भूत धर्म हैं । इसी प्रकार जब तक उस-उस पौद्गलिक कर्मका उदय विद्यमान रहता है तब तक जीवमें राग, द्वेष और मोहका सद्भाव रहा करता है और यदि उस उस कर्मके उदयका अभाव हो जाता है तो जीवमें राग, द्वेष तथा मोहका भी अभाव जाता है। यही बात जीवके क्षायोपशमिकादि भावोंके विषय में भी समझ लेनी चाहिए । इसी प्रकार जबतक जलको अग्निका सहयोग प्राप्त रहता है तबतक उसमें उष्णताका भी सद्भाव रहा करता है और यदि जलको अग्निका सहयोग मिलना बन्द हो जाता है तो जलकी उष्णता भी समाप्त हो जाती है । इस प्रकार अन्य वस्तु सापेक्षआपेक्षिक धर्म भी कथंचित् सद्भूत और कथंचित् असद्भूत माने गये हैं । 4 दर्पण में पदार्थका प्रतिबिम्ब पड़ना भी प्रतिबिम्बित होनेवाले पदार्थके अवलम्बन जन्य दर्पणका आपेक्षिक धर्म है और मिट्टीकी कुम्भकारनिमित्तक घटपर्याय भी मिट्टीका आपेक्षिक धर्म (अवस्था) है । परन्तु इनमें अन्तर यह है कि प्रतिबिम्बित पदार्थका अवलम्बन समाप्त होते ही दर्पण अपनी स्वच्छ अवस्थाको प्राप्तकर लेता है । लेकिन कुम्भकारकी निमित्तता समाप्त होनेपर भी द्रव्यपर्याय होनेके कारण मिट्टीकी घटपर्याय बनी रहती है । ज्ञानकी पदार्थके अवलम्बनपूर्वक होनेवाली उपयोगाकार परिणति भी ज्ञानका आपेक्षिक धर्म । ये सब धर्म भी कथंचित् सद्भूत और कथंचित् असद्भूत ही हुआ करते हैं और इनका ज्ञान तथा कथन भी ज्ञान तथा वचनरूप व्यवहारनयसे ही होता है । इस तरह यों भी कहा जा सकता है कि इन या इसी तरहके अन्य आपेक्षिक धर्मोकी कथंचित् सद्भूतता और कथंचित् असद्भूतता ही वस्तुकी अभूतार्थता तथा स्वतःसिद्ध धर्मोकी सर्वथा सद्भूतता ही वस्तुकी भूतार्थता जानना चाहिये । भूतार्थता के कथनके लिए आगममें यथार्थ, निश्चय, वास्तविक तथा मुख्य आदि शब्दों का भी प्रयोग मिलता है और अभूतार्थताके कथन के लिए अयथार्थ, व्यवहार, आरोपित तथा गौण आदि शब्दों का भी प्रयोग मिलता है । परन्तु फिर भी इन सब शब्दों का प्रयोग होते हुए भी जिस तरह भूतार्थं धर्मोकी सर्वथा सद्भूतता सुरक्षित रहती है उसी तरह अभूतार्थ धर्मोकी कथंचित् सद्भूतता और कथंचित् असद्भूतता भी सुरक्षित रहती है । इसलिए जिस प्रकार भूतार्थको ग्रहण करनेवाला निश्चयनय अपनी सत्यताको सुरक्षित रखता है । उसी प्रकार अभूतार्थको ग्रहण करनेवाला व्यवहारनय भी अपनी सत्यताको सुरक्षित रखता है । यदि ऐसा न हो तो फिर आकाशके पुष्प तथा गधेके सींगकी तरह व्यवहारनयका विषय सर्वथा असद्भूत ही हो जायगा, जिससे व्यवहारनयकी प्रामाणिकता सर्वथा लुप्त हो जायगी । इस तरह तब उसे व्यवहारनय कहना ही असंगत होगा, क्योंकि आगममें प्रमाणका अंश होनेके कारण निश्चयनयकी तरह व्यवहानको भी प्रामाणिक रूपमें स्वीकार किया गया है और व्यवहारनयकी प्रामाणिक रूप में स्थिति तभी स्वीकार की जा सकती है जबकि उसका विषयभूत पदार्थ आकाशके पुष्प तथा गधेके सींगकी तरह सर्वथा अभावात्मक न हो । यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्रने समयसार, गाथा १४ की आत्मख्याति - टीकामें, पानीमें, डूबे हुए कमलपत्रका जो पानी के साथ संस्पर्श हो रहा है उस संस्पर्शको तथा पानीकी अग्निके सहयोग से जो उष्णतामय पर्याय बनती उस उष्णतामय पर्यायको व्यवहारनयका विषय होनेके कारण सद्भूत अर्थात् सद्भाव १२ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० : सरस्वती-धरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ प्राप्त पदार्थ माना है। यह मानी हई बात है कि पराश्रित और अस्थायी होनेके कारण पानीके साथ हो रहा संस्पर्श कमलपत्रका और अग्निके सहयोगसे हो रही उष्णतामय पर्याय पानीका स्वतःसिद्ध धर्म नहीं है और यही कारण है कि वे दोनों निश्चयनयके विषय नहीं हैं। लेकिन स्वतःसिद्ध धर्म न होनेसे यदि उनको आकाशके पुष्प और गधेके सींगकी तरह सर्वथा असद्भुत (अभावात्मक) ही माना जाय तो फिर उन्हें व्यवहारनयका विषय कैसे माना जा सकेगा ? तथा तब जीवोंको जलके साथ हो रहे कमलपत्रके संस्पर्शका और जलकी अग्निके सहयोगसे हो रही उष्णतामय पर्यायका जो भान होता है उसे क्या भ्रमज्ञान नहीं कहा जायगा? और यदि ऐसे ज्ञानोंको भ्रमज्ञान माना जाता है तो इसके अतिरिक्त व्यवहारनय फिर क्या वस्तु मानी जायगी ? जो जैन मान्यताको वेदान्तकी मान्यतासे पृथक कर सके। अतः यही स्वीकार करना चाहिए कि जिसप्रकार वस्तुमें निश्चयनयके विषयभत स्वतःसिद्ध धर्मोंका सर्वथा सदभाव रहता है उसी प्रकार वस्तुमें व्यवहारनयके विषयभूत भेद-सापेक्ष और अन्य वस्तु-सापेक्ष आपेक्षिक धर्मोंका भी कथंचित् सद्भाव और कथंचित् अभाव रहता है। तात्पर्य यह है कि कमलपत्रका जलके साथ हो रहा संस्पर्श व जलकी अग्निसहयोगजन्य उष्णतामय पर्याय दोनों ही जब जीवोंके अनुभवमें आते हैं तो जबतक वह अपेक्षा विद्यमान है तबतक उनकी आपेक्षिक धर्मके रूपमें सद्भूतताको अस्वीकृत करनेकी कौन हिम्मत कर सकता है ? । इस प्रकार कमलपत्रका जलके साथ हो रहा संस्पर्श, जलकी अग्निके सहयोगसे निष्पन्न हई उष्णतामय पर्याय, मिट्टोकी कुम्भकारके सहयोगसे उत्पन्न होनेवाली घटरूप पर्याय, दर्पणमें पदार्थके अवलम्बनसे पड़नेवाला पदार्थका प्रतिबिम्ब, और ज्ञानकी पदार्थक अवलम्बनसे पदार्थज्ञानरूप परिणति ये सब उस-उस वस्तुकी आपेक्षिक अवस्थाके रूपमें जब तक अपेक्षा बनी हुई है तब तक सद्भुत है । इसी प्रकार कमलपत्रका जलके साथ हो रहे संस्पर्शमें जलका सहयोग, जलकी उष्णतामय पर्यायमें अग्निका सहयोग, मिट्टीकी घटपर्यायमें कुम्भकारका सहयोग, दर्पणमें पड़ रहे पदार्थके प्रतिबिम्बमें पदार्थका सहयोग और ज्ञानकी पदार्थज्ञानरूप परिणतिमें पदार्थ का सहयोग ये सब उस-उस वस्तुके आपेक्षिक धर्मके रूपमें जबतक अपेक्षित है तबतक सद्भुत है और इसीलिए ये सभी प्रतिपाद्य-प्रतिपादकभावकी अपेक्षा वचनरूप व्यवहारनयके तथा ज्ञाप्य-ज्ञापक भावकी अपेक्षा ज्ञानरूप व्यवहारनयके विषय है एवं क्योंकि ये सब उस-उस वस्तुके स्वतः सिद्ध धर्म या स्वतः उत्पन्न होनेवाले धर्मोके रूपमें सर्वथा सद्भत नहीं हैं, इसीलिए ये सब प्रतिपाद्य-प्रतिपादकभावकी अपेक्षा बचनरूप निश्चयके तथा ज्ञाप्य-ज्ञापकभावकी अपेक्षा ज्ञानरूप निश्चयनयके विषय नहीं हैं । साथमें यह भी निश्चित समझना चाहिए कि व्यवहारनयके विषय होनेके कारण उपर्युक्त सभी धर्म आकाशके पुष्प तथा गधेके सींगकी तरह सर्वथा असद्भूत भी नहीं हैं। इसीप्रकार आत्मामें उस-उस पुद्गलकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले राग, द्वेष और मोह आदि औदयिक भावों तथा उस-उस पुद्गलकर्मके क्षयोपशम आदिके आधारपर आत्मामें उत्पन्न होनेवाले क्षायोपशमिकादिभावोंके विषयमें भी कथंचित् सद्भूतपने और कथंचित् असद्भूतपनेको मान्यता ही युवत है । एक बात और है कि यदि व्यवहारनयके विषयभूत उक्त सभी धर्मोको या इसी प्रकारके अन्य धर्मोको सर्वथा असद्भूत माना जायगा तो इसका समयसारकी गाथा १४ को आत्मख्यातिटीकासे साथ ही उनके विषयमें जीवोंको होनेवाले सद्भूतताके अनुभवके तो विरुद्ध होगा ही लेकिन इस तरहसे तो दो आदि पुद्गल परमाणुओंके परस्पर-संयोगसे निष्पन्न द्वयणुक आदि स्कन्धोंको कथंचिद् सद्भूतता भी समाप्त हो जायगा, जिसका परिणाम यह होगा कि लोकमें जितना-जितना स्कन्धाश्रित व्यवहार चलता है और प्राणियोंको जो Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ | धर्म और सिद्धान्त : ९१ स्कन्धोंकी सद्भुतताका अनुभव होता है वह सब भी मिथ्या कल्पनाकी वस्तु रह जायगी, क्योंकि दो आदि परमाणुओंके मिश्रणसे ही तो द्वय णुक आदि स्कन्धोंका निर्माण होता है। परन्तु जब यह सिद्धान्त निश्चित है कि प्रत्येक अणु दूसरे एक या अनेक अणुओंके साथ बद्धता (मिश्रण) को प्राप्त होकर भी स्वतन्त्र द्रव्य होनेके कारण सर्वदा अपनी-अपनी आकृति, प्रकृति और विकृतिमें ही रहता है, कभी न तो दूसरे अणुरूप हो सकता है और न दूसरे अणुओंके गुणधर्मोको ही अपने अन्दर लाता है तो व्यणुकादि स्कन्धोंकी कोरी कल्पनाके अतिरिक्त और क्या स्थिति रह जायगी ? इस प्रकार यह निश्चित हो जाता है कि वस्तुमें भेदके आधारसे अथवा परवस्तुके आधारसे जितने अभूतार्थ धर्म सिद्ध होते हैं वे सब इस लेखमें दर्शाये गये प्रकारसे कथंचित् सद्भुत और कथञ्चित् असद्भूत ही होते हैं। न तो भूतार्थ धर्मोंकी तरह सर्वथा सद्भुत ही होते हैं और न आकाशके पुष्प तथा गधेके सींगकी तरह सर्वथा असद्भत हो होते हैं । अथवा यों कहिये कि स्वतःसिद्धताके रूपमें सर्वथा सदभुत रहना हो वस्तुको भृतार्थता है और सापेक्षताके रूपमें कथञ्चित् सद्भुत और कथञ्चित् असद्भूत रहना ही वस्तुकी अभतार्थता है । समयसारकी उल्लिखित गाथा ११ के भूतार्थ और अभूतार्थ शब्दोंका इसी प्रकार विश्लेषण करना चाहिए। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारी जीवोंकी अनन्तता 'जैन जगत के संपादक 'जैनधर्मका मर्म' शीर्षक लेखमाला प्रकाशित करते हए ता० १६ जुलाई सन् ३२ के 'जैन जगत्' में दूसरे अध्यायके 'मतभेद ओर उपसंप्रदाय' प्रकरणमें लिखते हैं कि 'वर भगवानके निर्वाणके २२० वर्ष बाद अश्वमित्रने यह वाद खड़ा किया कि एक दिन संसारमें एक भी जीव न रहेगा।' लेखमालाके लेखक महोदयने इस शंकाको जितना महत्व दिया है, विचारकी दृष्टिसे वह उतना महत्व अवश्य रखती है। मैं भी उसका समाधान विचारकी दृष्टिसे ही कर रहा हूँ और लेखकमहोदयसे भी यह आशा रखता हूँ कि वे इस समाधानपर विचारकी दृष्टि ही रक्खेंगे। अश्वमित्रकी शंका-'एक दिन संसारमें एक भी जीव न रहेगा।' इसका अभिप्राय लेखकमहोदयने यह निकाला है और जो मेरी समझसे भी ठीक जान पड़ता है कि छः महिना आठ समयमें ६०८ जीव सतत मोक्ष जाते रहते हैं, इसलिये यह शंका होती है कि इससे तो एक दिन संसार जीव-शून्य हो जायगा, क्योंकि जीवराशि बढ़ती तो है नहीं, इसलिये वह समाप्त हो जायगी। इस शंकाकी पुष्टि एवं समाधानका प्रकार बतलाते हुए लेखकमहोदयने जो कुछ विवेचन किया है उसमें निम्नलिखित बातोंका उत्तर होना भी आवश्यक हो जाता है। १. शास्त्रोंमें जीवराशिसे अनन्तानन्तगणी व्यवहारकालराशिके बतलानेका अभिप्राय क्या है ? २. शास्त्रोंमें भव्य और अभव्यकी केवलज्ञानके गुणानुवाद करने के लिये कल्पना की गयी है या तात्विक कथन है ? इनमेंसे भव्य और अभव्यके विषयमें स्वतन्त्र लेख द्वारा प्रकाश डालूगा, केवल पहिली बातकी उत्तर इस शंकाके उत्तरके साथ इसी लेखमें करूंगा। वैसे तो यह समाधान “छः महीना आठ समयमें ६०८ जीव मोक्ष जाते हैं।" इस सिद्धान्तको ध्यानमें रख करके किया जा रहा है। यदि यह नियम न भी माना जावे तो भी समाधानके मूलमें किसी प्रकारकी बाधा नहीं पहुँचती है। समाधान-जगत्में दो प्रकारके जीव हैं-भव्य और अभव्य । भव्य मोक्ष जा सकते हैं, अभव्य नहीं, इसलिये एक तो अभव्य जीव संसारमें रहेंगे हो। दूसरी बात यह है कि भव्य जीवोंका मोक्ष जाना सतत् जारी रहेगा तो भी उनकी समाप्ति कभी नहीं होगी। इसका कारण यह है कि काल भूत, वर्तमान और भविष्यरूप है । भूतकाल अनादि होकरके भी मुक्तजीवराशिके असंख्यात गुणे समयोंमें विभक्त है, कारण कि छः महिना आठ समयोंमें ६०८ जीव मोक्ष चले जाते है । छः महीना आठ समयोंके असंख्यात समय होते हैं। इनमेंसे यदि एक जीवके मोक्ष जानेके समयोंको औसत निकाली जाय तो यही सिद्ध होता है कि असंख्यात समयोंमें एक जीव मोक्ष चला जाता है । यह क्रम अनादिकालसे जारी है । इसलिये आजतक जितने जीव मोक्ष चले गये, उनसे असंख्यात गुणे कालके समय भी बीत गये, उनके इन्हीं बीते हुए समयोंको भूतकाल कहते है । वर्तमान काल एकसमय मात्र है। भविष्यत्कालके कितने समय होना चाहिये, इस बातका विचार किया जाता है। जबकि जैन सिद्धान्त यह बतलाता है कि जीवोंका मोक्ष जाना सतत् जारी रहेगा, फिर भी संसार Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ९३ भव्यजीवोंसे शुन्य नहीं होगा, तो इससे यह बात अवश्य निकल आती है कि भविष्यत्कालके समय भी उतने ही माने जायँ, जितने (समयों)में पूर्वोक्त क्रमसे भव्यजीव मोक्ष भी जाते रहें किन्तु कालकी समाप्ति होनेपर भी भव्यजीवोंकी समाप्ति न हो, लेकिन कालको समाप्ति मान लेनेपर भी भव्यजीवोंकी समाप्ति न मानी जाय, तो यह शंका उपस्थित होती है कि वे फिर कालके बिना मोक्ष कैसे जा सकेंगे? इसलिये जितने भव्य जीव इस समय विद्यमान हैं उनसे उतने ही अधिक भविष्यत् कालके समय माने जायँ, जितने में कि समस्त भव्य जीव असंख्यात समयोंमें एक जीवके हिसाबसे मोक्ष जा सके, अर्थात् अन्तिम भव्य जीवके मोक्ष जानेका समय भविष्यत्कालका अन्तिम समय सिद्ध हो सके, इसलिये जिस तरह भूतकालके समय मुक्तजीवराशिसे असंख्यातगुणे सिद्ध होते हैं उसी प्रकार भविष्यकालके समय भी विद्यमान भव्यराशिसे असंख्यातगुणे सिद्ध हुए। यहाँपर गुणकार असंख्यातका प्रमाण वही है, जितना कि औसतसे एक जीवके मोक्ष जानेका समय निश्चित होता है। - इसके बाद यह आपत्ति खड़ी होती है कि भविष्यकालको विद्यमान भव्यराशिसे असंख्यातगुणा माननेसे जब उन दोनोंकी समाप्ति हो जायगी, तब एक तो कालद्रव्यका अभाव मानना पड़ेगा तथा इसके साथ अन्य द्रव्योंका भी अभाव मानना होगा, कारण कि कोई भी द्रव्य बिना परिणमनके अपनी सत्ता नहीं रखता, परिणमन करानेवाला कालद्रव्य ही माना गया है और जब पूर्वोक्त प्रकारसे कालद्रव्यमें परिणमनका अभाव हो जानेसे कालद्रव्यका अभाव सिद्ध होता है तो उसके अभावमें अन्य द्रव्य भी अपनी सत्ता कायम नहीं रख सकते हैं, जो कि प्रमाण-विरुद्ध है, कारण सतका विनाश कभी नहीं होता। इसका समाधान भी इस ढंगसे किया जा सकता है कि भविष्यत्कालके समय और भव्यजीव दोनों ही अक्षयानन्त है, जिससे भविष्यत्कालके समय और भव्यजीवोंमें कमी होनेपर भी दोनोंका अन्त नहीं होगा। अर्थात् कालद्रव्यके समय सदा भविष्यसे वर्तमान और वर्तमानसे भूत होते ही रहेंगे, जिससे काल द्रव्यकी सत्ता कायम रहेगी और उसके सद्भावमें अन्य द्रव्य भी परिणमन करते हुए अपनी सत्ता कायम रख सकेंगे। शंका-भविष्यत्कालके समयों और भव्यजीवोंमें बराबर कमी होती जा रही है तो उनका अन्त अवश्य होगा, यह मानना कि कमो तो होती जावे ओर अन्त कभी भी न हो, बिल्कुल असंगत है ? उत्तर-जब हम अतीतकी ओर दृष्टि डालते हैं तो यही कहना पड़ ता है कि जो कुछ हम देख रहे है वह अनादिकालसे परिवर्तित होता हुआ अवश्य चला आ रहा है। इस अनादिकालकी सीमा निश्चित करना चाहें तो नहीं हो सकती, तब यही निश्चित होता है कि आजतक इतना काल बीत चुका, जिसका कि अन्त नहीं, अर्थात् वर्तमान समयसे बोते हुए समयोंकी गणना की जाय तो उनका कहींपर अन्त नहीं, कारण अन्त आ जानेसे उसमें अनादिपनेका अभाव हो जायगा । इसी तरह जब अनादिकालसे भव्यजीव मोक्ष जा रहे हैं तो इस समयसे मुक्त जीवोंको गणना करनेपर उनका कहीं अन्त नहीं होगा। इसमें विचार पैदा होता है कि भविष्यत्कालके समयों और भव्यजीवोंमें जब इतनी अधिक संख्याकी कमी हो गयी, जिसका अन्त नहीं, तो अबतक समाप्त क्यों नहीं हुई ? यदि कहा जाय कि भविष्यत्कालके समयों और भव्यजीवोंकी संख्या इतनी अधिक है कि अनादिकालसे कम होते हुए भी वह अभीतक तो समाप्त नहीं हुई, लेकिन असंख्यात या अनन्त समयोंमें वह अवश्य समाप्त हो जायगी, तो इसका तात्पर्य यही होगा कि कालका और जीवोंके मोक्ष जानेका प्रारम्भ किसी निश्चित समयसे हुआ है और इस प्रकार हमारी अनादिकल्पना केवल कल्पनामात्र Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ रह जाती है । जिस राशिकी कमीके प्रारम्भ होनेकी कल्पना नहीं कर सकते, ऐसी हालतमें वह राशि कितनी ही बड़ी क्यों न हो, यदि वह अक्षयानन्त नहीं है तो बहुत पहिले ही नष्ट हो जाना चाहिये थी, घटनेपर भी यदि वह आज भी विद्यमान है तो कभी नष्ट नहीं होगी' यह सिद्धान्त अटल हो जाता है । जिस राशिकी घटते-घटते समाप्ति हो जाय, वह अनन्त तो कही जा सकती है लेकिन अक्षयानन्त नहीं। अनन्तराशिकी यदि समाप्ति होती है तो उसके घटनेका प्रारंभ भी अवश्य होता है किन्तु अक्षयानन्त राशि घटनेके प्रारंभ और समाप्ति दोनोंसे रहित होती है, उसकी सदा मध्यकी हालत बनी रहती है। भविष्यत्कालके समय अनादिसे वर्तमान होते हुए भूतरूप हो रहे हैं, भव्यजीव अनादिसे मोक्ष जा रहे हैं फिर भी दोनोंकी सत्ता इस समय मौजूद है, इसलिये कभी इनका अन्त नहीं होगा। शंका--(१) जीवका संसार अनादिकालसे चला आ रहा है। (२) जीवका भव्यत्वभाव अनादिकालसे है । (३) आज जिस कार्यकी उत्पत्ति हुई तो कहना होगा कि अनादिकालसे आजतक उसका प्रागभाव रहा । लेकिन संसार, भव्यत्व और प्रागभावका अन्त भी माना जाता है ? उत्तर--प्रत्येक द्रव्यका स्वभाव परिवर्तन करनेका है। परिवर्तनमें पूर्व पर्यायका नाश और उत्तर पर्यायकी उत्पत्ति होती है अर्थात् पूर्व वर्तमान पर्याय भूत हो जाती है और उत्तर भविष्यत् पर्याय वर्तमान हो जाती है, यह क्रम अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकाल तक रहेगा।। (१) जीव द्रव्यके बहुतसे परिणमन पुद्गलद्रव्यसे संबद्ध हालतमें होते हैं । लेकिन पुद्गलद्रव्यका संबन्ध छूट सकता है, इसलिये जबतक पुद्गलद्रव्यसे संबद्ध हालतमें जीव परिणमन करता रहेगा, तबतक जितनी पर्याय उत्पन्न या विनष्ट होंगो उन सबके समूहका नाम ही जीवका संसार है और इसके आगे जो पर्यायें उत्पन्न या विनष्ट होंगी, उन सबके समूहका नाम जीवका मोक्ष है। (२) भव्यत्वभाव भी इसी तरहकी पर्यायोंकी अपेक्षा लिये हुए है, कारण कि जबतक जीवको सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं होती, तबतक तो भव्यत्वभाव उस जीवमें संपूर्णरूपसे विद्यमान रहता है और सम्यग्दर्शनके सद्भावसे जिस समय जीवको मोक्ष हो जाता है वहाँतककी पर्यायोंके परिवर्तनके क्रमसे भव्यत्वभाव भी नष्ट होते-होते अन्तमें सर्वथा नष्ट हो जाता है। (३) कार्यका प्रागभाव भी उस कार्य के पूर्व अनादिकालसे होनेवाली द्रव्यकी पर्यायोंके समूहका ही नाम है। जबकि पर्यायें हमेशा उत्पन्न और विनष्ट होती रहती है अर्थात भविष्यत् पर्यायें वर्तमान और वर्तमान भूत होती रहती हैं तो जैसा-जैसा पर्यायोंमें अन्तर आता जायगा वैसा-वैसा संसार, भव्यत्व और प्रागभावमें भी अन्तर आता जायगा और जब ये पर्यायें क्रमसे उत्पन्न होकर विनष्ट हो जायेंगी तब जीवके संसार व भव्यत्वका और कार्यके प्रागभावका व्यवहार नहीं होगा, लेकिन यह कभी संभव नहीं, कि ऐसा होनेसे उस द्रव्यकी आगेकी पर्यायोंके उत्पाद और विनाशका क्रम भी नष्ट हो जायगा । यह क्रम अनादि है तो अवश्य रहेगा । भविष्यत् कालका एक समय वर्तमान होता है और फिर भूत हो जाता है। इसी तरह दूसरे, तीसरे समयोंका भी नियम है। भव्यजीवोंमेंसे छः महिना आठ समयमें ६०८ जीवोंके मोक्ष जानेका नियम है और इन दोनोंका यह क्रम अनादिकालसे चला आ रहा है तो इसका कोई कारण नहीं कि वह क्रम नष्ट हो जायगा। शंका--काल आकाशकी तरह अपरिमित है, इसलिये उसकी समाप्ति न हो, लेकिन भव्यजीव जितने मोक्ष चले जाते हैं वे फिर कभी संसारमें आते नहीं, इसलिये उनका अन्त अवश्य हो जाना चाहिये ? Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : ९५ उत्तर-यद्यपि इस शंकाका उत्तर भव्यजीवराशिके पूर्वोक्त अक्षयानन्तपनेसे ही हो जाता है जब कि मोक्ष जानेका क्रम अनादिसे है, तो भी कुछ विशेष विचार किया जाता है। जिस तरह भूतकालके समय मुक्तजीवराशिसे असंख्यातगणे हैं उसी तरह भविष्यत्कालके समय भी वर्तमान भव्यराशिसे असंख्यातगणे हैं । ऐसी हालतमें दोनों ही राशियाँ परिमित सिद्ध होती हैं। लेकिन यह परिमितता अक्षयानन्तराशियोंकी हीनाधिकतासे ही मानी गयी है। परिमितताका यह जो लक्षण किया जाता है कि 'जिसकी समाप्ति हो सके' वह अवश्य ही ऊपर कही हुई राशियोंमें नहीं पाया जाता है। जिस तरह आकाशके प्रदेशोंकी संख्या पूछी जाय तो यही उत्तर मिलता है कि अन्तरहित है। लेकिन उनकी परिमितता भी इस ढंगसे सिद्ध की जा सकती है। लोकाकाशके एकप्रदेशपर अनेक जीव, अनेक 'पुद्गलपरमाणु, धर्म और अधर्म द्रव्यका एक-एक प्रदेश तथा एक कालाणू विद्यमान है। इन सबको वह प्रदेश एक ही समयमें स्थानदान देता है, इससे उस प्रदेशके अनेक स्वभाव सिद्ध होते हैं, कारण कि एक स्वभावसे वह आकाशप्रदेश भिन्न-भिन्न वस्तुओंको स्थानदान नहीं दे सकता तथा आकाश प्रदेश अनन्त हैं । वे भिन्न-भिन्न समयमें भिन्न-भिन्न परिवर्तन करते रहते हैं। यदि समयभेदसे भिन्न-भिन्न परिवर्तन नहीं माने जावें तो आकाशमें कूटस्थता सिद्ध होगी, जो कि वस्तुका स्वभाव नहीं है । दोनों ही प्रकारसे आकाशके स्वभावोंकी गणना की जाय तो आकाशके प्रदेशोंकी तरह अक्षयानन्त होनेपर भी वे स्वभाव उन प्रदेशोंसे अनन्तगुणे सिद्ध होंगे और आकाशके प्रदेश अक्षयानन्त होनेपर भी उन स्वभावोंके अनन्तवें भाग मात्र सिद्ध होंगे। इसी तरह कालकी भूत, वर्तमान और भविष्यत समयराशि भी अपने स्वभावोंके अनन्तवें भाग मात्र सिद्ध होती है। यही आकाश और कालकी परिमितता है। ये राशियाँ अक्षयानन्त होकरके भी उक्त प्रकारसे हीनाधिकरूपमें रहती हैं, इसलिये परिमित कही जा सकती हैं तो परिमित होते हुए भी जिस प्रकार अक्षयानन्त होनेसे कालका अभाव नहीं होगा उसी प्रकार परिमित होते हुए भी अक्षयानन्त होनेसे भव्यजीवोंका भी अभाव नहीं होगा। जिस तरह भव्य जीव मोक्ष चले जाते हैं । इसलिये उनमें कमी होती जा रहो है । उसी तरह भविष्यत्कालके समय भी बीतते चले जाते हैं; इसलिये उनमें भी कमी होती जा रही है। शंका--जैन शास्त्रोंमें कालद्रव्यके अण स्वीकार किये गये हैं । उनका तो कभी अभाव होता नहीं, कारण कि सत्का विनाश नहीं होता, भूत, वर्तमान और भविष्यतरूप उनकी पर्याय है, जो कि उत्पाद व्यय रूप हैं। कालद्रव्यके सदभावमें ये पर्यायें हमेशा पैदा होती रहेंगी इसलिये उनका कभी अन्त नहीं तरह नये जीवोंकी उत्पत्ति तो होती नहीं, जिससे कि वे कम होते हुए भी समाप्त न हों? उत्तर--यह बात ठीक है कि भत, वर्तमान और भविष्य कालाणकी पर्यायें हैं । लेकिन विचारना यह है कि ये पर्यायें हमेशा नवीन-नवीन पैदा होती हैं अथवा जितनी भी कालाणुकी पर्यायें हैं वे सब कालाणुमें शक्तिरूपसे विद्यमान हैं और वे ही भविष्यसे वर्तमान और वर्तमानसे भूत होती हई अनादिकालसे चली आ रही हैं और चली जायेंगी। द्रव्य कालिक पर्यायोंका पिण्ड है। इसलिये द्रव्यकी जितनी पर्यायें हो सकती है वे चाहे भूत हों या वर्तमान अथवा भविष्य, द्रव्यमें एक ही साथ रहतो अवश्य है लेकिन इतना भी अवश्य है कि उस समयमें द्रव्यकी भूत पर्याय भूतरूपसे वर्तमान पर्याय वर्तमान रूपसे और भविष्यत्पर्यायें भविष्यरूपसे ही रहती हैं । यदि वर्तमान पर्यायके साथ द्रव्यमें भत और भविष्यत्पर्यायोंका सर्वथा अभाव माना जाय, तो यह अभाव Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य आकाशके फूलकी तरह तुच्छाभावरूप ही होगा, जिससे आकाशके फलकी जिस प्रकार कभी उत्पत्ति नहीं . होती उसी प्रकार घटकी वर्तमान पर्यायकी भी उत्पत्ति नहीं होना चाहिये तथा ज्योतिःशास्त्रसे जो भावी चन्द्रग्रहणादिका पहिलेसे ही ज्ञान कर लिया जाता है, वह भी असंगत ठहरेगा, कारण कि पहली अवस्थामें वह तुच्छाभाव रूप ही मान लिया गया है। इसलिये वर्तमान पर्यायका इसकी पहली अवस्थामें द्रव्यमें भविष्यद्रूपसे सद्भाव अवश्य मानना पड़ता है। इसी तरह वर्तमान पर्यायके साथ भतपर्यायोंका द्रव्यमें भूतरूपसे सद्भाव नहीं माननेसे वर्तमानमें ज्योतिःशास्त्रादिके द्वारा भत अवस्थाका ज्ञान असंगत ठहरेगा, क्योंकि भूतपर्यायोंको द्रव्यमें तुच्छाभावात्मक मान लिया गया है। इसलिये प्रतिसमय द्रव्यमें त्रैकालिक अनन्त पर्याय अपने-अपने रूपमें अवश्य रहती हैं और वे ही परिवर्तन करती हईं भविष्यसे वर्तमान और वर्तमानसे भूत हो जाती हैं, ऐसा मानना युक्तिसंगत प्रतीत होता है। जैनशास्त्रोंमें जो द्रव्यके परिवर्तनमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको कारण माना गया है उनमें भाव इन्हीं कालिक पर्यायोंका नाम है अर्थात जिस द्रव्यमें जो वर्तमान पहले भविष्यरूप होगी वही वर्तमानरूप हो सकेंगी, जो वर्तमान होगी वही भूतरूप हो सकेगी। वर्तमान पर्यायमें भविष्यत्पर्याय कारण पड़ती है अर्थात् भविष्यत्पर्याय ही वर्तमानरूप हो जाती है और भूतपर्याय में वर्तमान पर्याय कारण पड़ती है अर्थात वर्तमान पर्याय ही भूतपर्यायरूप हो जाती है इसलिये यह सिद्धान्त भी संगत हो जाता है कि एक द्रव्य दुसरे द्रव्यरूप परिणमन नहीं करता, अन्यथा कोई कारण नहीं, कि पुद्गलद्रव्यमें जीवद्रव्यकी पर्यायें पैदा न हों। इसी तरह भूतपर्यायें भूतरूपसे परिणमन करती हुईं द्रव्यमें विद्यमान अवश्य रहती हैं, इसलिये “सत्का विनाश और असत्की उत्पत्ति नहीं होती" यह सिद्धान्त द्रव्यकी त्रैकालिक पर्यायोंमें भी लागू होता है क्योंकि सत्पर्यायोंकी तुच्छाभावरूप विनाश और आकाशके फूलकी तरह असत पर्यायोंकी उत्पत्ति मानने में पूर्वोक्त दोष आते हैं । प्रत्येक द्रव्यकी कालिक पर्यायें उतनी ही हैं जितने कि कालाणके भूत और भविष्य समय है और जब तक इन पर्यायोंका द्रव्यमें परिणमन हो रहा है तभी तक उस द्रव्यका सद्भाव है । जब तक द्रव्यकी जो पर्याय भविष्यरूप रहती है तब तक द्रव्यमें उस पर्यायका सद्भाव शक्ति रूपसे माना जाता है और जब वह पर्याय वर्तमान हो जाती है तब वह व्यक्त पर्याय मानी जाती है। इसलिये द्रव्यकी भविष्यत्सर्यायका वर्तमान हो जाना ही उत्पाद और वर्तमानका भूत हो जाना ही विनाश माना जाता है । हम लोगोंका प्रयोजन वर्तमान पर्यायसे ही सिद्ध होता है तथा हमारी इन्द्रियाँ वर्तमान पर्यायको ही ग्रहण कर सकती है, इसलिये वर्तमान पर्यायको व्यक्त पर्याय कहा जाता है। इस तरहसे काल जब द्रव्य है तो उसके भूत, वर्तमान और भविष्य जितने भी समय-पर्याय हो सकते हैं उन सबका कालद्रव्यमें अपने-अपने रूपमें सद्भाव अवश्य मानना पड़ता है, अन्यथा पूर्वोक्त दोष आते हैं और क्रमसे एक-एक समय भविष्यसे वर्तमान और वर्तमानसे भूत होता जा रहा है, तो जिस तरह जीव मोक्ष जा रहे हैं इसलिये उनमें कमी होती जा रही है उसी तरह कालके भविष्यत समय भी वर्तमान और भत होते जा रहे हैं इसलिये उनमें भी कमी होती जा रही है । साथमें यह भी है कि जब कालके असंख्यात समय (छः महिना आठ समयके जितने समय हों) बीत जाते हैं तब तक ६०८ जीव मोक्ष जा सकते हैं। इसलिये यह बात भलीभाँति सिद्ध हो जाती है कि यदि भव्यजीवोंकी समाप्ति मानी जाय तो उनके असंख्यातगुणे कालके समयोंकी समाप्ति अवश्य माननी पड़ेगी, जिससे कालद्रव्यका भी अभाव हो जायगा। यदि सत्का कभी विनाश नहीं होता इसलिये काल द्रव्यके सद्भावके लिये उसके समयोंकी समाप्ति Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/ धर्म और सिद्धान्त : ९७ नहीं मानी जाय तो उसके असंख्यातवेंभागप्रमाण तथा जिनकी समाप्ति हो तो कालके समयोंकी समाप्तिके साथ ही हो सकती है, भव्यजीवोंकी समाप्ति कैसे हो सकती है ? शंका-यहाँ पर भूत कालके समयोंका प्रमाण मक्तजीवराशिसे असंख्यातगुणा ही बतलाया गया है तथा वर्तमान एक समयमात्र और भविष्यत्कालके समय विद्यमान भव्यराशिके असंख्यातगुणे बतलाये है । लेकिन शास्त्रोंमें कालराशिका प्रमाण सर्वजीवराशिका अनन्तगुणा बतलाया गया है।' इसलिये यह कथन शास्त्रविरुद्ध होनेसे प्रमाण नहीं माना जा सकता है ? उत्तर-पूर्वकथनमें वर्तमान समय एक ही बतलाया गया है । वह उत्पाद और विनाशके क्रमसे बतलाया गया है। वर्तमान समय कालाणुकी पर्याय है। कालाणु लोकमें असंख्यात माने गये हैं तथा एक ही साथ समस्त लोकाकाशमें वर्तमान समय रहता है। जब प्रत्येक कालाणु स्वतन्त्र-स्वतन्त्र है तो इनकी पर्यायें भी स्वतन्त्र-स्वतन्त्र मानना पड़ती हैं। ऐसी हालतमें वर्तमान समयोंका प्रमाण कालाणुओंके समान असंख्यात हो जाता है । ऐसा ही कालाणुओंके भूत और भविष्यत् समयोंका भी प्रमाण समझना चाहिये । इसलिये पहले बतलाई हुई कालराशिका सर्वकालाणुओंके प्रमाणसे यदि गुणा कर दिया जाय तो सर्वसम्पूर्ण कालाणुओंके भूत, वर्तमान और भविष्यत् समयोंका प्रमाण निकल आता है। इतना होनेपर भी सर्वकालाणुओंके भूत, वर्तमान और भविष्य समयोंका प्रमाण मुक्त और वर्तमान भव्यराशिके प्रमाणसे असंख्यातगुणा ही सिद्ध होता है । इसके आगे यह विचार पैदा होता है कि कालाणुओंको वर्तमान पर्यायें एक समय तक ही वर्तमान रहकर भत हो जाती हैं। लेकिन वर्तमान व्यवहार कभी न नष्ट हुआ और न होगा, इसका कारण क्या माना जाय ? इसके लिये यही सुसंगत उत्तर दिया जा सकता है कि जब कालाणुओंकी एक-एक वर्तमान पर्याय भूत हो जाती है तो उसी समय उनको एक-एक भविष्यत् पर्याय वर्तमान हो जाती है, यह क्रम अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चलता जायगा अर्थात् अनादिकालसे आज तक जितने समय बीत चुके वे सब वर्तमान होकर ही भूत हुए हैं एवं अनन्तकाल तक जितने समय बीतेंगे वे सब भी वर्तमान हो करके ही भूत होंगे। इसी प्रकार जब वर्तमान समय भूत हो जाता है तो प्रथम समयमें भिन्न प्रकारका, द्वितीय समयमें भिन्न प्रकारका, इसी तरह तीसरे, चौथे आदि अनन्तसमयोंमें अनन्तप्रकारका ही भूतपना उसमें रहेगा तथा प्रत्येक समयका भविष्यत्पना भी भिन्न-भिन्न कालमें भिन्न-भिन्न प्रकारका रहेगा। मान लीजिये कि आजका दिन आज वर्तमान है, आजसे जो भविष्यका दशवाँ दिन है वह कलके दिन भविष्यका नववाँ दिन कहा जायगा, परसोंके दिन आठवां, इसी तरह क्रमसे सातवाँ आदि होता हुआ दशवें दिन तक वर्तमान कहा जाने लगेगा तथा उसके आगे भूतका पहला, दूसरा, तीसरा आदि क्रमसे कहा जायगा। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रत्येक कालाणुके जितने भूत, वर्तमान और भविष्यत् समय हैं वे प्रतिक्षण भिन्नभिन्न परिणमन करते हैं और प्रत्येक समयके ये परिणमन उतने ही हो सकते है जितने कि प्रत्येक कालाणुके भूत, वर्तमान और भविष्यके समय बतला आये हैं। यदि ऐसा नहीं माना जाय तो आज दिन जो वर्तमान व्यवहार है वह इसके पहले व इसके आगेके दिन नहीं होना चाहिये। लेकिन इसके पहले व आगेके दिनमें भो हम वर्तमानका व्यवहार करते है अर्थात् जैसा आजके दिनको हम आज वर्तमान कहते हैं वैसे ही कलके दिनको कल वर्तमान कहेंगे, इसका कोई-न-कोई कारण अवश्य होना चाहिये और यह यही हो सकता है कि कालाणुका प्रत्येक समय प्रतिक्षण परिवर्तन करता रहता है । ये सब कालाणुके ही परिवर्तन हैं । इनका प्रमाण सम्पूर्ण कालाणुओंके जितने भूत, वर्तमान और भविष्यत् समय है उनसे अनन्तानन्तगुणा सिद्ध होता है जो १. गोम्मटसार जीवकाण्ड पर्याप्तिप्ररूपणा । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ कि सर्वजीवराशिसे अनन्तगुणा होगा और यही प्रमाण सर्वव्यवहारकालराशिका प्रमाण कहा जाने योग्य है, कारण कि व्यवहारनाम पर्याय अथवा परिवर्तनका है और ये परिवर्तन पूर्वोक्त प्रकारसे इतने हो सकते हैं, हीनाधिक नहीं। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि भव्यजीव सतत मोक्ष जाते रहेंगे, फिर भी संसार जीवशून्य नहीं होगा तथा मोक्षमार्ग भी बन्द नहीं होगा । जैनदर्शनमें भव्य और अभव्य इनके विषयमें ता० १६ जुलाई सन् १९३२ के "जैन जगत" में सम्पादकमहोदयने निम्नलिखित विचार प्रकट किये हैं-"जैन शास्त्रोंमें जीवोंके दो भेद मिलते हैं-भव्य और अभव्य । भव्योंमें मोक्ष प्राप्त करनेकी योग्यता है, अभव्योंमें नहीं । ये भेद पारिणामिक या स्वाभाविक कहलाते हैं, परन्तु शक्ति तो सभी जीवोंमें एकसरीखी है। अभव्योंमें भी केवलज्ञानकी शक्ति है। यदि ऐसा न होता तो अभव्योंको केवलज्ञानावरणकर्मकी जरूरत ही नहीं रहती। इसलिये भव्य और अभव्यका स्वाभाविक भेद बिलकुल नहीं जंचता। अभी तक इस विषय में मेरे निम्नलिखित विचार रहे हैं। अभव्योंकी कल्पना तीर्थंकरोंके महत्त्वको बढ़ानेके लिये है." । आगे इसीकी पुष्टि की गयी है। लेकिन बात ऐसी नहीं है । शास्त्रोंमें जो भव्य और अभव्यका भेद बतलाया गया है वह वास्तविक है। और मोक्ष जानेकी योग्यता व अयोग्यतासे ही किया गया है अर्थात जिसमें मोक्ष जानेकी योग्यता है वह भव्य है और जिसमें नहीं है वह अभव्य है। शंका-जबकि भव्योंकी तरह अभव्योंमें भी केवलज्ञानकी शक्ति है तब उनमें मोक्ष जानेकी योग्यता क्यों नहीं है ? उत्तर-अभव्योंमें केवलज्ञानकी शक्ति है, इसका तात्पर्य यह है कि जीवोंका जीवत्त्व (चैतन्य) पारिणामिकभाव माना गया है और संपूर्ण जीवोंका असाधारण स्वरूप होनेसे वह संपूर्ण जीवोंमें पाया जाता है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र, सुख, वीर्य आदि उसी जीवत्वके विशेष हैं । इसलिये जीवत्त्वके सद्भावमें इनकी सत्ता संपूर्ण जीवमें अनायास सिद्ध हो जाती है। मोक्ष जानेकी योग्यताका मतलब केवलज्ञानादिके प्रकट होनेकी योग्यतासे है, कारण जीवोंके ज्ञानादिगुण कर्मोंसे आच्छादित हैं। इसलिये भव्य और अभव्यका लक्षण इस प्रकार हो जाता है, जिस जीवमें केवलज्ञानादिके प्रकट होनेकी योग्यता है वह भव्य है और जिसमें यह योग्यता नहीं है वह अभव्य है । अभव्योंमें केवलज्ञानकी शक्ति है, इसका अर्थ इतना ही करना चाहिये कि अभव्योंमें कर्मोंसे आच्छादित केवलज्ञानका सद्भाव है, उसकी अभिव्यक्ति नहीं होती। यह अर्थ कि अभव्योंमें भी केवलज्ञानके प्रकट होनेकी योग्यता है, असंगत ही है । शंका-भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीवोंमें समानरूपसे केवलज्ञान कर्मोसे आच्छादित रहता . है, ऐसी हालतमें भव्योंका केवलज्ञान प्रकट हो, अभव्योंका नहीं, यह भेद कैसे हुआ? उत्तर-केवलज्ञानादिकी प्रकटता द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके मिलनेपर होती है-(१) द्रव्य-जिस Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ९९ आत्मामें प्रकट हो, (२) क्षेत्र-जिस स्थानपर प्रकट हो, (३) काल-जिस समयमें प्रकट हो, (४) भाव-शुद्ध केवलज्ञानादिरूप पर्याय । ये चारों जिस आत्माके वर्तमानपनेको प्राप्त हो जाते हैं उसके उसी क्षणमें केवलज्ञानादि प्रकट हो जाते हैं । कारण कि इनका वर्तमान हो जाना ही केवलज्ञानादिकी प्रकटता है । जिस जीवमें ये चारों जब तक भविष्यत् रूपमें रहते हैं तब तक 'योग्यता' शब्दसे कहे जाते हैं। भव्योंमें यह योग्यता पायी जाती है। इसलिये उनके केवलज्ञानादि प्रकट हो जाते हैं, अभव्योंमें इस योग्यताके नहीं रहनेसे केवलज्ञानादि प्रकट नहीं होते हैं । शंका-जिस प्रकार भव्योंमें यह योग्यता पायी जाती है उसी प्रकार अभव्योंमें क्यों नहीं पायी जाती है, इसका कारण क्या है ? उत्तर-यह निश्चित बात है कि जितने भी जीव मोक्ष जा सकते हैं उन सबमें मोक्ष जानेकी योग्यता एक ही समयमें व्यक्त नहीं होती है। यदि एक ही समयमें सब जीवोंकी योग्यताका विकास माना जाय, तो सर्वजीवोंको एक ही समयमें मोक्ष होना चाहिये, जिससे या तो अभी तक किसी जीवका मोक्ष नहीं मानना चाहिये. या फिर जिस समयमें प्रथम जीवका मोक्ष हआ होगा. उसो समयमें मोक्ष जाने वाले सर्वजी मोक्ष हो जाना चाहिये था, लेकिन ऐसी बात नहीं है, अर्थात् प्रत्येक जीवका अपने-अपने योग्यकालमें ही मोक्ष जाना संभव है, इसलिये यह बात सिद्ध होती है कि जीवोंकी मोक्ष जानेको योग्यताकी व्यक्ति अपने योग्यकाल में ही होती है। प्रत्येक द्रव्य कालिक पर्यायोंका पिड है और वे पर्यायें उतनी ही हो सकती है जितने कि कालाणुके कालिक समय है. अधिक इसलिये नहीं मान सकते. कि आगे जब कालके समयोंका सद्भाव नहीं, तो उसके भावमें दसरे द्रव्योंकी सत्ता यक्तिसे असंगत जान पड़ती है. कालाणका जब एक समय भविष्यसे वर्तमान होता है तो प्रत्येक द्रव्यकी एक भविष्यत पर्याय भी वर्तमान हो जाती है और द्वितीय क्षणमें वह समय वर्तमानसे भत हो जाता है. इसलिये प्रत्येक द्रव्यकी वह पर्याय भी भत हो जाती है। इसी तरह कालाणुके दूसरे, तीसरे आदि समय जब क्रमसे भविष्यसे वर्तमान और वर्तमानसे भूत होते जाते हैं तो प्रत्येक द्रव्यकी दूसरी, तीसरी आदि पर्यायें भी क्रमसे भविष्यसे वर्तमान और वर्तमानसे भूत होती जाती है। यह क्रम अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चला जायगा, कभी समाप्त नहीं होगा, कारण कालाणुके समय और प्रत्येक द्रव्यकी पर्यायें अक्षयानन्त हैं। प्रत्येक जीव अनादिकालसे कर्मोंसे संबद्ध हो रहा है, लेकिन यह संबंध सर्वथा भी छूट सकता है इसलिये जीवकी दो तरह पर्यायें हो सकती है-सकर्म हालतकी और अकर्म (कर्मरहित) हालतकी। पहले प्रकारकी पर्यायोंमें जबतक भविष्यसे वर्तमान और वर्तमानसे भूत होनेका क्रम जारी रहता है, तब तक वह जीव संसारी कहलाता है और जबसे दूसरे प्रकारको पर्यायां में भविष्यसे वर्तमान और वर्तमानसे भूत होनेका क्रम प्रारम्भ होता है तबसे वह जीव मुक्त कहलाने लगता है। यह पहले बतला आये हैं कि सब जीवोंकी मोक्ष जानेकी योग्यताका विकास एक ही समयमें नहीं होता, इसलिये जैनशास्त्रोंमें छ: महीना आठ समयमें ६०८ जीव मोक्ष जाते हैं, यह नियम पाया जाता है। इससे यह बात सिद्ध होती है कि कालाणुके कालिक जितने समय हों, उनमें छः महीना आठ समयमें ६०८ जीवोंके हिसाबसे जितने जीव मोक्ष जा सकते हैं, उतने जीवोंको कालिक पर्यायें दो भागोंमें विभक्त हो जाती हैं--सकर्महालतकी पर्याय और अकर्महालतकी पर्याये। जितने जीव बाकी रह जाते हैं उनकी कालिक Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ - भूतरूप पर्यायें कर्म हालतकी ही हैं । कालाणुके सर्वसमयों में से जितने समय बीत चुके उनमें छः महिना आठ समयमें ६०८ जीवोंके हिसाब से जितने जीवोंका कर्मोंसे संबंध छूट गया है वे मुक्त कहे जाते हैं, कारण कि इनको मोक्षप्राप्ति के योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव प्राप्त हो चुका है, इसलिये उनका भविष्यसे वर्तमान और वर्तमानसे भूत रूप परिणमत कर्मरहित अवस्थाकी पर्यायोंमें होने लगा है । कालाणुके जितने समय अभी भविष्यत् रूप हैं उनमें छः महिना आठ समयोंमें ६०८ जीवोंके हिसाब से जितने जीवोंका कर्मोंसे संबंध छूटेगा, वे इस समय भव्य कहे जाते हैं, कारण उन जीवों का भविष्यसे वर्तमान और वर्तमान से भूतरूप परिणमन इस समय तो सकर्म अवस्थाकी पर्यायोंमें हो रहा है, लेकिन उन जीवोंमें भविष्यके किसी भी समयसे लेकर कर्मरहित अवस्थाकी पर्यायोंमें उस परिणमनके होनेकी योग्यताका सद्भाव है । जो जीव बाकी रह जाते हैं। उनको जैनशास्त्रोंमें अभव्य कहा गया है, कारण कि उन जीवोंका भविष्यसे वर्तमान और वर्तमान से परिणमन अनादिकाल से सकर्म हालतकी पर्यायोंमें हो रहा है तथा आगे अनन्तकालके किसी भी समय में कर्मरहित अवस्थाकी पर्यायोंमें पूर्वोक्त परिणमनके होनेकी योग्यताका सद्भाव भी उन जीवोंमें नहीं है । कालाणुके जितने भविष्यत् रूप समय हैं, उनमें इन जीवोंकी जितनी पर्यायोंकी पलटन होगी वे संपूर्ण पर्यायें सकर्म हालत की ही होंगी, इसलिये जब भविष्य की कोई भी पर्याय इन जीवोंकी शुद्ध नहीं कही जा सकती, तो इन जीवों के कर्मरहित अवस्थाकी पर्यायरूप भावका अभाव सिद्ध होता है । इसी तरह जब कालाणुके समय इन जीवोंकी अशुद्ध पर्यायोंकी पलटन में ही कारण हुए, क्योंकि इन जीवोंकी कालिक पर्यायें अशुद्ध ही हैं, तो मोक्ष जाने योग्यhroat भी अभाव सिद्ध हो जाता है और जब इन जीवोंकी त्रैकालिक पर्यायें अशुद्ध ही हैं, तो आकाशके भी तीनों कालोंमें जितने परिणमन होंगे उन सबमें वह आकाश अशुद्धपर्यायविशिष्ट ही इन जीवोंको स्थानदान देगा, इसलिये इन जीवोंके मोक्ष जाने योग्य क्षेत्रका भी अभाव सिद्ध होता है । आत्मा जब त्रैकालिक पर्यायोंका पिंड है तथा इन जीवोंकी कालिक पर्यायें अशुद्ध ही हैं, तो इन अशुद्ध पर्यायों सहित इनका आत्मा भी मोक्षमें कारण नहीं हुआ, इसलिये इन जीवोंके मोक्ष जाने योग्य द्रव्यका भी अभाव सिद्ध हो जाता है । इस तरहसे जब इन जीवोंको मोक्ष जाने योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव न तो प्राप्त हुआ और न प्राप्त होगा, तो इसका अर्थ यही हुआ कि इन जीवोंमें केवलज्ञानादिके प्रकट होने की योग्यता नहीं है अर्थात् इन जीवोंकी कोई भी भविष्यरूप पर्याय ऐसी नहीं, जिसको हम केवलज्ञानादिरूप कह सकें, इसलिये ये अभव्य कहे जाते हैं | तत्त्वार्थवातिके भव्याभव्यके 'लक्षणवार्तिकोंका यही अर्थ है । अर्थात् सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्ररूप पर्यायोंको जो प्राप्त होगा अर्थात् जिसकी सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र रूप पर्याय इस समय भविष्यरूप है, वह भव्य है और इससे विपरीत अभव्य है । शंका -- जिन जीवोंमें मोक्ष जानेको योग्यता है, वे सब जब मोक्ष चले जावेंगे, तब संसार भव्यजीवोंसे शून्य हो जायगा, तथा मोक्ष जानेका क्रम भी नष्ट हो जायगा ? उत्तर -- जितने कालके समय हैं उतने समयोंमें ही भव्यजीव मोक्ष जा सकते हैं । कालके समय और भव्य traint संख्या अक्षयानन्त है, इसलिये उनकी कभी भी समाप्ति नहीं होनेसे संसार भव्यजीवोंसे शून्य नहीं होगा और मोक्ष जानेका क्रम भी नष्ट नहीं होगा । २ शंका- इस कथन से यह बात निकलती है कि संपूर्ण भव्यजीव भी मोक्ष नहीं जायेंगे, तो जो भव्यजीव १. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणामेन भविष्यतीति भव्यः । २७८, तद्विपरीतोऽभव्यः | २|७|९| २. इसके लिये जैनमित्र, अंक २२, वर्ष ३४में "जीव की अनन्तता" शीर्षक लेख देखना चाहिये । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १०१ मोक्ष नहीं जायेंगे वे अभव्योंके समान ही हुए, इसलिये उनको अभव्य ही कहना उचित है, भव्य नहीं ? उत्तर--भव्य और अभव्यका भेद मोक्ष जानेकी योग्यताके रहने न रहनेसे किया गया है, इसलिये जिन जीवोंमें मोक्ष जानेकी योग्यता है उनमेंसे यदि भव्य इस योग्यताके वर्तमान (व्यक्त) नहीं होनेके कारण मोक्ष न भी जाय तो भी वह भव्य हो कहा जायगा। दूसरी बात यह है कि जिन जोवोंके मोक्ष जाने योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव वर्तमान हो जाते हैं वे मोक्ष चले जाते हैं, यह काल अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चला जायगा, कहीं भी विश्रान्तिको संभावना नहीं, तो यह नियम कैसे बना सकते हैं कि इतने भव्यजीव मोक्ष जायँगे, इतने नहीं। योऽनन्तेनापि कालेन न सेत्स्यत्यसावभव्य एवेति चेन्न भव्यराश्यन्तर्भावात्।।त. वा०२।७।९।। अर्थात्--जो भव्य अनन्तकालमें भी मोक्ष नहीं जायगा, उसको अभव्य नहीं कहना चाहिये, कारण कि उसकी गणना भव्यराशिमें ही होती है । इसका तात्पर्य भी वही है जो ऊपर लिखा गया है। इसलिये जैनजगतके संपादक महोदयका यह लिखना कि "शास्त्रोंमें भव्य दो तरहके बतलाये गये हैं-एक तो वे, जो मोक्ष जायेंगे, दुसरे वे, जो न जायेंगे, यह कल्पना अयक्त और निरर्थक दोनों है"; उचित नहीं कहा जा सकता है, कारण कि पूर्वोक्त प्रकारसे आचार्योंका कथन कल्पना नहीं, किन्तु वस्तुस्वरूपका प्रतिपादक ही सिद्ध होता है । इसलिये सार्थक और उपपत्तिसहित ही है। शंका--शास्त्रोंमें भव्यत्व और अभव्यत्वको पारिणमिक कहा गया है किन्तु यहाँपर मोक्ष जाने योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप योग्यताको भव्यत्व और इसके अभावको अभव्यत्व कहा है, इसलिये यह कथन शास्त्र-विरुद्ध है। उत्तर-जीवके पाँच प्रकारके भाव बतलाये हैं--कर्मोंके उपशम, क्षय, क्षयोपशम और उदयसे होने वाले क्रमसे औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औदयिक भाव कहे जाते हैं तथा जिनमें कर्मोंके उपशमादिकी अपेक्षा नहीं है वे भाव पारिणामिक कहे जाते हैं । जीवोंका सम्यग्यदर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप परिणाम यथायोग्य कर्मोंके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमसे प्रकट होता है । लेकिन इसमें द्रव्य, क्षेत्र काल, भावरूप योग्यता भी कारण पड़ती है । अर्थात् योग्यतामें कर्मोंका उपशम, क्षय, क्षयोपशम कारण नहीं, बल्कि कर्मोके उपशम. क्षय, क्षयोपशममें योग्यता कारण है । कर्मोका उदय भी इस योग्यतामें कारण नहीं है । इसलिये इस योग्यतारूप भव्यत्व और इसके अभावरूप अभव्यत्वभावोंको पारिणामिक भाव कहा गया है । दूसरी बात यह है कि प्रत्येक द्रव्यमें समानरूपसे भव्यता और अभव्यता पायी जाती है । पुद्गलद्रव्यको जितनी पर्याय हो सकती हैं उनकी योग्यताका पुद्गलद्रव्यमें सद्भाव है और चेतनादि पर्यायोंकी योग्यताका उसमें अभाव है । इसलिये पुद्गलद्रव्य अपनी पर्यायोंकी अपेक्षा भव्य है और चेतनादिपर्यायोंकी अपेक्षा अभव्य है । इस तरह संपूर्ण द्रव्य भव्य और अभव्य कहे जा सकते हैं। जीवोंकी तरह इनम भव्य और अभव्यका भेद नहीं बतलानेका कारण यह है कि धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एकही है तथा ये अपनी पर्यायोंकी अपेक्षा भव्य और दूसरे द्रव्यकी पर्यायोंकी अपेक्षा अभव्यरूप हैं। इनमें ये भव्यता और अभव्यता परस्पर अविरुद्ध होनेसे एक जगह पायी जाती है । कालाणु और पुद्गल यद्यपि बहुत है लेकिन इन सबमें भी समानरूपसे अपनी पर्यायोंकी अपेक्षा भव्यता और परद्रव्यकी पर्यायोंकी अपेक्षा अभव्यता एक ही जगह एक हो साथ पायी जाती है, इसलिये इन द्रव्योंमें भव्य अभव्यका भेद नहीं बन सकता है। इन द्रव्योंकी यह भव्यता Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ : सरस्वती-बरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ और अभव्यता यद्यपि क्रमसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप योग्यता और उसके अभावरूप ही हैं तो भी यदि कोई प्रश्न करे कि प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायों में परिणमन करता है दूसरे द्रव्यको पर्यायोंमें परिणमन नहीं करता है, इसमें क्या कारण है, तो यही उत्तर दिया जायगा कि प्रत्येक द्रव्यका यही स्वभाव है। इस तरहकी भव्यता और अभव्यता सब जीवोंमें भी पायी जाती है फिर भी यह भव्यता और अभव्यता समस्त जीवोंमें समान होनेके कारण भेद नहीं पैदा कर सकती है। किन्तु मोक्षकी भव्यता और अभव्यता परस्पर विरुद्ध होनेके कारण दोनों एक जगह नहीं रह सकती हैं इसलिये ये जीवोंमें भेद पैदा कर देती है। तथा यह भव्यता और अभव्यता भी क्रमसे मोक्ष जाने योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप योग्यता और इसके अभावरूप ही है, इसलिये इन दोनोंको जीवका स्वभाव कहा जाता है। तीसरी बात यह है कि स्वभाव नाम परिणमनका है और परिणमन पर्यायको कहते हैं । जिस द्रव्यमें जो पर्याय भविष्यतरूप है उसमें वह पर्याय अपने प्रकट होने योग्य क्षेत्र और कालरूप निमित्तको पाकर प्रकट हो जाती है। जब तक वह पर्याय प्रकट होने योग्य रहतो है तब तक उस द्रव्यमें उस पर्यायकी अपेक्षा भव्यता रहती है। जिस द्रव्यमें जो पर्याय भविष्यत् (शक्ति) रूप नहीं है उसमें वह पर्याय कभी भी प्रकट नहीं होगी इसलिये उस द्रव्यमें उस पर्यायकी अपेक्षा अभव्यता रहतो है। इस तरह भव्यता और अभव्यता दोनोंका कारण क्रमसे द्रव्यकी भविष्यत् पर्याय और उसका अभाव ही हुआ। इसलिये भव्यताको पारिणामिक या स्वाभाविक कहना संगत जान पड़ता है। किसी-किसो जीवमें शुद्ध सम्यग्दर्शनादिरूप पर्याय भविष्यतरूप है, इसलिये व जीव भव्य कहे जाते हैं और किसी-किसो जीवमें शुद्ध सम्यग्दर्शनादिरूप पर्याय भविष्यत्रूप नहीं है किन्तु भविष्यत्कालके संपूर्ण समयोंमें वह सम्यग्दर्शनादिरूप पर्याय कर्मोसे आवृत्त रहनेसे अशुद्ध ही रहेगी, इसलिये वे अभव्य कहे जाते है। इस तरहसे जोवोंकी इस भव्यता और अभव्यताको भी पारिणामिक या स्वाभाविक कहते है। शंका-यदि भव्यता और अभव्यताको पारिणामिक माना जाय, तो स्वभावके अविनाशी होनेके कारण मोक्षमें भव्यताका नाश नहीं होना चाहिये ? उत्तर-भव्यताका अर्थ है शुद्ध सम्यग्दर्शनादिके प्रकट (वर्तमान) होने योग्य भविष्यत् (शक्ति) रूपसे शुद्ध सम्यग्दर्शनादिरूप पर्यायका सद्भाव । प्रत्येक द्रव्यको भविष्यत् पर्याय वर्तमान और वर्तमानपर्याय भूत होती जा रही है और होती जायगी, तो भव्य जीवमें शुद्ध सम्यग्दर्शनादिरूप पर्याय कभी प्रकट (वर्तमान) होगी ही, और जब वह प्रकट हो जायगी तब उसके प्रकट होनेकी योग्यता भी नष्ट हो जायगी, इस तरहसे सम्यग्दर्शनकी हालतसे चतुर्दश गुणस्थानके अन्त तक जैसे-जैसे आत्माकी शद्ध पर्यायोंका विकास होता जायगा वैसे-वैसे योग्यता भी नष्ट होती जायगी और अन्तमें संपूर्णरूप योग्यताका नाश हो जायगा, कारण कि उस समय आत्माके संपूर्ण स्वभावका विकास हो जायगा। आगे इस जीवका जो भी परिणमन होगा वह शद्ध पर्यायोंमें ही होगा, इसलिये भव्यत्वका निमित्त हट जानेके कारण मोक्षमें भव्यत्व भावका नाश माना जाता है। इस तरहसे यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है कि भव्य और अभव्य जीवोंके वास्तविक भेद हैं, कल्पना नहीं की गयी है । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवदया : एक परिशीलन जीवदयाके प्रकार १. जीवदयाका एक प्रकार पुण्यभावरूप है। पुण्यभावरूप होनेके कारण उसका अन्तर्भाव आस्रव और बन्धतत्त्वमें ही होता है, संवर और निर्जरामें अन्तर्भाव नहीं होता। यह पुण्यभावरूप जीवदया व्यवहारधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारण है । इस बातको आगे स्पष्ट किया जायेगा। २. जीवदयाका दूसरा प्रकार जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चय धर्मरूप है। इसकी पुष्टि धवल-पुस्तक १३ के पृष्ठ ३६२ पर निर्दिष्ट निम्न वचनके आधारपर होती है करुणाए जीवसहावस्स कम्मणिदत्तविरोहादो। अर्थ-करुणा जीवका स्वभाव है अतः इसके कर्मजनित होनेका विरोध है। यद्यपि धवलाके इस वचनमें जीव-दयाको जीवका स्वतःसिद्ध स्वभाव बतलाया है, परन्तु जीवके स्वतःसिद्ध स्वभाव-भूत वह जीवदया अनादिकालसे मोहनीयकर्मकी क्रोध-प्रकृतियोंके उदयसे विकृत रहती आई है, अतः मोहनीयकर्मकी उन क्रोध-प्रकृतियोंके यथास्थान यथायोग्यरूपमें होने वाले उपशम, क्षय या क्षयोपशमसे जब वह शुद्धरूपमें विकासको प्राप्त होती है तब उसे निश्चयधर्मरूपता प्राप्त हो जाती है। इसका अन्तर्भाव आस्रव और बन्धतत्त्वमें नहीं होता, क्योंकि जोवके शुद्ध स्वभावभूत होनेके कारण वह कर्मोके आस्रव और बन्धका कारण नहीं होती है। तथा इसका अन्तर्भाव संवर और निर्जरा तत्त्व में भी नहीं होता, क्योंकि इसकी उत्पत्ति ही संवर और निर्जरापूर्वक होती है। ३. जीव दयाका तीसरा प्रकार अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक होने वाली दयारूप शुभ प्रवृत्तिके रूपमें व्यवहारधर्मरूप है। इसका समर्थन भी आगम-प्रमाणोंके आधारपर होता है। इसका अन्तर्भाव अदयारूप अशुभप्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप होनेके आधारपर संवर और निर्जराका कारण हो जानेसे संवर और निर्जरा तत्त्वमें होता है, और दयारूप पुण्यप्रवृत्तिरूप होनेके आधारपर आस्रव और बन्धका कारण हो जानेसे आस्रव और बन्धतत्त्वमें भी होता है। कर्मोके संवर और निर्जरणमें कारण होनेसे यह व्यवहारधर्मरूप जीवदया जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप जीवदयाको उत्पत्तिमें कारण सिद्ध होती है। पुण्यभूत दयाका विशेष स्पष्टीकरण भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीव सतत विपरीताभिनिवेश और मिथ्याज्ञानपूर्वक आसक्तिवश अदयारूप संकल्पीपापमय अशुभ प्रवृत्ति करते रहते हैं, तथा कदाचित् सांसारिक स्वार्थवश दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति भी किया करते हैं । ये जीव यदि कदाचित् अदयारूप संकल्पीपापमय अशुभ प्रवृत्तिके साथ सम्यक् अभिनिवेश और सम्यग्ज्ञानपूर्वक कर्तव्यवश दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं तो उनके अन्तःकरणमें उस अदयारूप संकल्पीपापमय अशुभ प्रवृत्तिसे घृणा उत्पन्न हो जाती है और तब वे उस अदयारूप संकल्पीपापमय अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं। इस तरह वह पुण्यभावरूप जीवदया अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा निवृत्तिपूर्वक होने वाली दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप व्यवहारधर्मकी उत्पत्तिमें कारण सिद्ध हो जाती है। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ निश्चयधर्मरूप जीवदयाका विशेष स्पष्टीकरण निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्ति भव्य जीवमें ही होती है, अभव्य जीयमे नहीं। तथा उस भव्य जीवमें उसकी उत्पत्ति मोहनीयकर्मके भेद अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनरूप कषायोंकी क्रोधप्रकृतियोंका यथास्थान यथायो ग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर शद्ध स्वभाव के रूपमें उत्तरोत्तर प्रकर्षको लेकर होती है । इसकी प्रतिक्रिया निम्न प्रकार है (क) अभव्य और भव्य दोनों प्रकारके जीवोंकी भाववती शक्तिका अनादिकालसे अनन्तानुबन्धी आदि उक्त चारों कषायोंकी क्रोध-प्रकृतियोंके सामूहिक उदयपूर्वक अदयारूप विभाव परिणमन होता आया है। दोनों प्रकारके जीवोंमें उस अदयारूप विभावपरिणमनकी समाप्तिमें कारणभूत क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंके विकासकी योग्यता भी स्वभावतः विद्यमान है। भव्य जीवोंमें तो उस अदयारूप विभाव परिणतिको समाप्तिमें अनिवार्य कारणभूत आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिके विकासको योग्यता भी स्वभावतः विद्यमान है। इस तरह जिस भव्य जीवमें जब क्षयोपशम, विशद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकास हो जानेपर उक्त करणलब्धिका भी विकास हो जाता है तब सर्वप्रथम उस करणलब्धिके बलसे उस भव्य जीवमें मोहनीयकर्मके भेद दर्शनमोहनीयकर्मकी यथासंभवरूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक प्रकृतिरूप तीन प्रकृतियोंका व चारित्रमोहनीयकर्मके प्रथमभेद अनन्तानुबंधीकषायके नियमसे विद्यमान मान, माया और लोभ प्रकृतियोंके साथ क्रोध प्रकृतिका भी यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर चतुर्थ गणस्थानके प्रथम समयमें उसकी उस भाववती शक्सिका शद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मके रूपमें एक प्रकारका जीवदया-रूप परिणमन होता है। (ख) इसके पश्चात् उस भव्यजीवमें यदि उस आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका विशेष उत्कर्ष हो जावे, तो उसके बलमें उसमें चारित्रमोहनीय कर्मके द्वितीय भेद अप्रत्याख्यानावरण कषायकी नियमसे विद्यमान मान, माया और लोभ प्रकृतियोंके साथ क्रोध-प्रकृतिका भी क्षयोपशम होनेपर पंचम गुणस्थानके प्रथम समयमें उसकी उस भाववती शक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मके रूप में दूसरे प्रकारका जीवदयारूप परिणमन होता है। (ग) इसके भी पश्चात् उस भव्यजीवमें यदि उस आत्मोमुखता-रूप करणलब्धिका और विशेष उत्कर्ष हो जावे तो उसके बलसे उसमें चारित्रमोहनीयकर्मके ततीय भेद प्रत्याख्यानावरण कषायको नियमसे विद्यमान मान, माया और लोभ-प्रकृतियोंके साथ क्रोध-प्रकृतिका भी क्षयोपशम होनेपर सप्तमगुणस्थानके प्रथम समयमें उसकी उस भाववती शक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मके रूपमें तीसरे प्रकारका जीवदयारूप परिणमन होता है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सप्तमगुणस्थानको प्राप्त जीव सतत सप्तमसे षष्ठ और षष्ठसे सप्तम दोनों गुणस्थानों में अन्र्मुहूर्त कालके अन्तरालसे झूलेकी तरह झूलता रहता है। (घ) उक्त प्रकार सप्तमसे षष्ठ और षष्ठसे सप्तम दोनों गुणस्थानोंमें झूलते हुए जीवमें यदि सप्तम गुणस्थानसे पूर्व ही दर्शनमोहनीयकर्मकी उक्त तीन और चारित्रमोहनीयकर्मके प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कषायकी उक्त चार-इन सात प्रकृतियोंका उपशम या क्षय हो चुका हो, अथवा सप्तम गुणस्थानमें ही उनका उपशम या क्षय हो जावे तो उसके पश्चात् वह जीव उस आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका सप्तम, अष्टम और नवम गुणस्थानोंमें क्रमशः अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके रूप में और भी विशेष उत्कर्ष प्राप्त कर लेता है और तब नवम गुणस्थानमें हो उस जीवमें चारित्रमोहनीयकम के उक्त द्वितीय और तृतीय भेदरूप Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १०५ अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायोंकी क्रोध-प्रकृतियोंके साथ चारित्रमोहनीय कर्मके चतुर्थ भेद संज्वलन कषायकी क्रोध-प्रकृतिका भी उपशम था क्षय होने पर उस जीवकी उस भाववती शक्तिका शद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मके रूप चौथे प्रकारका जीवदयारूप परिणमन होता है। इस विवेचनका तात्पर्य यह है कि यद्यपि भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीवोंको भाववती शक्तिका अनादिकालसे चारित्रमोहनीयकर्मके भेद अनन्तानुबन्धी आदि चारों कषायोंकी क्रोधप्रकृतियोंके सामूहिक उदयपूर्वक अदयारूप विभावपरिणमन होता आया है, परन्तु जब जिस भव्यजीवकी उस भाववती शक्तिका वह अदयारूप विभाव परिणमन यथास्थान उस-उस क्रोध-प्रकृतिका यथासंभव उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर यथायोग्यरूपमें समाप्त होता जाता है, तब उसके बलसे उस जीवकी उस भाववतीशक्तिका उत्तरोत्तर विशेषता लिए हुए शुद्ध स्वभावरूप निश्चयधर्मके रूपमें दयारूप परिणमन होता जाता है। इतना अवश्य है कि उन क्रोध-प्रकृतियोंका यथास्थान यथायोग्यरूपमें होने वाला वह उपशम, क्षय या क्षयोपशम उस भव्य जीवमें क्षयोपशम, विशद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियों के विकासपूर्वक आत्मोन्मखतारूप करणलब्धिका विकास होने पर ही होता है। व्यवहारधर्मरूप जीवदयाका विशेष स्पष्टीकरण भव्य जीवमें उपयुक्त पाँचों लब्धियोंका विकास तब होता है जब वह जीव अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्तियोंको क्रियावती शक्तिके ही परिणमनस्वरूप मानसिक वाचनिक और कायिक अदयारूप संकल्पीपापमय अशभ प्रवत्तियोंसे म वचनगप्ति और कायगप्तिके रूपमें निवत्तिपूर्व करने लगता है। इन अदयारूप संकल्पीपापमय अशभ प्रवृत्तियोंसे निवत्तिपूर्वक की जानेवाली दयारूप पण्यमय शभ प्रवत्तिका नाम ही व्यवहारधर्मरूप दया है तरह यह निर्णीत है कि जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप व्यवहारधर्मरूप जीवदयाके बलपर ही भव्यजीवमें भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप निश्चयधर्मरूप जीव-दयाकी उत्पत्तिमें कारणभूत क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करणलब्धियोंका विकास होता है। इस तरह निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें व्यवहारधर्मरूप जीवदया कारण सिद्ध हो जाती है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि कोई-कोई अभव्यजीव भी व्यवहारधर्मरूप दयाको अंगीकार करके अपनेमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकास कर लेता है। इतना अवश्य है कि उसकी स्वभावभूत अभव्यताके कारण उसमें आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका विकास नहीं होता है। इस तरह उसमें भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप निश्चयधर्मरूप जीव दयाका विकास भी नहीं होता है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि भव्यजीवमें उक्त क्रोध-प्रकृतियोंका यथासम्भवरूपमें होने वाला वह उपशम, क्षय या क्षयोपशम . यद्यपि आत्मोन्मुखतारूप कारणलब्धिका विकास होनेपर ही होता है, परन्तु उसमें उस कारणलब्धिका विकास क्रमशः क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चारों लब्धियोंका विकास होनेपर ही होता है। अतः इन चारों लब्धियोंको भो उक्त क्रोध-प्रकृतियोंके यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशममें कारण माना गया है। जीवका भाववतो और क्रियावती शक्तियों के सामान्य परिणमनोंका विवेचन जीव की भाववती और क्रियावती--इन दोनों शक्तियोंको आगममें उनके स्वतःसिद्ध स्वभाव के रूपमें बतलाया गया है। इनमेंसे भाववतीशक्तिके परिणमन एक प्रकारसे तो मोहनीयकर्मके उदयमें विभावरूप, व उसके उपशम, क्षय या क्षयोपशममें शुद्धस्वभावरूप होते हैं तथा दूसरे प्रकारसे हृदयके सहारेपर तत्त्व Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ श्रद्धानरूप या अतत्त्वश्रद्धानरूप और मस्तिष्क के सहारेपर तत्त्वज्ञानरूप या अतत्त्वज्ञानरूप होते हैं । एवं क्रियावती शक्तिके परिणमन संसारावस्था में एक प्रकारसे तो मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय शुभ और पापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप होते हैं, दूसरे प्रकार से पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और गुप्त रूप में निवृत्तिपूर्वक मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप होते हैं और तीसरे प्रकारसे सक्रिय मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणाके सहारेपर पुण्यरूपता और पापरूपतासे रहित आत्मक्रिया के रूपमें होते हैं । इनके अतिरिक्त संसारका विच्छेद हो जानेपर जीवकी क्रियावती शक्तिका चौथे प्रकारसे जो परिणमन होता है, वह स्वभावतः उर्ध्वगमन रूप होता है। जीवकी क्रियावती शक्तिके इन चारों प्रकारसे होने वाले परिणमनोंमेंसे पहले प्रकारके परिणमन कर्मोंके आस्रवपूर्वक प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप चारों प्रकारके बन्धमें कारण होते हैं । दूसरे प्रकारके परिणमन पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तरूप होने से भव्यजीवमें यथायोग्य कर्मोंके संवरपूर्वक निर्जरण में कारण होते हैं तथा पुण्यरूप शुभ प्रवृत्तिरूप होनेसे यथायोग्य कर्मोके आस्रवपूर्वक प्रकृति प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप चारों प्रकारके बन्ध में कारण होते हैं। तीसरे प्रकारके परिणमन पुण्यरूपता और पापरूपतासे रहित होनेसे केवल सातावेदनीयकर्मके आस्रवपूर्वक प्रकृति तथा प्रदेश बन्धमें कारण होते हैं और चौथे प्रकारका परिणमन केवल आत्माश्रित होने से कर्मोंके आस्रव और बन्धमें कारण नहीं होता है और कर्मोंके संवर और निर्जरणपूर्वक उन कर्मोंका सर्वथा अभाव हो जानेसे कर्मोंका संवर और निर्जरणका कारण होनेका तो प्रश्न ही नहीं रहता है । जीवकी क्रियावती शक्तिके प्रवृत्तिरूप परिणमनोंका विश्लेषण जीवकी भाववती शक्तिके हृदयके सहारेपर अतत्त्वश्रद्धानरूप और मस्तिष्क के सहारे पर अतत्त्वज्ञानरूप जो परिणमन होते हैं, उनसे प्रभावित होकर जीवकी क्रियावती शक्तिके आसक्तिवश मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पीपापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन होते हैं । एवं कदाचित् सांसारिक स्वार्थवश पुण्यमय शुभप्रवृत्तिरूप परिणमन भी होते हैं, इसी तरह जीवकी भाववती शक्ति के हृदयके सहारेपर तत्त्वश्रद्धानरूप और मस्तिष्क के सहारेपर तत्वज्ञानरूप जो परिणमन होते हैं उनसे प्रभावित होकर जीवको क्रियावती शक्तिके एक तो आसक्तिवश मानसिक, वाचनिक और कायिक आरम्भीपापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन होते हैं और दूसरे कर्त्तव्यवश मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय शुभप्रवृत्तिरूप परिणमन होते हैं । संसारी जीव आसक्ति, मोह, ममता तथा राग और द्व ेषके वशीभूत होकर मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्तिरूप जो लोकविरुद्ध हिंसा, झूठ, चोरी तथा पदार्थोंके अनावश्यक भोग और संग्रह - रूप क्रियाएँ सतत करता रहता है, वे सभी क्रियाएँ संकल्पी पाप कहलाती हैं । इनमें सभी तरहकी स्वपरहितविघातक क्रियाएँ अन्तर्भूत होती हैं । संसारी जीव अशक्ति, मजबूरी आदि अनिवार्य परिस्थितियोंवश मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्ति रूप जो लोकसम्मत हिंसा, झूठ, चोरी तथा आवश्यक भोग और संग्रहरूप क्रियाएँ करता है, वे सभी क्रियाएँ आरम्भीपाप कहलाती हैं। इनमें जीवनका संचालन, कुटुम्बका भरण-पोषण तथा धर्म, संस्कृति, समाज, राष्ट्र और लोकका संरक्षण आदि उपयोगी कार्योंको सम्पन्न करनेके लिए नीतिपूर्वक की जानेवाली असि, मसि, कृषि, सेवा, शिल्प, वाणिज्य तथा अनिवार्य भोग और संग्रहरूप क्रियाएँ अन्तर्भूत होती हैं । संसारी जीव जितनी परहितकारी मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियाएँ करता है, वे सभ‍ क्रियाएँ पुण्य कहलाती हैं । इस प्रकारकी पुण्यरूप क्रियाएँ दो प्रकारकी होती हैं-- एक तो सांसारिक Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १०७ स्वार्थवशकी जानेवाली पुण्यरूप क्रिया और दूसरी कर्त्तव्यवशकी जानेवाली पुण्यरूप क्रिया। इनमेंसे कर्तव्यवशकी जानेवाली पुण्यरूप क्रिया ही वास्तविक पुण्यक्रिया है। ऐसी पुण्यक्रियासे ही परोपकारकी सिद्धि होती है। इसके अतिरिक्त वीतरागी देवकी आराधना, वीतरागताके पोषक शास्त्रोंका पठन-पाठन, चिन्तन और मनन व वीतरागताके मार्गपर आरूढ़ गुरुओंकी सेवा-भक्ति तथा स्वावलम्बनशक्तिको जागृत करनेवाले व्रताचरण और तपश्चरण आदि भी पुण्यक्रियाओंमें अन्तर्भूत होते हैं । यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि उक्त आरम्भी पाप भी यदि आसक्ति आदिके वशीभूत होकर किये जाते हैं तथा पुण्य भी अहंकार आदिके वशीभूत होकर किये जाते हैं तो उन्हें संकल्पी पाप ही जानना चाहिए। संसारी जीवकी क्रियावती शक्तिके दया और अदया-रूप परिणमनोंका विवेचन ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि जीवकी भाववतोशक्तिका चारित्रमोहनीय कर्मके भेद अनन्तानुबन्धी आदि चारों कषायोंकी क्रोधप्रकृतियोंके उदयमें अदयारूप विभाव-परिणमन होता है, और उन्हीं क्रोधप्रकृतियोंके यथास्थान, यथासंभवरूपमें होनेवाले उपशम, क्षय या क्षयोपशममें दयारूप स्वभाव-परिणमन होता है। यहाँ जीवकी क्रियावती शक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक परिणमनोंके विषयमें यह बतलाया जा रहा है कि जीवद्वारा परहितकी भावनासेकी जानेवालो क्रियाएँ पुण्यके रूपमें दया कहलाती है और जीवद्वारा परके अहितकी भावनासे की जानेवाली क्रियाएँ संकल्पीपापके रूपमें अदया कहलाती है। इनके अतिरिक्त जीवकी जिन क्रियाओंमें परके अहितकी भावना प्रेरक न होकर केवल स्वहितकी भावना प्रेरक हो, परन्तु जिनसे परका अहित होना निश्चित हो, वे क्रियाएँ आरम्भीपापके रूपमें अदया कहलाती हैं। जैसे-एक व्यक्ति द्वारा अनीतिपूर्वक दूसरे व्यक्तिपर आक्रमण करना संकल्पीपापरूप अदया है, परन्तु उस दूसरे व्यक्ति द्वारा आत्मरक्षाके लिए उस आक्रामक व्यक्तिपर प्रत्याक्रमण करना आरम्भीपा परूप अदया है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि जीवकी पुण्यमय क्रिया संकल्पीपापमय क्रियाके साथ भी संभव है और आरम्भीपापमय क्रियाके साथ भी संभव है, परन्तु संकल्पी और आरम्भी दोनों पापरूप क्रियाओंमें जीवकी प्रवृत्ति एकसाथ नहीं हो सकती है, क्योंकि संकल्पीपापरूप क्रियाओंके साथ जो आरम्भीपापरूप क्रियाएं देखनेमें आती है उन्हें वास्तवमें संकल्पी पापरूप क्रियाएँ ही मानना युक्तिसंगत हैं। इस तरह संकल्पीपापरूप क्रियाओंसे सर्वथा त्यागपूर्वक जो आरम्भीपापरूप क्रियाएँ की जाती है, उन्हें ही वास्तविक आरम्भीपापरूप क्रियाएँ समझना चाहिए । व्यवहारधर्मरूप दयाका विश्लेषण और कार्य ऊपर बतलाया जा चुका है कि जीव द्वारा मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ क्रियाओंके साथ परहितकी भावनासे की जाने वाली मानसिक, वाचनिक और कायिक शभ क्रियाएँ पुण्यके रूपमें दया कहलाती हैं और वे कर्मोके आस्रव और बन्धका कारण होती हैं, परन्तु भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीवों द्वारा कम-से-कम मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ क्रियाओंसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें होनेवाली सर्वथानिवृत्तिपूर्वक जो मानसिक, वाचनिक और कायिक दयाके रूपमें पुण्यमय शुभ क्रियाएँ की जाने लगती है वे क्रियाएँ ही व्यवहारधर्मरूप दया कहलाती है । इसमें हेतु यह है कि उक्त संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ कियाओंसे निवृत्तिपूर्वक की जाने वाली पुण्यभूत Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ दया भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीवोंमें क्षयोपशम, विशद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंके विकासका कारण होती है तथा भव्यजीवमें तो वह पुण्यरूप दया इन लब्धियोंके विकासके साथ आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिके विकासका कारण होती है। उक्त करणलब्धि प्रथमतः मोहनीयकर्मके भेद दर्शनमोहनीय कर्मकी यथासंभव रूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतिरूप तीन व मोहनीयकर्मके भेद चारित्रमोहनीयकर्मकी अनन्तानुबन्धी कषायरूप क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार--इस तरह सात प्रकृतियोंके यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशममें कारण होती हैं। इस तरह उक्त व्यवहारधर्मरूप दया कर्मोके संवर और निर्जरणमे कारण सिद्ध हो जाती है। इतनी बात अवश्य है कि उस व्यवहारधर्मरूप दयामें जितना पुण्यमय दयारूप प्रवृत्तिका अंश विद्यमान रहता है वह तो कर्मोके आस्रव और बन्धका ही कारण होता है तथा उस व्यवहारधर्मरूप दयाका संकल्पीपापमय अदयारूप प्रवृत्तिसे होनेवाली सर्वथानिवृत्तिका अंश हो कर्मोके संवर और निर्जरणका कारण होता है । द्रव्यसंग्रहग्रन्थकी गाथा ४५ में जो व्यवहार-चारित्रका लक्षण निर्धारित किया गया है, उसके आधारपर व्यवहारधर्मरूप दयाका स्वरूप स्पष्ट रूपसे समझ में आ जाता है। वह गाथा निम्न प्रकार है असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं ॥४५।। अर्थ-अशुभसे निवृत्तिपूर्वक होनेवाली शुभ प्रवृत्तिको जिन भगवान्ने व्यवहार-चारित्र कहा है। ऐसा व्यवहार-चारित्र व्रत, समिति और गुप्तिरूप होता है । इस गाथामें व्रत, समिति और गुन्तिको व्यवहारचारित्र कहनेमे हेतु यह है कि इनमें अशुभ से निवृत्ति और शभमें प्रवृत्तिका रूप पाया जाता है । इस तरह इस गाथासे निर्णीत हो जाता है कि जीव पुण्यरूप दयाके साथ करता है तबतक तो उस दयाका अन्तर्भाव पुण्यरूप दयामें होता है और वह जीव उक्त पुण्यरूप जीवदयाको जब पापरूप अदयासे निवृत्तिपूर्वक करने लग जाता है तब वह पुण्यभूत दया व्यवहारधर्मका रूप धारण कर लेती है, क्योंकि इस दयासे जहाँ एक ओर पुण्यमय प्रवृत्तिरूपताके आधारपर कर्मोंका आस्रव और बन्ध होता है वहाँ दूसरी ओर उस दयासे पापरूप अदयासे निवृत्तिरूपताके आधारपर भव्यजीवमें कर्मोंका संवर और निर्जरण भी हुआ करता है। व्यवहारधर्मरूप दयासे कर्मोंका संवर और निर्जरण है. इसकी पष्टि आचार्य वीरसेनके द्वारा जयधवलाके मंगलाचरणकी व्याख्या निर्दिष्ट निम्न वचनसे होती है-- सुह-सुद्धपरिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो । अर्थ--शुभ और शुद्धके रूपमें मिश्रित परिणामोंसे यदि कर्मक्षय नहीं होता हो, कर्मक्षयका होना असंभव हो जायेगा। आचार्य वीरसेनके वचनसे 'सुह-सुद्धपरिणामेहिं' पदका ग्राह्य अर्थ आचार्य वीरसेनके वचनके 'सुह-सुद्धपरिणामेहिं' पदमें सुह और शुद्ध दो शब्द विद्यमान है । इनमेंसे 'सुह शब्दका अर्थ भव्यजीवकी क्रियावती शक्तिके प्रवृतिरूप शुभ परिणमनके रूपमें और 'सुद्ध' शब्दका अर्थ उस भव्यजीवको क्रियावती शक्तिके अशुभसे निवृत्तिरूप शुद्ध परिणमनके रूपमें ग्रहण करना ही युक्त है । 'सुह' शब्दका अर्थ जीवकी भाववतीशक्तिके पुण्यकर्मके उदयमें होनेवाले शुभ परिणामके रूपमें और 'सुद्ध' शब्दका अर्थ उस जीवकी भाववतीशक्तिके मोहनीयकर्मके यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाले शुद्ध परिणमनके रूपमें ग्रहण करना युक्त नहीं है। आगे इस बातको स्पष्ट किया जाता है Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ | धर्म और सिद्धान्त : १०९ जीवकी क्रियावती शक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक शुभ और अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन कर्मोके आस्रव और बन्धके कारण होते हैं और उसी क्रियावतीशक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक उन प्रवृत्तिरूप परिणमनोंसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप शुद्ध परिणमन भव्यजीवमें कर्मोंके संवर और निर्जरणके कारण होते है। जीवको भाववतीशवितके न तो शुभ और अशुभ परिणमन कर्मोके आस्रव और बन्धके कारण होते हैं, और न ही उसके शुद्ध परिणमन कर्मोंके संवर और निर्जरणके कारण होते हैं, इसमें यह हेतू है कि जीवकी क्रियावतीशक्तिका मन, वचन और कायिक सहयोगसे जो क्रियारूप परिणमन होता है, उसे योग कहते है ( 'कायवाङ्मनःकर्म योगः'--त. सू० ६-१)। यह योग यदि जीवकी भाववतीशक्तिके पूर्वोक्त तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानरूप शुभ परिणमनोंसे प्रभावित हो तो उसे शुभ योग कहते हैं और वह योग यदि जीवकी भाववतीशक्तिके पूर्वोक्त अतत्त्वश्रद्धान, अतत्त्वज्ञान रूप अशुद्ध परिणमनोंसे प्रभावित हो तो उसे अशुभ योग कहते है, ( ‘शुभपरिणामनिर्वृत्तो योगः शुभः । अशुभपरिणामनिर्वृत्तो योगः अशुभः'--सर्वार्थसिद्धि ६-३)। यह योग ही कर्मोका आस्रव अर्थात् बन्धका द्वार कहलाता है । ( ‘स आस्रवः' त० सू० ६-२ ) । इस तरह जीवकी क्रियावती शक्तिका शुभ और अशुभ योगरूप परिणमन ही कर्मोंके आस्रवपूर्वक प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप बन्धका कारण सिद्ध होता है। यद्यपि योगकी शुभरूपता और अशुभरूपताका कारण होनेसे जोवकी भाववतीशक्तिके तत्त्वश्रद्धान तत्त्वज्ञानरूप शभ परिणमनोंको व अतत्त्वश्रद्धान और अतत्त्वज्ञानरूप अशुभ परिणमनोंको भी कोंके आस्रवपूर्वक बन्धका कारण मानना अयुक्त नहीं है, परन्तु कर्मोके आस्रव और बन्धका साक्षात् कारण तो योग ही निश्चित होता है। जैसे कोई डाक्टर शीशीमें रखी हुई तेजाबको भ्रमवश आँखकी दवाई समझ रहा है तो भी तबतक तेजाब रोगीको आँखको हानि नहीं पहुँचाती है, जबतक वह डाक्टर उस तेजाबको रोगीकी आँखमें नहीं डालता है। जब डाक्टर उस तेजाबको रोगीकी आँखमें डालता है तो तत्काल वह तेजाब रोगीकी आँखको हानि पहुँचा देती है। इसी तरह आँखकी दवाईको आँखकी दवाई समझकर भी जबतक डाक्टर उसे रोगोको आँखमें नहीं डालता है तबतक वह दवाई उस रोगोकी आँखको लाभ नहीं पहुँचाती है। परन्तु, जब डाक्टर उस दवाईको आँखमें डालता है, तो तत्काल वह दवाई रोगीकी आँखको लाभ पहुँचा देती है। इससे निणीत होता है कि जीवकी क्रियावतीशक्तिका शुभ और अशुभ योगरूप परिणमन ही आस्रव और बन्धका कारण होता है। इतना अवश्य है कि जीवकी भाववतीशक्तिका हृदयके सहारेपर होनेवाला तत्त्वश्रद्धानरूप शुभ परिणमन या अतत्त्वश्रद्धानरूप अशुभ परिणमन और जीवकी भाववतीशवितका मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाला तत्त्वज्ञानरूप शुभ परिणमन या अतत्त्वज्ञानरूप अशुभ परिणमन भी योगकी शभरूपता और अशुभरूपतामें कारण होनेसे परम्परया आस्रव और बन्धमें कारण माने जा सकते है, परन्तु आस्रव और . बन्धमें साक्षात् कारण तो योग ही होता है। इसी प्रकार जीवकी क्रियावतीशक्तिके योग-रूप परिणमनके निरोधको हो कर्मके संवर और निर्जरणमें कारण मानना युक्त है--('आस्रव निरोधः संवरः'--त० सू० ९-१)। जीवकी भाववतोशक्तिके मोहनीयकर्मके यथासंभव उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाले स्वभावभूत शुद्ध परिणमनोको संवर और निर्जराका कारण मानना युक्त नहीं है, क्योंकि भाववताशक्तिके स्वभावभूत शुद्ध परिणमन मोहनीयकर्मके यथासंभव उपशम, क्षय या क्षयोपशमपूर्वक होनेके कारण संवर ओर निर्जराके कार्य हो जानेसे कर्मोके संबर और निर्जरणमें कारण सिद्ध नहीं होते है। एक बात ओर, जब जीवकी क्रियावतीशक्तिके योगरूप परिणमनोंसे कमांकआस्रव होता है तो कर्मोंके संवर और निर्जरणका कारण योग-निरोधको ही मानना युक्त होगा। यही कारण है कि Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ जीवमें गुणस्थानक्रमसे जितना-जितना योगका निरोध होता जाता है उस जीवमें वहाँ उतना-उतना कर्मोका सवर नियमसे होता जाता है तथा जब योगका पूर्ण निरोध हो जाता है तब कर्मोका संवर भी पूर्णरूपसे हो जाता है। कर्मोंका संवर होनेपर बद्ध कर्मोकी निर्जरा या तो निक-रचनाके अनुसार सविपाकरूपमें होती है अथवा 'तपसा निर्जरा च' (त० सू० ९-३) के अनुसार क्रियावतोशक्तिके परिणमन-स्वरूप तपके बलपर अविपाकरूपमें होती है। इसके अतिरिक्त यदि जीवकी भाववतीशक्तिके स्वभावभूत शुद्ध परिणमनोंको संवर और निर्जराका कारण स्वीकार किया जाता है तो जब द्वादश गुणस्थानके प्रथम समयमें ही भाववतीशक्तिके स्वभावभूत परिणमनकी शुद्धताका पूर्ण विकास हो जाता है तो एक तो द्वादश और त्रयोदश गणस्थानोंमें सातावेदनीय कर्मका आस्रवपूर्वक प्रकृति और प्रदेशरूपमें बन्ध नहीं होना चाहिए। दूसरे, द्वादश गुणस्थानके प्रथम समयम ही भाववतीशक्तिके स्वभावभूत परिणमनकी शुद्धताका पूर्ण विकास हो जाने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घाती-कर्मोका तथा चारों अघाती-कर्मोंका सर्वथा क्षय हो जाना चाहिए । परन्तु जब ऐसा होता नहीं है तो यही स्वीकार करना पड़ता है कि आस्रव और बन्धका मूल कारण योग है और विद्यमान ज्ञानावरणादि उक्त तीनों घाती-कर्मोंकी एवं चारों अघाती-कर्मोकी निर्जरा निषेकक्रमसे ही होती है। त्रयोदश गणस्थानमें केवली भगवान् अघाती कर्मोंको समान स्थितिका निर्माण करनेके लिए जो समुद्घात करते हैं वह भी उनकी क्रियावतीशक्तिका ही कायिक परिणमन है। इस विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जयधवलाके मंगलाचरणकी व्याख्या में निर्दिष्ट आचार्य वीरसेनके उपर्युक्त वचनके अंगभूत 'सुह-सुद्धपरिणामेहि' पदसे जीवकी क्रियावतीशक्तिके अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्ति-रूप परिणमनोंका अभिप्राय ग्रहण करना ही संग त है। भाववतीशक्तिके तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानरूप शुभ व मोहनीयकर्मके यथास्थान यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाले स्वभावभूत शुद्ध परिणमनोंका अभिप्राय ग्रहण करना संगत नहीं है। यहाँ यह बात भी विचारणीय है कि जयधवलाके उक्त वचनके 'सूह-सूद्ध परिणामेहि' पदके अन्तर्गत 'सुद्ध' शब्दका अर्थ यदि जोवकी भाववतीशक्तिके मोहनीयकर्मके यथासंभव उपशम, क्षय या क्षयोपशममें विकासको प्राप्त शुद्ध परिणमनस्वरूप निश्चयधर्मके रूपमें स्वीकार किया जाये तो उस पदके अन्तर्गत 'सुह' शब्दका अर्थ पूर्वोक्त प्रकार जीवको भाववतीशक्तिके तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानरूप शुभ परिणमनके रूपमें तो स्वीकार किया ही नहीं जा सकता है, इसलिए उस 'सुह' शब्दका अर्थ यदि जीवकी क्रियावतीशक्तिके परिणमन स्वरूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिके रूपमें स्वीकार किया जाये तो यह भी संभव नहीं है. क्योंकि पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति तो कर्मोके आस्रव और बन्धका ही कारण होती है। अतः उस 'सूह' शब्दका अर्थ जीवकी क्रियावतीशक्तिके परिणमनस्वरूप पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिके रूपमें ही स्वीकार करना होगा, क्योंकि इस प्रकारके व्यवहार-धर्मके पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप अंशसे जहाँ कर्मोंका आस्रव और बन्ध होता है वहीं उसके पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप अंशसे कर्मोंका संवर और निर्जरण भी होता है । परन्तु ऐसा स्वीकार कर लेनेपर भी जीवकी भाववतीशक्तिके स्वभावभत निश्चयधर्मरूप परिणमनको पूर्वोक्त प्रकार कर्मोंके संवर ओर निर्जरणका कारण सिद्ध न होनेसे 'सुद्ध' शब्दका अर्थ कदापि नहीं माना जा सकता है । इस प्रकार जयधवलाके 'सुह-सुद्धपरिणामेहिं' पदके अन्तर्गत 'सुद्ध' शब्दके निरर्थक होनेका प्रसंग उपस्थित हो जायेगा । अतः उक्त 'सुह-सुद्धपरिणामेहि' इस सम्पूर्ण पदका अर्थ जीवको क्रियावतोशक्तिके परिणामस्वरूप पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिके रूपमे ही ग्राह्य हो सकता है। यदि यह कहा जाय कि जीवको मोक्षको प्राप्ति उसकी भाववतीशक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चय Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : १११ धर्मके रूपमें परिणमन होनेपर ही होती है, इसलिए 'सुह-सुद्धपरिणामेहि' पदके अन्तर्गत 'सुद्ध' शब्द निरर्थक नहीं है तो इस बातको स्वीकार करने में यद्यपि कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु ऐसा स्वीकार करनेपर भी यह तो कहा ही जा सकता है कि मोक्षकी प्राप्ति जीवकी भावबतीशक्तिके स्वभावभूत शुद्ध परिणमनके होनेपर होना एक बात है और उस स्वभावभूत शुद्ध परिणमनको कर्मक्षयका कारण मानना अन्य बात है, क्योंकि वास्तवमें देखा जाये तो द्वादशगुणस्थानवर्ती जीवका वह शुद्ध स्वभाव मोक्षरूप शुद्ध स्वभावका ही अंश है जो मोहनीयकर्मके सर्वथा क्षय होनेपर ही प्रकट होता है। अन्तमें एक बात यह भी विचारणीय है कि उक्त 'सुह-सुद्धपरिणामेहिं' पदके अन्तर्गत 'सुद्ध' शब्दका जीवकी भाववतोशक्तिका स्वभावभूत शुद्ध परिणमन अर्थ स्वीकार करनेपर पूर्वोक्त यह समस्या तो उपस्थित है ही कि द्वादश गुणस्थानके प्रथम समयमें शुद्धस्वभावभूत निश्चयधर्मका पूर्ण विकास हो जानेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घाती कर्मोका एवं चारों अघाती कर्मों के एक साथ क्षय होने की प्रसक्ति होती है। साथ ही यह समस्या भी उपस्थित होती है कि जीवकी भाववतीशक्तिके स्वभावभत शद्ध परिणमनके विकासका प्रारम्भ, जब प्रथम गुणस्थानके अन्त समयमें मोहनीयकर्मकी मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप तीन और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ-रूप चार, इन सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम हो जाने पर चतुर्थ गुणस्थानके प्रथम समयमें होता है, तो ऐसी स्थितिमें उस स्वभावभुत शद्ध परिणमनको कर्मोके संवर और निर्जरणका कारण कैसे माना जा सकता है ? अर्थात नहीं माना जा सकता है। यह बात पूर्वमें स्पष्ट की जा चुकी है। प्रकृतमें कर्मोके आस्रव और बन्ध तथा संवर और निर्जराकी प्रक्रिया १. अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव जबतक आसक्तिवश मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापमय अदयारूप अशभ प्रवृत्ति करते रहते हैं तबतक वे उस प्रवृत्तिके आधारपर सतत कर्मोका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं, तथा उस संकल्पीपापमय अशुभ प्रवृत्तिके साथ वे यदि कदाचित सांसारिक स्वार्थवश मानसिक वाचनिक और कायिक पण्यमय दयारूप शभ प्रवत्ति भी करते है तो भी वे उन प्रवृत्तियोंके आधारपर सतत कर्मोका आस्रव और बन्ध भी किया करते हैं । २. अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव जब आसक्तिवश होनेवाले संकल्पीपपमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्तिको कर्तव्यवश करने लगते हैं, तब भी वे कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं । ३. अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव उक्त संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें सर्वथा त्यागकर यदि आसक्तिवश होने वाले मानसिक, वाचनिक और कायिक आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ कर्तव्यवश मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं, तो भी वे कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं। ४. अभव्य और भव्य मिथ्यादष्टि जीव यदि उक्त संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके उक्त प्रकार सर्वथा त्यागपूर्वक उक्त आरम्भी पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका भी मनोगुप्ति, वचनगप्ति और कायगप्तिके रूप में एकदेश अथवा सर्वदेश त्यागकर कर्तव्यवश मानसिक, वाचनिक और कायिक पण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं, तो भी वे कर्मोका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं। ५. अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव उक्त संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा त्याग Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ कर उक्त आरम्भी पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति के साथ कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति करते हुए अथवा उक्त संकल्पोपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा व उक्त आरम्भी पापमय अदयाप अशुभ प्रवृत्तिका एकदेश या सर्वदेश त्यागकर कर्त्तव्यवश पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति करते हुए यदि क्षयोपशम, विशद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका अपने में विकास कर लेते हैं, तो भी वे कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं । ६. यतः मिथ्यात्व गुणस्थानके अतिरिक्त सभी गुणस्थान भव्य जीवके ही होते हैं, अभव्य जीवके नहीं, • अतः जो भव्य जीव सासादन सम्यग्दृष्टि हो रहे हों, उनमें भी उक्त पाँचों अनुच्छेदोंमेंसे दो, तीन और चार संख्यक अनुच्छेदोंमें प्रतिपादित व्यवस्थाएँ यथायोग्य पूर्वसंस्कारवश या सामान्यरूपसे लागू होती हैं, तथा अनुच्छेद तीन और चारमें प्रतिपादित व्यवस्थाएँ मिथ्यात्व गुणस्थानकी ओर झुके हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें भी लागू होती हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें अनुच्छेद एकमें प्रतिपादित व्यवस्था इसलिए लागू नहीं होती कि वे जीव एक तो केवल संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति कदापि नहीं करते हैं व उनकी प्रवृत्तिपूर्वक होनेके कारण वे पुण्यमय दयारूप प्रवृत्ति भी सांसारिक स्वार्थवश नहीं करते हैं, तथा उनमें अनुच्छेद पाँचमें प्रतिवादित व्यवस्था इसलिए लागू नहीं होती कि वे अपना समय व्यतीत करके नियमसे मिथ्यात्व गुणस्थान को ही प्राप्त करते हैं । इसी तरह मिथ्यात्व गुणस्थानकी ओर झुके हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें अनुच्छेद एक और दो में प्रतिपादित व्यवस्थाएँ इसलिए लागू नहीं होतीं कि उनमें संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा अभाव रहता है तथा उनमें अनुच्छेद पाँचकी व्यवस्था इसलिए लागू नहीं होती कि वे भी मिथ्यात्वगुणस्थानकी ओर झुके हुए होनेके कारण अपना समय व्यतीत करके मिथ्यात्व गुणस्थानको ही प्राप्त करते हैं । इस तरह सासादनसम्यग्दृष्टि और मिथ्यात्वगुणस्थानकी ओर झुके हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सतत यथायोग्य कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं । यहाँ यह ध्यातव्य है कि सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके साथ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंकी प्रवृत्तियाँ भी अबुद्धिपूर्वक हुआ करती हैं । ७. उपर्युक्त जीवोंसे अतिरिक्त जो भव्यमिध्यादृष्टि जीव और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्व प्राप्तिकी ओर झुके हुए हों अर्थात् सम्यक्त्व-प्राप्ति में अनिवार्य कारणभूत करणलब्धिको प्राप्त हो गये हों, वे नियमसे यथायोग्य कर्मोंका आस्रव और बन्ध करते हुए भी दर्शनमोहनीय कर्मकी यथासम्भवरूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृतिरूप तीन तथा चारित्रमोहनीयकर्मके प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कषायकी नियमसे विद्यमान -- क्रोध, मान, माया और लोभ-रूप चार -- इस तरह सात कर्म - प्रकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम रूपमें संवर और निर्जरण किया करते है । इसी तरह चतुर्थं गुणस्थानसे लेकर आगेके गुणस्थानों में विद्यमान जीव यथायोग्य कर्मोंका आस्रव और बन्ध, यथायोग्य कर्मोंका संवर और निर्जरण किया करते हैं । उपर्युक्त विवेचनका फलितार्थ १. कोई अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति ही किया करते हैं । अथवा संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ सांसारिक स्वार्थवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी किया करते हैं । कोई अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति के साथ पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति कर्त्तव्यवश किया करते हैं । कोई अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव संकल्पी - पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके सर्वथा त्यागपूर्वक आरम्भीपापमय अदयारूप शुभ प्रवृत्ति के साथ कर्त्तव्यवश Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म ओर सिद्धान्त : ११३ पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं एवं कोई अभव्य और भव्य मिध्यादृष्टि जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके सर्वथा व आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके एकदेश अथवा सर्वदेश त्यागपूर्वक कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं । २. कोई सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सामान्यरूपसे संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ पूर्व संस्कार के बलपर कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं । कोई सासादन सम्यग्दृष्टि जीव पूर्व संस्कार के बलपर संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा निवृत्तिपूर्वक आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं, और कोई सासादनसम्यग्दृष्टि जीव पूर्व संस्कारवश संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा व आरम्भीपापरूप अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे एकदेश अथवा सर्वदेश निवृत्तिपूर्वक कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं । ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव यद्यपि भव्य मिध्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके समान ही प्रवृत्ति किया करते हैं, परन्तु उनमें इतनी विशेषता है कि वे संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति किसी भी रूप में नहीं करते हैं । ४. चतुर्थ गुणस्थान से लेकर आगेके गुणस्थानोंमें विद्यमान सभी जीव तृतीय गुणस्थानवर्ती जीवोंके समान संकल्प पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा रहित होते हैं । इस तरह चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव या तो आसक्तिवश आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं अथवा आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे एकदेश या सर्वदेश निवृत्तिपूर्वक कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं । ५. पंचम गुणस्थानवर्ती जीव नियमसे आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे एकदेशनिवृत्तिपूर्वक दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं, क्योंकि ऐसा किये बिना जीवको पंचम गुणस्थान कदापि प्राप्त नहीं होता है । इतना अवश्य है कि कोई पंचम गुणस्थानवर्ती जीव आरम्भीपापमय अदया रूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वदेशनिवृत्तिपूर्वक कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं । ६. षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीव नियमसे आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वदेश निवृत्ति-पूर्वक कर्त्तव्यवश पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति करते हैं, क्योंकि ऐसा किये बिना जीवको षष्ठ गुणस्थान प्राप्त नहीं होता । ७. षष्ठ गुणस्थानसे आगेके गुणस्थानोंमें जीव आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा निवृत्त रहता है तथा पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी बाह्य रूपमें नहीं करते हुए अन्तरंगरूपमें ही तब तक करता रहता है, जब तक नवम गुणस्थानमें उसको अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषायोंकी क्रोध-प्रकृतियोंके सर्वथा उपशम या क्षय करनेकी क्षमता प्राप्त नहीं होती । तात्पर्य यह है कि जीव अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकर्मका उदय प्रथम गुणस्थानसे लेकर चतुर्थ गुणस्थानके अन्त समय तक रहता है और पंचमगुणस्थान में और उसके आगे उसका क्षयोपशम ही रहा करता है। इसी तरह जीवके प्रत्याख्यानावरण क्रोधर्मका उदय प्रथम गुणस्थानसे लेकर पंचम गुणस्थानके अन्त समय तक रहा करता है। इसी तरह जीवके प्रत्याख्यानावरण क्रोधकर्मका उदय प्रथम गुणस्थानसे लेकर पंचम गुणस्थानके अन्त समय तक रहा करता है, और षष्ठ गुणस्थान में और उसके आगे उसका क्षयोपशम ही रहा करता है तथा इन सभी गुणस्थानों में संज्वलन क्रोधकर्मका उदय ही रहा करता है । परन्तु संज्वलनक्रोधकर्मका उदय व अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोष कमका क्षयोपशम तब तक रहा करता है जब तक नवम गुणस्थानमें इनका १५ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंजीवर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ : सर्वथा उपशम या क्षय नहीं हो जाता है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्मका बन्ध चतुर्वं गुणस्थानके एक निश्चित भाग तक ही होता है। इन सबके बन्धका कारण जीवको भाववतो शक्तिके हृदय और मस्तिष्क के सहारेपर होने वाले यथायोग्य परिणमनोंसे प्रभावित जीवकी क्रियावती शक्तिका मानसिक, वाचनिक और कायिक यथायोग्य प्रवृत्तिरूप परिणमन ही है। जीव चतुर्थ गुणस्थानमें जब तक आरम्भी पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका यथायोग्य रूपमें एकदेश त्याग नहीं करता, तब तक तो उसके अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकर्मका बन्ध होता ही रहता है। परन्तु वह जीव यदि आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका एकदेश त्यागकर देता है और उस त्यागके आधारपर उसमें कदाचित् उस अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकर्मके क्षयोपशमकी क्षमता प्राप्त हो जाती हैं तो इसके पूर्व उस जीवमें उस क्रोधकर्मके बन्धका अभाव हो जाता है । यह व्यवस्था चतुर्थ गुणस्थानके समान प्रथम और तृतीय गुणस्थान में भी लागू होती है। इसी तरह जीव पंचम गुणस्थानमें जब तक आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वदेश त्याग नहीं करता तब तक तो उसके प्रत्याख्यानावरण क्रोधकर्मका बन्ध होता ही है, परन्तु वह जीव यदि आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वदेश त्यागकर देता है और इस त्यागके आधारपर उसमें कदाचित् उस प्रत्याख्यानावरण क्रोधकमंके क्षयोपशमकी क्षमता प्राप्त हो जाती है तो इसके पूर्व उस जीवमें उस क्रोधकर्मके बन्धका अभाव हो जाता है। यह व्यवस्था पंचम गुणस्थानके समान प्रथम, तृतीय और चतुर्थं गुणस्थानोंमें भी लागू होती है। पंचम गुणस्थानके आगे गुणस्थानों में तब तक जीव संज्वलन क्रोधकर्मका बन्ध करता रहता है जब तक वह नयम गुणस्थान में बन्धके अनुकूल अपनी मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्ति करता रहता है । और जब वह नवम गुणस्थानमें संज्वलन क्रोधकर्मके उपशम या क्षयकी क्षमता प्राप्त कर लेता है तो इसके पूर्व उस जीवमें उस क्रोधकर्मके बन्धका अभाव हो जाता है । इतना विवेचन करने में मेरा उद्देश्य इस बात को स्पष्ट करनेका है कि जीवकी क्रियावती शक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक अदयारूप अशुभ और दयारूप शुभ प्रवृत्तियोंके रूपमें होनेवाले परिणमन ही क्रोधकर्मके आस्रव और बन्धमें कारण होते हैं और उन प्रवृत्तियोंका निरोध करनेसे ही उन क्रोधकमका संवर और निर्जरण करनेकी क्षमता जीवमें आती है । जीवकी भाववती शक्तिका न तो मोहनीयकर्मके उदयमें होनेवाला विभाव परिणमन आस्रव और बन्धका कारण होता है और न ही मोहनीयकर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाला भाववती शक्तिका स्वभावरूप शुद्ध परिणमन संबर और निर्जराका कारण होता है। इतना अवश्य है कि जीवकी भाववती शक्तिके हृदय के सहारेपर होनेवाले तस्वश्रद्धानरूप शुभ और अतस्त्वश्रद्धानरूप अशुभ तथा मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाले तत्त्वज्ञानरूप शुभ और अतस्वज्ञानरूप अशुभ परिणमन अपनी शुभरूपता और अशुभरूपताके आधारपर यथायोग्य शुभ और अशुभ कर्मो के आसव और बन्धके परम्परया कारण होते हैं, और तत्त्वश्रद्धान व्यवहारसम्यग्दर्शन के रूपमें तथा तत्त्वज्ञान व्यवहारसम्यग्ज्ञानके रूपमें यथायोग्य कमोंके आसव और बन्धके साथ यथायोग्य कर्मोंके संवर और निर्जराके भी परम्परया कारण होते हैं । इस विवेचनसे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप जीवकी मानसिक, वाचनिक और कायिक अदवारूप अशुभ और दयारूप शुभ प्रवृत्तियां यथायोग्य अशुभ और शुभ कर्मोके आलव और बन्धका साक्षात् कारण होती हैं तथा अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक होनेवाली दयारूप शुभ प्रवृत्ति यथायोग्य कर्मोके आलव और बन्धके साथ यथायोग्य कमोंके संवर और निर्जरणका साक्षात् कारण होती हैं, एवं जीवकी क्रियावती शक्ति के परिणमन स्वरूप तथा दयारूप शुभ और अदयारूप Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ /धर्म और सिद्धान्त : ११५ अशुभ रूपतासे रहित जीवकी मानसिक, वाचनिक और कायिक योगरूप प्रवत्ति मात्र सातावेदनीयकर्मके आस्रवपूर्वक केवल प्रकृति और प्रदेशरूप बन्धका कारण होती है, तथा योगका अभाव कर्मोंके संवर और निर्जरणका कारण होता है। इस सम्पूर्ण विवेचनसे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि जीव-दया पुण्यरूप भी होती है, जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्म रूप भी होती है तथा इस निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारणभूत व्यवहारधर्मरूप भी होती है। अर्थात् तीनों प्रकारकी जीवदयाएँ अपना-अपना स्वतन्त्र अस्तित्व और महत्त्व रखती हैं। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम में कर्मबन्ध गुणस्थानोंकी व्यवस्था गोम्मटसार जीवकण्डकी गाथा तीनमें गुणस्थानोंकी व्यवस्था मोह और योगके आधारपर बतलाई गई हैं । इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है आगममें संसारी जीवोंके १४ गुणस्थान निश्चित किये गये हैं- मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मलोभ, उपशान्तमोह, क्षोणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली । इनका निर्धारण जीवमें मोहनीकर्मकी यथायोग्य प्रकृत्तियोंके उदय, उपशम, क्षय या क्षयोपशम और योगके सद्भाव और अभावके आधारपर होता है । मोहनीय कर्मके दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयके रूपमें दो भेद हैं । उनमें दर्शनमोहनीय कर्मके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिके रूपमें तीन भेद हैं । चारित्रमोहनीयकर्मके कषायवेदनीय और अकषायवेदनीयके रूपमें दो भेद हैं । कषायवेदनीय कर्म के मूलतः क्रोध, मान, माया और लोभ के रूपमें चार भेद हैं तथा ये चारों अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनके रूपमें चारचार प्रकारके हैं । फलतः कषायवेदनीयकर्मके १६ भेद हो जाते हैं । अकषायवेदनीयकर्मके हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुंवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके रूपमें ९ भेद हैं । गुणस्थानोंकी चतुर्दश संख्याके निर्धारण में दर्शनमोहनीय कर्मकी उक्त तीन और कषाय वेदनीयकर्मकी १६ प्रकृतियोंका ही उपयोग है, अकषायवेदनीयकर्मकी ९ प्रकृतियोंका गुणस्थानोंकी चतुर्दश संख्याके निर्धारण में उपयोग नहीं है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है दर्शन मोहनीय कर्मकी मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयमें जीवकी भाववतीशक्तिका जो परिणमन होता है वह प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है । जिस समय सम्यग्दृष्टि जीव प्रथम गुणस्थानकी ओर आता है उस समय मिथ्यात्वकर्मका उदय न होकर प्रथमतः यदि अनन्तानुबन्धीकर्मका उदय होता है तो उस समय जोवकी भाववतोशक्तिका जो परिमन होता है वह द्वितीय सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव यदि द्वितीय सासादनसम्यग्दृष्टि होता है तो वह विसंयोजित अनन्तानुबन्धी प्रकृतियोंकी संयोजना करके उसके उदयमें होता है । दर्शन मोहनीय कर्मकी सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के उदयमें जीवकी भाववतीशक्तिका जो परिणमन होता है वह तृतीय सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है ! दर्शनमोहनीय कर्मकी उक्त तीन और अनन्तानुबन्धी कषायकी उक्त चार इस प्रकार सात प्रकृतियोंके उपशम, क्षय या क्षयोपशम और अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयमें जीवको भाववतीशक्तिका जो परिणमन होता है वह चतुर्थं अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान है । अप्रत्याख्यानावरण कषायके क्षयोपशममें जीवकी भाववतीशक्तिका जो परिणमन होता है वह पंचम देशविरत गुणस्थान है । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ धर्म और सिद्धान्त : ११७ प्रत्याख्यानावरण कषायके क्षयोपशम और संज्वलनकषायके तीव्र उदयमें जीवकी भाववतीशक्तिका जो परिणमन होता है वह षष्ठ प्रमत्तविरत गुणस्थान है । औपशमिक, क्षयोपशमिक या क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवमें जब संज्वलनकषायका सामान्यरूपसे मंदोदय होता है तब जीवकी भाववतीशक्तिका जो परिणमन होता है तब वह सप्तम स्वस्थानाप्रमत्त गुणस्थान कहलाता है तथा औपशमिक या क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवमें जब संज्वलन कषायका विशेषरूपसे मंदोदय होता है तब वह सातिशय-अप्रमत्त गुणस्थान कहलाता है। वह सातिशय-अप्रमत्त गुणस्थानवी जीव नियमसे अधःकरणरूप आत्मविशुद्धिको प्राप्त रहता है। संज्वलनकषायके मन्दतर उदयमें औपशमिक या क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवकी भाववतीशक्तिका जो परिणमन होता है वह अष्टम अपूर्वकरण गुणस्थान है । यह जीव नियमसे अपूर्वकरणरूप आत्मविशुद्धिको प्राप्त रहता है। सज्वल संज्वलन कषायके मन्दतम उदयमें औपशमिक या क्षायिक सम्यग्दष्टि जीवको भाववतीशक्तिका जो परिणमन होता है वह नवम अनिवृत्तिकरण गुणस्थान है । इस अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें जीव अकषायवेदीनीय प्रकृतियोंके साथ अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायोंको सम्पूर्ण प्रकृतियोंका यथायोग्य उपशम या क्षय करता है तथा संज्वलनकषायकी क्रोध, मान, माया प्रकृतियोंका भी यथायोग्य उपशम या क्षय करता है एवं संज्वलन लोभप्रकृतिका कर्षण भी करता है। संज्वलनकषायकी सूक्ष्मताको प्राप्त लोभ प्रकृतिका उदय रहते हुए जीवको भाववतीशक्तिका जो परिणमन होता है वह दशम सूक्ष्मलोभ गुणस्थान कहलाता है। दर्शनमोहनीयकर्मकी ३ और अनन्तानुबन्धी कषायकी ४ इन ७ प्रकृतियोंके उपशम अथवा क्षय तथा चारित्रमोहनीयकर्मकी शेष सभी प्रकृतियोंके उपशममें जीवकी भाववतीशक्ति जो परिणमन होता है वह ११वां उपशान्तमोह गुणस्थान है। सम्पूर्ण मोहनीयकर्मके क्षयमें जीवकी भाववतीशक्तिका जो परिणमन होता है वह १२वाँ क्षीणमोह गुणस्थान है। यतः १२वाँ गुणस्थान सम्पूर्ण मोहनीयकर्मका क्षय होनेपर होता है और यह स्थिति जीवको १३वें और १४वें गुणस्थानोंमें भी रहती है, अतः इस आधारपर इन तीनों गुणस्थानोंमें समानता पाई जाती है तथापि १२वें गुणस्थानवर्ती जीवको अपेक्षा १३वें और १४वें गुणस्थानवी जीवोंमें यह विशेषता पाई जाती है कि उनमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों कर्मोका सर्वथा क्षय होजानेके कारण जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप केवलज्ञान आदि गुणोंका विकास भी पाया जाता है। इसी प्रकार १३वें और १४वें गुणस्थानवर्ती जोवोंमें भी यह विशेषता पाई जाती है कि जहाँ १३वें गुणस्थानवी जीवोंमें क्रियाशील पौद्गलिक मन, बोलनेके स्थानभूत वचन और कायके अवलम्बनसे उन जीवोंकी क्रियावतीशक्तिके परिणमनस्वरूप हलन-चलन क्रियारूप योग पाया जाता है वहाँ १४वें गुणस्थानवर्ती जीवोंमें पौद्गलिक मन, वचन और कायका सद्भाव रहते हुए भी उनके निष्क्रिय हो जानेसे योगका सर्वथा अभाव हो जाता है। इस प्रकार १४ गुणस्थानोंकी व्यवस्था निराबाध हो जाती है। .. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ कर्मबन्धका मूल कारण जीव और पुद्गल दोनों द्रव्योंमें स्वभावतः भाववतीशक्ति के साथ क्रियावतीशक्ति भी पायी जाती है । उस क्रियावतीशक्तिके आधारपर ही जीव और पुद्गल दोनों द्रव्योंमें हलन चलन क्रिया होती है । संसारी जीवोंमें क्रियाशील पौद्गलिक मन या वचन या कायके अवलम्बनसे जो हलन चलन क्रिया होती है उसे ही योग कहते हैं और वह योग ही कर्मबन्धका मूल कारण है । उसका सद्भाव जीवोंमें प्रथमगुणस्थान से लेकर १३ वे गुणस्थानतक पाया जाता है, इसलिए उनमें विद्यमान जीवोंमें नियमसे प्रतिक्षण कर्मबन्ध होता रहता . है । यतः १४वें गुणस्थानवर्ती जीव में पौद्गलित मन, वचन और कायका सद्भाव रहते हुए भी उनके निष्क्रिय हो जानेसे योगका अभाव रहता है अतः वहाँ कर्मबन्ध नहीं होता । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें जीवके जो आयुकर्मका बन्ध नहीं होता उसका कारण वहाँ योगकी अनुकूलताका अभाव है। तथा आदिके तीन गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृतिका व आदिके छह गुणस्थानों में आहारकशरीर और आहारकअङ्गोपांगका जो बन्ध जीवके नहीं होता है उसका कारण वहाँ भी योगकी अनुकूलताका अभाव है। इसी प्रकार नीचे-नीचेके गुणस्थानों में बन्धको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंकी ऊपर-ऊपरके गुणस्थानोंमें जो बन्ध व्युच्छित्ति हो जाती है उसका कारण भी वहाँ योगकी तरतमताको ही माना जा सकता है । कर्मबन्धके विषय में यह भी ज्ञातव्य है कि आगममें बन्धके चार भेद बतलाये गये हैं- प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध । आगममें यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगके आधारपर होते हैं व स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषायोंके आधारपर होते हैं । तात्पर्य यह है कि योगके आधारपर ज्ञानावरणादि कर्मवर्गणाओंका आस्रव होता है और उस आस्रवके आधारपर उन वर्गणाओंका आत्माके साथ जो सम्पर्क होता है उसका नाम प्रकृतिबन्ध है तथा वे कर्मबर्गणाएँ कितने-कितने परिमाणमें आत्मा के साथ सम्पर्क करती हैं उसका नाम प्रदेशबन्ध हैं । फलत: प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध दोनोंको योगके आधार पर मान्य करना युक्त है। यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या ज्ञानावरणादि कर्मोकी प्रकृतिका निर्माण योगके आधारपर होता है ? तो ऐसा नहीं है, क्योंकि योगका कार्य ज्ञानावरणादि कर्मवर्गणाओंका आस्रवपूर्वक आत्माके साथ सम्पर्क कराना मात्र ही है अतएव यह स्वीकार करना होगा कि कर्मबर्गणाओंका जो ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमन होता है वह उन वर्गणाओं में विद्यमान उस उस कर्मरूप परिणत होनेकी स्वाभाविक द्रव्यभूत योग्यताके आधारपर होता है। इतनी बात अवश्य है कि वे वर्गणाएँ तभी ज्ञानावरणादिकर्मरूप परिणत होती हैं जब वे योगके आधार - पर आस्रवित होकर आत्माके साथ सम्पर्क करती हैं। इससे निर्णीत होता है कि ज्ञानावरणादि आठों कर्मों की वर्गणाएँ पृथक्-पृथक् ही लोकमें व्याप्त हो रही हैं तथा योगके आधारपर उनका आस्रव होकर आत्मा के साथ जो सम्पर्क होता है उसे ही प्रकृतिबन्ध कहना चाहिए। ज्ञानावरणादि आठों कर्मोंकी वर्गणाओंके पृथक्-पृथक् होनेके कारण ही वे आठों कर्म कभी एक-दूसरे कर्मरूप परिणत नहीं होते हैं । इसीप्रकार दर्शनमोहनीयकर्म चारित्रमोहनीयकर्मरूप और चारित्रमोहनीय कर्म दर्शनमोहनीय कर्मरूप कभी परिणत नहीं होते एवं चारों आयुकर्म भी कभी एक- दूसरे आयुकर्मरूप परिणत नहीं होते। इससे भी निर्णीत होता है कि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय दोनों कर्मोंकी एवं चारों आयुकर्मोंकी वर्गणाएँ लोकमें पृथक्पृथक् ही विद्यमान हैं । तथा उनका योगके आधारपर आस्रव होकर आत्माके साथ जो सम्पर्क होता है वह Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ३/धर्म और सिवान्त : ११९ योगके आधारपर होता है। गोम्मटसार कर्मकाण्डमें जो "बहुभागे समभागो" इत्यादि गाथा १९५ पायी जाती है उसका आशय यही ग्रहण करना चाहिए कि योगके आधारपर एक साथ कर्मबर्गणाओंका जो आस्रव होता है वह आस्रव सबसे अधिक वेदनीयकर्मकी वर्गणाओंका होता है, उससे कम मोहनीयकर्मकी वर्गणाओंका होता है, उससे कम ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मको वर्गणाओंका होता है, उससे कम नाम और गोत्र कर्मकी वर्गणाओंका होता है और उससे कम आयकर्मकी वर्गणाओंका होता है। . . .. ___ चारों आयुकर्मोंकी वर्गणाओंके विषयमें यह भी ज्ञातव्य है कि एक आयुकर्मकी वर्गणाओंके आस्रवके अवसरपर अन्य तीनों आयकर्मोंकी वर्गणाओंका आस्रव नहीं होता, क्योंकि चारों आयुकर्मोंकी वर्गणाओंके आस्रवके लिए परस्पर विरुद्ध योग कारण होता है । फलतः जिस समय अनुकूल योगके आधारपर किसी एक आयुकर्मकी वर्गणाओंका आस्रव होता है उस समय अनुकुल योगका अभाव रहनेके कारण अन्य तीन आयकर्मोकी वर्गणाओंका आस्रव नहीं होता है। इसी प्रकार चारों आयुकर्मोंकी वर्गणाओंके विषयमें यह भी ज्ञातव्य है कि जिस प्रकार अन्य सात कर्मोकी वर्गणाओंका आस्रव अनुकूल योगके सद्भावमें प्रतिसमय होता है उस प्रकार चारों आयुकर्मोकी वर्गणाओंका आस्रव अनुकूल योगका अभाव रहनेके कारण प्रतिसमय न होकर कर्मभूमिज मनुष्य और तिर्यञ्च जीवोंकी भुज्यमान आयुका त्रिभाग शेष रहनेपर व भोगभूमिज मनुष्य और तिर्यञ्च जीवोंकी भुज्यमान आयुका ९ माह शेष रहनेपर एवं देव और नारकीय जीवोंकी भुज्यमान आयुका छहमाह शेष रहनेपर ही होता है और तब भी अनुकूल योगका सद्भाव हो तो ही होता है अन्यथा नहीं। यहाँ सर्वत्र योगकी अनुकूलताका आधार अन्य अनुकूल निमित्त सामग्रीके समागमको ही समझना चाहिए। सभी कर्मोंकी वर्गणाओंके आस्रवमें कारणभूत व आत्माकी क्रियावती शक्तिके परिणमन स्वरूप उक्त योग यद्यपि यथाप्राप्त क्रियाशील पौदगलिक मन, वचन और कायके अवलम्बनपूर्वक होता है, परन्तु उस योगके साथ जबतक चारित्रमोहनीयकर्मके उदयके सद्भावमें यथायोग्य नोकर्मभूत निमित्तोंके सहयोगसे आत्माको भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप रागद्वेष होते रहते हैं तब तक आत्माके साथ सम्पर्कको प्राप्त सभी कर्मवर्गणाओंके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध भी नियमसे होते रहते हैं।। कर्मरूप परिणत वर्गणाओंका आत्माके साथ यथासम्भव अन्तर्महर्तसे लेकर यथायोग्य समय तक सम्पर्क बना रहना स्थितिबन्ध है और उनमें आत्माको फल प्रदान करनेकी शक्तिका प्रादुर्भाव होना अनुभागबन्ध है। इससे निर्णीत होता है कि कर्मवर्गणाओंका आत्माके साथ सम्पर्क होना अन्य बात है और उस सम्पर्कका किसी नियतकाल तक बना रहना अन्य बात है। उपर्युक्त विवेचनके अनुसार मैं यह कहना चाहता हूँ कि ११, १२वें और १३वें गुणस्थानोंमें विद्यमान जीवोंके साथ जिस योगके आधारपर सातावेदनीयकर्मकी बर्गणाओंके प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध होते हैं इसी योग के आधारपर श्री १०८ आचार्य विद्यासागरजी महाराजकी अकिंचित्कर पुस्तकके पृ० ७-८ पर उन । जीवोंके साथ उसी सातावेदनीयकर्मकी उन वर्गणाओंके जो स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध बतलाये गये हैं व समर्थनमें तर्क और आगम वचन प्रस्तुत किये गये हैं यह सब मुझे सम्यक् प्रतीत नहीं होता है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है--- १. पूर्वमें किये गये संकेत के अनुसार जब जिस योगके आधारपर ज्ञानावरणादि कर्मोकी वर्गणाओंका आस्रव होता है उसी योगके आधारपर तब उन वर्गणाओंका आत्माके साथ सम्पर्क भी होता हैं एवं वे वर्गणायें उस सम्पर्कके निमित्तसे ही ज्ञानावरणादिकर्मरूप परिणत होती है । फलतः यह सब विषय प्रकृतिबन्धकी Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ परिधिमें आता है तथा ज्ञानावरणादिकर्मरूप परिणत उन वर्गणाओंका आत्माके साथ उस सम्पर्कके यथासम्भव अन्तर्महर्तसे लेकर सत्तर कोढ़ाकोढ़ी सागर पर्यन्त यथायोग्य काल तक बने रहने की योग्यताका विकास स्थितिबन्धकी और उनमें जीवको स्वकीय फल प्रदान करने की योग्यताका विकास अनुभागबन्धकी परिधिमें आते हैं । इससे निर्णीत होता है कि जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप योगके आधारपर कर्मवर्गणाओंके आत्माके साथ प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध होते हैं, स्थितिबन्ध और अनभागबन्ध नहीं होते। वे दोनों बन्ध उस-उस कषायके उदयमें यथायोग्य नोकर्मोंके सहयोगसे होनेवाले जीवकी भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप राग-द्वेषके आधारपर ही होते हैं । आगममें जो प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धको योगके आधारपर व स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धको कषायके आधारपर बतलाया गया है उसका यही अभिप्राय है । २. आगममें स्थितिबन्धका काल कषायके सद्भावमें सामान्यरूपसे कम-से-कम अन्तमुहूर्त बतलाया गया है व विशेषरूपसे वेदनीयकर्मका १२ मुहूर्त, नाम और गोत्रका आठ मुहूर्त बतलाकर शेष कर्मोंका अन्तमुहूर्त बतलाया गया है जबकि कषायके अभावमें सातावेदनीयकर्मके बन्धका काल उन कर्मवर्गणाओंका आत्माके साथ सम्पर्क होने व उनकी समाप्ति होने रूपमें एक समय ही सिद्ध होता है। इसलिए स्थितिबन्धके बिना ११वें, १२वें और १३वें गुणस्थानोंमें बँधनेवाले सातावेदनीयकर्मकी उत्पत्ति और समाप्तिका काल एक समय मान्य करना ही यक्त है। फलतः गोम्मटसार कर्मकाण्डकी गाथा १०२ और उसकी संस्कृतटीकामें उन गुणस्थानोंम सातावेदनीयकर्म के बन्धको जो एक समयकी स्थिति वाला बतलाया गया है उसका सम्बन्ध प्रकृतिबन्धसे ही समझना चाहिए, क्योंकि कषायका अभाव होनेसे वहाँ स्थितिबन्धका होना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार कषायका अभाव होनेसे वहाँ जब स्थितिबन्ध नहीं होता तो अनुभागबन्ध भी नहीं हो सकता है, क्योंकि वह भी कषायके सदभावमें होता है। अतएव उदयका भी अभाव हो जानेसे वहाँ उसके फलका भोग जीवक होता । वहाँ जीवको जो सातावेदनीयकर्म के फलका भोग होता है वह भोग पूर्व में बद्ध वेदनीयकर्मके फलका ही होता है। कर्मबन्धकी प्रक्रिया पहले आगमके अनुसार मोहनीयकर्मके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके आधारपर जीवके गणस्थानोंकी जो व्यवस्था बतलायो जा चुकी है उससे निर्णीत होता है कि मोहनीयकर्मका उदय गुणस्थानोंकी व्यवस्थाका ही आधार है । वह उन गुणस्थानोंमें होनेवाले कर्मबन्धमें कारण नहीं होता। यही कारण है कि तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थोंमें मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ही बन्धके कारण माने गये हैं। इसका आशय यह है कि मोहनीयकर्म के उदयमें कर्मबन्ध तो होता है परन्तु बन्धका कारण मोहनीयकर्मका उदय न होकर उस उदयमें निमित्तोंके सहयोगसे यथायोग्य रूपमें होनेवाले जीवके मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद और कषाय एवं योग परिणमन ही हैं। बन्धके कारणोंमें निर्दिष्ट मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रका उपलक्षण है, क्योंकि जीवमें मिथ्यादर्शनके साथ नियमसे मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र पाये जाते हैं। अतः बन्धके कारणोंमें मिथ्यादर्शन शब्दसे मिथ्यादर्शनके साथ मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रका भी समावेश होता है तथा उनमेंसे मिथ्याचारित्र ही बन्धका साक्षात् कारण है। यत: वह मिथ्याचारित्र, मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानपूर्वक होता है अतः परम्परया मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानको भी बन्धके कारण स्वीकार किया गया है। मिथ्यादर्शनका अर्थ है अतत्त्वश्रद्धान । वह दो प्रकारका है-एक तो तत्त्वश्रद्धानका न होना और दूसरा Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : १२१ अतत्त्वका तत्त्वके रूप में श्रद्धान करना । तत्त्वश्रद्धानके न होने रूप मिथ्यादर्शन एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तकके जीवोंमें पाया जाता है। परन्तु अतत्वका तत्त्वके रूपमें श्रद्धान करने रूप मिथ्यादर्शन केवल संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवोंमें ही पाया जाता है, क्योंकि अतत्त्वका तत्त्वके रूप में श्रद्धान नोकर्भभूत हृदयके अवलम्बनसे होता है जो हृदय जैन सिद्धान्तके अनुसार संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवोंमें ही रहता है। मिथ्यादर्शनका जो मिथ्यापन है वह उस दर्शनमोहनीयकर्मकी मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयमें अनुकल निमित्तोंके आधारपर होनेके कारण है। इसीप्रकार मिथ्याज्ञानका अर्थ है अतत्त्वज्ञान । वह भी दो प्रकारका है-एक तो तत्त्वज्ञानका न होना और दूसरा अतत्त्वका तत्त्वके रूपमें ज्ञान करना । तत्त्वका ज्ञान न होने रूप मिथ्याज्ञान भी एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञोपंचेन्द्रिय तकके जीवोंमें पाया जाता है । परन्तु अतत्त्वका तत्त्वके रूप में ज्ञान करने रूप मिथ्यादर्शन पूर्वक होनेवाला मिथ्याज्ञान केवल संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवोंमें ही पाया जाता है, क्योंकि अतत्त्वका तत्त्वके रूपमें श्रद्धान नोकर्मभूत मस्तिष्कके अवलम्बनसे होता है और वह मस्तिष्क जैनसिद्धान्तके अनुसार संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवोंमें ही रहता है। यहाँ भी मिथ्याज्ञानका जो मिथ्यापन है वह उस मिथ्याज्ञानके मिथ्यादर्शनपूर्वक होनेके कारण है। मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान दोनों जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन है तथा दोनों दर्शनमोहनीय कर्मके भेद मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयके आधारपर निर्मित मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवमें ही एक साथ पाये जाते हैं। मिथ्याचारित्रके विषयमें यह ज्ञातव्य है कि उपर्युक्त मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान पूर्वक जोवकी क्रियावतीशक्तिके परिणमन स्वरूप जो क्रिया-व्यापार उस मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवी जीवका होता है उसे ही मिथ्याचारित्र कहा जाता है और उसका उत्पादन चारित्रमोहनीयकर्मके भेद अनन्तानुबन्धी कषायके उदयके प्रभावमें अनुकल निमित्तोंके आधारपर होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप राग-द्वेषके अनुसार होता है। यह मिथ्याचारित्र एकेन्द्रिय जीवमें नोकर्मभत काय (शरीर) के अवलम्बनसे, द्वीन्द्रियसे लेकर असंज्ञीपंचेन्द्रिय तकके जीवोंमें नोकर्मभूत काय और बोलनेके आधारभत वचनके अवलम्बनसे एवं संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवोंमें नोकर्मभूत काय, वचन और मन तीनोंके अवलम्बनसे होता है । उपर्युक्त विवेचनसे यद्यपि यह स्पष्ट होता है कि दर्शनमोहनीयकमके भेद मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयमें जीव मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवर्ती है और उस जीवके हो अनुकूल निमित्तोंके आधारपर मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र होते हैं । परन्तु वे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र उस जीवमें मिथ्यात्वकर्मके उदयके सद्भावमें नियमसे नहीं होते, क्योंकि मिथ्यात्वक मके उदयमें मिथ्याष्टिगुणस्थानवर्ती कोई-कोई संज्ञीपंचेन्द्रिय भव्य और अभव्य जीव यदि निमित्त मिलनेपर हृदयके अवलम्बनसे व्यवहारसम्यग्दर्शन और मस्तिष्कके अवलम्बनसे व्यवहारके सम्यग्ज्ञानको प्राप्त होते हैं, तो उनका क्रिया-व्यापार मिथ्याचारित्र रूप न होकर या तो अविरतिरूप होता है या उनके देशविरति हो जानेपर शेष देश अविरतिरूप होता है अथवा उनके महाविरति हो जानेपर २८ मूलगुणोंमें प्रवृत्तिरूप होता है। फलतः मेरी समझके अनुसार मिथ्यात्वकर्मके उदयमें मिथ्याष्टिगुणस्थानवर्ती संज्ञीपंचेन्द्रिय उन भव्य और अभव्य जीवोंको जो कर्मबन्ध होता है वह या तो अविरतिरूप क्रिया-व्यापारके आधारपर होता है या उनके देशविरति हो जानेपर शेष एकदेश अविरतिरूप क्रिया-व्यापारके आधारपर होता है या उनके महाविति हो जानेपर २८ मूलगुणों में प्रवृत्ति रूप क्रिया-व्यापारके आधारपर होता है । अतएव उस क्रिया-व्यापारके मिथ्याचारित्ररूप न होनेके कारण उनको होनेवाला कर्मबन्ध मिथ्याचारित्रके आधारपर नहीं होता है। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ : सरस्वनो-धरमपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ यदि ऐसा न माना जावे तो मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवर्ती अभव्य जीवोंको मिथ्याचारित्ररूप क्रियाव्यापारके अभाव में जो क्षयोपशम, विशद्धि, देशना और प्रायोग्यलब्धियोंकी प्राप्ति होती है एवं भव्य जीवोंको उक्त चार लब्धियोंके साथ जो करणलब्धिकी प्राप्ति होती है वह सब नहीं हो सकेगी। इसका परिणाम यह होगा कि मिथ्यादष्टिगणस्थानवर्ती संज्ञीपंचेन्द्रिय भव्य जीव उस करणलब्धिके आधारपर जो दर्शनमोहनीयकर्मकी तीन और चारित्रमोहनीयकर्मके भेद अनन्तानुबन्धी कषायको चार इसप्रकार सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम करता है, अथवा उक्त ७ प्रकृतियोंके उपशम, क्षय या क्षयोपशमके साथ जो अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका क्षयोपशम करता है अथवा इसके भी साथ जो प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका क्षयोपशम करता है यह सब वह नहीं कर सकेगा । अतएव मानना पड़ता है कि भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकारके संजीपंचेन्द्रिय जीव मिथ्यात्वकर्मके उदयमें मिथ्यादष्टिगुणस्थानमें रहते हए भी अनुकूल निमित्तोंका योग मिलनेपर व्यवहारसम्यग्दृष्टि और व्यवहारसम्यग्ज्ञानी होकर जब मिथ्याचारित्ररूप क्रियाव्यापार नहीं करते हैं तो वे यथायोग्य अविरत या देशविरत या महाव्रती हो जाते हैं एवं इस आधारपर ही अभव्य जीव क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्यलब्धियोंको प्राप्त कर लेते हैं तथा भव्य जीव उक्त लब्धियोंके साथ करणलब्धिको भी प्राप्त कर लेते हैं। समयसारकी गाथा २७५ से भी यही ध्वनित होता है कि अभव्य जीव भी धर्मका श्रद्धान करता है, उसका ज्ञान करता है, उसमें रुचि करता है और उसको अपनाता भी है। परन्तु उसकी अभव्यताके कारण वह भेदविज्ञानो नहीं हो सकता । अतएव उससे वह सांसारिक भोग ही पाता है। यद्यपि वह यह सब मोक्ष पानेकी भावनासे ही करता है, परन्तु वह जब भेदविज्ञानी नहीं होता, तो मोक्षमार्गी नहीं बन सकता। इस विवेचनसे यही समझमें आता है कि अविरतिरूप क्रियाव्यापार करनेवाले व्यवहारसम्यग्दृष्टि और व्यवहारसम्यग्ज्ञानी प्रथम गुणस्थानवर्ती अभव्य जीव तथा अविरतिरूप क्रियाव्यापार करनेवाले प्रथम गुणस्थानसे लेकर चतुर्थ गुणस्थान तकके भव्य जीव जो कर्मबन्ध करते हैं वह वे अविरतिरूप क्रिया व्यापारके आधारपर ही करते हैं तथा प्रथम गुणस्थान तकके वे ही भव्य जीव और प्रथमगुणस्थानसे लेकर पंचमगुणस्थान तकके वे ही भव्यजीव देशविरत होनेपर जो कर्मबन्ध करते हैं वह वे शेष एकदेशअविरतिरूप क्रियाव्यापारके आधार पर करते हैं एवं प्रथमगुणस्थानवर्ती वे ही अभव्य जीव और प्रथम गुणस्थानसे लेकर षष्ठ गुणस्थान तकके वे ही भव्य जीव महाव्रती हो जानेपर जो कर्मबन्ध करते हैं वह वे २८ मूलगुणोंमें प्रवृत्तिरूप क्रियाव्यापारके आधारपर करते हैं । प्रथमगणस्थानसे लेकर षष्ठ गुणस्थान पर्यन्तके जीवोंमेंसे द्वितीय और तृतीयगणस्थानवी जीवोंमें जो विशेषताएँ आगममें प्रतिपादित की गई है वे करणानुयोगकी अपेक्षासे ही है, चरणानुयोगकी अपेक्षासे नहीं, जबकि कर्मबन्धको व्यवस्था चरणानुयोगको प्रक्रियापर हो आधारित है, क्योंकि जीवोंको जो कर्मबन्ध होता है वह क्रियाशील नोकर्मभूत मन, वचन और कायके अवलम्बनसे जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप क्रियाव्यापारके आधारपर ही होता है। इतना अवश्य है कि वह कर्मबन्ध मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानपूर्वक मिथ्याचारित्ररूप क्रियाव्यापारके आधारपर भी होता है तथा व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानपूर्वक अविरतिरूप या क्रियाव्यापारके आधारपर एकदेश अविरतिरूप क्रियाव्यापारके आधारपर अथवा २८ मूलगुणोंमें प्रवृत्तिरूप क्रियाव्यापारके आधारपर होता है। वे अविरतिरूप या एकदेशअविरतिरूप या २८ मूलगुणोंमें प्रवत्तिरूप सभी क्रियाव्यापार नियमसे व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानपूर्वक ही जोवोंमें पाये जाते है और ये सभी क्रियाव्यापार क्रियाशील नोकर्मभूत मन, वचन और कायके आधारपर होनेवाले जीवकी क्रियावतीशक्तिके परिणमनस्वरूप ही हैं। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १२३ यद्यपि मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान एवं व्यवहार सम्यग्ज्ञान ये सभी यथायोग्य नोकर्मभूत हृदय और मस्तिष्कके सहारेपर होने वाले जीवको भाववती शक्तिके ही परिणमन हैं, परन्तु वे चरणानुयोगकी प्रक्रियामें ही अन्तर्भूत होते हैं। उक्त विवेचनसे यह भी ज्ञात होगा है कि मिथ्याचारित्र और अविरतिरूप दोनों क्रियाव्यापारोंमें अन्तर है, क्योंकि जहाँ मिथ्याचारित्र, मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान पूर्वक होता है वहाँ अविरति व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहार सम्यग्ज्ञानपूर्वक होती है । जहाँ मिथ्याचारित्र आसक्तिवश होनेके कारण संकल्पी पाप माना जाता है वहाँ अविरति अशक्तिवश होनेके कारण आरम्भी पाप माना जाता है। मिथ्याचारित्र और अविरतिके अन्तरको इसप्रकार भी समझा जा सकता है कि मिथ्याचारित्रका सद्भाव प्रथमगुणस्थानमें ही रहता है क्योंकि वह मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानपूर्वक ही होता है। इसके विपरीत अविरतिका सद्भाव व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानपूर्वक होनेके कारण प्रथम गुणस्थानसे लेकर चतुर्थ गुणस्थान तकके जीवोंमें आगम द्वारा स्वीकार किया गया है। इन सब बातोंको ध्यानमें रखकर ही ऊपर बन्धके कारणोंमें मिथ्याचारित्र और अविरतिको पृथक्पृथक् रूपमें ही सम्मिलत किया गया है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि कर्मबन्धमें कारणभूत मिथ्याचारित्र, अविरति, एकदेशअविरति और २८ मूलगुणोंमें प्रवृत्तिरूप सभी क्रियाव्यापार नोकर्मभूत मन, वचन और कायके अवलम्बनसे होनेवाले जीवकी क्रियावतीशक्तिके परिणमनोंके रूपमे योग ही है। परन्तु ये सभी चारित्रमोहनीयकर्मकी उस-उस प्रकृतिके उदयमें यथायोग्य नोकर्मोके अवलम्बनसे होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन स्वरूप राग और द्वेषसे प्रभावित रहते हैं एवं जबतक उनका प्रभाव उक्त योगोंपर बना रहता है तबतक उन योगोंके आधारपर कर्मोंके प्रकृतिबन्ध ओर प्रदेशबन्धके साथ स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध नियमसे होते रहते हैं। __ यतः ११वें, १२वें और १३वें गुणस्थानोंमें केवल स्वतन्त्र योग ही बन्धका कारण शेष रह जाता है, अतः उससे कर्मोंके केवल प्रकृति और प्रदेशबन्ध ही होते हैं, स्थिति और अनुभागबन्ध नहीं होते। यद्यपि बन्धके कारणोंमें मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानका ही समावेश है, परन्तु पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि वे दोनों कोंके बन्धमें साक्षात्कारण नहीं होकर परंपरया ही कारण होते हैं, क्योंकि उनकी बन्धकारणता बन्धके कारणभूत मिथ्याचारित्रका उत्पादन करना ही है। दूसरी बात यह है कि मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान ये दोनों जीवको भाववतोशक्तिके परिणमन है, इसलिए इनका कर्मबन्धके मूलकारणभत जीवकी क्रियावतीशक्तिके परिणमन स्वरूप योगमें अन्तर्भाव नहीं होता है। बन्धका साक्षात्कारण जो मिथ्याचारित्र है वह मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानपूर्वक ही होता है और उसका सद्भाव प्रथम गुणस्थानमें ही रहता है, आगेके गुणस्थानोंमें नहीं। बन्धके कारणोंमें जो अविरति और शेष एकदेश अविरति एवं २८ मूलगुणोंमें प्रवृत्तिरूप प्रमाद सम्मिलित है वे भी प्रथमगुणस्थानमें पाये जा सकते है, परन्तु वह अविरति जीवन-संरक्षणमें उपयोगी आरम्भी पापोंके रूपमें मानी जा सकती है, जीवनके लिए अनुपयोगी और हानिकर अनैतिक आचरणरूप संकल्पी पापोंके रूपमें नहीं, क्योंकि अनैतिक आचरणरूप संकल्पी पापोंका अन्तर्भाव मिथ्याचारित्रमें ही होता है। ___अविरति तृतीय ओर चतुर्थ दोनों गुणस्थानोंमें समानरूपसे पायी जाती है, परन्तु तृतीय गुणस्थानमें पायी जानेवाली अविरतिमें यह विशेषता रहती है कि वहाँ उसका सद्भाव दर्शनमोहनीयकर्मके भेद सम्य Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ ग्मिध्यात्वके उदयमें नोकर्मभूत हृदयके अवलम्बनसे होनेवाले व्यवहार सम्यग्मिथ्यात्वसे प्रभावित रहता है । इस अविरतिका उत्पादन प्रथम, तृतीय और चतुर्थ गुणस्थानोंमें व्यवहार सम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानपूर्वक ही होता है। द्वितीय गुणस्थानमें मिथ्यात्वकर्मके उदयका अभाव रहनेके कारण मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानका अभाव हो जानेसे यद्यपि मिथ्याचारित्रका अभाव पाया जाता है तथापि अनन्तानुबन्धी कर्मका उदय रहने के कारण नोकर्मभूत मनके अवलम्बनपूर्वक जीवको भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप राग या द्वेषपूर्वक अनैतिक आचाररूप संकल्पीपापके रूपमें अविरति वहाँ भी पायी जाती है। व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानका अभाव रहनेके कारण आरम्भी पापरूप अविरतिका वहाँ अभाव ही माना जा सकता है। चतुर्थ गुणस्थानवी जीवमें आरम्भी पापरूप अविरति तो रहती ही है परन्तु एकदेश अविरति या २८ मूलगुणोंमें प्रवृत्तिरूप प्रमादका सद्भाव भी वहाँ संभव है। इसी प्रकार पंचम गुणस्थानवी जीवमें एकदेश अविरति तो रहती है, परन्तु उसमें २८ मूलगणोंमें प्रवृत्तिरूप प्रमाद भी सम्भव है । षष्ठ गुणस्थानवतो जावम बन्धका कारण केवल २८ मूलगुणोंमें प्रवृत्तिरूप प्रमाद ही पाया जाता है और वह वहाँ नियमसे पाया जाता है। सप्तम गुणस्थानसे लेकर दशम गणस्थानतकके जीवोंमें बन्धका कारण संज्वलन कषायके यथायोग्य मन्द, मन्दतर और मन्दतमरूपमें होनेवाले उदयके आधारपर यथायोग्य नोकर्मों के अवलम्बनसे जीवकी भाववतोशक्तिके परिणमनस्वरूप यथासम्भव राग और दुषसे प्रभावित मानसिक. वाचनिक और कायिक योग हा होता है और वहाँ उसका सद्भाव अव्यक्तरूपमें ही पाया जाता है । इस लेखके अन्तमें मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता है कि श्री पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री, कटनीका एक लेख "कर्मबन्ध और उसके कारणोंपर विचार" शीर्षकसे "वीरवाणी' पत्रिकाके वर्ष ४०, अंक ९ व संयुक्त अंक ११-१२ में प्रकाशित हुआ है। उसमें पं० जीने कुछ विषयको संशयरूपमें, कुछ विषयको अनध्यवसाय एवं कुछ विषयको विपर्ययरूपमें भी निबद्ध किया है उसका समाधान भी मेरे इस लेखसे हो सकता है, ऐसा विश्वास है। Kaya moomnony NAAR YAAVAT WAVA Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगममें कर्मबन्धके कारण समयसारमें बन्धके कारणोंका उल्लेख : सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो। मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ॥१०९॥ तेसिं पुणोवि य इमो भणिदो भेदो दु तेरस वियप्पो । मिच्छादिट्ठी आदी जाव सजोगिस्स चरमंतं ॥११०॥ इन दो गाथाओंमें आचार्य कुन्दकुन्दने सामान्यतया मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन चारके रूपमें बन्धके कारणोंका उल्लेख किया है। तथा विस्तारसे मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यगमिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मलोभ , उपशान्तमोह, क्षीणमोह और मयोगकेवली इन तेरह गुणस्थानोंके रूपमें कथन किया है। इसका आशय यह है कि मिथ्यात्वादि चार बन्धके साधकतम कारण हैं और मिथ्यादृष्टि आदि तेरह गुणस्थान बन्धके अवलम्बन कारण हैं । अर्थात जीवोंके जो कर्मबन्ध होता है वह मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगके द्वारा होता है तथा वह तेरह गुणस्थानोंमें स्थित जीवोंमें यथायोग्य रूपमें होता है । बन्धका मूलकारण योग जीवमें कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणाके आधारपर जो हलन-चलन रूप क्रियाव्यापार होता है वह योग है । वह योग जीवकी क्रियावती शक्तिका परिणाम है और प्रथम गुणस्थानसे लेकर तेरहवें गुणस्थान तकके जीवोंमें प्रतिक्षण होता रहता है। वह एकेन्द्रिय जीवोंमें कायवर्गणाके अवलंबनसे, द्वीन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तकके जीवोंमें कायवर्गणा और वचनवर्गणाके अवलम्बनसे तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंमें काय, वचन और मन इन तोनों वर्गणाओंके अवलम्बनसे पृथक-पृथक होता है। योगका कार्य लोकमें व्याप्त ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकारकी कर्मवर्गणाओंका उक्त सभी योगोंके आधारपर आस्रव होकर वे कर्मवर्गणाएँ, जो जीवके साथ सम्बद्ध होती है उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं और प्रत्येक कर्मवर्गणा जितने परिमाणमें जीवके साथ बद्ध होती है उसे प्रदेशबन्ध कहते है । इस तरह योगका कार्य प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध निर्णीत है। गणस्थानोंमें योगोंकी विशेषता आठों कर्मोकी आगममें १४८ प्रकृतियाँ बतलायी गयी हैं। उनमेंसे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति इन दोको छोड़कर शेष १४६ प्रकृतियाँ ही बन्धयोग्य मानी गयी हैं। इनमेंसे प्रथम, द्वितीय और तृतीय गुणस्थानोंमें योगकी प्रतिकूलताके कारण नामकर्मकी तीर्थकर, आहारकशरीर, आहारकबन्धन, आहारकसंघात और आहारकआंगोपांग इन पाँच प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता। फलतः प्रथम गुणस्थानमें १४१ प्रकृतियाँ ही बन्धयोग्य मानी गयी हैं। मिथ्यात्वगुणस्थानमें बन्धयोग्य उन १४१ प्रकृतियोंमेंसे द्वितीय गुणस्थानमें १२५ प्रकृतियाँ ही बन्ध योग्य हैं, क्योंकि मिथ्यात्व, हुण्डकसंस्थान, नपुंसकवेद, असंप्राप्त सृपाटिकासंहनन, एकेन्द्रियजाति, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, विकलत्रय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय), नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्य और नरकायु इन सोलह प्रकृतियोंका बन्ध योगकी अनुकूलताके कारण प्रथम गुणस्थानमें ही सम्भव है, योगकी प्रतिकूलताके कारण द्वितीय आदि गुणस्थानोंमें सम्भव नहीं है । द्वितीय गुणस्थानमें बन्धयोग्य १२५ प्रकृतियों मेंसे अनन्तानबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ, द्धि, निद्रा-निद्रा. प्रचला-प्रचला. दर्भग. दःस्वर. अनादेय. न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति, कुब्जक और बामनसंस्थान, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच और कीलितसंहनन, अप्रशस्त बिहायोगति , स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यञ्चगति, तिर्यग्गत्यानपूर्वी. तिर्यगाय और उद्योत इन पच्चीस प्रकृतियोंका बन्ध योगकी प्रतिकूलताके कारण द्वितीय गुणस्थान तक हो सम्भव है, योगकी प्रतिकूलताके कारण तृतीय आदि गुणस्थानोंमें सम्भव नहीं है । तथा योगकी प्रतिकूलताके कारण आयुर्बन्ध न होनेसे मनुष्यायु और देवायुका भी बन्ध तृतीय गुणस्थानमें सम्भव नहीं है। अतः तृतीय गुणस्थानमें ९८ प्रकृतियोंका ही बन्ध सम्भव है । यतः तृतीय गुणस्थानमें बन्धयोग्य ९८ प्रकृतियोंका योगको अनुकूलताके कारण चतुर्थ गुणस्थानमें भी बन्ध सम्भव है । तथा योगको अनुकूलताके कारण तीर्थंकर प्रकृति, मनुष्यायु और देवायुका भी बन्ध चतुर्थगुणस्थानमें सम्भव है । अतः चतुर्थगुणस्थानमें १०१ प्रकृतियाँ बन्धयोग सिद्ध होती हैं । चतुर्थ गुणस्थानमे बन्धयोग प्रकृतियाँ १०१ मानी गयीं हैं। इनमें अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ, वज्रर्षभनाराचसंहनन, औदारिकशरीर, औदारिकबन्धन, औदारिकसंघात और औदारिकअङ्गोपांग तथा मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और मनुष्याय इन बारह १२ प्रकृतियोंका बन्ध योगकी अनुकूलताके कारण चतुर्थ गुणस्थानतक ही सम्भव है, योगकी प्रतिकूलताके कारण पंचम आदि गुणस्थानोंमें संभव नहीं है । अतः पंचम गुणस्थानमें बन्धयोग्य प्रकृतियाँ ८९ सिद्ध होती है। पंचमगुणस्थानमें बन्धयोग्य इन ८९ प्रकृतियोंमेंसे योगकी प्रतिकुलताके कारण प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियोंका षष्ठगुणस्थानमें बन्ध सम्भव नहीं है, अतः इस षष्ठगुणस्थानमें । योगकी अनुकूलताके कारण ८५ प्रकृतियोंका ही बन्ध सम्भव है। षष्ठ गुणस्थानमें बन्धयोग्य पचासी ८५ प्रकृतियोंमेंसे अस्थिर, अशभ, असातावेदनीय, अयश कीति, अरति और शोक इन छह प्रकृतियोंका बन्ध योगकी प्रतिकूलताके कारण सप्तम गुणस्थानमें सम्भव नहीं है । साथ ही योगकी अनुकूलताके कारण आहारकशरीर, आहारबन्धन, आहारकसंघात और आहारकअंगोपांगका बन्ध सम्भव है, अतः सप्तम गुणस्थानमें बन्धयोग्य प्रकृतियाँ ८३ सिद्ध होती हैं। सप्तम गुणस्थानमें बन्धयोग्य ८३ प्रकृतियोंमेंसे योगकी प्रतिकुलताके कारण देवायुका बन्ध अष्टम गुणस्थानमें सम्भव नहीं हैं, अतः अष्टम गुणस्थानमें वियासी ८२ प्रकृतियोंका ही बन्ध सम्भव है । अष्टम गुणस्थानमें बन्धयोग्य इन वियासी ८२ प्रकृतियोंमेंसे योगकी प्रतिकूलताके कारण सर्वप्रथम निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियोंका बन्ध समाप्त होता है। इसके पश्चात् तीर्थंकर, निर्माण, प्रशस्तविहायोगति, पंचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, तेजसबन्धन और तैजससंघात, कार्मणशरीर, कार्मणबन्धन और कार्मणसंघात, आहारकशरीर, आहारकबन्धन, आहारक संघात और आहारकअंगोपांग, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकबन्धन, वैक्रियिकसंघात और वैक्रियिक अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, स्पर्शनामकर्मके आठ भेद (हल्का, भारी, रूखा, चिकना, कोमल, कठोर, ठंडा, और गरम) रसनामकर्म के पाँच भेद (खट्टा, मोठा, कडुआ, कसायला और चरपरा), गंधनामकर्मके दो भेद (सुगन्ध और दुर्गन्ध) वर्णनामकमके पाँच भेद (काला, पीला, नीला, लाल और सफेद), अगरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर और आदेय इन चौवन (५४ ) अन्त में हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार (४) प्रकृतियों का गुणस्थान में बन्धयोग्य प्रकृतियाँ बाईस (२२) रह जाती हैं । ३ / धर्म और सिद्धान्त : १२७ प्रकृतियोंका बन्ध समाप्त होता है और बन्धविच्छेद होता है । इस तरह नवम नवम गुणस्थान में बन्धयोग्य बाईस (२२) प्रकृतियोंमेंसे योगकी प्रतिकूलता के कारण क्रमसे पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ इन पाँच प्रकृतियोंका बन्ध समाप्त हो जानेसे दशम गुणस्थानमें योगकी अनुकूलता के कारण बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १७ सिद्ध होती हैं । दशम गुणस्थानमें बन्धयोग्य १७ प्रकृतियोंमेंसे योगकी प्रतिकूलताके कारण ज्ञानावरणकर्मकी ५ दर्शनावरण कर्मको ४, अन्तरायकर्मकी ५ तथा उच्चगोत्र और यशःकीर्ति इन १६ प्रकृतियोंका बन्धाभाव होनेपर ११ वें गुणस्थान उपशान्तमोह, १२वें गुणस्थान क्षीणमोह और १३ वें 'गुणस्थान सयोगकेवली में योगकी अनुकूलताके कारण एक मात्र सातावेदनीय प्रकृतिका बन्ध होता है। तथा १४वें गुणस्थान में योगका सर्वथा अभाव हो जाने के कारण कर्मबन्धका सर्वथा अभाव ही है । इस विवेचनका आशय यह है कि जिस प्रकार चुम्बक पत्थर में विद्यमान आकर्षणशक्तिके आधारपर आकृष्ट होकर लोहेकी सुई चुम्बक पत्थर के साथ सम्बद्ध हो जाती है उसी प्रकार जीवमें विद्यमान योगकी अनुकूलता के आधारपर कर्मप्रकृतियोंका आसव होकर वे कर्मप्रकृतियां जीवके साथ बन्धको प्राप्त होती हैं । parent अनुकूलता और प्रतिकूलताका आधार : कर्म प्रकृतियों के बन्ध में योगकी अनुकूलताको जो कारण माना गया है उसका आधार मोहनीयकर्म के उदयके साथ अन्य कारणसामग्री है। और उनके बन्धाभाव में योगकी प्रतिकूलताको जो कारण माना गया है। उसका आधार मोहनीय कर्म के उपशम, क्षयोपशम या क्षयके साथ अन्य कारणसामग्री है । गोम्मटसार कर्मकाण्ड और इस लेखका समन्वय यहाँ यह ज्ञातव्य है कि इस लेखमें बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १४६ कही गयी हैं, जबकि गोम्मटसार कर्म - htosमें बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १२० बतलाई गयी हैं । इन दोनों कथनोंका समन्वय इसप्रकार करना चाहिए कि गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड में जो १२० प्रकृतियाँ बन्धयोग्य बतलाई हैं उनमें बन्धकी समानताके कारण ८ स्पर्शो को स्पर्श सामान्य में, ५ रसोंको रससामान्यमें २ गंधोंको गन्धसामान्यमें और ५ वर्णोंको वर्णसामान्य में अन्तर्भूत कर लिया गया है । तथा एक साथ बन्ध होनेके कारण औदारिकशरीरमें औदारिकबंधन और औदारिक संघातको वैक्रियिकशरोर में वैक्रियिकबंधन और वैक्रियिकसंघातको आहारकशरीरमें आहारकबन्धन और आहारक संघातको, तैजसशरीरमें तैजसबन्धन और तैजससंघातको तथा कार्मणशरीर में कार्मणबन्धन और कार्मणसंघातको समाहित कर लिया गया है । इसलिये बद्ध्यमान प्रकृतियाँ वास्तव में १४६ होनेपर भी गोम्मटसार कर्मकाण्ड में उक्त प्रकार अभेद से (अभेद विवक्षासे) १२० कही गयी हैं । फलतः वास्तविकता के आधारपर इस लेख में बन्धयोग्य प्रकृतियोंकी संख्या १४६ बतलाना गोम्मटसार कर्मकाण्डके कथनके विरुद्ध नहीं है । इसीप्रकार प्रकृतियों के बन्धन के समान अबन्ध और बन्धव्युच्छित्तिको व्यवस्था में गोम्मटसार कर्मकाण्डके कथनके साथ इस लेखमें पाये जानेवाले संख्याभेदका भी समन्वय कर लेना चाहिए । यह भी यहाँ ज्ञातव्य है कि यद्यपि जीव मिथ्यात्वकर्मके उदयमें मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवर्ती कहा गया है और मिथ्यात्वगुणस्थान में बन्धयोग्य १४१ प्रकृतियोंमें १६ प्रकृतियाँ ऐसी हैं, जिनका बन्ध मिथ्यात्वगुणस्थान में ही होता है, अन्य गुणस्थानोंमें नहीं, परन्तु यह नियम नहीं है कि उन १६ प्रकृतियोंका बन्ध इस गुणस्थान में Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रत्येक जीवके होता ही है, क्योंकि ऐसा नियम स्वीकार करनेपर नरकायका बन्ध प्रत्येक मिथ्यात्वगणस्थानवर्ती जीवके होनेका प्रसंग आयेगा, जो कर्मसिद्धान्तके विरुद्ध है । यतः कर्मसिद्धान्तमें इस गणस्थानमें चारों आयुका बन्ध स्वीकार किया गया है। साथ ही यह भी कर्मसिद्धान्तमें माना गया है कि एक आयुका बन्ध होनेपर जीवके दूसरी आयुका बन्ध उसी भवमें नहीं होता । तथा प्रथमगुणस्थानवर्ती, देव और नारकीको नरक आयुका बन्ध कदापि नहीं होता है। दूसरी बात यह है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवमें मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध तभी - तक होता है जब तक वह व्यवहारमिथ्यादर्शन (अतत्त्वश्रद्धान) और व्यवहारमिथ्याज्ञान (अतत्त्वज्ञान) पूर्वक मिथ्याआचरण करता है और जीव यदि व्यवहारसम्यग्दर्शन (तत्त्व श्रद्धान) और व्यवहारसम्यग्ज्ञान (तत्त्वज्ञान) पूर्वक मिथ्याआचरणको छोड़कर अविरतिरूप या एकदेशअविरतिरूप या महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप आचरण करने लगता है तो उस समय उसके मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता। यदि ऐसा न माना जाये तो समयसार गाथा २७५ के अनुसार अभव्य जीव तत्त्वश्रद्धानी और तत्त्वज्ञानी होकर जो अविरतिरूप या एकदेश अविरतिरूप या महाव्रतोंमें प्रवत्तिरूप आचरण करता है और उसके आधारपर क्षयोपशम, विशद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंको भी प्राप्त कर लेता है, यह जो आगमका कथन है वह अयुक्त हो जायेगा। जिसका परिणाम यह होगा कि ऐसा अभव्य जीव नवम ग्रैवेयक तक जन्म लेकर स्वर्ग-सुखका उपभोग करता है, यह कथन भी अयुक्त हो जायेगा। इससे यह निर्णीत होता है कि मिथ्यात्वकर्मके उदयसे जीव मिथ्यात्वगुणस्थानवर्ती तो है, परन्तु जब तक मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानपूर्वक मिथ्या आचरण करता रहता है तभीतक उसके मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध होता है और यदि वह जीव व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानपूर्वक अविरतिरूप या एकदेश अविरतिरूप या महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप आचरण करने लगता है तो उस समय वह मिथ्यात्वकर्मका उदय रहते हुए भी मिथ्यात्व आदि सोलह प्रकृतियोंका बन्ध नहीं करता है, भले ही वह जीव अभव्य ही क्यों न हो, क्योंकि बन्धका आधार चरणानयोगकी पद्धति है, करणानुयोगकी पद्धति नहीं । ___ तात्पर्य यह है कि भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकारके जीव करणानुयोगको पद्धतिके अनुसार मिथ्यात्वकर्मके उदयमें मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवर्ती होते हुए भी चरणानुयोगकी पद्धति के अनुसार जबतक व्यवहार मिथ्यादर्शन (अतत्त्व श्रद्धान) और व्यवहार मिथ्याज्ञान (अतत्त्वज्ञान) पूर्वक मिथ्या आचरण करते हैं तभीतक वे मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं और यदि वे व्यवहारसम्यग्दर्शन (तत्त्वश्रद्धान) और व्यवहारसम्यग्ज्ञान (तत्त्वज्ञान) पूर्वक अविरतिरूप या एकदेश अविरतिरूप या महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप आचरण करने लगते हैं तो वे उन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं करते हैं, क्योंकि पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि ऐसा न माननेपर अभव्य जीव स्वर्गसुख में कारणभूत क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंकी प्राप्ति नहीं कर सकेगा । और न भव्य जीव उक्त चारों लब्धियोंकी प्राप्तिके पश्चात् भेदविज्ञानपूर्वक करण लब्धिको प्राप्त कर सकेगा। और इस तरह इससे मोक्षप्राप्तिकी प्रक्रिया ही समाप्त हो जायेगी । इस विवेचनपर उन महानुभावोंको ध्यान देना चाहिए, जो मिथ्यात्वकर्म के उदयमें मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध नियमसे मानते हैं। निष्कर्ष यह है कि मिथ्यात्वकर्मके उदयमें मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध तभी होता है जब जीव व्यवहारमिथ्यादर्शन (अतत्त्व श्रद्धान) और व्यवहार मिथ्याज्ञान (अतत्त्वज्ञान) पूर्वक मिथ्या आचरण Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १२९ करता है, अन्यथा नहीं । इतना उल्लेखयोग्य है कि मिथ्यात्वकर्मके उदयमें मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध न होते हुए भी जो उसका उदय रहता है उसका कारण पूर्व में बद्ध मिथ्यात्वकर्मकी सत्ता है । स्थितिबंध और अनुभागबंधको व्यवस्था अभी तक जितना विवेचन किया गया है उससे स्पष्ट है कि बन्धका मूल कारण नोकर्मों के सहयोगसे होनेवाला जीवकी क्रियावतीशक्तिका हलन-चलन-क्रियाव्यापाररूप योग ही है। यतः वह योग प्रथम गुणस्थानसे लेकर त्रयोदश गुणस्थान तकके जीवोंमें प्रतिक्षण यथायोग्यरूपमें होता रहता है, अतः कर्मबन्ध भी उन सभी जीवोंमें प्रतिक्षण होता रहता है और वह प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धके रूपमें दो प्रकार का होता है। आगममें बतलाया गया है कि कर्मबन्ध प्रकृतिबंध और प्रदेशबंधके अलावा स्थितिबंध और अनुभागबंधरूप भी होता है, अतः कर्मबंधके प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके रूपमें चार भेद माने गये हैं। ___कर्मबन्धका जीवके साथ यथायोग्य नियतकाल तक बना रहना स्थितिबन्ध है और कर्मोंमें जीवको फल देनेकी शक्तिका विकास होना अनुभागबंध है। जिस प्रकार प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबंध ये दोनों योगके आधारपर होते हैं उसी प्रकार स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध ये दोनों कषायके आधारपर होते हैं । इनका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है : मोहनीयकर्म के आगममें दो भेद कहे गये है-१. दर्शनमोहनीय और २. चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीयकर्मके तोन भेद हैं १. मिथ्यात्व २. सम्यग मिथ्यात्व और ३. सम्यक्त्वप्रकृति। चारित्रमोहनीयकर्मके दो भेद है-१. कषायवेदनीय २. अकषायवेदनीय । कषाय-वेदनीयकर्मके मूलतः चार भेद--१. क्रोध २. मान ३. माया ४. लोभ । ये चारों अन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनके रूपमें चारचार प्रकारके है । तथा इनके उदयमें नोकर्मोंके सहयोगसे कर्मबन्धके कारणभूत एवं जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप कषायभाव होते हैं तथा वे यदि क्रोध या मानरूप हों तो उन्हें द्वष कहते हैं और यदि माया या लोभरूप हों तो उन्हें राग कहते हैं। इस प्रकार कर्मोके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके कारण यथायोग्य नोकर्मोकी सहायतापूर्वक होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग और द्वेषरूप कषायभाव ही है। आगममें अकषायवेदनीय-चारित्रमोहनीयकमके जो हास्य, रति. अरति. शोक भय. जगप्सा. स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसक वेद ये नौ भेद कहे गये हैं उन्हें राग और द्वेषरूप कषायभावोंके सहायक कर्म जानना चाहिए। कर्मबन्धकी प्रक्रिया मिथ्यात्वकर्मके उदयमें मिथ्यादष्टिनामधारी प्रथमगणस्थानव जीवको भाववतोशक्तिके यथायोग्य नोकर्मों के सहयोगसे व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानरूप परिणमन होते हैं व उनके होनेपर यथायोग्य नोकर्मोके सहयोगसे ही उसको क्रियावतीशक्तिका मिथ्या-आचरण (मिथ्याचारित्र) रूप परिणमन होता है, जो कर्मबन्धका कारण होता है। यतः वह मिथ्या आचरण अनन्तानुबन्धी कर्मके उदयमें होनेवाले जीवकी भाववतोशक्तिके परिणमनस्वरूप राग व द्वेषरूप कषायभावोंसे प्रभावित रहता है, अतः उस आचरणके आधारपर कर्मोके प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धके साथ स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध भी होते हैं । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० : सरस्वती वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ अर्थात् वह आचरण योगरूप होनेसे प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका कारण होता है व वह नियमसे जीवकी भाववतीशक्ति के परिणमन राग या द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित रहता है, इसलिए कर्मोंके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका भी कारण होता है । इसी प्रकार वह आचरण यतः व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानपूर्वक होता है, उनके अभाव में नहीं होता और वह व्यवहारमिथ्यादर्शन व व्यवहारमिथ्याज्ञानपूर्वक नियमसे होता है, अतः उक्त बन्धोंमें मिथ्याआचरणके साथ व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञान भी परम्परया कारण होते हैं तथा मिथ्याआचरण साक्षात् कारण होता है । पहले बतलाया जा चुका है कि कर्मबन्ध चरणानुयोगकी पद्धतिके अनुसार होता है, करणानुयोग की पद्धतिके अनुसार नहीं । अतः मिथ्यात्वकर्मके उदयमें मिथ्यादृष्टिनामधारी प्रथमगुणस्थानवर्ती जीव यदि अनुकूल निमित्तों का सहयोग मिलनेपर व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानको प्राप्त कर ले तो उसका आचरण मिथ्यारूप न होकर अविरतिरूप या एकदेश अविरतिरूप या महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप ही होता है, जिससे वह जीव मिथ्यात्वकर्मका उदय रहते हुए भी मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं करता है । यहाँ यह भी स्मरणीय है कि मिथ्यारूप आचरण, अविरतिरूप आचरण, एकदेश- अविरतिरूप आचरण और महाव्रतों में प्रवृत्तिरूप आचरण – ये चारों योगके समान जीवकी क्रियावतीशक्तिके ही परिणमन हैं । इनमें जो विशेषता है वह यह है कि मिथ्या - आचरण अनन्तानुबन्धी कर्मके उदय में नोकर्मो के सहयोग से होनेवाले जीवको भाववतीशक्तिके परिणमन राग-द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित रहता है । अविरतिरूप आचरण अप्रत्याख्यानावरण कर्मके उदयमें नोकर्मोंके सहयोगसे होनेवाले जीवकी भाववतीशक्ति के परिणमन राग-द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित रहता है। एकदेश अविरतिरूप आचरण प्रत्याख्यानावरणकर्मके उदयमें नोकमके सहयोगसे होनेवाले जीवको भाववतीशक्तिके परिणमन राग-द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित रहता है । और महाव्रतों में प्रवृत्तिरूप आचरण संज्वलनकर्मके तीव्र उदयमें नोकर्मो के सहयोग से होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग-द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित रहता है । फलतः उक्त चारों आचरण योगके समान जीवकी क्रियावतोशक्तिके नोकर्मो के सहयोगसे होनेवाले हलन चलन रूप क्रियाव्यापार रूप होनेसे कर्मोके प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबंधके कारण होते हैं व जीवको भाववतीशक्तिके नोकर्मो के सहयोगसे होनेवाले राग-द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित होनेके कारण स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके भी कारण होते हैं । तात्पर्य यह है कि उक्त चारों प्रकारके आचरणों मेंसे प्रत्येक आचरण उक्त चारों बन्धोंका कारण । यहाँ यह अवश्य ज्ञातव्य है कि अनन्तानुबन्धीकर्मके उदयमें नोकमोंके सहयोगसे जीवको क्रियावतीशक्तिके परिणमन स्वरूप जो आचरण होता है वह आसक्तिवश होनेवाला संकल्पी पाप है । अनन्तानुबन्धीकर्मका उदय प्रथम और द्वितीय इन दो गुणस्थानोंमें स्थित जीवोंके होता है । विशेषता यह है कि प्रथमगुणस्थानवर्ती जीवका यह आचरण दर्शनमोहनीयकर्मकी मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयमें यथायोग्य नोमोंके सहयोग से होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन स्वरूप व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानपूर्वक होता है । अतः उसके आधारपर वह प्रथमगुणस्थानवर्ती जीव मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध करता यतः द्वितीयगुणस्थानवर्ती जीवका वह आचरण व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानपूर्वक नहीं होता, क्योंकि द्वितीय गुणस्थान में दर्शनमोहनीयकर्मका उपशम विद्यमान रहने के कारण मिथ्यात्वमके उदयका अभाव रहता है, अतः वह द्वितीयगुणस्थानवर्ती जीव मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका नहीं करता है और क्योंकि उस जीवमें अनन्तानुबन्धीकर्मके उदयमें नोकर्मोंके सहयोगसे क्रियावतीशक्ति Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १३१ के परिणमन स्वरूप संकल्पी पापरूप आचरण होता ही रहता है। अतः उस आचरणके आधार पर वह जीव अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ आदि २५ प्रकृतियों का बन्ध अवश्य करता है । तृतीय और चतुर्थं गुणस्थानोंमें स्थित जीवोंमें नियमसे अप्रत्याख्यानावरणकर्मका उदय रहता है, अतः उस उदयमें उक्त दोनों गुणस्थानवर्ती जीव निमित्तों के सहयोगसे अपनी क्रियावतीशक्तिके परिणमन स्वरूप जो आचरण करते हैं वह अशक्तिवश होनेवाला आरम्भो पाप है व उसीका नाम अविरति है । वह अविरति तृतीयगुणस्थानवर्ती जीवमें दर्शनमोहनीयकर्मकी सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयमें नोकर्मोंके सहयोगसे जीवको भाववतीशक्ति के परिणमन स्वरूप जो सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिश्रभाव होता है उसके अनुसार ही कर्मबंधका कारण होती है तथा चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीवमें यतः दर्शनमोहनीयकर्मकी मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप तीन और अनन्तानुबंधोकर्मकी क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इन सात प्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम या क्षय विद्यमान रहता है, अतः वह अविरति उन कर्मों के sarat अपेक्षा बिना ही कर्मबन्धका कारण होती है । यही कारण है कि जहाँ तृतीयगुणस्थानवर्ती जीव ९८ प्रकृतियों का बन्ध करता है वहाँ चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीव तीर्थंकर, मनुष्यायु और देवायुके साथ उन ९८ प्रकृतियों का बन्ध करता है । तृतीयगुणस्थानवर्ती जोवमें तीर्थंकर, मनुष्यायु और देवायु इन प्रकृतियोंका FE इसलिए नहीं होता कि कर्मसिद्धान्तमें इस गुणस्थानमें उनके बन्धका निषेध किया गया है और चतुर्थ - गुणस्थानमें इसलिए उनका बन्ध होता है कि कर्मसिद्धान्त में उसमें इन प्रकृतियोंके बंधका विधान किया गया है । तीर्थंकरप्रकृतिका बंध चतुर्थ गुणस्थान में इसलिए होता है कि उसका बंध कर्मसिद्धान्त के अनुसार निश्चयसम्यग्दृष्टि जीवके ही होता है । पंचम गुणस्थानवर्ती जीवमें अप्रत्याख्यानावरण कर्म के क्षयोपशमके साथ प्रत्याख्यानावरणकर्मका उदय रहता है, अतः वहाँ उस उदयमें नोकर्मोंके सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियावतीशक्तिकी परिणतिस्वरूप एकदेश अविरति ही बन्धका कारण होती है । षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीवमें अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण दोनों कर्मोंके क्षयोपशमके साथ संज्वलन कषायका तीव्रोदय रहता है । अतः उस उदयमें नोकर्मोंके सहयोगसे जीवकी क्रियावतीशक्तिका प्रमादरूप परिणाम ही बन्धका कारण होता है । सप्तम गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थान तकके जीवोंमें संज्वलनकषायका उत्तरोत्तर मन्द मन्दतर और मन्दतमरूपसे उदय रहता है और उस उदयमें नोकमोंके सहयोगसे अव्यक्तरूपमें जीवकी क्रियावतीशक्तिका जो परिणाम होता है वही वहाँ बंधका कारण होता है । इस प्रकार प्रथम गुणस्थानसे लेकरके षष्ठ गुणस्थानतक होनेवाला यथायोग्य मिथ्यात्वरूप, अविरतिरूप, एकदेश अविरतिरूप और महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप जीवकी क्रियावतीशक्तिका जो व्यक्तरूपमें परिणमन होता है वह परिणमन कर्मो के प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप चारों बंधोंका कारण होता है । तथा सप्तम गुणस्थान से लेकर दशम गुणस्थानतकके जीवोंमें जीवकी क्रियावतीशक्तिका जो अव्यक्तरूपमें परिणमन होता है वह भी कर्मों प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग इन चारों प्रकारके बंधोंका कारण होता है क्योंकि ये सभी परिणाम यथायोग्य उस-उस कषायके उदयमें होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग-द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित रहते हैं । ११वें, १२ वें और १३ वें गुपस्थानोंमें जीवकी क्रियावतीशक्तिका योगरूप Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ परिणमन ही मात्र प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका कारण होता है । यतः १४वें गुणस्थानमें योगका सर्वथा अभाव रहता है, अतः वहाँ उस जीवमें कर्मबन्धका भी सर्वथा अभाव रहता है। इसके अतिरिक्त प्रथम गुणस्थानसे लेकर षष्ठ गुणस्थानतकके जीवोंमें व्यक्तरूपमें और सप्तम गुणस्थानसे लेकर दशम गणस्थानतकके जीवोंमें अव्यक्तरूपमें जीवकी क्रियावतीशक्तिका जो पुण्यकर्मरूप व्यापार होता रहता है वह भी यथायोग्य उस-उस कषायके उदयमें होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग या द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित होनेसे जीवकी क्रियावतीशक्तिका परिणाम है व उसके आधारपर भी उन जीवोंमें कर्मोंका प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप चारों प्रकारका बन्ध होता है । यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि जिस प्रकार व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानको कर्मबन्धका परम्परया कारण माना गया है उस प्रकार व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानकोकर्मबन्धका साक्षात् या परम्परया कारण नहीं माना जा सकता है, क्योंकि व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञान कर्मबन्धके कारण न होकर उसके अभावके ही कारण होते हैं। अतएव चतुर्थं गुणस्थानमें मात्र अविरति ही कर्मबन्धका कारण होती है व पंचम गुणस्थानमें मात्र एकदेश अविरति ही कर्मबन्धका कारण होती है तथा षष्ठ गुणस्थानमें मात्र महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूपता ही कर्मबन्धका कारण होती है । निष्कर्ष: प्रथमगुणस्थानवी जीव इसलिए अज्ञानी है कि उसके मिथ्यात्वकर्मका उदय रहता है और तृतीय गुणस्थानवी जीव इसलिए अज्ञानी है कि उसके सम्यग्मिथ्यात्वकर्मका उदय रहता है । यद्यपि द्वितीय गुणस्थानवी जीवमें दर्शनमोहनीयकर्मकी प्रकतियोंका उपशम रहता है, परन्त वह जीव अनन्तानबन्धी कर्मके उदयमें आसक्तिवश संकल्पीपाप भी करता रहता है। इसलिए उसे ज्ञानी नहीं कहा जा सकता है, उसे भी आगममें अज्ञानी ही कहा गया है । समयसार गाथा ७२ की आत्मख्यातिटीकामें स्पष्ट लिखा है कि जो जीव भेदज्ञानी होकर भी आस्रवोंमें प्रवृत्त रहता है उसे भेदविज्ञानी नहीं कहा जा सकता है और यही कारण है कि जीवको निश्चयसम्यग्दष्टि बननेके लिए दर्शनमोहनीयकर्मके उपशम या क्षयके साथ अनन्तानुबन्धीकर्मके उपशम या क्षयको भी कारण माना गया है। फलतः चतुर्थगणस्थानमें जीवको होनेवाले कर्मबन्धमें मात्र अविरति ही कारण होती है, पंचमगुणस्थानमें जीवको होनेवाले कर्मबन्धमें मात्र एकदेश अविरति ही कारण होती है और षष्ठ गुणस्थानमें जीवको होनेवाले कर्मबन्धमें मात्र महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूपता ही बन्धका कारण होती है, क्योंकि जबतक जीव अज्ञानधारामें वर्तमान रहता है तबतक ही उस जीवके कर्मबन्धमें व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानको कारण माना गया है और जब जीव ज्ञानी हो जाता है अर्थात् निश्चयसम्यग्दृष्टि हो जाता है तो केवल अविरतिरूप या एकदेश अविरतिरूप या महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप कर्मधारा ही जीवके कर्मबन्धमें कारण होती है। इसी तरह सप्तम गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थानतकके जीवोंके जो कर्मबन्ध होता है वह भी कर्मधाराके आधारपर ही होता है, इसलिए सप्तम गुणस्थानसे दशम गुणस्थानतक जीवोंमें ज्ञानधाराके साथ कर्मबन्धमें कारणभूत कर्मधाराका सद्भाव स्वीकार किया गया है । इस विवेचनसे यह भी स्पष्ट है कि प्रथम गुणस्थानसे तृतीय गुणस्थानतकके जोवोंमें अज्ञानधारापूर्वक कर्मधारा बन्धको कारण होती है व चतुर्थ गुणस्थानसे षष्ठ गुणस्थानतकके जीवोंमें व्यक्तरूपसे व सप्तम गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थानतकके जीवोंमें अव्यक्तरूपसे मात्र क्रियाधारा ही यथायोग्य राग-द्वषरूप कषाय भावोंसे प्रभावित होती हई कर्मबन्धका कारण होती है । इत्यलम् । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोत्रकर्मके विषयमें मेरा चिन्तन ८ अगस्त सन १९५७ के जैन संदेश में श्रीब्रह्मचारी पं० रतनचंदजी सहारनपुर द्वारा परिचालित "शंका-समाधान" प्रकरणमें निम्न प्रकार शंका और उसका समाधान किया गया था। "शंका१-नीच-उच्चगोत्र जन्मसे है या कर्मसे? क्या बौद्धधर्ममें दीक्षित शूद्र ५० साल पश्चात उच्चगोत्री न माने जायेंगे ? अव्रत रहते हुए भी क्या गोत्र बदल सकता है ? समाधान-षट्खण्डागम पुस्तक १३, पृष्ठ ३८८ पर उच्चगोत्रके कार्य के विषयमें यह शंका उठाई गयी है कि उच्चगोत्रका कार्य राज्यादि संपदाकी प्राप्ति, महाव्रतों, अणुव्रतों तथा सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति, इक्ष्वाकू कूल आदिमें उत्पत्ति नहीं है क्योंकि इनसे अन्यत्र जीवमें भी उच्चगोत्रका उदय पाया जाता है। इसलिये उच्चगोत्र निष्फल है, उसमें कर्मपना भी घटित नहीं होता? इसका समाधान करते हुए श्री वीरसेन स्वामीने लिखा है (१) उच्चगोत्र न माननेसे जिन वचन (आगम) से विरोध आता है, (२) केवलज्ञानद्वारा विषय किये गये सभी अर्थोंमें छद्मस्योंके ज्ञान प्रवत्त भी नहीं होते हैं। यदि छद्मस्थोंको कोई अर्थ उपलब्ध नहीं होते हैं तो इससे जिनवचनोंको अप्रमाण नहीं कहा जा सकता। (३) गोत्रकर्म निष्फल है, यह बात भी नहीं है क्योंकि जिनका दीक्षायोग्य साधु आचार है. साध आचार वालोंके साथ जिन्होंने संबन्ध स्थापित किया है तथा जो 'आर्य' इसप्रकारके ज्ञान और वचन व्यवहारके निमित्त हैं-उन पुरुषोंकी परम्पराको उच्चगोत्र कहा जाता है तथा उनमें उत्पत्तिका कारणभत कर्म भी उच्चगोत्र है। षटखण्डागमकी धवलाटीकाके इस कथनसे यह बात स्पष्ट है कि हमको उच्चगोत्रके विषयमें विशेष जानकारी नहीं है। इसपर भी जन्मसे उच्चगोत्र कहा है तथा कहींपर कर्मसे भी। जैन चक्रवर्तीके संबंधी म्लेच्छखण्डी जो चक्रवर्तीके साथ आर्यखण्डमें आकर दीक्षित हो गये थे वे कर्मसे उच्चगोत्र वाले हैं। बौद्धधर्ममें दीक्षित शूद्र ५० साल पश्चात् उच्चगोत्री नहीं हो सकता। अव्रत रहते हुए गोत्र-परिवर्तन नहीं हो सकता, ऐसा समझमें आता है ।" मैंने जो शंका-समाधानका यह अवतरण यहाँपर दिया है, उसका कारण यह है कि पाठक प्रत्येक बातको ठीक तरहसे समझ सकें। मेरा सामान्यरूपसे ख्याल यह है कि विद्वान वस्तुतत्त्वके निर्णयमें आगमकी अपेक्षा तर्कसे काम लें और उसका आगमके साथ केवल आवश्यक समन्वय मात्रका ध्यान रखें, तो संस्कृति संबंधी बहुत-सी गुत्थियाँ अनायास सुलझ जावेंगी, इस तरह विद्वान् संस्कृति और समाजके महान् उपकारक सिद्ध होंगे। कर्मसंबंधी गुत्थी भी बड़ी जटिल है। उसके एक अंश गोत्रके विषयमें यहाँपर विचार किया जा रहा है। समयानुसार अन्तराय आदि दूसरे अंशोंपर भी विचार किया जायगा। गोत्रकर्मपर विचार करनेसे पहले मैं पाठकोंको एक बात सुझाना चाहता हूँ कि फल देनेमें कर्मके लिये नोकर्म सहायता प्रदान करता है । आगममें भी नोकर्मको कर्मका सहायक कर्म माना गया है, इसका अभिप्राय यही है कि कर्म जीवको अपना फल देने में नोकर्मके साहाय्यकी अपेक्षा रखता है। यह बात इतनी स्पष्ट होते हुए भी आधुनिक और बहुतसे भूतकालीन विद्वानोंने इस सिद्धान्तको मान्यता दे रखी है कि कर्म और नोकर्ममें भी कार्य-कारणभाव है अर्थात् जीवको कर्मफल भोगनेमें नोकर्मका Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ समागम भी कमसे ही प्राप्त होता है। जैसे-साता और असाता वेदनीय कर्मोंका कार्य जीवको क्रमशः साता और असाताका अनुभव कराना है । लेकिन विद्वान् मानते हैं कि साता और असातारूप अनुभवनके अनुकूल साधनोंको जुटाना भी क्रमशः साता और असाता वेदनीय कर्मोका ही कार्य है। यहाँपर हमें (विद्वानोंको) कम-से-कम यह तो सोचना चाहिये कि जब साता और असाता वेदनीय कम जीवको अपना फल सहायक साधनोंके अभावमें नहीं दे सकते हैं तो फिर सहायक साधनोंको जुटाना साता और असाता वेदनीय कर्मोंका कार्य कैसे माना जा सकता है ? कारण कि सहायक साधनोंको जुटाना कर्मका फल मान लेनेसे उक्त मान्यताके अनुसार उसमें भी सहायक साधनोंके समागमको आवश्यकता उत्पन्न हो जायगी, इस तरह साता और असाता वेदनीय कर्मोके कार्यमें अनवस्थिति दोषका प्रसंग उपस्थित हो जायगा। इसलिये यही मानना उचित है कि सहायक साधनोंको जुटाना साता और असाता वेदनीय कर्मोंका कार्य नहीं है, बल्कि स्वपुरुषार्थ या परपुरुषार्थसे अथवा अन्य प्रकारसे अनायास ही जीवको जब साता-सामग्री या असाता सामग्री प्राप्त हो जाती है, तब साता और असाता वेदनीय कर्म जीवको अपना फल साता और असाताके रूपमें देने लगते हैं । बस ! यही बात उच्चगोत्र और नीचगोत्र कर्मोके विषयमें भी समझना चाहिये । तात्पर्य यह है कि उच्चगोत्र और नीचगोत्र कर्मोंका कार्य जीवमें क्रमशः उच्चता और नीचताका व्यवहार कराना है । परन्तु उच्चगोत्र कर्म जीवमें उच्चताका व्यवहार करानेके लिये उसके (जीवके) उच्चकूलमें पैदा होने अथवा उसकी ( जीवकी) उच्च आचाररूप प्रवृत्ति होने रूप सहायक साधनोंकी अपेक्षा रखता है। इसी प्रकार नीचगोत्रकर्म जीवमें नीचताका व्यवहार करानेके लिये उसके (जीवके ) नीचकुलमें पैदा होने अथवा उसकी ( जीवकी) नीच आचाररूप प्रवृत्ति होने रूप सहायक साधनोंकी अपेक्षा रखता है, इसप्रकार जीवका उच्चकुलमें पैदा होना अथवा उसकी उच्च-आचाररूप प्रवृत्ति होना उच्चगोत्रकर्मका तथा जीवका नीच कुलमें पैदा होना अथवा उसकी नीच आचाररूप प्रवृत्ति होना नीचगोत्रकर्मका कार्य कदापि नहीं माना जा सकता है । अन्यथा पूर्वोक्त प्रकारसे अनवस्थिति दोषका प्रसंग साता और असाता वेदनीय कर्मोकी तरह यहाँपर भी उपस्थित हो जायगा। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि जीवका उच्च या नीच कूलमें पैदा होना अथवा उसकी उच्च या नीच आचारणरूप प्रवृत्ति होना उच्च और नीचगोत्र कर्मोंका कार्य नहीं है बल्कि कोई जीव जब उच्चकुलमें पैदा होता है अथवा उच्च आचाररूप प्रवृत्ति करने लगता है तो इनकी सहायतासे उच्चगोत्रकर्म उस जीवमें उच्चताका व्यवहार कराने लगता है। इसी तरह जब कोई जीव नीचकुलमें पैदा हो जाता है अथवा नीच आचार-रूप प्रवृत्ति करने लगता है तब इनकी सहायतासे नीचगोत्रकर्म उस जीवमें नीचताका व्यवहार कराने लगता है। जीवका उच्चकुलमें पैदा होना अथवा उसकी उच्च आचाररूप प्रवत्ति होना उच्चगोत्र कर्मके और जीवका नीचकूलमें पैदा होना अथवा उसकी नोच आचाररूप प्रवृत्ति होना नीचगोत्रकर्मके नोकर्म (सहायक कर्म) होनेके कारण ही लोक जीवमें उच्चता और नीचताका व्यवहार जन्मना और कर्मणा दोनों प्रकारसे किया करता है । परन्तु जैन संस्कृति जन्मसे उच्च-नीच व्यवहारको महत्त्व नहीं देती है। वह तो जीवकी उच्च और नीच आचाररूप प्रवृत्तियोंसे ही उसमें (जीवमें) उच्च और नीच व्यवहारकी हामी है। यही कारण है कि जैन संस्कृतिमें गोत्र-परिवर्तनका सिद्धान्त स्वीकार किया गया है और यह बात इसलिये असंगत नहीं मानी जा सकती है कि कन्या जब विवाहित हो जाती है, तो उसका पितृगोत्रसे संबंध विच्छेद होकर पतिगोत्रसे संबन्ध स्थापित हो जाता है। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : १३५ जैन संस्कृतिमें जीवकी उच्च-नीच आचार-प्रवृत्तियोंके आधारपर ही उसमें (जीवमें) उच्च-नीच व्यवहार माननेका मुख्य कारण यह है कि वहाँपर (जैन संस्कृतिमें) उच्च और नीच सभी प्रकारके कुलोंकी व्यवस्था भी उस-उस प्रकारके उच्च और नीच आचारके आधारपर ही स्वीकार की गयी है । जैसे-चमारके कुलमें उन्पन्न होनेवाला व्यक्ति चमार तो कहलाता है परन्तु वह कुल, जो चमार कहलाता है, उसका मूलकारण यही है कि उस कुलमें चमड़े का कार्य किया जाता है। इसीप्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों तथा सुनार, लुहार, बढ़ई, कुम्हार आदि जातियों (जो कुलके ही नामान्तर है) के नामकरण भी मनुष्योंके उसउस प्रकारके आचारके आधारपर ही स्वीकार किये गये हैं। लोकमें उक्त सभी प्रकारके आचारोंमेंसे जिस-जिस आचारको उच्च माना गया है उसके आधारपर उस कुलको उच्च और जिस-जिस आचारको नीच माना गया है उसके आधारपर उस-उस कुलको नीच मान लिया गया है। यद्यपि देशविशेष, प्रान्तविशेष, व्यक्तिविशेष आदि दूसरे विविधप्रकारके आधारोंपर भी जातियोंका निर्माण हुआ है । परन्तु जीवोंकी उच्चता और नीचताके व्यवहारमें इनका कुछ भी उपयोग नहीं होता। इसी प्रकार जैन, बौद्ध, वैष्णव, आर्यसमाज, मुसलमान, ईसाई आदि जातियोंका निर्माण उस-उस संस्कृतिकी मान्यताके आधारपर हुआ है । लेकिन इनको भी जीवोंको उच्चता और नीचताका द्योतक नहीं माना जा सकता है। प्रायः लोगोंका ख्याल है कि धर्माचरण उच्चताका और अधर्माचरण नीचताका व्यवहार करानेमें कारण है परन्तु उनकी यह धारणा बिल्कुल गलत है, कारण कि लोकव्यवहारमें यह भी देखा जाता है कि अधर्माचरण करनेवाला ब्राह्मण उच्चगोत्री माना जाता है और धर्माचरण करनेवाला शूद्र नीचगोत्री ही माना जाता है । जैन संस्कृतिमें भी मिथ्यादृष्टि जीवोंको भी उच्चगोत्री और देशविरत (पंचम गुणस्थानवर्ती) जीवोंको भी नीचगोत्री स्वीकर किया गया है । इस तरह यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि प्रत्येक जीवके कुलपरंपरागत जीवन-संरक्षणके लिये किये जानेवाले प्रयत्नोंकी उच्चता और नीचताके आधारपर ही उनमें उच्चता और नीचताका व्यवहार करना उचित है। "संतानकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदि सण्णा । उच्चं णीचं चरणं उच्च णीचं हवे गोदं ।"-(गोम्मटसारकर्मकाण्ड)। यह गाथा भी हमें यही उपदेश देती है कि जीवों द्वारा अपने जीवनसंरक्षण (जीविका)के लिये अपनाया गया जो कुलपरम्परागत पेशा है वही गोत्र है। वह गोत्र (पेशा) उच्च और नीच दो प्रकारका है । गाथामें गोत्रसम्बन्धी यह वर्णन वास्तवमें मनुष्यजातिको लक्ष्यमें रखकर किया गया है। फिर भी इतना तो निश्चित समझना चाहिये कि गाथाके "जीवाचरण" शब्दका अर्थ जीविका (जोववृत्ति) ही है। इस तरह नारकजातिके जोवोंमें या तो जीवनवृत्तिका सर्वथा अभाव है अथवा उनको जीववत्ति कष्टमय है. इस तरह नारकियोंकी जीवनवृत्तिमें नीचताका व्यवहार उपयुक्त होनेके कारण सभी नारकी जीव नीचगोत्री माने गये हैं । तिर्यग्गतिके जीवोंकी जीवनवृत्ति क्रूरता और दीनताको लिये हुए कष्टमय होनेके कारण नीच है. अतः सभी तिर्यंच भी नीचगोत्री माने गये हैं। देवोंकी वृत्तिको सात्विकवृत्ति कहा जा सकता है, अतः सभी देव उच्चगोत्री मान लिये गये हैं। मानववर्गको चार भागोंमें विभक्त किया गया है। उनमेंसे ब्राह्मणोंकी वत्तिको सात्विक तथा क्षत्रियों और वैश्योंकी वृत्तिको राजस माना गया है। ये दोनों प्रकारको वृत्तियाँ लोकमें उच्च Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन - प्रन्थ गयी हैं । अतः ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णके सभी मनुष्य उच्चगोत्री माने गये हैं । शूद्रोंकी वृत्ति दीनवृत्ति होनेके कारण तामसवृत्ति है । लोकमें तामसवृत्ति नीचवृत्ति कही जाती है, अतः सभी शूद्र नीचगोत्री ये हैं । इनके अतिरिक्त म्लेच्छवृत्तिको अपनानेवाले भी मनुष्य होते हैं । म्लेच्छवृत्ति भी चूँकि क्रूरवृत्ति होनेके कारण तामसवृत्ति मानो गयी है, अतः म्लेच्छमानव भी नीचगोत्री माने गये हैं । भोगभूमिके तियंचदोनवृत्ति के कारण नीचगोत्री और भोगभूमिके मनुष्य सात्विकवृत्तिके कारण उच्चगोत्री माने गये है । इस तरह मानवजाति में उच्च और नीच दोनों गोत्रवाले जीवोंका अस्तित्व स्वीकार किया गया है । जो मनुष्य 'अपने गार्हस्थ्य जीवनको लाँघकर साधुमार्गको अपना लेते हैं उनकी वृत्ति जैन संस्कृतिके अनुसार सात्विक हो जाती है । अतः साधुओंकी श्रेणीमें पहुँचा हुआ नीचगोत्री मनुष्य भी उस हालत में उच्चगोत्री हो जाता है । इस तरह शूद्रको नीचगोत्री होनेके कारण दीक्षा लेनेका जो निषेध किया जाता है, वह उचित नहीं है बल्कि यही मानना उचित है कि यदि कोई शूद्र कदाचित् अपने गार्हस्थ्य जीवनको लाँघकर साधुजीवनमें प्रवेश कर जाये, तो उसका नीचगोत्र बदलकर उच्चगोत्र हो जायगा । कारण कि साधुजीवनमें प्रवेश पानेसे उसकी गार्हस्थ्यजीवन सम्बन्धी शूद्रकुलवृत्ति समाप्त होकर साधुजीवन सम्बन्धी सात्विकवृत्ति हो जावेगी । यदि कहा जावे कि कम-से-कम अस्पृश्य शूद्रको तो दीक्षा लेनेका निषेध होना ही चाहिये, तो मैं कहूँगा कि शूद्रोंमें अस्पृश्यता और स्पृश्यताका भेद ब्राह्मण (वैदिक) संस्कृतिकी ही देन है । जैन संस्कृतिमें अस्पृश्यताको कोई स्थान प्राप्त नहीं है । ऊपर के कथनसे यद्यपि यह बात सिद्ध होती है कि शूद्र बौद्ध संस्कृतिमें दीक्षित होनेपर ५० वर्ष बाद भी उच्चगोत्री नहीं हो सकता है, कारण कि कोई भी संस्कृति गोत्रपरिवर्तनमें कारण नहीं होती है । परन्तु संस्कृति बदले या न बदले, फिर भी यदि कौलिक आचार ( जीवनवृत्ति) बदल जाता है तो किसी भी समय शूद्र (नीचगोत्री) उच्चगोत्री और उच्चगोत्री नीचगोत्री हो जायगा । इससे इस बातका भी निषेध हो जाता है कि अव्रत रहते हुए गोत्रपरिवर्तन नहीं हो सकता है। कारण कि धर्म उच्चगोत्रका और अधर्म नीचगोत्रका कारण नहीं है । साधुजीवनको जो गोत्रपरिवर्तनमें कारण माना है वह धार्मिक वृद्धिके कारण नहीं, बल्कि जीवनवृत्ति बदल जानेके कारण ही वहाँ गोत्रपरिवर्तन माना गया है । उक्त विषयको कर्म सिद्धान्तकी दृष्टिसे भी स्पष्ट कर देना मैं उचित समझता हूँ - आयुकर्मकी सब प्रकृतियोंको छोड़कर शेष सातावेदनीय और असातावेदनीय, उच्चगोत्र और नीचगोत्र तथा चारों गति आदि परस्पर विरोधी जितनी कर्म प्रकृतियाँ हैं उन सबकी प्रत्येक जीवमें अपनी-अपनी सीमा तक एक साथ सत्ता स्वीकार की गयी है । इन प्रकृतियोंके बन्धके विषयमें ऐसा कोई नियम नहीं है कि नीचगोत्री उच्चगोत्रका और उच्चगोत्री नीचगोत्रका बन्ध नहीं करता है बल्कि यहाँ तक संभव है कि कोई जीव प्रथम क्षणमें यदि नीचगोत्रका बन्ध कर रहा हो तो वही जीव द्वितीय क्षण में उच्चगोत्रका भी बन्ध कर सकता है । यही बात उक्त साता और असाता वेदनीय तथा चारों गति आदि सभी परस्पर विरोधी प्रकृतियोंमें भी लागू होती है । इन सब प्रकृतियोंकी अन्तरालरहित निषेक रचना अपने-अपने अबाघाकालको छोड़कर स्थितिके अनुसार बन्धके साथ हो हो जाया करती है । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जहाँ तक संभव है वहाँ तक एक भी क्षण ऐसा परिलक्षित नहीं होता, जिस क्षण में परस्पर विरोधी उक्त कर्मप्रकृतियोंके निषेकोंकी सत्ता न पायी जाती हो । प्रत्येक कर्मप्रकृतिके प्रत्येक निषेकका अपने-अपने समयमें खिरनेका नियम है। इस तरह जिस क्षण में उच्चगोत्रका निषेक खिरता है उसी क्षणमें उसका विरोधी नीचगोत्रका निषेक भो खिरता है । यह खिरना तीन प्रकारसे संभव हैं - संक्रमण होकर, फल देकर और फल न देकर । संक्रमणका अर्थ यह है कि उच्चगोत्र Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १३७ का निषेक कभी-कभी नीचगोत्रका निषेक बनकर खिरता है और इसी तरह नीचगोत्रका निषेक कभी-कभी उच्चगोत्रका निषेक बनकर खिरता है । फल देकर और फल नहीं देकर खिरनेका अर्थ यह है कि यदि खिरते समय उच्चगोत्रके निषेकको नोकर्मकी सहायता प्राप्त हो जाती है तो उच्चगोत्रका निषेक तो फल देकर खिरता है और उस समय नीचगोत्रका निषेक बिना फल दिये ही खिर जाता है। इसी तरह यदि खिरते समय नीचगोत्रके निषेकको नोकर्मकी सहायता प्राप्त हो जाती है तो नीचगोत्रका निषेक तो फल देकर खिरता है और उच्चगोत्रका निषेक बिना फल दिये ही खिर जाता है। यही व्यवस्था साता और असाता आदि परस्पर विरोधी सभी कर्मप्रकृतियोंके निषकोंके खिरने में लागू होती है। कर्मसिद्धान्तके इस विवेचनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि जीवको एक ही भवमें जिस प्रकार अपनेअपने अनुकूल नोकर्मकी सहायतासे कभी सातावेदनीय और कभी असातावेदनीय कर्म अपना फल देते रहते हैं। इसी प्रकार जीवको एक ही भवमें अपने-अपने अनुकूल नोकर्मको सहायतासे कभी उच्चगोत्र और कभी नीचगोत्र कर्म भी अपना-अपना फल दे सकते हैं । चूँकि नारकी, तिर्यंच, देव इन तीनों गतियोंमें तथा भोगभूमिमें कहीं उच्चगोत्रका और कहीं नीचगोत्रका हो नोकर्म नियमसे रहता है, अतः नारकियों, तिर्यंचों, देवों और भोगभूमिके तिर्यचों तथा मनुष्योंका गोत्रपरिवर्तन नहीं होता है। परन्तु कर्मभूमिज मनुष्योंके जीवनमें पूर्वोक्त प्रकार जीवनवृत्ति बदलनेकी संभावनाके आधारपर उच्चगोत्र और नीचगोत्र दोनोंके नोकर्ममें परिवर्तनकी संभावना बनी रहती है, अतः कर्मभूमिज मनुष्योंके गोत्रपरिवर्तन स्वीकार किया गया है। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुज्यमान आयुमें अपकर्षण और उत्कर्षण कई विद्वानोंका ऐसा मत है कि भुज्यमान किसी भी आयुमें उत्कर्षणकरण नहीं होता, अपकर्षणकरण भी भुज्यमान तिर्यगायु और मनुष्यायुमें ही हो सकता है, कारण इन दोनोंको उदीरणा संभव है । भुज्यमान देवाय और नरकाय अनपवर्त्य होनेके कारण उदीरणारहित है; इसलिये इनमें अपकर्षणकरण भी नहीं होता है । आयुकर्ममें यदि उत्कर्षण, अपकर्षणकरण हों तो वे वध्यमानमें ही होंगे। वध्यमान आयुमें उत्कर्षण, अपकर्षणकरण होते हैं, इसमें किसीका विवाद नहीं, लेकिन अभीतक मेरा ख्याल है कि भुज्यमान सम्पूर्ण आयुओंमें भी उत्कर्षण, अपकर्षणकरण हो सकते हैं, इसका कारण यह है कि भुज्यमान तिर्यगायु और मनुष्यायुको उदीरणा तो सर्वसम्मत है; भुज्यमान देवायु और नरकायुकी भी उदीरणा सिद्धान्तग्रन्थोंमें बतलाई है संकमणाकरणूणा णवकरणा होति सव्य-आऊणं ।। गोम्मट० कर्म० गा० ४४१ । एक संक्रमणकरणको छोड़कर बाकीके बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, उदीरणा, सत्व, उदय, उपशान्त, निधत्ति और निकाचना ये नवकरण संपूर्ण आयुओंमें होते हैं। किसी भी कर्मको उदीरणा उसके उदयकालमें ही होती है; कारण उदीरणाका लक्षण निम्न प्रकार माना गया है : अण्णत्थठियस्सुदये संथहणमुदीरणा हु अत्थि तं ॥ गो० कर्म० गा० ४३९ । सं० टी०-उदयावलिवाह्यस्थितस्थितिद्रव्यस्यापकर्षणवशादुदयावल्यां निक्षेपणमुदीरणा खलु । उदयावलीके द्रव्यसे अधिक स्थितिवाले द्रव्यको अपकर्षणकरणके द्वारा उदयावलीमें डाल देना अर्थात् उदयावलीप्रमाण उस द्रव्यको स्थिति कर देनेका नाम उदोरणा है। उदयगतकर्मके वर्तमान समयसे लेकर आवली पर्यन्त जितने समय हों उन सबके समहको उदयावली कहा गया है। इससे यह निष्कर्ष निकला कि कर्मकी उदीरणा उसके उदय हालतमें ही हो सकती है। परभव-आउगस्स च उदीरणा णत्थि णियमेण ।। -गोकर्म० गा० १५९ । यह नियम स्पष्टरूपसे परभवको (बध्यमान) आयुकी उदीरणाका निषेध कर रहा है। उदयाणमावलिह्मि च उभयाणं बाहिरम्मि खिवण→ । लब्धिसार, गा० ६८ । अर्थात-उदयावलीमें उदयगत प्रकृतियोंका ही क्षेपण होता है। उदयावलीके बाहिर उदयगत और अनुदयगत दोनों तरहकी प्रकृतियोंका क्षेपण होता है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि जिस कर्मका उदय होता है उसीका उदयावली-बाह्यद्रव्य उदयावलीमें दिया जा सकता है। इसलिये देवायु और नरकायुकी उदीरणा क्रमसे देवगति और नरकगतिमें होगी, अन्यत्र नहीं, अर्थात् भुज्यमान देवायु और नरकायुको ही उदीरणा हो सकती है, वध्यमान की नहीं । शंका-परभव-आउगस्स च उदीरणा णत्थि णियमेव ॥ -गो० कर्म० गा० ९१८ । सं० टोका-परभवायुषो नियमेनोदीरणा नास्ति, उदयगतस्यैवोपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुर्योऽन्यत्र तत्संभवात् ॥ अर्थात्-परभवकी (वध्यमान) आयुकी नियमसे उदीरणा नहीं होती, कारण कि देव, नारकी, | Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १३९ चरमोत्तमदेहके धारक तथा असंख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य-तियंचोंको छोड़कर बाकीके जीवोंके उदयगत आयुकी ही उदीरणा संभव है । इस कथनसे यह बात निकलती है कि देवायु और नरकायुकी उदीरणा हो नहीं होती है तथा पूर्वकथनसे यह सिद्ध होता है कि देवायु और नरकायुकी भी उदीरणा होती है; इसलिये शास्त्रोंमें ही पूर्वापर विरोध आता है ? उत्तर - शास्त्रों में उदीरणा दो तरहकी बतलायी है— एक तो अन्य निमित्तसे मरण हो जानेको उदीरणा कहते हैं, दूसरी स्वतः आत्माकी क्रियाविशेषसे उदयावली बाह्यद्रव्यको उदयावलीमें डाल देने को उदीरणा कहते हैं । ऐसी उदीरणा देवायु और नरकायुकी भी होती हैं, उदीरणामरण नहीं होता । आचार्य - कल्प पं० टोडरमलजी इस शंकाका निरास इस प्रकार करते हैं- " बहुरि उदीरणाशब्दका अर्थ जहाँ देवादिकके उदीरणा न कही तहाँ तो अन्य निमित्ततें मरण होय ताका नाम उदीरणा है । अर दश करणनिके कथनविर्षे उदीरणाकरण देवायुके भी कहा, तहाँ ऊपर के निषेकनिके द्रव्यको उदयावली विषे दीजिये, ताका नाम उदीरणा है - मोक्ष० प्रकाश, पुस्तकाकार, पु०-४२१ । इस प्रकार शास्त्र के दोनों प्रकारके कथनोंको आपेक्षिक कथन स्वीकार करनेसे पूर्वापर विरोधको शंका नहीं रहती है । कर्मोकी उदीरणा अपकर्षणपूर्वक ही होती है । जबतक कर्मके द्रव्यको स्थितिका अपकर्षण नहीं होगा तबतक उस द्रव्यका उदयावली में प्रक्षेप नहीं हो सकता है, कारण कि उदयावलीमें प्रक्षेपका मतलब ही यह है कि जो कर्मद्रव्य अधिक समयमें उदय आने योग्य था वह अब उदयावलीमें ही उदय आकर नष्ट हो जायगा । इसी अभिप्राय से कर्मकाण्डकी संस्कृत टीकाकारने उदीरणाके लक्षण में "अपकर्षणवशात्" यह पद दिया है। इस कथन से भुज्यमान देवायु और नरकायुमें अपकर्षणकरण होता है, यह बात सिद्ध हो जाती है । "हाणी ओक्कट्टणं णाम", "उक्कट्टणं हवे वड्ढी" || गो० कर्म० गा० ४३८ । सं० टी० -- स्थित्यनुभागयोर्हानिरपकर्षणम् स्थित्यनुभागयोवृधिरुत्कर्षणम् ॥ hi स्थिति और अनुभागको घटा देना अपकर्षण है और बढ़ा देना उत्कर्षण है । शुभ प्रकृतियोंके स्थिति और अनुभाग में कमी संक्लेशपरिणामोंसे होती है और वृद्धि विशुद्ध परिणामोंसे होती है । अशुभ प्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग में हानि विशुद्ध परिणामोंसे होती है और वृद्धि संक्लेशपरिणामोंसे होती है । देवायु शुभप्रकृति है, इसलिये उसके स्थिति और अनुभाग में कमी संक्लेशपरिणामोंसे होगी और वृद्धि विशुद्ध परिणामोंसे होगी । इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब देवोंके संक्लेशता होनेसे देवायुका अपकर्षण हो सकता है तो विशुद्धता होनेसे देवायुका उत्कर्षण होना भी न्यायसंगत है । इसीप्रकार नरकायु अशुभ प्रकृति है, इसलिये उसके स्थिति और अनुभाग में कभी विशुद्ध परिणामोंसे होगी और वृद्धि संक्लेश परिणामोंसे होगी; इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब नारकियोंके विशुद्धता होनेसे नरकायुका अपकर्षण हो सकता है तो संक्लेशता होने से नरकायुका उत्कर्षण होना भी न्यायसंगत है । इस प्रकार भुज्यमान देवायु और नरकायुमें भी अपकर्षण और उत्कर्ष सिद्ध होते हैं । इसी प्रकार भुज्यमान तिर्यगायु और मनुष्या युमें भी अपकर्षणकरणको तरह उत्कर्षण करण स्वीकार करना चाहिये । शंका -- किसी भी कर्म प्रकृतिका उत्कर्षण उसकी बन्धव्युच्छित्तिके पहिले तक ही होता है । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन- प्रन्य बंधुक्कट्टणकरणं सग-सग बंन्धोत्ति नियमेण ॥ ४४४ ॥ कर्म० || इससे यह निष्कर्ष निकला कि आत्माकी जो अवस्था जिस कर्मप्रकृतिके बन्धमें कारण पड़ती है उसी अवस्था में उस प्रकृतिका उत्कर्षण हो सकता है । वर्तमान भवमें उत्तर भवकी आयुका ही बन्ध होता हैवर्तमान (भुज्यमान) का नहीं । इसलिये भुज्यमान आयुका उत्कर्षण भी नहीं हो सकता है ? उत्तर -- बन्धव्युच्छित्ति के पहिले-पहिले ही उत्कर्षण होता है, यह कथन उत्कर्षणकी मर्यादाको बतलाता है अर्थात् जहाँतक जिस प्रकृतिका बंध हो सकता है वहींतक उस प्रकृतिका उत्कर्षण होगा, आगे नहीं । इसका यह आशय नहीं कि आत्माकी जो अवस्था कर्मप्रकृतिके बन्धमें कारण है उसी अवस्थामें उस प्रकृतिका उत्कर्षण हो सकता है, अन्यत्र नहीं । यदि ऐसा माना जाय, तो उत्कर्षणकरणको त्रयोदशगुणस्थान तक मानना असंगत ठहरेगा । छच्च सजोगित्ति तदो || कर्म० गा० ४४२ | संयोगीपर्यन्त उत्कर्षण, अपकर्षण, उदय, उदीरणा, बन्ध और सत्व ये ६ करण होते हैं । लेकिन स्थिति अनुभागकी वृद्धिको उत्कर्षणकरण माना गया है, यहाँ आत्माकी कोई भी अवस्था किसी भी कर्मके स्थिति अनुभागबन्ध में कारण नहीं, तब ऐसी हालत में उस कर्मके स्थिति और अनुभागका उत्कर्षण भी नहीं सकेगा । किन्तु जब उक्त वचनको उत्कर्षणकी मर्यादा बतलानेवाला मान लेते हैं तो कोई विरोध नहीं रहता, कारण कि त्रयोदशगुणस्थान में सातावेदनीयका प्रकृति- प्रदेशबन्ध होता ही है । इसलिये उसीका उत्कर्षण भी त्रयोदशगुणस्थानतक होगा, अन्यका नहीं, ऐसा संगत अर्थ निकल आता है । उक्त वचन मर्यादासूचक ही है । इसमें दूसरा प्रमाण यह है कि संक्रमणकरण कोसंकमणं करणं पुण सग-सग जादीण बंधोत्ति ॥ कर्म० ४४४ ॥ इस वचनके द्वारा अपनी-अपनी सजातीय प्रकृतिके बन्धपर्यन्त बतला करके भी - णवर विसेसं जाणे संकममवि होदि संतमोहम्मि || मिच्छस्स यमिस्सस्स य सेसाणं णत्थि संकमणं ॥ कर्म० ४४३ । इस वचनके द्वारा मिथ्यात्व और मिश्रप्रकृतिका संक्रमण ११ वें गुणस्थान तक बतलाया है । इसलिये जिस प्रकार यह वचन संक्रमणके लिये यह नियम नहीं बना सकता कि आत्माकी जिस अवस्थामें जिस कर्मकी सजातीय प्रकृतियों का बन्ध हो सकता है उसी अवस्था में उस कर्मका संक्रमण होगा, दूसरी अवस्थामें नहीं, इसी प्रकार उक्त वचन उत्कर्षणके लिये भी ऐसा नियमसूचक नहीं है । इस लेखका सारांश यह हुआ कि चारों भुज्यमान आयुओंकी उदीरणा हो सकती है और उदीरणा अपकर्षणपूर्वक ही होती है। इसलिये चारों भुज्यमान आयुओंमें अपकर्षण भी सिद्ध हो जाता है। शुभ प्रकृतियोंका अपकर्षण संक्लेश परिणामोंसे और अशुभका विशुद्ध परिणामोंसे होता है । जब चारों आयुओंके अपकर्षणके योग्य शुभ-अशुभकी अपेक्षा संक्लेश या विशुद्ध परिणाम चारों गतियोंमें पैदा हो सकते हैं तो उनके उत्कर्षण के योग्य उनसे विपरीत परिणाम भी चारों गतियोंमें पैदा हो सकते हैं । इसलिये चारों भुज्यमान आयुओंमें उत्कर्षण भी सिद्ध हो जाता है । यह लेख मैंने अपनी शंकाको दूर उनको मेरे ये विचार विपरीत मालूम पड़ें, ताकि इस बातका निर्णय हो सके । करनेके लिये लिखा है । इसलिये विद्वानोंसे तो अपने विचार प्रमाणसहित अवश्य ही जैन निवेदन है कि यदि दर्शनमें प्रकट करें, Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या असंज्ञी जीवोंमें मनका सद्भाव है ? श्री डॉ० हीरालाल जैन एम० ए० नागपुरने अखिल भारतीय प्राच्य-विद्या सम्मेलनके १६वें अधिवेशनके समय प्राकृत और जैनधर्म विभागमें जो निबन्ध पढ़ा था उसका हिन्दी अनुवाद 'असंज्ञी जीवोंकी परंपरा' शीर्षकसे अनेकान्तपत्रके वर्ष १३ की संयक्त किरण ४-५ और ७ में प्रकाशित हआ है। डॉ० साहबके निबन्धका सारांश यह है कि असंज्ञी माने जाने वाले एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय और पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके जब मति और श्रत दोनों ज्ञानोंका सद्भाव जैन आगममें स्वीकार किया गया है तो निश्चित ही उन सभी जीवोंके मनका सद्भाव सिद्ध होता है कारण कि मति और श्रुत ये दोनों ही ज्ञान मनकी सहायताके बिना किसी भी जीवके सम्भव नहीं है । अभी तककी प्रचलित दि० आगमपरंपरा यह है कि जिन जीवोंके मनका सद्भाव पाया जाता है वे जीव संज्ञी और जिन जीवोंके मनका सद्भाव नहीं पाया जाता है वे जीव असंज्ञी कहे जाते हैं । परन्तु डॉ० साहबने संज्ञी जीवोंके साथ असंज्ञी जीवोंका अन्तर दिखलाने के लिये अमनस्क शब्दका मनरहित अर्थ न करके 'ईषत् मन वाला' अर्थ किया है। डॉ० साहबने अपने उक्त विचारोंकी पुष्टि आगमके कतिपय उद्धरणों और युक्तियों द्वारा की है । इन्द्रियजन्य सभी प्रकारके मतिज्ञानमें मनकी सहायता अनिवार्य है-यह विचार न तो आज तक मेरे मनमें उठा और न अब भी मैं इस बातको माननेके लिये तैयार हैं । परंतु समूचे जैन आगममें असंज्ञी जीवोंके श्रुतज्ञानकी सत्ता स्वीकार करनेसे मेरे मनमें यह विचार सतत उत्पन्न होता रहा कि श्रुतज्ञान, जो कि मनके अवलम्बनसे ही उत्पन्न होता है, मन रहित असंज्ञी जीवोंके कैसे सम्भव हो सकता है ? प्रायः वर्तमान समयके सभी दि० विद्वान असंज्ञी जीवोंके मनका अभाव निश्चित मानते हैं; इसलिये उनके (असंज्ञी जीवोंके) आगममें स्वीकृत श्रुतज्ञानकी सत्ता स्वीकार करके भी वे विरोधका परिहार इस तरह कर लेते हैं कि असंज्ञी जीवोंके मन का अभाव होनेके कारण लब्धिरूप हो श्रुतज्ञान पाया जाता है क्योंकि उपयोगरूप श्रुतज्ञान मनके सद्भावके बिना उनके (असंज्ञी जीवोंके) संभव नहीं है। दि० विद्वानोंका उक्त निष्कर्ष मझे संतोषप्रद नहीं मालूम होता है। अतः मेरे सामने आज भी यह प्रश्न खड़ा हुआ है कि मनके अभावमें असंज्ञी जीवोंके श्रुतज्ञानकी संगति किस तरह बिठलाई जावे ? श्वे० आगमग्रंथ विशेषआवश्यकभाष्यका वह प्रकरण, जिसका उद्धरण डॉ० साहबने अपने निबन्धमें दिया है और जिसमें एकेन्द्रिय आदि समस्त असंज्ञी जीवोंके भी तरतमभावसे मनकी सत्ताको स्वीकार किया गया है। करीब २० वर्ष पहले मेरे भी देखने में आया था। लेकिन उससे भी मेरे उक्त प्रश्नका उचित समाधान नहीं होता है, क्योंकि असंज्ञी जीवोंके मनके अभावमें लब्धिरूप श्रुतज्ञानकी सत्ताको स्वीकार करने और उनके ईषत-मनका सद्भाव स्वीकार करके उपयोगरूप श्रुतज्ञानकी सत्ता स्वीकार करने में असंतोषप्रद स्थितिका विशेष अन्तर नहीं है। चूंकि डॉ० साहबने उक्त विषयमें अपने विचार लिपिबद्ध किये हैं, अतः इस विषयपर मेरे अब तकके चितनका जो निष्कर्ष है उसे मैं भी विद्वानोंके समक्ष उपस्थित कर देना उचित समझता हूँ। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ ज्ञानकी उत्पत्ति दो प्रकारसे सम्भव है-स्वापेक्ष और परापेक्ष । अवधि, मनःपर्यय और केवल इन तीनोंकी उत्पत्ति स्वापेक्ष मानो गई है तथा मति और श्रुत इन दोनों ज्ञानोंको उत्पत्ति परापेक्ष मानी गई है। यहाँ परशब्दसे मुख्यतया स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण ये पाँच द्रव्य-इन्द्रियाँ और द्रव्यमन ग्रहीत होते हैं। मतिज्ञानका प्रारम्भिक रूप अवग्रह ज्ञान है और अनुमान उस मतिज्ञानका अन्तिमरूप है। मतिज्ञानका अंतिम रूप यह अनुमानज्ञान श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण होता है। आगमके 'मतिपूर्व श्रतम' इस वाक्यसे भी उक्त बातका समर्थन होता है। किसी एक घटशब्दमें गुरु द्वारा घटरूप अर्थका संकेत ग्रहण करा देनेके अनन्तर शिष्यको सतत घटशब्दश्रवणके अनन्तर जो घटरूप अर्थका बोध हो जाया करता है वह बोध उस शिष्यको अनुमान द्वारा उस घट शब्दमें घटरूप अर्थका संकेत ग्रहण करनेपर ही होता है । अतः अनुमानकी श्रुतज्ञानको उत्पत्तिमें कारणता स्पष्ट है और चूँकि अनुमान मतिज्ञानका ही अंतिमरूप है, अतः ‘मतिपूर्व श्रुतम्' ऐसा निर्देश आगममें किया गया है। कई लोगोंका ख्याल है कि 'जब अर्थ से अर्थान्तरके बोधको श्रुतज्ञान कहतेहैं तो श्रुतज्ञानको अनुमान ज्ञानसे पृथक् नहीं मानना चाहिये', परन्तु उन लोगोंका उक्त ख्याल ग़लत है, क्योंकि मैं ऊपर बतला चुका हूँ कि श्रुतज्ञानमें अनुमान कारण है, अतः अनुमानज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? जिस प्रकार श्रुतज्ञानमें कारण अनुमानज्ञान है और अनुमानज्ञानके अनन्तर ही श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है उसी प्रकार अनुमानज्ञानमें कारण तर्कज्ञान होता है और तर्कज्ञानके अनन्तर ही अनुमानज्ञानको उत्पत्ति हुआ करती है, इसी तरह तर्कज्ञानमें कारण प्रत्यभिज्ञान, प्रत्यभिज्ञानमें कारण स्मृतिज्ञान और स्मृतिज्ञानमें कारण धारणा ज्ञान हुआ करता है तथा तर्कज्ञानके अनन्तर ज्ञानकी उत्पत्तिके समान ही प्रत्यभिज्ञानके अनन्तर ही तर्कज्ञानकी, स्मृतिज्ञानके अनन्तर ही प्रत्यभिज्ञानकी और धारणाज्ञानके अनन्तर ही स्मतिज्ञानकी उत्पत्ति हुआ करती है। इस प्रकार श्रुतज्ञानकी तरह उक्त प्रकारके मतिज्ञानोंमें भी मतिज्ञानकी कारणता स्पष्ट हो जाती है क्योंकि अनुमान, तर्क, प्रत्यभिज्ञान, स्मति और धारणा ये सभी ज्ञान मतिज्ञानके ही प्रकार मान लिये गये हैं'मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनान्तरम्' इस अगमवाक्यमें मतिके अर्थ में 'अवग्रहहावायधारणाः' इस सूत्रवाक्यनुसार धारणाका अन्तर्भाव हो जाता है तथा प्रत्यभिज्ञानका ही अपर नाम संज्ञाको, तर्कका ही अपर नाम चिन्ताको और अनुमानका ही अपर नाम अभिनिबोधको माना गया है । यहाँ पर इतना और ध्यान रखना चाहिये कि जब स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान इन सब प्रकारके मतिज्ञानोंमें तथा श्रुतज्ञानमें पदार्थका दर्शन कारण न होकर यथायोग्य ऊपर बतलाये गये प्रकारानुसार पदार्थज्ञान अथवा यों कहिये कि पदार्थज्ञानका दर्शन ही कारण हुआ करता है । अतः ये सब ज्ञान परोक्षज्ञानकी कोटिमें पहँच जाते हैं क्योंकि पदार्थदर्शनके अभावमें उत्पन्न होनेके कारण इन सब ज्ञानोंमें विशदताका अभाव पाया जाता है जबकि 'विशदं प्रत्यक्षम्' आदि वाक्यों द्वारा आगममें विशद ज्ञानको ही प्रत्यक्षज्ञान बतलाया गया है। यहाँ पर ज्ञानको विशदताका तात्पर्य उसको स्पष्टतासे है और ज्ञानमें स्पष्टता तभी आ सकती है जबकि वह ज्ञान पदार्थदर्शनके सद्भावमें उत्पन्न हो। तात्पर्य यह है कि यद्यपि प्रत्येक ज्ञानमें दर्शन कारण होता है। परन्तु इतना विशेष है कि किसी-किसी Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ | धर्म और सिद्धान्त : १४३ ज्ञान में तो पदार्थका दर्शन कारण होता है और किसी-किसी ज्ञानमें पदार्थका दर्शन कारण न होकर पदार्थज्ञानका दर्शन कारण होता है, जिन ज्ञानोंमें पदार्थका दर्शन कारण होता है उन ज्ञानोंमें पदार्थ स्पष्टताके साथ झलकता है । अतः वे ज्ञान विशद कहलाते हैं और इस प्रकारको विशदताके कारण ही वे ज्ञान प्रत्यक्षज्ञानकी कोटिमें पहँच जाते हैं। जैसे-अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीनों स्वापेक्षज्ञान तथा सर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण इन पाँच इन्द्रियोंसे होने वाला पदार्थज्ञान तथा मानस प्रत्यक्ष ज्ञान । एवं किन ज्ञानोंमें पदार्थका दर्शन कारण नहीं होता है अर्थात् जो ज्ञान पदार्थदर्शनके अभावमें ही पदार्थज्ञानपूर्वक या यों कहिये कि पदार्थज्ञानदर्शनके सदभावमें उत्पन्न हआ करते हैं उन ज्ञानोंमें पदार्थ स्पष्टताके साथ नहीं झलक पाता है अतः वे ज्ञान अविशद कहलाते हैं और इस प्रकारकी अविशदताके कारण ही वे ज्ञान परोक्षज्ञानकी कोटिमें चले जाते हैं जैसे-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान,तर्क व अनुमान ये चारों मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान । यहाँ पर यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि दर्शन और ज्ञानमें जो कार्य-कारण भाव पाया जाता है, वह सहभावी है। इसलिए जब तक जिस प्रकारका दर्शनोपयोग विद्यमान रहता है तब तक उसी प्रकारका ज्ञानोपयोग होता रहता है और जिस क्षणमें दर्शनोपयोग परिवर्तित हो जाता है उसी क्षण में ज्ञानोपयोग भी बदल जाता है-'दंसणपुन्वं गाणं' इस आगमवाक्यका यह अर्थ नहीं है कि दर्शनोपयोगके अनन्तरकालमें ज्ञानोपयोग होता है क्योंकि यहाँ पर पूर्वशब्द ज्ञानमें दर्शनको सिर्फ कारणताका बोध करानेके लिये ही प्रयुक्त किया गया है जिसका भाव यह है कि दर्शनके बिना किसी ज्ञानकी उत्पत्ति सम्भव नही है। इस कथनसे छदमस्थजोवोंमें दर्शयोपयोग और ज्ञानोपयोगके क्रमवर्तीपनेकी मान्यताका खण्डन तथा केवलीके समान ही उनके (छद्मस्थोंके) उक्त दोनों उपयोगोंके योगपद्य का समर्थन होता है । इस विषयके मेरे विस्तृत विचार पाठकोंको भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित होने वाले 'ज्ञानोदय' पत्रके अप्रैल सन १९५१ के अंकमें प्रकाशित 'जैन दर्शनमें दर्शनोपयोगका स्थान' शीर्षक लेखमें तथा जन ५१ के अंकमें प्रकाशित 'ज्ञानके प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदोंका आधार' शीर्षक लेखमें देखनेको मिल सकते हैं। ये दोनों लेख इसी ग्रन्थमें यथास्थान प्रकाशित हैं। अस्तु ! ऊपर जो स्मृतिमें कारणभूत धारणाज्ञानका संकेत किया गया है वह धारणाज्ञान चूंकि पदार्थ दर्शनके सद्भावमें ही उत्पन्न होता है अतः वह ज्ञान प्रत्यक्षज्ञानकी कोटिमें पहुँच जाता है। तथा इस धारणाज्ञानके अतिरिक्त इसके पूर्ववर्ती अवाय, ईहा और अवग्रहज्ञान भी चूँकि पदार्थदर्शनके सद्भावमें ही उत्पन्न हआ करते हैं अतः ये तीनों ज्ञान भी प्रत्यक्षज्ञानकी कोटिमें पहुँच जाते हैं। यहाँपर इतना विशेष समझना चाहिए कि अवाय, ईहा और अवग्रह ये तीनों ज्ञान यद्यपि धारणाज्ञानके पूर्ववर्ती होते हैं परन्तु इनका धारणाज्ञानके साथ कार्यकारणसम्बन्ध नहीं है अर्थात् जिस प्रकार पूर्वोक्त प्रकारसे धारणा आदि ज्ञान स्मृति आदि ज्ञानोंमें कारण होते हैं उस प्रकार धारणाज्ञानमें अवाय आदि ज्ञानोंको कारण माननेकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि ऐसा कोई नियम नहीं है कि धारणाज्ञानके पहले अवाय आदि ज्ञान होना ही चाहिये। तात्पर्य यह है कि कभी कभी हमारा ऐन्द्रियिकज्ञान अपनी उत्पत्तिके प्रथमकाल में ही धारणारूप हो जाया करता है, अतः वहाँपर यह भेद करना असम्भव होता है कि ज्ञानकी यह हालत तो अवग्रहज्ञानरूप है और उसकी यह हालत धारणारूप है । कभी-कभी हमारा ऐन्द्रियिक ज्ञान अपनी उत्पत्तिके प्रथमकालमें धारणारूप नहीं हो पाता, धीरे-धीरे कालान्तरमें ही वह धारणाका रूप ग्रहण करता है । इसलिए जब तक हमारा ऐन्द्रियिक ज्ञान धारणारूप नहीं होता, तब तक वह ज्ञान अवग्रहज्ञानकी कोटिमें बना रहता है। यदि कदाचित Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं०बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ हमारा ऐन्द्रियिक ज्ञान किन्हीं कारणोंको वजहसे संशयात्मक हो जाता है तो निराकरणके साधन उपलब्ध हो जानेपर संशयके निराकरणकालमें ही वह ज्ञान धारणारूप नहीं हो जाया करता है। कदाचित् संशयके निराकरणकालमें वह ज्ञान धारणा रूप नहीं हो सका तो जब तक वह ज्ञान धारणारूप नहीं होता तब तक उसकी अवायरूप स्थिति रहा करती है। कभी कभी संशयनिराकरण के साधन उपलब्ध होनेपर भी यदि संशयका पूर्णतः निराकरण नहीं हो सका तो उस हालतमें हमारा वह ज्ञान ईहात्मक रूप धारण कर लेता है और कालान्तरमें वह ज्ञान या तो सीधा धारणारूप हो जाया करता हैं अथवा पहले अवायात्मक होकर कालान्तरमें धारणारूप होता है। इस तरह ज्ञानके धारणारूप होनेमें निम्न प्रकार विकल्प खड़े किए जा सकते हैं १. पदार्थदर्शनकी मौजूदगीमें ही उस पदार्थका प्रत्यक्ष होता है । २. इन्द्रियों अथवा मन द्वारा होनेवाला पदार्थ प्रत्यक्ष या तो सीधा धारणारूप होता है । अथवा ३. अवग्रहपूर्वक धारणारूप होता है । अथवा ४. संशयात्मक अवग्रहण होनेके अनन्तर यथायोग्य साधन मिलनेपर धारणारूप होता है । अथवा ५. संशयात्मक अवग्रहणके अनन्तर यथायोग्य साधनोंके मिलनेपर उसकी अवायात्मक स्थिति होती है और तदनन्तर वह धारणारूप होता है अथवा ६. संशयात्मक अवग्रहणके अनन्तर यथायोग्य साधनोंके मिलनेपर उसकी ईहात्मक स्थिति होती है और तब वह धारणारूप होता है । अथवा ७. ईहाके बाद आवायात्मक स्थिति होकर वह धारणारूप होता है। इस प्रकार ऐन्द्रियिक पदार्थ प्रत्यक्षके धारणारूप होने में ऊपर लिखे विकल्प बन जाते हैं और इन सब विकल्पोंके साथ पदार्थदर्शनका संबंध जैसाका तैसा बना रहता है। लेकिन जिस समय और जिस हालतमें पदार्थका दर्शन होना बन्द हो जाता है उसी समय और उसी हालतमें पदार्थप्रत्यक्षकी धारा भी बन्द हो जाती है। इस तरह कभी तो ऐन्द्रियिक पदार्थप्रत्यक्ष धारणारूप होकर ही समाप्त होता है और कभी-कभी यथायोग्य अवग्रह, संशय, ईहा या अवायकी दशामें ही वह समाप्त हो जाता है। इस विवेचनसे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि जिस प्रकार धारणाप्रत्यक्षसे लेकर परोक्ष कहे जाने वाले स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और श्रुतरूप ज्ञानोंमें नियत, आनन्तर्य पाया जाता है उस प्रकार प्रत्यक्ष कहे जानेवाले अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप ज्ञानोंमें आनन्तर्य नियत नहीं है तथा यह बात तो हम पहले ही कह आये हैं कि अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा इन चारों प्रकारके प्रत्यक्षज्ञानोंमें उत्तरोत्तर कार्यकारणभावका सर्वथा अभाव ही रहता है। इन पूर्वोक्त प्रत्यक्ष और परोक्ष सभी ऐन्द्रियिक ज्ञानोंमेंसे एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके समस्त असंज्ञी जीवोंके पदार्थका केवल अवग्रहरूप प्रत्यक्षज्ञान स्वीकार किया जावे और शेष प्रत्यक्ष कहे जानेवाले ईहा, अवाय और धारणाज्ञान तथा परोक्ष कहे जानेवाले स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और श्रुतज्ञान उन असंज्ञी जीवोंके न स्वीकार किये जायें, जैसा कि बुद्धिगम्य प्रतीत होता है, तो इनके (असंज्ञी जीवोंके) ईषत् मनकी कल्पना करनेकी आवश्यकता ही नहीं रह जाती है और तब संज्ञी तथा असंज्ञी जीवोंकी 'जिनके मनका सद्भाव पाया जाता है वे जीव संज्ञी, तथा जिनके मनका सद्भाव नहीं पाया जाता है वे जीव असंज्ञी कहलाते हैं। ये परिभाषाएँ भी सुसंगत हो जाती हैं। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/ धर्म और सिद्धान्त : १४५ इतना स्वीकार कर लेनेपर अब हमारे सामने यह मुख्य प्रश्न विचारके लिए रह जाता है कि जब असंज्ञी जीवोंके मनका सद्भाव नहीं है तो केवलियोंके अतिरिक्त पंचेन्द्रियसे लेकर एकेन्द्रिय तकके समस्त संसारी जीवोंके मति और श्रुत दोनों ज्ञानोंकी सत्ता बतलानेका कारण क्या है ? ____ इसका उत्तर यह है कि जैन संस्कृतिमें वस्तुविवेचनके विषयमें दो प्रकारकी पद्धतियाँ अपनायी गयी हैं--एक तो करणानुयोगकी आगमिक पद्धति और दूसरी द्रव्यानुयोगको दार्शनिक पद्धति । इनमेंसे जो द्रव्यानुयोगकी दार्शनिक पद्धतिका श्रतज्ञान है, जिसका अपर नाम आगमज्ञान है और जिसका कथन द्रव्यश्रुतके रूप में 'द्वधनेकद्वादशभेदम्' इस सूत्रवाक्य द्वारा किया गया है अथवा जो वचनादिनिबन्धन अर्थज्ञानके रूपमें प्रत्येक संज्ञी जीवके हुआ करता है-वह श्रुतज्ञान असंज्ञी जीवोंके नहीं होता, यह बात तो निर्विवाद है तब फिर इसके अतिरिक्त कौन-सा ऐसा श्रतज्ञान शेष रह जाता है जिसकी सत्ता असंज्ञी जीवोंके स्वीकार की जावे ? __ शंका--एकेन्द्रियादि सभी असंज्ञो जीवोंकी भी संज्ञी जीवोंकी तरह सुखानुभवनके साधनभूत पदार्थोंका ग्रहण और दुखानुभवनके साधनभूत पदार्थोंका वर्जनरूप, जो यथासम्भव प्रवृत्तियाँ देखने में आती है वे उनकी प्रवृत्तियाँ बिना श्रुतज्ञानके सम्भव नहीं जान पड़ती हैं ? प्रायः देखने में आता है कि चींटी मिठासजन्य सुखानुभवन होनेपर मीठे पदार्थकी ओर दौड़कर जाती है और उष्णताजन्य दुःखानुभवन होनेपर अग्नि आदि पदार्थोसे दूर भागती है, इस प्रकार चींटीकी इस प्रवृत्ति अथवा निवृत्तिरूप क्रियाका कारण श्रुतज्ञानको छोड़कर दूसरा क्या हो सकता है ? अतः असंज्ञो जीवोंके श्रुतज्ञानकी सत्ता भले ही वह किसी रूपमें हो-मानना अनिवार्य है और इसीलिए उनके ईषत् मनका सद्भाव स्वीकार करना असंगत नहीं माना जा सकता है ? समाधान-एकेन्द्रियादिक सभी जीवोंका प्रत्येक ज्ञान स्वसंवेदी होता है। ज्ञानकी यह स्वसंवेदना प्रकाशमें रहनेवाली स्वप्रकाशकताके समान है। अर्थात् जिस प्रकार प्रकाशको अपना प्रकाश करनेके लिये दूसरे प्रकाशकी आवश्यकता नहीं होती है उसी प्रकार ज्ञानको अपना प्रकाश करने (ज्ञान कराने) के लिये दूसरे ज्ञानकी आवश्यकता नहीं रहती है। ज्ञानका यह स्वसंवेदन ही एकेन्द्रिय आदि सभी असंज्ञी जीवोंको प्रवृत्ति और निवृत्तिरूप समस्त क्रियाओंमें प्रेरक हुआ । क रता है अतः इनको (असज्ञी जीवोंकी) उक्त प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप क्रियाओंके लिये कारण रूपसे उन जोवोंके अतिरिक्त श्रुतज्ञानका सद्भाव मानने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है, जिसके लिये हमें उनके ईषत् मनकी कल्पना करनेके लिये बाध्य होना पड़े। मेरा ऐसा मत है कि करणानुयोगकी आगमिक पद्धतिमें उक्त स्वसंवेदन ज्ञानको ही संभवतः श्रुतज्ञान शब्दसे पुकारा गया है; क्योंकि अर्थसे अर्थान्तरका ज्ञानरूप श्रुतज्ञानका लक्षण उसमें घटित हो जाता है। घट पदार्थका ज्ञान होनेके साथ जो घटज्ञानका स्वसंवेदनरूप ज्ञान हमें होता है वह अर्थान्तर ज्ञानरूप ही तो है। यह स्वसंवेदनरूप श्रुतज्ञान चूँकि इन्द्रियों द्वारा न होकर ज्ञानद्वारा ही हुआ करता है, अतः श्रुतको अनिन्द्रियका विषय मानने में कोई विरोध भी उत्पन्न नहीं होता है क्योंकि "अ" का अर्थ निषेध करके अनिन्द्रिय शब्दका "ज्ञान" अर्थ करने में भी कोई बाधा उपस्थित नहीं होती है। तात्पर्य यह है कि द्रव्यानुयोगकी दार्शनिक पद्धतिमें जिस श्रुतका विवेचन किया जाता है वह तो मनका विषय होता है । अतः इस प्रकरणमें अनिन्द्रियको "अ" का ईषत अर्थ करके मनका बाची मान लेना चाहिये और करणानुयोगकी आगमिक पद्धतिमें जिस स्वसंवेदनरूप ज्ञानको श्रुत नामसे ऊपर बतला आये हैं Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य वह ज्ञानका विषय होता है । अतः उस प्रकरणमें अनिन्द्रिय शब्दको "अ" का अर्थ निषेध करके ज्ञानवाची मान लेना चाहिये। अमनस्क शब्दका 'ईषत् मन वाला" अर्थ भी कुछ असंगत-सा प्रतीत होता है। अर्थात् इन्द्रियशब्दके साथ अनिन्द्रिय शब्दका "ईषत् इन्द्रिय" अर्थ जितना उचित प्रतीत होता है उतना समनस्क शब्दके साथ अमनस्क शब्दका "ईषत् मन वाला" अर्थ उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि समनस्क शब्दमें 'सह' शब्दका प्रयोग मनकी मौजूदगीके अर्थ में ही किया गया है । अतः स्वभावतः अमनस्कशब्दमें "अ" का अर्थ मनकी गैरमौजूदगी ही करना चाहिये। दुसरी बात यह है कि अनिद्रियशब्दके विशेषणार्थक संज्ञा होने की वजहसे उसका वाच्यार्थ मन होता है, इसलिये जिस प्रकार इन्द्रियशब्दके साथ अनिन्द्रियशब्दके प्रयोगमें सामंजस्य पाया जाता है, उस प्रकार अमनस्कशब्दका "ईषित् मनवाला" अर्थ करके समनस्क शब्दके साथ उसका (अमनस्कशब्दका) प्रयोग करने में सामंजस्य नहीं है क्योंकि अमनस्कशब्दका जब हम "ईषित मनवाला" अर्थ करेंगे तो स्वभावतः = समनस्कशब्दका हमें “पूर्ण मनवाला" अर्थ करना होगा, लेकिन समनस्क शब्दका “पूर्ण मनवाला" अर्थ करना क्लिष्ट कल्पना ही कही जा सकती है । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी' पूर्वपक्ष का प्रश्न -- द्रव्योंमें होनेवाली सभी पर्यायें नियतक्रमसे ही होती हैं या अनियतक्रमसे भी ? उत्तरपक्षका उत्तर— द्रव्यों में होनेवाली सभी पर्यायें नियतक्रमसे ही होती हैं । समीक्षा पर्यायोंका विवरण १. प्रवचनसार के दूसरे ज्ञेयतत्त्वाधिकार की गाथा १ में बतलाया है कि विश्व में एक आकाश, एक धर्म, एक अधर्म, असंख्यात काल, अनन्त जीव और अनन्त पुद्गलरूप जितने पदार्थ हैं उन्हें द्रव्य कहते हैं । प्रत्येक द्रव्य में स्वतः सिद्ध अनन्त गुण हैं । तथा प्रत्येक द्रव्यमें द्रव्य-पर्यायें व प्रत्येक द्रव्यके प्रत्येक गुण में गुणपर्यायें होती हैं । तत्त्वार्थसूत्रके "गुणपर्ययवद्द्रव्यं" (५-३८) सूत्रका भी यही अभिप्राय है 1 २. तत्त्वार्थसूत्र के “सद्द्रव्यलक्षणम्" (५-२९) सूत्र में द्रव्यका लक्षण "सत्" कहा है तथा द्रव्यका स्वतःसिद्ध स्वभाव होने से गुण भी "सत्" कहलाता है । प्रत्येक द्रव्य में व प्रत्येक द्रव्यके प्रत्येक गुणमें प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और प्रोव्यरूपसे परिणमन होता रहता है । द्रव्य और गुणकी स्व-स्व उत्तरपर्यायके विकासको उत्पाद ओर पूर्वपर्यायके विनाशको व्यय कहते हैं । द्रव्यों और गुणोंमें ये उत्पाद और व्यय दोनों उनकी द्रव्यरूपता और गुणरूपताको सुरक्षित रखकर ही होते हैं । अतः द्रव्य और गुणमें ध्रौव्यरूपता भी सतत् बनी रहती है। यही कारण है कि तत्त्वार्थसूत्र के "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ” ( ५ - ३० ) सूत्र में सत्का लक्षण ऐसा ही निर्धारित किया गया है । पर्यायोंकी द्विरूपता : सभी द्रव्यपर्यायें स्व-परप्रत्यय ही होती हैं तथा सभी गुणपर्यायोंमेंसे षट्गुणहानि - वृद्धिरूप पर्यायें स्वप्रत्यय और इनके अतिरिक्त शेषगुणपर्यायें स्व-परप्रत्यय ही होतीं हैं । जो पर्याय निमित्तकारणभूत बाह्य सामग्री की सहायतापूर्वक उपादानकारणजन्य हो उसे स्व-परप्रत्यय और जो पर्याय निमित्तकारणभूत बाह्यसामग्री की सहायता के बिना उपादानकारणजन्य हो उसे स्वप्रत्यय कहते हैं । पर्यायका विभाजन कालद्रव्यकी अखण्ड पर्यायभूत समयसापेक्ष होनेसे द्रव्य और गुणकी प्रत्येक पर्याय समयवर्ती मानी गई है। भय पर्यायोंकी आगमद्वारा पुष्टि : तत्वार्थ सूत्रके "निष्क्रियाणि च " ( ५-७) सूत्रकी टीका सर्वार्थसिद्धिमें व नियमसारकी गाथा १४ के उत्तरार्द्ध में पर्यायोंके स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय दो भेद स्पष्ट स्वीकार किये गये हैं । पर्यायोंको उत्पत्ति में नियतक्रमता और अनियतक्रमताका निर्णय : यतः स्वप्रत्यय पर्यायों की उत्पत्ति निमित्तनिरपेक्ष स्वप्रत्ययताके आधारपर होती है, अतः वह नियतक्रमसे ही होती है और स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति निमित्तसापेक्ष स्वप्रत्ययता के आधारपर होती है, अतः वह निमित्तोंके समागमके अनुसार नियतक्रमसे भी होती है और अनियतक्रमसे भी होती है । १. वीरसेवामन्दिर ट्रस्ट, वाराणसी, द्वारा प्रकाशित, १९८४ ई० । २. अत्थो खलु दव्वमओ दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि । तेहि पुणो पज्जाया पज्जयमूढा हि परसमया ॥ १॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ : सरस्वतीवरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी अन्य आगमवचनों द्वारा पुष्टि : समयसारके सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारकी गाथा ३०८ से ३११ तककी आत्मख्याति टीकामें "जीवो हि तावत क्रमनियमितात्मपारिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव नाजीवः, एवमजीवोऽपि क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानोऽजीव एव न जीवः" यह कथन पाया जाता है। इस कथनमें विद्यमान 'जीव एव नाजीवः" और "अजीव एव न जीवः" इन दोनों अंशोंसे ज्ञात होता है कि जीवकी पर्याय अजीवकी सहायतापूर्वक और अजीवकी पर्यायें जीवकी सहायतापूर्वक उत्पन्न होती हैं । यदि ऐसा न माना जावे, तो उक्त कथनके ये दोनों अंश निरर्थक हो जायेंगे, क्योंकि जीवको अजीवरूप और अजीवको जीवरूप माननेका प्रसंग तभी उपस्थित होता है जब जीवकी पर्यायोंका अजीवके साथ और अजीवकी पर्यायोंका जीवके साथ निमित्त-नैमित्तिकभावरूप कार्यकारणसम्बन्ध माना जावे। समयसार-कलश १९५ में स्पष्ट कहा गया है कि जीवका प्रकृतियोंके साथ जो बन्ध होता है वह जीवके अज्ञानभावका ही माहात्म्य है । समयसार की गाथा ३१२-१३ में तो और भी स्पष्ट लिखा है कि जीव प्रकृतिके निमित्त (सहयोग) से उत्पन्न और विनष्ट होता है व प्रकृति जीवके निमित्त (सहयोग) से उत्पन्न और विनष्ट होती है। समयसारकी गाथा ८०, ८१ और १०५ तथा प्रवचनसारके ज्ञेयाधिकारकी गाथा ७७ से भी स्व-परप्रत्यय पर्यायोंका स्पष्ट समर्थन होता है। इसके अलावा जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चाकी समीक्षा (भाग-१) के अन्तर्गत प्रश्नोत्तर-१की समीक्षामें मैंने तर्क और आगम प्रमाणोंके आधारसे निमित्तोंके प्रेरक और उदासीन (अप्रेरक) दो भेद बतलाकर उनके लक्षण इस रूपमें निर्धारित किये हैं कि प्रेरक निमित्त वे हैं जिनके साथ उपादानके कार्यकी अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ हों तथा उदासीन निमित्त वे हैं जिनकी उसी कार्यके साथ अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ हों। इन लक्षणोंके अनुसार वहींपर मैंने यह भी स्पष्ट किया है कि प्रेरकनिमित्तोंके बलसे कार्य आगे-पीछे भी किया जा सकता है तथा अनुकल उदासीन निमित्तोंका भी यदि उपादानको सहयोग प्राप्त न हो तो उस उपादानकी विवक्षित कार्यरूप परिणति नहीं होती है। इससे भी निर्णीत होता है कि निमित्तसापेक्ष स्वप्रत्ययताके आधारपर ही स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति होती है। इसका स्पष्टीकरण उदाहरणों द्वारा किया जाता है १.पठनकी योग्यताविशिष्ट शिष्यकी पठन क्रिया प्रेरकनिमित्तकारणभूत अध्यापककी सहायतासे होती है, उसकी सहायताके बिना नहीं होती । तथा वहाँ यदि उदासीन निमित्तकारणभूत प्रकाशका अभाव हो तो न अध्यापक पढ़ा सकता है और न शिष्य पढ़ सकता है । इसी प्रकार चलनेकी योग्यताविशिष्ट रेलगाड़ी प्रेरकनिमित्तकारणभूत इंजनके चलनेपर ही चलती है, उसके अभावमें नहीं चलती, तथा वहाँ यदि उदासीन निमित्तकारणभूत रेलपटरोका सहयोग प्राप्त न हो तो न इंजन चल सकता है और न रेलगाड़ी चल सकती है। इस विवेचनके अनुसार स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति प्रेरक और उदासीन निमित्तोंकी सहायतापूर्वक होनेके कारण उन स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिमें क्रमबद्धता अर्थात नियतक्रमता और अक्रमबद्धता अर्थात अनियतक्रमता दोनों ही प्रकारकी व्यवस्था निश्चित होती है। २. प्रेरक निमित्तकारणभूत कुम्भकार अन्य प्रेरक और उदासीन निमित्तकारणोंकी सहायतापूर्वक घटरूप परिणत होनेकी योग्यता विशिष्ट मिठीसे क्रमशः स्थास, कोश और कुशल पर्यायोंकी उत्पत्तिपूर्वक ही संकल्पित घटको उत्पन्न करता है, तथा आवश्यक होनेपर वह कुम्भकार उसी मिट्टीसे विवक्षित सकोरा आदिको भी उत्पन्न करता है। इतना ही नहीं, यदि दंडका आघात आदि कारण मिल जायें तो चाल कार्यके Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १४९ विनाश आदि कार्य भी उत्पन्न हो जाते हैं । इसी तरह क्रोधकर्मका उदय रहते क्रोध, मान, माया और लोभरूप परिणत होनेकी योग्यता विशिष्ट जीवकी क्रोधपर्याय होते-होते यदि मान, माया या लोभ कर्मका उदय हो जावे तो क्रोध पर्याय रुककर उस जीवकी यथायोग्य मान, माया या लोभ पर्याय होने लगती है। इस विवेचनके अनुसार भी स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति प्रेरक और उदासीन निमित्तोंकी सहायतापूर्वक होनेके कारण उन स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिमें क्रमबद्धता अर्थात् नियतक्रमता और अक्रमबद्धता अर्थात् अनियतक्रमता दोनों ही प्रकारको व्यवस्था निर्णीत होती है। ३. पकनेकी योग्यता विशिष्ट आम्रफलका पाक ऋतुके अनुसार समयपर होनेका नियम है, परन्तु उस आम्रफलको यदि कृत्रिम ऊष्माका योग मिल जावे तो वह असमयमें भी पक जाता है। इसी प्रकार मरणकी योग्यताविशिष्ट संसारी जीवका मरण आयुकर्मके स्थितिबन्धके अनुसार आयुकी समाप्तिपर होना निश्चित है, परन्तु यदि विषपान आदिका योग मिल जावे तो जीव असमयमें भी मरणको प्राप्त हो जाता है । इस विवेचनके अनुसार भी स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति प्रेरक और उदासीन निमित्तोंकी सहायतापूर्वक होनेके कारण उन स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिमें क्रमबद्धता अर्थात नियतक्रमता और अक्रमबद्धता अर्थात् अनियतक्रमता दोनों ही प्रकारको व्यवस्था सिद्ध होती है। यहाँ 'असमय' शब्दका अर्थ नियतसमयसे भिन्न अनियतसमय ही ग्रहण करना युक्त है, समयसे भिन्न अन्य निमित्तकारणभूत पदार्थ ग्रहण करना युक्त नहीं है-जैसा कि उत्तरपक्ष मानता है। इतना अवश्य है कि जिस पर्यायकी उत्पत्ति उस अनियतसमयमें होती है वह अनुकूल निमित्तकारणसापेक्ष ही होती है। उत्तरपक्षकी दृष्टिमें स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिकी व्यवस्था : १. समयसारके सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारको ३०८ से ३३१ तककी गाथाओंकी आत्मख्याति-टीकाके पूर्वोक्त कथनके अंशभत दोनों "क्रमनियमितात्मपरिणामैः" पदोंमें विद्यमान "क्रमनियमित" शब्दका डॉ० हुकमचन्द्र भारिल्लने अपनी "क्रमबद्धपर्याय" पुस्तकमें पृष्ठ १२३ पर यह स्पष्टीकरण किया है कि "क्रमनियमितशब्दमें क्रम अर्थात क्रमसे (नम्बरवार) तथा नियमित अर्थात निश्चित । जिस समय जो पर्याय आनेवाली है वही आयेगी इसमें फेरफार नहीं हो सकता। उत्तरपक्ष भी यही मानता है। इस प्रकार ज्ञात होता है कि उत्तरपक्ष आत्मख्याति-टीकाके उक्त क्रमनियमित शब्दके आधारपर प्रत्येक स्व-परप्रत्यय पर्यायकी उत्पत्तिका नियत समय मानकर अपना यह मत निश्चित करता है कि सभी स्व-परप्रत्यय पर्यायोंको उत्पत्ति स्वप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिके समान क्रमबद्ध अर्थात् नियतक्रमसे ही होती है, अक्रमबद्ध अर्थात् अनियतक्रमसे . नहीं होती। २. सम्पूर्ण द्रव्योंको कालिक स्व-परप्रत्यय पर्यायें सर्वज्ञके केवलज्ञानमें प्रतिसमय युगपत् (एकसाथ) क्रमबद्ध ही प्रतिभाषित होती हैं, अतः उन पर्यायोंकी उत्पत्तिको स्वप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिके समान क्रमबद्ध अर्थात् नियतक्रमसे ही मानना युक्त हैं, अन्यथा अर्थात् उन स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिको अक्रमबद्ध अर्थात अनियतक्रमसे स्वीकार करनेपर प्रत्येक द्रव्यकी कालिक उन पर्यायोंकी केवलज्ञानमें प्रतिसमय युगपत् (एकसाथ) क्रमबद्ध प्रतिभासित होना असम्भव हो जायेगा, फलतः इस तर्कके आधारसे वह अपना यह मत निश्चित करता है कि स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति स्व-प्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिके समान क्रमबद्ध अर्थात् नियतक्रमसे ही होती है, अक्रमबद्ध अर्थात् अनियतक्रमसे नहीं होती। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० सरस्वती वरवपुत्र पं० बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ निष्कर्ष यद्यपि उत्तरपक्षके समान पूर्वपक्ष भी कार्तिकेयानुप्रक्षा व आचार्य रविषेण रचित पद्मपुराणके प्रतिपाद्य विषयको प्रमाण मानता है, तथापि ऊपर जो विवेचन किया गया है उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जहाँ पूर्व पक्ष स्व- परप्रत्यय पर्यायों की उत्पत्ति में जिस देश और जिस कालमें पर्याय उत्पन्न हुई, उत्पन्न हो रही है या उत्पन्न होगी उस देश और उस कालको महत्व न देकर उपादान कारणभूत अन्तरंग सामग्री के साथ निमित्तकारणभूत बाह्य सामग्रीको महत्व देता है, वहाँ उत्तरपक्ष उस स्व-परप्रत्यय पर्यायकी उत्पत्तिमें उपादानकारणभूत अन्तरंग सामग्रीको महत्व देते हुए भी निमित्तकारणभूत बाह्य सामग्रीको महत्व न देकर उस देश और उस कालको महत्व देता है जिस देश और जिस कालमें वह पर्याय उत्पन्न हुई उत्पन्न हो रही है या उत्पन्न होगी । पूर्वपक्ष स्वन्परप्रत्यय पर्यायकी उत्पत्तिमें उक्त देश और कालको महत्व न देकर जो उपादानकारणभूत अन्तरंगसामग्री के साथ निमित्तकारणभूत बाह्य सामग्रीको महत्व देता है। उसमें हेतु यह है कि वह पक्ष उस पर्यायकी उत्पत्तिमें उस देश और उस कालको नियामक नहीं मानता है जिस देश और जिस कालमें उस पर्यायी उत्पत्ति हुई, हो रही है या होगी तथा वह पक्ष उस पर्यायकी उत्पत्तिमें उपादानकारणभूत अन्तरंग सामग्रीको उस पर्यायरूप परिणत होनेके आधारपर और निमित्तकारणभूत बाह्य सामग्रीको उपादानकी उस पर्यायरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर नियामक मानता है। इसके विपरीत उत्तरपक्ष उस स्व-परप्रत्यय पर्यायकी उत्पत्तिमें उपादानकारणभूतअन्तरंग सामग्रीको महत्त्व देते हुए भी निमित्तकारणभूत बाह्यसामग्रीको महत्व न देकर जो उक्त देश और कालको महत्व देता है उसमें हेतु यह है कि वह पक्ष उस पर्यायकी उत्पत्ति में उपादानको उस पर्यायरूप परिणत होनेके आधारपर नियामक मानते हुए भी निमित्तकारणभूत सामग्रीको उस पर्यायरूप परिणत न होने और उपादानकी उस पर्यायरूप परिणतिमें सहायक भी न होनेके आधारपर सर्वथा अकिंचित्कर मानते हुए नियामक न मानकर केवलज्ञानसे ज्ञात होनेके आधारपर उस देश और उस कालको हो नियामक मानता है जिस देश और जिस कालमें वह पर्याय उत्पन्न हुई, उत्पन्न हो रही है या उत्पन्न होगी । प्रकृतमें दोनों पक्षोंके मध्य यही मतभेद हैं । तथ्यका निर्णय : स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय दोनों ही प्रकारकी पर्यायोंको उत्पत्तिमें जिस देश और जिस कालमें वे पर्यायें उत्पन्न हुई, उत्पन्न हो रही हैं या उत्पन्न होंगी उस देश और उस कालको नियामक न माना जाकर स्वप्रत्यय पर्यायकी उत्पत्तिमें मात्र उपादानकारणको व स्व-परप्रत्ययपर्यायकी उत्पत्तिमें उपादानकारणके साथ निमित्तकारणको भी नियामक मानना युक्त है, क्योंकि कार्यकी उत्पत्तिकी नियामक वही वस्तु हो सकती है १. जं जस्स जम्मि देसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि । णावं जिणेण णिवदं जम्मं वा अह व मरणं वा ।। ३२१ ।। तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि । का सक्कद चाले दो वा अह जिणिदो वा ।। ३२२ ।। २. प्रागेव यदवाप्तव्यं येन यत्र यदा यतः । तत्परिप्राप्यतेऽवश्यं तेन तत्र तदा ततः ॥ - - सर्ग ११०, श्लोक ४० । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/ धर्म और सिद्धान्त : १५१ जो कार्यरूप परिणत हो या उस कार्यरूप परिणतिमें उसकी सहायक हो। जो वस्तु कार्य रूप परिणत होती है उस वस्तुका कार्यके साथ अन्वय और व्यतिरेक पाया जाना निर्विवाद है, परन्तु जो वस्तु उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होता है उस वस्तुका भी उस कार्यके साथ अन्वय और व्यतिरेक पाया जाना आवश्यक है, जैसा कि परीक्षामुखसूत्र ग्रन्थके तृतीय समुद्देशके सूत्र ६३ की प्रमेयरत्नमाला-टीकामें कहा गया है "अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यो हि सर्वत्र कार्यकारणभावः । तौ च कार्य प्रति कारणव्यापारसव्यपेक्षावेवोपपद्यते कुलालस्येव कलशं प्रति ।" अर्थ- कार्यकारणभावकी सिद्धि अन्वय और व्यतिरेकपर आधारित है। तथा वे (अन्वय और व्यतिरेक) कार्यके प्रति कारणव्यापार सापेक्ष ही सिद्ध होते है, जिस प्रकार घटकार्यके प्रति कुम्भकारके अन्वय और व्यतिरेक सिद्ध होते हैं । अतएव कहा जा सकता है कि अन्वय और व्यतिरेकके आधारपर जैसा कार्यकारणभाव स्वप्रत्ययकार्य और उपादानमें व स्व-परप्रत्ययकार्य और उपादानकारण तथा निमित्तकारणमें निर्णीत होता है वैसा कार्यकारणभाव उस कार्य और उक्त देश व कालमें निर्णीत नहीं होता, क्योंकि कार्योत्पत्तिमें जिस प्रकार उपादानकारण कार्यरूप परिणत होनेके आधारपर व प्रेरक और उदासीन दोनों निमित्तकारण उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी सिद्ध होते हैं उस प्रकार उस कार्योत्पत्तिमें उक्न देश और उक्त काल कार्यरूप परिणत होने या उसमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी सिद्ध नहीं होते। तात्पर्य यह है कि देश, कार्य और कारणभूत वस्तुओंका अवगाहक मात्र होता है व कालके आधारसे कार्य और कारणभूत वस्तुओंकी वृत्ति (मौजूदगी) मात्र सिद्ध होती है । तथा कालद्रव्यको जो पर्यायें है वे उन द्रव्योंकी पर्यायोंका सोमानिर्धारण या विभाजन मात्र करती हैं। अतएव देश और कालकी कार्योत्पत्तिमें कुछ भी उपयोगिता नहीं है, केवल आवश्यकतानुसार उपादान कारण व प्रेरक और उदासीन निमित्तकारण ही कार्योत्पत्तिमें उपयोगी होते हैं। आगममें जो यह बतलाया गया है कि क्षेत्रको अपेक्षा भरत, ऐरावत और विदेह क्षेत्रोंके भव्य मानव ही मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं, हेमवत आदि क्षेत्रोंके भव्य मानव नहीं। इसी प्रकार कालकी अपेक्षा विदेह क्षेत्रके भव्य मानव मोक्ष-प्राप्तिके अनुकूल स्थिति विद्यमान रहनेके कारण सर्वदा मुक्त हो सकते हैं, तथा भरत और ऐरावत क्षेत्रोंके भव्य-मानव उत्सर्पिणी कालके तृतीय भागमें व अवसर्पिणी कालके चतुर्थ भागमें सामान्य रूपमे एवं अवशर्पिणी कालके तृतीय भागके अन्तिम हिस्से में व पंचम भागके प्रारम्भिक हिस्सेमें अपवाद रूपसे मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालोंके शेष भागोंमें या उन भागोंके किसी अन्य हिस्सेमें कदापि मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं । सो आगमके इस कथनसे यद्यपि देश और कालको भो मक्तिरूप कार्यके प्रति उदासीनरूपसे निमित्तकारणता सिद्ध होती है, परन्तु इस कथनका यही आशय है कि जीव और पुद्गल द्रव्योंके यथायोग्य मध्यम उत्कर्षायकर्षमय देश और कालकी स्थिति ही जीवको मुक्ति प्राप्त करने में उदासीनरूपसे निमित्तकारण सिद्ध होती है। अमूर्त होनेके कारण देश और कालकी मुक्तिके प्रति कारणता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि देश और कालका कार्य ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है । यदि देश और काल भी जीवको मुक्ति प्राप्त करने में उदासीनरूपसे निमित्तकारण होने लगें, तो ऐसी स्थितिमें कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथा-३२१-२२ व पदमपुराण सर्ग-११० के श्लोक ४० में उनका कारणसामग्रीसे पृथक् निर्देश करना असंगत हो जायेगा। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ उत्तरपक्ष स्वपरप्रत्ययपर्यायकी उत्पत्तिको क्रमबद्ध अर्थात नियतक्रमसे सिद्ध करनेके लिए समयसार गाथा ३०८-११ को आत्मख्याति-टोकाके 'क्रमनियमित' शब्दका यह आशय ग्रहण करता है कि "क्रम अर्थात् क्रमसे (नम्बरबार) नियमित अर्थात् निश्चित । जिस समय जो पर्याय आनेवाली हो वही आयेगी, उसमें फेरबदल नहीं हो सकता।" सो यह उसकी भ्रमबुद्धि है, क्योंकि उस टीकामें प्रयवत 'क्रमनियमित' शब्दका क्रममें नियमित अर्थात् बद्ध अर्थ ही ग्राह्य है, जिसका अभिप्राय है कि एकजातीय स्व-परप्रत्यय पर्याय एकके पश्चात् एकरूप क्रमसे ही उत्पन्न होती हैं । एकजातीय दो आदि अनेक पर्याय यगपत (एकसाथ) एकसमयमें कदापि उत्पन्न नहीं होतीं। फलतः उक्त 'क्रमनियमित' शब्दका उत्तरपक्ष द्वारा स्वीकृत उपयुक्त अर्थ युक्त न होकर पूर्वपक्ष द्वारा स्वीकृत क्रममें अर्थात् एकके पश्चात् एकरूप क्रममें नियमित अर्थात् बद्ध अर्थ ही युक्त है। यद्यपि त्रैकालिक स्व-परप्रत्यय पर्यायें केवलज्ञानमें एकसाथ एकसमयमें क्रमबद्ध ही प्रतिभासित होती हैं, परन्तु उसके आधारसे उन पर्यायोंकी उत्पत्तिको क्रमबद्ध स्वीकार करना युक्त नहीं है, क्योंकि उन त्रैकालिक पर्यायोंका केवलज्ञानमें युगपत् (एकसाथ) प्रत्येक समयमें क्रमबद्ध प्रतिभासित होना अन्य बात है और उनका उपादान और प्रेरक तथा उदासीन निमित्त कारणोंके बलसे यथासंभव क्रमबद्ध या अक्रमबद्ध रूपमें उत्पन्न होना अन्य बात है। अर्थात् केवलज्ञानी जीव क्रम अथवा अक्रमसे उत्पन्न हुई, उत्पन्न हो रही और आगे उत्पन्न होनेवाली पर्यायोंको क्रमबद्धरूपमें जानता है। फलतः स्व-परप्रत्यय पर्यायोंके विषयमें यदि उत्पत्तिकी अपेक्षा विचार किया जाये तो यही कहा जा सकता है कि उनकी उत्पत्ति प्रेरक और उदासीन निमित्तकारणसापेक्ष होनेसे क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध उभयरूप सिद्ध होती है तथा ज्ञप्तिकी अपेक्षा विचार किया जाये तो कहा जा सकता है कि उनका प्रतिभासन केवलज्ञानमें युगपत् (एकसाथ) एक समयमें क्रमबद्ध ही होता है। __ स्व-परप्रत्यय पर्यायोंके विषयमें उत्पत्ति और ज्ञप्तिका यह अन्तर उत्तरपक्षके प्रमुख प्रतिनिधि पंडित फूलचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्यने जैन-तत्व-मीमांसा (प्रथम संस्करण) पृष्ठ-२९१ पर इस प्रकार प्रकट किया है "यद्यपि हम मानते हैं कि केवलज्ञानको सब द्रव्यों और उनकी सब पर्यायोंको जाननेवाला मानकर भी क्रमबद्ध पर्यायोंकी सिद्धि मात्र केवलज्ञानके आलम्बनसे न करके कार्यकारणपरम्पराको ध्यानमें रखकर ही की जाना चाहिए।" इस प्रकार कार्य-कारणभावके आधारपर होनेवाली स्व-परप्रत्यथ पर्यायोंकी उत्पत्तिको क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध तथा केवलज्ञानमें होनेवाली उनकी ज्ञप्तिको मात्र क्रमबद्ध मान्य करने में पूर्वपक्षके समान उत्तरपक्षको भी कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि केवलज्ञानमें ही नहीं, मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञानमें भी अमुक कार्य अमुक कारणोंसे अमुक देशमें अमुक कालमें अमुकरूपसे उत्पन्न हुआ, उत्पन्न हो रहा है या उत्पन्न होगा ऐसा क्रमबद्ध प्रतिभासन यथायोग्य सीमामें होता है, परन्तु यह अवश्य ध्यातव्य है कि चाहे केवलज्ञान हो अथवा चाहे मतिज्ञान, अवधिज्ञान या मनःपर्ययज्ञान हो, ये सभी ज्ञान अपने द्वारा प्रतिभासित पदार्थोंका विश्लेषण करनेमें अक्षम ही हैं । स्पष्टीकरण निम्नप्रकार है-- नेत्रइन्द्रियसे उत्पन्न हुए चाक्षुष-मतिज्ञानसे घटका ज्ञान तो होता है परन्तु वह घट है ऐसा विश्लेषण Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/ धर्म और सिद्धान्त : १५३ उस मतिज्ञानसे नहीं होता, तथा कर्णेन्द्रियसे उत्पन्न हुए श्रावण-मतिज्ञानसे घटशब्दका ज्ञान तो होता है. परन्तु घटशब्दका अर्थ घटरूप पदार्थ है, यह विश्लेषण उस मतिज्ञानसे नहीं होता । यही स्थिति अन्य इंद्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले मतिज्ञानकी एवं अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानकी जान लेना चाहिए। इसमें हेतु यह है कि मति आदि उक्त चारों ज्ञानों द्वारा प्रतिभासित पदार्थोंका विश्लेषण वितर्कात्मक ज्ञान द्वारा ही हो सकता है। जबकि वे चारों ज्ञान वितर्कात्मक नहीं होते। यतः श्रुनज्ञान वितर्कात्मक होता है, अतः मति आदि उक्त ज्ञानों द्वारा प्रतिभासित पदार्थोंका विश्लेषण श्रुतज्ञान द्वारा ही हो सकता है। यतः मतिज्ञानो, अवधिज्ञानो और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें श्रुतज्ञानका सद्भाव नियमसे रहता है, अतः मतिज्ञानी, अवविज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव इन ज्ञानोंसे प्रतिभामित पदार्थोंका श्रुतज्ञानके आधारपर विश्लेषण भी करते हैं पर जो केवलज्ञानी जीव हैं उनमें केवलज्ञानके साथ यतः श्रुतज्ञानका सद्भाव नहीं रहता है, अतः केवलज्ञानी जीव द्वारा केवलज्ञानमे प्रतिभासित पदार्थोंका विश्लेषण किया जाना सम्भव नहीं है। इतना अवश्य है कि केवलज्ञानी तीर्थंकर जीवकी भव्य जीवोंके भाग्य और वचनयोगके बलसे जो निरक्षरी दिव्यध्वनि खिरती है उसके अर्थको गणधर अपनी अतिशयपूर्ण श्रुतज्ञानशक्तिके आधारपर ग्रहणकर उस आधारसे अक्षरात्मक श्रतका निर्माण करते हैं, तथा इस अक्षरात्मक श्रुतका अध्ययन करके अन्य विशेष श्रुतज्ञान शक्तिके धारक महापुरुष भी ग्रन्थोंका निर्माण करते हैं । वर्तमानमें भी तीर्थंकर महावीरने केवलज्ञान द्वारा विश्वके सभी पदार्थोंको और उनकी कालिक समस्त पर्यायोंको युगपत् एक समयमें जब क्रमबद्ध जान लिया तब भव्यजीवोंके भाग्य और वचनयोगके बलसे उनकी निरक्षरी दिव्यध्वनि खिरी. जिसके अर्थको गोतमगणधरने अपनी अतिशयपूर्ण श्रुतशक्तिके बलसे ग्रहण किया और उन्होंने अक्षरात्मक श्रुतको रचना की। उसी प्रकार अपनी श्रुतज्ञानशक्तिके बलसे उसका अध्ययन करके अन्य आचार्योंने भो ग्रन्थोंका निर्माण किया। इस तरह यह श्रुत-परम्परा आजतक चल रही है। इस विवेचनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि कार्य-कारणभावका विश्लेषण वितर्कात्मक श्रतज्ञान द्वारा हो होता है। मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान द्वारा नहीं, क्योंकि इन ज्ञानोंमें वितर्कात्मकताका अभाव है। जीवमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनोंका एक साथ सद्भाव रहता, है तथा किसी-किसी जीवमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके साथ अवधिज्ञानका या मनःपयर्ययज्ञानका अथवा अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान दोनोंका सदभाव भी आगम द्वारा स्वीकार किया गया है, किन्तु जीवमें जब केवलज्ञानका विकास हो जाता है तब उसमें पहलेसे यथायोग्यरूपमें विद्यमान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानका अभाव हो जाता हैं, क्योंकि आगमें क्षायिक केवलज्ञानका जो स्वरूप निर्धारित किया गया है उससे ज्ञात होता है कि क्षायिक केवलज्ञानके साथ जीवमें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानका सद्भाव सम्भव नहीं है, क्योंकि वे क्षायोपशमिक हैं। तथा केवलज्ञानका विकास जीवमें समस्त ज्ञानावरणकर्मका क्षय होनेपर ही होता है, केवलज्ञानावरणकर्मका क्षय होनेपर नहीं होता। इसप्रकार मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका सद्भाव होनेसे मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव तो श्रुतज्ञानके बलसे कार्य-कारणभावका विश्लेषण करते है, परन्तु केवलज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका अभाव निश्चित हो जानेसे केवलज्ञानी जीव कार्यकारणभावका विश्लेषण नहीं २० Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ करते हैं। एक बात और है कि मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव यतः कृतकृत्य नहीं होते, अतः उन्हें तो कार्योत्पत्तिके लिए कार्य-कारणभावका विश्लेषण करना अनिवार्य है, परन्तु केवलज्ञानी जीव यतः कृतकृत्य होते हैं, अतः उन्हें कार्योत्पत्तिके अनावश्यक हो जानेसे उसमें हेतुभूत कार्य-कारणभावका विश्लेषण करना आवश्यक नहीं है। पूर्वमें बतलाया जा चुका है कि विश्वमें एक आकाश, एक धर्म, एक अधर्म, असंख्यात काल, अनन्तजीव और अनन्त पुदगलरूप जितने पदार्थ विद्यमान हैं उन सबमें प्रतिसमय स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्ययके भेदसे दोनों प्रकारके परिणमन होते रहते हैं व उनमेंसे जो स्व-परप्रत्यय परिणमन हैं वे प्रेरक और उदासीन निमित्तोंके सहयोगपूर्वक ही होते हैं। एवं उन परिणमनोंकी उत्पत्तिके लिए पदार्थोंको प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका सहयोग प्रायः निसर्गतः ही प्राप्त रहता है। परन्तु किन्हीं-किन्हीं पदार्थोंको उन प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका सहयोग आवश्यकतानसार जीवोंके प्रयत्नपूर्वक भी होता है। जैसे रेलगाडीको उसकी चलनक्रियामें प्रेरक निमित्तभूत इंजनका और उदासीन निमित्तभूत रेलपटरीका जो सहयोग प्राप्त होता है वह जीवोंके प्रयत्नपूर्वक ही होता है। यद्यपि कार्तिकेयानुपेक्षाकी गाथा-३२१-२२, पद्मपुराण सर्ग-११० के श्लोक-४० और अन्य आगमवचनोंसे भी यह ज्ञात होता है कि पदार्थों में जो परिणमन होते है वे केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानमें जैसे प्रतिभासित होते हैं वैसे ही होते हैं, परन्तु इस कथनका यह आशय नहीं ग्रहण करना चाहिए कि उन परिणमनोंकी उत्पत्तिमें केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानमें होनेवाला वह प्रतिभासन कारण होता है, क्योंकि केवलज्ञानी जीव कार्य-कारणभावके आधारपर उत्पन्न हुई, उत्पन्न हो रही और आगे उत्पन्न होने वाली पर्यायोंको ही जानते हैं। अतएव केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञान में होनेवाले प्रतिभासनके अनुसार उन पर्यायोंकी उत्पत्ति स्वीकार करना गलत है। फलतः प्रकृत विषयमें दोनों पक्षोंके मध्य जो मतभेद है वह इस बातका है कि जहाँ उत्तरपक्ष पदार्थों के सभी परिणमनोंकी उत्पत्तिमें केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानकी विषयताके आधारपर क्रमबद्धता अर्थात नियतक्रमता स्वीकार करता है वहाँ पूर्वपक्ष उन परिणकनोंकी उत्पत्तिमें श्रुतज्ञानसे ज्ञात कार्यकारणभावके आधारपर यथासम्भव क्रमबद्धता अर्थात् नियतक्रमता और अक्रमबद्धता अर्थात् अनियतक्रमता दोनों ही बातोंको स्वीकार करता है। अर्थात् पूर्वपक्षकी मान्यता है कि स्वप्रत्यय परिणमन तो प्रेरक और उदासीन निमित्तोंके सहयोगके बिना उपादानकारणजन्य होनेसे क्रमबद्ध ही होते हैं तथा स्व-परप्रत्यय परिणमन प्रेरक और उदासीन निमित्तोंके सहयोगपूर्वक उपादानकारणजन्य होनेसे प्रेरक और उदासीन निमित्तोंकी प्राप्तिके अनुसार क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध उभयरूप होते हैं। पदार्थों के परिणमनोंकी उत्पत्तिके विषयमें दोनों पक्षोंकी परस्परविरोधी इन मान्यताओं में से कौन मान्यता युक्त और कौन मान्यता अयुक्त है, इसका निर्णय किया जाता है १. यद्यपि कार्तिकेयानुप्रक्षाको गाथा-३२१-२२, पद्मपुराण सर्ग-११० के इलोक-४० एवं अन्य आगमवचनोंके आधारपर पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष दोनों ही पदार्थोके परिणमनोंके विषयमें यह स्वीकार करते हैं कि वे परिणमन जैसे केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञान में प्रतिभासित होते हैं वैसे ही होते हैं। पर ध्यान रहे कि केवलज्ञानी जोवके केवलज्ञान में होनेवाला पदार्थोंके स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय परिणमनोंका वह प्रतिभासन उनको उत्पत्तिका नियामक नहीं होता है, क्योंकि वास्तविकता यह है कि पदार्थोंके स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय परिणमन स्वकीय कार्य-कारणभावके आधारपर जिस रूपमें उत्पन्न हुए, उत्पन्न हो रहे हैं और Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ । धर्म और सिद्धान्त : १५५ आगे उत्पन्न होंगे उस रूप में हो वे केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञान में प्रतिभासित होते हैं। इससे निर्णीत होता है कि उन परिणमनोंकी उत्पत्तिका नियामक श्रुतज्ञानपर आधारित कार्य-कारण भाव ही होता है, केवलज्ञानमें होनेवाला उनका प्रतिभासन नहीं। फलतः कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथा-३२१-२२ के "जिस पदार्थका जिस देशमें और जिस कालमें जिस विधानसे जैसा परिणमन जिनेन्द्र भगवानने ज्ञात किया है उस पदार्थका उस देशमें और उस कालमें उस विधानसे वैसा ही परिणमन होता है।" इस कथनका व पद्मपुराण सर्ग-११० के श्लोक ४० के "जिस जीवके द्वारा जिस देशमें और जिस कालमें जिस कारणसे जैसा प्राप्तव्य है उस जीवका उस देशमें और उस कालमें उस कारणसे वैसा ही प्राप्त होता है" इस कथनका एवं भैया भगवतीदासके "जो जो देखी वीतरागने सो सो होसी वीरा रे" इस कथनका मात्र यही प्रयोजन ग्रहण करना उचित है कि जीव विवक्षित पदार्थके विवक्षित परिणमनकी सम्पन्नताके लिए तदनुकल कारणोंको जुटानेका जो प्रयत्न (पुरुषार्थ) करता है उसको सफलतामें वह अहंकार न करे व असफलतामें हताश होकर अकर्मण्य न हो जावे । इस प्रकार उत्तरपक्ष द्वारा पदार्थोके परिणमनोंकी उत्पत्तिको केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानकी विषयताके आधारपर क्रमबद्ध मान्य किया जाना अयुक्त है व पूर्वपक्ष द्वारा पदार्थों के परिणमनोंकी उत्पत्तिको पूर्वोक्त प्रकार कार्यकारणभावके आधारपर क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध मान्य किया जाना युक्त है । एक बात और है कि सभी पदार्थ जब अनादिसिद्ध हैं तो उनके परिणमन भी अनादिकालसे होते आये हैं, जबकि केवलज्ञानकी सादिता आगमसिद्ध होनेसे दोनों ही पक्ष स्वीकार करते हैं। फलतः पदार्थों के परिणमनोंकी उत्पत्ति में उन परिणमनोंका केवलज्ञानमें प्रतिभासित होना कार्यकारी सिद्ध नहीं होता। इस बातको तृतीय दौरकी समीक्षामें विस्तारसे स्पष्ट किया जायगा। २. पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है कि कार्योत्पत्ति के लिए कार्य-कारणभावका विश्लेषण श्रुतज्ञान द्वारा ही हो सकता है, केवलज्ञान द्वारा नहीं, अतः केवलज्ञानी जीव एक तो श्रुतज्ञानके अभावमें कार्य-कारणभावका विश्लेषण कर नहीं सकता है, दुसरे उसके कृतकृत्य हो जानेसे कार्योत्पत्तिके अनावश्यक हो जानेके कारण उसे कार्य-कारणभावका विश्लेषण करना आवश्यक नहीं है । यतः मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव एक तो श्रृतज्ञानके सदभाव में कार्यकारणभावका विश्लेषण करते हैं, दूसरे कृतकृत्य न होनेसे उन्हें कार्योत्पत्तिके लिए कार्य-कारणभावका विश्लेषण करना अनिवार्य भी है । अतएव मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव विवक्षित कार्यकी उत्पत्तिके लिए श्रुतज्ञान द्वारा कार्य-कारणभावका विश्लेषण करके ही कारणोंके जुटाने का प्रयत्न करते हैं। इसके अलावा यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंको कार्योत्पत्ति के लिए प्रयत्न करनेके अवसरपर जिस प्रकार कार्य-कारणभावपर दृष्टि रखना आवश्यक है उस प्रकार केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानकी विषयतापर दृष्टि रखना आवश्यक नहीं है । इससे सिद्ध होता है कि उत्तरपक्षद्वारा पदार्थोके परिणमनोंकी उत्पत्तिको केवलज्ञानी जीवकी केवलज्ञानकी विषयतापर आधारित क्रमबद्ध मान्य किया जाना अयुक्त है व पूर्वपक्ष द्वारा पदार्थों के परिणमनोंकी उत्पत्तिको कार्यकारणभावके आधारपर क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध मान्य किया जाना युक्त है। यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि जीव द्वारा कार्योत्पत्ति के लिए श्रुतज्ञानके बलसे किया गया कार्यकारणभावका निर्णय यथायोग्य सम्यक् और मिथ्या दोनों प्रकारका हो सकता है, अतः वह निर्णय यदि सम्यक हो तो उसके आधारसे कार्योत्पत्तिके लिए किया गया जीवका प्रयत्न सफल होता है और यदि मिथ्या हो तो उसके आधारके कार्योत्पत्तिके लिए किया गया जीवका प्रयत्न असफल होता है। इसके अतिरिक्त जीव यदि Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ विवेकी है तो अपने प्रयत्नके सफल हो जानेपर वह अहंकार नहीं करता है और असफल हो जानेपर हताश होकर अकर्मण्य भी नहीं होता है। परन्तु जीव यदि अविवेको है तो वह अपने प्रयत्नके सफल होनेपर अहंकार करने लगता है व असफल होनेपर हताश होकर अकर्मण्य भी हो जाता है। ३. मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंको कार्योत्पत्तिके अवसरपर एक तो उसके विषयमें केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञान में क्या प्रतिभासित हो रहा है ? इसकी जानकारी (ज्ञान) होनेका कोई नियम नहीं है। वे तो मात्र 'जो जो देखी वीतारगने सो सो होसी वीरा रे" यह विकल्प ही कर सकते हैं। दूसरे. कार्योत्पत्तिके अवसर पर कदाचित किसी जीवको कार्योत्पत्ति के विषयमें केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानमें जो प्रतिभासित हो रहा है उसका ज्ञान हो भी जावे, परन्तु वह जीव यदि अविवेकी है तो उस अविवेकके आधारपर वह अपना प्रयत्न विपरीत करनेको भी उद्यत हो सकता है। जैसे मारीचको तीर्थकर ऋषभदेवकी दिव्यध्वनिके श्रवणसे जब यह ज्ञात हुआ कि वह भी तीर्थकर होगा, तो 'नान्यथावादिनो जिनाः' ऐसा अटल विश्वास करके वह कुमार्गगामी बनकर नानाप्रकारको कुत्सित योनियों में बहुत काल तक भ्रमण करता रहा और जब वह सुबोधके आधारपर कुमार्गको त्यागकर सन्मार्गका पथिक बना तभी वह महावीरके रूपमें अन्तिम तीर्थंकर बन सका। इस विषयमें उत्तरपक्षका "मारीचको अन्तिम तीर्थंकर महावीर बनना था, इसलिए वह कुमार्गगामी बना ।" यह कथन तर्कपूर्ण नहीं माना जा सकता है, क्योंकि वह सन्मार्गपर चलकर उत्तम योनियोंमें भ्रमण करके भी अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर बन सकता था। इससे निर्णीत होता है कि उत्तरपक्ष द्वारा पदार्थोके परिणमनोंकी उत्पत्तिको केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानकी विषयताके आधारपर मात्र क्रमबद्ध मान्य किया जाना युक्त नहीं है अपितु पूर्वपक्ष द्वारा उन परिणमनोंकी उत्पत्तिको कार्य-कारणभावके आधारपर क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध मान्य किया जाना युक्त है। ४. श्रीकानजी स्वामीने तो भैया भगवतीदासजीके 'जो-जो देखी वीतरागने सो-सो होसी वीरा रे' इस वचनपर आधारित पर्यायोंकी उत्पत्तिकी क्रमबद्धतामें अटूट विश्वास रखकर यहाँ तक मान लिया कि कार्योत्पत्तिके लिये किया जानेवाला जीवोंका प्रयत्न (पुरुषार्थ) भी उसी क्रमबद्धताका अंग है । इसका परिणाम यह हुआ कि जब उन्हें शारीरिक व्याधि हुई, तो वे अपनेको महान् अध्यात्ममार्गी व अध्यात्मके अभूतपूर्व उपदेष्टा मानते हुए भी राजसी वैभवमें लिप्त रहनेके कारण उस व्याधिको सहन नहीं कर सके और भैया भगवतीदासजोके उक्त वचनके आधारपर पुरुषार्थहीन होकर वे न केवल इस मार्गको भूल गये, अपितु भक्तोंकी प्रार्थना.और डाक्टरोंके सुझावोंकी उपेक्षा करके उस व्याधिसे छुटकारा पानेके लिए बम्बई जाकर जसलोक अस्पतालमें प्रविष्ट हुए एवं वहीं कालकवलित हो गये । इससे भी निर्णीत होता है कि उत्तरपक्ष द्वारा पदार्थोंके परिणमनोंकी उत्पत्तिको केवलज्ञानी जीवोंकी केवलज्ञानविषयताके आधारपर मात्र क्रमबद्ध मान्य किया जाना अयुक्त है, किन्तु पूर्वपक्ष द्वारा उन परिणमनोंकी उत्पत्तिको कार्य-कारणभावके आधरपर क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध मान्य किया जाना युक्त है। ५. माना कि तीर्थंकर नेमिनाथकी दिव्यध्वनिके श्रवणसे श्रोताओंको ज्ञात हुआ कि बारह वर्ष व्यतीत होने पर द्वारिकापुरी भस्म हो जायेगी और उसे भस्म न होने देनेके लिए लोगों द्वारा लाख करनेपर भी वह भस्म हो गयी, परन्तु इसमें ज्ञातव्य यह है कि द्वारिकापुरी तदनुरूप कारणोंके मिलनेपर ही भस्म हई वह तीर्थकर नेमिनाथके केवलज्ञान में होनेवाले प्रतिभासनके बलपर अथवा भगवान नेमिनाथकी दिव्यध्वनिके बलपर नहीं भस्म हुई। इसी प्रकार केवलज्ञानी जीवोंके समान मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १५७ मनःपर्ययज्ञानी जीवोंकी भविष्यवाणियाँ भी यथायोग्य सत्य हो सकती हैं या होती हैं, परन्तु वहाँ भी कार्य तो श्रुतज्ञानके बलपर निर्णीत कार्य-कारणभावके आधारपर ही सम्पन्न होते है । मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके यथायोग्य मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके बलपर अथवा उनकी भविष्यवाणियोंके बलपर नहीं । इस विवेचनसे भी निर्णीत होता है कि उत्तरपक्ष द्वारा पदार्थों के परिणमनोंकी उत्पत्तिको केवलज्ञानी जीवकी केवलज्ञानविषयताके आधारपर मात्र क्रमबद्ध मान्य किया जाना अयुक्त है व पूर्वपक्ष द्वारा उन परिणामोंकी उत्पत्तिको कार्य-कारणभावके आधारपर क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध मान्य किया जाना युक्त है। ६. उत्तरपक्षकी मान्यता है कि भवितव्यता (भविष्यमें होनेवाली कार्योत्पत्ति) के अनुसार ही जीवको बुद्धि हो जाती है। उसका पुरुषार्थ भी उसी भवितव्यताके अनुसार होता है और अन्य सहायक कारण भी उसी भवितव्यताके आधारपर प्राप्त होते हैं "तादृशी जायते बुद्धिय॑वमायश्च तादृशः । सहायस्तादृशाः सन्ति यादृशी भविव्यता ॥" । सो उसकी यह मान्यता भी मिथ्या है क्योंकि वह पक्ष भवितव्यताके अनुसार होनेवाली कार्योत्पत्तिमें कारणभूत बुद्धि, व्यवसाय (पुरुषार्थ) और अन्य सहायक कारणोंकी प्राप्ति भी उसी भवितव्यताके अनुसार मानता है। फलतः ऐसी अवस्थामें उक्त बुद्धि, पुरुषार्थ और सहायक कारणोंके बिना भी कार्योत्पत्तिके होनेका प्रसंग उपस्थित होता है। इसपर यदि उत्तरपक्ष यह कहे कि वह प्रसंग उसको इष्ट है, तो उसका ऐसा कहना आप्तमीमांसाकी कारिका' ८८, ८९, ९० और ९१ के कथनके विरुद्ध है। इस बातको दार्शनिक विद्वान् अच्छी तरह समझ सकते हैं। ___ तात्पर्य यह है कि आप्तमीमांसाकी उक्त कारिकाओंके अनुसार भवितव्यता (भविष्यमें होनेवालो) कार्योत्पत्ति), जिसे वर्तमानमें कार्योत्पत्तिको योग्यता, अदष्ट या दैव कहा जाता है-के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु नहीं है। तथा इससे होनेवालो कार्योत्पति (उसको कार्यरूप परिणति) जीवकी बुद्धि (श्रुतज्ञान और व्यवसाय (परुषार्थ) तथा अन्य सहायक कारणोंका सहयोग प्राप्त होनेपर ही होती है, अतः भवितव्यताको उक्त बुद्धि, व्यवसाय और अन्य सहायक कारणों को प्राप्तिमें कारण नहीं माना जा सकता है । फलतः उक्त कारिकाओंके आधारपर यही निर्णीत होता है कि पदार्थ में विवक्षित भवितव्यता (कार्यरूप परिणत होनेकी योग्यता) हो उसे बद्धि. परुषार्थ तथा अन्य साधनसामग्रीका योग प्राप्त हो जावे, तो ही विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति होती है । तथा पदार्थ में विवक्षित भवितव्यता विद्यमान रहनेपर भी यदि बुद्धि, व्यवसाय और अन्य १. दैवादेवार्थसिद्धिश्चेदैवं पौरुषतः कथम् । दैवतश्चेदविर्मोक्षः पौरुषं निष्फलं भवेत् ।।८८।। पौरुषादेवार्थसिद्धिश्रचेत् पौरुषं दैवतः कथम् । पौरुषाच्चेदमोघ स्यात सर्वप्राणिषु पौरुषम् ।।८९।। विरोधान्नोभयकात्म्यं स्याद्वादन्याय विद्विषाम् । अवाच्यतकान्तेप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥९०॥ अबुद्धिपूपिआयामिष्टानिष्टं स्वदैवतः । बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्ट स्वपौरुषात ॥९१॥ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ सरस्वती वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ साधनसामग्रीका योग न प्राप्त हो तो विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती है। यदि उत्तरपक्ष यह कहे कि भवितव्यता के अनुसार जो कार्यकी उत्पत्ति होती है वह बुद्धि, व्यवसाय और अन्य सहायक सामग्रीकी अपेक्षाके बिना ही होती है, तो उसकी यह स्वीकृति एक तो आप्तमीमांसाकी उपर्युक्त कारिकाओंके विरुद्ध है और दूसरे वह अयुक्त भी है, क्योंकि कार्योत्पत्तिके विषय में कारणसामग्रीकी अपेक्षा कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथा ३२१-२२ में व पद्मपुराण सर्ग ११० के श्लोक ४० में भी स्वीकार की गयी है। संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवोंके अनुभव, इन्द्रियप्रत्यक्ष और तर्क से भी ऐसा ही निर्णीत होता है । निष्पत्ति १. समयसार के सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारकी गाथा ३०८ से ३११ तककी आत्मख्याति टीकाका जो कथन पूर्वमें उद्धृत किया गया है उसमें निर्दिष्ट "क्रमनियमित' शब्दका उत्तरपक्षने जो यह अर्थ समझा है कि "क्रम अर्थात् क्रमसे ( नम्वरवार) तथा नियमित अर्थात् निश्चित जिस समय जो पर्याय आनेवाली है वही आयेगी, उसमें फेर फार नहीं हो सकता ।" उसे मैं उसकी भ्रमबुद्धि का परिणाम मानता हूँ, क्योंकि प्रकरणको देखते हुए उस 'क्रमनियमित' शब्दका क्रम अर्थात् एकके पश्चात् एकरूप क्रममें नियमित अर्थात् निश्चित अर्थ ही संगत है। भाव यह है कि प्रत्येक पदार्थकी एकजातीय नाना पर्यायोंकी उत्पत्ति एकके पश्चात् एकरूप क्रमसे ही होती है, युगपत् अर्थात् एकसाथ एक ही समयमें नहीं होती । इस बातको पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है । २. केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानकी विषयताके अनुसार निर्णीत पर्यायोंकी क्रमबद्धता के आधारपर उन पर्यायोंकी उत्पत्तिको क्रमबद्ध मानना युक्त नहीं है, क्योंकि उन पर्यायों की उत्पत्ति श्रुतज्ञानके आधारपर निणांत कार्य कारणभावके आधारपर यथायोग्य क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध दोनों प्रकारसे होती है तथा श्रुतज्ञानके दलसे निर्णीत कार्य कारणभावके आधारपर क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध रूप से उत्पन्न हुई उत्पन्न हो रहीं और आगे उत्पन्न होनेवाली पर्याय केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानमें क्रमबद्ध ही प्रतिभासित होती हैं । इस विषयको भी पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। ३. कार्तिकेयानुप्रक्षाकी गाथा ३२१-२२ व पद्मपुराण सर्ग ११० के श्लोक ४० तथा अन्य आगमवाक्यों में पर्यायोंकी जिस क्रमबद्धताका विवेचन किया गया है उसका उपयोग पर्यायोंकी उत्पत्तिके विषयमें नहीं करना चाहिए क्योंकि उनका उपयोग कार्योलत्तिके लिए प्रयत्नशील जीवोंको अपने प्रयत्न में सफल होनेपर अहंकार न करने व असफल होनेपर हताश होकर अकर्मण्य न बननेके लिए करना ही उचित है । यदि कोई व्यक्ति उसका उसके अतिरिक्त अन्य उपयोग करना चाहता है तो उसका मारीच व कांजीस्वामी के समान अकल्याण होना संभव है। इस विवेचनको भी पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है । इस प्रकार प्रकृत विषयके संबंध में अबतक जो विवेचन किया गया है उससे निर्णीत होता है कि पदार्थोंकी श्रुतज्ञानके बलसे निर्णीत कार्य कारणभावके आधारपर यथायोग्य क्रमबद्ध और अक्रमबद्धरूपसे निष्पन्न हुई, निष्पन्न हो रहीं और आगे निष्पन्न होने वाली स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञान द्वारा होने वाली शप्तिको ही क्रमबद्ध स्वीकार करना उचित है। उनकी उत्पत्तिको तो श्रुतज्ञानके बलसे निर्णीत कार्य-कारणभावके आधारपर यथायोग्य क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध मान्य करना ही युक्त और कल्याणकारी हैं । मुझे इस बातका आश्चर्य है कि श्री कानजोस्वामीने अनुभव इन्द्रियप्रत्यक्ष और तर्क विरुद्ध आगमके अभिप्रायको ग्रहणकर केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानकी विषयताके आधारपर निर्णीत पर्यायोंकी क्रमबद्धताका 7 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : १५९ श्रुतज्ञानके बलपर निर्णीत कार्यकारणभावपर आधारित पर्यायोंकी उत्पत्तिमें उपयोग किया है। मुझे इस बातका भी आश्चर्य है कि सोनगढसिद्धान्तवादी वर्ग भी उनके उपदेशसे प्रभावित होकर उनको अनुभव, इन्द्रियप्रत्यक्ष और तर्क के विरुद्ध मान्यताका अनुसरण कर रहा है। मुझे इस बातका भी आश्चर्य है कि पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य, वाराणसी और डॉ० हुकुमचंद्र भारिल्ल जयपुरने उक्त मान्यताको पुष्ट किया है। मुझे इस बातका भी आश्चर्य है कि डॉ हुकमचन्द्र भारिल्लकी 'क्रमबद्ध पर्याय' पुस्तकमें निर्दिष्ट आचार्यों मनिराजों, व्रतियों, विद्वानों और लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाओंने आगमके अभिप्रायको समझनेकी चेष्टा न करके उनकी मान्यताका समर्थन किया है और मुझे इस बातका भी आश्चर्य है कि कतिपय अन्य साधु, व्रती, विद्वान् और सामान्य जन भी कार्योत्पतिके विषयमें उनकी (कानजीस्वामीको) उस मान्यताको स्वीकार करनेके लिए उत्सुक हैं। ऐसी विचित्र दशा देखते हुए मेरी दृष्टि आगमके उस वचनपर जाती है जिसमें यह बतलाया गया है कि सिद्धान्तग्रन्थोंका पठन-पाठन गृहस्थोंके लिए उचित नहीं है। वर्तमानमें तो आगमका वह वचन कतिपय साधु-संतोंपर भी लागू होता है। वास्तवमें सिद्धान्तका अनर्थ और दुरुपयोग रोकनेसे लिए ही आचार्योंने बड़ी सूझ-बूझसे सिद्धान्तग्रन्थोंके अध्ययनका सर्वसाधारणके लिए निषेध किया है। मुझे आशा है कि सोनगढ़सिद्धान्तवादी सभी जन मेरे इस विवेचनपर गम्भीरतापूर्वक विचार करके तथ्यका निर्णय करेंगे। तथा आगमके अभिप्रायको समझने में लापरवाह एवं संशयमें पड़े हए पुरातन सिद्धान्तवादी सभीजन भी उत्पत्तिकी अपेक्षा आगम द्वारा स्वीकृत व अनुभव, इन्द्रियप्रत्यक्ष और तर्कसे सिद्ध स्वप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिको क्रमबद्ध और स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिको निमित्तोंके समागमके अनुसार क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध ही मान्य करेंगे । केवलज्ञानको विषयमर्यादा . समयसार गाथा १०३ में बतलाया गया है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यके साथ संयुक्त या बद्ध होने पर भी वे दोनों द्रव्य कभी तन्मयरूपसे एकरूताको प्राप्त नहीं होते । और न एक-दूसरे द्रव्यके गुण-धर्म ही एकदूसरे द्रव्यमें संक्रमित होते हैं जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि ण संकमदि दव्वे । पंचास्तिकायकी गाथा ७ में भी बतलाया गया है कि सभी द्रव्य परस्परमें प्रविष्ट होते हुए भी, परस्परको अवगाहित करते हुए भी और परस्पर (दूध और जलकी तरह) मिलकर रहते हुए भी कभी अपने स्वभावको नहीं छोड़ते हैं अण्णोण्णं पविसंता दिता ओगासमण्णमण्णस्स। मेलंता वि य णिच्चं सगं सहावं ण विजहंति ।। तात्पर्य यह है कि विश्वमें एक आकाश, एक धर्म, एक अधर्म, असंख्यात् काल, अनन्त जीव और अनन्त पुद्गलरूप जितने पदार्थ हैं वे सभी यथायोग्य परस्पर संयुक्त होकर हो रह रहे हैं तथा जोव और पुद्गल एवं पुद्गल और पुद्गल परस्पर बद्ध होकर भी रह रहे हैं। तथापि सभी द्रव्य अपने-अपने द्रव्यरूप, गणरूप और पर्यायरूप स्वभावमें रह रहे हैं और रहते जावेंगे। कोई भी पदार्थ संयुक्त या बद्ध दशामें दूसरे पदार्थकी द्रव्यरूपता, गुणरूपता और पर्यायरूपताको प्राप्त नहीं होता, न हो सकता है। इतना अवश्य है कि सभी पदार्थ यथायोग्य उस संयुक्त या बद्ध दशामें परस्परके सहयोगसे अपना स्व-परप्रत्यय परिणमन करते Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ रहते हैं। जीव और पुद्गल तथा पुद्गल और पुद्गल तो उस बद्ध दशामें परस्परके सहयोगसे अपना-अपना स्व-परप्रत्यय परिणमन विकृत भी करते रहते हैं। समयसार गाथा ८० में कहा भी है कि जीवके परिणामोंके निमित्त (सहयोग) से पुदगल कर्मरूप परिणत होते हैं और पुद्गलकर्मके निमित्त (सहयोग) से जीव भी तथैव (रागादिभावकर्मरूप) परिणत होता हैं जीवपरिणामहेदूं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमई ॥ समयसार गाथा ८१ में यह भी कहा गया है कि बद्ध दशामें जीव पुद्गलकर्मगुणरूप परिणत नहीं होता और पुद्गलकर्म जीवगुणरूप परिणत नहीं होता। परस्परके निमित्तसे (सहयोगसे) दोनोंका अपनाअपना परिणमन अश्य होता है-- ण वि कुव्वइ कम्मगुणे जोवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोहणंपि ।। यह वस्तुस्थिति है । इससे यह सिद्ध होता है कि यद्यपि उपर्युक्त सभी पदार्थ परस्पर संयुक्त होकर रह रहे हैं व जीव और पुद्गल तथा पुद्गल और पुद्गल अनादिकालसे परस्पर बद्ध होकर भी रहते आये हैं, तथापि वे पदार्थ यथायोग्य उस संयुक्त दशामें या बद्ध दशामें भी सतत अपनी-अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता और स्वप्रत्यय व स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपतामें ही विद्यमान हैं। जैसे संयुक्त दशामें आकाशकी अपनी द्रव्यरूपता नियत अनन्तप्रदेशात्मक हो है। धर्मको, अधर्मकी और सभी जीवोंमेंसे प्रत्येक जीवकी अपनी-अपनी द्रव्यरूपता नियत असंख्यातप्रदेशात्मक ही है। तथा समस्त कालोंमेंसे प्रत्येक कालकी व समस्त पदगलोंमेंसे प्रत्येक पुद्गलकी अपनी-अपनी द्रव्यरूपता एकप्रदेशात्मक ही है । ऐसी ही स्थिति संयुक्त दशामें उन पदार्थोकी अपनी-अपनी गुणरूपता और स्वप्रत्यय एवं स्व-परप्रत्ययपर्यायरूपताकी भी नियत है तथा बददशामें जीव और पुद्गलकी व पुद्गल और पुद्गलकी अपनी-अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता, व स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपताकी भी ऐसी ही स्थिति नियत है । यही कारण है कि पुरुषार्थसिद्धयुपाय (पद्य एक) में बतलाया गया है कि सभी पदार्थ केवलज्ञानमें दर्पणतलके समान अपनी-अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता, और स्वप्रत्यय व स्वपरप्रत्ययपर्यायरूपतासहित प्रतिसमय युगपत् पृथक्-पृथक् ही प्रतिफलित हो रहे हैं तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायैः । दपर्णतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिक यत्र । जो बात इस पद्यमें बतलाई गई है वही बात तत्त्वार्थसूत्रके 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' (१-२९) सूत्रमें भी बतलाई गई है। यह विवेचन हमें इस निष्कर्षपर पहुंचा देता है कि उक्त सभी पदार्थ परस्पर संयुक्त रहते हुए भी जीव और पुद्गल तथा पुद्गल और पुद्गल परस्पर बद्ध रहते हुए भी जब केवलज्ञानमें सतत् अपनी-अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता और स्वप्रत्यय व स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपतासहित पृथक्-पृथक् ही प्रतिभासित हो रहे हैं तो उस स्थितिमें उन पदार्थोंको संयुक्त दशाका व जीव और पुद्गल एवं पुद्गल और पुद्गलकी बद्धदशाका प्रतिभासन केवलज्ञानमें नहीं हो सकता है। तात्पर्य यह है कि समयसार, गाथा १०३, पंचास्तिकाय, गाथा ७ और समयसार, गाथा ८१ के अनुसार उक्त पदार्थोंका परस्पर पृथक्कपना वास्तविक सिद्ध होता है व उनकी यथायोग्य संयुक्त व बद्ध दशा Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त: १६१ अवास्तविक सिद्ध होती है । इसलिए केवलज्ञानमें जब प्रतिक्षण पदार्थोंकी वास्तविक पृथक्-पृथक्रूपताका प्रतिभासन हो रहा है तो उसमें उनकी अवास्तविक यथायोग्य परस्पर संयुक्त दशाका या बद्ध दशाका प्रतिभासन होना संभव नहीं रह जाता है । मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञानमेंसे मतिज्ञान हो ऐसा ज्ञान है जिसमें सोपकी वास्तविक सोपरूपताका और आस्तविक रजतरूपताका प्रतिभासन सम्भव है । परन्तु उस मतिज्ञान में भी जब सीपका वास्तविक सीपरूपताका प्रतिभासन हो रहा हो तब उसकी अवास्तविक रजरूपताका प्रतिभासन नहीं होता है और उसमें जब सीपको अवास्तविक रजरूपताका प्रतिभासन हो रहा हो तब उसकी वास्तविक सोपरूपताका प्रतिभासन नहीं होता है । यदि कहा जाये कि सीपकी रजतरूपता जैसी अवास्तविक है वैसी अवास्तविक पदार्थों की संयुक्त दशा या बद्ध दशा नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार मतिज्ञानमें सोपकी अवास्तविक रजरूपताका प्रतिभासन मिथ्या माना जाता है उस प्रकार मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानमें होनेवाले पदार्थोंकी संयुक्त दशा या बद्ध दशाके प्रतिभासनको मिथ्या नहीं माना जाता है, इसलिए केवलज्ञानके विषयमें मतिज्ञानका उपर्युक्त उदाहरण अयुक्त है, तो इसका समाधान यह है कि मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में प्रतिभासित होनेवाली पदार्थोंकी संयुक्तदशा या बद्धदशा नानापदार्थ निष्ठ होनेसे उपचारित धर्मके रूपमें उपचारसे ही वास्तविक है । एकपदार्थनिष्ठ स्वरूपदृष्टिसे तो वह मिथ्या हो है । अतएव प्रत्येक पदार्थके पृकक्-पृथक् स्वरूपका प्रतिभासन करनेवाले केवलज्ञानमें उसके प्रतिभासनका निषेध किया गया है, क्योंकि केवलज्ञानमें सतत प्रत्येक पदार्थ के पृथक्-पृथक् तदात्मक स्वरूपका हो प्रतिभासन होता है । इस विवेचनसे यह भी सिद्ध होता है कि मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में होनेवाला पदार्थका प्रतिभासन केवलज्ञानमें होनेवाले पदार्थ के प्रतिभासनसे विलक्षण ही होता । इस विलक्षणताका स्पष्टीकरण निम्नप्रकार है १ यतः जीव में केवलज्ञान समस्तज्ञानावरणकर्मका सर्वथा क्षय हो जानेपर ही प्रकट होता है, अतः केवलज्ञानमें समस्त पदार्थोंकी एक-एक क्षणवर्ती स्थितिके प्रतिभासनकी क्षमता होनेसे उसमें सभी पदार्थों की एक-एक क्षणवर्ती स्थितिका पृथक्-पृथक् प्रतिभासन होता है । यतः जीवमें मतिज्ञान मतिज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर प्रकट होता है, अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर प्रकट होता है और मन:पर्ययज्ञान मन:पर्ययज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर प्रकट होता है, अतः तीनों ज्ञानोंमें अपने-अपने विषयभूत पदार्थको अन्तर्मुहर्त कालवर्ती नाना स्थितियोंका अखण्ड रूपसे प्रतिभासन होनेकी क्षमता होनेसे पदार्थको अन्तर्मुहर्त कालवर्ती नाना स्थितियोंका ही अखण्डरूपसे प्रतिभासन होता है। तात्पर्य यह है कि जहाँ उक्त प्रकार क्षायिक होनेसे केबलज्ञानमें होनेवाला पदार्थका प्रतिभासन क्षण-क्षण में परिवर्तनशील है वहाँ उक्त प्रकार क्षायोपशमिक होनेसे मतिज्ञान, अवधिज्ञान ओर मनः पर्यज्ञान इन तीनोंमें होनेवाला पदार्थका प्रतिभासन अन्तर्मुहर्त कालमें ही परिवर्तनशील है। एक-एक क्षण में परिवर्तनशील नहीं है । २ - यतः जीव में केवलज्ञान समस्तज्ञानावरणकर्म के सर्वथा क्षय होनेपर प्रकट होता है, अतः उसमें समस्त पदार्थोंका प्रतिभासन मात्र स्व-सापेक्ष होनेसे असीम होता है । यह बात तत्त्वार्थसूत्रके “सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य” (१-२९) सूत्रसे जानी जाती है। इसके विपरीत जीव में मतिज्ञान मतिज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर प्रकट होता है अतः उसमें होनेवाला पदार्थका प्रतिभासन पौद्गलिक स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र, कर्ण और मनके अवलम्बनपूर्वक होनेसे मर्यादित होता है । यह बात तत्त्वार्थसूत्रके “मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्ये सर्व पर्यायेषु' (१-२६) सूत्रसे जानी जाती है । तथा जीवमें अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर व मन:पर्ययज्ञान मन:पर्ययज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर प्रकट होते हैं । अतः इनमें होनेवाला २१ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ पदार्थका प्रतिभासन स्वसापेक्ष होनेपर भी एक तो मात्र रूपी पदार्थका होता है। दूसरे वह प्रतिभासन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादा लिए हुए होता है। यह बात तत्त्वार्थसूत्रके "रूपिष्वधेः" (१-२७) व "तदनन्तभागे मनःपर्ययस्य" (१-२८) दोनों सूत्रोंसे जानी जाती है । ३–यतः जीवमें केवलज्ञान समस्तज्ञानावरणकर्मका सर्वथा क्षय होनेपर प्रकट होता है, अतः निराबाध होनेसे उसमें संयुक्त या बद्धपदार्थोंका संयुक्त या बद्धरूपसे प्रतिभासन न होकर पृथक-पृथक ही होता है जबकि जीवमें मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान उस-उस ज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर प्रकट होते हैं, अतः बाधासहित होनेसे उनमें संयुक्त या बद्ध पदार्थोंका प्रतिभासन तो संयुक्त या बद्धरूपमें ही होता है व असंयुक्त व अबद्ध पदार्थोंका प्रतिभासन असंयुक्त या अबद्ध रूपमें (पृथक्-पृथकरूपमें) ही होता है। जैसे इन तीनों ज्ञानोंमें दूध और जलके मिश्रण में तो दूध और जलका मिश्रितरूपसे ही प्रतिभासन होता है और पृथक्-पृथकरूपमें विद्यमान दूध और जलका प्रतिभासन पृथक्-पृथक् ही होता है। इसी तरह अवधिज्ञान और मनःपर्यज्ञानमें दो आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त अणुओंके स्कन्धरूपको प्राप्त अणुओंका प्रतिभासन पिण्डरूपसे ही होता है व पृथक्-पृथकरूपमें विद्यमान अणुओंका प्रतिभासन पृथक्-पृथक् रूपसे ही होता है। इससे निर्णीत होता है कि जहाँ केवलज्ञानमें संयुक्त या बद्ध पदार्थोंका प्रतिभासन संयुक्त दशामें या बद्ध दशामें संयुक्त या बद्धरूपसे न होकर पृथक्-पृथक रूपसे होता है वहाँ मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें अपने-अपने विषयभूत संयुक्त और बद्ध पदार्थोंका प्रतिभासन पृथक-पृथकरूपसे न होकर संयुक्त और बद्धरूपसे ही होता है। यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्दने नियमसारके उपयोगप्रकरण में सभी क्षायोपशमिक ज्ञानोंको विभावज्ञानको व क्षायिकपनेको प्राप्त केवलज्ञानको स्वभावज्ञानको संज्ञा दी है। इस विषयको मैंने जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चाकी समीक्षाके प्रथम भागमें प्रश्नोत्तर-४ के प्रथम दौरकी समीक्षामें स्पष्ट किया है। पूर्वमें यह बात बतलायी जा चुकी है कि जीवमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों एकसाथ अनादिकालसे विद्यमान है । तथा किसी-किसी जीवमें मतिज्ञान और श्रतज्ञानके साथ अवधिज्ञानका या मनःपर्ययज्ञानका अथवा अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान दोनोंका भी विकास हो जाता है। परन्तु जीवमें जब केवलज्ञानका विकास होता है तब मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानका अभाव हो जाता है। इससे निम्नलिखित तथ्य फलित होते हैं १. जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदंसणो होइ । णाणुवओगो दुविहो सहावणाणं विभावणाणंत्ति ॥१०॥ केवलमिदियरहियं असहायं तं सहावणाणंत्ति । सण्णाणिदरवियप्पे विहावणाणं हवे दुविहं ॥११॥ सण्णाणं चउभेदं मदिसुदओही तहेव मणपज्जं । अण्णाणं तिवियप्पं मदियाईभेददो चेव ॥१२॥ तह दसण उवओगी ससहावेदर-वियप्पदो दुविहो । केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहामिदि भणिदं ॥१३॥ चक्खू अचक्खू ओही तिण्णि वि भणिदं विभावदिच्छित्ति । गाथा १४ का पूर्वार्थ । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १६३ .. १-मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका सद्भाव रहनेके कारण मतिज्ञानी, अवविज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव ता मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानसे ज्ञात पदार्थका उस श्रुतज्ञानके बलसे विश्लेषण भी करते हैं, परन्तु केवलज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका अभाव रहनेसे केवलज्ञानी जीव केवलज्ञानसे ज्ञात पदार्थका कदापि विश्लेषण नहीं करते हैं। २-मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका सद्भाव रहनेके कारण मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव श्रुतज्ञानके बलसे एक ही पदार्थमें गुण-गुणीभावका भेद करके गुण और धाराधेयभावका विश्लेषण करते हैं. तथा एक ही पदार्थमें भेदके बलपर उपादानोपादेयभावरूप कार्यकारणभावका भी विश्लेषण करते हैं। इतना ही नहीं, तादाम्यसम्बन्धाश्रित अन्य सभी प्रकारके सम्बन्धोंका भी विश्लेषण करते है, परन्तु केवलज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका अभाव रहनेके कारण केवलज्ञानी जीव एक ही पदार्थमें भेदकी अवास्तविकताके कारण उक्त सभी प्रकारके सम्बन्धोंका विश्लेषण नहीं करते हैं । • ३-मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका सद्भाव रहनेके कारण मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव उस श्रुतज्ञानके बलसे नाना पदार्थों में भी आधाराधेयभाव और निमित्तनैमित्तिकभावरूप कार्य-कारणभाव आदि संयोगसम्बन्धाश्रित सभी प्रकारके सम्बन्धोंका विश्लेषण करते हैं। परन्तु केवलज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका अभाव रहनेके कारण केवलज्ञानी जीव नाना पदार्थों में संयोगसम्बन्धाश्रित उक्त सभी प्रकारके सम्बन्धोंका कदापि विश्लेषण नहीं करते हैं। ४-मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके साथ श्रतज्ञानका सद्भाव रहनेके कारण मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव उस श्रुतज्ञानके बलसे अर्थ और शब्दमें वाच्य-वाचकभाव व पदार्थ व ज्ञानमें ज्ञेय-ज्ञायकभाव आदि विविध प्रकारके सम्बन्धोंका भी विश्लेषण करते हैं, परन्तु केवलज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका अभाव रहनेके कारण केवलज्ञानी जीव इस प्रकारके सम्बन्धोंका विश्लेषण नहीं करते हैं। इस विवेचनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि जहाँ मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंका कार्य मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके द्वारा पदार्थों को जाननेका तथा श्रुतज्ञानके द्वारा विविध प्रकारके सम्बन्धोंका विश्लेषण करना है वहाँ केवलज्ञानी जीवका कार्य केवलज्ञानके द्वारा पदार्थोंको जानना तो है, परन्तु श्रुतज्ञानका अभाव होनेसे उक्त किसी भी प्रकारके सम्बन्धका विश्लेषण करना उसका कार्य नहीं है। पुद्गलोंका आवश्यक विवेचन जिस प्रकार कालद्रव्य अणुरूप है उसी प्रकार पुद्गल द्रव्य भी अणुरूप है । दोनोंमें विशेषता यह है कि जहां कालद्रव्य असंख्यात है और निष्क्रिय है वहाँ पुदगल द्रव्य अनन्त हैं और क्रियाशील भी हैं। काल और पुद्गल दोनों द्रव्योंमें एक विशेषता यह भी है कि जहाँ सभी कालाणु स्वभावदृष्टिसे समान हैं वहाँ सभी पुद्गलाणु स्वभावदृष्टिसे समान नहीं हैं । आगे इसी बातको स्पष्ट किया जाता है प्रत्येक पृद्गलाणु में स्वभावतः काला, पीला, नीला, लाल और सफेद इन पाँच वर्णो मेंसे कोई एक वर्ण रहता है । अतः सभी पुद्गलाणु वर्णकी अपेक्षा पाँच प्रकारके हो जाते हैं । वर्णकी अपेक्षा पाँच प्रकारके सभी पुद्गलाणुओंमेंसे प्रत्येक पुद्गलाणुमें खट्टा, मीठा, कडुवा, चरपरा और कषायला इन पाँच रसोंमें कोई एक रस रहता है। अतः सभी पुदगलाणु पाँच वर्षों और पांच रसोंकी अपेक्षा ५४५%3D२५ प्रकारके हो जाते हैं। इन २५ प्रकारके पुद्गलाणुओंमेंसे प्रत्येक पुद्गलाणमें सुगन्ध, और दुर्गन्ध दो गन्धोंमेंसे कोई एक गन्ध Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ रहता है । अतः सभी पुद्गलाणु इस अपेक्षासे २५४२% ५० प्रकारके हो जाते हैं । इन ५० प्रकारके पुद्गलाणुओंमेंसे प्रत्येक पुद्गलाणुमें स्निग्ध और रूक्ष इन दो स्पर्शोमेंसे कोई एक स्पर्श रहता है । इस प्रकार सभी पुद्गलाणु इस अपेक्षासे ५०x२ = १०० प्रकारके हो जाते हैं। इस १०० प्रकारके पुद्गलाणुओंमेंसे प्रत्येक पुद्गलाणुमें शीत और उष्ण इन दो स्पर्शोंमेंसे कोई एक स्पर्श रहता है । अतः सभी पुद्गलाणु इस अपेक्षासे १०० x २ = २०० प्रकारके हो जाते हैं। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि आगममें स्पर्शके स्निग्ध, रूक्ष, शीत, उष्ण, हल्का, भारी, कठोर और कोमल इस प्रकार आठ भेद बतलाये गये हैं। किन्तु सभी पुद्गलाणु यतः एकप्रदेशात्मक ही होते हैं । अतः उनमें स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण ये चार स्पर्श रहते हुए भी हल्का, भारी, कठोर, और कोमल इन चार स्पर्शीका सद्भाव सम्भव नहीं है, क्योंकि हल्का, भारी, कठोर और कोमल ये चार स्पर्श नानाप्रदेशात्मक पुद्गल वस्तुमें ही सम्भव होते हैं । इतना अवश्य है कि प्रत्येक पुद्गलाणुमें जो स्निग्ध और रूक्ष दो स्पर्शोंमेंसे कोई एक स्पर्श पाया जाता है, उसके आधारपर एक पुद्गलाणु दूसरे पुद्गलाणुके साथ बन्धको भी प्राप्त होता रहता है । जैसा कि तत्त्वार्थसूत्रके “स्निग्धरूक्षत्वाद्बन्धः" (५-३३) सूत्रसे स्पष्ट है। इस प्रकार दो आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त पुद्गलपरमाणु जब परस्पर बन्धको प्राप्त हो जाते हैं तब उनमें हल्का, भारी, कठोर और कोमल इन चार स्पर्शोके सद्भावकी सम्भावना हो जाती है। यही कारण है कि तत्त्वार्थसूत्रके "अणवः स्कन्धाश्च" (५-२५) सूत्र में पुद्गलके अणु और स्कन्ध दो भेद बतलाये गये हैं । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि हल्का और भारी तथा कोमल और कठोर परस्परसापेक्ष होकर ही उस-उस स्पर्शरूपताको प्राप्त होते हैं। पुद्गलोंमें पृथ्वी, जल अग्नि और वायु ये चार स्कन्ध तो प्रत्यक्ष अनुभवमें आते हैं। इनका निर्माण भी पुद्गलाणुओंके परस्पर बन्धके आधारपर ही समझना चाहिए। गोम्मटसार जीवकाण्डकी गाथा ६०२ में जो बादर-बादर, बादर, बादर-सूक्ष्म, सूक्ष्म-बादर, सूक्ष्म और सूक्ष्म-सूक्ष्म ये ६ भेद पुद्गलोंके बतलाये गये हैं, उनमेंसे पृथ्वी, काष्ठ, पाषाण आदि बादर-बादर स्कन्ध है । जल, तेल आदि बादर स्कन्ध हैं। छाया, आतप चाँदनी आदि बादर-सूक्ष्म स्कन्ध है। शब्द, गन्ध, रस आदि सूक्ष्म-स्थल स्कन्ध हैं। ज्ञानावरणादिकर्म सूक्ष्म स्कन्ध है और अखण्ड पुद्गल परमाणु सूक्ष्म-सूक्ष्मरूपमें अणु ही है। गोम्मटसार जीवकाण्डकी गाथा ५९३-९४ में पुद्गलोंके वर्गणाओंके रूपमें २३ भेद भी बतलाये गये हैं। इनमेंसे वर्ग सूक्ष्म पुद्गलाणुरूप है और एकजातीय वर्गोके समूहका नाम वर्गणा है। इस तरह २३ वर्गणाओंकी व्यवस्था आगमके अनुसार ज्ञातव्य है। यहाँ आवश्यक जानकर आहारवर्गणा, तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणाके विषयमें स्पष्टीकरण किया जाता है। आहारवर्गणाके तीन भेद है । एक आहारवर्गणा वह है जिससे औदारिक शरीरकी रचना होती है। दूसरी आहारवर्गणा वह है जिससे वैक्रियिक शरीरका निर्माण होता है और तीसरी आहारवर्गणा वह है जो आहारकशरोररूप परिणत होती है। इनके भी यथासम्भव अनेक प्रकार आगमके आधारपर जान लेना चाहिए। जैसे तिर्यन्चोंकी नाना जातियाँ देखने में आती हैं तो उनके शरीरका निर्माण भी भिन्न-भिन्न प्रकारकी औदारिक वर्गणाओंसे होता है । तैजसवर्गणासे तैजस शरीरका निर्माण होता है । भाषावणासे शब्दकी रचना होती है व मनोवर्गणासे द्रव्यमनका निर्माण होता है । इसीप्रकार कार्मणवर्गणायें मूलमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायके भेदसे आठ प्रकारको है व इनके बन्धको अपेक्षा १४६ उत्तरभेद हैं। इनसे ही पृथक्-पृथक् उस-उस कर्मप्रकृतिका निर्माण होता है। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १६५ पुद्गलके विषयमें इतना जो विवेचन किया गया है उसका प्रयोजन यह है कि जो अणुरूप अनन्तपदगल हैं वे ही कालाणकी तरह वास्तविक द्रव्य है. अतः उनका प्रतिभासन ही केवलज्ञानमें होता पुद्गलाणुओंकी जितनी परस्पर संयुक्त या बद्ध दशाएँ हैं वे वास्तविक नहीं हैं अर्थात् उपचरित है, अतः पुद्गलाणुओंकी संयुक्त या बद्ध दशामें भी पृथक्-पृथक् पुद्गलाणका ही प्रतिभासन केवलज्ञानमें होता है । उन संयुक्त या बद्ध दशाओंका प्रतिभासन केवलज्ञानमें नहीं होता। इतना अवश्य है कि पुद्गलाणुकी संयुक्त या बद्ध दशाएँ लौकिक और आध्यात्मिक क्षेत्रोंमें उपयोगी हैं अतः उन्हें भी उपचरितरूपसे वास्तविक कहा जाता है । तथा उनका यथासम्भव प्रतिभासन भी मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें होता है व श्रूतज्ञान द्वारा उनका विश्लेषण भी होता है । यह सब विषय पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। इसप्रकार "केवलज्ञानकी विषय-मर्यादा" प्रकरणमें अब तक जो विवेचन किया गया है उससे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि विश्वमें एक आकाश, एक धर्म, एक अधर्म, असंख्यात काल, अनन्त जीव और अनन्त पुद्गलके रूपमें जितने पृथक्-पृथक स्वतंत्रसत्ताधारी पदार्थ विद्यमान हैं वे सब पदार्थ परस्पर संयुक्त रहते हुए भी तथा जीव और पुद्गल एवं पुद्गल और पुद्गल परस्पर बद्ध रहते हुए भी अपनी-अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता और स्वप्रत्यय व स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपतामें ही रह रहे हैं, क्योंकि प्रत्येक पदार्थकी अपनीअपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता और स्वप्रत्यय व स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपता संयक्त या बद्ध दशामें भी एक दूसरे पदार्थकी द्रव्यरूपता और स्वप्रत्यय व स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपतासे भिन्न तदात्मक एकत्व प्राप्त धर्म है तथा प्रत्येक पदार्थकी ऐसी द्रव्यरूपता, गुणरूपता और स्वप्रत्यय व स्व-परप्रत्यय पर्यायरूपताका प्रतिभासन ही केवलज्ञानमें होता है। इनके लौकिक व आध्यात्मिक क्षेत्रोंमें उपयोगी होनेके कारण उपचरितरूपसे वास्तविक संयुक्त दशा या बद्ध दशाका प्रतिभासन केवलज्ञान नहीं होकर मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें ही होता है। एवं विश्लेषण श्रुतज्ञान द्वारा होता है। अतएव इस विवेचनको ध्यानमें रखकर ही कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३२१-२२ का, पद्मपुराण सर्ग ११० के श्लोक ४० का और कविवर भैया भगवतीदासजीके "जो जो देखी वीतरागने सो सो होसो वोरा रे" इस कथनका तथा इसी प्रकारके अन्य आगम-वचनोंका अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए । ऐसा करनेसे ही वर्तमानमें जैनागमका वास्तविक रहस्य समझमें आ सकता है व सोनगढ़ द्वारा स्थापित की गयी गलत व्यवस्थाओंसे दिगम्बर जैन समाजमें जो उथल-पुथल मच गयी है वह शांत हो सकती है। इस विषयमें वर्तमान पीढ़ीके विद्वानोंका यह उत्तरदायित्व है कि वे जैन संस्कृतिके आगममें प्रतिपादित सिद्धान्तोंका निष्कषायभावसे सम्यक् उद्घाटन करें। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षाके अन्तर्गत उपयोगी प्रश्नोत्तर १ की सामान्य समीक्षा प्रश्नोत्तर १ के आवश्यक अंशोंके उद्धरण पूर्वपक्ष १ -- द्रव्यकर्म के उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण होता है या नहीं ? त० च० पृ० १ । उत्तरपक्ष १ - द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमण में व्यवहारसे निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्तृ-कर्म-सम्बन्ध नहीं है । - त० च० पृ० १ | पूर्वपक्ष २ - इस प्रश्नका उत्तर जो आपने यह दिया है कि व्यवहारसे निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्तु कर्म सम्बन्ध नहीं है, सो यह उत्तर हमारे प्रश्नका नहीं है, क्योंकि हमने द्रव्यकमं और आत्माका निमित्तनैमित्तिक तथा कर्तृकर्म सम्बन्ध नहीं पूछा है 1- त० च० पृ० ४ । उत्तरपक्ष २ - यह ठीक है कि प्रश्नका उत्तर देते हुए समयसारकी ८० से ८२ तककी जिन तीन गाथाओं का उद्धरण देकर निमित्तनैमित्तिकभाव दिखलाया गया है वहाँ कर्तृकर्म सम्बन्धका निर्देश मात्र इसलिए किया गया है ताकि कोई ऐसे भ्रम में न पड़ जाय कि यदि आगम में निमित्तमें कर्तृपनेका व्यवहारसे व्यपदेश किया गया है तो वह यथार्थ में कर्त्ता बनकर कार्यको करता होगा । वस्तुतः जैनागम में कर्त्ता तो उपादानको ही स्वीकार किया गया है और यहो कारण है कि जिनागममें कर्त्ताका लक्षण "जो परिणमन करता है वह कर्ता होता है" यह किया गया है । त० च० पृ० ८ । पूर्वपक्ष ३ - इस प्रश्नका आशय यह था कि जीवमें जो क्रोध आदि विकारी भाव उत्पन्न होते हुए प्रत्यक्ष देखे जाते हैं क्या वे द्रव्यकर्मोदयके बिना होते हैं या द्रव्यकर्मोदय के अनुरूप होते हैं । संसारी जीवका जो जन्म-मरणरूप चतुर्गतिभ्रमण प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है क्या वह भी कर्मोदयके अधीन हो रहा है या यह जीव स्वतंत्र अपनी योग्यतानुसार चतुर्गतिभ्रमण कर रहा है । आपके द्वारा इस प्रश्नका उत्तर न तो प्रथम वक्तव्यमें दिया गया है और न इस दूसरे वक्तव्य में दिया गया है - यद्यपि आपके प्रथम वक्तव्यके ऊपर प्रतिशंका उपस्थित करते हुए इस ओर आपका ध्यान दिलाया गया था । आपने अपने दोनों वक्तव्योंमें निमित्त कर्तृकर्म सम्बन्धकी अप्रासंगिक चर्चा प्रारम्भ करके मूल प्रश्नके उत्तरको टालनेका प्रयत्न किया है । यह तो सर्वसम्मत है कि जीव अनादिकालसे विकारी हो रहा है । विकारका कारण कर्मबन्ध है, क्योंकि दो पदार्थोके परस्पर बन्ध बिना लोकमें विकार नहीं होता। कहा भी है- "द्वयकृतो लोके विकारो भवेत् " - पद्मनन्दि- पंचविंशतिका २३-७ । यदि क्रोध आदि विकारी भावोंको कर्मोदय बिना मान लिया जावे तो उपयोगके समान वे भी जीवके स्वभाव-भाव हो जायेंगे और ऐसा माननेपर इन विकारीभावोंका नाश न होनेसे मोक्षके अभावका प्रसंग आ जावेगा । - त० च० पृ० १० । उत्तरपक्ष :- इस प्रश्नका समाधान करते हुए प्रथम उत्तरमें ही हम यह बतला आये हैं कि संसारो आत्मा विकारभाव और चतुर्गतिपरिभ्रमणमें द्रव्यकर्मका उदय निमित्त मात्र है । विकारभाव और चतुर्गतिपरिभ्रमणका मुख्यकर्त्ता तो स्वयं आत्मा ही हैं । इत तथ्यकी पुष्टिमें हमने समयसार, पंचास्तिकायटीका, प्रवचनसार और उसकी टीकाके अनेक प्रमाण दिये हैं । किन्तु अपर पक्ष इस उत्तरको अपने प्रश्नका समाधान Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : १६७ माननेके लिये तैयार नहीं प्रतीत होता। एक ओर तो वह द्रव्यकर्मके उदयको निमित्त रूपसे स्वीकार करता है और दूसरी ओर द्रव्यकर्मोदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिपरिभ्रमणमें व्यवहारनयसे बतलाये गये निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको अपने मूलप्रश्नका उत्तर नहीं मानता, इसका हमें आश्चर्य है। हमारे प्रथम उत्तरको लक्ष्यकर अपर पक्षकी ओरसे उपस्थित की गई प्रतिशंका २ के उत्तरमें भी हमारी ओरसे अपने प्रथम उत्तरमें निहित अभिप्रायकी ही पुष्टि की गई है। तत्काल हमारे सामने द्वितीय उत्तरके आधारसे लिखी गई प्रतिशंका ३ विचारके लिए उपस्थित है। इस द्वारा सर्वप्रथम यह शिकायत की गई है कि हमारी ओरसे अपर पक्षके मूलप्रश्नका उत्तर न तो प्रथम वक्तव्यमें ही दिया गया है और न ही इस दूसरे वक्तव्यमें दिया गया है। "संसारी जीवके विकारभाव और चतुर्गतिपरिभ्रमणमें कर्मोदय व्यवहारनयसे निमित्त मात्र है, मुख्यकर्ता नहीं" इस उत्तरको अपर पक्ष अप्रासंगिक मानता है। अब देखना यह है कि वस्तुस्वरूपको स्पष्ट करनेकी दृष्टिसे जो उत्तर हमारी ओरसे दिया गया है यह अप्रासंगिक है या अपर पक्षका यह कथन अप्रासंगिक ही नहीं, सिद्धान्तविरुद्ध है, जिसमें उसकी ओरसे विकारका कारण बाह्य सामग्री है, इसे यथार्थ कथन माना गया है। - अपर पक्षने पदमनन्दिपंचविंशतिका २३-७ का "द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्" इस वचनको उद्धृत कर जो विकारको दो का कार्य बतलाया है सो यहाँ देखना यह है कि जो विकाररूप कार्य होता है वह किसी एक द्रव्यकी विभावपरिणति है या दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति है ? वह दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति है यह तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि दो द्रव्य मिलकर एक कार्यको त्रिकालमें नहीं कर सकते । इसी बातको समयसार आत्मख्यातिटीकामें स्पष्ट करते हुए बतलाया है। नोभौ परिणमतः खलु परिणामो नोभयोः प्रजायेत । उभयोर्न परिणतिः स्याद्यदनेकमनेकमेव सदा ॥५३॥ -त० च० पृ० ३२ इन उद्धरणोंको यहाँ प्रस्तुत करनेका प्रयोजन इन उद्धरणोंको यहाँ प्रस्तुत करनेका प्रयोजन यह है कि तत्त्वजिज्ञासुओंको यह समझमें आ जाए कि पूर्व पक्षने अपने प्रश्नोंमें जो पूछा है उसका समाधान उत्तरपक्षके उत्तरसे नहीं होता। आगे इसी बातको स्पष्ट किया जा रहा है पूर्व पक्षके उद्धरणोंसे यह स्पष्ट होता है कि वह उत्तरपक्षसे यह पूछ रहा है कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें निमित्त होता है या नहीं। स्वयं उत्तरपक्षने भी अपने तृतीय दौरके अनुच्छेदमें उस बातको स्वीकार किया है। इसलिये उत्तरपक्षको अपना उत्तर या तो ऐसा देना चाहिए था कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें निमित्त होता है। अथवा ऐसा देना चाहिए था कि वह उसमें निमित्त नहीं होता है-संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण द्रव्यकर्मके उदयके निमित्त हुए बिना अपने आप ही होता रहता है। उत्तरपक्षने प्रश्नका उत्तर यह दिया है कि "द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें व्यवहारसे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्त-कर्म सम्बन्ध नहीं है ।" त० च० पृ० १। इस उत्तरमें “व्यवहारसे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है" इस कथनका आशय यह होता है कि १. एक ओर तो वह द्रव्यकर्मके उदयको निमित्तरूपसे स्वीकार करता है ।-त० च० पृ० ३२ । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ : सरस्वती-परखपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें स्वीकृत निमित्त-न मित्तिक सम्बन्ध व्यवहारनयका विषय है। स्वयं उत्तरपक्षने भी अपने तृतीय दौरके अनुच्छेद १ में यह स्वीकार किया है। परन्तु पूर्वपक्षने अपने प्रश्नमें यह नहीं पूछा है कि द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें स्वीकृत निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध व्यवहारनयका विषय है या निश्चयनयका । अथवा यह नहीं पूछा है कि उक्त निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध व्यवहारसे है या निश्चयसे । पूर्वपक्षका प्रश्न तो यह है कि द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण होता है या नहीं (त० च० पृ०१)। इसका आशय यह होता है कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें निमित्त होता है या नहीं। अथवा यह आशय होता है कि द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध विद्यमान है या नहीं। प्रश्नका स्पष्ट आशय यह होता है कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें निमित्त रूपसे कार्यकारी होता है या वह वहांपर उस रूपमें सर्वथा अकिंचित्कर ही बना रहता है और संसारी आत्मा द्रव्यकर्मोदयके निमित्त हुए बिना अपने आप ही विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणरूप परिणमन करता रहता है। यतः उत्तरपक्ष द्वारा दिये गये उक्त उत्तरसे उक्त प्रश्नका उपर्युक्त प्रकार समाधान नहीं होता, अतः निर्णीत होता है कि उत्तरपक्ष द्वारा दिया गया उत्तर पूर्वपक्षके प्रश्नका उत्तर नहीं है। उत्तर प्रश्नके बाहर भी है उत्तरपक्षने अपने उत्तरमें यह अतिरिक्त बात भी जोड़ दी है कि द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें कर्तृ-कर्म सम्बन्ध नहीं है, जिसका प्रश्नके साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है क्योंकि पर्वपक्षने अपने प्रश्नमें उनके मध्य कर्त-कर्म सम्बन्ध होने या न होनेकी चर्चा ही नहीं की इस तरह इससे भी निर्णीत होता है कि उत्तरपक्ष द्वारा दिया गया उत्तर पूर्वपक्षके प्रश्नका उत्तर नहीं है। उत्तर अप्रांसगिक है यतः उपर्युक्त विवेचनके अनुसार उत्तरपक्ष द्वारा दिया गया उत्तर पूर्वपक्षके प्रश्नका उत्तर नहीं है अतः स्पष्ट हो जाता है कि उक्त उत्तर अप्रसांगिक है। उत्तर अनावश्यक है एक बात यह भी है कि दोनों ही पक्ष उक्त-नैमित्तिक सम्बन्धको व्यवहारनयका विषय मानते हैं। उसमें दोनों पक्षोंके मध्य कोई विवाद ही नहीं है। इस बातको उत्तर पक्ष भी जानता है। अतः उसे अपने उत्तरमें उसका निर्देश करना अनावश्यक है। यद्यपि इस विषयमें दोनों पक्षोंके मध्य यह विवाद है कि जहाँ उत्तरपक्ष व्यवहारनयके विषयको सर्वथा अभूतार्थ मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसे कथंचित् अभूतार्थ और कथंचित् भूतार्थ मानता है, परन्तु वह प्रकृत प्रश्नके विषयसे भिन्न होनेके कारण उसपर स्वतन्त्र रूपसे ही विचार करना संगत होगा । अतएव इस पर यथावश्यक आगे विचार किया जायगा। दुसरी बात यह है कि द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें दोनों पक्ष कर्त-कर्म सम्बन्धको नहीं मानते हैं और मानते भी हैं तो उपचारसे मानते हैं। इस बातको भी १. और दूसरी ओर द्रव्यकर्मोदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें व्यवहारनयसे बतलाये गये निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको अपने मूल प्रश्नका उत्तर नहीं मानता, इसका हमें आश्चर्य है।-त० च० पृ० ३२। . Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपक्ष जानता है । अतः उसके द्वारा उत्तरमें इसका निर्देश किया जाना भी अनावश्यक है । यद्यपि इस विषय में भी दोनों पक्षोंके मध्य यह विवाद है कि जहाँ उत्तरपक्ष उस उपचारको सर्वधा अभूतार्थं मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसे कथंचित् अभूतार्थ और कथंचित् भूतार्थं मानता है। इसपर भी यथावश्यक आगे विचार किया जायगा । यतः प्रसंगवश प्रकृत विषयको लेकर दोनों पक्षोंके मध्य विद्यमान मतैक्य और मतभेदका स्पष्टीकरण किया जाना तत्त्वजिज्ञासुओंकी सुविधाके लिए आवश्यक है अतः यहाँ उनके मतैक्य और मतभेदका स्पष्टीकरण' किया जाता है । मतैक्यके विषय ३ / धर्म और सिद्धान्त १६९ १. दोनों ही पक्ष संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण में द्रव्यकर्मके उदयको निमित्तकारण और संसारी आत्माको उपादानकारण मानते हैं । २. दोनों ही पक्ष मानते हैं कि उक्त विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण उपादानकारणभूत संसारी आत्माका ही होता है । निमित्तिकारणभूत उदयपर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्मका नहीं होता । ३. दोनों ही पक्षोंकी मान्यतामें उक्त कार्यका उपादानकारणभूत संसारी आत्मा यथार्थ कारण और मुख्य कर्ता है व निमित्तिकारणभूत उदयपर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्म अयथार्थं कारण और उपचारित कर्ता है। ४. दोनों ही पक्षोंका कहना है कि उक्त कार्यके प्रति उपादानकारणभूत संसारी आत्मामें स्वीकृत उपादानकारणता यथार्थकारणता और मुख्यकर्तृत्व निश्चयनयके विषय है और निमित्तकारणभूत उदयपर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्ममें स्वीकृत निमित्तकारणता, अयथार्थकारणता और उपचरितकर्तृत्व व्यवहारनयके विषय हैं । मतभेदके विषय } १. यद्यपि दोनों ही पक्ष प्रकृति कार्यके प्रति उपादानकारणरूपसे स्वीकृत संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणत होने के आधारपर कार्यकारी मानते हैं, परन्तु जहाँ उत्तरपक्ष उसी कार्यके प्रति निमित्त कारणरूपसे स्वीकृत उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्मको उस कार्यरूप परिणत न होने और उपादानकारणभूत संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी न होनेके आधारपर सर्वथा अकिंचित्कर मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसे वहाँ पर उस कार्यरूप परिणत न होनेके आधारपर अकिंचित्कर और उपादानकारणभूत संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणति में सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी मानता है । २. यद्यपि दोनों ही पक्ष प्रकृत कार्यके प्रति उपादानकारणरूपसे स्वीकृत संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणत होनेके आधारपर यथार्थ कारण और मुख्य कर्ता मानते हैं, परन्तु जहाँ उत्तरपक्ष उसी कार्य के प्रति निमित्तकारणरूपसे स्वीकृत उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्मको उस कार्यरूप परिणत न होने और उपादानकारणभूत संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणति में सहायक भी न होनेके आधारपर अयथार्थकारण और उपचरितकर्त्ता मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसे वहाँपर उस कार्यरूप परिणत न होनेके साथ उपादानकारणभूत संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणति में सहायक होनेके आधारपर अयथार्थ कारण और उपचरितकर्त्ता मानता है । २. यद्यपि दोनों ही पक्ष प्रकृत कार्यके प्रति उपादानकारण, यवार्थकारण और मुख्यकर्ता रूपसे स्वीकृत संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणत होनेके आधारपर भूतार्थ मानते हैं, परन्तु जहाँ उत्तर पक्ष उसी कार्यके प्रति निमित्तकारण, अयथार्थंकारण और उपचारित कर्ता रूपसे स्वीकृत उदयपर्याय विशिष्ट २२ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०: सरस्वती-बरवपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ द्रव्यकर्मको उस कार्यरूप परिणत न होने और संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी न होनेके आधारपर सर्वथा अभूतार्थ मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसे वहाँ पर उस कार्यरूप परिणत न होनेके आधार पर अभूतार्थ और संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर भूतार्थ मानता है। ४. यद्यपि दोनों ही पक्ष प्रकृत कार्य के प्रति उपादानकारण, यथार्थकारण और मुख्य कर्ता रूपसे स्वीकृत संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणत होनेके आधारपर भूतार्थ मानकर निश्चयनयका विषय मानते हैं, परन्तु जहाँ उत्तरपक्ष उसी कार्य के प्रति निमित्तकारण, यथार्थकारण और उपचरित कर्ता रूपसे स्वीकृत उदयपर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्मको उस कार्य रूप परिणत न होने और संसारी आत्माकी उस कार्य रूप परिणतिमें सहायक भी न होनेके आधार पर सर्वथा अभूतार्थ मानकर व्यवहारनयका विषय मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसे वहाँ पर उस कार्य रूप परिणत न होनेके आधार पर अभूतार्थ और संसारी आत्माकी उस कार्य रूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर भूतार्थ मानकर व्यवहारनयका विषय मानता है। उपर्युक्त विवेचनका निष्कर्ष यह है कि संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणरूप कार्यके प्रति दोनों पक्षोंके मध्य न तो संसारी आत्माको उपादान कारण, यथार्थकारण और मुख्य कर्ता माननेके विषयमें विवाद है और न उसकी कार्यकारिता, भूतार्थता और निश्चयनय विषयताके विषयमें विवाद है। इसी तरह उसी कार्यके प्रति दोनों पक्षोंके मध्य न तो उदयपर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्मको निमित्त कारण, अयथार्थ कारण और उपचरितकर्ता माननेके विषयमें विवाद है और न उसकी व्यवहारनयविषयताके विषयमें विवाद है। दोनों पक्षोंके मध्य विवाद केवल उक्त कार्य के प्रति उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्मकी उत्तरपक्षको मान्य सर्वथा अकिंचित्करता और सर्वथा अभूतार्थता तथा पूर्व पक्षको मान्य कथंचित् अकिंचित्करता व । कथंचित् कार्यकारिता तथा कथंचित् अभूतार्थता व कथंचित् भूतार्थताके विषयमें है । उपयुक्त विवेचनके आधारपर दो विचारणीय बातें उपयुक्त विवेचनके आधार पर दो बातें विचारणीय हो जाती हैं। एक तो यह कि संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें दोनों पक्षों द्वारा निमित्तकारणरूपसे स्वीकृत उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्म को पूर्वपक्षकी मान्यताके अनुसार उस कार्यरूप परिणत न होने के आधार पर अकिंचित्कर और उपादान कारणभत संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी माना जाए या उत्तरपक्षकी मान्यताके अनुसार उसे वहाँपर उस कार्य रूप परिणत न होने और उपादानकारणभत संसारी आत्माकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी न होनेके आधारपर सर्वथा अकिंचित्कर माना जाय । और दूसरो यह कि उस उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्मको पूर्व पक्ष को मान्यताके अनुसार उपयुक्त प्रकारसे कथंचित् अकिंचित्कर व कथंचित कार्यकारी मानकर उस रूपमें कथंचित् अभूतार्थ और अथंचित् भूतार्थ माना जाय, व इस तरह उसे अभतार्थ और भतार्थरूपमें व्यवहारनयका विषय माना जाए या उत्तरपक्षकी मान्यताके अनुसार उसे वहाँपर उपयुक्त प्रकार सर्वथा अकिंचित्कर मानकर उस रूपमें सर्वथा अभूतार्थ माना जाए व इस तरह उसे सर्वथा अभतार्थ रूपमें व्यवहारनयका विषय माना जाए। उपयुक्त दोनों बातोंमेंसे प्रथम बातके सम्बन्धमें विचार करनेके उद्देश्यसे ही खानिया तत्त्वचर्चाके अवसरपर दोनों पक्षोंकी सहमतिपूर्वक उपयुक्त प्रथम प्रश्न उपस्थित किया गया था। इतना ही नहीं, खानिया तत्त्वचर्चाके सभी १७ प्रश्न उभयपक्षको सहमति पूर्वक ही चर्चाके लिये प्रस्तुत किये गये थे। यहाँ प्रसंगवश मैं इतना संकेत कर देना उचित समझता हूँ कि तत्त्वचर्चाकी भूमिका तैयार करनेके Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १७१ अवसरपर पं० फलचन्द्रजीने मेरे समक्ष एक प्रस्ताव इस आशयका रखा था कि चर्चाके लिए जितने प्रश्न उपस्थित किये जायेंगे वे सब उभय पक्षकी सहमतिसे ही उपस्थित किये जायेंगे और उपस्थित सभी प्रश्नोंपर दोनों पक्ष प्रथमतः अपने-अपने विचार आगमके समर्थन पूर्वक एक दूसरे पक्षके समक्ष प्रस्तुत करेंगे तथा दोनों ही पक्ष एक दूसरे पक्षके समक्ष रखे गये उन विचारोंपर आगमके आधारपर ही अपनी आलोचनाएँ एक दूसरे पक्ष के समक्ष प्रस्तुत करेंगे और अन्तमें दोनों ही पक्ष उन आलोचनाओंका उत्तर भी आगमसे प्रमाणित करते हुए एक दूसरे पक्षके समक्ष प्रस्तुत करेंगे। यद्यपि पं० फूलचन्द्र जीके इस प्रस्तावको मैंने सहर्ष तत्काल स्वीकार कर लिया था, परन्तु चर्चाके अवसरपर पं० फुलचन्द्रजी सोनगढ़के प्रतिनिधि नेमिचन्द्रजी पाटनीके दुराग्रहके सामने झुककर अपने उक्त प्रस्तावको रचनात्मक रूप देनेके लिए तैयार नहीं हुए। इसका परिणाम यह हुआ कि जो सभी प्रश्न उभय पक्ष सम्मत होकर दोनों पक्षोंको समान रूपसे विचारणीय थे, वे पूर्वपक्षके प्रश्न बनकर रह गये और उत्तरपक्ष उनका समाधानकर्ता बन गया । यतः प्रश्नोंको प्रस्तत करने में पर्वपक्षने प्रमख भमिकाका निर्वाह किया था, अतः उसे एक तो पं० फूलचन्द्रजीके उक्त परिवर्तित रुखको देखकर उसको दृष्टिसे ओझल कर देना पड़ा और दूसरी बात यह भी थी कि उसके सामने तत्त्वनिर्णयका उददेश्य प्रमख था व उसको अणु मात्र भी यह कल्पना नहीं थी कि उत्तरपक्ष पूर्वपक्षकी इस सहनशीलताका दुरुपयोग करेगा। परन्तु तत्त्वचर्चा अध्ययनसे यह स्पष्ट होता है कि उत्तर पक्षने पूर्वपक्षकी सहनशीलताका तत्त्वचर्चा में अधिकसे अधिक दुरुपयोग किया है। यह बात तत्त्वचर्चाकी इस समीक्षासे भी ज्ञात हो जायगी। समीक्षा लिखनेमें हेतु ___ यतः उभय पक्ष सम्मत वे सभी प्रश्न उपयुक्त प्रकार पूर्वपक्षके प्रश्न बन गये और उत्तरपक्ष उनका समाधानकर्ता । अतः इस समीक्षाका लिखना तत्त्वनिर्णय करनेकी दृष्टिसे आवश्यक हो गया है । एक बात और है कि पं० फूलचन्द्रजीके प्रस्तावके अनुसार दोनों पक्ष प्रत्येक प्रश्नपर यदि अपने-अपने विचार प्रस्तुत करते तो दोनों पक्षोंकी अन्तिम सामग्री एक-दूसरे पक्षकी समालोचनासे अछूती रहती। और इस तरह दोनों पक्षोंकी अन्तिम सामग्रीपर मतभेद रहनेपर तत्त्वनिर्णय करनेका अधिकार तत्त्वजिज्ञासुओंको प्राप्त होता। परन्तु जिस रूप में तत्त्वचर्चा सामने है उसमें अन्तिम उत्तर उत्तरपक्षका होनेसे तत्त्वजिज्ञासूओंको तत्त्वनिर्णय कर लेना सम्भव नहीं रह गया है । इस दृष्टिसे भी इस समीक्षाको उपयोगिता बढ़ गई है। उत्तरपक्ष द्वारा अपने उत्तरमें विपरीत परिस्थितियोंका निर्माण पूर्वमें बतलाया जा चुका है कि प्रकृत प्रश्नको प्रस्तुत करनेमें पूर्वपक्षका आशय इस बातको निर्णीत करनेका था कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें निमित्त रूपसे अर्थात् सहायक होने रूपसे कार्यकारी होता है या वह वहाँ पर सर्वथा अकिंचित्कर ही बना रहता है व संसारी आत्मा द्रव्यकर्मके उदयका सहयोग प्राप्त किये बिना अपने आप ही विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमण करता रहता है। उत्तरपक्ष प्रश्नको प्रस्तुत करने में पूर्वपक्षके इस आशयको समझता भी था, अन्यथा वह अपने तृतीय दौरके अनुच्छेदमें पूर्वपक्षके प्रति ऐसा क्यों लिखता कि "एक ओर तो वह द्रव्यकमके उदयको निमित्त रूपसे स्वीकार करता है ।" परन्तु जानते हुए भी उसने अपने प्रथम दौरमें, प्रश्नका उत्तर न देकर उससे भिन्न नयविषयता और कर्त-कर्म सम्बन्धकी अप्रासंगिक और अनावश्यक चर्चाको प्रारम्भ कर दिया। इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्तरपक्षने अपने उत्तरमें विपरीत परिस्थितियोंका निर्माण किया है और Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ इसके कारण ही पूर्वपक्षको अपने तृतीय दौरके अनुच्छेदमें यह लिखना पड़ा कि 'आपके द्वारा इस प्रश्नका उत्तर न तो प्रथम वक्तव्यमें दिया गया है और न दूसरे वक्तव्यमें दिया गया है-यद्यपि आपके प्रथम वक्तव्यके ऊपर प्रतिशंका उपस्थित करते हुए इस ओर आपका ध्यान दिलाया गया था। आपने अपने दोनों वक्तव्योंमें निमित्त-कर्तृ-कर्म सम्बन्धकी अप्रासंगिक चर्चा प्रारम्भ करके मूल प्रश्नके उत्तरको टालनेका प्रयत्न किया है। उत्तरपक्षका पूर्वपक्षपर उल्टा आरोप ऊपर किये गये स्पष्टीकरणसे यह ज्ञात हो जाता है कि उत्तरपक्षने अपने तृतीय दौरके अनु० २ में जो यह लिखा है कि 'वस्तुस्वरूपको स्पष्ट करनेकी दृष्टिसे जो उत्तर हमारी ओरसे दिया गया है वह अप्रासंगिक है या अपरपक्षका यह कथन अप्रासंगिक ही नहीं सिद्धान्तविरुद्ध है जिसमें उसकी ओरसे विकारका कारण बाह्य सामग्री है इसे यथार्थ कथन माना गया है।' सो उसका-उत्तरपक्षका ऐसा लिखना 'उल्टा चोर कोतवालको डाँटे' जैसा ही है, क्योंकि उसने स्वयं तो पूर्वपक्षके प्रश्नका उत्तर न देकर नयविषयता और कर्तृ-कर्म सम्बन्धकी अप्रासंगिक और अनावश्यक चर्चा प्रारम्भ की, लेकिन अपनी इस त्रुटिको स्वीकार न कर उसने अप्रासंगिकताका उल्टा पूर्वपक्षपर ही आरोप लगाया। इससे यही स्पष्ट होता है कि उत्तरपक्षने पूर्वपक्षके प्रश्नका उत्तर देनेमें आनाकानी की है और इसे छिपानेके लिये ही उसने उक्त अप्रासंगिक और अनावश्यक चर्चा प्रारम्भ की। यही कारण है कि उसके इस प्रयत्नको पूर्वपक्षने अपने वक्तव्यमें मूल प्रश्नके उत्तरको टालनेका प्रयत्न कहा है। इसी तरह उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें जो यह लिखा है कि 'विकारका कारण बाह्यसामग्री है इसे यथार्थ कथन माना गया है' सो यह भी पूर्वपक्षके ऊपर उत्तरपक्षका मिथ्या आरोप है, क्योंकि पूर्वपक्ष, जैसाकि पूर्व में स्पष्ट किया जा चका है, विकारकी कारणभूत बाह्यसामग्रीको उत्तरपक्षके समान अयथार्थ कारण ही मानता है। इस विषयमें दोनों पक्षोंके मध्य यह मतभेद अवश्य है कि जहाँ उत्तरपक्ष विकारकी कारणभूत उस बाह्यसामग्रीको वहाँ पूर्वोक्त प्रकार सर्वथा अकिंचित्कर रूपमें अयथार्थ कारण मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसे वहाँ पूर्वोक्तप्रकार ही कथंचित् अकिंचित्कर और कथंचित् कार्यकारी रूपमें अयथार्थ कारण मानता है। दोनों पक्षोंकी परस्पर विरोधी इन मान्यताओंमेंसे कौन-सी मान्यता आगमसम्मत है और कौन-सी आगमसम्मत नहीं है, इस पर आगे विचार किया जायगा। इसी प्रकार उत्तरपक्षने अपने तृतीय दौरके अनु० ३ में पूर्वपक्ष द्वारा तृतीय दौरमें उद्धृत 'द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्' इस आगमवाक्यको लेकर उसपर (पूर्वपक्षपर) मिथ्या आरोप लगानेके लिये लिखा है कि 'अपरपक्षने पद्मनन्दिपंचविशंतिका २३-७ के 'द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्' इस कथनको उद्धृत कर जो विकारको दो का कार्य बतलाया है सो वहाँ देखना यह है कि जो विकाररूप कार्य होता है वह किसी एक द्रव्यकी विभावपरिणति है या दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति है ? वह दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति है यह तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि दो द्रव्य मिलकर एक कार्यको त्रिकालमें नहीं कर सकते।' इस विषयमें मेरा कहना है और उत्तरपक्ष भी जानता है कि उक्त आगमवाक्यका यह अभिप्राय नहीं है कि दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति होती है, अपितु उसका अभिप्राय यही है कि एक वस्तुकी विकारी परिणति दुसरी अनुकूल वस्तुका सहयोग मिलनेपर ही होती है व पूर्वपक्षने इसी आशयसे उक्त आगमवाक्यको अपने वक्तव्यमें उदधत किया है, दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति होती है, इस आशयसे नहीं। इस तरह उत्तरपक्षका पूर्वपक्षपर यह आरोप लगाना भी मिथ्या है। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १७३ जान पड़ता है कि उत्तरपक्ष पूर्वपक्षपर उक्त प्रकारका मिथ्या आरोप लगाने की दृष्टिसे ही उक्त आगमवाक्यका यह अभिप्राय लेना चाहता है कि दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति होती है । इस तरह कना चाहिए कि उत्तरपक्षकी यह वृत्ति उस व्यक्तिके समान है जो दूसरेको अपशकुन करनेके लिये अपनी आँख फोड़नेका प्रयत्न करता है । अन्तमें मैं कहना चाहता हूँ कि तत्त्वफलित करनेकी दृष्टिसेकी जानेवाली इस तत्त्वचर्चा में ऐसे सारहीन और अनुचित प्रयत्न करना उत्तरपक्षके लिये शोभास्पद नहीं है । किन्तु उसने ऐसे प्रयत्न तत्त्वचर्चा में स्थानस्थानपर किये हैं । इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि उत्तरपक्षने अपने इसप्रकार के प्रयत्नों द्वारा पूर्वपक्षको उलझा देना ही अपने लिये श्रेयस्कर समझ लिया था । उत्तरपक्षके इस तरहके प्रयत्नों का एक परिणाम यह हुआ है कि खानिया तत्त्वचर्चा तत्त्वचर्चा न रहकर केवल वितण्डावाद बन गई है और वह इतनी विशालकाय हो गई है कि उसमेंसे तत्त्व फलित कर लेना विद्वानोंके लिए भी सरल नहीं है । यद्यपि पूर्वपक्षने अपने वक्तव्योंमें शक्ति भर यह प्रयत्न किया है कि खानिया तत्त्वचर्चा तत्त्व फलित करने तक ही सीमित रहे । परन्तु इस विषयमें उत्तरपक्षका सहयोग नहीं मिल सका, यह खेदकी बात है । वास्तविक बात यह है कि इस तत्त्वचर्चामें उत्तरपक्षने अपनी एक ही दृष्टि बना ली थी कि जिस किसी प्रकारसे अपने पक्षको विजयी बनाया जावे। इसलिए उसके आदिसे अन्त तकके सभी प्रयत्न केवल अपने उक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही हुए हैं । यहाँपर मैं एक बात यह भी कह देना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने अपने पक्ष के समर्थन में जिस आगमकी पग-पगपर दुहाई दी है उसका उसने बहुतसे स्थानोंपर साभिप्राय अनर्थ भी किया है। जैसा कि पूर्व में बतलाया जा चुका है कि पद्मनन्दि पंचविशतिका २३ ७ का उसने पूर्वपक्षका मिथ्या विरोध करनेके लिए जान - बूझकर विपरीत अर्थ करनेका प्रयत्न किया है और इसी तरह के प्रयत्न उसने आगे भी किये हैं जिन्हें यथास्थान प्रकाशमें लाया जायगा । प्रश्नोत्तर २ की सामान्य समीक्षा पूर्वपक्षका प्रश्न -- जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है या नहीं ? त० च० पृ० ७६ । उत्तरपक्षका उत्तर—जीवित शरीरकी क्रिया पुद्गल द्रव्यकी पर्याय होनेके कारण उसका अजीव तत्त्व में अन्तर्भाव होता है, इसलिए वह स्वयं जीवका न तो धर्मभाव है और न अधर्मभाव ही है । त० च० पृ० ७६ । प्रश्न प्रस्तुत करनेमें पूर्वपक्षका अभिप्राय - पूर्वपक्ष जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म और अधर्म मानता । यतः उत्तरपक्ष जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म और अधर्म स्वीकार करनेके लिये तैयार नहीं हैं, अतः उसने उत्तरपक्षके समक्ष प्रकृत प्रश्न प्रस्तुत किया था । जीवित शरोरकी क्रियासे पूर्वपक्षका आशय - जीवित शरीरकी क्रिया दो प्रकारकी होती हैएक तो जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रिया और दूसरी शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया । इन दोनोंमें प्रकृतमें पूर्वपक्षको शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया ही विवक्षित है, जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रिया विवक्षित नहीं है । इसका कारण यह है कि धर्म और अधर्म ये दोनों जीवकी ही परिणतियाँ हैं और उनके सुख-दुःख रूप फलका भोक्ता भी जीव ही होता है । अतः जिस जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म और अधर्म होते हैं उसका कर्त्ता जीवको मानना ही युक्तिसंगत है, शरीरको नहीं । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्य उत्तरपक्षके सरपर विमर्म-उत्तरपक्षने प्रश्नका जो उत्तर दिया है उससे उत्तरपक्षकी यह मान्यता ज्ञात होती है कि वह जीवित शरीरकी क्रियाको मात्र पुदगलद्रव्यकी पर्याय मानकर उसका अजीव तत्वों अन्तर्भाव करके उससे आत्मामें धर्म और अधर्म होनेका निषेध करता है । उत्तरपक्षकी इस मान्यतामें पूर्वपक्षको जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियाकी अपेक्षा तो कुछ विरोध नही है, परन्तु आत्मामें होनेवाले धर्म और अधर्मके प्रति पूर्वपक्ष द्वारा कारण रूपसे स्वीकृत शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवको क्रियाकी अपेक्षा विरोध है । यदि उत्तरपक्ष पूर्वपक्षको मान्य शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया रूप जीवित शरीरकी क्रियाको स्वीकार न करे या स्वीकार करके भी उसको पुद्गल द्रव्यको पर्याय मानकर अजीव तत्त्वमें अन्तर्भूत करे तथा उससे आत्मामें धर्म और अधर्मको उत्पत्ति न माने तो उसको इस मान्यतासे पूर्वपक्ष सहमत नहीं है, क्योंकि चरणानुयोगका समस्त प्रतिपादन इस बातकी पुष्टि करता है कि शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया जीवित शरीरकी क्रिया है और पुद्गल द्रव्यकी पर्याय न होनेसे अजीव तत्त्वमें अन्तर्भत न होकर जीवकी पर्याय होनेसे जीव तत्त्वमें अन्तर्भूत होती है तथा उससे आत्मामें धर्म और अधम उत्पन्न होते हैं। उत्तरपक्षके समक्ष एक विचारणीय प्रश्न उत्तरपक्ष यदि शरीरके सहयोगसे होने वाली जोवकी क्रियाको स्वीकार न करे या स्वीकार करके भी उसे पुद्गल द्रव्यको पर्याय मानकर उसका अजीव तत्त्वमें अन्तर्भाव करे तथा उसको आत्मामें होनेवाले धर्म और अधर्मके प्रति कारण न माने तो उसके समक्ष यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आत्मामें धर्म और अधर्मकी उत्पत्तिका आधार क्या है ? किन्तु पूर्वपक्षके समक्ष यह प्रश्न उपस्थित नहीं होता, क्योंकि वह शरीरके सहयोगसे होनेवालो जीवकी क्रियाको आत्मामें होनेवाले धर्म और अधर्मके प्रति कारण रूपसे आधार मानता है। यदि उत्तरपक्ष यह कहे कि धर्म और अधर्मकी उत्पत्तिमें आत्माका पुरुषार्थ कारण है, तो वह पुरुषार्थ शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियासे भिन्न नहीं है। इसका विवेचन आगे किया जायेगा। इसके अलावा यदि वह यह कहे कि आत्मामें धर्म और अधर्म आत्माकी कार्याव्यवहितपूर्वक्षणवर्ती पर्यायरूप नियतिके अनुसार होते हैं तो इस प्रकारको नियतिका निर्माण आत्माको नित्य उपादान शक्ति (स्वाभाविक योग्यता) के आधारपर शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियारूप आत्मपुरुषार्थके बलपर ही होता है। इसका विशेष कथन प्रश्नोत्तर एककी समीक्षामें किया जा चुका है और आगे भी प्रकरणानुसार किया जायेगा। प्रकृत विषयके सम्बन्धमें कतिपय आधारभूत सिद्धान्त (१) धर्म और अधर्म दोनों जीवकी भाववती शक्तिके परिणमन हैं और शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप क्रिया उसकी (जीवकी) क्रियावती शक्तिका परिणमन है । और जीवको क्रियावती शक्तिका यह प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप क्रियापरिणाम ही उसकी भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप धर्म और अधर्म में कारण होता है। (२) प्रकृतमें 'जीवित शरीर' पदके अन्तर्गत 'शरीर' शब्दसे शरीरके अंगभत द्रव्यमन, वचन (बोलनेका स्थान मख) और शरीर इन तीनोंका ग्रहण विवक्षित है, क्योंकि जीवकी भाववती शक्तिीके परिणमनस्वरूप धर्म और अधर्ममें जीवकी क्रियावती शक्तिका प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप जो क्रियारूप परिणाम कारण होता है वह शरीरके अंगभूत द्रव्यमन, वचन (मुख) और शरीर इन तीनोंमेंसे प्रत्येकके सहयोगसे अलग-अलग प्रकारका होता है तथा जीवकी क्रियावती शक्तिका वह क्रियापरिणाम यदि बाह्य पदार्थोंके प्रति प्रवृत्तिरूप होता है तो उसके सहयोगसे आत्माकी उस भाववती शक्तिका वह परिणमन अधर्म रूप होता है और यदि उसी क्रियावती शक्तिका वह क्रिया परिणमन बाह्य पदार्थोंके प्रति प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप होता है तो उसके सहयोगसे Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १७५ आत्माकी उस भाववती शक्तिका वह परिणमन धर्मरूप होता है। इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है जीव द्रव्यमनके सहयोगसे शुभ-अशुभ संकल्पके रूपमें प्रवृत्तिरूप या इस प्रकारकी प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप आत्म-व्यापार करता है, वचनके सहयोगसे शुभ-अशुभ बोलनेके रूपमें प्रवृत्तिरूप या इस प्रकारकी प्रवृत्तिसे रूप आत्म-व्यापार करता है और शरीरके सहयोगसे शभ-अशभ हलन-चलनके रूपमें प्रवत्तिरूप या उस प्रकारकी प्रवृत्तिसे निवत्तिरूप आत्म-व्यापार करता है। द्रव्यमन, वचन और शरीरके सहयोगसे होनेवाला जीवका उक्त शुभ-अशुभ प्रवृत्तिरूप या उस प्रकारकी प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप आत्म-व्यापारका अपर नाम आत्म-पुरुषार्थ है और इसे ही जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनके रूपमें जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रिया कहते हैं । (३) जीवका संसार. शरीर और भोगोंके प्रति अथवा हिंसा, झठ, चोरी, भोग और संग्रह रूप पाँच पापोंके प्रति उक्त प्रकारका मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्तिरूप आत्म-व्यापार अशुभ कहलाता है व उसका देवपूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप, दान, अणव्रत, महाव्रत, समिति आदिके प्रति मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवत्तिरूप आत्मव्यापार शुभ कहलाता है। तथा उसका इन मानसिक, वाचनिक और कायिक शुभ-अशुभ प्रवृत्तिरूप आत्मव्यापारोंसे मन, वचन और कायगुप्तियोंके रूपमें निवृत्तिरूप शुद्धआत्मव्यापार होता है। (४) शरीरके अंग-भूत द्रव्य मन, वचन और शरीरके सहयोगसे होनेवाले उक्त तीनों प्रकारके आत्मव्यापारोंमेसे शुभ और अशुभ प्रवृत्तिरूप दोनों प्रकारके आत्मव्यापारोंसे जीव यथायोग्य शुभ और अशुभ कर्मोंका बन्ध करता है व उक्त प्रकारकी प्रवृत्तिसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, और कायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप आत्मव्यापारोंसे जीव उन कर्मोका संवर और निर्जरण करता है। इस तरह बद्धकर्मोके उदयसे जीवमें भाववती शक्तिके विभाव परिणामके रूपमें अधर्मभाव प्रगट होता है तथा बंधनेवाले कर्मोके बन्धमें रुकावटरूप संवर और बद्ध कर्मोके उपशम, क्षय और क्षयोपशमरूप निर्जरणसे जीवमें भाववती शक्तिके स्वभावपरिणमनके रूपमें धर्मभाव प्रगट होता है। यहाँपर यह ज्ञातव्य है कि जब तक प्रथम गुणस्थानमें विद्यमान जीव केवल अशभ प्रवृत्ति करता है तब तक वह यथायोग्य कर्मोंका बन्ध ही करता है। तथा प्रथम, द्वितीय और तृतीय गुणस्थानोंमें विद्यमान जीव जो अशुभ प्रवृत्तिके साथ शुभ प्रवृत्ति करते हैं वे भी यथायोग्य कर्मोंका बन्ध ही करते हैं। इतना ही नहीं, यदि कदाचित् कोई मिथ्यादृष्टि भव्य या अभव्य जीव आसक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा त्याग कर अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिके साथ शुभ प्रवृत्ति करने लगा हो तो वह भी कर्मोका बन्ध ही करता है । इसके अतिरिक्त यदि कोई मिथ्यादृष्टि भव्य या अभव्य जीव कदाचित् आसक्तिवश होनेवाली अशुभप्रवृत्तिके सर्वथा त्याग पूर्वक अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिका एकदेश या सर्वदेश त्याग कर देता है तथा यथावश्यक या किंचित अनिवार्य अशक्तिवश होनेवाली अशभ प्रवत्तिके साथ प्रधानतया शभ प्रवत्ति करने लगता है तो वह भी कर्मोका बन्ध ही करता है । लेकिन कोई बिरला मिथ्यादृष्टि भव्य जीव या सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव आसक्तिवश होनेवाली अशभ प्रवृत्तिके सर्वथा त्यागके आधारसे करणलब्धिके रूपमें आत्मोन्मुख हो जाता है तो वह यथायोग्य कर्मोका संवर और निर्जरण भी करने लगता है व अशक्तिवश होनेवाली अशभ प्रवृत्तिके साथ शुभ प्रवृत्ति करता हुआ कर्मोंका आस्रव और बन्ध भी करता है। इसी प्रकार आशक्तिवश होनेवाली अशुभप्रवृत्तिके सर्वथा त्याग पूर्वक आत्मोन्मुखताको प्राप्त प्रथम, तृतीय या चतुर्थ गुणस्थानवी जीव यदि अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिका भी एक देश त्याग कर अपनी आत्मोन्मुखतामें वृद्धि कर लेता है तो Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य वह यथायोग्य कर्मोके संवर और निर्जरणमें वृद्धि कर यथायोग्य रूपमें विद्यमान अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिके साथ शुभ प्रवृत्तिके आधारपर कर्मोंका आस्रव और बन्ध करता है। इसी प्रकार आसक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्ति के सर्वथा त्यागपूर्वक आत्मोन्मुखताको प्राप्त प्रथम, तृतीय, चतुर्थ या पंचम गुणस्थानवर्ती जीव यदि अशक्तिवश होनेवाली प्रवृत्तिका यथायोग्य सर्वदेश त्यागकर अपनी आत्मोन्मुखतामें और भी वृद्धि कर लेता है तो वह यथायोग्य कर्मोके संवर और निर्जरणमें और भी वृद्धि करके यथायोग्य रूपमें विद्यमान अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिके साथ शुभ प्रवृत्तिके आधारपर कर्मोंका आस्रव और बन्ध करता है । इसी तरह आसक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिके सर्वथा त्यागपूर्वक आत्मोन्मुखताको प्राप्त प्रथम, तृतीय, चतुर्थ, पंचम या षष्ठ गुणस्थानवी जीद यदि अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा त्यागकर अपनी आत्मोन्मुखतामें और भी वृद्धि कर लेता है तो वह यथायोग्य कर्मोंके संवर और निर्जरणमें और भी वृद्धि करके क्रमशः सप्तम, अष्टम, नवम और दशम गुणस्थानोंमें पहुँचकर केवल आभ्यन्तर शुभ प्रवृत्तिके आधारपर कर्मोंका आस्रव और बन्ध करता है। इसी तरह ऐसा दशम गुणस्थानवर्ती जीव अन्तमें अपनी शुभ पुरुषार्थरूप प्रवृत्तिको भी समाप्त कर यथायोग्य आत्मोन्मुखताकी पूर्णताको प्राप्त होकर संवर और निर्जरणमें वृद्धि कर एकादश या द्वादश गुणस्थानमें और द्वादश गुणस्थानके पश्चात् त्रयोदश गुणस्थानमें केवल मानसिक, वाचनिक और कायिक योगप्रवृत्तिके आधारपर मात्र सातावेदनीय कर्मका केवल प्रकृति और प्रदेश बन्धके रूपमें आस्रव और बन्ध करने लग जाता है और त्रयोदश गुणस्थानवी जीवकी जब उक्त योगप्रवृत्ति भी समाप्त हो जाती है तो वह चतुर्दश गुणस्थानके प्रारम्भमें पूर्ण संवरको प्राप्त कर तथा अन्त समयमें शेष विद्यमान अघातिया कर्मोंका भी क्षयके रूपमें पूर्ण निर्जरण करके नोकर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध समाप्त कर सिद्ध पदवीको प्राप्त हो जाता है। ___ इस विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जीव अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप शुभ-अशुभ प्रवृत्तिरूप जीवित-शरीरकी क्रियाके आधारसे अपनी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप विभावरूप अधर्मभावको प्राप्त होता है और अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप शुभ-अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप जीवित शरीरकी क्रियाके आधारसे वह अपनी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप स्वभावरूप धर्मभावको प्राप्त होता है। इस विवेचनके आधारसे उत्तरपक्ष यदि कदाचित् प्रकृत विषय सम्बन्धी आगमके अभिप्रायको समझनेकी चेष्टा करे, तो मुझे विश्वास है कि वह पूर्वपक्षकी इस मान्यताको नियमसे स्वीकार कर लेगा कि शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरको क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है । प्रश्नोत्तर ३ की सामान्य समीक्षा पूर्वपक्षका प्रश्न-जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ?-त० च० पृ० ९३ । उत्तरपक्षका उत्तर-(क) इस प्रश्नमें यदि "धर्म" पदका अर्थ पुण्यभाव है तो जीवदयाको पुण्यभाव मानना मिथ्यात्व नहीं है, क्योंकि जीवदयाकी परिगणना शुभपरिणामोंमें की गई है और शुभ परिणामको आगममें पुण्यभाव माना है।-त० च० पृ० ९३ । (ख) यदि इस प्रश्नमें 'धर्म' पदका अर्थ वीतराग परिणति लिया जाये तो जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है, क्योंकि जीवदया पुण्यभाव होनेके कारण उसका आस्रव और बन्धतत्त्वमें अन्तर्भाव होता है, संवर और निर्जरा तत्त्वमें अन्तर्भाव नहीं होता।-त० च० पृ० ९३ । जीवदयाके प्रकार (१) जीवदयाका एक प्रकार पुण्यभाव रूप है। इसे आगमके आधारपर उत्तरपक्षके समान पूर्वपक्ष Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/ धर्म और सिद्धान्त : १७७ भी मानता है तथा उत्तरपक्षके समान पूर्वपक्ष यह भी मानता है कि पुण्यभाव रूप होनेके कारण उसका अन्तर्भाव आस्रव और बन्धतत्त्वमें होता है, संवर और निर्जरामें अन्तर्भाव नहीं होता। इसके सम्बन्धमें दोनों पक्षोंमें इतना मतभेद अवश्य है कि जहाँ पूर्वपक्ष पुण्यभाव रूप जीवदयाको व्यवहारधर्म रूप जीव दयाकी उत्पत्तिमें कारण मानता है वहाँ उत्तरपक्ष इस बातको स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। पुण्यभाव रूप जीवदया व्यवहारधर्म रूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारण होती है, इस बातको आगे स्पष्ट किया जायेगा। (२) जीवदयाका दुसरा प्रकार जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप है। इसकी पुष्टि पूर्वपक्षने अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें धवल पुस्तक १३ के पष्ठ ३६२ पर निर्दिष्ट निम्न वचनके आधारपर की है "करुणाए जोवसहावस्स कम्मणिदत्तविरोहादो" अर्थ-करुणा जीवका स्वभाव है अतः इसके कर्मजनित होनेका विरोध है। यद्यपि धवलाके इस वचनमें जीवदयाको जीवका स्वतःसिद्ध स्वभाव बतलाया है, परन्तु जीवके स्वतःसिद्ध स्वभावभूत वह जीवदया अनादिकालसे मोहनीय कर्मकी क्रोध प्रकृतियोंके उदयसे विकृत रहती आई है, अतः मोहनीय कर्मकी उन क्रोध प्रकृतियोंके यथास्थान यथायोग्य रूपमें होनेवाले उपशम, क्षय या क्षयोपशमसे जब वह शद्ध रूप में विकासको प्राप्त होती है तब उसे निश्चयधर्मरूपता प्राप्त हो जात अन्तर्भाव आस्रव और बन्धतत्त्वमें नहीं होता, क्योंकि जीवके शुद्धस्वभावभूत होनेके कारण वह कर्मोके आस्रव और बन्धका कारण नहीं होती है। तथा इसका अन्तर्भाव संवर और निर्जरा तत्त्वमें भी नहीं होता, क्योंकि इसकी उत्पत्ति हो संवर और निर्जरापूर्वक होती है । (३) जीवदयाका तीसरा प्रकार अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक होनेवाली दयारूप शुभ प्रवृत्तिके रूप में व्यवहारधर्मरूप है। इसका समर्थन पूर्वपक्षने अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें आगम प्रमाणोंके आधारपर किया है। इसका अन्तर्भाव अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप होनेके आधारपर संवर और निर्जराका कारण होनेसे संवर और निर्जरा तत्त्वमें होता है व दयारूप पुण्यप्रवृत्तिरूप होनेके आधारपर आस्रव और बन्धका कारण होनेसे आस्रव और बन्धतत्त्वमें भी होता है। कर्मोके संवर और निर्जरणमें कारण होनेसे यह व्यवहारधर्मरूप जीवदया जीवके शद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारण सिद्ध होती है। पुण्यभूत दयाका विशेष स्पष्टीकरण भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जाव सतत विपरोताभिनिवेश और मिथ्याज्ञानपूर्वक आसक्तिवश अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्ति करते रहते हैं। तथा कदाचित् संसारिक स्वार्थवश दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति भी किया करते हैं। ये जीव यदि कदाचित् अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिके साथ सम्यक् अभिनिवेश और सम्यग्ज्ञानपूर्वक कर्त्तव्यवश दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं तो उनके अन्तःकरणमें उस अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे घृणा उत्पन्न हो जाती है और तब वे उस अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं । इस तरह वह पुण्यभावरूप जीवदया अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा निवृत्तिपूर्वक होनेवाली दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप व्यवहार धर्मकी उत्पत्तिमें कारण सिद्ध होती है। २३ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ निश्चयधर्मरूप जीवदयाका विशेष स्पष्टीकरण निश्चयधर्मरूप जीवदयाको उत्पत्ति भव्य जीवमें ही होती है, अभव्य जीवमें नहीं । तथा उस भव्यजीवमें उसकी उत्पत्ति मोहनीय कर्मके भेद अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनरूप कषायोंकी क्रोध प्रकृतियोंका यथास्थान यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर शुद्ध स्वभावके रूपमें उत्तरोत्तर प्रकर्षको लेकर होती है। इसकी प्रतिक्रिया निम्न प्रकार है : (क) अभव्य और भव्य दोनों प्रकारके जीवोंकी भाववती शक्तिका अनादिकालसे अनन्तानुबन्धी आदि उक्त चारों कषायोंकी क्रोध प्रकृतियोंके सामूहिक उदयपूर्वक अदयारूप विभावपरिणमन होता आया है। दोनों प्रकारके जीवोंमें उस अदयारूप विभावपरिणममकी समाप्तिमें कारणभूत क्षयोपशम, विशद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंके विकासकी योग्यता स्वभावतः विद्यमान हैं। भव्य जीवोंमें तो उस अदयारूप विभाव परिणतिकी समाप्तिमें अनिवार्यकारणभूत आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिके विकासकी योग्यता भी स्वभावतः विद्यमान है । इस तरह जिस भव्य जीवमें जब क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकास हो जानेपर उक्त करणलब्धिका भी विकास हो जाता है तब सर्वप्रथम उस करणलब्धिके बलसे उस भव्य जीवमें मोहनीय कर्मके भेद दर्शनमोहनीय कर्मकी यथासम्भवरूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिरूप तीन प्रकृतियोंका व चारित्रमोहनीयकर्मके प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कषायकी नियमसे विद्यमान मान, माया और लोभ प्रकृतियोंके साथ क्रोध प्रकृतिका भी यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर चतुर्थ गुणस्थानके प्रथम समयमें उसको उस भाववतो शक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधमके रूपमें एक प्रकारको जीवदयारूप परिणमन होता है। (ख) इसके पश्चात् उस भव्य जीवमें यदि उस आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका विशेष उत्कर्ष हो जावे तो उसके बलसे उसमें चारित्रमोहनीय कर्मके द्वितीय भेद अप्रत्याख्यानावरण कषायको नियमसे विद्यमान मान, माया और लोभ प्रकृतियोंके साथ क्रोध प्रकृतिका भी क्षयोपशम होनेपर पंचमगणस्थानके प्रथम समयमें उसको उस भाववती शक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मके रूपमें दूसरे प्रकारकी जीवदयारूप परिणमन होता है। (ग) इसके भी पश्चात् उस भव्य जीवमें यदि आत्मोन्मुखता रूप करणलब्धिका और विशेष उत्कर्ष हो जावे तो उसके बलसे उसमें चारित्र-मोहनीयकर्मके तृतीय भेद प्रत्याख्यानावरण कषायकी नियमसे विद्यमान मान, माया और लोभ प्रकृतियोंके साथ क्रोध प्रकृतिका भी क्षयोपशम होनेपर सप्तम गुणस्थानके प्रथम समयमें उसकी उस भाववती शक्तिका शुद्ध स्वभावभुत निश्चयधर्मके रूपमें तीसरे प्रकारको जीवदयारूप परिणमन होता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सप्तम गुणस्थानको प्राप्त जीव सतत सप्तमसे षष्ठ और षष्ठसे सप्तम दोनों गुणस्थानों में अन्तर्मुहूर्त कालके अन्तरालसे झूलेकी तरह झूलता रहता है। (घ) उक्त प्रकार सप्तमसे षष्ठ और षष्ठसे सप्तम दोनों गुणस्थानोंमें झूलते हुये उस जीवमें यदि सप्तमगुणस्थानसे पूर्व ही दर्शनमोहनीय कर्मकी उक्त तीन और चारित्रमोहनीय कर्मके प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कषायकी उक्त चार इन सात प्रकृतियोंका उपशम या क्षय हो चुका हो अथवा सप्तम गुणस्थानमें ही उनका उपशम या क्षय हो जावे तो उसके पश्चात् वह जीव उस आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका सप्तम, अष्टम और नवम गुणस्थानोंमें क्रमशः अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके रूपमें और भी विशेष उत्कर्ष प्राप्त कर लेता है और तब नवम गुणस्थानमें ही उस जीवमें चारित्रमोहनीय कर्मके उक्त द्वितीय और तृतीय भेदरूप अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायोंकी क्रोध प्रकृतियों के साथ चारित्रमोहनीयकर्मके ही चतुर्थ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त: १७९ भेद संज्वलन कषायकी क्रोध प्रकृतिका भी उपशम या क्षय होनेपर उस जीवकी उस भाववती शक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मके रूपमें चौथे प्रकारको जीवदयारूप परिणमन होता है । इस विवेचनका तात्पर्य यह है कि यद्यपि भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीवोंकी भाववती शक्तिका अनादिकाल से चारित्रमोहनीयकर्मके भेद अनन्तानुबन्धी आदि चारों कषायोंकी क्रोध प्रकृतियोंके सामूहिक उदयपूर्वक अदयारूप विभावपरिणमन होता है, परन्तु जब जिस भव्य जीवकी उस भाववती शक्तिका वह अदयारूप विभावपरिणमन यथास्थान उस उस क्रोध प्रकृतिका यथासम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर यथायोग्य रूप में समाप्त होता जाता है तब उसके बलसे उस जीवकी उस भाववतीशक्तिका उत्तरोत्तर विशेषता लिये हुये शुद्ध स्वभावरूप निश्चयधर्म के रूपमें दयारूप परिणमन भी होता जाता है । इतना अवश्य है कि उन उन क्रोध प्रकृतियोंका यथास्थान यथायोग्यरूपमें होनेवाला वह उपशम, क्षय या क्षयोपशम उस भव्य जीवमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंके विकासपूर्वक आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका विकास होनेपर ही होता है । व्यवहारधर्मरूप जीवदयाका विशेष स्पष्टीकरण भव्य जीवमें उपर्युक्त पाँचों लब्धियोंका विकास तब होता है जब वह जीव अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्तियोंको क्रियावती शक्तिके ही परिणमनस्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तियोंसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति के रूपमें सर्वथा निवृत्तिपूर्वक करने लगता है । इन अदयारूप संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तियोंसे सर्वथा निवृत्तिपूर्वककी जानेवाली दयारूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिका नाम ही व्यवहारधर्मरूप दया है । इस तरह यह निर्णीत है कि जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमन स्वरूप व्यवहारधर्मरूप जीवदयाके बलपर ही भव्य जीवमें भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्ति में कारणभूत क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करणलब्धियोंका विकास होता है। इस तरह निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्ति व्यवहारधर्मरूप जीवदया कारण सिद्ध होती है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि कोई-कोई अभव्य जीव भी इस व्यवहारधर्मरूप दयाको अंगीकार करके अपने में क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकास कर लेता है । इतना अवश्य है कि उसकी स्वभावभूत अभव्यताके कारण उसमें आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका विकास नहीं होता है । इस तरह उसमें भाववती शक्ति के परिणमनस्वरूप निश्चयधर्मरूप जीवदयाका विकास भी नहीं होता है । यहाँ यह भो ज्ञातव्य है कि भव्य जीवमें उक्त क्रोध प्रकृतियोंका यथासम्भव रूप में होनेवाला वह उपशम, क्षय या क्षयोपशम यद्यपि आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका विकास होनेपर ही होता है, परन्तु उसमें उस करणलब्धिका विकास क्रमशः क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चारों लब्धियोंका विकास होनेपर ही होता है | अतः इन चारों लब्धियोंको भी उक्त क्रोध प्रकृतियोंके यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशममें कारण माना गया है । जीवकी भाववती और क्रियावती शक्तियों के सामान्य परिणमनोंका विवेचन tant भाववती और क्रियावती दोनों शक्तियोंको प्रश्नोत्तर २ की समीक्षामें उसके स्वतः सिद्ध स्वभावके रूपमें बतलाया गया है। इनमेंसे भाववतीशक्ति के परिणमन एक प्रकारसे तो मोहनीयकर्मके उदयमें विभावरूप व उसके उपशम, क्षय या क्षयोपशम में शुद्ध स्वभावरूप होते हैं व दूसरे प्रकारसे हृदयके सहारे - पर तत्त्वश्रद्धानरूप या अतत्त्वश्रद्धानरूप और मस्तिष्क के सहारेपर तत्त्वज्ञानरूप या अतत्त्वज्ञानरूप होते हैं । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ एवं क्रियावती शक्तिके परिणमन संसारावस्थामें एक प्रकारसे तो मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय शुभ और पापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप होते हैं। दूसरे प्रकारसे पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगप्तिके रूपमें निवत्तिपूर्वक मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप होते हैं और तीसरे प्रकारसे सक्रिय मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणाके सहारेपर पुण्यरूपता और पापरूपतासे रहित आत्मक्रियाके रूप में होते हैं। इनके अतिरिक्त संसारका विच्छेद हो जानेपर जीवकी क्रियावती शक्तिका चौथे प्रकारसे जो परिणमन होता है वह स्वभावतः उर्ध्वगमनरूप होता है । जीवकी क्रियावती शक्तिके इन चारों प्रकारसे होनेवाले परिणमनोंमेंसे पहले प्रकारके परिणमन कर्मोके आस्रवपूर्वक प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप चारों प्रकारके बन्धमें कारण होते हैं। दूसरे प्रकारके परिणमन पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप होनेसे भव्यजीवमें यथायोग्य कर्मोके संवरपूर्वक निर्जरणमें कारण होते हैं व पुण्यरूप शुभ प्रवृत्तिरूप होनेसे यथायोग्य कर्मोके आस्रवपूर्वक प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप चारों प्रकारके बन्ध कारण होते है। तीसरे प्रकारके परिणमन पुण्यरूपता और पापरूपतासे रहित होनेसे केवल सातावेदनीय कर्मके आस्रवपूर्वक प्रकृति तथा प्रदेश बन्धमें कारण होते हैं और चौथे प्रकारका परिणमन केवल आत्माश्रित होनेसे कर्मोके आस्रव और बन्धमें कारण नहीं होता है और कर्मोंके संवर और निर्जरणपूर्वक उन कर्मोंका सर्वथा अभाव हो जानेपर होनेसे उसके कर्मोंके संवर और निर्जरणका कारण होनेका तो प्रश्न ही नहीं रहता है । जीवकी क्रियावती शक्तिके प्रवृत्तिरूप परिणमनोंका विश्लेषण जीवकी भाववती शक्तिके हृदयके सहारेपर अतत्त्वश्रद्धानरूप व मस्तिष्कके सहारेपर अतत्त्वज्ञानरूप जो परिणमन होते हैं उनसे प्रभावित होकर जीवकी क्रियावती शक्तिके आसक्तिवश मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन होते हैं। एवं कदाचित् संसारिक स्वार्थवश पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन भी होते हैं। इसी तरह जीवकी भाववती शक्तिके हृदयके सहारेपर तत्त्वश्रद्धानरूप और मस्तिष्कके सहारेपर तत्त्वज्ञानरूप जो परिणमन होते हैं उनसे प्रभावित होकर जीवकी क्रियावती शक्तिके एक तो अशक्तिवश मानसिक, वाचनिक और कायिक आरम्भी पापमय अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन होते हैं और दूसरे कर्तव्यवश मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय शुभप्रवृत्तिरूप परिणमन होते हैं । संसारी जीव आसक्ति, मोह, ममता तथा राग और द्वेषके वशीभूत होकर मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्तिरूप जो लोकविरुद्ध हिंसा, झूठ, चोरी तथा पदार्थों के अनावश्यक भोग और संग्रह रूप क्रियायें सतत करता रहता है वे सभी क्रियायें संकल्पी पाप कहलाती है। इनमें सभी तरहकी स्वपरहितविघातक क्रियायें अन्तर्भूत होती है। संसारी जीव अशक्ति, मजबूरी आदि अनिवार्य परिस्थितियोंवश मानसिक, वाचनिक और कायिक 'प्रवृत्तिरूप जो लोकसम्मत हिंसा, झूठ, चोरी तथा आवश्यक भोग और संग्रहरूप क्रियायें करता है वे सभी क्रियायें आरम्भी पाप कहलाती है। इनमें जीवनका संचालन, कुटुम्बका भरण-पोषण तथा धर्म, संस्कृति, समाज, राष्ट्र और लोकका संरक्षण आदि उपयोगी कार्योंको सम्पन्न करनेके लिये नीतिपूर्वक की जानेवाली असि, मषि, कृषि, सेवा, शिल्प, वाणिज्य तथा अनिवार्य भोग और संग्रहरूप क्रियायें अन्तर्भूत होती हैं। संसारी जीव जितनी परहितकारी मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियायें करता है वे सभी क्रियायें पुण्य कहलाती है । इस प्रकारकी पुण्यरूप क्रियायें दो प्रकारकी होती है-एक तो सांसारिक स्वार्थवशकी जानेवाली पुण्यरूप क्रिया और दूसरी कतव्यवशकी जानेवाली पुण्यरूप क्रिया। इनमेसे कब्यिवशकी जानेवाली पुण्यरूप क्रिया ही वास्तविक पुण्यक्रिया है । ऐसी पुण्यक्रियासे ही परोपकार की सिद्धि होती है । इसके Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १८१ अतिरिक्त वीतरागी देवकी आराधना, वीतरागताके पोषक शास्त्रोंका पठन-पाठन, चिन्तन और मनन व वीतरागताके मार्गपर आरूढ़ गुरुओंकी सेवा-भक्ति तथा स्वावलम्बन शक्तिको जागत करनेवाले व्रताचरण और तपश्चरण आदि भी पुण्यक्रियाओंमें अन्तर्भूत होते हैं। यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि उक्त आरम्भी पाप भी यदि आसक्ति आदिके वशीभूत होकर किये जाते है तथा पुण्य भी यदि अहंकार आदिके वशीभूत होकर किये जाते हैं तो उन्हें संकल्पी पाप ही जानना चाहिए। संसारी जोवकी क्रियावती शक्तिके दया और अदया रूप परिणमनोंका विवेचन ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि जीवकी भाववती शक्तिका चारित्रमोहनीय कर्मके भेद अनन्तानुबन्धी आदि चारों कषायोंकी क्रोध प्रकृतियोंके उदयमें अदयारूप विभाव परिणमन होता है व उन्हीं क्रोधप्रकृतियोंके यथास्थान यथासम्भव रूपमें होनेवाले उपशम, क्षय या क्षयोपशममें दयारूप स्वभाव परिणमन होता है। यहाँ जीवकी क्रियावती शक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक परिणमनोंके विषयमें यह बतलाना है कि जीव द्वारा परहितकी भावनासे की जानेवाली क्रियायें पुण्यके रूपमें दया कहलाती हैं और जीव द्वारा परके अहितकी भावनासे की जानेवाली क्रियायें संकल्पी पापके रूपमें अदया कहलाती है। इनके अतिरिक्त जीवकी जिन क्रियाओंमें परके अहितकी भावना प्रेरक न होकर केवल स्वहितकी भावना प्रेरक हो, परन्तु जिनसे परका अहित होना निश्चित हो वे क्रियायें आरम्भी पापके रूपमें अदया कहलाती हैं। जैसे एक व्यक्ति द्वारा अनीतिपूर्वक दूसरे व्यक्तिपर आक्रमण करना संकल्पी पापरूप अदया है। परन्तु उस दुसरे व्यक्ति द्वारा आत्मरक्षाके लिये उस आक्रमण व्यक्तिपर प्रत्याक्रमण करना आरम्भी पापरूप अदया है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि जोवकी पुण्यमय क्रिया संकल्पी पापमय क्रियाके साथ भी सम्भव है और आरम्भी पापमय क्रियाके साथ भी सम्भव है, परन्तु संकल्पी और आरम्भी दोनों पापरूप क्रियाओंमें जीवकी प्रवृत्ति एक साथ नहीं हो सकती है क्योंकि संकल्पी पापरूप क्रियाओंके साथ जो आरम्भी पापरूप क्रियायें देखने में आती है उन्हें वास्तवमें संकल्पी पापरूप क्रियायें ही मानना युक्तिसंगत है । इस तरह संकल्पी पापरूप क्रियाओंके सर्वथा त्यागपूर्वक जो आरम्भी पापरूप क्रियायें की जाती है उन्हें ही वास्तविक आरम्भी पापरूप क्रियायें समझना चाहिए। व्यवहार धर्मरूप दयाका विश्लेषण और कार्य ऊपर बतलाया जा चका है कि जीव द्वारा मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ क्रियाओंके साथ परहितको भावनासे की जानेवाली मानसिक, वाचनिक और कायिक शुभ क्रियायें पुण्यके रूपमें दया कहलाती हैं और वे कर्मों के आस्रव और बन्धका कारण होती है। परन्तु भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीवों द्वारा कम-से-कम मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापमय अदयारूप अशुभ क्रियाओंसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें होनेवाली सर्वथा निवृत्तिपूर्वक जो मानसिक, वाचनिक और कायिक दयाके रूपमें पुण्यमय शुभ क्रियायें की जाने लगती हैं वे क्रियायें ही व्यवहारधर्मरूप दया कहलाती है । इसमें हेतु यह है कि उक्त संकल्पी पापमय अदयारूप अशुभ क्रियाओंसे निवृत्तिपूर्वक की जानेवाली पुण्यभूत दया भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीवोंमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंके विकासका कारण होती है तथा भव्य जीवमें तो वह इन लब्धियों के विकासके साथ आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिके विकासका भी कारण होती है जो करणलब्धि प्रथमतः मोहनीयकर्मके भेद दर्शनमोहनीय कर्मकी यथासंभव रूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यकप्रकृतिरूप तीन व मोहनीयकर्मके भेद चारित्र Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ : सरस्वती-वरदपुत्र ६० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ मोहनीयकर्मकी अनन्तानुबन्धी कषायरूप क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इस तरह सात प्रकृतियों के यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशममें कारण होती है। इस तरह उक्त व्यवहारधर्मरूप दया भव्यजीवमें कर्मोंके संवर और निर्जरणमें कारण सिद्ध होती है। इतनी बात अवश्य है कि भव्यजीवकी उस व्यवहारधर्मरूप दयामें जितना पुण्यमय दयारूप प्रवृत्तिका अंश विद्यमान रहता है वह तो कर्मोके आस्रव और बन्धका ही कारण होता है तथा उस व्यवहारधर्मरूप दयाका संकल्पीपापमय अदयारूप प्रवृत्तिसे होनेवाली सर्वथा निवृत्तिका अंश कर्मोंके संवर और निर्जरणका कारण होता है । द्रव्यसंग्रह ग्रन्थकी गाथा ४५ में जो व्यवहारचारित्रका लक्षण निर्धारित किया गया है उसके आधारपर व्यवहारधर्मरूप दयाका स्वरूप स्पष्ट रूपसे समझमें आ जाता है । वह गाथा निम्न प्रकार है असुहादो विणि वित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । वदसमिदिगुत्ति रूवं ववहारणया दु जिणभणियं ।।४५)! अर्थ-अशुभसे निवृत्तिपूर्वक होनेवाली शुभमें प्रवृत्तिको जिन भगवानने ब्यवहारचारित्र कहा है । ऐसा व्यवहारचारित्र व्रत, समिति और गुप्तिरूप होता है । इस गाथामें व्रत, समिति और गुप्तिको व्यवहारचारित्र कहनेमें हेतु यह है कि इनमें अशुभसे निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्तिका रूप पाया जाता है। इस तरह इस गाथासे निर्णीत हो जाता है कि जीव पुण्यरूप जीवदयाको जब तक पापरूप अदयाके साथ करता है तब तक तो उस दयाका अन्तर्भाव पुण्यरूप दयामें होता है और वह जीव उक्त पुण्यरूप जीवदयाको जब पापरूप अदयासे निवृत्तिपूर्वक करने लग जाता है तब वह पुण्यभूत दया व्यवहारधर्मका रूप धारण कर लेती है, क्योंकि इस दयासे जहाँ एक ओर पुण्य-प्रवृत्तिरूपताके आधारपर कर्मोका आस्रव और बन्ध होता है वहाँ दूसरी ओर उस दयासे पापप्रवृत्तिसे निवृत्तिरूपताके आधारपर भव्य जीवमें कर्मोका संवर और निर्जरण भी हुआ करता है। व्यवहारधर्मरूप दयासे कर्मोंका संवर और निर्जरण होता है इसकी पुष्टि आचार्य वीरसेनके द्वारा जयधवलाके मंगलाचरणकी व्याख्यामें निर्दिष्ट निम्न वचनसे होती है "सुह-सुद्धपरिणामेहिं कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो" अर्थ-शुभ और शुद्धके रूपमें मिश्रित परिणामोंसे यदि कर्मक्षय नहीं होता हो तो कर्मक्षयका होना असंभव हो जायेगा। आचार्य वीरसेनके वचनमें "सुह-सुद्धपरिणामेहि" पदका ग्राह्य अर्थ आचार्य वीरसेनके उक्त वचनके "सुह-सुद्धपरिणामेहिं" पदमें 'सुह' और 'सुद्ध' दो शब्द विद्यमान हैं। 'सुह' शब्दका अर्थ भव्य जीवकी क्रियावती शक्तिके प्रवृत्तिरूप शुभ परिणमनके रूपमें और सुद्ध' शब्दका अर्थ उस भव्य जीवकी क्रियावती शक्तिके अशुभसे निवृत्तिरूप शुद्ध परिणमनके रूप में ग्रहण करना ही युक्त है। 'सह' शब्दका अर्थ जीवको भाववती शक्तिके पुण्यकर्मके उदय होनेवाले शुभ परिणामके रूपमें और 'सुद्ध' शब्दका अर्थ उस जीवकी भाववती शक्तिके मोहनीयकर्म के यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाले शुद्ध परिणमनके रूपमें ग्रहण करना युक्त नहीं है। आगे इसी बातको स्पष्ट किया जाता है जीवकी क्रियावती शक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक शुभ और अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन कर्मोके आस्रव और बन्धके कारण होते हैं और उसी क्रियावती शक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक उस Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त १८३ प्रवृत्तिरूप परिणमनोंसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति के रूपमें निवृत्तिरूप शुद्ध परिणमन भव्य जीवमें कर्मोके संबर और निर्जरणके कारण होते हैं। जीवको भाववती शक्तिके न तो शुभ और अशुभ परिणमन कर्मोंके आस्रव और बन्धके कारण होते हैं और न ही उसके शुद्ध परिणमन कर्मोंके संवर और निर्जरण के कारण होते हैं। इसमें यह हेतु है कि जीवकी क्रियावती शक्तिका मन, वचन और कायके सहयोग से जो क्रियारूप परिणमन होता है उसे योग कहते हैं - ( " कायवाङ्मनः कर्मयोग : " त० सू० ६-१) | यह योग यदि जोवकी भाववती शक्तिके पूर्वोक्त तत्त्वश्रद्वान और तत्वज्ञानरूप शुभ परिणमनोंसे प्रभावित हो तो उसे शुभ योग कहते हैं और वह योग यदि जीवकी भाववती शक्तिके पूर्वोक्त अतत्त्वश्रद्धान और अतत्त्वज्ञान रूप अशुद्ध परिणमनोंसे प्रभावित हो तो उसे अशुभ योग कहते हैं । ( शुभपरिणामनिर्वृत्तो योगः शुभः । अशुभपरिणामनिर्वृत्तो योगः अशुभ : " - सर्वार्थ सिद्धि ६-३) । यह योग ही कर्मोंका आस्रव अर्थात् बन्धका द्वार कहलाता है - ("स आसवः " त० सू० ६-२ ) । इस तरह जीवको क्रियावती शक्तिका शुभ और अशुभ योगरून परि मन ही कर्मों के आस्रवपूर्वक प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग रूप बन्धका कारण सिद्ध होता है । यद्यपि योगकी शुभरूपता और अशुभरूपताका कारण होनेसे जीवकी भाववती शक्तिके तत्त्वद्वान और तत्त्वज्ञान रूप शुभ परिणमनोंको व अतत्त्वश्रद्धान और अतत्त्वधान रूप अशुभ परिणमनोंको भी कर्मोंके आस्रवपूर्वक अन्धका कारण मानना अयुक्त नहीं है। परन्तु कर्मोंके आस्रव और बन्धका साक्षात् कारण तो योग ही निश्चित होता है। जैसे कोई डाक्टर शीशीमें रखी हुई तेजाबको भ्रमवश आँखकी दवाई समझ रहा है तो भी तबतक वह तेजाब रोगोकी आँखको हानि नहीं पहुँचाती हैं जब तक वह डाक्टर उस तेजाबको रोगीको आँखमें नहीं डालता है और जब डाक्टर उस तेजाबको रोगीको आँखमें डालता है तो तत्काल वह तेजाब रोगीकी आँखको हानि पहुँचा देती है । इसी तरह आँखकी दवाईको आँखकी दवाई समझकर भी जब तक डाक्टर उसे रोगीको आँखमें नहीं डालता है तब तक वह दवाई उस रोगी की आँखको लाभ नहीं पहुँचाती है। परन्तु जब डाक्टर उस दवाईको रोगीकी आँख में डालता है तो तत्काल वह दवाई रोगीको आँखको लाभ पहुँचा देती है । इससे निर्णीत होता है कि जीवकी क्रियावती पाक्तिका शुभ और अशुभ योगरूप परिणमन हो आस्रव और बन्धका कारण होता है। इतना अवश्य है कि जीवकी भाववती शक्तिका हृदय के सहारेपर होने बाला तत्वश्रद्वान रूप शुभ परिणमन या अतस्वध द्वानरूप अशुभ परिणमन व जीवकी भाववती शक्तिका मस्तिष्क के सहारेपर होनेवाला तत्वज्ञानरूप शुभपरिणमन या अतत्त्वज्ञानरूप अशुभ परिणमन भी योगकी शुभरूपता और अशुभरूपतामें कारण होनेसे परम्परया आसव और बन्धमें कारण माने जा सकते हैं। परन्तु आस्रव और बन्धमें साक्षात् करण तो योग ही होता है । इसी प्रकार जीवकी क्रियावती शक्तिके योगरूप परिणमनके निरोधको ही कर्मके संवर और निर्जरणमें कारण मानना युक्त है - ( "आस्रवनिरोधः संवर" त० सू० ९-१) जीवकी भाववती शक्तिके मोहनीय कर्मके यथासम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाले स्वभावभूत शुद्ध परिणमनोंको संवर और निर्जराका कारण मानना युक्त नहीं है, क्योंकि भाववती शक्तिके स्वभावभूत शुद्ध परिणमन मोहनीयकर्मके यथासम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशमपूर्वक होनेके कारण संवर और निर्जराके कार्य होनेसे कमोंके संवर और निर्जरणमें कारण सिद्ध नहीं होते हैं। एक बात और है कि जब जीवको क्रियावती शक्तिके योगरूप परिणमनोंसे कर्मोंका आस्वय होता है तो कमोंके संवर और निर्जरणका कारण योगनिरोधको ही मानना युक्त है। यही कारण है। कि जिस जीवमे गुणस्थानक्रमसे जितना जितना योगका निरोध होता जाता है उस जोवमें वहां उतना उतना कर्मोका संवर नियमसे होता जाता है तथा जब योगका पूर्ण निरोध हो जाता है तब कमौका संवर भी पूर्णरूप से हो जाता है। कमका संवर होनेपर बद्ध कर्मोंकी निर्जरा या तो निषेक रचनाके अनुसार सविपाक रूपमें Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ होती है अथवा "तपसा निर्जराच" त० स०९-३) के अनसार क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप तपके बलपर अविपाक रूपमें भी होती है। इसके अतिरिक्त यदि जीवकी भाववती शक्तिसे स्वभावभत शद्ध परिणमनोंको संवर और निर्जराका कारण स्वीकार किया जाता है तो जब द्वादश गुणस्थानके प्रथम समयमें ही भाववती शक्तिके स्वभावभूत परिणमनकी शुद्धताका पूर्ण विकास हो जाता है तो एक तो द्वादश और त्रयोदश गुणस्थानोंमें सातावेदनीय कर्मका आस्रवपूर्वक प्रकृति और प्रदेशरूपमें बन्ध नहीं होना चाहिए । दुसरे द्वादश गुणस्थानके प्रथम समयमें ही भाववती शक्तिके स्वभावभूत परिणमनकी शुद्धताका पूर्ण विकास हो जाने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घातिकर्मोंका तथा चारों अघातिकर्मोंका सर्वथा क्षय हो जाना चाहिये । परन्तु जब ऐसा नहीं होता है तो यही स्वीकार करना पड़ता है कि वहाँ आस्रव और बन्धका मूल कारण योग है व विद्यमान ज्ञानावरणादि उक्त तीनों घातिकर्मोंकी एवं चारों अघातिकर्मोकी निर्जरा निषेकक्रमसे ही होती है। त्रयोदय गुणस्थानमें केवली भगवान अघातीकर्मोकी समान स्थितिका निर्माण करनेके लिए जो समुद्घात करते हैं वह भी उनकी इस विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जयधवलाके मंगलाचरणकी व्याख्यामें निर्दिष्ट आचार्य वीरसेनके उपर्युक्त वचनके अंगभूत "सुह-सुद्धपरिणामेहि" पदमें आये 'सुह' शब्दसे जीवकी क्रियावती शक्तिके अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिरूप परिणमनोंका अभिप्राय ग्रहण करना ही संगत है । भाववती शक्तिके तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानरूप शुभ व मोहनीय कर्मके यथास्थान यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाले स्वभावभुत शद्ध परिणमनोंका अभिप्राय ग्रहण करना संगत नहीं है। यहाँ यह बात भी विचारणीय है कि जयधवलाके उक्त वचन के 'सुह-सुद्धपरिणामेहि पदके अन्तर्गत "सुद्ध" शब्दका अर्थ यदि जीवकी भाववती शक्तिके मोहनीय कर्म के यथासम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशममें विकासको प्राप्त शुद्ध परिणमनस्वरूप निश्चयधर्मके रूपमें स्वीकार किया जाये तो उस पदके अन्तर्गत "सूह" शब्दका अर्थ पूर्वोक्त प्रकार जीवकी भाववतीशक्तिके तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानरूप शुभ परिणमनके रूपमें तो स्वीकार किया ही नहीं जा सकता है, क्योंकि जीवकी भाववती शक्तिके तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानरूप वे परिणमन पूर्वोक्त प्रकार न तो कर्मोके आस्रव और बन्धके साक्षात् कारण होते हैं और न ही बद्ध कर्मोंके संवर और निर्जरणके ही साक्षात् कारण होते हैं । इसलिए उस 'सुह" शब्दका अर्थ यदि जोवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिके रूपमें स्वीकार किया जाये तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति तो कर्मोंके आस्रव और बन्धका ही कारण होती है । अतः उस "सुह" शब्दका अर्थ जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिके रूपमें ही स्वीकार करना होगा, क्योंकि इस प्रकारके व्यवहारधर्मके पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिरूप अंशसे जहाँ कर्मोका आस्रव और बन्ध होता है वहीं उसके पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप अंशसे कर्मोका संवर और निर्जरण भी होता है । परन्तु ऐसा स्वीकार कर लेनेपर भी जीवकी भाववती शक्तिके स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप परिणमनको पूर्वोक्त प्रकार कर्मोके संवर और निर्जरणका कारण सिद्ध न होनेसे वहाँ "सुद्ध" शब्दका अर्थ कदापि नहीं माना जा सकता है। इस प्रकार जयधवलाके "सुह-सुद्धपरिणामेहिं" पदके अन्तर्गत "सुद्ध" शब्दके निरर्थक होनेका प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। अतः उक्त "सुह-सुद्धपरिणामेहि" इस सम्पूर्ण पदका अर्थ जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक पुण्यमय शुभ प्रवृत्तिके रूपमें ही ग्राह्य हो सकता है। यदि कहा जाये कि जीवको मोक्षकी प्राप्ति उसकी भाववतीशक्तिका शुद्ध स्वभावभूत निश्चय धर्मके रूपमें परिणमन होनेपर ही होती है, इसलिए "सुह-सुद्धपरिणामेहिं" पदके अन्तर्गत “सुद्ध" शब्द निरर्थक Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १८५ नहीं है तो इस बातको स्वीकार करने में यद्यपि कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु ऐसा स्वीकार करनेपर भी यह तो कहा ही जा सकता है कि मोक्षकी प्राप्ति जीवकी भाववतीशक्तिके स्वभावभूत शुद्ध परिणमनके होनेपर होना एक बात है और उस स्वभावभूत शुद्ध परिणमनको कर्मक्षयका कारण मानना अन्य बात है, क्योंकि वास्तव में देखा जाये तो द्वादश गुणस्थानवी जीवका वह शुद्ध स्वभाव मोक्षरूप शुद्ध स्वभावका ही अंश है जो मोहनीय कर्मके सर्वथा क्षय होनेपर ही प्रकट होता है।। अन्तमें एक बात यह भी विचारणीय है कि उक्त "सुह-सुद्धपरिणामेहि" पदके अन्तर्गत "सुद्ध" शब्दका जीवकी भाववतीशक्तिका स्वभावभूत शुद्ध परिणमन अर्थ स्वीकार करनेपर पूर्वोक्त यह समस्या तो उपस्थित है ही कि द्वादश गुणस्थानके प्रथम समयमें शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मका पूर्ण विकास हो जानेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घातिकर्मोंका तथा चारों अघातिकर्मोंका एक साथ क्षय होनेकी प्रसक्ति होती है। साथ ही यह समस्या भी अस्थित होती है कि जीवकी भाववतीशक्तिके स्वभावभूत शुद्ध परिणमनके विकासका प्रारम्भ जब प्रथम गुणस्थानके अन्त समयमें मोहनीय कर्मकी मिथ्यात्व, सम्यगमिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिरूप तीन और अनन्तानुबन्धो क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इन सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम हो जानेपर चतुर्थ गुणस्थानके प्रथम समयमें होता है तो ऐसी स्थितिमें उस स्वभावभूत शुद्ध परिणमनको कर्मोंके संवर ओर निर्जरणका कारण कैसे माना जा सकता है ? अर्थात् नहीं माना जा सकता है। यह बात पूर्व में स्पष्ट की जा चुकी है। उत्तरपक्षकी यह जो मान्यता है कि जीव द्रव्यकर्मोंके उदयकी अपेक्षा न रखते हुए स्वयं (अपने आप) ही अज्ञानी बना हुआ है और उन कर्मोसे यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशमकी अपेक्षा न रखते हुए स्वयं (अपने आप) ही ज्ञानी बनकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है सो इस मान्यताका निराकरण प्रश्नोत्तर एककी समीक्षामें किया जा चुका है तथा प्रश्नोत्तर षष्ठकी समीक्षामें भी किया जायेगा। इसी तरह उत्तरपक्षको मान्य नियतिवाद और नियतवादका निराकरण प्रश्नोत्तर पाँचकी समीक्षामें किया जायेगा। प्रकृतमें कर्मों के आस्रव और बन्ध तथा संवर और निर्जराकी प्रक्रिया (१) अभव्य और भव्य मिथ्यादष्टि जीव जबतक आशक्तिवश मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति करते रहते हैं तबतक वे उस प्रवृत्तिके आधारपर सतत कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं। तथा इस संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिके साथ वे यदि कदाचित् सांसारिक स्वार्थवश मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी करते हैं तो भी वे उन प्रवृत्तियोंके आधारपर सतत कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करते है। (२) अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव जब आशक्तिवश होनेवाले संकल्पी पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्तिको कर्तव्यवश करने लगते है तब भी वे कर्मोका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं। (३) अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव उक्त संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगप्तिके रूपमें सर्वथा त्याग कर यदि अशक्तिवश होनेवाले मानसिक, वाचनिक और कायिक आरम्भीपापमय अदयारूप अशभ प्रवृत्तिके साथ कर्त्तव्यवश मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं तो भी वे कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं । (४) अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव यदि उक्त संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके उक्त प्रकार सर्वथा त्यागपूर्वक उक्त आरम्भी पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका भी मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और २४ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन - प्रन्य कायगुप्तिके रूप में एक देश अथवा सर्वदेश त्यागकर कर्त्तव्यवश मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं तो भी वे कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं । ( ) अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव उक्त संकल्पीपागमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा त्याग कर उक्त आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ कर्त्त व्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति करते हुए अथवा उक्त संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा व उक्त आरंभीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका एकदेश या सर्वदेश त्याग कर कर्त्तव्यवश पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति करते हुए यदि क्षयोपशम विशुद्धि, देशना और प्रयोग्य लब्धियोंका अपने में विकास कर लेते हैं तो भी वे कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं । ( ६ ) यतः मिथ्यात्व गुणस्थानके अतिरिक्त सभी गुणस्थान भव्य जीवके हो होते हैं अभव्य जीवके नहीं, अतः जो भव्य जीव सासादन सम्यग्दृष्टि हो रहे हों उनमें भी उक्त पाँचों अनुच्छेदों मेंसे दो, तीन और चार संख्यक अनुच्छेदोंमें प्रतिपादित व्यवस्थाएँ यथायोग्य पूर्वसंस्कारवश या सामान्यरूपसे लागू होती हैं तथा अनुच्छेद तीन और चार में प्रतिपादित व्यवस्थाएं मिथ्यात्व गुणस्थानकी ओर झुके हुए सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवों में भी लागू होती हैं । सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंमें अनुच्छेद एकमें प्रतिपादित व्यवस्था इसलिए लागू नहीं होती कि वे जीव एक तो केवल संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति कदापि नहीं करते हैं व उनकी प्रवृत्ति अबुद्धिपूर्वक होनेके कारण पुण्यमय दयारूप प्रवृत्ति भी सांसारिक स्वार्थवश नहीं करते हैं । तथा उनमें अनुच्छेद पाँच प्रतिपादित व्यवस्था इसलिए लागू नहीं होती कि वे अपना समय व्यतीत करके नियमसे मिथ्यात्व गुणस्थानको ही प्राप्त करते हैं । इसी तरह मिथ्यात्व गुणस्थानको ओर झुके हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में अनुच्छेद एक और दोमें प्रतिपादित व्यवस्थाएँ इसीलिए लागू नहीं होतीं क्योंकि उनमें संकल्पोपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा अभाव रहता है तथा उनमें अनुच्छेद पाँच की व्यवस्था इसलिए लागू नहीं होती कि वे भी मिथ्यात्व गुणस्थानकी ओर झुके हुए होनेके कारण अपना समय व्यतीत करके मिथ्यात्व गुणस्थानको ही प्राप्त करते हैं । इस तरह सासादन सम्यग्दृष्टि और मिथ्यात्व गुणस्थानकी ओर झुके हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सतत यथायोग्य कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं । यहाँ यह ध्यातव्य कि सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके साथ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंकी प्रवृत्तियाँ भी अबुद्धिपूर्वक हुआ करती हैं । (७) उपर्युक्त जीवोंसे अतिरिक्त जो भव्य मिथ्यादृष्टि जीव और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्व प्राप्तिकी ओर झुके हुए हों अर्थात् सम्यक्त्व प्राप्ति में अनिवार्य कारणभूत करणलब्धिको प्राप्त हो गये हों वे नियमसे यथायोग्य कर्मोंका आस्रव और बन्ध करते हुए भी दर्शनमोहनीय कर्मकी यथासम्भवरूप में विद्यमान मिथ्यातत्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिरूप तीन तथा चारित्रमोहनीयकर्म के प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कषायकी नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इस तरह सात कर्मप्रकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशमके रूप में संवर और निर्जरण किया करते हैं । इसी तरह चतुर्थ गुणस्थान से लेकर आगे के गुणस्थानों में विद्यमान जीव भी यथायोग्य कर्मोंका आसव और बन्ध तथा यथायोग्य कर्मोंका संवर और निर्जरण किया करते हैं । उपर्युक्त विवेचनाका फलितार्थं ( १ ) कोई अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति ही किया करते हैं । अथवा संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ सांसारिक स्वार्थवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १८७ किया करते हैं । कोई अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभके साथ पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्तिको कर्त्तव्यवश किया करते | कोई अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके सर्वथा त्यागपूर्वक आरम्भीपापमय अदयारूप शुभ प्रवृत्तिके साथ कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं एवं कोई अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति सर्वथा व आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके एकदेश अथवा सर्वदेश त्यागपूर्वक कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं । (२) कोई सासादन सम्यग्दृष्टि जीव सामान्यरूपसे संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति के साथ पूर्व - संस्कारके बलपर कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं । कोई सासादन सम्यग्दृष्टि जीव पूर्व - संस्कारके बलपर संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा निवृत्तिपूर्वक आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ कर्त्तव्यवश पुण्यमय अदयारूप शुभरूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं और कोई सासादन सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वसंस्कारवश संकल्पोपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा व आरम्भीपापरूप अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे एकदेश अथवा सर्वदेश निवृत्तिपूर्वक कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं । परन्तु सासादन सम्यग्दृष्टि जीवकी यथायोग्य ये सब प्रवृत्तियाँ अबुद्धिपूर्वक ही हुआ करती हैं । (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव यद्यपि भव्य मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके समान ही प्रवृत्ति ही किया करते हैं परन्तु उनमें इतनी विशेषता है कि वे संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति किसी भी रूपमें नहीं करते हैं । तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवकी भी प्रवृत्तियाँ सासादन सम्यग्दृष्टि जीवके समान पूर्व ही हुआ करती हैं । (४) चथुर्थ गुणस्थान से लेकर आगेके गुणस्थानों में विद्यमान सभी जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा रहित होते हैं । इस तरह चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव या तो अशक्तिवश आरम्भीपापमय दयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं अथवा आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे एकदेश या सर्वदेश निवृत्तिपूर्वक कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं । (५) पंचम गुणस्थानवर्ती जीव नियमसे आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे एकदेश निवृत्तिपूर्वक दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं, क्योंकि ऐसा किये बिना जीवको पंचम गुणस्थान कदापि प्राप्त नहीं होता है । इतना अवश्य है कि कोई पंचम गुणस्थानवर्ती जीव आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वदेश निवृत्तिपूर्वक भी कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं । (६) षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीव नियमसे आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वदेश निवृत्तिपूर्वक कर्त्तव्यवश पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं; क्योंकि ऐसा किये बिना जीवको षष्ठ गुणस्थान प्राप्त नहीं होता । (७) षष्ठ गुणस्थानसे आगेके गुणस्थानोंमें जीव आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा निवृत्त रहता है तथा पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी बाह्यरूपमें नहीं करते हुए अन्तरंगरूप में हो तब तक करता रहता है जब तक नवम गुणस्थान में उसकी अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनकषायों को प्रकृतियों के सर्वथा उपशम या क्षय करनेकी क्षमता प्राप्त नहीं होती । तात्पर्य यह है कि जीवके अप्रत्या- ' ख्यानावरण क्रोधकर्मका उदय प्रथम गुणस्थानसे लेकर चतुर्थ गुणस्थानके अन्त समय तक रहता है व पंचम गुणस्थान में और उसके आगे उसका क्षयोपशम ही रहा करता है । इसी तरह जीवके प्रत्याख्यानावरण क्रोध Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ कर्मका उदय प्रथम गुणस्थानसे लेकर पंचम गुणस्थानके अन्त समयतक रहा करता है व षष्ठ गुणस्थानमें और उसके आगे उसका क्षयोपशम ही रहा करता है तथा इन सभी गुणस्थानोंमें संज्वलन क्रोध कर्मका उदय ही रहा करता है। परन्तु संज्वलनक्रोधकर्मका उदय व अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोधकर्मोका क्षयोपशम तब तक रहा करता है जब तक नवम गुणस्थानमें इनका सर्वथा उपशम या क्षय नहीं हो जाता है। अप्रत्याख्यानावर ग क्रोध कर्मका बन्ध चतुर्थ गुणस्थान तक ही होता है। प्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्मका बन्ध पंचम गुणस्थान तक ही होता है और संज्वलन क्रोध कर्मका बन्ध नवम गुणस्थानके एक निश्चित भाग तक ही होता है। इन सबके बन्धका कारण जीवकी भाववती शक्तिके हृदय और मस्तिष्क के सहारेपर होनेवाले यथायोग्य परिणमनोंसे प्रभावित जीवकी क्रियावती शक्तिका मानसिक, वाचनिक और कायिक यथायोग्य प्रवृत्तिरूप परिणमन ही है। जीव चतुर्थ गुणस्थानमें जब तक आरंभीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका यथायोग्य रूपमें एकदेश त्याग नहीं करता तब तक तो उसके अप्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्मका बन्ध होता ही रहता है । परन्तु वह जीव यदि आरंभीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका एकदेश त्याग कर देता है और उस त्यागके आधारपर उसमें कदाचित् उस अप्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्मके क्षयोपशमकी क्षमता प्राप्त हो जाती है तो उस जीवमें उस क्रोध कर्मके बन्धका अभाव हो जाता है। यह व्यवस्था चतुर्थ गुणस्थानके समान प्रथम और तृतीय गुणस्थानोंमें भी लागू होती है । इसी तरह जीव पंचम गुणस्थानमें जब तक आरंभीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वदेश त्याग नहीं करता तब तक तो उसके प्रत्याख्यानावरण क्रोधकर्मका बन्ध होता ही है । परन्तु यह जीव यदि आरंभीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वदेश त्याग कर देता है और इस त्यागके आधारपर उसमें कदाचित् उस अप्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्मके क्षयोपशमकी क्षमता प्राप्त हो जाती है तो में उस क्रोध कर्मके बन्धका अभाव हो जाता है। यह व्यवस्था पंचम गणस्थानके समान प्रथम, तृतीय और चतुर्थ गुणस्थानोंमें भी लागू होती है । पंचम गुणस्थानके आगेके गुणस्थानोंमें तब तक जीव संज्वलनक्रोधकर्मका बन्ध करता रहता है जब तक वह नवम गुणस्थानमें बन्धके अनुकूल अपनी मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्ति करता रहता है। और जब वह नवम गुणस्थानमें संज्वलनक्रोध कर्मके उपशम या क्षयकी क्षमता प्राप्त कर लेता है तो उस जीवके उस क्रोधकर्मके बन्धका अभाव हो जाता है। इतना विवेचन करने में मेरा उददेश्य इस बातको स्पष्ट करनेका है कि जीवकी क्रियावती शक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक अदयारूप अशुभ और दयारूप शुभ प्रवृत्तियोंके रूपमें होनेवाले परिणमन ही क्रोधकर्मके आस्रव और बन्धमें कारण होते हैं व उन प्रवृत्तियोंका निरोध करनेसे ही उन क्रोध कर्मोका संवर और निर्जरण करनेकी क्षमता जीवमें आती है। जीवकी भाववती शक्तिका न तो मोहनीय कर्मके उदयमें होनेवाला विभावरूप परिणमन आस्रव और बन्धका कारण होता है और न ही मोहनीय कर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाला भाववती शक्तिका स्वभावरूप शुद्ध परिणमन संवर और निर्जराका कारण होता है। इतना अवश्य है कि जीवकी भाववतीशक्तिके हृदयके सहारेपर होनेवाले तत्त्वश्रद्धानरूप शुभ और अतत्त्वश्रद्धानरूप अशुभ तथा मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाले तत्वज्ञानरूप शुभ और अतत्त्वज्ञानरूप अशुभ परिणमन अपनी शुभरूपता और अशुभरूपताके आधारपर यथायोग्य शुभ और अशभ कर्मोके आस्रव और बन्धके परम्परया कारण होते हैं व तत्त्वश्रद्धान व्यवहार सम्यग्दर्शनके रूप में तथा तत्त्वज्ञान व्यवहारसम्यग्ज्ञानके रूपमें यथायोग्य कर्मोके आस्रव और बन्धके साथ यथायोग्य कर्मोंके संवर और निर्जराके भी परम्परया कारण होते है। इस विवेचनसे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि क्रियावतीशक्तिके परिणमनस्वरूप जीवकी मानसिक, वाचनिक और कायिक अदयारूप अशुभ और दयारूप शुभ प्रवृत्तियाँ यथायोग्य अशुभ और शुभ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धांत : १८९ कर्मोके आस्रव और बन्धका साक्षात् कारण होती हैं तथा अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक होमेवाली दयारूप शुभ प्रवृत्ति यथायोग्य कर्मोके आस्रव और बन्धके साथ यथायोग्य कर्मोंके संवर और निर्जरणका साक्षात् कारण होती है एवं जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप तथा दयारूप शुभरूपता और अदयारूप अशुभरूपतासे रहित जीवको मानसिक, वाचनिक और कायिक योगरूप प्रवृत्ति मात्र सातावेदनीय कर्मके आस्रवपूर्वक केवल प्रकृति और प्रदेशरूप बन्धका कारण होती है तथा योगका अभाव कर्मों के संवर और निर्जरणका कारण होता है । इस सामान्य समीक्षाके सम्पूर्ण विवेचनसे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि जीव-दया पुण्यरूप भी होती है, जीवके शुद्ध स्वभावभत निश्चय धर्मरूप भी होती है व इस निश्चय धर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारणभूत व्यवहार धर्मरूप भो होतो है । अर्थात् तीनों प्रकारको जीवदयाएँ अपना-अपना स्वतन्त्र अस्तित्व और महत्त्व रखती हैं। प्रश्नोत्तर ४ को सामान्य समीक्षा १. प्रश्नोत्तर ४ की सामान्य समीक्षा पूर्वपक्षका प्रश्न-व्यवहारधर्म निश्चयधर्म में साधक है या नहीं? त० च० पृ० १२९ । उत्तरपक्षका उत्तर--निश्चय रत्नत्रयस्वरूप निश्चयधर्मकी उत्पत्तिकी अपेक्षा विचार किया जाता है तो व्यवहारधर्म निश्चयधर्ममें साधक नहीं है, क्योंकि निश्चयधर्मको उत्पत्ति परनिरपेक्ष होती है । त० च. पृ० १२९ । धर्मका लक्षण वस्तुविज्ञान (द्रव्यानुयोग) को दृष्टिसे "वत्युसहाओ धम्मो" इस आगम वचनके अनुसार धर्म यद्यपि आत्माके स्वतःसिद्ध स्वभावका नाम है, परन्तु अध्यात्म विज्ञान (करणानुयोग और चरणानुयोग) की दृष्टिसे धर्म उसे कहते हैं जो जीवको संसारदुःखसे छुड़ाकर उत्तम अर्थात् आत्मस्वातन्त्र्य रूप मोक्षसुखमें पहुँचा देता।' आध्यात्मिक धर्मका विश्लेषण रत्नकरण्डकश्रावकाचार में आध्यात्मिक धर्मका विश्लेषण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके रूपमें किया गया है जिन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रके विरोधो मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसारके कारण होते हैं। आध्यात्मिक धर्मका निश्चय और व्यवहार दो रूपोंमें विभाजन और उनमें साध्य-साधक भाव श्रद्धेय पं० दौलतरामजीने छहढाला में कहा है कि आत्माका हित सुख है । वह सुख आकुलताके १. देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम् । संसारदुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ।।२।। -रत्नकरण्डकश्रावकाचार २. सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भव पद्धतिः ।।३॥ ---रत्नकरण्डकथावकाचार ३. आतम को हित है सुख सो सुख आकुलता बिन कहिये । आकुलता शिवमाहिं न तातें शिवमग लाग्यो चहिये । सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण शिव मग सो दुविध विचारो। जो सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो ववहारो॥३-१॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ अभावमें प्रकट होता है। आकुलताका अभाव मोक्षमें है, अतः जीवोंको मोक्षके मार्गमें प्रवृत्त होना चाहिए। मोक्षका मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप है। एवं वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो भागोंमें विभक्त हैं। जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र सत्यार्थ अर्थात् आत्माके शुद्ध स्वभावभूत है उन्हें निश्चयमोक्षमार्ग कहते हैं व जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र निश्चयमोक्षमार्गके प्रगट होने में कारण है उन्हें व्यवहारमोक्षमार्ग कहते हैं।। छहढालाके इस प्रतिपादनसे मोक्षमार्गका सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके रूपमें विश्लेषण, उनकी निश्चय और व्यवहार दो भेदरूपता व निश्चय और व्यवहार दोनों मोक्षमार्गों में विद्यमान साध्यसाधकभाव इन सबका परिज्ञान हो जाता है। इसके अतिरिक्त पंचास्तिकायकी गाथा १०५ की आचार्य जयसेन कृत टीकामें' भी व्यवहारमोक्षमार्गको निश्चयमोक्षमार्गका कारण बतलाकर दोनों मोक्षमार्गोंमें साध्यसाधकभाव मान्य किया गया है। तथा गाथा १५९, १६० और १६१ को आचार्य अमतचंद्र कृत टीका में भी ऐसा ही बतलाया गया है। निश्चयधर्मको व्याख्या करणानुयोगकी व्यवस्थाके अनुसार जीव अनादिकालसे मोहनीयकर्म से बद्ध है और उसके उदयमें उसकी स्वतःसिद्ध स्वभावभूत भाववती शक्तिका शुद्धस्वभावभूत परिणमनके विपरीत अशुद्ध विभावभूत परिणमन होता है । भाववती शक्तिके इस अशुद्ध विभावरूप परिणमनको समाप्ति करणानुयोगकी व्यवस्थाके अनुसार मोहनीयकर्मके यथास्थान यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशमपूर्वक होती है। इस तरह जोवको भाववतो शक्तिके अशुद्ध विभावभूत परिणमनके समाप्त हो जानेपर उसका जो शुद्ध स्वभावभूत परिणमन होता है उसे ही निश्चयधर्म जानना चाहिए। इसके प्रकट होनेको व्यवस्था निम्न प्रकार है (क) सर्वप्रथम जीवमें दर्शनमोहनोयकर्मको यथासम्भव रूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप तीन व चारित्रमोहनीयकर्मके प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कषायकी नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इन सात प्रकृतियोंका यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर उस जीवको भाववती शक्तिका चतुर्थ गुणस्थानके प्रथम समयमें औपशमिक, क्षायिक या क्षायोपशमिक निश्चयसम्यग्दर्शनके रूपमें व निश्चयसम्यग्ज्ञानके रूपमें शुद्धस्वभावभूत परिणमन प्रकट होता है। (ख) इसके पश्चात् जीवमें चारित्रमोहनीयकर्मके द्वितीय भेद अप्रत्याख्यानावरणकषायकी नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका क्षयोपशम होनेपर उस जीवको भाववती शक्तिका पंचमगुणस्थानके प्रथम समयमें देशविरति निश्चयसम्यकचारित्रके रूपमें शुद्ध स्वभावभुत परिणमन प्रगट होता है। (ग) इसके भी पश्चात् जीवमें चारित्रमोहनीयकर्मके तृतीय भेद प्रत्याख्यानावरणकषायकी नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका क्षयोपशम होनेपर उस जीवकी भाववती शक्तिका सप्तम गुणस्थानके प्रथम समयमें सर्वावरति निश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें शुद्धस्वभावभूत परिणमन प्रकट होता है । १. निश्चयमोक्षमार्गस्य परम्परया कारणभूतो व्यवहारमोक्षमार्गः । -गा० १०५, टीका । २. (क) निश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधक भावत्वात् । गा० १५९ की टीका। (ख) निश्चयमोक्षमार्गसाधकभावेन व्यवहारमोक्षमार्गनिर्देशोऽयम् । गा० १६० की टीका । (ग) व्यवहारमोक्षमार्गसाध्यभावेन निश्चयमोक्षमार्गोपन्यासोऽयम् । गा० १६१ की टीका। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १९१ ऐसा सप्तम गुणस्थानवर्ती जीव अन्तर्मुहूर्त कालके अन्तरालसे सप्तमसे षष्ठ और षष्ठसे सप्तम इस तरह दोनों गुणस्थानों में यथायोग्य समय तक सतत झूलेकी तरह झूलता रहता है । (घ) यदि वह सप्तम गुणस्थानवर्ती जीव पहलेसे ही उक्त औपशमिक या क्षायिक निश्चयसम्यग्दर्शनको प्राप्त हो अथवा सप्तम गुणस्थानके काल में ही वह उक्त औपशमिक या क्षायिक निश्चयसम्यग्दर्शनको प्राप्त हो जावे तो वह तब करणलब्धि के आधारपर नव नोकषायोंके साथ चारित्रमोहनीयकर्मके द्वितीय भेद अप्रत्याख्यानावरण और तृतीय भेद प्रत्याख्यानावरण इन दोनों कषायोंकी क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका तथा उसके चतुर्थ भेद संज्वलनकषायकी क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका भी यथास्थान नियमसे उपशम या क्षय करता है और उपशम होनेपर उसको भाववती शक्तिका एकादश गुणस्थानके प्रथम समय में ओपशमिक यथाख्यात निश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें अथवा क्षय होनेपर उसकी भाववती शक्तिका द्वादश गुणस्थानके प्रथम समय में क्षायिक यथाख्यात निश्चयसम्यक् चारित्रके रूपमें शुद्ध स्वभावभूत परिणमन प्रगट होता है । व्यवहारधर्म की व्याख्या व्यवहारधर्मकी व्याख्या करनेसे पूर्व यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि नारकी, देव और नियंच इन तीनों प्रकारके जीवोंमें केवल अगृहीत मिथ्यात्व पाया जाता है । अतः इनमें व्यवहारधर्मका व्यवस्थित क्रमसे विवेचन करना सम्भव नहीं है । केवल मनुष्य ही ऐसा जीव है जिसमें अगृहीत मिध्यात्व के साथ गृहीत मिथ्यात्व भी पाया जाता है। फलतः मनुष्यों में व्यवहारधर्मका व्यवस्थित क्रमसे विवेचन करना सम्भव हो जाता है । अतः यहाँ मनुष्यों की अपेक्षा व्यवहारधर्मका विवेचन किया जाता है । चरणानुयोगकी व्यवस्था के अनुसार पापभूत अघातिकर्मों के उदयमें अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्योंकी भाववती शक्तिके हृदय के सहारेपर अतत्त्वश्रद्धानके रूपमें और मस्तिष्क के सहारेपर अतत्त्वज्ञान के रूपमें मिथ्या परिणमन होते रहते हैं तथा जब उनमें पुण्यभूत अघातिकर्मोंका उदय होता है तब अतत्त्वश्रद्धान और अतत्त्वज्ञानरूप उन परिणमनोंकी समाप्ति होनेपर उनकी उस भाववती शक्तिके हृदय के सहारेपर तत्त्वश्रद्धानके रूपमें और मस्तिष्क के सहारेपर तत्त्वज्ञान के रूप में सम्यक्परिणमन होने लगते हैं । भाववती शक्तिके दोनों प्रकारके सम्यक् परिणमनोंमेंसे तत्त्वश्रद्धानरूप परिणमन सम्यग्दर्शनके रूपमें व्यवहारधर्म कहलाता है और तत्त्वज्ञानरूप परिणमन सम्यग्ज्ञानके रूपमें व्यवहारधर्म कहलाता है । चरणानुयोगकी व्यवस्थाके अनुसार भाववती शक्ति के परिणमन स्वरूप उक्त अतत्त्वश्रद्धान और अतत्त्वज्ञान से प्रभावित अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्य अपनी क्रियावती शक्ति के परिणमनस्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियाँ किया करते हैं और कदाचित् साथमें लौकिक स्वार्थवश पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ भी करते | तथा जब वे भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप उक्त तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानसे प्रभावित होते हैं तब वे अपनी क्रियावती शक्तिके प रणमनस्वरूप उक्त संकल्पी - पापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंको सर्वथा त्याग कर मानसिक, वाचनिक और कायिक आरम्भी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियों के साथ कर्त्तव्यवश पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ भी करने लगते हैं । इतना ही नहीं, भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप उक्त तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानके आधारपर वे अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्य कदाचित् क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप उक्त संकल्पी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियाँके सर्वथा त्यागपूर्वक उक्त आरम्भी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियों का भी एकदेश अथवा सर्वदेश त्याग करते हुए अनिवार्य आरम्भो पापभूत अशुभ प्रवृत्तियों के साथ पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ करते हैं । इस प्रकार अभव्य और भव्य मिध्यादृष्टि मनुष्य Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानसे प्रभावित होकर अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमन स्वरूप संकल्पी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंको सर्वथा त्याग कर जो अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप आरम्भी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियों के साथ पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ करते हैं उन प्रवृत्तियोंको नैतिक आधारके रूपमें व्यवहारधर्म कहा जाता है। तथा वे ही मनुष्य जब संकल्पी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंके सर्वथा त्यागपूर्वक आरम्भी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंका एकदेश अथवा सर्वदेश त्याग करते हुए पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ करते हैं तब उन्हें क्रमशः देशविरति अथवा सर्वविरतिरूप सम्यक्चारित्रके रूपमें व्यवहारधर्म कहा जाता है। . प्रसंगवश मैं यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्योंको भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप हृदयके सहारेपर होनेवाला अतत्त्वश्रद्धान व्यवहारमिथ्यादर्शन कहलाता है। और उनकी उसी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाला अतत्त्वज्ञान व्यवहारमिथ्याज्ञान कहलाता है। तथा मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान इन दोनोंसे प्रभावित उन मनुष्योंकी क्रियावती शक्तिके परिणाम स्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापभूत जो अशुभ प्रवृत्ति हुआ करती है वह व्यवहारमिथ्याचारित्र कहलाता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि उक्त प्रकारके व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानके विपरीत व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानसे प्रभावित होकर वे अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्य संकल्पी पापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंका सर्वथा त्याग करते हुए यदि अशक्तिवश आरम्भी पापका अणुमाण भी त्याग नहीं कर पाते हैं तो उनकी वह आरम्भी पापरूप अशुभ प्रवृत्ति व्यवहाररूप अविरति कहलाती हैं। यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जिस प्रकार पूर्वमें मोहनीयकर्मकी उन-उन प्रकृतियोंके यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम पूर्वक होनेवाले भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप निश्चयसम्यकदर्शन निश्चयसम्यग्ज्ञान व देशविरति, सर्वविरति और यथाख्यात सम्यक्चारित्रके रूपमें निश्चयधर्मका विवेचन किया गया है उसी प्रकार यहाँ प्रथम गुणस्थानमें मोहनीयकर्मकी मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी दोनों प्रकृतियोंके उदयमें भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप मिथ्यात्वभूत भावमिथ्यादर्शन, भावमिथ्याज्ञान और भावमिथ्याचारित्रके रूप में, द्वितीय गुणस्थानमें मोहनीयकर्मकी अनन्तानुबन्धी प्रकृतिके उदयमें भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप सासादनसम्यक्त्वभूत भावमिथ्यादर्शन, भावमिथ्याज्ञान और भावमिथ्याचारित्रके रूपमें एवं तृतीय गुणस्थानमें मोहनीयकर्मकी सम्यक्मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयमें भाववती शक्तिके परिणामस्वरूप सम्यग्मिथ्यात्वभूत भावमिथ्यादर्शन, भावमिथ्याज्ञान और भावमिथ्याचारित्रके रूपमें निश्चय (भाव) अधर्मका भी विवेचन कर लेना चाहिए । यहाँ भी यह ध्यातव्य है कि चतुर्थ गुणस्थानके जीवमें नव नोकषायोंके उदयके साथ अत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषायोंके सामूहिक उदयमें जीवकी भाववती शक्तिका जो परिणमन होता है उसे भाव-अविरति जानना चाहिये। इसे न तो भावमिथ्याचारित्र कह सकते हैं और न विरतिके रूपमें भावसम्यक्चारित्र ही कह सकते हैं, क्योंकि भावमिथ्याचारित्र अनन्तानुबन्धी कषायके उदयमें होता है और विरतिके लिये कम-से-कम अप्रत्याख्यानावरणका क्षयोपशम आवश्यक है। उपर्युक्त दोनों प्रकारके स्पष्टीकरणोंके साथ ही यहाँ निम्नलिखित विशेषतायें भी ज्ञातव्य है (१) अभव्य जीवोंके केवल प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है जबकि भव्य जीवोंके प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर चतुर्थदश अयोगकेवली गुणस्थान पर्यन्त सभी गुणस्थान सम्भव हैं । (२) निश्चयधर्मका विकास भव्य जीवोंमें ही होता है, अभव्य जीवोंमें नहीं होता। तथा भव्य जीवोंमें Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १९३ भी उस निश्चयधर्मका विकास चतुर्थ गुणस्थानके प्रथम समयसे प्रारम्भ होता है, इसके पूर्वके गुणस्थानोंसे नहीं होता। (३) जीवके चतुर्थ गुणस्थानके प्रथम समयमें जो निश्चयधर्मका विकास होता है वह उस जीवकी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप निश्चयसम्यग्दर्शन और निश्चयसम्यग्ज्ञानके रूपमें होता है। इसके पश्चात् जीवके पंचम गुणस्थानके प्रथम समयमें निश्चयधर्मका विकास उस जीवकी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप देश विरति निश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें होता है तथा इसके भी पश्चात् जीवके निश्चयधर्मका विकास सप्तम गुणस्थानके प्रथम समयमें उस जीवकी भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप सर्वविरति निश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें होता है और जोवमें उसका सद्भाव पूर्वोक्त प्रकार षष्ठ गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थान तक उत्तरोत्तर उत्कर्षके रूपमें विद्यमान रहता है। दशम गुणस्थानके आगे जीवके एकादश गुणस्थानके प्रथम समयमें निश्चयधर्मका विकास जीवकी भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप औपशमिक यथाख्यात निश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें होता है अथवा दशम गुणस्थानसे ही आगे जीवके द्वादश गुणस्थानके प्रथम समयमें निश्चयधर्मका विकास उस जीवकी भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप क्षायिक यथाख्यात निश्चयसम्यकचारित्रके रूपमें होता है तथा यह जीवके आगेके सभी गणस्थानोंमें विद्यमान रहता है। (४) पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि व्यवहारधर्म सम्यग्दर्शनके रूपमें जीवकी भाववती शक्तिका हृदयके सहारेपर होनेवाला परिणमन है और दूसरा व्यवहारधर्म सम्यग्ज्ञानके रूपमें जीवकी भाववती शक्तिका मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाला परिणमन है। एवं तीसरा व्यवहारधर्म नैतिक आचार तथा देशविरति व सर्वविरतिरूप सम्यकचारित्रके रूपमें मन, वचन और कायके सहारेपर होनेवाला जीवकी क्रियावती शक्तिका परिणमन है। इस सभी प्रकारके व्यवहारधर्मका विकास प्रथम गुणस्थानमें सम्भव है और अभव्य व भव्य दोनों प्रकारके जीवोंमें हो सकता है। इतना अवश्य है कि उक्त सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानरूप तथा नैतिक आचाररूप व्यवहारधर्मका विकास प्रथम गुणस्थानमें नियमसे होता है क्योंकि इस प्रकारके व्यवहारधर्मका विकास किये बिना अभव्य जीवमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चार लब्धियोंका व भव्य जीवमें इन चारों लब्धियोंके साथ करणलब्धिका विकास नहीं हो सकता है। . प्रथम गुणस्थानमें देशविरति और सर्वविरति सम्यक्चारित्र रूप व्यवहारधर्मके विकसित होनेका कोई नियम नहीं है परन्तु देशविरति सम्यक्चारित्ररूप व्यवहारधर्मका विकास चतुर्थ गुणस्थानमें होकर पंचम गुणस्थानमें भी रहता है । एवं सर्वविरति सम्यकुचारित्ररूप व्यवहारधर्मका पंचम गुणस्थानमें विकास होकर आगे षष्ठसे दशम गुणस्थान तक उसका सद्भाव नियमसे रहता हैं। यहाँ इतना अवश्य ध्यातव्य है कि सप्तम गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थान तक उस व्यवहारधर्मका सद्भाव अन्तरंगरूपमें ही रहता है। तथा द्वितीय और तृतीय गणस्थानोंमें यथासम्भव रूपमें रहनेवाला व्यवहारधर्म भी अबुद्धिपूर्वक ही रहता है । एकादश गुणस्थानसे लेकर आगेके सभी गुणस्थानोंमें व्यवहारधर्मका सर्वथा अभाव रहता है। वहाँ केवल निश्चयधर्मका ही सदभाव रहता है । क्रियावती शक्तिके परिणमन स्वरूप व्यवहार अविरतिका सद्भाव प्रथम गुणस्थानसे चतुर्थ गुणस्थान तक ही सम्भव है। जोवको मोक्ष की प्राप्ति निश्चय प्रकृतमें मोक्ष शब्दका अर्थ जीव और शरीरके विद्यमान संयोगका सर्वथा विच्छेद हो जाना है । जीव और शरीरके विद्यमान संयोगका सर्वथा विच्छेद चतुर्थदश गुणस्थानमें तब होता है जब उस जीवके साथ बद्ध चार अधाती कर्मोंका सर्वथा क्षय हो जाता है । जीवको चतुर्थदश गुणस्थानकी प्राप्ति तब होती है जब त्रयो २५ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं०बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ दश गुणस्थानमें कर्मास्रवमें कारणभूत जीवके योगका सर्वथा निरोध हो जाता है। जीवको त्रयोदश गुणस्थानकी प्राप्ति तब होती है जब जीवके साथ बद्ध ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घाती कर्मोका द्वादश गुणस्थानमें सर्वथा क्षय हो जाता है। जीवको द्वादश गणस्थानकी प्राप्ति तब होती है जब जीवके साथ बद्ध मोहनीयकर्मप्रकृतियोंका पूर्व में यथासमय क्षय होते हुए दशम गुणस्थान के अन्त समयमें शेष सूक्ष्म लोभ प्रकृतिका भी क्षय हो जाता है। द्वादश गुणस्थानका अर्थ ही दशम गुणस्थानके अन्त समयमे मोहनीयकर्मका सर्वथा क्षय हो जानेपर जीवकी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मका पूर्णतः हो जाना है। इस विवेचनसे निर्णीत होता है कि जीवको मोक्षकी प्राप्ति निश्चयधर्म पूर्वक होती है । जीवको निश्चयधर्मकी प्राप्ति व्यवहारधर्मपूर्वक होती है जीवकी भाववती शक्तिका निश्चयधर्मके रूप में प्रारम्भिक विकास चतुर्थगुणस्थानके प्रथम समयमें होता है और उसका वह विकास पंचमादि गुणस्थानोंमें उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होकर एकादश गुणस्थानके प्रथम समयमें औपशमिक यथाख्यात निश्चयसम्यक चारित्रके रूपमें अथवा द्वादश गुणस्थानके प्रथम समयमें क्षायिक यथाख्यात सम्यक्चारित्रके रूपमें पूर्णताको प्राप्त होता है। निश्चयधर्मका यह विकास मोहनीयकर्मको उन-उन प्रकृतियोंके यथास्थान यथासंभव रूपमें होनेवाले उपशम. क्षय या क्षयोपशम पूर्वक होता है। तथा मोहनीयकर्मकी प्रकृतियोंका यथायोग्य वह उपशम, क्षय या क्षयोपशम भव्य जीवमें आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिका विकास होनेपर होता है व उसमें उस करणलब्धिका विकास क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंके विकासपूर्वक होता है। एवं जीवमें इन लब्धियोंका विकास व्यवहारधर्म पूर्वक होता है। यह हारधर्म अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिरूप होता है। जीवको इसकी प्राप्ति तब होती है जब उस जीवमें भाववती शक्तिके हृदयके सहारेपर होनेवाले तत्त्वश्रद्धानरूप व्यवहारसम्यक् दर्शन की और मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाले तत्त्वज्ञानरूप व्यवहारसम्यग्ज्ञानकी उपलब्धि हो जाती है। इसके विकास पूर्वमें व्यवहारधर्मको व्याख्यामें बतलाया जा चुका है। इस विवेचनसे यह निर्णीत होता है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्मकी उत्पत्तिमें कारण होता है। यह विषय प्रश्नोत्तर २ और ३ की समीक्षासे भी जाना जा सकता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि जीवको अपनी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप निश्चयधर्मकी उत्पत्तिमें। कारणभूत मोहनीयकर्मका यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम करनेके लिए इस व्यवहारधर्मके अन्तर्गत एकान्तमिथ्यात्वके विरुद्ध प्रशमभाव, विपरीतमिथ्यात्वके विरुद्ध संवेगभाव, विनयमिथ्यात्वके विरुद्ध अनुकम्पाभाव, संशयमिथ्यात्वके विरुद्ध आस्तिक्यभाव और अविवेकरूप अज्ञानमिथ्यात्वके विरुद्ध विवेकरूप सम्यग्ज्ञानभावको भी अपनेमें जागृत करनेकी आवश्यकता है। इसी प्रकार जीवको समस्त जीवोंके प्रति मित्रता (समानता) का भाव, गुणीजनोके प्रति प्रमोदभाव, दुःखी जीवोंके प्रति सेवाभाव और विपरीत दृष्टि, वृत्ति और प्रवृत्ति वाले जीवोंके प्रति मध्यस्थता (तटस्थ) का भाव भी अपनाने की आवश्यकता है। इस तरह सर्वांगीणताको प्राप्त व्यवहारधर्म उपयुक्त प्रकार निश्चयधर्मकी उत्पत्तिमें साधक सिद्ध हो जाता है । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और न्याय Jan Education International www.jalnelibrary.org Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ in Edalon International For Private & Personal. Use Only www.jan Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और न्याय AAAAAAAAAAAN १. भारतीय दर्शनोंका मूल आधार २. जैनदर्शनमें प्रमाण और नय ३. ज्ञानके प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदोंका आधार ४. जैनदर्शनमें नयवाद ५. अनेकान्तवाद और स्याद्वाद ६. स्याद्वाद दर्शन और उसके उपयोगका अभाव ७. दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगका विश्लेषण ८. जैनदर्शनमें दर्शनोपयोगका स्थान ९. जैनदर्शनमें वस्तुका स्वरूप १०. जैनदर्शनमें सप्ततत्त्व और षद्रव्य ११. अर्थमें भूल और उसका समाधान ४-१ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दर्शनोंका मूल आधार 'दर्शन' शब्द संस्कृत भाषाका शब्द है । यह शब्द संस्कृतव्याकरणके अनुसार " दृश्यते निर्णीयते वस्तुतत्त्वमनेनेति दर्शनम्” अथवा “दृश्यते = निर्णीयत इदं ( वस्तु तत्त्वं ) इति दर्शनम्" इन दोनों व्युत्पत्तियोंके आधारपर " दृश्" धातुसे निष्पन्न होता है । पहली व्युत्पत्तिके आधारपर निष्पन्न 'दर्शन' शब्द तर्क, वितर्क मंथन या परीक्षा स्वरूप उस विचारधाराका नाम है जो तत्त्वोंके निर्णय में प्रयोजक हुआ करती है । दूसरी व्युत्पत्तिके आधारपर निष्पन्न 'दर्शन' शब्दका अर्थ उल्लिखित विचारधारा द्वारा निर्णीत तत्त्वोंकी स्वीकारता होता है । इस प्रकार 'दर्शन' शब्द दार्शनिक जगतमें इन दोनों प्रकारके अर्थोंमें व्यवहृत हुआ है अर्थात् भिन्नभिन्न दर्शनोंकी जो तत्त्वसम्बन्धी मान्यतायें हैं उनको और जिन तार्किक मुद्दोंके आधारपर उन मान्यताओंका समर्थन होता है उन तार्किक मुद्दोंको दर्शनशास्त्र के अन्तर्गत स्वीकार किया है । वर्तमान दृश्य जगत्की परंपराको सभी दर्शनोंमें किसी-न-किसी रूपसे अनादि स्वीकार किया गया है । इसलिए जगतकी इस परंपरामें न मालूम कितने दर्शन विकासको प्राप्त होकर विलुप्त हो गये होंगे और कौन कह सकता है कि भविष्य में भी नये-नये दर्शनोंका प्रादुर्भाव नहीं होगा । परन्तु आज हम सिर्फ उन्हीं दर्शनोंके बारेमें कुछ सोच सकते हैं जो उपलब्ध हैं या साहित्यके आधारपर जिनकी जानकारी प्राप्त की जा सकती है । ये दर्शन सबसे पहले भारतीय और अभारतीय ( पाश्चात्य ) दर्शनोंके रूपमें हमारे सामने आते हैं । जिनका प्रादुर्भाव भारतवर्ष में हुआ है वे दर्शन भारतीय और जिनका प्रादुर्भाव भारतवर्ष के बाहर पाश्चात्य देशोंमें हुआ है वे अभारतीय या पाश्चात्य दर्शनोंके नामसे पुकारे जाते हैं । भारतीय दर्शन भी दो भागों में विभक्त किये गये हैं-वैदिक दर्शन और अवैदिक दर्शन । वैदिक परपराके अन्दर जिनका प्रादुर्भाव और विकास हुआ है तथा जो वैदिक परम्पराके पोषक दर्शन हैं वे वैदिक दर्शन माने गये हैं और वैदिक परम्परासे भिन्न जिनकी स्वतंत्र परम्परा है या जो वैदिक परम्पराके विरोधी दर्शन हैं उनको अवैदिक दर्शन स्वीकार किया गया है। वैदिक दर्शनों में मुख्यतः सांख्य, वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय तथा वैशेषिक दर्शन माने गये हैं और जैन, बौद्ध तथा चार्वाक दर्शनोंको अवैदिक दर्शन स्वीकार किया गया है । इनके अलावा छोटे-मोटे भेदों और उपभेदोंके रूपमें और भी वैदिक तथा अवैदिक दर्शनोंको गणना की जा सकती है, परन्तु अनावश्यक विचारके भयसे उन्हें इस विभागक्रममें स्थान नहीं दिया गया है । आजकलके बहुतसे विद्वानोंमें गीताको एक स्वतन्त्र दर्शन माननेकी प्रवृत्ति देखी जाती है । परन्तु वास्तव में गीता कर्त्तव्यरूप धार्मिक या आध्यात्मिक महान उपदेश मात्र है । यही कारण है कि गीतामें स्थान-स्थानपर श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुनके लिए कर्मयोगकी ओर झुकनेकी प्रेरणा की गई है । गीताको कर्मयोगका प्रतिपादक ग्रन्थ मानना भी मेरे विचारके अनुसार ठीक नहीं है । लेकिन मैं इतना अवश्य स्वीकार करता हूँ कि गीता में कर्मयोगके आधारपर प्रायः समस्त वैदिक दर्शनोंके समन्वय करनेका प्रयत्न किया गया है । इन वैदिक और अवैदिक दर्शनोंको दार्शनिक विकासके मध्य युगमें क्रमसे आस्तिक और नास्तिक नामों से भी पुकारा जाने लगा था । परन्तु मालूम पड़ता है कि वैदिक और अवैदिक दर्शनोंका इस प्रकारका नामकरण वेदपरम्पराके समर्थन और विरोधके कारण प्रशंसा और निन्दा रूपमें साम्प्रदायिक व्यामोह के वशीभूत लोगों द्वारा किया गया है, कारण कि यदि प्राणियोंका जन्मान्तररूप परलोक, स्वर्ग और नरक तथा मुक्तिके न मानने रूप अर्थ में नास्तिक शब्दका प्रयोग किया जाय तो जैन और बौद्ध ये दोनों अवैदिक दर्शन नास्तिक दर्शनोंकी कोटिसे निकलकर आस्तिक दर्शनोंकी कोटिमें आ जायेंगे; क्योंकि ये दोनों दर्शन प्राणियोंके जन्मान्तर Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ : सरस्वतो-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ रूप परलोक, स्वर्ग और नरक तथा मुक्तिका समर्थन करते हैं । और यदि जगतका कर्ता अनादिनिधन ईश्वर को न मानने रूप अर्थमें नास्तिक शब्दका प्रयोग किया जाय तो सांख्य और मीमांसा इन दोनों वैदिक दर्शनों को उपस्थित दर्शनोंकी कोटिमसे निकालकर नास्तिक कोटि में पटक देना पड़ेगा, क्योंकि ये दोनों दर्शन अनादिनिधन ईश्वरको जगतका कर्ता माननेसे इन्कार करते हैं। इस प्रकार ऊपर बतलाया गया सम्पूर्ण विभागक्रम अव्यवस्थित हो गया है । "नास्तिको वेदनिन्दकः” इत्यादि प्रसिद्ध वाक्य भी हमें यह बतला रहे है कि वेद परम्पराको न मानने वालोंके बारेमें ही नास्तिक शब्दका प्रयोग किया गया है। प्रायः सभी सम्प्रदायवादियोंने अपने सम्प्रदायकी परम्पराके माननेवालोंको आस्तिक और अपनेसे भिन्न दूसरे सम्प्रदायकी परम्पराके मानने वालोंको नास्तिक स्वीकार किया है । जैन सम्प्रदायमें भी जैन परम्पराके माननेवालोंको सम्यदृष्टि और जनेतर परम्पराके माननेवालोंको मिथ्यादृष्टि कहनेका रिवाज प्रचलित है। मेरे कहनेका मतलब यह है कि भारतीय दर्शनका जो आस्तिक और नास्तिक दर्शनोंके रूपमें विभाग किया गया है वह निरर्थक एवं अनुचित है। इसलिए उनका विभाग उल्लिखित वैदिक और अवैदिक दर्शनोंके रूपमें ही करना चाहिए । उल्लिखित दर्शनोंकी उत्पत्तिके बारेमें जब हम सोचते है, तो हमें इनके मलमें दो प्रकारके वादोंका पता चलता है-एक अस्तित्ववाद और दूसरा उपयोगितावाद । अर्थात् ये सभी दर्शन अस्तित्ववाद या उपयोगितावादके आधारपर प्रादुर्भूत हुए हैं, ऐसा माना जा सकता है । जगत क्या और कैसा है ? जगतमें कितने पदार्थोंका अस्तित्व है ? उन पदार्थों के कैसे-कैसे परिणाम होते हैं ? इत्यादि प्रश्नोंके आधारपर सामान्यतया तत्त्वोंका विचार करना अस्तित्ववाद कहलाता है और जगतके प्राणी दुःखी क्यों है ? वे सुखी कैसे हो सकते हैं ? इत्यादि प्रश्नोंके आधारपर सिर्फ लोककल्याणोपयोगी तत्त्वोंके बारेमें विचार करना उपयोगितावाद समझना चाहिए। तात्पर्य यह है कि अस्तित्ववादके आधारपर वे सब तत्त्व मान्यताकी कोटिमें आ जाते हैं जिनका अस्तित्व प्रमाणोंके आधारपर सिद्ध होता हो और उपयोगितावादके आधारपर सिर्फ वे ही तत्त्व मान्यताकी कोटिमें पहुँचते हैं जो लोककल्याणके लिये उपयोगी सिद्ध होते हों। मेरी रायके मुताबिक इस उपयोगितावादका ही अपर नाम आध्यात्मिकवाद और अस्तित्ववादका ही दूसरा नाम आधिभौतिकवाद समझना चाहिये । जिन विद्वानोंका यह ख्याल है कि समस्त चेतन और अचेतन जगतकी सृष्टि अथवा विकास आत्मासे मानना आध्यात्मिकवाद और उपर्युक्त जगतकी सृष्टि अथवा विकास अचेतन अर्थात् जड़ पदार्थसे मानना आधिभौतिकवाद है, उन विद्वानोंके साथ मेरा स्पष्ट मतभेद है और इस मतभेदसे मेरा तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिकवाद और आधिभौतिकवादके उल्लिखित अर्थके मुताबिक जो वेदान्त दर्शनको आध्यात्मिक दर्शन तथा चार्वाक दर्शनको आधिभौतिक दर्शन मान लिया गया है वह ठीक नहीं है। मैंने अभारतीय दर्शनोंका तो नहीं, परन्तु भारतीय दर्शनोंका जो थोड़ा बहत अध्ययन एवं चिन्तन किया है उससे मैं इस नतीजेपर पहँचा है कि सांख्य. वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय और वैशेषिक ये वैदिक दर्शन तथा जैन, बौद्ध और चार्वाक ये सभी अवैदिक दर्शन पूर्वोक्त उपयोगितावादके आधारपर ही प्रादुर्भूत हुए हैं, इसलिये ये सभी दर्शन आध्यात्मिकवादके अंतर्गत माने जाने चाहिए। किसी भी दर्शनका अनुयायी आज अपने दर्शनके बारमें यह आक्षेप सहन नहीं कर सकता है कि उसके दर्शनका विकास लोककल्याणके लिए नहीं हुआ है और इसका भी कारण यह है कि भारतवर्ष सर्वदा धर्मप्रधान देश रहा है । इसलिए समस्त भारतीय दर्शनोंका मूल आधार उपयोगितावादको मानना युक्तिपूर्ण है। लोककल्याणशब्दमें पठित लोकशब्द "जगतका प्राणिसमूह" अर्थमें प्रयुक्त होता हआ देखा जाता है, इसलिए यहाँपर लोककल्याणशब्दसे "जगतके प्राणिसमूहका कल्याण" अर्थ ग्रहण करना चाहिये। कोई Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्शन और न्याय : ५ कोई दर्शन प्राणियोंके दृश्य और अदृश्य दो भेद स्वीकार करते हैं और किन्हीं-किन्हीं दर्शनोंमें सिर्फ दृश्य प्राणियोंके अस्तित्वको ही स्वीकार किया गया है। दृश्य प्राणी भी दो प्रकारके पाये जाते हैं। एक प्रकारके दृश्य प्राणी वे है जिनका जीवन प्रायः समष्टि-प्रधान है और दूसरे प्रकारके दृश्य प्राणी वे हैं जिनका जीवन प्रायः व्यष्टिप्रधान है। मनुष्य समष्टि-प्रधान जीवनवाले प्राणियोंमेंसे है क्योंकि मनुष्योंका जीवन प्रायः एक दूसरे मनुष्यको सद्भावना, सहानुभूति और सहायतापर निर्भर है। बाकीके सभी दृश्य प्राणी पशु, पक्षी, सर्प, बिच्छू, कीट, पतंग वगैरह व्यष्टि-प्रधान जीवन वाले प्राणी कहे जा सकते हैं; क्योंकि इनके जीवनमें मनुष्यों जैसी परस्परकी सद्भावना, सहानुभूति और सहायताको आवश्यकता प्रायः देखने में नहीं आती है ! व्यष्टिप्रधान जीवनको समानताके कारण ही जैनदर्शनमें इन पशु, पक्षी आदि प्राणियोंका तिर्यग (तियंञ्च) नामसे पुकारा जाता है, कारण कि तिर्यक् शब्दका समानता अर्थमें प्रयोग पाया जाता है। सभी भारतीय दर्शनकारोंने अपने-अपने दर्शनके विकासमें अपनी-अपनी मान्यताके अनुसार जगत्के इन दृश्य और अदृश्य प्राणियोंके कल्याणका लक्ष्य अवश्य रखा है। एक चार्वाक दर्शनको छोड़कर उल्लिखित सभी भारतीय दर्शनोंमें प्राणियोंके जन्मान्तररूप परलोक, स्वर्ग और नरक तथा मुक्तिका समर्थन किया गया है, इसलिये इन दर्शनोंके आविष्कर्ताओंकी लोककल्याणभावनाके प्रति तो संदेह करनेकी गुंजाइश ही नहीं है । लेकिन उपलब्ध साहित्यसे जो थोड़ा-बहुत चार्वाक दर्शनका हमें दिग्दर्शन होता है उससे उसके आविष्कर्ताकी लोककल्याण भावनाका पता भी हमें सहज हीमें लग जाता है। "श्रतयो विभिन्ना स्मतयो विभिन्ना, नैको मनिर्यस्य वचः प्रमाणम । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां, महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥" इस पद्यमें चार्वाकदर्शनकी आत्माका स्पष्ट आभास मिलता है। इस पद्य का आशय यह है कि "धर्म है। इस पद्य का आशय यह है कि "धर्म मनुष्यके कर्तव्यमार्गका नाम है और वह जब लोक-कल्याणके लिये है तो उसे अखंड एकरूप होना चाहियेनाना रूप नहीं। लेकिन धर्मतत्त्वकी प्रतिपादक श्रतियाँ और स्मृतियाँ नाना और परस्पर-विरोधी देखने में आती हैं। हमारे धर्मप्रवर्तक महात्माओंने भी धर्मतत्त्वका प्रतिपादन एकरूपसे न करके भिन्न-भिन्न रूपसे किया है इसलिये उनके वचनोंको भी सर्वसम्मत प्रमाण मानना असम्भव है । ऐसी हालतमें सर्वसाधारणके लिये धर्मतत्त्व एक गूढ़ पहेली बना हुआ है । अर्थात् धर्मतत्त्वके समझने में हमारे लिये श्रुति, स्मृति या कोई भी धर्मप्रवर्तक सहायक नहीं हो सकता है । इसलिए धर्मतत्त्वकी पहेलीमें न उलझ करके हमें अपने कर्तव्यमार्गका निर्णय महात्मापरुषोंके कर्तव्यमार्गके आधारपर करना चाहिये। तात्पर्य यह है कि महात्मा पुरुषोंका जीवन स्वपरकल्याणके लिये ही होता है, इसलिये हमारा जो कर्तव्य स्वपरकल्याणविरोधी न हो उसे ही अविवाद रूपसे हमें धर्म समझना चाहिये।" मालूम पड़ता है कि चार्वाक दर्शनके आविष्कर्ताका अन्तःकरण धर्म के बारेमें पैदा हए लोककल्याणके लिए खतरनाक मतभेदोंको देखकर ऊब गया था, इसलिए उसने दुनियाके समक्ष इस बातको रखनेका प्रयत्न किया था कि जन्मान्तररूप परलोक-स्वर्ग और नरक तथा मक्ति जैसे अदश्य तत्त्वोंकी चर्चा, जो कि विवादके कारण जनहितकी घातक हो रही है-को छोडकर केवल हमें ऐसा कर्तव्यमार्ग चन लेना चाहिये, जो जनहितका साधक हो सकता है और ऐसे कर्त्तव्यमार्गमें किसीको विवाद करनेकी भी कम गुंजाइश रह सकती है। "यावज्जीवं सुखी जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः॥" यह जो चार्वाकदर्शनकी मान्यता बतलाई जाती है वह कुछ भ्रममूलक जान पड़ती है। इस प्रकार दसरे भारतीय दर्शनोंकी तरह चावकिदर्शनको भी उपयोगितावाद अर्थात् आध्यात्मिकताकी कोटिसे बाह्य नहीं किया जा सकता है। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ समस्त भारतीय दर्शनोंमें बीजरूपसे इस उपयोगितावादको स्वीकार कर लेने पर ये सभी दर्शन एकदूसरे दर्शनके, जो अत्यन्त विरोधी मालूम पड़ते हैं, ऐसा न होकर अत्यन्त निकटतम मित्रोंके समान दिखने लगेंगे । तात्पर्य यह है कि उल्लिखित प्रकारसे चार्वाक दर्शनमें छिपे हए उपयोगिताके रहस्यको समझ लेनेपर कौन कह सकता है कि उसका परलोकादिके बारेसे दूसरे दर्शनोंके साथ जो मतभेद है वह खतरनाक है। कारण कि जहाँ दुसरे दर्शन परलोकादिको आधार मानकर मनुष्यों के लिये योग्य कर्त्तव्यमार्गपर चलनेकी प्रेरणा करते है वहाँ चार्वाकदर्शन सिर्फ वर्तमान जीवनको सुखी बनानेके उद्देश्यसे मनुष्योंके लिये उसी योग्य कर्तव्यमार्गपर चलने की प्रेरणा करता है । तथा जब परलोक या स्वर्गादिके अस्तित्वको स्वीकार करते हये भी सर्वदर्शनकारोंको यह एक वैज्ञानिक सिद्धान्त मानना पड़ता है कि मनुष्य अपने वर्तमान जीवनमें अच्छे कृत्य करनेसे ही परलोकमें सुखी हो सकता है या स्वर्ग पा सकता है तो परलोक या स्वर्गके अस्तित्वको न मानने मात्रसे चार्वाक मतानुयायीको यदि वह अच्छे कृत्य करता है तो परलोकमें सुख या स्वर्गकी प्राप्तिसे कौन रोक सकता है ? इसी तरह नरकका अस्तित्व न मानने मात्रसे पाप करते हुए भी उसका नरकमें जाना असंभव कैसे हो सकता है ? परलोक या स्वर्गादिके अस्तित्वको न मानने वाला व्यक्ति अच्छे कृत्य कर ही नहीं सकता है, यह बात कोई भी व्यक्ति माननेको तैयार न होगा, कारण कि हम पहले बतला आये हैं कि मनुष्यका जीवन परस्परकी सद्भावना, सहानुभूति और सहायताके आधारपर ही सुखी हो सकता है। यदि एक मनुष्यको सुखी जीवन बितानेके संपूर्ण साधन उपलब्ध है और दूसरा उसका पड़ोसी मनुष्य चार दिनसे भूखा पड़ा हुआ है तो ऐसी हालतमें या तो पहले व्यक्तिको दूसरे व्यक्तिके बारेमें सहायताके रूपमें अपना कोई कर्तव्य निश्चित करना होगा, अन्यथा नियमसे दूसरा व्यक्ति पहले व्यक्तिके सुखी जीवनको ठेस पहुँचानेका कारण बन जायगा। तात्पर्य यह है कि हमें परलोककी मान्यतासे अच्छे कृत्य करनेके लिये जितनी प्रेरणा मिल सकती है उससे कहीं अधिक प्रेरणा वर्तमान जीवनको सुखी बनानेकी आकांक्षासे मिलती है। चार्वाक दर्शनका अभिप्राय इतना ही है । बौद्धोंके क्षणिकवाद और ईश्वरकतत्ववादियोंके ईश्वरकतत्वमें भी वही उपयोगितावादका रहस्य छिपा हुआ है। बौद्ध दर्शनमें एक वाक्य पाया जाता है-"वस्तुनि क्षणिकपरिकल्पना आत्मबुद्धिनिरासार्थम्" अर्थात् पदार्थोंमें जगत्के प्राणियोंके अनुचित राग, द्वेष और मोहको रोकनेके लिये ही बौद्धोंने पदार्थोकी अस्थिरताका सिद्धान्त स्वीकार किया है। इसी प्रकार जगतका कर्ता एक अनादिनिधन ईश्वरको मान लेनेसे संसारके बहुजन समाजको अपने जीवनके सुधारमें काफी प्रेरणा मिल सकती है । इस उपयोगितावादके आधार पर ही ईश्वरकतृत्वाद स्वीकार किया था। परन्तु अफसोस है कि धीरे-धीरे सभी दर्शन उपयोगितावादके मूलभूत आधारसे हटकर अस्तित्ववादके उदरमें समा गये अर्थात इन दर्शनों में जो तत्त्व उपयोगितावादके आधारपर निश्चित किये गये थे उन तत्त्वोंके बारेमें अस्तित्ववादके आधारपर विचार होने लग गया और इसका ही यह परिणाम है कि सभी दर्शनकारोंने अपनेसे भिन्न दूसरे दर्शनोंको उनकी उपयोगिताके ऊपर ध्यान न देते हये उन्हें असत्य सिद्ध करनेका प्रयास किया है। सांख्य और वेदान्त दोनों दर्शनोंकी तत्त्व-मान्यतामें उपयोगितावादकी स्पष्ट झलक दिखाई देती हैं। सांख्यदर्शनमें प्रकृतिनामका चेतनाशून्य पदार्थ और पुरुषनामका चेतनात्मक आत्मरूप पदार्थ इस प्रकार दो मल तत्त्व स्वीकार किये गये हैं। इनमेंसे प्रकृतिको एक और पुरुषको अनेक रूपमें स्वीकार किया गया है। यह एक प्रकृति अनेक पुरुषोंके साथ संयुक्त होकर पुरुषोंमें मालूम पड़नेवाले बुद्धि, अहंकार आदि नानारूपसे परिणत हो जाया करती है । इसका अर्थ यह है कि जब तक प्रकृति पुरुषके साथ संयुक्त है तब तक वह बुद्धि Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/दर्शन और न्याय : ७ अहंकार आदि नानारूप है और जब इसका पुरुषके साथ हुए संयोगका अभाव हो जाता है तब अपने स्वाभाविक रूपमें पहुँच जाती है। प्रकृतिका पुरुषके साथ संयोग होकर बुद्धि, अहंकार आदि रूप हो जानेका नाम ही सांख्य दर्शनमें सृष्टि या संसार माना गया है। यह प्रकृतिका पुरुषके साथ संयोग होकर बुद्धि, अहंकार आदि रूप हो जाना कैसे संसारको ध्वनित करता है ? यही सबसे अधिक विचारणीय प्रश्न है। सांख्यदर्शनमें प्रकृतिका पुरुषके साथ संयोग होकर बुद्धि, अहंकार आदि नानारूप होनेकी परंपरा इस प्रकार बतलायी गयी है-प्रकृति पुरुषके साथ संयुक्त होकर बुद्धिरूप परिणत होती है, यह बुद्धि अहंकाररूप परिणत होती है, अहंकार पाँच ज्ञानेद्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन तथा पांच तन्मात्रा इस प्रकार इन सोलह तत्त्वरूप परिणत होता है और इन सोलह तत्त्वोंमेंसे पाँच तन्मात्रायें अन्तिम पाँच महाभूतरूप परिणत हो जाया करती है। इस व्यवस्थामें विचारणीय बात यह है कि जब पुरुष नाना है तो भिन्न-भिन्न पुरुषोंके साथ संयुक्त प्रकृतिके विपरिणामस्वरूप बुद्धितत्त्वमें भी नानात्त्व स्वीकार करना होगा और इस प्रकार नाना बुद्धितत्त्वोंके विपरिणामस्वरूप नाना अहंकारतत्त्व, नाना अहंकारतत्त्वोंके विपरिणामस्वरूप नाना पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ आदि सोलह-सोलह प्रकारके तत्त्व और इन सोलह प्रकारके तत्त्वोंमें अन्तर्भूत नाना पाँच प्रकारको तन्मात्राओंके विपरिणामस्वरूप नाना पंच महाभूत स्वीकार करने होंगे। इस तरहसे जब मूलभूत एक प्रकृतिके ही विपरिणामस्वरूप पंच महाभूत तककी सम्पूर्ण परम्परामें अनिवार्यरूपसे नानात्व स्वीकार करना पड़ता है तो इसमें एक आपत्ति यह उपस्थित होती है कि हमें पंचमहाभूत स्वरूप पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्त्वोंमें गर्भित आकाशतत्त्वको भी नानारूप मानना होगा। दूसरी आपत्ति यह उपस्थित होती है कि जब पुरुषको संयुक्त हालतमें ही प्रकृतिका विपरिणाम होता है तो ये महाभूतस्वरूप पंचतत्त्व भी प्रकृति और पुरुषकी संयुक्त हालतके प्रकृति विपरिणाम मानने होंगे । प्रकृति और पुरुषकी संयुक्त हालतसे भिन्न स्वरूप इनका स्वतन्त्र अस्तित्त्व मानना असंगत होगा। इन आपत्तियोंके आधारपर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि पुरुषके साथ संयोग होनेसे प्रकृतिकी तेतीस तत्त्व की जो परम्परा है वह भिन्न-भिन्न पुरुषोंकी भिन्न-भिन्न देह तक ही सीमित है अर्थात् भिन्न-भिन्न पुरुषोंके साथ संयोग होनेपर होनेवाली प्रकृतिकी बुद्धिसे लेकर स्थूल शरीररचना तकको परम्पराका नाम ही सांख्यदर्शनमें सृष्टि या संसार माना गया है। उसकी सृष्टिमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्त्व गर्भित नहीं हैं । गीताके १३वें अध्यायमें जो क्षेत्र, क्षेत्रज्ञविषयक विचार किया गया है उसमें क्षेत्रका अर्थ शरीर ही किया गया है और उसका विस्तार सांख्यकी मान्यताके अनुसार प्रकृतिके विकार स्वरूप बुद्धिसे लेकर पंच महाभूत पर्यत किया है। सांख्य दर्शनकी यह मान्यता वेदान्त दर्शनको भी अभीष्ट है । भेद सिर्फ इतना है कि वेदान्त दर्शन एक प्रकृति और नाना पुरुष इन दोनों प्रकारके तत्त्वोंको सांख्यदर्शनकी तरह मूल तत्त्व स्वीकार नहीं करता है। वह इन दोनोंके मूलमें एक परब्रह्मनामक तत्त्वको . स्वीकार करता है। इस प्रकार वेदान्तदर्शनमें भी परब्रह्मके विपरिणामस्वरूप प्रकृति और पुरुष, जिनको वहाँ पर क्रमसे अविद्या (माया) और जीवात्मा नाम दिये गये हैं, को लेकर जीवात्माओंके स्थूल शरीर तककी परम्पराका नाम ही सृष्टि या संसार माना गया है, क्योंकि सांख्यदर्शनकी तरह वेदान्तदर्शनकी मान्यताके अनुसार भी पूर्वोक्त आपत्तियोंके आधारपर एक परब्रह्म तत्त्वसे ही पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्त्वोंकी उत्पत्तिका समर्थन नहीं हो सकता। गीताके निम्नलिखित श्लोकसे भी मेरी इस कल्पनाका समर्थन होता है यथा सर्वगतं सौक्षम्यादाकाशं नोपलिप्यते । सर्वत्रावस्थितो देहे तथाऽऽत्मा नोपलिप्यते ॥ इस श्लोकमें आत्माका अर्थ परब्रह्म लिया गया है और उससे मिन्न स्वतन्त्र तथा व्यापक आकाश Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८: सरस्वती-वरवपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ तत्त्वको दृष्टान्त देकर उसकी निर्लेपताका समर्थन किया गया है। इससे मालूम पड़ता है कि वेदान्तको परब्रह्मसे आकाशकी उत्पत्ति अभीष्ट नहीं है। प्रत्युत उसकी निगाहमें आकाश एक स्वतन्त्र अनादिनिधन पदार्थ है और आकाशकी तरह पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु तत्त्व भी परब्रह्म हैं, सर्वथा पृथक् स्वतन्त्र पदार्थ हैं। ये तत्त्व भी परब्रह्मसे उत्पन्न नहीं हुए है। यहाँपर एक प्रश्न सिर्फ यह उपस्थित हो सकता है कि जब सांख्य और वेदान्त दोनों दर्शनोंमें पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु और आकाश तत्त्वोंका एक तो स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया है और दूसरे . सांख्यकी मान्यतामें प्रकृतिसे तथा वेदान्तकी मान्यतामें परब्रह्मसे उनकी उत्पत्तिका समर्थन भी नहीं होता है, तो ऐसी हालतमें ये दोनों दर्शन अधरे दर्शन रह जायेंगे। इसका समाधान यह है कि यदि हम यह बात मान लेते हैं कि यह दोनों दर्शन उपयोगितावादके आधारपर प्रादुर्भत हुए हैं अर्थात् इन दोनों में सिर्फ लोककल्याणोपयोगी तत्त्वोंका ही वर्णन किया गया है तो फिर यहाँपर यह प्रश्न उपस्थित ही नहीं हो सकता है। तात्पर्य यह है कि सांख्य और वेदान्त दर्शनोंम पृथ्वो आदि पाँच तत्त्वोंकी न तो प्रकृति अथवा परब्रह्मसे उत्पत्ति मानी गई है और न इनका स्वतंत्र अस्तित्वके आधारपर ही वर्णन किया गया है, किन्तु इनका स्वतंत्र अस्तित्त्व स्वीकार करते हुए भी लोककल्याणके लिए उपयोगी न होनेके कारण इन दोनों दर्शनोंने इन तत्त्वोंके कथनके बारेमें सिर्फ उपेक्षावृत्ति धारण की है। जैनदर्शन भी यद्यपि दूसरे सभी भारतीय दर्शनोंकी तरह उपयोगितावादके आधारपर उत्पन्न हुआ है। परन्तु जैनदर्शनमें उपयोगितावाद और अस्तित्ववाद दोनों वादोंके आधारपर स्वतंत्र दो प्रकारकी तत्त्वमान्यतायें पाई जाती हैं-जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंकी मान्यता उपयोगितावादके आश्रित है, क्योंकि इस मान्यतामें सिर्फ जीव, जीवका संसार और उसके कारण तथा जीवमुक्ति और उसके कारणरूप उपयोगी तत्त्वोंको ही स्थान दिया गया है और जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन ६ तत्त्वोंकी मान्यता अस्तित्ववादके आश्रित है, क्योंकि इस मान्यतामें लोककल्याणोपयोगिताका ध्यान रखते हुए जगतके सम्पूर्ण पदार्थोके अस्तित्वपर सामान्यतया विचार किया गया है। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शनमें प्रमाण और नय* व्याकरणके अनुसार दर्शनशब्द ' दृश्यते = निर्णीयते वस्तुतत्वमननेनेति दर्शनम्' अथवा 'दृश्यते निर्णीयत इदं वस्तुतत्त्वमिति दर्शनम्, इन दोनों व्युत्पत्तियोंके आधारपर दृश् धातुसे निष्पन्न होता है । पहली व्युत्पत्तिके आधारपर दर्शनशब्द तर्क-वितर्क, मन्थन या परीक्षाम्वरूप उस विचारधाराका नाम है जो तत्त्वोंके निर्णयमें प्रयोजक हुआ करती है । दूसरी व्युत्पत्तिके आधारपर दर्शनशब्दका अर्थ उल्लिखित विचारधाराके द्वारा निर्णीत तत्वोंकी स्वीकारता होता है । इस प्रकार दर्शनशब्द दार्शनिक जगत् में इन दोनों प्रकारके अर्थों में व्यवहृत हुआ है अर्थात् भिन्न-भिन्न मतोंकी जो तत्त्वसम्बन्धी मान्यतायें हैं उनको और जिन तार्किक मुद्दोंके आधारपर उन मान्यताओंका समर्थन होता है उन तार्किक मुद्दोंको दर्शनशास्त्र के अन्तर्गत स्वीकार किया गया है । सबसे पहले दर्शनोंको दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-भारतीय दर्शन और अभारतीय ( पाश्चात्य ) दर्शन | जिनका प्रादुर्भावि भारतवर्ष में हुआ है वे भारतीय और जिनका प्रादुर्भाव भारतवर्ष के बाहर पाश्चात्य देशों में हुआ है वे अभारतीय (पाश्चात्य ) दर्शन माने गये हैं । भारतीय दर्शन भी दो भागों में विभक्त हो जाते हैं - वैदिक दर्शन और अवैदिक दर्शन । वैदिक परम्पराके अन्दर जिनका प्रादुर्भाव हुआ है तथा जो वेदपरम्पराके पोषक दर्शन हैं वे वैदिक दर्शन माने जाते हैं और वैदिक परम्परासे भिन्न जिनकी स्वतन्त्र परम्परा है तथा जो वैदिक परम्पराके विरोधी दर्शन हैं उनका समावेश अवैदिक दर्शनोंमें होता है । इस सामान्य नियमके आधारपर वैदिक दर्शनोंमें मुख्यतः सांख्य, वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय तथा वैशेषिक दर्शन आते हैं और जैन, बौद्ध तथा चार्वाक दर्शन अवैदिक दर्शन ठहरते हैं । वैदिक और अवैदिक दर्शनोंको दार्शनिक मध्यकालीन युगमें क्रमसे आस्तिक और नास्तिक नामोंसे भी पुकारा जाने लगा था, परन्तु मालूम पड़ता है कि इनका यह नामकरण साम्प्रदायिक व्यामोहके कारण वेदपरम्पराके समर्थन और विरोधके आधारपर प्रशंसा और निन्दाके रूपमें किया गया है। कारण, यदि प्राणियों के जन्मान्तररूप परलोक — स्वर्ग और नरक तथा मुक्तिके न माननेरूप अर्थ में नास्तिक शब्दका प्रयोग किया जाय तो जैन और बौद्ध दोनों अवैदिक दर्शन नास्तिक दर्शनोंकी कोटिसे निकलकर आस्तिक दर्शनोंकी कोटिमें आ जायेंगे, क्योंकि ये दोनों दर्शन परलोक-स्वर्ग और नरक तथा मुक्तिकी मान्यताको स्वीकार करते हैं । और यदि जगत्का कर्ता अनादिनिधन ईश्वरको न मानने रूप अर्थ में नास्तिकशब्दका प्रयोग किया जाय तो सांख्य और मीमांसा दर्शनोंको भी आस्तिक दर्शनोंकी कोटिसे निकालकर नास्तिक दर्शनों की कोटिमें रख देना पड़ेगा; क्योंकि ये दोनों दर्शन अनादिनिधन ईश्वरको जगत्‌का कर्ता माननेसे इन्कार करते हैं । 'नास्तिको वेदनिन्दकः' इत्यादि वाक्य भी हमें यह बतलाते हैं कि वेदपरम्पराको न माननेवालों या उसका विरोध करनेवालोंके बारेमें ही नास्तिक शब्दका प्रयोग किया गया है। प्रायः सभी सम्प्रदायोंमें अपनी परम्पराके माननेवालोंको आस्तिक और अपनेसे भिन्न दूसरे सम्प्रदायकी परम्पराके माननेवालोंको नास्तिक कहा गया है । जैनसम्प्रदायमें जैनपरम्पराके माननेवालोंको सम्यग्दृष्टि और जैनेतर परम्पराके माननेवालोंको मिथ्यादृष्टि कहने का रिवाज प्रचलित है । इस कथनका तात्पर्य यह है कि भारतीय दर्शनोंका जो आस्तिक और नास्तिक दर्शनोंके रूप में विभाग किया जाता है वह निरर्थक एवं अनुचित है । उल्लिखित सभी भारतीय दर्शनोंमेंसे एक-दो दर्शनोंको छोड़कर प्रायः सभी दर्शनोंका साहित्य काफी विशालता को लिये हुए पाया जाता है। जैनदर्शनका साहित्य भी काफी विशाल और महान है । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों दर्शनकारोंने समानरूपसे जैनदर्शन के साहित्यकी समृद्धिमें काफी हाथ बटाया है । दिगम्बर ★ डॉ० कोठिया द्वारा सम्पादित न्यायदीपिकागत प्राक्कथन, १९४५ । ४-२ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें परस्पर जो मतभेद पाया जाता है वह दार्शनिक नहीं, आगमिक है। इसलिये इन दोनोंके दर्शन-साहित्यकी समद्धिके धारावाहिक प्रयासमें कोई अन्तर नहीं आया है। दर्शनशास्त्रका मुख्य उद्देश्य वस्तु-स्वरूपव्यवस्थापन ही माना गया है। जैनदर्शनमें वस्तुका स्वरूप अनेकान्तात्मक (अनेकधर्मात्मक) निर्णीत किया गया है। इसलिये जैनदर्शनका मुख्य सिद्धान्त अनेकान्तवाद (अनेकान्तकी मान्यता) है । अनेकान्तका अर्थ है-परस्पर-विरोधी दो तत्त्वोंका एकत्र समन्वय । तात्पर्य यह है कि जहाँ दूसरे दर्शनोंमें वस्तुको सिर्फ सत् या असत्, सिर्फ सामान्य या विशेष, सिर्फ नित्य या अनित्य, सिर्फ एक या अनेक और सिर्फ भिन्न या अभिन्न स्वीकार किया गया है वहाँ जैनदर्शनमें वस्तुको सत् और असत्, सामान्य और विशेष, नित्य और अनित्य, एक और अनेक तथा भिन्न और अभिन्न स्वीकार किया गया है और जैनदर्शनकी यह सत-असत्, सामान्य-विशेष, नित्य-अनित्य, एक-अनेक और भिन्न-अभिन्नरूप वस्तुविषयक मान्यता परस्पर-विरोधी दो तत्त्वोंका एकत्र समन्वयको सूचित करती है। वस्तुकी इस अनेकधर्मात्मकताके निर्णयमें साधक प्रमाण होता है । इसलिये दूसरे दर्शनोंकी तरह जैनदर्शन में भी प्रमाण-मान्यताको स्थान दिया गया है । लेकिन दूसरे दर्शनोंमें जहाँ कारकसाकल्यादिको प्रमाण माना गया है वहाँ जैनदर्शनमें सम्यग्ज्ञान (अपने और अपूर्व अर्थके निर्णायक ज्ञान) को ही प्रमाण माना गया है, क्योंकि ज्ञप्ति-क्रियाके प्रति जो करण हो उसीका जैनदर्शनमें प्रमाण नामसे उल्लेख किया गया है। ज्ञप्तिक्रियाके प्रति करण उक्त प्रकारका ज्ञान ही हो सकता है, कारकसाकल्यादि नहीं, कारण कि क्रियाके प्रति अत्यन्त अर्थात् अव्यवहितरूपसे साधक कारणको ही व्याकरणशास्त्रमें करणसंज्ञा दी गयी है और अव्यवहितरूपसे ज्ञप्तिक्रियाका साधक उक्त प्रकारका ज्ञान ही है। कारकसाकल्यादि ज्ञप्तिक्रियाके साधक होते हए भी उसके अव्यवहितरूपसे साधक नहीं हैं, इसलिये उन्हें प्रमाण कहना अनुचित है। प्रमाण-मान्यताको स्थान देनेवाले दर्शनोंमें कोई दर्शन सिर्फ प्रत्यक्षप्रमाणको, कोई प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाणोंको, कोई प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणोंको, कोई प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान चार प्रमाणोंको, कोई प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान और अर्थापत्ति पाँच प्रमाणोंको और कोई प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अपित्ति और अभाव इन छह प्रमाणोंको मानते है। कोई दर्शन एक सम्भव नामके प्रमाणको भी अपनी प्रमाणमान्यतामें स्थान देते हैं । परन्तु जैनदर्शनमें प्रमाणको इन भिन्न-भिन्न संख्याओंको यथायोग्य निरर्थक, पुनरुक्त और अपूर्ण बतलाते हुए मूलमें प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो ही भेद प्रमाणके स्वीकार किये गये हैं। प्रत्यक्षके अतीन्द्रिय और इन्द्रियजन्य ये दो भेद मानकर अतीन्द्रिय प्रत्यक्षमें अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानका समावेश किया गया है तथा इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षमें स्पर्शन, रसना घ्राण, चक्ष और कर्ण इन पाँच इन्द्रियों और मनका साहाय्य होनेके कारण स्पर्शनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष. रसनेन्द्रियप्रत्यक्ष, घ्राणेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, चक्ष्विन्द्रिय-प्रत्यक्ष, कर्णेन्द्रिय-प्रत्यक्ष और मानस प्रत्यक्ष ये छह भेद स्वीकार किये गये हैं । अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष भेद अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानको जैनदर्शनमें देशप्रत्यक्ष संज्ञा दी गई है। कारण कि इन दोनों ज्ञानोंका विषय सीमित माना गया है और केवलज्ञानको सकलप्रत्यक्ष नाम दिया गया है, क्योंकि इसका विषय असीमित माना गया है अर्थात् जगत्के सपूर्ण पदार्थ अपने-अपने त्रिकालवर्ती विवों सहित इसकी विषयकोटिमें एक साथ समा जाते हैं। सर्वज्ञमें केवलज्ञाननामक इसी सकलप्रत्यक्षका सदभाव स्वीकार किया गया है। अतीन्द्रिप्रयत्यक्षको परमार्थप्रत्यक्ष और इन्द्रियजन्यप्रत्यक्षको सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष १. 'साधकतमं करणम् ।' -जैनेन्द्रव्याकरण १।२।११३ । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ | दर्शन और न्याय : ११ भी कहा जाता है। इसका कारण यह है कि सभी प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान यद्यपि आत्मोत्थ है क्योंकि ज्ञानको आत्माका स्वभाव या गुण माना गया है। परन्तु अतीन्द्रियप्रत्यक्ष इन्द्रियोंकी सहायताके बिना ही स्वतन्त्ररूपसे आत्मामें उद्भूत हुआ करते हैं, इसलिये इन्हें परमार्थ संज्ञा दी गई है और इन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष आत्मोत्थ होते हुए भी उत्पत्तिमें इन्द्रियाधीन हैं, इसलिये वास्तवमें इन्हें प्रत्यक्ष कहना अनुचित ही है। अतः लोकव्यवहारकी दृष्टिसे ही इनको प्रत्यक्ष कहा जाता है। वास्तवमें तो इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षोंको भी परोक्ष ही कहना उचित है। फिर जब ये प्रत्यक्ष पराधीन हैं तो इन्हें परोक्ष प्रमाणोंमें ही अन्तर्भूत क्यों नहीं किया गया है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि जिस ज्ञानमें ज्ञेय पदार्थका इन्द्रियोंके साथ साक्षात् सम्बन्ध विद्यमान हो उस ज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमें अन्तत किया गया है और जिस ज्ञानमें ज्ञेय पदार्थका इन्द्रियोंके साथ साक्षात् सम्बन्ध विद्यमान न हो, परम्परया सम्बन्ध कायम होता हो उस ज्ञानको परोक्ष प्रमाणमें अन्तर्भूत किया गया है। उक्त छहों इन्द्रियजन्यप्रत्यक्षों (सांव्यवहारिकप्रत्यक्षों)में प्रत्येककी अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार-चार अवस्थायें स्वीकार की गयी है। अवग्रह-ज्ञानकी उस दुर्बल अवस्थाका नाम है जो अनन्तरकालमें निमित्त मिलनेपर विरुद्ध नानाकोटि विषयक संशयका रूप धारण कर लेती है और जिसमें एक अवग्रहज्ञानकी विषयभूत कोटि भी शामिल रहती है। संशयके बाद अवग्रहज्ञानकी विषयभूत कोटिविषयक अनिर्णीत भावनारूप ज्ञानका नाम ईहा माना गया है। और ईहाके बाद अवग्रहज्ञानकी विषयभूत कोटि विषयक निर्णीत ज्ञानका नाम अवाय है । यही ज्ञान यदि कालान्तरमें होनेवाली स्मृतिका कारण बन जाता है तो इसे धारणा नाम दे दिया जाता है । जैसे कहीं जाते हुए हमारा दूर स्थित पुरुषको सामने पाकर उसके बारेमें “यह पुरुष है" इस प्रकारका ज्ञान अवग्रह है। इस ज्ञानकी दुर्बलता इसीसे जानी जा सकती है कि यहो ज्ञान अनन्तरकालमें निमित्त मिल जानेपर "वह पुरुष है या ढूंठ" इस प्रकारके संशयका रूप धारण कर लिया करता है। यह संशय अपने अनन्तरकालमें निमित्तविशेषके आधारपर 'मालूम पड़ता है कि यह पुरुष ही है' अथवा 'उसे पुरुष ही होना चाहिये' इत्यादि प्रकारसे ईहाज्ञानका रूप धारण कर लिया करता है और यह ईहाज्ञान ही अपने अनन्तर समयमें निमित्तविशेषके बलपर 'वह पुरुष ही है' इस प्रकारके अवायज्ञानरूप परिणत हो जाया करता है । यही ज्ञान नष्ट होनेसे पहले कालान्तरमें होनेवाली 'अमुक समयमें अमुक स्थानपर मैंने पुरुषको देखा था' इस प्रकारकी स्मृतिमें कारणभूत जो अपना संस्कार मस्तिष्कपर छोड़ जाता है उसीका नाम धारणाज्ञान जैनदर्शनमें माना गया है। इस प्रकार एक ही इन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष (सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष) भिन्न-भिन्न समयमें भिन्न-भिन्न निमित्तों के आधारपर अवग्रह, ईहा; अवाय और धारणा इन चार रूपोंको धारण कर लिया करता है और ये चार रूप प्रत्येक इन्द्रिय और मनसे होनेवाले प्रत्यक्ष ज्ञानमें सम्भव हआ करते हैं। जैनदर्शनमें प्रत्यक्षप्रमाणका स्पष्टीकरण इसी ढङ्गसे किया गया है। - जैनदर्शनमें परोक्षप्रमाणके पाँच भेद स्वीकार किये गये हैं-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । इनमेंसे धारणामूलक स्वतन्त्र ज्ञानविशेषका नाम स्मति है । स्मृति और प्रत्यक्षमलक वर्तमान और भत पदार्थोके एकत्व अथवा सादृश्यको ग्रहण करनेवाला प्रत्यभिज्ञान कहलाता है, प्रत्यभिज्ञानमूलक दो पदार्थोंके अविनाभावसम्बन्धरूप व्याप्तिका ग्राहक तर्क होता है और तर्कमूलक साधनसे साध्यका ज्ञान अनुमान माना गया है। इसी तरह आगमज्ञान भी अनुमानमूलक ही होता है अर्थात् 'अमुक शब्दका अमुक अर्थ होता है' ऐसा निर्णय हो जानेके बाद ही श्रोता किसी शब्दको सुनकर उसके अर्थका ज्ञान कर सकता है। इस कथनसे यह निष्कर्ष निकला कि सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष इन्द्रियजन्य है और परोक्षप्रमाण सांव्यवहारिकप्रत्यक्षजन्य है। बस, सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष और परोक्षप्रमाणमें इतना ही अन्तर है। जैनदर्शनमें शब्दजन्य अर्थज्ञानको आगमप्रमाण माननेके साथ-साथ उस शब्दको भी आगमप्रमाणमें Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ संग्रहीत किया गया है और इस प्रकार जैनदर्शनमें आगमप्रमाणके दो भेद मान लिये गये हैं-एक स्वार्थप्रमाण और दूसरा परार्थप्रमाण । पूर्वोक्त सभी प्रमाण ज्ञानरूप होने के कारण स्वार्थप्रमाणरूप ही है। परन्तु एक आगमप्रमाण ही ऐसा है, जिसे स्वार्थप्रमाण और परार्थप्रमाण उभयरूप स्वीकार किया गया है। शब्दजन्य अर्थज्ञान ज्ञानरूप होनेके कारण स्वार्थप्रमाणरूप है । लेकिन शब्दमें चूँकि ज्ञानरूपताका अभाव है इसलिये वह परार्थप्रमाणरूप माना गया है। यह परार्थप्रमाणरूप शब्द वाक्य और महावाक्यके भेदसे दो प्रकारका है। इनमें से दो या दोसे अधिक पदोंके समूहको वाक्य कहते हैं और दो या दोसे अधिक वाक्योंके समूहको महावाक्य कहते हैं, दो या दोसे अधिक महावाक्योंके समूहको भी महावाक्यके ही अन्तर्गत समझना चाहिये। इससे यह सिद्ध होता है कि परार्थप्रमाण एक सखण्ड वस्तु है और वाक्य तथा महावाक्यरूप परार्थप्रमाणके जो खण्ड हैं उन्हें जैनदर्शनमें नयसंज्ञा प्रदान की गई है। इस प्रकार जैनदर्शनमें वस्तुस्वरूपके व्यवस्थापनमें प्रमाणकी तरह नयोंको भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । परार्थप्रमाण और उसके अंशभूत नयोंका लक्षण निम्न प्रकार समझना चाहिये "वक्ताके उद्दिष्ट अर्थका पूर्णरूपेण प्रतिपादक वाक्य और महावाक्य प्रमाण कहा जाता है और वक्तासे उद्दिष्ट अर्थके अंशका प्रतिपादक पद, वाक्य और महावाक्यको नयसंज्ञा दी गयी है।" इस प्रकार ये दोनों परार्थप्रमाण और उसके अंशभूत नय वचनरूप हैं और चूँकि वस्तुनिष्ठ सत्व और असत्व, सामान्य और विशेष, नित्यत्व और अनित्यत्व, एकत्व और अनेकत्व, भिन्नत्व और अभिन्नत्व परस्पर-विरोधी दो तत्त्व अथवा तद्विशिष्ट वस्तु ही इनका वाच्य है, इसलिए इनके आधारपर जैनदर्शनका सप्तभंगीवाद कायम होता है। अर्थात उक्त सत्व और असत्व, सामान्य और विशेष. नित्यत्व और अनित्यत्व, एकत्व और अनेकत्व, भिन्नत्व और अभिन्नत्व इत्यादि युगलधर्मों और एतद्धर्मविशिष्ट वस्तुके प्रतिपादनमें उक्त परार्थप्रमाण और उसके अंशभूत नय सात रूप धारण कर लिया करते हैं। प्रमाणवचनके सात रूप निम्न प्रकार हैं सत्व और असत्व इन दो धर्मोमेंसे सत्वमुखेन वस्तुका प्रतिपादन करना प्रमाणवचनका पहला रूप है। असत्वमखेन वस्तुका प्रतिपादन करना प्रमाणवचनका दूसरा रूप है। सत्व और असत्व उभयधर्ममुखेन क्रमशः वस्तुका प्रतिपादन करना प्रमाणवचनका तीसरा रूप है। सत्व और असत्व उभयधर्ममुखेन युगपत् (एकसाथ) वस्तुका प्रतिपादन करना असम्भव है, इसलिये अवक्तव्य नामका चौथा रूप प्रमाणवचनका निष्पन्न होता है । उभयधर्ममुखेन युगपत् वस्तुके प्रतिपादनकी असम्भवताके साथ-साथ सत्वमुखेन वस्तुका प्रतिपादन हो सकता है इस तरहसे प्रमाणवचनका पाँचवाँ रूप निष्पन्न होता है । इसी प्रकार उभयधर्ममुखेन युगपत् वस्तुके प्रतिपादनकी असम्भवताके साथ-साथ असत्वमुखेन भी वस्तुका प्रतिपादन हो सकता है, इस तरहसे प्रमाणवचनका छठा रूप बन जाता है। और उभयधर्ममुखेन युगपत् वस्तुके प्रतिपादनकी असम्भवताके साथ-साथ उभयधर्ममुखेन क्रमशः वस्तुका प्रतिपादन हो सकता है, इस तरहसे प्रमाणवचनका सातवाँ रूप बन जाता है। जैनदर्शनमें इसको प्रमाणसप्तभंगी नाम दिया गया है। नयवचनके सात रूप निम्न प्रकार हैं वस्तुके सत्व और असत्व इन दो धर्मोमेंसे सत्वधर्मका प्रतिपादन करना नयवचनका पहला रूप है। असत्वधर्मका प्रतिपादन करना नयवचनका दूसरा रूप है। उभयधर्मोका क्रमशः प्रतिपादन करना नयवचनका तीसरा रूप है और चूंकि उभयधर्मोंका युगपत् प्रतिपादन करना असम्भव है, इसलिये इस तरहसे अवक्तव्य Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्शन और न्याय १३ 1 नामका चौथा रूप नववचनका निष्पन्न होता है। नयवचनके पाँचवें छठे और सातवें रूपोंको प्रमाणवचन के पाँचवें, छठे और सातवें रूपोंके समान समझ लेना चाहिये । जैनदर्शन में नयवचनके इन सात रूपोंको नयसप्तभंगी नाम दिया गया है । इन दोनों प्रकारकी सप्तभंगियोंमें इतना ध्यान रखनेकी जरूरत है कि जब सत्वधर्ममुखेन वस्तुका अथवा वस्तु सत्वधर्मका प्रतिपादन किया जाता है तो उस समय वस्तुकी असत्वधर्मविशिष्टताको अथवा वस्तुके असत्वधर्मको अविवक्षित मान लिया जाता है और यही बात असत्वधर्ममुखेन वस्तुका अथवा वस्तुके असत्वधर्मका प्रतिपादन करते समय वस्तुकी सत्वधर्मविशिष्टता अथवा वस्तुके सत्वधर्मके बारेमें समझना चाहिये । इस प्रकार धर्मोet faar (मुरूपता) और अविवक्षा (गौणता) के स्पष्टीकरण के लिये स्याद्वाद अर्थात् स्यात्की मान्यताको भी जैन दर्शनमें स्थान दिया गया है। स्याद्वादका अर्थ है किसी भी धर्मके द्वारा वस्तुका अथवा वस्तुके किसी भी धर्मका प्रतिपादन करते समय उसके अनुकूल किसी भी निमित्त, किसी भी दृष्टिकोण या किसी भी उद्देश्यको लक्ष्यमें रखना और इस तरहसे ही वस्तुकी विरुद्धधर्मविशिष्टता अथवा वस्तुमें विरुद्ध धर्मका अस्तित्व अक्षुण्ण रखा जा सकता है। यदि उक्त प्रकारके स्याद्वादको नहीं अपनाया जायगा, तो वस्तुकी विरुद्धधर्मविशिष्टताका अथवा वस्तुमें विरोधी धर्मका अभाव मानना अनिवार्य हो जायगा और इस तरहसे अनेकान्तवादका भी जीवन समाप्त हो जायगा । इस प्रकार अनेकान्तवाद, प्रमाणवाद, नयवाद, सप्तभंगीवाद और स्याद्वाद मे जैनदर्शनके अनूठे सिद्धान्त हैं। इनमें से एक प्रमाणवादको छोड़कर वाकीके चार सिद्धान्तोंको तो जैनदर्शनकी अपनी ही निधि कहा जा सकता है और ये चारों सिद्धान्त जैनदर्शनकी अपूर्वता एवं महत्ताके अतीव परिचायक हैं। प्रमाणवादको यद्यपि दूसरे दर्शनोंमें स्थान प्राप्त है परन्तु जिस व्यवस्थित ढंग और पूर्णताके साथ जैनदर्शनमें प्रमाणका विवेचन पाया जाता है वह दूसरे दर्शनोंमें नहीं मिल सकता है। मेरे इस कथन की स्वाभाविकताको जैनदर्शन के प्रमाणविवेचनके साथ दूसरे दर्शनोंके प्रमाणविवेचनका तुलनात्मक अध्ययन करनेवाले विद्वान् सहज ही समझ सकते हैं । एक बात जो जैनदर्शनकी यहाँ पर कहनेके लिये रह गई है वह है सर्वज्ञतावादकी, अर्थात् जैनदर्शन में सर्वज्ञतावादको भी स्थान दिया गया है और इसका कारण यह है कि आगमप्रमाणका भेद जो परार्थप्रमाण अर्थात् बचन है उसकी प्रमाणता बिना सर्वज्ञताके संभव नहीं है। कारण कि प्रत्येक दर्शन में आप्तका वचन ही प्रमाण माना गया है तथा आप्त अवंचक पुरुष ही हो सकता है और पूर्ण अवचकताकी प्राप्ति के लिये व्यक्ति में सर्वज्ञताका सद्भाव अत्यन्त आवश्यक माना गया है। जैनदर्शन में इन अनेकान्त, प्रमाण, नय, सप्तभंगी, स्यात् और सर्वज्ञताकी मान्यताओंको गंभीर और विस्तृत विवेचनके द्वारा एक निष्कर्षपर पहुँचा दिया गया है। न्यायदीपिकामें श्रीमदभिनव धर्मभूषणय तिने इन्हीं विषयोंका सरल और संक्षिप्त ढंग से विवेचन किया है और श्री पं० दरबारीलाल कोठियाने इसे टिप्पणी और हिन्दी अनुवादसे सुसंस्कृत बनाकर सर्वसाधारणके लिये उपादेय बना दिया है । प्रस्तावना, परिशिष्ट आदि प्रकरणों द्वारा इसकी उपादेयता और भी बढ़ गयी है। आपने न्यायदीपिका के कठिन स्थलोंका भी परिश्रमके साथ स्पष्टीकरण किया है । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानके प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदोंका आधार एक ज्ञान प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष क्यों है ? इसके समाधानमें जैनागममें जो कुछ कहा गया है उसका सार यह है-"सब जीवोंमें पदार्थोंके जाननेकी शक्ति विद्यमान है उसके द्वारा प्रत्येक जीव पदार्थबोध किया करता है । पदार्थबोध मतिज्ञान, श्रतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानके भेदसे पाँच प्रकारका होता है । मतिज्ञान में स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण इन पाँच इन्द्रियोंमेंसे किसी भी इन्द्रिय अथवा मनकी सहायता अपेक्षित रहा करती है। श्रुतज्ञान सिर्फ मनकी सहायतासे हुआ करता है और अवधि, मनःपर्यय तथा केवल ये तीनों ज्ञान इन्द्रिय अथवा मनकी सहायताके बिना ही हुआ करते हैं । यथायोग्य इन्द्रिय अथवा मनकी सहायतासे उत्पन्न होनेके कारण मतिज्ञान और श्रुतज्ञानको परोक्ष कहते हैं तथा इन्द्रिय अथवा मनकी सहायताके बिना ही उत्पन्न होनेके कारण अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान कहते हैं।" जैनागममें इससे भी आगे इतना कथन और पाया जाता है-"स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान ये चारों प्रकारके मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान सर्वथा परोक्ष हैं। अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान सर्वथा प्रत्यक्ष है। शेष अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों प्रकारके मतिज्ञान इन्द्रिय अथवा मनकी सहायतासे उत्पन्न होनेके कारण जहाँ परोक्ष हैं वहाँ लोकसंव्यवहारमें प्रत्यक्ष माने जानेके कारण उक्त चारों ज्ञान (अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा). प्रत्यक्ष भी हैं।" यहाँपर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा इन चारों मतिज्ञानोंको लौकिक व्यवहारमें जो प्रत्यक्ष स्वीकार किया गया है उसका कारण क्या है ? इस प्रश्नके समाधानमें मेरा मत यह है कि जैनागममें इन्द्रिय अथवा मनकी सहायतासे होनेवाले ज्ञानोंको परोक्ष और इन्द्रियादिककी सहायताके बिना हो होनेवाले ज्ञानोंको प्रत्यक्ष कहनेका आशय उन-उन ज्ञानोंकी पराधीनता और स्वाधीनता बतलाना इसे स्वरूपकथन नहीं समझना चाहिये । इस प्रकार प्रत्यक्ष और परोक्षके उक्त लक्षण करणानुयोगकी विशद्ध आध्यात्मिक दृष्टिसे कहे गये हैं। लेकिन स्वरूपका कथन करनेवाला जो द्रव्यानुयोग है उसकी दृष्टिसे प्रत्यक्ष वह ज्ञान कहलाता है, जिसमें पदार्थका साक्षात्काररूप बोध हो और परोक्ष वह ज्ञान कहलाता है, जिसमें पदार्थका बोध तो हो, लेकिन वह बोध साक्षात्कार रूप न हो। पदार्थका साक्षात्काररूप बोध वहाँ होता है जहाँ पदार्थ-दर्शनके सद्भावमें पदार्थज्ञान हुआ करता है और पदार्थका असाक्षात्काररूप बोध वहाँ होता है जहाँ पदार्थदर्शनके बिना ही पदार्थका ज्ञान हो जाया करता है। इस प्रकार पदार्थदर्शनके सद्भावमें जो पदार्थबोध हुआ करता है उसे प्रत्यक्ष और पदार्थदर्शनके बिना ही जो पदार्थबोध हो जाया करता है उसे परोक्ष समझना चाहिए। प्रत्यक्ष और परोक्षके इन लक्षणोंके अनुसार पदार्थदर्शनके सदभावमें होनेके कारण अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों मतिज्ञान तथा अवधिज्ञान, मनःपर्यययज्ञान और केवलज्ञान ये सब प्रत्यक्ष हैं और शेष स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान ये चारों मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान ये सब चूँकि पदार्थदर्शनके बिना ही हो जाया करते हैं, इसलिये परोक्ष हैं । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक जीवमें पदार्थोके जाननेकी योग्यताकी तरह पदार्थोंके देखनेकी भी योग्यता विद्यमान हैं, इसलिए जिस प्रकार प्रत्येक जीव जाननेको योग्यताका सद्भाव रहनेके कारण पदार्थोंको जानता है उसी प्रकार वह देखनेकी योग्यताका सदभाव रहने के कारण पदार्थोंको देखता भी है और चूंकि पदार्थका दर्शन पदार्थके प्रत्यक्षमे कारण होता है । अतः जो जीव पदार्थका प्रत्यक्षज्ञान करना चाहता है उसे पदार्थका दर्शन अवश्य होना चाहिए, क्योंकि बिना पदार्थदर्शनके किसी भी पदार्थका प्रत्यक्ष होना संभव नहीं है। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४) दर्शन और न्याय : १५ प्रत्यक्षशब्दका अर्थ "अक्षं - आत्मानं प्रति" इस व्युत्पत्तिके अनुसार पदार्थकी आत्मावलम्बनतापूर्वक होतेवाला पदार्थज्ञान होता है और परोक्षशब्दका अर्थ “अक्षात् = आत्मनः परम्" इस व्युत्पत्तिके अनुसार पदार्थकी आत्मावलम्बनताके बिना ही होनेवाला पदार्थज्ञान होता है तथा यहाँपर जो पदार्थकी आत्मावलम्बनताका कथन किया गया है उसका अर्थ "आत्मप्रदेशोंका हमारे ज्ञानके आधारभूत पदार्यके आकाररूप परिणत हो जाना" होता है बस, इसीको पदार्थका दर्शन या दार्शनोपयोग समझना चाहिए। यह पदार्थदर्शन कहींकहीं तो स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण इन पाँच इन्द्रियोंमेंसे किसी भी इन्द्रिय द्वारा अथवा मन द्वारा यथासम्भव यथायोग्यरूपमें हुआ करता है और कहीं-कहीं इन्द्रिय अथवा मनकी सहायताके बिना ही यथायोग्यरूपमें हुआ करता है। इस तरह जैनागममें पदार्थदर्शनके चार भेद मान लिए गये है-चक्षदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । नेत्र इन्द्रिय द्वारा पदार्थके नियत आकारका नियत आत्मप्रदेशोंमें पहँच जानेको चक्षुदर्शन, नेत्र इन्द्रियको छोड़कर शेष स्पर्शन, रसना, नासिका और कर्ण इन चारों इन्द्रियोंमेंसे किसी भी इन्द्रिय द्वारा अथवा मन द्वारा अपने-अपने अनुरूप पदार्थके नियत आकारोंका नियत आत्म-प्रदेशोंमें पहुँच जानेको अचक्षुदर्शन, इन्द्रिय अथवा मनकी सहायताके बिना ही रूपवान् (पुद्गल) पदार्थ के आकारका नियत आत्मप्रदेशोंमें पहुँच जानेको अवधिदर्शन, तथा इन्द्रिय अथवा मनकी सहायताके बिना ही विश्वके समस्त पदार्थोंके आकारोंका सर्व आत्मप्रदेशोंमें पहुँचनेको केवलदर्शन समझना चाहिये । नेत्र इन्द्रियसे होनेवाले अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा मतिज्ञानोंमें चक्षुदर्शनका सद्भाव कारण होता है, स्पर्शन, रसना, नासिका और कर्ण इन्द्रियोंमेंसे किसी भी इन्द्रिय अथवा मनसे होनेवाले अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा मतिज्ञानोंमें उस-उस इन्द्रिय अथवा मनके द्वारा होनेवाले अचक्षुदर्शनका सद्भाव कारण होता है तथा अवधिज्ञानमें अवधिदर्शनका और केवलज्ञानमें केवलदर्शनका सद्भाव कारण होता है । मन:पर्ययज्ञानमें भी मानसिक अचक्षुदर्शनका सद्भाव कारण होता है। इस प्रकार अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान तो सर्वथा प्रत्यक्ष हैं अर्थात् इन्द्रिय अथवा मनकी सहायताके बिना ही उत्पन्न होनेके कारण ये तीनों ज्ञान चूँकि स्वाधीन ज्ञान हैं अतः करणानुयोगकी विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टिसे प्रत्यक्ष हैं और चूंकि ये तीनों ज्ञान उक्त प्रकारके पदार्थदर्शनके सदभावमें ही उत्पन्न होते हैं अतः स्वरूपका कथन करनेवाले द्रव्यानुयोगकी दृष्टिसे भी ये प्रत्यक्ष हो है। तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान ये चारों मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान ये सब सर्वथा परोक्ष हैं अर्थात यथासम्भव इन्द्रिय और मनको सहायतासे उत्पन्न होनेसे कारण चूँकि ये ज्ञान पराधीन हैं अतः करणानुयोगकी विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टिसे परोक्ष हैं और चूँकि ये ज्ञान उक्त प्रकारके पदार्थदर्शनके बिना ही उत्पन्न हो जाया करते हैं अतः स्वरूपका कथन करनेवाले द्रव्यानुयोगकी दृष्टिसे भी ये परोक्ष ही हैं । लेकिन अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों मतिज्ञान कथंचित् प्रत्यक्ष और कथंचित् परोक्ष माने गये हैं अर्थात् ये चारों ज्ञान चुंकि उक्त प्रकारके चक्षुदर्शन अथवा अचक्षुदर्शन रूप पदार्थदर्शनके सद्भावमें ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए स्वरूपका कथन करनेवाले द्रव्यानुयोगकी दृष्टिसे तो ये प्रत्यक्ष हैं और चूँकि ये इन्द्रिय अथवा मनकी सहायतासे ही उत्पन्न हुआ करते है अतः करणानुयोगकी विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टिसे ये परोक्ष भी हैं। इस कथनके साथ जैनागमके पूवोंक्त इस कथनका भी सामञ्जस्य बैठ जाता है कि अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान सर्वथा प्रत्यक्ष हैं, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान सर्वथा परोक्ष हैं तथा अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ज्ञान कथंचित् प्रत्यक्ष और कथंचित् परोक्ष है। शंका-केवलज्ञान ही ऐसा ज्ञान है जो दर्शनके सद्भावमें हुआ करता है। शेष ज्ञान तो दर्शनके Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ सद्भावमें न होकर दर्शनपूर्वक ही हुआ करते हैं, इसका अर्थ यह है कि केवलज्ञानको छोड़कर शेष ज्ञानदर्शनके बाद ही हुआ करते हैं, आगममें भी ऐसा ही बतलाया गया है, इसलिये अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों मतिज्ञान तथा अवधि और मन:पर्ययज्ञान ये सब दर्शन के सद्‌भाव में होते हैं ऐसा कहना गलत है ? उत्तर - केवलज्ञानकी तरह उक्त अवग्रहादि ज्ञान भी दर्शनके सद्भावमें ही हुआ करते हैं। आगमइनका दर्शनपूर्वक होना लिखा है उसका आशय इतना ही है कि इन ज्ञानोंके होने में दर्शन कारण है । जिस प्रकार " सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञान होता है" इस आगमवाक्यमें पूर्वशब्दको कारणरूप अर्थका बोधक स्वीकार किया गया है उसी प्रकार "दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है" इस आगमवाक्यमें भी पूर्वशब्दको कारण रूप अर्थका बोधक ही स्वीकार करना उचित है। दूसरी बात यह है कि कार्यकारणभावको स्वीकृति के लिए कार्योत्पत्तिके समयमें कारणकी उपस्थिति रहना आवश्यक है, इसलिए जब दर्शन और ज्ञानमें कार्यकारणभाव स्वीकार किया गया है तो दर्शनका ज्ञानोत्पत्तिके समयमें उपस्थित रहना आवश्यक हो जाता है । शंका - जिस प्रकार किसी भी वस्तुकी किसी एक 'पूर्व पर्यायके बाद दूसरी कोई उत्तर पर्याय हुआ करती है या एक नक्षत्र के उदयके बाद दूसरे नक्षत्रका उदय हुआ करता है तो जैसा कार्यकारणभाव पूर्व पर्यायका उत्तरपवयिके साथ या एक नक्षत्र के उदयका दूसरे नक्षत्र के उदयके साथ पाया जाता है वैसा ही कार्यकारणभाव पूर्व और उत्तर कालमें उत्पन्न होनेवाले दर्शन और ज्ञानमें भी समझ लेना चाहिए, इसलिए दर्शन और ज्ञानमें कार्यकारणभाव रहते हुए भी दर्शनका ज्ञानोत्पत्तिके समयमें उपस्थित रहना आवश्यक नहीं है ? उत्तर-- पहली बात तो यह है कि दर्शन और ज्ञान ये दोनों एक ही गुणकी पूर्वोत्तरकालत दो पर्यायें नहीं हैं अपितु अलग-अलग दो गुणोंकी अलग-अलग पर्याये हैं, अन्यथा इनके आवारक दर्शनावरण और ज्ञानावरण दोनों कर्मोंका आत्मामें पृथक्-पृथक् अस्तित्व मानना असंगत हो जायगा। दूसरी बात यह है कि वस्तुकी पूर्वपर्याय उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति में अथवा पूर्व नक्षत्रका उदय उत्तर नक्षत्र के उदयमें कारण नहीं होता है । केवल पूर्वपर्याय और उत्तरपर्याय में उत्पत्तिकी अपेक्षा तथा पूर्व नक्षत्र और उत्तर नक्षत्र में उदयकी अपेक्षा जो क्रमपना पाया जाता है वह क्रमपना यहाँ पर कार्यकारणभावका व्यवहार करने मात्र में कारण होता है क्योंकि पूर्व नक्षत्रका उदय उत्तर नक्षत्र के उदयमें कारण नहीं होता है, यह बात तो स्पष्ट है ही, परन्तु वस्तुकी पूर्व पर्याय उत्तरपर्यायकी उत्पत्तिमें कारण नहीं होती है, यह बात भी उतनी ही स्पष्ट समझनी चाहिए । इसका आशय यह है कि पूर्वपर्यायके विनाशके बिना उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति संभव नहीं है, इसलिए पूर्वपर्यायका विनाश ही उत्तर पर्यायकी उत्पत्ति में कारण होता है, पूर्व पर्याय नहीं । यदि कहा जाय कि पूर्व - पर्यायका विनाश ही तो उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति है इसलिए पूर्वपर्यायके विनाशको उत्तरपर्यायको उत्पत्ति में कारण कैसे माना जा सकता है ? इसलिए पूर्वपर्यायको ही उत्तर पर्यायकी उत्पत्ति में कारण मानना उचित है, तो इसका उत्तर यह है कि इस तरहसे पूर्व पर्यायके विनाशको ही उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति स्वीकार कर लेके बाद पूर्वपर्या को अपने विनाशका ही कारण मानना अपने आप अयुक्तिक हो जाता है क्योंकि पूर्वपर्यायका विनाश उसके अपने स्वतंत्र कारणों द्वारा होता है, पूर्वपर्याय उसमें कारण नहीं है, यही मानना उचित है और चूंकि पूर्वपर्यायका विनाश ही उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति है। अतः जो पूर्वपर्यायके विनाशका कारण है उसीको उत्तरपर्यायकी उत्पत्तिमें कारण माना जा सकता है, पूर्व पर्यायको नहीं इस कथनसे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि जो लोग पूर्वपर्यायको उत्तरपर्यायकी उत्पत्तिमें उपादान कारण मानते हैं। उनका यह मानना गलत है क्योंकि उत्तरपर्यायकी तरह पूर्वपर्याय भी कार्यमात्र है, उत्तर पर्यायी वह उपादान नहीं । इन दोनोंका उपादान वह है जिसकी कि ये पर्यायें हैं। लेकिन इस तरह इन दोनोंकी Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्शन और न्याय १७ उत्पत्ति एक साथ इसलिए नहीं होती है कि दोनों पर्यायोंकी उत्पत्तिमें अलग-अलग निमित्तसामग्री अपेक्षित रहा करती है और यह युक्ति संगत भी है क्योंकि उत्तरपर्यायकी उत्पत्तिकी जो निमित्तसामग्री है वह तो पूर्वपर्यायके विनाश में ही निमित्त हो सकती है, उत्पत्तिमें नहीं । इस कथन से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि उपादान और निमित्त दोनों तरहके कारणोंका कार्योत्पत्तिके समय में सद्भाव रहने से ही कार्य उत्पन्न हो सकता है, अन्यथा नहीं, इसलिये जिन ( अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, अवधि, मन:पर्यय और केवल ) ज्ञानोंकी उत्पत्तिमें दर्शन कारण है उनकी उत्पत्तिके समय में अपने-अपने अनुकूल दर्शनका सद्भाव रहना ही चाहिए। शंका- वर्शन और ज्ञानमें कार्यकारणभाव वास्तविक नहीं है, बात सिर्फ इतनी है कि छद्यस्थोंके दर्शन और ज्ञानकी उत्पत्तिमें जो स्वाभाविक क्रमपना राया जाता है उसकी अपेक्षासे इन दोनोंमें कार्यकारणभावका व्यवहार मात्र किया जाता है ? उत्तर- हम पहले कह आये है कि पदार्थके प्रत्यक्षमें पदार्थका दर्शन कारण होता है, आगम में भी दर्शनको ज्ञानमें कारण स्वीकार किया गया है। इसके विपरीत भी यदि दर्शनको ज्ञानमें कारण नहीं माना जायगा, तो फिर आत्मामें ज्ञानगुणसे पृथक् दर्शनगुणका अस्तित्व मानना व्यर्थ हो जायगा, ज्ञानगुणकी ही पूर्व पर्यायका नाम दर्शन और उत्तरपर्यायका नाम ज्ञान मान लेना पर्याप्त होगा। लेकिन जब आत्मामें ज्ञानगुणसे पृथक् दर्शनगुणका अस्तित्व स्वीकार किया गया है और सर्वज्ञमें भी केवलज्ञान के समसमय में केवलदर्शनका सद्भाव भी जब कारणरूप से स्वीकार किया गया है, तो इससे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती हैं। कि दर्शन और ज्ञानमें कार्यकारणभाव वास्तविक है, उपचारसे नहीं । शंका- "यदि छद्मस्थों ( अल्पज्ञों ) के दर्शन और ज्ञानका एकसाथ सद्भाव मान लिया जाता है, तो "छद्मस्थोंके एक साथ दो उपयोग नहीं होते हैं" इस आगमवाक्यकी संगति कैसे होगी ? उत्तर- उपयोग, परिणमन पर्याय, व्यापार या क्रिया ये सब एकार्थबोधक शब्द हैं और यह स्वतःसिद्ध नियम है कि एक गुणके दो परिणमन एक कालमें नहीं होते हैं, बस, इसी आधारपर आगममें यह बात बतलायी गयी है कि छद्यस्थोंके एक साथ दो उपयोग नहीं होते हैं । लेकिन यदि दर्शनगुण और ज्ञानगुण दोनोंका छद्यस्थोंके एकसाथ व्यापार होना अशक्य है तो फिर उनके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र अथवा मिध्यादर्शन, मिध्याज्ञान और मिथ्याचारित्र आदि गुणोंका भी एक साथ व्यापार मानना अयुक्त हो जायगा । यहाँपर इतना विशेष समझ लेना चाहिए कि जिस प्रकार सर्वज्ञकी तरह छयस्थोंके नाना गुणोंके व्यापारोंका एक कालमें सद्‌भाव मानना युक्त है उसी प्रकार छद्मस्थोंकी तरह सर्वज्ञके एक गुणके दो व्यापारों का अभाव मानना भी युक्त है। इसलिये सर्वशको जो सम्पूर्ण पदार्थोंका युगपत् ज्ञान होता रहता है वह भी ज्ञानगुणका एक व्यापार रूप ही होता है। अतः उक्त आगमवाक्यको नियामक न मानकर स्वरूप का प्रतिपादक मात्र समझना चाहिए । शंका छ स्थोंके इन्द्रिय अथवा मनकी सहायता से सहायतासे ही ज्ञान होता है, इसलिए जब इन्द्रिय अथवा मन नहीं हो सकते हैं और जब वे ज्ञानम कारण होते हैं तब दर्शनमें और ज्ञानका एक साथ सद्भाव मानना अयक्त है ? ४-३ दर्शन होता है और इन्द्रिय अथवा मनकी दर्शन में कारण होते है तब वे ज्ञानमें कारण कारण नहीं हो सकते हैं, अतः उनके दर्शन Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य उत्तर-एक ही वस्तु एक साथ भिन्न-भिन्न अनेक कार्योंमें निमित्त देखी जाती है. अतः इन्द्रिय अथवा मनका एक साथ दर्शन और ज्ञानके व्यापारमें निमित्त होना असंभव नहीं है। दूसरी बात यह है कि जब अवधिदर्शन और अवधिज्ञान दोनों ही इन्द्रिय अथवा मनकी सहायताके बिना ही उत्पन्न होते हैं तो उनके एकसाथ उत्पन्न होनेमें कौनसी बाधा रह जाती है। तीसरी बात यह है कि निमित्तोंका सद्भाव रहते हुए प्रत्येक गुणका प्रति समय कुछ न कुछ परिणमन अर्थात् व्यापार होना ही चाहिए अन्यथा उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जायगा, इसलिए भी छद्मस्थोंके दर्शन और ज्ञानके एक साथ उत्पन्न होने में कोई विरोध नहीं रह जाता है और मुख्य बात तो यह है कि जब दर्शन ज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण होता है तथा केवलदर्शन और केवलज्ञान दोनों सर्वज्ञमें एक साथ विद्यमान रहते हैं तो दर्शन और ज्ञान ये दोनों परस्पर विरोधी भी नहीं हैं। शंका-एक तरफ तो निमित्तोंका सद्भाव रहते हुए दर्शन और ज्ञान आदि गुणोंका प्रतिसमय कुछ न कुछ व्यापार होता ही रहता है, ऐसा मान लिया गया है और दूसरी तरफ यह भी कहा गया है कि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और श्रुतज्ञान पदार्थदर्शनके बिना ही उत्पन्न हो जाया करते हैं अर्थात् जिस कालमें ज्ञानगुणका स्मृत्यादिरूप व्यापार होता है उस कालमें दर्शनगुण व्यापारशून्य हो रहता है, तो इन दोनों परस्परविरोधी कथनोंकी संगति कैसे होगी ? । उत्तर-स्मृति आदि ज्ञान पदार्थदर्शनके बिना ही हो जाया करते हैं, यह तो ठीक है, परन्तु वहाँ दर्शन गुण व्यापारशून्य ही बना रहता है अथवा उन स्मृत्यादि ज्ञानोंमें दर्शनगुणके व्यापारका कोई उपयोग ही नहीं हैं, ऐसी बात नहीं समझनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि स्मतिज्ञानमें धारणा ज्ञानको कारण माना गया है । परन्तु हमें धारणाजान रहते हुए भी पदार्थका सर्वदा स्मरण क्यों नहीं होता रहता है ? इसका उत्तर यह है कि धारणा जिस कालमें उबुद्धताका रूप धारण कर लेती है उस कालमें ही स्मति होती है, अन्यकालमें नहीं, और धारणाज्ञानकी यह उबुद्धता नियत आत्मप्रदेशोंका उस धारणज्ञानरूप परिणमनको छोड़कर कुछ भी नहीं है, जिसे पहले दर्शनोपयोग कह आये हैं। इस कथनसे यह सिद्ध होता हैं कि स्मृति आदि ज्ञान भी दर्शनोपयोग अर्थात् दर्शनगुणके व्यापारके अभावमें उत्पन्न नहीं हो सकते हैं अर्थात जिस प्रकार अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों मतिज्ञान तथा अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये सब दर्शनगुणका व्यापार रहते हुए ही उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान ये चारों मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान ये सब भी दर्शनगुणका व्यापार रहते हए ही उत्पन्न होते हैं। लेकिन अवग्रहादि ज्ञानोंमें आत्माके दर्शनगुणका अर्थाकाररूप व्यापार कारण होने की वजहसे जहाँ उन्हें प्रत्यक्ष मान लिया गया है। वहाँ स्मृति आदि ज्ञानोंमें आत्माके दर्शनगुणका अर्थका अभाव रहते हुए धारणा आदि ज्ञानका रूप व्यापार कारण होनेकी वजहसे उन्हें परोक्ष माना गया है । स्मृतिको धारणाज्ञानपूर्वक, प्रत्यभिज्ञानको स्मृति और प्रत्यक्षज्ञानपूर्वक, तर्कको प्रत्यभिज्ञानपूर्वक, अनुमानको तर्कज्ञानपूर्वक और श्रुतज्ञानको शब्दश्रवण या अंगुल्यादिदर्शन तथा इनमें संकेत ग्रहण रूप मतिज्ञानपूर्वक माननेका अभिप्राय यही है कि जिस कालमें आत्माके दर्शनगुणका उस-उस ज्ञानरूप व्यापार होता है उस कालमें वेचे ज्ञान उत्पन्न हो जाया करते हैं । शंका-ईहाज्ञान अवग्रहज्ञानपूर्वक होता है, अवायज्ञान ईहाज्ञानपूर्वक होता है, धारणाज्ञान अवग्रह या अवायपूर्वक होता है और मनःपर्ययज्ञान मानसिक ईहाज्ञानपूर्वक हुआ करता है, इस प्रकार ज्ञानपूर्वक होनेकी वजहसे इन ज्ञानोंको भी परोक्षज्ञान मानना उचित है ? Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्शन और न्याय : १९ उत्तर-ईहा आदि ज्ञान अवग्रहादि ज्ञानपूर्वक होते हैं, इसका आशय इतना ही है कि ईहा आदि ज्ञान अवग्रह आदि ज्ञानोंके उत्पन्न होनेके बाद हुआ करते हैं । परन्तु जिस कालमें ईहा आदि ज्ञान उत्पन्न होते हैं उस कालमें आत्माके दर्शनगुणका अर्थाकाररूप व्यापार ही इनमें कारण होता है, अतः इन सबको प्रत्यक्ष ज्ञानोंकी कोटिमें ग्रहण किया गया है । - शंका-जब कि प्रत्येक जीवमें दर्शन और ज्ञान गुणका कुछ-न-कुछ विकास सर्वदा पाया जाता है तो क्या विग्रहगतिमें भी अल्पज्ञ जीवोंके किसी-न-किसी रूप में पदार्थोंका दर्शन और ज्ञान स्वीकार करना चाहिए या नहीं? उत्तर-विग्रहगतिमें अल्पज्ञ जीवोंके इन्द्रियादि निमित्तोंका अभाव होनेके कारण दर्शन और ज्ञान दोनों गुणोंका कुछ भी व्यापार नहीं होता है, उस समय ये केवल अपने विकसित रूपमें ही अवस्थित रहते हैं। शंका-जिस प्रकार अल्पज्ञ जीवोंके विग्रहगतिमें देखने और जानने रूप योग्यताओंका सद्भाव रहते हुए भी पदार्थोंका देखना और जानना नहीं होता है उसी प्रकार उनके (अल्पज्ञ जीवोंके) देखनेरूप व्यापारके समय जाननेरूप योग्यताका और जाननेरूप व्यपारके समय देखनेरूप योग्यताका व्यापाररहित (लब्धिरूपसे) सद्भाव माननेमें क्या अपत्ति है ? उत्तर-विग्रहगतिमें इन्द्रियादि निमित्तोंका अभाव पाया जानेके कारण ही अल्पज्ञ जीवोंमें देखने और जाननेकी योग्यताएँ लब्धिरूपसे विद्यमान रहती हैं। लेकिन चूंकि पर्याप्त अवस्थामें इन्द्रियादि निमित्तोंका सद्भाव अल्पज्ञ जीवोंके पाया जाता है। अतः उपादान और निमित्त दोनों कारणोंके सद्भावमें दोनों योग्यताओंके व्यापारका अर्थात् दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगका एक ही साथ सद्भाव मानना अनिवार्य हो जाता है । RAIPUR Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शनमें नयवाद इसमें संदेह नहीं कि विश्वके प्राचीनतम सभी दर्शनकारोंमें जैनदर्शनकार विलक्षण प्रतिभाके धनी रहे है। यही कारण है कि जैनदर्शनकारोंने अन्य सभी दर्शनबारोंको अटपटे लगनेवाले अनेकान्तवाद, स्यामा नयवाद और सप्तभंगीवादको अपने अनभवके आधारपर वस्तव्यवस्थाकी सिद्धि के लिये जैनदर्शनमें स्थान दिया है । जैनदर्शनका आलोडन करनेसे यह बात सहज ही जानी जा सकती है कि जबतक उक्त वादोंको स्वीकार नहीं कर लिया जाता तबतक वस्तुव्यवस्था या तो अधूरी रहेगी या फिर गलत होगी। प्रकृत लेखमें हम नयवादका विवेचन करना चाहते हैं। लेकिन नयोंका आधार जैन आगममें चंकि प्रमाणको ही बतलाया गया है, अतः यहाँपर सर्वप्रथम प्रमाणका ही संक्षेपमें दिग्दर्शन कराया जा रहा है। प्रमाण-निर्णय लौकिक तथा दार्शनिक जगत्में वस्तुतत्त्वको समझनेके लिये प्रमाणको स्थान प्राप्त है। जैनदर्शनमें प्रमाणशब्दका जो व्युत्पत्त्यर्थ किया गया है उससे वस्तुतत्त्वकी व्यवस्था में प्रमाणके महत्त्वको सहज ही जाना जा सकता है । यथा'प्रकर्षेण संशयादिव्यवच्छेदेन मीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन तत्प्रमाणम् ।' - परीक्षामुखटीका १-१ अर्थात् जिसके द्वारा वस्तुतत्त्वका संशय, विपर्यय और अनध्यवसायंका निराकरण होकर निर्णय होता है वह प्रमाण है। चूँकि उल्लिखितरूपमें वस्तुतत्त्वका निर्णय ज्ञानके द्वारा ही संभव है । अतः जैनदर्शनमें मुख्यरूपसे ज्ञानको ही प्रमाण स्वीकार किया गया है। यथा'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।' -परीक्षामुख १-१ अर्थात्--अपना और अपनेसे भिन्न पूर्व में अनिर्णीत पदार्थका निर्णयात्मक ज्ञान प्रमाण है । परीक्षामुखसूत्र ग्रन्थ १-२ में ही आगे बतलाया है “हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् ।" अर्थात् चूंकि प्रमाण हितकी प्राप्ति और अहितका परिहार करनेमें समर्थ होता है, अतः ज्ञान ही प्रमाण कहलाने योग्य है । इसका फलितार्थ यह है कि ज्ञान ही एक ऐसी वस्तु है जो हितकी ष्टाप्ति और अहितका परिहार कर सकती है, अतः उपर्युक्त कथनके आधारपर जैनदर्शनमें ज्ञानको ही प्रमाण माना गया है। ज्ञान अप्रमाण भी होता है ऊपर हितकी प्राप्ति और अहितका परिहार करने में ज्ञानको ही समर्थ बतलाया गया है। लेकिन यह बात निर्विवाद है कि सभी ज्ञान हितकी प्राप्ति और अहितका परिहार करनेको सामर्थ्य नहीं रखते हैं। अतः १. स्याद्वादका ही अपर नाम अपेक्षावाद है। इसका उपयोग सीमित दायरेमें अर्वाचीन एवं पाश्चात्य दर्शन कारोंने भी किया है। २. 'नयप्ररूपणप्रभवयोनित्वात् ।' -सर्वार्थसिद्धि १-६ । ३. 'संशय उभयकोटिसंस्पर्शी स्थाणा पुरुषो वेति परामर्शः । विपर्ययः पुनरतस्मिस्तदिति विकल्पः । विशेषा नवधारणमनध्यवसायः।' -प्रमेयरत्नमाला ६-२। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/वर्शन और न्याय : २१ जिन ज्ञानोंमें उक्त सामर्थ्य नहीं पायी जाती है उन ज्ञानोंको अप्रमाण ज्ञान जानना चाहिये। जैनदर्शनमें अप्रप्रमाणका माणाभासनामसे उल्लेख करते हए उसके जो भेद गिनाये गये हैं उनमें ज्ञानविशेषोंका भी समावेश किया गया है । यथा 'अस्वसंविदितगृहीतार्थदर्शनसंशयादयः प्रमाणाभासाः ।' ----परीक्षामुख ६-२ अर्थात् जो अपना संवेदन करने में असमर्थ हो या जो गृहीत अर्थको ग्रहण करनेवाला हो या जो निराकार दर्शनरूप हो और या जो संशय, विपर्यय अथवा अनध्यवसाय स्वरूप हो वे सभी अपने-अपने ढंगसे प्रमाणाभास हैं। ज्ञानके भेद और उनका प्रमाण तथा अप्रमाणरूपमें विभाजन तत्त्वार्थसूत्रमें ज्ञानके पांच भेद गिनाये गये है-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान' । तथा इन पाँचों ज्ञानोंको प्रमाण' कहा गया है और आदिके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान इन तीन ज्ञानोंको प्रमाण के साथ-साथ अप्रमाण भी बतलाया गया है। इस प्रकार पाँच प्रमाणरूप और तीन अप्रमाण रूप कुल मिलाकर ज्ञानके आठ भेद कर दिये गये हैं। ज्ञानोंको प्रमाणता और अप्रमाणताका कारण स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें मोहकर्मका अभाव होनेपर उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दर्शनको ज्ञानकी प्रमाण ताका कारण बतलाया है" और आचार्य पूज्यपादने "मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च" (१-३१) सूत्रकी व्याख्या करते हुए ज्ञानकी अप्रमाणताका कारण मोहकमके उदयमें उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादर्शनको बतलाया है। इस तरह ऐसा समझना चाहिये कि मोहकर्मके उदयका अभाव होनेपर उत्पन्न सम्यग्दर्शनकी स्थितिमें जीवको जो पदार्थज्ञान होता है वह प्रमाण ज्ञान कहलाता है और मोहकर्मके उदयमें उत्पन्न मिथ्यादर्शन की स्थितिमें जीवको जो पदार्थज्ञान होता है वह अप्रमाण ज्ञान कहलाता है। - इस विषयमें हम इतना और स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि जनदर्शनकी मान्यताके अनुसार उपयुक्त पाँच सामान्य ज्ञानोंमेंसे मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान दोनों मोहकर्मके उदयका अभाव होनेपर उत्पन्न सम्यग्दर्शनकी स्थितिमें ही हआ करते हैं। इतना ही नहीं, मनःपर्ययज्ञान तो सम्यग्दर्शनके साथ-साथ जीवमें सकलचारित्रकी उत्पत्ति हो जानेपर तथा केवलज्ञान सकलसंयमसे भी आगे यथाख्यातचारित्रकी उत्पत्ति हो जानेपर ही हआ करता है। इसलिये मनःपर्यय और केवल ये दोनों ज्ञान सतत प्रमाणरूप ही रहा करते हैं। परन्तु मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान जीवमें चूंकि मोहकमके उदयका अभाव होनेपर उत्पन्न सम्यग्दर्शनकी स्थिति में भी होते हैं व मोहकर्मके उदयमें उत्पन्न मिथ्यादर्शनकी स्थितिमें भी होते हैं। अतः ये तीनों ज्ञान सम्यग्दर्शनकी स्थितिमें होनेके आधारपर तो प्रमाणरूप व मिथ्यादर्शनकी स्थितिमें होनेके आधारपर अप्रमाणरूप इस तरह दोनों प्रकारके हआ करते हैं। इससे यह बात भी फलित होती है कि ज्ञान सामान्यके ऊपर बतलाये गये १. मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम । -तत्त्वा०१-९ । २. वही, १-१०। ३. वही, १-३१ । ४. द्रव्यसंग्रह गा० ५। ५. 'मोहतिमरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः ।" -पद्य ४७ का पूर्वार्ध । ६. कुतः पुनरेतेषां विपर्ययः ? मिथ्यादर्शनेन सहकार्थसमवायात् । Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ : सरस्वतीवरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ पाँच भेद ही सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शनकी अपेक्षासे क्रमशः प्रमाणरूप और अप्रमाणरूप होकर ज्ञानकी आठ भेदरूपताको प्राप्त हो जाते है। जिस ज्ञानमें मोहकी प्रेरणा कार्यकर रही हो या जो ज्ञान मोहके आधारपर उत्पन्न राग तथा द्वेषकी संपूर्तिके लिये हो उसे तो मिथ्यादर्शन (अविवेक) की स्थितिमें होनेवाला अप्रमाण ज्ञान. जानना चाहिये और जिस ज्ञानमें मोह की प्रेरणा कार्य न कर रही हो या जो ज्ञान मोहके आधारपर उत्पन्न राग तथा द्वेषकी संपूतिके लिये न हो उसे सम्यग्दर्शन (विवेक) की स्थितिमें उत्पन्न हुआ प्रमाण ज्ञान जानना चाहिये । यहाँपर अभिलषित आवश्यक अथवा अनावश्यक परपदार्थों की प्राप्तिमें और अनभिलषित परपदार्थोके वियोगमें हर्ष करना राग है तथा अनभिलषित परपदार्थों की प्राप्तिमें और अभिलषित आवश्यक अथवा अनावश्यक परपदार्थों के वियोगमें विषाद करना द्वेष है एवं परपदार्थोंमें अहंद्धि या ममबुद्धि करना मोह है। इसी प्रकार परपदार्थों में इष्टबुद्धि या अनिष्टबुद्धि करना मोह है व इस तरह इष्टरूपसे स्वीकृत परपदार्थके प्रति आकृष्ट होकर उसमें प्रीति करने लग जाना राग है तथा अनिष्टरूपसे स्वीकृत परपदार्थके प्रति घृणा व ग्लानिरूप अप्रीति करने लग जाना द्वेष है-ऐसा जानना चाहिये। जैनागममें बतलाया है कि ज्ञानके उल्लिखित पाँच भेदोंमेंसे अन्तके अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीन भेद तो जीवमें पररूप साधनोंकी सहायताके बिना केवल आत्मनिर्भरताके आधारपर ही उत्पन्न होते हैं, लेकिन मतिज्ञान और श्रुतज्ञानको उत्पत्तिमें आत्मबलकी आवश्यकता होनेपर भी दोनोंमेंसे मतिज्ञान तो पररूप स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण इन पाँच इन्द्रियों तथा मन हृदय)की यथावश्यक सहायतासे उत्पन्न होता है व श्रुतज्ञान पररूप मन (मस्तिष्क)की सहायतासे उत्पन्न होता है । इतना बतलानेमें हमारा प्रयोजन यह है कि जब मतिज्ञानका उल्लिखित पाँच इन्द्रियों और मनकी सहायतासे व श्रुतज्ञानका मनकी सहायतासे उत्पन्न होनेका नियम है और चंकि पाँचों इन्द्रियों व मनका सदोष अथवा निर्दोष होना भी सम्भव है तो इसके आधारपर जैनदर्शनकी यह भी मान्यता है कि जिस जीवकी इन्द्रियाँ व मन सदोष हालतमे हों उस जीवमें उनकी सहायतासे उत्पन्न हुआ मतिज्ञान तथा जिस जीवका मन सदोष हालतमें हो उस जीवमें उसको सहायतासे उत्पन्न हुआ श्रतज्ञान दोनों ही अप्रमाणरूप होते हैं। इसी प्रकार जिस जीवकी इन्द्रियाँ व मन निर्दोष हालतमें हों उस जीवमें उनकी सहायतासे उत्पन्न हुआ मतिज्ञान तथा जिस जीवका मन निर्दोष हालतमें हो उस जीवमें उसकी सहायतासे उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान दोनों ही प्रमाणरूप होते हैं। कानोंमें बहरापन आ जाना, आँखोंपर पीलिया रोगका प्रभाव हो जाना या मोतियाविन्दु आदिके कारण दृष्टिका कमजोर हो जाना, नाकमें भी सर्दी-जुकामका हो जाना आदि यथायोग्य निमित्तोंसे इन्द्रियाँ सदोष हो जाती है व जीवमें क्रोधादिकषाय उत्पन्न होनेपर मन सदोष हो जाया करता है। इसी तरह मद्य आदि मादक पदार्थोंका सेवन आदि कारणोंसे भो मन सदोष हो जाया करता है। -समयसारटीका, १. 'यः प्रीतिरू पो रागः""""योऽपीतिरूपो द्वषः......"यस्तत्त्वाप्रतिपत्तिरूपो मोहः ।' __ अमृतचन्द्र , गा० ५०-५५ ।। २. सर्वार्थसिद्धि में 'प्रत्यक्षमन्यत् ।' -१-१२ सूत्रकी व्याख्या । ३. 'तदिन्द्रियानिन्द्रियानमित्तम् ।' -तत्त्वार्थसूत्र १-१४ । ४. 'श्रुतमतिन्द्रियस्य ।' वही, २-११ । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्शन और न्याय : २३ इस तरह उल्लिखित कथनका सार यह है कि सम्यग्दर्शनके सदभावमें ही उत्पन्न होनेका नियम होनेसे मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान तो सतत प्रमाणरूप ही हुआ करते हैं। अवधिज्ञान यदि सम्यग्दर्शनके सद्भावमें उत्पन्न हुआ हो तो प्रमाणरूप होता है और यदि मिथ्यादर्शनके सद्भावमें उत्पन्न हुआ हो तो अप्रमाणरूप होता है । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शनके सद्भावमें उत्पन्न होनेके कारण क्रमशः प्रमाणरूप और अप्रमाण रूप हुआ करते हैं तथा निर्दोष और सदोष इन्द्रिय अथवा मनकी सहायतासे उत्पन्न होनेके कारण भी वे क्रमशः प्रमाण रूप और अप्रमाणरूप हुआ करते हैं । वचन भी प्राणरूप और अप्रमाणरूप होता है : जिस प्रकार उल्लिखित प्रकारसे ज्ञान प्रमाण और अप्रमाणरूप होता है उसी प्रकार वचन भी प्रमाण और अप्रमाणरूप होता है । वचनकी प्रमाणता और अप्रमाण ताका आधार यह है कि वह (वचन) प्रमाणरूप और अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानको उत्पत्तिमें कारण होता है। अर्थात् वक्ताके वचनको सुनकर श्रोताको व लेखकके वचनको पढ़कर पाठकको जो पदार्थज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान कहलाता है । यह श्रुतज्ञान यदि प्रमाणरूप होता है तो इसके निमित्तभूत वचनको भी प्रमाण रूप माना जाता है और वह (श्रुतज्ञान) यदि अप्रमाणरूप होता है तो उसके निमित्तभूत वचनको भी अप्रमाणरूप माना जाता है। वचनकी प्रमाणता और अप्रमाणताका एक अन्य आधार उस (वचन) की उत्पत्तिमें निमित्तभूत पुरुषकी प्रमाणता और अप्रमाणता भी होती है। अर्थात् वचनकी उत्पत्ति वक्ताके बोलनेरूप या लेखकके लिखनेरूप व्यापारसे होती है इसलिये वक्ता या लेखक यदि प्रामाणिक व्यक्ति होता है तो उसके द्वारा क्रमशः बोला गया या लिखा गया वचन भी प्रमाणरूप माना जाता है और वक्ता या लेखक यदि अप्रामाणिक व्यक्ति होता है तो उसके द्वारा क्रमशः बोला गया या लिखा गया वचन भी अप्रमाणरूप माना जाता है। यही कारण है कि वचनकी प्रमाणताको सिद्ध करनेके लिए स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें वचनके साथ 'आप्तोपज्ञ२ विशेषण लगाया है । आप्तका अर्थ प्रामाणिक व्यक्ति होता है-यह बात स्वामी समन्तभद्रके रत्नकरण्डकमें पाये जानेवाले आप्तके लक्षणसे ही प्रकट होती है । यथा ___ आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञ नागमेशिना । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ।।५।। अर्थात जिसके अन्दरसे सर्व प्रकारके दोष निकल गये हों, साथ ही जो सर्वज्ञ और आगमका स्वामी हो वही आप्त कहला सकता है। इन बातोंके अभावमें आप्तता सम्भव नहीं है। स्वामी समन्तभद्र द्वारा बतलाया गया आप्तका उपर्युक्त लक्षण आप्तसामान्यका न होकर आप्तविशेषका अर्थात् सर्वोत्कृष्ट आप्तका ही लक्षण है। इससे यह बात फलित होती है कि ऐसे पुरुष भी आप्त कहे जाने योग्य है जो अल्पज्ञ होकर भी कम-से-कम पूर्वोक्त प्रकारके राग, द्वेष और मोहको नष्ट करके सम्यग्दृष्टि बन गये हों। यही कारण है कि आचार्य अनन्तवीर्यने आप्तका लक्षण निम्न प्रकार किया है __“यो यत्रावञ्चकः स तत्राप्तः ।" -प्रमेयरत्नमा० ३-९९ । 'आप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः ।' -परीक्षामख ३-९९ सूत्रमें प्रमाणरूप श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिमें आप्तवचनको व 'रागद्वषमोहाक्रान्तपुरुषवचनाज्जातमागमाभासम् ।'-परीक्षामुख ६-५१ सूत्रमें अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिमें अनाप्तवचनको कारण माना गया है । २. आप्तोपज्ञमनुल्लध्यमदृष्टेष्टविरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत्सा शास्त्र कापथघट्टनम् ॥९॥ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ अर्थात् जो जिस विषयमें अवञ्चक है यानी धोखा-धड़ी नहीं करता है वह उस विषयमें आप्त कहलाता है। इस तरह जैनदर्शनमें ऐसी ग्रन्थ-रचनाओंको भी प्रमाण माना जाता है जो विद्वान् महर्षियों द्वारा अल्पज्ञ रहते हुए भी परकल्याणभावनासे निरीहवत्तिपूर्वक की गयी हैं तथा लोकव्यवहार में उक्त राग-द्वेष और मोहसे अनाकान्त साधारण अल्पज्ञानीजनोंमें स्वीकृत आप्तता भी अपना कम महत्त्व नहीं रखती है। अर्थात् जनहितकारी उपदेशदाता या ग्रन्थकर्ता महर्षिजन व प्रशस्त लोकव्यवहारमें प्रवृत्त साधारण लौकिकजन अल्पज्ञ रहते हुए भी अपने-अपने दायरेमें आप्त अर्थात् प्रामाणिक माने जाते हैं। रत्नकरण्डकश्रावकाचार और प्रमेयरत्नमालामें आप्तके जो लक्षण बतलाये गये है उनसे ठीक विपरीत लक्षण अनाप्त पुरुषका जानना चाहिये। इसीलिये आचार्य माणिक्यनन्दिने आगामाभास (अप्रमाणरूप श्रुतज्ञान) का लक्षण बतलाते हुए 'रागद्वषमोहाक्रान्तपुरुषवचनाज्जातमागमाभासम् ।' (प० मु० ६-१५ ) में अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिमें निमित्तभूत पुरुषके साथ 'रागद्वेषमोहाक्रान्त' विशेषण लगाया है। इस तरह उपर्युक्त लक्षण वाले आप्तपुरुष द्वारा कहे गये या लिखे गये वचनको प्रमाणरूप और इससे विपरीत उपर्युक्त लक्षणवाले अनाप्तपुरुष द्वारा कहे गये य रीत उपर्यक्त लक्षणवाले अनाप्तपुरुष द्वारा कहे गये या लिखे गये वचनको अप्रमाणरूप जानना चाहिए। ___ इस कथनका अभिप्राय यह है कि या तो प्रमाणरूप और अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण होनेके आधारपर कारणमें कार्यधर्मका आरोप करनेरूप उपचारसे या फिर वचनकी उत्पत्तिमें निमित्तभूत आप्तपुरुष और अनाप्तपुरुषका कार्य होनेके आधारपर कार्य में कारणधर्मका आरोप करनेरूप उपचारसे वचनको यथायोग्य प्रमाण अथवा अप्रमाणरूप मानना चाहिये । जैनागममें वचनको परार्थश्रुत भी कहा गया है जैनागममें प्रमाणके दो भेद स्वीकार किये गये है-एक तो स्वार्थप्रमाण और दूसरा परार्थप्रमाण । साथ ही यह भी स्वीकार किया गया है कि जितना ज्ञानरूप प्रमाण है वह सब स्वार्थप्रमाण कहलाता है और जितना वचनरूप प्रमाण है वह सब परार्थप्रमाण कहलाता है। इस तरह मति, अवधि, मनःपर्यय और केवलरूप जो चार प्रमाण हैं वे अपनी ज्ञानरूपताके कारण स्वार्थप्रमाण ही हैं। लेकिन श्रुतप्रमाण चूंकि ज्ञानात्मक और वचनात्मक दोनों ही प्रकारका होता है, अतः जितना ज्ञानात्मक श्रुतप्रमाण है वह तो स्वार्थप्रमाण और जितना वचनात्मक श्रुत प्रमाण है वह परार्थप्रमाण है। ज्ञानको स्वार्थप्रमाण कहनेका अभिप्राय यह है कि उस ( ज्ञान ) का पदार्थके विषयमें अज्ञाननिवृत्तिरूप फल उस ( ज्ञान ) के आश्रयभूत 'स्व' अर्थात् ज्ञाताको प्राप्त होता है तथा वचनको परार्थप्रमाण कहनेका अभिप्राय यह है कि उसका ( वचनका ) पदार्थके विषयमें अज्ञाननिवृत्तिरूप फल उस ( वचन ) की उत्पत्तिमें निमित्तभूत वक्ता या लेखकसे भिन्न 'पर' अर्थात् श्रोता या पाठकको प्राप्त होता है । जिस प्रकार प्रमाण स्वार्थ और परार्थ के भेदसे दो प्रकारका है उसी प्रकार अप्रमाण भी स्वार्थ और परार्थके भेदसे दो प्रकारका समझ लेना चाहिये । इनमेंसे स्वार्थ अप्रमाणको उसको अपनी ज्ञानरूपताके कारण मिथ्या मतिज्ञान, मिथ्या श्रुतज्ञान और मिथ्या अवधिज्ञान रूपसे तीन प्रकारका तथा परार्थ अप्रमाणको उसकी अपनी वचनरूपताके कारण अनाप्तवचनके रूपमें एक प्रकारका जानना चाहिये। चूंकि मन:पर्ययः और केवल १. 'प्रमाणं द्विविधं स्वार्थ परार्थ च । तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्ण्यम् । श्रुतं पुनः स्वार्थ भवति परार्थं च । ज्ञानात्मक स्वार्थ वचनात्मक परार्थमिति ।'-सर्वार्थसिद्धि १-६ । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / दर्शन और न्याय २५ ये दोनों ज्ञान सर्वदा सम्यक् ही हुआ करते हैं, कभी मिथ्यारूप नहीं होते । अतः इन दोनोंको अप्रमाणताकी कोटिसे बाहर रखा गया है । प्रमाण और अप्रमाणरूप सभी ज्ञानोंमें पदार्थग्रहणकी व्यवस्था प्रमाण और अप्रमाणरूप मतिज्ञान व अवधिज्ञान एवं प्रमाणरूप मन:पर्ययज्ञान उस उस ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न होने के कारण अपने विषयभूत पदार्थको एकदेशरूपमें अखण्ड भावसे ग्रहण करते हैं, प्रमाणरूप केवलज्ञान समस्त ज्ञानावरणकर्मके क्षयसे उत्पन्न होनेके कारण अपने विषयभूत पदार्थको युगपत सर्वदेशरूपमें अखण्ड भावसे ग्रहण करता है । लेकिन प्रमाण और अप्रमाण दोनों ही तरहका श्रुतज्ञान श्रुतज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न होने व उत्पत्तिमें सांग वचनका अवलम्बन आवश्यक रहनेके कारण अपने विषयभूत पदार्थ एक-एक अंशको पृथक् पृथक् कालमें क्रमशः ग्रहण करता हुआ पदार्थको सखण्डभावसे ही ग्रहण किया करता है । इस कथनका तात्पर्य यह है कि यथायोग्य प्रमाण अथवा अप्रमाणरूप मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञानमें अंशमुखेन अखण्ड भावसे पदार्थ गृहीत होता है, प्रमाणरूप केवलज्ञान में सर्वात्मना युगपत् अखण्ड भावसे पदार्थ गृहीत होता है । परन्तु प्रमाण और अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानमें पदार्थोंके एक-एक अंशका क्रमशः ग्रहण होता हुआ पदार्थ के संपूर्ण अंशोंका ग्रहण सखण्डभावसे होता है क्योंकि प्रमाणरूप श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति तो सांश और क्रमवर्ती प्रमाणरूप आप्तवचनसे तथा अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति सांश और क्रमवर्ती अप्रमाणरूप अनाप्तवचनसे हुआ करती है। आगे वचनकी सांशताके विषयमें विचार किया जाता है। वचन सांश होता है अक्षर, शब्द, पद, वाक्य और महावाक्यके भेदसे वचन पांच प्रकारका होता है। वचनके इन पाँचों प्रकारोंमेंसे शब्द अंगभूत निरर्थक अकारादिवर्ण अक्षर कहलाते हैं, अर्थवान् अकारादि अक्षर और दो आदि निरर्थक अक्षरोंका अर्थवान् समुदाय 'शब्द' कहलाता है, अर्थवान् शब्दरूप प्रकृतिका संस्कृत भाषामें 'सुप्' अथवा 'तिङ्' प्रत्यय के साथ संयोग होनेपर पदका निर्माण होता है तथा परस्पर सापेक्ष दो आदि पदों के निरपेक्ष समूहसे 'वाक्य'का एवं परस्परसापेक्ष दो आदि वाक्योंके निरपेक्ष होता है। यद्यपि दो आदि महावाक्योंका भी निरपेक्ष समूह हुआ करता है परन्तु महावाक्योंकि ऐसे समूहको भी 'महावाक्य' शब्दसे ही व्यवहृत किया जाता है। समूहसे 'महावाक्य' का निर्माण १. 'सुप्तिङन्तं पदम्' - अष्टाध्यायी, पाणिनि १-४-१४ । २. पदानां परस्परसापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वाक्यम्।' अष्टशतो, अकलङ्क, अष्टसहस्री पृ० २८५ । ३. ' वाक्योच्चयो महावाक्यम् ।' -- साहित्यदर्पण, परिच्छेद २, श्लोक १ । इस श्लोकके 'वाक्योच्चयः' पदका विश्लेषण इसीकी टीकामें 'योग्यताकांक्षासत्तियुक्तः' किया गया है। इस तरह महावाक्यका इस प्रकार लक्षण होता है-'परस्परसापेक्षाणां वाक्यानां निरपेक्षः समुदायो महावाक्यम् इस लक्षणके आधारपर ही गोम्मटसार जीवकाण्डके श्रुतज्ञानप्रकरण में गिनाये गये श्रुतके भेदोंमेंसे आदिके अक्षर, पद और संघात ( वाक्य ) से आगे जितने भेद हैं वे सब महावाक्य के ही भेद समझना चाहिए। नोट- इस टिप्पणीमें 'संघात' शब्दका अर्थ वाक्य हमने आप्तमीमांसाको कारिका १०३ की अष्टसहस्रीटीकाके आधारपर किया है । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ इस कथनसे यह बात निश्चित होती है कि अक्षर शब्दका, शब्द पदका, पद वाक्यका और वाक्य महावाक्यका यथायोग्य अंश होता है। इसी तरह एक अदि महावाक्य भी दो आदि महावाक्योंके समूहरूप महावाक्यके अंश सिद्ध हो जाते हैं । चूँकि वचनके अक्षर, शब्द, पद, वाक्य और महावाक्यरूप भेद प्रमाणरूप आप्तवचन और अत्रमाणरूप अनाप्तवचन दोनोंमें ही समानरूपसे पाये जाते हैं। अतः प्रमाण रूप आप्तवचन और अप्रमाणरूप अनाप्तवचन दोनों ही समानरूपसे उक्त आधारपर सांश सिद्ध हो जाते हैं। वचनकी सांशता ही श्रुतज्ञानमें सांशता-सिद्धिका कारण है : कोई भी ज्ञान, चाहे वह प्रमाणरूप हो अथवा चाहे अप्रमाणरूप हो, असंख्यात प्रदेशी अखण्ड आत्माके अखण्ड ज्ञानगुणकी अखण्ड पर्याय ही हो सकता है । यही कारण है कि प्रमाण और अप्रमाणरूप मतिज्ञान तथा अवधिज्ञानको व प्रमाणरूप मनःपर्ययज्ञान तथा केवलज्ञानको निरंश मान लिया गया है। यद्यपि इस प्रकारसे तो प्रमाण और अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानको भी निरंश मानना उचित प्रतीत होता है परन्तु प्रमाणरूप मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान एवं अप्रमाणरूप मतिज्ञान और अवधिज्ञानकी अपेक्षा प्रमाणरूप और अप्रमाणरूप दोनों तरहके श्रुतज्ञानमें यह विशेषता पायी जाती है कि इसकी उत्पत्ति पूर्वोक्त प्रकारके सांश वचनके अवलम्बनसे हआ करती है इसलिये प्रमाणरूप और अप्रमाणरूप दोनों हो प्रकारके श्र तज्ञानको सांश मानना ही उचित है। वचनकी सांशतासे ज्ञानमें सांशता-सिद्धिका प्रकार (१) वचनमें वक्ता या लेखकके मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात सांश पदार्थके प्रतिपादनकी क्षमता पायी जाती है। यही कारण है कि वक्ता या लेखक ऐसे पदार्थका प्रतिपादन करनेके लिए वचनका प्रयोग किया करता है। (२) वक्ता या लेखक अपने मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात सांश पदार्थका क्रमशः श्रोता या पाठकको बोध करानेके लिये ही वचनका प्रयोग किया करता है क्योंकि बोले गये वचनको सुनकर श्रोताको तथा लिखे गये वचनको पढ़कर पाठकको क्रमशः वक्ता या लेखकके उल्लिखित प्रकारके पदार्थका बोध हो जाया करता है। . (३) चूंकि ऊपर बतलाये गये प्रकारसे वक्ता या लेखकके मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात सांश पदार्थ वचनका प्रतिपाद्य होता है और इस प्रकारका वचन-प्रतिपाद्य पदार्थ सांश होता है, यह आगे बतलाया जायगा तथा वचन भी सांश होता है, यह बतला ही चुके हैं। अतः वक्ता या लेखक द्वारा प्रयुक्त सांश वचनसे प्रतिपादित उक्त प्रकारके सांश पदार्थका श्रोता या पाठकको बोध भी सांशरूपमें ही होगा। इन कारणोंके बलपर वचनकी सांशताकी सिद्धि होना अयुक्त नहीं है । वचनके प्रयोग और उससे पदार्थ-प्रतिपादनको व्यवस्था ऊपर वचनके जो अक्षर, शब्द, पद, वाक्य और महावाक्यके भेदसे पाँच भेद बतलाये गये हैं उनमेंसे पद, वाक्य और महावाक्यके रूपमें ही वचन प्रयोगार्ह होता है, अक्षर और शब्दके रूपमें नहीं, क्योंकि निरर्थक अक्षर तो हमेशा शब्दके अविभाज्य अंग ही रहा करते हैं, इसलिए उनका प्रयोग स्वतंत्ररूप में न होकर शब्दके अंगरूपमें ही हआ करता है तथा अर्थवान् अक्षर और निरर्थक दो आदि अक्षरोंके समुदायरूप शब्द भी संस्कृत भाषामें तो तभी प्रयुक्त होते हैं जबकि वे यथायोग्य 'सुप्' अथवा 'तिङ्' प्रत्ययसे संयुक्त होकर पदका रूप धारण कर लेते हैं। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्शन और न्याय : २७ इस प्रकार यह निश्चित हो जाता है कि अक्षर और शब्द कभी प्रयोगाह नहीं होते हैं, केवल पद, वाक्य और महावाक्य ही प्रयोगार्ह होते हैं । पद, वाक्य और महावाक्यमेंसे पदको वक्ता या लेखक किसी अनुकूल वाक्यका अवयव मानकर ही प्रयुक्त करता है तथा वाक्य अथवा महावाक्यको वक्ता या लेखक कहीं तो यथायोग्य अनुकूल महावाक्यका अवयव मानकर प्रयुक्त करता है और कहीं आवश्यकतानुसार स्वतंत्ररूपमें प्रयुक्त करता है। वचनसे होनेवाले पदार्थप्रतिपादनकी व्यवस्था यह है कि शब्दके अंगभूत अक्षर तो हमेशा निरर्थक ही रहा करते हैं । स्वतंत्र अक्षर और दो आदि निरर्थक अक्षरोंके समुदायरूप शब्द यद्यपि अर्थवान् होते हैं परन्तु इनका प्रयोग संस्कृत भाषामें तो यथायोग्य सुवन्त अथवा तिङन्त होकर पदका रूप धारण करनेपर ही संभव है। इसलिये शब्दके अंगभूत निरर्थक अक्षरों, अर्थवान स्वतंत्र अक्षरों एवं दो आदि निरर्थक अक्षरोंके समुदायरूप अर्थवान् शब्दोंके विषयमें अर्थप्रतिपादनकी चर्चा करना ही व्यर्थ है। इनके अतिरिक्त वचनके जो पद, वाक्य और महावाक्यरूप भेद है उनका प्रयोग करके ही वक्ता या लेखक अपने मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थका प्रतिपादन कर सकता है। लेकिन इनमेंसे पद हमेशा वक्ता या लेखकके उक्त प्रकारके पदार्थ के अंशका प्रतिपादन करनेमें ही समर्थ रहता है, वह कभी भी पदार्थके प्रतिपादनमें समर्थ नहीं होता। यही कारण है कि वक्ता या लेखक एक तो कभी पदका प्रयोग स्वतंत्ररूपमें करता नहीं है और यदि कदाचित् वह उसका (पदका) प्रयोग स्वतंत्ररूपमें करता भी है तो वहाँपर भी वह उसका वह प्रयोग किसी अनुकूल वाक्यका अवयव मानकर ही करता है । इसलिये ऐसे स्थलपर वक्ता या लेखकके मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थका बोध करनेके लिये यथायोग्य क्षोता या पाठक द्वारा अन्य अनुकूल पदका आक्षेप नियमसे कर लिया जाता है, क्योंकि पदके स्वतंत्र प्रयोगमें जबतक उसे किसी अनुकूल वाक्यका अवयव नहीं मान लिया जाता तब तक उससे वक्ता या लेखकके मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थका पूर्णरूपसे प्रतिपादन होना तो दूर रहा, उससे उक्त पदार्थके अंशका प्रतिपादन होना भी असंभव बात है। इस विषयमें उदाहरण यह है कि कोई वक्ता या लेखक कदाचित् सिर्फ अस्तित्वबोधक 'है' इस क्रियापदका यदि स्वतंत्र प्रयोग करता है तो जबतक इस क्रियापदके साथ बक्ता या लेखक द्वारा अपने अभीष्ट अर्थका प्रतिपादन करनेके लिये घड़ा, कपड़ा, आदमी आदि किसी अनुकूल संज्ञा पदका प्रयोग नहीं किया जायगा अथवा प्रकरण आदिके आधारपर उक्त प्रकारके संज्ञापदका श्रोता या पाठक द्वारा स्वयं आक्षेप नहीं कर लिया जायगा तबतक उस श्रोता या पाठकके मस्तिष्कमें क्या है ? यह प्रश्न चक्कर काटता ही रहेगा। इसी तरह वक्ता या लेखक द्वारा घडा, वस्त्र, आदमी आदि किसी भी संज्ञापदका स्वतंत्र प्रयोग किये जानेपर श्रोता या पाठकके मस्तिष्कमें नियमसे उत्पन्न होनेवाले प्रश्नका समाधान करनेके लिये 'है' इत्यादि क्रियापदके संबन्धमें प्रयोग या आक्षेपकी यही व्यवस्था लागू होती है । इस उदाहरणसे यह समझा जा सकता है कि अन्य अनुकूल पदनिरपेक्ष स्वतंत्र पदका प्रयोग यदि कदाचित् कर भी दिया जाय तो भी वह पद उस हालतमें न तो वक्ता या लेखकके मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थका प्रतिपादन करता है और न उस प्रकारके पदार्थके यथायोग्य किसी अंशका प्रतिपादन करता है लेकिन उसी पदको जब किसी अनुकूल पद या पदोंके साथ जोड़ दिया जाता है तो वाक्यका अवयव बन जानेपर वह तब वक्ता या लेखकके मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थका प्रतिपादन न करता हुआ भी उस पदार्थके अंशका नियमसे प्रतिपादन करने लग जाता है। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ वाक्य और महावाक्य ऐसे वचन है कि जिनसे यथावसर बक्ता या लेखकके मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थका अथवा उसके अंशका प्रतिपादन संभव है। यही कारण है कि वक्ता या लेखक जहाँ जिस वाक्य अथवा महावाक्यसे अपने मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थका प्रतिपादन करना चाहता है वहाँ वह उस वाक्य अथवा महावाक्यका स्वतंत्र रूपमें ही प्रयोग करता है और वक्ता या लेखक जहाँ जिस वाक्य अथवा महावाक्यसे उल्लिखित प्रकारके पदार्थके अंशका प्रतिपादन करना चाहता है वहाँ वह वाक्य या महावाक्यका प्रयोग स्वतंत्र रूपमें न करके किसी अनुकूल महावाक्यके अवयवके रूपमें किया करता है अथवा यों कहिये कि किसी वाक्य अथवा महावाक्यका कहींपर किसी वक्ता या लेखक द्वारा यदि स्वतंत्र प्रयोग किया जाय तो उस वाक्य या महावाक्यसे उस वक्ता या लेखकके मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थका ही प्रतिपादन होगा और यदि इसी वाक्य अथवा महावाक्यका वक्ता या लेखक द्वारा किसी अनु कूल महावाक्यके अवयवके रूपमें प्रयोग किया जाय तो उस वाक्य या महावाक्यसे उस वक्ता या लेखकके उल्लिखित प्रकारके पदार्थके अंशका ही प्रतिपादन होगा। वाक्यका स्वतन्त्र रूपमें प्रयोग करनेके विषयमें उदाहरण यह है कि मान लीजिये-एक व्यक्ति स्वामी है और दूसरा व्यक्ति उसका सेवक है। स्वामी पानी बुलानेरूप पदार्थका मनमें संकल्प करके सेवकको बोलता है-'पानी लाओ ?', सेवक भी इस एक ही वाक्यसे स्वामीके उस मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थको समझकर पानी लानेके लिये चल देता है। इस तरह यहाँपर 'पानी लाओ' यह वाक्य स्वामी के उल्लिखित पदार्थका ही प्रतिपादन कर रहा है तथा 'पानी' और 'लाओ' ये दोनों पद चूंकि 'पानी लाओ' इस वाक्यके अवयव बने हुए हैं अतः ये दोनों पद स्वामीके उल्लिखित प्रकारके पदार्थके एक-एक अंशका प्रतिपादन कर रहे हैं। यदि उक्त दोनों पदोंको उक्त वाक्यसे पृथक् करके स्वतंत्र-स्वतंत्र रूपमें प्रयुक्त कर दिया जाय तो उस हालतमें फिर वे दोनों ही पद न तो स्वामीके उल्लिखित प्रकारके पदार्थका प्रतिपादन करेंगे और न उस पदार्थ के किसी अंशका ही प्रतिपादन कर सकेंगे। स्वतन्त्र रूपसे प्रयुक्त महावाक्य अथवा उसके अवयवोंके रूपमें प्रयुक्त वाक्योंका उदाहरण यह है कि जब स्वामीका मनोगत अभिप्राय रूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थ लोटा ले जाकर पानी लाने रूप हो तो वह अपने इस अभिप्रायरूप पदार्थको सेवकपर प्रकट करनेके लिये 'लोटा ले जाओ और पानी लाओ' इस तरह दो वाक्योंके समूहरूप महावाक्यका प्रयोग करता है। यहाँ पर यह समझा जा सकता है कि 'लोटा ले जाओ' और 'पानी लाओ' ये दोनों वाक्य मिलकर एक महावाक्यका रूप धारण करके ही स्वामीके मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थका प्रतिने पादन कर रहे हैं तथा 'लोटा ले जाओ' और 'पानी लाओ ये दोनों वाक्य जबतक 'लोटा ले जाओ और पान लाओ' इस महावाक्यके अवयव बने हुए है तब तक दोनों ही वाक्य वक्ता या लेखकके उल्लिखित पदार्थके एक एक अंशका प्रतिपादन कर रहे हैं। यदि इन दोनों वाक्योंको इनके समूहरूप उक्त महावाक्यसे पथक करके स्वतंत्र-स्वतंत्र रूपमें प्रयुक्त कर दिया जाय तो उस हालतमें ये दोनों ही वाक्य स्वतंत्र रूपसे स्वामीके मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पृथक-पृथक् दो पदार्थोंका प्रतिपादन करने लगेंगे। उस हालतमें ये दोनों वाक्य न तो स्वामीके उल्लिखित महावाक्यके प्रयोगमें प्रतिज्ञात पदार्थके अंशोंका प्रतिपादन करेंगे और न पदकी तरह पदार्थक प्रतिपादनमें असमर्थ ही रहेंगे । अनेक महावाक्योंके समूहरूप महावाक्य अथवा ऐसे महावाक्य के अवयवोंके रूपमें प्रयुक्त महावाक्योंका उदाहरण यह है कि आचार्य उमास्वामिने अपने मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थ मोक्ष Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ दर्शन और न्याय : २९ मार्ग और उसके विषयभूत सप्ततत्त्वोंका प्रतिपादन करने के लिये तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थरूप एक महावाक्यकी रचना की है तथा उल्लिखित प्रकारके पदार्थके अंशभूत एक विषयका प्रतिपादन करनेके आधारपर उसके दश अध्यायरूप दश अंश बना दिये हैं । इस तरह दश अध्यायरूप दश महावाक्योंका समुदायरूप तत्त्वार्थसूत्रग्रन्थ एक महावाक्य के रूपमें आचार्य श्री उमास्वामिके मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थका प्रतिपादन कर रहा है तथा उसके अंशभूत दशों अध्याय उस पदार्थके एक-एक अंशका प्रतिपादन कर रहे हैं। यदि दूसरा कोई व्यक्ति इन दश अध्यायोंमें वर्णित प्रत्येक अध्यायके विषयको स्वतन्त्ररूपसे पृथक्-पृथक् प्रतिज्ञात करके अलग-अलग दश ग्रन्थोंका निर्माण कर देता है तो उस हालतमें स्वतन्त्ररूपमें निर्मित वे दश ग्रन्थ अपने-अपने विषयका पूर्णरूपसे प्रतिपादन करने लगेंगे। उपयुक्त कथनसे एक बात तो यह स्पष्ट हो जाती है कि प्रयुक्त होने व पदार्थ के प्रतिपादनकी क्षमता पद, वाक्य और महावाक्यमें ही पायी जाती है व दुसरी यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पद, वाक्य और महावाक्यमेंसे पद हमेशा वाक्यका अवयव होकर ही प्रयुक्त होता है और वह हमेशा पदार्थ के अंशका ही प्रतिपादन करता है, शेष वाक्य और महावाक्य दोनों कहीं तो प्रयोक्ताके अभिप्रायके अनुसार स्वतन्त्ररूपमें प्रयुक्त होते हैं और कहीं वे प्रयोक्ताके अभिप्रायके अनुसार ही किसी अनुकूल महावाक्यके अवयवके रूप में भी प्रयुक्त होते हैं । वाक्य और महावाक्य जहाँ स्वतन्त्ररूपमें प्रयुक्त होते है वहाँ तो वे प्रयोक्ताके मनोगत अभिप्रायरूप यानी संकल्पित या प्रतिज्ञात पदार्थका प्रतिपादन करते हैं और जहाँ किसी अनुकूल महावाक्यके अवयवके रूपमें प्रयुक्त होते है वहाँ वे प्रयोक्ताके उल्लिखित प्रकारके पदार्थके अंशोंका ही प्रतिपादन करते है अथवा यों कहिये कि प्रयोक्ताको जहाँ किसी वाक्य अथवा महावाक्यसे उल्लिखित प्रकारके स्वतन्त्र पदार्थका प्रतिपादन करना होता है वहाँ तो वह उनका प्रयोग स्वतन्त्र रूप में अलग-अलग ही करता है और जहाँ इनसे उल्लिखित प्रकारके पदार्थके अंशका प्रतिपादन करना ही प्रयोक्ताका लक्ष्य रहता है वहाँ वह इनका प्रयोग अनुकुल महावाक्यके अवयवके रूप में ही करता है। वचनमें अक्षर, शब्द, पद, वाक्य और महावाक्यका भेद करके जिस सांशताका विवेचन किया गया है वह सांशता जिस प्रकार ऊपर लौकिक वचनोंमें दर्शायी गयी है उसी प्रकार वह सांशता शास्त्रीय वचनोंमें भी दर्शायी जा सकती है । जैसे जैनदर्शनमें वस्तुको नित्य और अनित्य उभय धर्मात्मक माना गया है। इसके विपरीत सांख्यदर्शनमें उसे नित्यधर्मात्मक व बौद्धदर्शनमें उसे अनित्यधर्मात्मक स्वीकार किया गया है। इस तरह जैनदर्शनमें जहाँ भी 'वस्तु नित्य है' यह प्रयोग मिलता है वहाँपर वह 'वस्तु नित्य है और अनित्य है' इस महावाक्यका अवयव ही माना जाता है। यही कारण है कि उस वाक्यका हमेशा यही अर्थ होता है कि वस्तुकी द्रव्यरूपता या गणरूपता नित्य है। इसी प्रकार जैनदर्शनमें जहाँ भी 'वस्तु अनित्य है। यह प्रयोग मिलता है वहाँपर वह भी 'वस्तु नित्य है और अनित्य है' इस महावाक्यका अवयव ही माना जाता है । यही कारण है कि इस वाक्यका हमेशा यही अर्थ होता है कि वस्तुकी पर्यायरूपता अनित्य है। इस तरह जैनदर्शनमें पाये जानेवाले इन दोनों प्रयोगोंसे हमेशा यथायोग्य नित्यानित्यात्मक वस्तुको अंशात्मक नित्यता व अनित्यताका ही प्रतिपादन होता है । इसके विपरोत सांख्य दर्शनमें वस्तुको चूंकि सर्वथा नित्य माना गया है और बौद्धदर्शनमें उसे चूंकि सर्वथा अनित्य माना गया है अतः सांख्य दर्शनका 'वस्तु नित्य है' यह प्रयोग और बौद्ध दर्शनका 'वस्तु अनित्य है' यह प्रयोग एक दूसरे वचनका अवयव न होकर दोनों ही स्वतन्त्र प्रयोग सिद्ध होते हैं। अतः सांख्य और बौद्ध दर्शनोंमें पाये जानेवाले उस-उस प्रयोगसे यथायोग्य पदार्थ के रूपमें ही नित्यता अथवा अनित्यताका प्रतिपादन होता है, पदार्थ के अंशके रूपमें नहीं। ' Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ इस कथनसे एक बात यह भी फलित होती है कि वचनमें अक्षर, शब्द, पद, वाक्य और महावाक्यरूप भेदोंके आधारपर जिस सांशताका प्रतिपादन किया गया है वह सांशता प्रमाणरूप आप्तवचन और अप्रमाणरूप अनाप्तवचन दोनोंमें ही समानरूपसे पायी जाती है। जैनदर्शनमें प्रतिपादित वचनकी यह सांशता ही श्रुत-प्रमाणमें नयोत्पत्तिकी जननी है । आगे इसी विषयपर विचार किया जाता है। नयोंका विकास : इस लेखके प्रारम्भमें हो हम बतला आये है कि नयोंका आधारस्थल प्रमाण होता है। इसके साथ ही जैनागममें स्पष्टरूपसे यह बतलाया गया है कि नय प्रमाणका अंशरूप ही होता है । यथा नाप्रमाणं प्रमाणं वा नयो ज्ञानात्मको मतः । स्यात्प्रमाणैकदेशस्तु सर्शथाप्यविरोधतः ।। -तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक, अ० १, सू० ६, वा० २१ । अर्थात् ज्ञानात्मक नय न तो अप्रमाणरूप होता है और न प्रमाणरूप ही होता है किन्तु प्रमाणका एकदेश (अंश) रूप ही होता है । इससे दो बातें फलित होती है--एक तो यह कि नयव्यवस्था प्रमाणमें ही होती है, अप्रमाणमें नहीं । और दूसरी यह कि नय हमेशा प्रमाणका अंशरूप ही रहा करता है, वह स्वयं कभी पूर्ण रूप नहीं होता। अप्रमाणमें नयव्यवस्था नहीं होती--इसका खुलासा हम आगे करेंगे । अतः इसे छोड़कर यहाँपर हम इस बातका स्पष्टीकरण कर देना चाहते हैं कि नय प्रमाणका अंशरूप ही रहा करता है। तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकमें निम्नलिखित पद्य पाया जाता है-- स्वार्थेकदेशनिर्णीतिलक्षणो हि नयः स्मृतः। --अ० १, सू० ६, वा० ४ । अर्थात् प्रमाणके वियभूत 'स्व' और 'पदार्थके एक देश (अंश)' का जिसके द्वारा निर्णय किया जाय वह नय कहलाता है। इस पद्यमें नयको जो पदार्थके एकदेश (अंश) का ग्राहक प्रतिपादित किया गया है उससे सिद्ध होता है कि नय हमेशा प्रमाणका अंश हो हुआ करता है । सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपादने भी लिखा हैसकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीनः । -तत्त्वा० १-६। अर्थात् पदार्थका पूर्णरूपसे ग्राहक प्रमाण होता है और उसके अंशका ग्राहक नय होता है । इस तरह नय जब प्रमाणका अंश सिद्ध हो जाता है तो इससे एक बात यह भी सिद्ध हो जाती है कि नय-व्यवस्था सांश प्रमाणमें ही होती है, निरंश प्रमाणमें नहीं। इसका कारण भी यह समझना चाहिये कि निरंश ज्ञानमें ज्ञानका अखण्ड भाव रहनेके कारण अंशोंका विभाजन नहीं हो सकता है । इससे प्रमाणके पूर्वोक्त पांच भेदोंमेंसे मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान और केवलज्ञानमें नयव्यवस्थाका अभाव सिद्ध हो जाता है, क्योंकि इन ज्ञानोंमें पदार्थं ग्रहणका अखण्ड भाव ही पाया जाता है और चूँकि श्रुतज्ञानमें पदार्थग्रहणके अंशोंका विभाजन होता है, अतः उसमें नयव्यवस्थाका सद्भाव सिद्ध हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है जैसा कि पूर्व में बतलाया जा चुका है कि मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें उस-उस ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेके कारण यद्यपि पदार्थका ज्ञान सर्वात्मना न होकर अंशमुखेन ही होता है लेकिन वह ज्ञान होता अखण्डभावसे ही है। इसी तरह केवलज्ञाज्ञमें समस्त ज्ञानावरण Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्शन और न्याय : ३१ कर्मके क्षयसे उत्पन्न होनेके कारण पदार्थका ग्रहण यद्यपि सर्वात्मना होता है तो भी वह ज्ञान चूँकि युगपत् सम्पूर्ण अंशोंका एक साथ ही हुआ करता है अतः वह भी अंशोंका भेदरहित अखण्डभावसे ही हुआ करता है । इस प्रकार इन चारों ज्ञानोंमें नयव्यवस्थाकी सिद्धि होना असम्भव बात है। लेकिन श्रुतज्ञानमें इन चारों ज्ञानोंकी अपेक्षा यह विशेषता पायी जाती है कि श्रुतज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमपूर्वक सांशवचन के अवलम्बनसे उत्पन्न होनेके कारण उसमें ( श्रुतज्ञानमें ) पदार्थका ज्ञान अखण्डभावसे न होकर पदार्थ के एक-एक अंशका क्रमशः ज्ञान होता हुआ सम्पूर्ण अंशोंका ज्ञान हो जाया करता है, इसलिये इस ज्ञानमें पदार्थ ग्रहणका सखण्डभाव रहने के कारण नयव्यवस्थाकी सिद्धि हो जाती है । तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक (१-३३-६) में जो नयका लक्षण निर्दिष्ट किया गया है उसमें तो स्पष्टरूपसे कहा गया है कि नयव्यवस्था श्रुतज्ञान में ही होती है । यथा " नीयते गम्यते येन श्रुतार्थांशो नयो हि सः । " अर्थात् जिसके द्वारा श्रुतज्ञानरूप प्रमाणके विषयभूत पदार्थ के अंशका ज्ञान किया जाय वह नय कह लाता है । व्यवस्था श्रुतज्ञानमें ही होती है, मतिज्ञान, अवधिज्ञान और केवलज्ञानमें नहीं होती, इसकी पुष्टि इसी ग्रन्थके निम्नलिखित वार्तिकोंसे भी होती है "मतेरवधितो वापि मनःपर्ययतोऽपि वा । ज्ञातस्यार्थस्य नांशेऽस्ति नयानां वर्तनं ननु ॥ निःशेषदेशकालार्थ गोचरत्व विनिश्चयात् 1 तस्येति भाषितं कैश्चिद्युक्तमेव तथेष्टतः ॥ त्रिकाल गोच राशेषपदार्थांशेषु वृत्तितः । केवलज्ञानमूलत्वमपि तेषां न युज्यते । परोक्षाकारतावृत्तेः स्पष्टत्वात्केवलस्य तु । श्रुतमूला नयाः सिद्धा वक्ष्यमाणाः प्रमाणवत् ॥ इन वार्तिकका अर्थ यह है कि मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानमें नयोंकी प्रवृत्ति नहीं होती है, क्योंकि इन ज्ञानों में निःशेषदेशकालार्थविषयिताका अभाव रहता है । अर्थात् ये तीनों ज्ञान अपने विषयभूत पदार्थको सम्पूर्ण देश और कालकी विशिष्टताके साथ ग्रहण करने में असमर्थ रहते हैं । केवलज्ञान यद्यपि अपने विषयभूत पदार्थको सम्पूर्ण देश और कालकी विशिष्टता के साथ ग्रहण करता है लेकिन उसके (केवलज्ञानके) ग्रहण में स्पष्टता' (प्रत्यक्षाकारता) पायी जाती है जब कि नयोंके ग्रहणमें परोक्षाकारता ही रहा करती है । इस प्रकार नयोंका उद्भव मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञानमें न होकर श्रुतज्ञानमें ही होता है, क्योंकि वह एक तो अपने विषयभूत पदार्थको सम्पूर्ण देश और कालकी विशिष्टता के साथ ग्रहण करता है । दूसरे उसमें परोक्षाकारता पायी जाती है । - त० श्लो० १-६-२४, २५, २६, २७ | इसका तात्पर्य यह है कि प्रमाणमें नयव्यवस्थाकी सिद्धिके लिये दो बाते अपेक्षित हैं- एक तो प्रमाणकी निःशेषदेशकालार्थंविषयिता और और दूसरी परोक्षाकारता । प्रमाणमें नयव्यवस्थाकी सिद्धिहेतु निःशेष १. विशदं प्रत्यक्षम् । - परीक्षामुख २-३ ॥ २. आद्ये परीक्षम् । तत्त्वार्थसू० १ ११ । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-पन्य देशकालार्थ विषयिताके सदभावका प्रयोजन यह है कि जिस प्रमाणमें नयव्यवस्थाकी सिद्धिकी जाय उसके द्वारा पदार्थके सम्पूर्ण अंशोंका विषय होना आवश्यक है । इसका निष्कर्ष यह है कि मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानरूप प्रमाणोंमें क्षायोपशमिकज्ञान होनेके कारण चूँकि निःशेषदेशकालार्थं विषयिताका अभाव रहता है अतः इनमें नयव्यवस्थाकी सिद्धिका विरोध किया गया है। इसी प्रकार प्रमाणमें नयव्यवस्थाकी सिद्धिहेतु परोक्षाकारताका प्रयोजन यह है कि जिस प्रमाणमें नयव्यवस्थाकी सिद्धि की जाय उस प्रमाणके द्वारा पदार्थ के सम्पूर्ण अंशोंका ज्ञान क्रमशः होना आवश्यक है कारण कि पदार्थके सम्पूर्ण अंशोंका ज्ञान प्रमाण द्वारा यदि युगपत् होता है तो उसमें अंशोंका विभाजन होना असम्भव है। इसका निष्कर्ष यह है कि केवलज्ञानमें निःशेषदेशकालार्थविषयिताका सद्भाव रहते हुए भी क्षायिकज्ञान होनेके कारण प्रत्यक्षाकारता आ जानेसे पदार्थ के सम्पूर्ण अंशोंका ज्ञान चूंकि युगपत् अखण्डभावसे ही हुआ करता है । अतः उसमें (केवलज्ञानरूप प्रमाणमें) भी नयव्यवस्थाका अभाव सिद्ध हो जाता है और चकि श्रतज्ञान एक ऐसा प्रमाण है कि जिसमें निःशेषदेशकालार्थविषयिता और परोक्षाकारता दोनों ही बातें पायी जाती है अर्थात् श्रुतज्ञान द्वारा एक तो पदार्थके सम्पूर्ण अंशोंका ज्ञान होता है और दूसरे क्षायोपशमिक व वचनावलम्बी ज्ञान होनेके कारण उसमें (श्रुतज्ञानमें) परोक्षाकारताके आजानेसे पदार्थके उन सम्पूर्ण अंशोंका ज्ञान क्रमशः सखण्डभावसे ही हुआ करता है, अतः उसमें नयव्यवस्थाका सद्भाव सिद्ध हो जाता है। स्वामी समन्तभद्रने श्रतज्ञानको क्रमशः सर्वतत्त्वप्रकाशक स्वीकार किया है। यथा स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च वस्त्वन्यतमं भवेत् ॥ -आप्तमीमांसा, का०, १०५ । स्याद्वाद अर्थात् श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों ही पदार्थको सर्वात्मना ग्रहण करते हैं लेकिन केवलज्ञान जहाँ पदार्थको साक्षात् अर्थात् प्रत्यक्षरूपमें युगपत् अखण्डभावसे ग्रहण करता है वहाँ श्रुतज्ञान उसे असाक्षात् अर्थात परोक्षरूपमें क्रमशः सखण्डभावसे ही ग्रहण करता है। तात्पर्य यह है कि पदार्थका जहाँ सम्पूर्ण ताके साथ ग्रहण होता है वहाँ पदार्थके संपूर्ण अंशोंका ग्रहण होता हुआ भी यदि वह ग्रहण प्रत्यक्षरूपमें होता है तो उसमें पदार्थके वे संपूर्ण अंश युगपत् अखण्डभावसे ही गहीत होते हैं और यदि वह ग्रहण परोक्षरूपमें होता है तो उसमें पदार्थके वे संपूर्ण अंश क्रमसे एक-एक अंशके रूपमें सखण्डभावसे ही गृहीत होते है। __केवलज्ञान और श्रुतज्ञान इन दोनोंके मध्य इतना ही अन्तर है कि केवलज्ञानमें पदार्थके सम्पूर्ण अंशोंका ग्रहण प्रत्यक्षरूपमें होनेके कारण युगपत् अखण्डभावसे ही हुआ करता है और श्रुतज्ञानमें पदार्थके सम्पूर्ण अंशोंका ग्रहण परोक्षरूपमें होनेके कारण क्रमशः संखण्डभावसे ही हुआ करता है । स्वामी समन्तभद्रने कहा है कि-- 'तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते यगपत्सर्वभासनम् । क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् ॥ -आप्तमीमांसा का० १०१ । अर्थात् हे भगवन् आपके मतमें युगपत् सर्वभासनरूप तत्त्वज्ञान अर्थात् केवलज्ञान और स्याद्वादनयसे संस्कृत क्रमसे उत्पन्न होनेवाला सर्वभासनरूप तत्त्वज्ञान अर्थात् श्रुतज्ञान दोनों ही प्रमाणरूप माने गये हैं। इससे केवलज्ञान और श्रुतज्ञानमें उल्लिखित प्रकारका अन्तर स्पष्टरूपसे समझमें आ जा जाता है । इस तरह आगमप्रमाणोंके आधारपर यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि नयव्यवस्था श्रुतज्ञानमें ही होती है। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्शन और न्याय : ३३ श्रुतज्ञानकी निःशेषदेशकालार्थविषयिताका स्पष्टीकरण ऊपर तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १, सूत्र ६ के व्याख्यानस्वरूप तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकके २४ से २७ संख्या तकके वात्तिकोंमें नयव्यवस्थाके लिये उपयोगी ज्ञानकी निःशेषदेशकालार्थविषयिताका कथन किया है। परन्तु उसका रूप ऐसा होना चाहिये कि वह श्रुतज्ञानके साथ-साथ केवलज्ञानमें तो पायी जाती हो, किन्तु मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें न पायी जाती हो । केवलज्ञानमें विद्यमान तत्त्वार्थसूत्रके 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' । (१-२९) सूत्रमें प्रतिपादित निःशेषदेशकालार्थविषयिता ऐसी है कि इसका श्रुतज्ञानमें पाया जाना संभव नहीं है, कारण कि मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानकी तरह श्रुतज्ञान भी तो क्षायोयशमिक ज्ञान है और यही कारण है कि तत्त्वार्थसूत्रके ही 'मतिश्रतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेष' (१-२६) सूत्र द्वारा मतिज्ञानके साथ-साथ श्रुतज्ञानमें भी उसका निषेध कर दिया गया है । तात्पर्य यह है कि जैनदर्शनकी मान्यताके अनुसार विश्वमें अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता लिये हए अनन्त वस्तुएँ विद्यमान हैं व इनमेंसे प्रत्येक वस्तु अपने अन्दर अपने-अपने पृथक् अनन्त धर्मोंको समाये हए है । विश्वकी इस प्रकारकी सभी वस्तुएँ 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' सूत्रके अनुसार अपने-अपने उन अनन्त धर्मोके साथ केवलज्ञानका विषय तो होती हैं परन्तु ‘मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ।' सूवके अनुसार मतिज्ञान व श्रुतज्ञानका विषय नहीं होती हैं। . इससे सिद्ध होता है कि विश्वकी प्रत्येक वस्तुमें जो अनन्तधर्मात्मकता जैनदर्शन द्वारा स्वीकृत की गयी है उसके आधारपर निष्पन्न ज्ञानको निःशेषदेशकालार्थविषयिता श्रुतज्ञानमें स्वीकृत नयव्यवस्थाके लिये उपयोगी नहीं है क्योंकि उपर्युक्त कथनके अनुसार श्रुतज्ञान में उसका अभाव रहता है । इस तरह प्रकृतमें यह प्रश्न होता है कि, उक्त निःशेषदेशकालार्थविषयिताको छोड़कर ऐसी कौनसी ज्ञानकी निःशेषदेशकालार्थविषयिता है जो केवलज्ञानके साथ-साथ श्रतज्ञानमें पायी जाकर नयव्यवस्थाके लिये उपयोगी हो? विचार करनेपर मालूम पड़ता है कि विश्वकी प्रत्येक वस्तु जैनदर्शनकी मान्यतानुसार जिस प्रकार अनन्तधर्मात्मक है उसी प्रकार वह अनेकान्तात्मक भी है । यहाँपर परस्पर विरोधी दो धर्मोंका एक ही साथ एक वस्तुमें पाया जाना उस वस्तुकी अनेकान्तात्मकता है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तुमें जैसे उसके अनन्तधर्म एक साथ रह रहे हैं वैसे ही परस्पर-विरोधी दो धर्म भी रह रहे हैं। तात्पर्य यह है कि वस्तुको अनेकान्तात्मकताके कथनमें जो अनेकान्त शब्द आया है उसमें गभित अनेक शब्दका अर्थ जैनदर्शनमें 'दो' लिया गया है । इसका कारण यह है कि परस्पर विरोधिता दो धर्मोंमें ही संभव हो सकती है, तीन, चार आदि संख्यात, असंख्यात व अनन्तधर्मों में नहीं। और इसका भी कारण यह है कि एक धर्मका प्रतिपक्षी दूसरा एक ही धर्म हो सकता है, दो, तीन, चार आदि धर्म नहीं, क्योंकि एक धर्मका प्रतिपक्षी दूसरा एक धर्म यदि है तो तीसरा एक धर्म उन दोनोंका प्रतिपक्षी कदापि नहीं हो सकता है अर्थात तीसरा एक धर्म यदि प्रथम एक धर्मका प्रतिपक्षी है तो प्रथम एक धर्मके प्रतिपक्षी दूसरे एक धर्मका वह नियमसे सपक्षी हो जायगा, और यदि वह दूसरे एक धर्मका प्रतिपक्षी है तो उस हालतमें वह प्रथम एक धर्मका नियमसे सपक्षी हो जायगा। यही नियम चौथे, पाँचवें आदि संख्यात, असंख्यात और अतन्तधर्मोके विषयमें भी जान लेना चाहिये । इस अभिप्रायसे ही जैनदर्शनमें प्रत्येक वस्तुगत अनन्तधर्मसापेक्ष अनन्त वचनप्रयोगोंके आधारपर सप्तभंगीके विरुद्ध अनन्तभंगीकी प्रसक्तिको परस्परविरोधी यगलधर्मोके आधारपर अनन्त सप्तभंगीके रूपमें इष्ट मान लिया गया है । यथा 'नन्वेकत्र वस्तुन्यनन्तानां धर्माणामभिलापयोग्यानामुपगमादनन्ता एव वचनमार्गाः स्याद्वादिनां Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ : सरस्वतो-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ भवेयुर्न पुनः सप्तैव, वाच्येयत्तात्वाद्वाचकेयत्तायाः । ततो विरुद्धव सप्तभङ्गीति चेत्, न, विधीयमाननिषिध्यमानधर्मविकल्पापेक्षया तदविरोधात्, 'प्रतिपर्यायं सप्तभङ्गी वस्तुनि' इति वचनात् । ततो अनन्ताः सप्तभङ्गयो भवेयुरित्यपि नानिष्टम् ।' -त० श्लोकवा० १-६-५२ अर्थात् शंका पक्ष कहता है कि एक वस्तुमें कथन करने योग्य जब अनन्तधर्म स्वीकार किए गये हैं तो इनका कथन करनेके लिए स्याद्वादियोंके सामने अनन्तसंख्यक वचनमार्गोको प्रसक्ति होती है, केवल सात वचनमार्गोंकी नहीं, क्योंकि जितने वाच्य होते हैं उतने ही वाचक हो सकते है, हीनाधिक नहीं, अतः सप्तभंगीको मान्यता असंगत है। , उत्तर पक्ष यह है कि सप्तभंगीकी मान्यता विधीयमान और निषिध्यमान यगलधर्मोके विकल्पोंके आधारपर जैनदर्शनमें स्वीकृत की गयो है, अनन्तधर्मों के विकल्पोंके आधारपर नहीं, कारण कि 'प्रत्येक पर्यायमें सप्तभंगी सिद्ध होती है' ऐसा आगमका निर्देश है। इस तरह प्रत्येक वस्तुमें विद्यमान अनन्त धर्मों से प्रत्येक धर्ममें विधीयमान और निषिध्यमान धर्मयुगलकी स्वीकृतिके आधारपर सप्तभंगीको स्थान प्राप्त हो जानेसे अनन्तभंगीके बजाय अनन्त सप्तभंगीकी स्वीकृति हम स्याद्वादियोंके लिये अनिष्ट नहीं है। वस्तुका अनन्तधर्मात्मक होना एक बात है और उसका अनेकान्तात्मक होना दूसरी बात है । इन दोनोंमेंसे जैनेतर दर्शनकारोंके लिये वस्तुको अनन्तधर्मात्मक माननेमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती है क्योंकि पृथ्वीमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श चतुष्टयको वे भी एक साथ स्वीकार करते हैं। परन्तु वे ( जैनेतर दर्शन) वस्तुको अनेकान्तात्मक स्वीकार करने में हिचकिचाते हैं। इसके विपरीत जैनदर्शनकारोंने वस्तुको अनन्तधर्मात्मक और अनेकान्तात्मक उभयरूप स्वीकार किया है। उपर्युक्त प्रकारके अनेकान्तकी स्वीकृतिके आधारपर ही जैनदर्शनको अनेकान्तवादी दर्शन कहा जाता है। और उसकी अस्वीकृतिके आधारपर ही जैनेतर दर्शनोंको एकान्तवादी दर्शन कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि परस्पर-अविरोधी अनन्तधर्मोको सत्ता एक साथ ही वस्तुमें जैन और जैनेतर दोनों दर्शनोंमें स्वीकार की गयी है । परन्तु परस्पर विरोधो दो धर्मोकी सत्ता एक साथ एक ही वस्तुमें जैनदर्शन तो स्वीकार करता है किन्तु जैनेतर दर्शन नहीं स्वीकार करते हैं। जनेतर दर्शनोंमेंसे कोई दर्शन परस्पर विरोधी दो धर्मों में यदि एक धर्मको स्वीकार करता है तो द्वितीय धर्मका वह निषेधक हो जाता है और कोई जैनेतर दर्शन यदि द्वितीय धर्मको स्वीकार करता तो प्रथम धर्मका वह निषेधक हो जाता है । जैसे सांख्य दर्शन बतलाता है कि 'वस्तु नित्य है' और बौद्धदर्शन बतलाता है कि 'वस्तु अनित्य है।' परन्तु जैनदर्शन प्रतिपादन करता है कि 'वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी है ।' अनेकान्तके अंगभूत परस्पर विरोधी धर्मयुगलके प्रत्येक वस्तुमें अनन्त विकल्प समाये हुए हैं। उनमेंसे अनेकान्तका स्वरूप प्रदर्शित करनेके लिए आचार्य श्री अमृतचन्द्रने समयसारके स्याद्वादाधिकार प्रकरणमें कतिपय परस्पर-विरोधी धर्मयुगलोंकी गणना भी की है । यथा ___'यदेव तत् तदेवातत्, यदेवैकं तदेवानेकम्, यदेव सत् तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः ।' अर्थात् जो ही वह है वही वह नहीं है, जो ही एक है वही एक नहीं है अर्थात् अनेक है, जो ही सत् है वही सत् नहीं है अर्थात् असत् है और जो ही नित्य है वही नित्य नहीं है अर्थात् अनित्य है--इस प्रकार एक वस्तुके वस्तुत्व ( स्वरूप) की निष्पादक परस्परविरुद्धशक्तिद्वयका प्रकाशन करना ही अनेकान्त है । इसका आशय यह है कि विश्वकी अनन्तानन्त वस्तुओंमेंसे प्रत्येक वस्तु अपनी-अपनी पृथक्-पृथक द्रव्यरूपता (प्रदेशवत्ता ), गुणरूपता ( स्वभाववत्ता ) और पर्यायरूपता (परिणमनवत्ता ) को लिये हुए ही Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / वर्शन और न्याय : ३५ अस्तित्त्वको प्राप्त हो रही है । आचार्य श्री कुन्दकुन्दने प्रवचनसारके ज्ञेयाधिकारकी गाथा-संख्या १ के द्वारा वही बात बतलायी है। यथा-- 'अत्थो खलु दव्वमयो दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि । तेहिं पुणो पज्जाया--' अर्थात् अर्थ यानी पदार्थ ( वस्तु ) द्रव्यरूपताको लिए हुए हैं, द्रव्य गुणात्मक होता है और द्रव्य तथा गुण दोनोंमें पर्यायरूपता भी पायी जाती है । तात्पर्य वह है कि प्रत्येक वस्तुकी अपनी-अपनी पृथक्-पृथक् आकृति ( प्रदेशरचना ) उपलब्ध होती है. यही उसकी द्रव्यरूपता है। इसी तरह प्रत्येक वस्तुकी अपनी-अपनी उक्त प्रकारकी द्रव्यरूपताके आधारपर अपनी पृथक-पृथक् प्रकृति (स्वभावशक्ति) हुआ करती है-यही उसकी गुणरूपता है और इसी तरह प्रत्येक वस्तूकी अपनी-अपनी उक्त प्रकारको द्रव्यरूपता और गुणरूपताके अनुरूप अपनी-अपनी पृथक्-पृथक विकृति अर्थात् परिणति भी देखी जाती है । यह उसकी पर्यायरूपता है। प्रत्येक वस्तुकी अपनी-आनी उक्त आकृतिरूप द्रव्यरूपता और प्रकृतिरूप गुणरूपता दोनों ही शाश्वत (स्थायी ) हैं तथा विकृतिरूप पर्यायरूपता समय, आवली, मुहर्त, घड़ी, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, वर्ष आदिके रूपमें विभक्त होकर अशाश्वत (अस्थायी) है। जैनदर्शनमें इन्हीं तीन बातोंके आधारपर प्रत्येक वस्तुको उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यवाली' माना गया है । अर्थात् प्रत्येक वस्तुमें द्रव्यपर्यायों और गुणपर्यायोंके रूपमें उत्पाद तथा व्यय एवं द्रव्यत्व तथा गुणत्वके रूपमें ध्रौव्यका सद्भाव जैनदर्शनद्वारा स्वीकार किया गया है । प्रत्येक वस्तुकी उक्त प्रकारकी द्रव्यरूपता और पर्यायरूपता प्रतिनियत है। अर्थात् एक वस्तुकी जो आकृति, प्रकृति और विकृति है वह कदापि दूसरी वस्तुकी नहीं हो सकती है । अतः इस स्थितिके आधारपर ही जनदर्शन में यह सिद्धान्त मान्य किया गया है कि 'जो ही वह है वही वह नहीं है।' इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि एक वस्तु कभी दूसरी वस्तु नहीं बन सकती है। यानी जीव पुद्गल आदि अन्य वस्तु नहीं बन सकता है, वह हमेशा जीव ही रहता है और यहाँतक कि एक जीव कभी दूसरे जीवरूप भी परिणत नहीं हो सकता है । इस सिद्धान्तके अनुसार ही विश्वमें विद्यमान वस्तुओंकी नियत परिमाणमें अनन्तानन्त संख्या निश्चित की गयी है। ऊपर किये गये कथनके आधारपर प्रत्येक वस्तुके निम्न प्रकारसे तीन विकल्प-युगलोंके रूपमें अंश-भेद निर्धारित होते है-(१) एक द्रव्य उसके गुणोंके रूपमें, (२) द्रव्य और उसकी पर्यायोंके रूपमें और (३) गण और उसकी पर्यायोंके रूपमें । इन सभी विकल्प-युगलोंपर जब ध्यान दिया जाता है तो समझमें आ जाता है १. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ।'-तत्वार्थसूत्र ५-३० । २. णवि परिणमइ ण गिह्वइ उप्पज्जइ ण परदव्वपज्जाए। णाणी जाणतो विहु पुग्गलकम्णं अणेयविहं ॥६६॥ समयसारकी इस गाथाको आदि देकर ७७, ७८ और ७९ संख्यांक गाथाओंमें आचार्य श्री कुन्दकुन्दने जो भी विवेचन किया है वह 'जो ही वह है वही वह नहीं है। इस सिद्धान्तके आधारपर ही किया है। ततः सर्वत्रापि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवद्रव्यात्मनि लोके ये यावन्तः केचनाप्यस्तेि सर्व एव स्वकीयद्रव्यान्तर्मग्नानन्तस्वधर्मचक्रचुंबिनोपि परस्परमचुम्बिनोऽत्यन्तप्रत्यासत्तावपि नित्यमेव स्वरूपादपतंतः पररूपेणापरिणमनादविनष्टानन्तव्यक्तित्वा,कोत्कीर्णा इव तिष्ठन्तः।' आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा समयसार गाथा २ पर किया गया यह व्याख्यान इसी मान्यतापर आधारित है। Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ कि प्रत्येक द्रव्यमें अनेक गण विद्यमान रहते है तथा प्रत्येक द्रव्य व प्रत्येक द्रव्य के प्रत्येक गुण की क्रमवर्ती अनेक पर्यायें हुआ करती है। इस आधारपर ही जैनदर्शनमें यह सिद्धान्त स्थिर किया गया है कि 'जो ही एक है वही एक नहीं है अर्थात् अनेक है।' प्रत्येक वस्तुकी सत्ताका निर्णय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव (अवस्था) के आधार ही हुआ करता है । इनमेंसे द्रव्यके आधारपर वस्तुकी सत्ताका निर्णय इस प्रकार होता है कि प्रत्येक वस्तुके अपने-अपने जो और जितने प्रदेश है वह उन्हीं और उतने प्रदेशोंके रूपमें सत् है, उन प्रदेशोंसे भिन्न अन्य प्रदेशोंके रूपमें वह सत् नहीं है अर्थात् असत् है । क्षेत्रके आधारपर वस्तुकी सत्ताका निर्णय इस प्रकार होता है कि जो वस्तु आकाशके जिन और जितने प्रदेशोंपर स्थित है वह आकाशके उन और उतने ही प्रदेशोंपर सत है, उन प्रदेशोंसे भिन्न आकाशके अन्य प्रदेशोंपर वह सत नहीं है अर्थात असत है। कालद्रव्यके आधारपर वस्तकी सत्ताका निर्णय इस प्रकार है कि जिन और जितने कालाणुओंसे वस्तु संबद्ध है वह उन और उतने कालाणुओंपर सत् है, उन कालाणुओंसे भिन्न अन्य कालाणुओंपर सत् नहीं है अर्थात् असत् है । व्यवहारकालके आधारपर भी जिस समय वस्तु विद्यमान है वह उस समय सत् है, अन्य कालमें वह असत् है। इसी तरह भावके आधारपर भी वस्तुकी सत्ताका निर्णय इस प्रकार होता है कि कोई भी वस्तु अपनी जिस अवस्थामें विद्यमान है वह उसी अवस्थामें सत् है, उससे भिन्न अन्य अवस्थामें वह सत् नहीं है अर्थात . आचार्य श्री अमतचन्द्रने अनेकान्तका लक्षण बतलाते हए उल्लिखित विकल्पोंके साथ एक चौथा विकल्प यह भी बतलाया है कि जो ही नित्य है वही नित्य नहीं है अर्थात् अनित्य है। इसका स्पष्टोकरण यह है कि प्रत्येक वस्तु पूर्वोक्त प्रकारसे उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सहित है क्योंकि वह द्रव्यरूपता, गुणरूपता और पर्यायरूपताको धारण किये हुये है। वस्तुका जहाँ तक द्रव्यरूपता और गुणरूपतासे सम्बन्ध है वहाँ तक तो वह ध्रौव्यरूप है और जहाँ तक उसका पर्यायरूपतासे सम्बन्ध है वहाँ तक वह उत्पाद और व्ययरूप है। इनमेंसे ध्रौव्य वस्तुकी नित्यताका चिह्न है और उत्पाद तथा व्यय उसकी अनित्यताके चिह्न है । जिस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्रने वस्तुतत्त्वको अनेकान्तात्मक सिद्ध करते हए उस अनेकान्तके तत्अतत्, एक-अनेक, सत्-असत् और नित्य-अनित्य ये चार विकल्प-युगल बतलाते हैं उसी प्रकार उन्होंने समयसारकी गाथा १४२ की टीकामें आत्म-तत्त्वका अवलम्बन लेकर बद्ध-अबद्ध, मोही-अमोही, रागी-अरागी, द्वेषी-अद्वेषी आदि विविध प्रकारके और भी विकल्प-युगलोंका प्रतिपादन किया है। इस तरह हम देखते है कि विश्वकी प्रत्येक वस्तु अनेक प्रकारसे परस्परविरोधी दो धर्मोंका आश्रय सिद्ध होती हुई अनेकान्तत्मक सिद्ध होती है। इसका केवलज्ञानद्वारा सर्वात्मना ग्रहण युगपत् अखण्डभावसे ही हुआ करता है । अतः इस अपेक्षासे केवलज्ञानमें निःशेषदेशकालार्थविषयिताका सद्भाव सिद्ध होता है। व श्रुतज्ञानद्वारा परस्पर-विरोधी उक्त दोनों अंशोंमेंसे एक-एक अंशका क्रमसे ग्रहण होता हुआ सर्वात्मना ग्रहण सखण्ड भावसे हुआ करता है। अतः श्रुतज्ञानमें भी निःशेषदेशकालार्थविषयिताका सद्भाव सिद्ध होता है। लेकिन मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके द्वारा इस अनेकान्तत्मक वस्तुका न तो युगपत् अखण्ड भावसे सर्वात्मना ग्रहण होता है और न क्रमशः सखण्डभावसे सर्वात्मना ग्रहण होता है । प्रत्युत अंशमुखन सामान्यतया वस्तुका ही ग्रहण होता है। अतः इन तीनों ज्ञानोंमें उक्त प्रकारको निःशेषदेशकालार्थ विषयिताका अभाव सिद्ध हो जाता है। वस्तकी परस्पर-विरोधी धर्मद्वयात्मकतारूप अनेकान्तात्मकता उस (वस्तु) की पूर्णता है। उस वस्तुका इस तरहकी पूर्णताके साथ ग्रहण होना प्रमाणरूप है तथा अंशरूपसे ग्रहग होना नयरूप है। मतिज्ञान अवधिज्ञान और मनःपर्ययमानमें वस्तुका ग्रहण यद्यपि अंशरूपसे ही होता है परन्तु वह ग्रहण अंशरूपमें विभाजित Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्शन और न्याय : ३७ नहीं हो पाता है क्योंकि उस ग्रहण में अंशमुखेन वस्तुका ही ग्रहण होता है, वस्तुके अंशका नहीं। जैसे चक्षुरिन्द्रिय द्वारा रूपमुखसे रूपवान् वस्तुका ही ग्रहण होता है, वस्तुके एक अंशके रूपमें रूपका ग्रहण नहीं होता यही कारण है कि अंशमुखेन वस्तुका ग्रहण होता हुआ भी वस्तुके अंशका अंशरूप से ग्रहण न होनेसे मतिज्ञान निरंश प्रमाण ही मानने योग्य है। यही बात क्षायोपशमिकज्ञानरूप अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानके विषय में भी समझ लेना चाहिये इस तरह ये तीनों ज्ञान कभी नयरूपताको प्राप्त नहीं होते हैं केवलज्ञान में वस्तुका ग्रहण सर्वात्मना होता है, इसलिये उसकी प्रमाणरूपता निर्विवाद है। लेकिन उसमें वस्तु के सम्पूर्ण अंश युगपत् गृहीत होनेके कारण पृथक-पृथक रूपमें गृहीत नहीं होते, इसलिये उसमें भी नयरूपताका अभाव सिद्ध हो जाता है | श्रुतज्ञानमें प्रमाणरूपता इसलिये सिद्ध होती है कि उसमें उल्लिखित अनेकान्तरूप पूर्ण वस्तुका ग्रहण होता है लेकिन चूँकि श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति पूर्वोक्त प्रकारसे सांश वचनके आधारपर हुआ करती है । अतः जिस वचन अंशी (पूर्ण) रूप वस्तुका ग्रहण होता है उसे तो प्रमाणरूप सांश वचन जानना चाहिये और जिस वचनसे अंशरूप वस्तुका ग्रहण होता है उसे नयरूप अंशात्मक वचन जानना चाहिये । तथा इस तरहके प्रमाणरूप और नयरूप वचनोंके आधारपर उत्पन्न होनेवाले श्रुतरूप ज्ञानको भी क्रमशः प्रमाणरूप और नयरूप जानना चाहिये । अप्रमाण रूप श्रुतज्ञानमें नयव्यवस्थाका निषेध क्यों ? पूर्व में यह बात स्पष्ट की जा चुकी है कि जिस प्रकार सांश वचनके आधारपर उत्पन्न होनेके कारण प्रमाणरूप श्रुतज्ञान में सांशता सिद्ध होती है उसी प्रकार सांश वचनके आधारपर उत्पन्न होनेके कारण अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानमें भी सांशता सिद्ध होती है। इसलिये जिस प्रकार प्रमाणरूप श्रुतज्ञानमें नयव्यवस्थाका सद्भाव सिद्ध होता है उसी प्रकार अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानमें भी नयव्यवस्थाका सद्भाव सिद्ध होने का प्रसंग उपस्थित होता है, लेकिन आगमप्रमाणके आधारपर पूर्वमें यह बतलाया जा चुका है कि अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानमें नयव्यवस्था नहीं होती है। इससे सहज ही यह निष्कर्ष निकल आता है कि सांशवचनके आधारपर उत्पन्न होनेकी समानता रहते हुए भी अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानकी अपेक्षा प्रमाणरूप श्रुतज्ञानमें ऐसी विशेषता पायी जाती है जो उसमें नयव्यवस्थाका कारण बन जाती है और चूंकि वह विशेषता अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानमें नहीं पायी जाती है, अतः उसमें नयव्यस्थाका निषेध संगत हो जाता है । वह विशेषता यह है कि पूर्वोक्त प्रकारसे प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक ही सिद्ध होती है अर्थात् प्रत्येक वस्तुमें विद्यमान उसके अपने अनन्तधर्मोमेंसे प्रत्येक धर्म उस वस्तुमें अपने विरोधी धर्मके साथ ही रह रहा है । जैसे पटरूप वस्तुमें जिस प्रकार घटत्वधर्मका सद्भाव पाया जाता है उसी प्रकार उसमें घटत्वधर्मके विरोधी पटत्व आदि धर्मोंका अभाव भी पाया जाता है । यही कारण है कि हमें घटरूप वस्तुमें जिस प्रकार घटरूपताका ज्ञान होता है उसी प्रकार उसमें पटादिरूपताके अभावका ज्ञान होना भी स्वाभाविक हैं । अब जैसा घटरूप वस्तुमें घटरूपताके सद्भाव और पटादिरूपता के अभावका ज्ञान हमें होता है वैसा ज्ञान उस घटरूप वस्तुमें हम यदि दूसरे व्यक्तिको कराना चाहें तो इसके लिए हमें तदनुकूल वचनको या तो मुखसे उच्चरित करना होगा या फिर उसे हस्तसे लिपिबद्ध करना होगा, तब कहीं जाकर दूसरा व्यक्ति उच्चरित वचनको तो सुनकर व लिपिबद्ध वचनको पढ़कर ही घटरूप वस्तुके विषय में हमारा पूर्ण अभिप्राय जान सकेगा । चूंकि यह बात निर्विवाद है कि प्रत्येक वचन शब्दकोष, शब्दव्युत्पत्ति अथवा शब्दपरिभाषा आदिका अवलम्बन लेकर प्रतिनियत अर्थका ही प्रतिपादक होता है। इसलिये जब हम 'यह घट है' यह वाक्य बोलते हैं तो इससे लक्षित वस्तु में घटरूपताका प्रतिपादन तो हो जाता है परन्तु इससे उस वस्तुमें पटादिरूपताके अभावका प्रतिपादन कदापि नहीं हो पाता है । अतः लक्षित वस्तुमें घटरूपताके सद्भाव के साथ पटादिरूपताके अभावका प्रतिपादन Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ करनेके लिये 'यह घट है' इस वाक्यके साथ ‘पटादि नहीं है' इस वाक्यका भी प्रयोग करना होगा, तब जाकर ही वचनके श्रोता या पाठकको वह लक्षित वस्तु घटरूपताको लिए हुए है व पटादिरूपताको लिये हुए नहीं हैऐसा पूर्णता लिये हुए वस्तुका बोध होगा । इस तरह 'यह घट है' यह वाक्य और 'पटादि नहीं है' यह वाक्य दोनों ही 'यह घट है पटादि नहीं है' इस महावाक्यके अवयव हो जानेपर वस्तुका सही रूपमें प्रतिपादन करते हुए श्रोता या पाठकको उस वस्तुतत्वका सही रूपमें बोध करा सकते हैं। __ यहाँ पर समझनेकी बात यह है कि 'यह घट है पटादि नहीं है' यह महावाक्य वस्तुत्त्वका पूर्णरूपसे प्रतिपादक होने व श्रोता या पाठकको उस वस्तुतत्त्वका पूर्णताके साथ ज्ञान कराने में समर्थ होनेके कारण प्रमाणवाक्य है तथा इस महावाक्यके अवयभूत 'यह घट है' और 'पटादि नहीं है। ये दोनों वाक्य नयवाक्य है व इन दोनों वाक्योंके समूहरूप 'यह घट है पटादि नहीं है' इस महावाक्यके जरिये श्रोता या पाठकको होनेवाला वस्तुतत्त्वका पूर्णता लिये हुए ज्ञान प्रमाणज्ञान है व इस महावाक्यके अवयभूत 'यह घट है' और 'पटादि नहीं है' इन दोनों वाक्योंसे श्रोता या पाठकको होनेवाला वस्तुतत्त्वके एक-एक अंशका ज्ञान नयज्ञान है। यही बात 'वस्तु नित्य है और नित्य नहीं है अर्थात् अनित्य है' इस महावाक्य तथा इसके अवयवभूत 'वस्तु नित्य है' और वस्तु नित्य नहीं है अर्थात् अनित्य है' इन वाक्योंके विषयमें भी जान लेना चाहिये । अब देखना यह है कि अप्रमाणज्ञानमें नयव्यवस्था क्यों नहीं होती ? तो इसपर ध्यान देनेसे मालूम पड़ता है कि जितनी भी एकान्तवादकी मान्यतायें हैं उनमें जिस एक धर्मको जिस वस्तुमें स्वीकार किया गया है उस वस्तु में उस धर्मके साथ उस धर्मके विरोधी धर्मको जैसा जैनदर्शनमें स्वीकार किया गया है वैसा उन मान्यताओंमें स्वीकार नहीं किया गया है । जैसे जैनदर्शन कहता है कि जब वस्तुमें पूर्वोक्त प्रकारसे आकृति, प्रकृति और विकृतिके रूपमें क्रमशः द्रव्यरूपता, गुणरूपता और पर्यायरूपता पायी जाती है तो फिर यह मानना भी आवश्यक हो जाता है कि वस्तूकी द्रव्यरूपता और गुणरूपता तो शाश्वत होनेसे नित्य है तथा उसकी पर्यायरूपता अशाश्वत होनेसे अनित्य है । लेकिन वस्तुतत्त्वकी यह स्थिति सही होते हुए भी जो दर्शन वस्तुको नित्य मानता है वह उसे अनित्य माननेके लिये तैयार नहीं है और जो दर्शन वस्तुको अनित्य मानता है वह उसे नित्य माननेके लिये तैयार नहीं है इसलिये ये दोनों ही एकान्तवादी दर्शन अपने-अपने अभिप्रायके अनुसार 'वस्तू नित्य है' या 'वस्तु अनित्य है' इन दो वाक्योंमेंसे एक ही वाक्यसे वस्तुका पूर्णरूपसे प्रतिपादन कर देना चाहते हैं। लेकिन वास्तवमें बात यह है कि जैसा नित्यरूप या अनित्यरूप वस्तुको वे मानते हैं वैसा उस वस्तुका पूर्णरूप न होकर अंशमात्र सिद्ध होता है । अतः 'वस्तु नित्य है' और 'वस्तु अनित्य है' ये दोनों वाक्य पृथक्-पृथक् रहकर चूंकि वस्तुका पूर्णरूपसे प्रतिपादन कर नहीं सकते हैं, इसलिये तो इन्हें प्रमाणवाक्य नहीं कहा जा सकता है और वे एकान्तवादी दर्शन इन वाक्योंको वस्तूके अंशके प्रतिपादक माननेको तैयार नहीं है। इसलिये इन्हें नयवाक्य भी नहीं कहा जा सकता है। इस तरह ये दोनों ही बाक्य प्रमाण-वाक्य तथा नय-वाक्यकी कोटिसे निकल कर अप्रमाण या प्रमाणासभाकी कोटिमें ही गभित होते हैं । इन्हें नयाभास इसलिये नहीं कहा जा सकता है कि एक नयके विषयको दूसरे नयके विषयरूपमें स्वीकार करना या कथन करना ही नयाभासका लक्षण है जो यहाँ पर घटित नहीं होता है । तात्पर्य यह है कि 'वस्तु नित्य है' इस वाक्यका अभिप्राय यह होता है कि वस्तुकी द्रव्यरूपता या गुणरूपता नित्य है और 'वस्तु अनित्य है' इस वाक्यका अभिप्राय यह होता है कि वस्तुकी पर्यायरूपता अनित्य है । अब यदि कोई व्यक्ति वस्तुकी द्रव्यरूपता या गुणरूपताको अनित्य तथा पर्यायरूपताको नित्य मानने या कहने लग जाय तो उस हालतमें ऐसी मान्यता या ऐसा कथन ही नयाभास माना जायगा। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ | दर्शन और न्याय : ३९ इस प्रकार जैनदर्शनका 'वस्तु नित्य है' यह वाक्य नयवाक्य है क्योंकि इससे वस्तुके नित्यतारूप अंशका प्रतिपादन होता है तथा सांख्य दर्शनका 'वस्तु नित्य है' यह वाक्य प्रमाणाभास है या अप्रमाण है क्योंकि इस वाक्यसे सांख्य वस्तुके नित्यतारूप अंशका प्रतिपादन करना नहीं चाहता है और चंकि वह नित्यतारूप अंशसे वस्तका पर्णरूपसे प्रतिपादन करना चाहता है. जैसा प्रतिपादन होना असंभव है. क्योंकि वस्त मात्र नित्य ही नहीं है बल्कि नित्य होनेके साथ-साथ वह अनित्य भी है। इसी प्रकार जैनदर्शनका 'वस्तु अनित्य है' यह वाक्य और बौद्ध दर्शनका 'वस्तु अनित्य है।' यह वाक्य इन दोनोंके विषयमें क्रमशः नयरूपता और अप्रमाणरूपताकी ऐसी ही व्यवस्था समझ लेना चाहिये । उपसंहार इस संपूर्ण विवेचनका सार यह है कि विश्वकी संपूर्ण अनन्तानन्त वस्तुओंमेंसे प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। प्रत्येक वस्तुके अपने-अपने इन अनन्त धर्मों से प्रत्येक धर्म अपने विरोधी धर्मके साथ ही प्रत्येक वस्तुमें रह रहा है। इसलिये प्रत्येक वस्तुको जैनदर्शनमें अनेकान्तात्मक माना गया है। इस अनेकान्तामक वस्तुका प्रतिपादन करना वचनका कार्य है। वचन भी यदि वस्तुके परस्परविरोधी दोनों धर्मोंका प्रतिपादन करने में समर्थ है तो उसे प्रमाणरूप कहा जायगा और यदि वह परस्परविरोधी दोनों धर्मोंमेंसे एक-एक धर्मका प्रतिपादन करने में समर्थ है तो वह नयरूप माना जायगा । इसके विपरीत उक्त प्रकारके अनेकान्तात्मकरूपसे प्रसिद्ध वस्तुके किसी एक धर्मके रूपमें एकान्तात्मक मानकर उसे जिस वचन द्वारा प्रतिपादित किया जायगा वह वचन अप्रमाणरूप माना जायगा, क्योंकि वस्तुका जैसा अनेकान्तात्मक स्वरूप है वैसा उस वचनसे प्रतिपादित नहीं होगा और जैसा एकान्तात्मक स्वरूप वस्तुका नहीं है वैसा उससे प्रतिपादित होगा। जिस वचनसे वस्तुका जो धर्म प्रतिपादित होना चाहिये, यदि उससे विपरीत धर्मका जहाँ प्रतिपादन किया जायगा वहाँ वह वचन नयाभासरूप माना जायगा। इसी तरह वचनसे उक्त प्रकारका जैसा प्रतिपादन वक्ता या लेखक द्वारा किया जायगा वैसा ही उस वचनसे श्रोता या पाठकको वस्तुके विषयमें बोध होगा। इस प्रकार वह बोध भी यथायोग्य प्रमाणरूप, नयरूप, अप्रमाणरूप या नयाभासरूप ही माना जायगा। इस लेख में हमने उत्पत्ति और विकासके आधारपर जैनदर्शनके नयवादको स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है । जैनागममें नयोंका विस्तार करते हए द्रव्याथिकनय और पर्यायाथिकनय तथा निश्चयनय और व्यवहारनय इस प्रकार दो तरहसे नय-भेदोंका विवेचन पाया जाता है। इनमेंसे नयोंके द्रव्याथिक और पर्यायाथिक भेद वस्तुतत्त्वकी स्वरूपव्यवस्थाके आधारपर तथा निश्चयनय और व्यवहारनय ये दो भेद आध्यात्मिक दृष्टिकोणके आधारपर जैनागम द्वारा मान्य किये गये हैं । इनके अलावा जैनागममें और भी अर्थनय तथा शब्दनयके रूपमें नयोंका विवेचन पाया जाता है तथा अर्थनयके नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र व शब्दनयके शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत भेद भी जैनागममें देखनेको मिलते हैं। एवं सभी प्रकारके नयोंके उपभेद भी वहाँपर देखनेको मिलते हैं । इन सबका विस्तारसे विवेचन करनेकी वर्तमानमें अतीव आवश्यकता हो गयी है। कारण कि इस समय जैनसमाजमें जो तात्त्विक विवाद खड़े हो रहे हैं उनका कारण नयोंकी स्थितिको ठीक तरह नहीं समझ पाना ही है। लेकिन चूंकि लेख काफी विस्तृत हो गया है अतः स्वतन्त्र लेख द्वारा ही इन सबका विवेचन करना उचित होगा। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद और स्याद्वाद कोई भी धर्मप्रवर्तक अपने शासनको स्थायी और व्यापक रूप देनेके लिये मनुष्य-समाजके सामने दो बातोंको पेश करता है-एक तो धर्मका उद्देश्य-रूप और दुसरा उसका विधेय-रूप । दूसरे शब्दोंमें धमके उद्देश्यरूपको साध्य, कार्य या सिद्धान्त कह सकते है और उसके विधेय-रूपको साधन, कारण या आचरण कह सकते है । वीरशासनके पारिभाषिक शब्दोंमें धर्म के इन दोनों रूपोंको क्रमसे निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म कहा गया है। प्राणिमात्रके लिये आत्मकल्याणमें यही निश्चय-धर्म उद्दिष्ट वस्तु है और व्यवहारधर्म है इस निश्चय-धर्मकी प्राप्तिके लिये उसका कर्त्तव्यमार्ग । इन दोनों बातोंको जो धर्मप्रवर्तक जितना सरल, स्पष्ट और व्यवस्थित रीतिसे रखनेका प्रयत्न करता है उसका शासन संसारमें सबसे अधिक महत्त्वशाली समझा जा सकता है। इतना ही नहीं, वह सबसे अधिक प्राणियोंको हितकर हो सकता है। इसलिये प्रत्येक धर्मप्रवर्तकका लक्ष्य दार्शनिक सिद्धान्तकी ओर दौड़ता है। वीरभगवानका ध्यान भी इस ओर गया और उन्होंने दार्शनिक तत्त्वोंको व्यवस्थित रूपसे उनकी तथ्यपूर्ण स्थिति तक पहुँचानेके लिये दर्शनशास्त्रके आधारस्तम्भ रूप अनेकान्तवाद और स्याद्वाद इन दो तत्त्वोंका आविर्भाव किया। अनेकान्तवाद और स्याद्वाद ये दोनों दर्शनशास्त्रके लिये महान गढ़ हैं। जैनदर्शन इन्हींकी सीमामें विचरता हुआ संसारके समस्त दर्शनोंके लिये आज तक अजेय बना हुआ है। दूसरे दर्शन जैनदर्शनको जीतनेका प्रयास करते तो हैं परंतु इन दुर्गाके देखने मात्रसे उनको निःशक्त होकर बैठ जाना पड़ता है-किसीके भी पास इनके तोड़नेके साधन मौजूद नहीं हैं। जहाँ अनेकान्तवाद और स्याद्वादका इतना महत्त्व बढ़ा हुआ है वहाँ यह भी निःसंकोच कहा जा सकता है कि साधारणजनकी तो बात ही क्या ? अजैन विद्वानोंके साथ-साथ प्रायः जैन विद्वान् भी इनका विश्लेषण करनेमें असमर्थ हैं। ___ अनेकान्त और स्यात् ये दोनों शब्द एकार्थक हैं या भिन्नार्थक ? अनेकान्तवाद और स्याद्वादका स्वतन्त्र स्वरूप क्या है ? अनेकान्तवाद और स्याद्वाद दोनोंका प्रयोगस्थल एक है या स्वतन्त्र ? आदि समस्याएँ आज हमारे सामने उपस्थित हैं। यद्यपि इन समस्याओंका हमारी व दर्शनशास्त्रकी उन्नति या अवनतिसे प्रत्यक्षरूपमें कोई सम्बन्ध नहीं है परन्तु अप्रत्यक्षरूपमें ये हानिकर अवश्य हैं। क्योंकि जिस प्रकार एक ग्रामीण कवि छंद, अलंकार, रस, रीति आदिका शास्त्रीय परिज्ञान न करके भी छंद, अलंकार आदिसे सुसज्जित अपनी भावपूर्ण कवितासे जगतको प्रभावित करने में समर्थ होता है उसी प्रकार सर्वसाधारण लोग अनेकान्तवाद और स्याद्वादके शास्त्रीय परिज्ञानसे शून्य होनेपर भी परस्परविरोधी जीवनसंबन्धी समस्याओंका इन्हीं दोनों तत्त्वोंके बलपर अविरोध रूपसे समन्वय करते हुए अपने जीवन-संबन्धी व्यवहारोंको यद्यपि व्यवस्थित बना लेते हैं परन्तु फिर भी भिन्न-भिन्न व्यक्तियोंके जीवनसंबन्धी व्यवहारों में परस्पर विरोधीपन होने के कारण जो लड़ाई-झगड़े पैदा होते हैं वे सब अनेकान्तवाद और स्याद्वादके रूपको न समझनेके ही परिणाम हैं। इसी तरह अजैन दार्शनिक विद्वान भी अनेकान्तवाद और स्याद्वादको दर्शनशास्त्रके अंग न मानकरके भी अपने सिद्धान्तोंमें उपस्थित हुई परस्पर विरोधी समस्याओंको इन्हींके बलपर हल करते हए यद्यपि दार्शनिक तत्त्वोंकी व्यवस्था करने में समर्थ होते हए नजर आ रहे हैं, तो भी भिन्न-भिन्न दार्शनिकोंके सिद्धान्तोंमें परस्पर विरोधीपन होनेके कारण उनके द्वारा Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / बशन और न्याय : ४१ अपने सिद्धान्तोंको सत्य और महत्त्वशाली तथा दूसरेके सिद्धान्तको असत्य और महत्त्वरहित सिद्ध करनेकी जो असफल घेष्टा की जाती है वह भी अनेकान्तवाद और स्याद्वादके स्वरूपको न समझनेका ही फल है । सारांश यह कि लोकमें एक दूसरेके प्रति जो विरोधी भावनाएँ तथा धर्मोंमें जो साम्प्रदायिकता आज दिखाई दे रही है उसका कारण अनेकान्तवाद और स्याद्वादको न समझना ही कहा जा सकता है। __ जैनी लोग यद्यपि अनेकान्तवादी और स्याद्वादी कहे जाते हैं और वे खुद भी अपनेको ऐसा कहते है, फिर भी उनके मौजूदा प्रचलित धर्ममें जो साम्प्रदायिकता और उनके हृदयोंमें दूसरोंके प्रति जो विरोधी भावनाएँ पाई जाती है उसके दो कारण हैं-एक तो यह कि उनमें भी अपने धर्मको सर्वथा सत्य और महत्त्वशील तथा दूसरे धर्मोको सर्वथा असत्य और महत्त्वरहित समझनेकी अहंकारवृति पैदा हो जानेसे उन्होंने अनेकान्तबाद और स्याद्वादके क्षेत्रको बिलकूल संकुचित बना डाला है, और दूसरे यह कि अनेकान्तवाद और स्याद्वादकी व्यावहारिक उपयोगिताको वे भी भूले हुए हैं। अनेकान्त और स्यात्का अर्थभेद बहुतसे विद्वान् इन दोनों शब्दोंका एक अथं स्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि अनेकान्तरूपपदार्थ ही स्यात् शब्दका वाच्य है और इसीलिये वे अनेकान्त और स्याद्वादमें वाच्य-वाचक सम्बन्ध स्थापित करते हैं-उनके मतसे अनेकान्त वाच्य है और स्याद्वाद उसका वाचक है। परन्तु "वाक्येष्वनेकान्तद्योती" इत्यादि कारिकामें पड़े हुए “द्योती" शब्दके द्वारा स्वामी समन्तभद्र स्पष्ट संकेत कर रहे हैं कि 'स्यात् शब्द अनेकान्तका द्योतक है, वाचक नहीं। यद्यपि कुछ शास्त्रकारोंने भी कहीं-कहीं स्यात् शब्दको अनेकान्त अर्थका बोधक स्वीकार किया है, परन्तु वह अर्थ व्यवहारोपयोगी नहीं मालूम पड़ता है-केवक स्यात् शब्दका अनेकान्तरूप रूढ़ अर्थ मानकरके ों शब्दोंकी समानार्थकता सिद्ध की गई है। यद्यपि रूढ़िसे शब्दोंके अनेक अर्थ हुआ करते हैं और वे असंगत भी नहीं कहे जाते हैं फिर भी यह मानना ही पड़ेगा कि स्यात् शब्दका अनेकान्तरूप अर्थ प्रसिद्धार्थ नहीं है । जिस शब्दसे जिस अर्थका सीधे तौरपर जल्दीसे बोध हो सके वह उस शब्दका प्रसिद्ध अर्थ माना जाता है और वही प्रायः व्यवहारोपयोगी हुआ करता है। जैसे 'गो' शब्द पशु, भूमि, वाणी आदि अनेक अर्थों रूढ़ है परन्तु उसका प्रसिद्ध अर्थ पशु ही है, इसलिये वही व्यवहारोपयोगी माना जाता है। और तो क्या ? हिन्दीमें गौ या गाय शब्द जो कि गो शब्दके अपभ्रंश हैं केवल स्त्री गो में ही व्यवहृत होते हैं, पुरुष गो अर्थात् बैल रूप अर्थमें नहीं, इसका तात्पर्य यह नहीं कि वे बैल रूप अर्थ के वाचक ही नहीं हैं किन्तु बैल रूप अर्थ उनका प्रसिद्ध अर्थ नहीं, ऐसा ही समझना चाहिये । स्यात् शब्द उच्चारणके साथ-साथ कथंचित् अर्थकी और संकेत करता है अनेकान्तरूप अर्थको ओर नहीं, इसलिये कथंचित् शब्दका अर्थ ही स्यात् शब्दका अर्थ अथवा प्रसिद्ध अर्थ समझना चाहिये। अनेकान्तवाद और स्याद्वादका स्वरूप अनेकान्तवाद शब्दके तीन शब्दांश है-अनेक, अन्त और वाद । इसलिये अनेक-नाना, अन्त-वस्तुधर्मोकी, वाद-मान्यताका नाम 'अनेकान्तवाद' है । एक वस्तुमें नानाधर्मों (स्वभावों) को प्रायः सभी दर्शन स्वीकार करते हैं, जिससे अनेकान्तवादकी कोई विशेषता नहीं रह जाती है और इसलिये उन धर्मोका क्वचित विरोधीपन भी अनायास सिद्ध हो जाता है, तब एक वस्तुमें परस्पर विरोधी और अविरोधी नाना धर्मोकी मान्यताका नाम अनेकान्तवाद समझना चाहिये । यही अनेकान्तवादका अविकलस्वरूप कहा जा सकता है। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ स्याद्वाद शब्दके दो शब्दांश है-स्यात् और वाद। ऊपर लिखे अनुसार स्यात् और कथंचित् ये दोनों शब्द एक अर्थक बोधक है-कथंचित् शब्दका अर्थ है "किसी प्रकार" । यही अर्थ स्यात् शब्दका समझना चाहिये । वाद शब्दका अर्थ है मान्यता। "किसी प्रकारसे अर्थात् एकदृष्टिसे-एक अपेक्षासे या एक अभिप्रायसे", इस प्रकारकी मान्यताका नाम स्याद्वाद है । तात्पर्य यह कि विरोधी और अविरोधी नानाधर्मवाली वस्तुमें अमुक धर्म अमुक दृष्टिसे या अमुक अपेक्षा या अमुक अभिप्रायसे है तथा व्यवहारमें "अमुक कथन, अमुक विचार, या अमुक कार्य, अमुक दृष्टि, अ मुक अपेक्षा, या अमुक अभिप्रायको लिये हुए हैं"। इस प्रकार वस्तुके किसी भी धर्म तथा व्यवहारकी सामंजस्यताकी सिद्धिके लिये उसके दृष्टिकोण या अपेक्षाका ध्यान रखना ही स्याद्वादका स्वरूप माना जा सकता है। अनेकान्त और स्याद्वादके प्रयोगका स्थलभेद (१) इन दोंनोंके उल्लिखित स्वरूपपर ध्यान देनेसे मालूम पड़ता है कि जहाँ अनेकान्तवाद हमारी बुद्धिको वस्तुके समस्त धर्मोकी ओर समानरूपसे खींचता है वहाँ स्याद्वाद वस्तुके एक धर्मका ही प्रधानरूपसे बोध करानेमें समर्थ है। (२) अनेकान्तवाद एक वस्तुमें परस्पर विरोधी और अविरोधी धर्मोका विधाता है-वह वस्तुको नाना धर्मात्मक बतलाकर ही चरितार्थ हो जाता है। स्याद्वाद उस वस्तुको उन नाना धर्मोके दृष्टिभेदोंको बतलाकर हमारे व्यवहारमें आने योग्य बना देता है--अर्थात् वह नानाधर्मात्मक वस्तु हमारे लिये किस हालतमें किस तरह उपयोगी हो सकती है, यह बात स्याद्वाद बतलाता है । थोड़ेसे शब्दोंमें यों कह सकते हैं कि अनेकान्तवादका फल विधानात्मक है और स्याद्वादका फल उपयोगात्मक है। (३) यह भी कहा जा सकता है कि अनेकान्तवादका फल स्याद्वाद है-अनेकान्तवादकी मान्यताने ही स्याद्वादकी मान्यताको जन्म दिया है, क्योंकि जहाँ नानाधर्मोंका विधान नहीं है वहाँ दृष्टिभेदकी कल्पना हो ही कैसे सकती है ? उल्लिखित तीन कारणोंसे बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि अनेकान्तवाद ओर स्याद्वादका प्रयोग भिन्नभिन्न स्थलोंमें होना चाहिये। इस तरह यह बात भलीभांति सिद्ध हो जाती है कि अनेकान्तवाद और स्याद्वाद ये दोनों एक नहीं हैं; परन्तु परस्पर सापेक्ष अवश्य है। यदि अनेकान्तवादकी मान्यताके बिना स्याद्वादकी मान्यताके बिना स्याद्वादकी मान्यताकी कोई आवश्यकता नहीं है तो स्याद्वादकी मान्यताके बिना अनेकान्तवादकी मान्यता भी निरर्थक ही नहीं बल्कि असंगत ही सिद्ध होगी। हम वस्तुको नानाधर्मात्मक मान करके भी जबतक उन नानाधर्मोंका दृष्टिभेद नहीं समझेंगे तबतक उन धर्मोकी मान्यता अनुपयोगी तो होगी ही, साथ ही वह मान्यता युक्ति-संगत भी नहीं कही जा सकेगी। जैसे लंघन रोगीके लिये उपयोगी भी है और अनुपयोगी भी, यह तो हुआ लंघनके विषयमें अनेकान्तवाद । लेकिन किस रोगीके लिये वह उपयोगी है और किस रोगीके लिये वह अनुपयोगी है, इस दृष्टिभेदको बतलाने वाला यदि स्याद्वाद न माना गया तो यह मान्यता न केवल व्यर्थ ही होगी, बल्कि पित्तज्वरवाला रोगी लंघनकी सामान्यतौरपर उपयोगिता समझकर यदि लंघन करने लगेगा तो उसे उस लंघनके द्वारा हानि ही उठानी पड़ेगी। इसलिये अनेकान्तवादके द्वारा रोगीके सम्बन्धमें लंघनकी उपयोगिता और अनुपयोगिता रूप दो धर्मोको मान करके भी वह लंघन अमुक रोगीके लिये उपयोगी और अमुक रोगीके लिये अनुपयोगी है, इस दृष्टि-भेदको बतलाने वाला स्याद्वाद मानना ही पड़ेगा। एक बात और है, अनेकान्तवाद वक्तासे अधिक संबन्ध रखता है; क्योंकि वक्ताकी दृष्टि ही विधा Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ | दर्शन और न्याय : ४३ नात्मक रहती है । इसी प्रकार स्याद्वाद श्रोतासे अधिक सम्बन्ध रखता है; क्योंकि उसकी दृष्टि हमेशा उपयोगात्मक रहा करती है । वक्ता अनेकान्तवादके द्वारा नानाधर्मविशिष्ट वस्तुका दिग्दर्शन कराता है और श्रोता स्याद्वादके जरियेसे उस वस्तुके केवल अपने लिये उपयोगी अंशको ग्रहण करता है । इन कथनसे यह तात्पर्य नहीं लेना चाहिये कि वक्ता 'स्यात्' की मान्यताको और श्रोता ‘अनेकान्त' की मान्यताको ध्यानमें नहीं रखता है। यदि वक्ता 'स्यात्'की मान्यताको ध्यानमें नहीं रखेगा तो वह एक वस्तुमें परस्पर विरोधी धर्मोका समन्वय न कर सकनेके कारण उन विरोधी धर्मोका उस वस्तुमें विधान ही कैसे करेगा? ऐसा करते समय विरोधरूपी सिपाही चोरकी तरह उसका पीछा करनेको हमेशा तैयार रहेगा। इसी तरह यदि श्रोता ‘अनेकान्त' की मान्यताको ध्यानमें नहीं रखेगा तो वह दृष्टिभेद किस विषयमें करेगा? क्योंकि दृष्टिभेदका विषय अनेकान्त अर्थात् वस्तुके नानाधर्म ही तो हैं। इसलिये ऊपरके कथनसे केवल इतना तात्पर्य लेना चाहिये कि वक्ताके लिये विधान प्रधान है-वह स्यातकी मान्यतापूर्वक अनेकान्तकी मान्यताको अपनाता है और श्रोताके लिये उपयोग प्रधान है-वह अनेकान्तकी मान्यतापूर्वक स्यात्की मान्यताको अपनाता है ।। मान लिया जाय कि एक मनुष्य है, अनेकान्तवादके जरिये हम इस नतीजेपर पहुँचे कि वह मनुष्य वस्तुत्वके नाते नानाधर्मात्मक है--वह पिता है, पुत्र है, मामा है, भाई हैं आदि आदि बहुत कुछ है। हमने वक्ताकी हैसियतसे उसके इन सम्पूर्ण धर्मोंका निरूपण किया। स्याद्वादसे यह बात तय हुई कि वह पिता है स्यात्-किसी प्रकारसे-दृष्टिविशेषसे-अर्थात् अपने पुत्रकी अपेक्षा; वह पुत्र है, स्यात्-किसी प्रकार अर्थात् अपने पिताकी अपेक्षा; वह मामा है स्यात्-किसी प्रकार अर्थात् अपने भानजेकी अपेक्षा, वह भाई है स्यात्किसी प्रकार-अर्थात अपने भाईकी अपेक्षा ___ अब यदि श्रोता लोगोंका उस मनुष्यसे इन दृष्टियोंमेंसे किसी भी दृष्टिसे सम्बन्ध हैं तो वे अपनी-अपनी दृष्टिसे अपने लिये उपयोगी धर्मको ग्रहण करते जावेंगे। पुत्र उसको पिता कहेगा, पिता उसको पुत्र कहेगा, भानजा उसको मामा कहेगा और भाई उसको भाई कहेगा, लेकिन अनेकान्तवादको ध्यानमें रखते हए वे एक दूसरेके व्यवहारको असंगत नहीं ठहरावेंगे। अस्तु । इस प्रकार अनेकान्तवाद और स्याद्वादके विश्लेषणका यह यथाशक्ति प्रयत्न है। आशा है इससे पाठकजन इन दोनोंके स्वरूपको समझने में सफल होनेके साथ साथ वीर-भगवान्के शासनको गम्भीरताका सहज हीमें अनुभव करेंगे और इन दोनों तत्त्वोंके द्वारा सांप्रदायिकताके परदेको हटाकर विशुद्ध धर्मकी आराधना करते हुए अनेकान्तवाद और स्याद्वादके व्यावहारिक रूपको अपने जीवनमें उतारकर वीर-भगवान्के शासनकी अद्वितीय लोकोपकारिताको सिद्ध करने में समर्थ होंगे। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद दर्शन और उसके उपयोगका अभाव स्याद्वादका अर्थ - 'स्याद्वाद' इस शब्दके अन्तर्गत दो शब्द हैं-स्यात् और वाद । स्यातका अर्थ अपेक्षासहित (दृष्टिकोणसहित) तथा वाद शब्दका अर्थ सिद्धान्त या मत होता है। इस प्रकार स्याद्वादका अर्थ सापेक्ष सिद्धान्त समझना चाहिये। स्याद्वादकी परिभाषा अपने व दूसरे के विचारों, वचनों व कार्यों में अपेक्षा या दृष्टिकोणका ध्यान रखना ही स्याद्वादकी परिभाषा है। स्याद्वादको आवश्यक्ता मनुष्यके जितने विचार, वचन व कार्य हैं उनका कोई-न-कोई दृष्टिकोण अवश्य होना चाहिये; उसीके आधार पर उनकी उपयोगिता या अनुपयोगिता समझी जा सकती है। हम अपने विचारों वचनों व कार्योको दृष्टिकोणके अनुकूल बनायेंगे, तो वे लाभप्रद होंगे, दृष्टिकोणके प्रतिकूल बनायेंगे या उनका कोई दृष्टिकोण नहीं रखेंगे तो वे लाभप्रद तो होंगे ही नहीं, बल्कि कभी-कभी हानिप्रद हो सकते हैं। इसी प्रकार दूसरोंके विचारों, वचनों व कार्योंको उनके दृष्टिकोणको ध्यानमें रखकर देखेंगे तो हम उनकी सत्यता (उपादेयता) या मा (अनुपादेयता) का ज्ञान कर सकेंगे। यदि दूसरेके विचारों, वचनों व कार्योंको उनके प्रतिकूल दृष्टिकोणसे देखेंगे या बिना दृष्टिकोणके देखेंगे तो हम उनकी सत्यता या असत्यताका ज्ञान नहीं कर सकेंगे । इसलिये हमको स्याद्वाद या सापेक्ष सिद्धान्तके अपनानेकी उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि जीवनकी स्थिरता के लिये भोजनकी। स्याद्वादका विकास यों तो वस्तुएँ तथा उनके विचारक अनादि है तो स्याद्वाद भी अनादि ही कहा जायगा, लेकिन आवश्यकताके आधारपर ही किसी भी वस्तुका विचार किया जाता है। इसी स्याद्वादको ही लें-विचार करनेपर मालूम पड़ता है कि जितना भी लोकव्यवहार है उसका आधार स्याद्वाद ही है, पर जनसाधारण तो स्याद्वादका नाम तक नहीं जानते, और ऐसे मनुष्योंकी भी कमी नहीं है, जो स्याद्वादको जान करके भी अपनाना नहीं चाहते, इतनेपर भी उनका व्यवहार अव्यवस्थित या बन्द नहीं हो जाता। इसका आशय यही है कि जब जिस वस्तुकी आवश्यकता बढ़ जाती है उसके जाने बिना हमारा कार्य नहीं चलता है, तब उसके जाननेकी लोगोंके हृदयमें भावना पैदा होती है और तभीसे उसका विकास माना जाता है । स्याद्वादके विकासका विचार इसी आधारपर किया जाता है। प्रायः सभी मतोंके अनुसार पौराणिक दृष्टिसे सृष्टिके आदि' भागमें जीवन सुख और शान्तिके साम्राज्यसे परिपूर्ण था। शनैः शनैः सुख और शान्तिमें विकृति पैदा हुई अर्थात् लोगोंके हृदयोंमें अनुचित १. प्रायः सभी मत सृष्टिका उत्पाद और विनाश मानते हैं, जैनमत ऐसा नहीं मानता-उसके अनुसार जगत् अनादिनिधन है, पर उसमें सुख और शान्तिकी वृद्धि और हानि रूपसे परिवर्तन माना गया है। इसलिये जैनमतानुसार जिस समय सुख और शान्तिमें हानिका रूप नहीं दिखाई दिया था उसको सृष्टिका आदि भाग समझना चाहिये। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ | दर्शन और न्याय : ४५ पपिवासनाओंका अंकूर जन्मा. वहींसे धर्मतत्व प्रकाशमें आया। तात्पर्य यह कि अनुचित पापवासनाओंसे लोगोंकी अनुचित पापोंमें प्रवृत्ति होने लगी, उसको हटा नेके लिये तात्कालिक महापुरुषोंने पापप्रवृत्तिके त्यागरूप व्यवस्था बनाई, उसीको धर्मका रूप दिया गया। सुख और शान्तिके सहायक नियम या धार्मिक नियम वैसे-वैसे ही बढ़ते गये, जैसे-जैसे उनके प्रतिबन्धक निमित्तोंका प्रादुर्भाव होता गया। इसके अतिरिक्त विविध लोगोंकी विवेकबुद्धिने भी काम किया, जिससे देशकालके अनसार नानाप्रकारके धार्मिक नियम बने और उनकी उपादेयताके लिये भिन्न-भिन्न प्रका महत्त्व दर्शाया गया। तात्पर्य यह कि धीरे-धीरे धर्मोंमें विविधता पैदा हुई। इस धर्मविविधताके कारण भिन्नभिन्न समष्टियोंकी रचना हुई । उन समष्टियोंमें कालक्रमसे अपनेको सत्यमार्गानुगामी और दूसरोंको असत्यमार्गानुगामी ठहरानेकी कुत्सित ऐकान्तिक भावनाये जागृत हुईं। यहींसे दर्शनशास्त्रका कलेवर पुष्ट हुआ, जिससे बल पर लोगोंने स्वपक्षपुष्टि और परपक्ष-खण्डनमें कालयापन करना प्रारम्भ किया, जिससे विरोधरूपी अन्धकारसे लोक व्याप्त हो गया। उसका अन्त करनेके लिये स्याद्वादरूपी सूर्य का उदय हुआ। स्याद्वादकी जैनधर्माङ्गता स्याद्वादतत्त्वका विकास उन महापुरुषोंकी तर्कणाशक्तिका फल है, जिन्होंने समय और परिस्थितिके अनसार निर्मित धार्मिक नियमोंके परस्पर समन्वय करनेकी कोशिश की थी, तथा इसमें उनको आश्चर्यजनक सफलता भी मिली थी। पर लोकहितभावनामें स्वार्थभावनाका समावेश हो जानेसे उसकी धारा एक देशमें ही रह गई। वे महापुरुष जैन थे, इसलिये कालान्तरमें स्यावाद जैनधर्मका मूल बन गया, दूसरोंको स्याद्वादके नामसे घृणा हो गई। जैनाचारमें स्याद्वाद ___इसके विषयमं अमृतचन्द्र सूरिने हिंसाके विषयमें स्याद्वादका जो भावपूर्ण चित्रण किया है वही पर्याप्त होगा । वे कहते हैं "कोई मनुष्य हिंसा नहीं करके अर्थात् प्राणियोंको नहीं मार करके भी हिंसाके फलको पाता है, जबकि दूसरा मनुष्य हिंसा करके भी हिंसाके फलको नहीं पाता है। एक मनुष्यको अल्प हिंसा महान् फल देती है जबकि दूसरे मनुष्यको अधिक हिंसा भी अल्प फल देती है। समान हिंसा करनेवाले दो पुरुषोंमेंसे एक को वह हिंसा तीव्र फल देती है और दूसरेको वही हिंसा मंद फल देती है । किसीको हिंसा करनेके पहले ही हिंसाका फल मिल जाता है और किसीको हिंसा करनेके बाद हिंसाका फल मिलता है। किसीने हिंसा करना प्रारम्भ किया, लेकिन बादमें बन्द कर दिया तो भी हिंसा करनेके भाव हो जानेसे हिंसाका फल मिलता है। किसी समय हिंसा एक करता है, उसका फल अनेक भोगते हैं । किसी समय हिंसक अनेक होते हैं और फल एकको भोगना पड़ता है । किसीकी हिंसा हिंसाका अल्पफल देती है किसीकी वही हिंसा अहिंसाका अधिक फल देती है। किसीकी अहिंसा हिंसाका फल देती है, किसीकी हिंसा अहिंसाके फलको देती है। इस प्रकार विविध प्रकारके भङ्गोंसे दुस्तर हिंसा आदिके स्वरूपको समझानेके लिये स्याद्वादतत्त्वके वेत्ता ही समर्थ होते हैं ।" राजनैतिक दण्डव्यवस्था भी इसी आधारपर बनी हुई है, जिससे हिंसा आदिके विषय में स्याद्वादका स्वरूप अच्छी तरह समझमें आ सकता है। १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक ५१ से ५८ तक । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ सरस्वती वरदपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ : जैन संस्कृति में स्याद्वादका व्यावहारिक उपयोग उसकी सफलता समय-समय पर जं. संस्कृतिमें बहुतसे परिवर्तन हुए होंगे। परन्तु भगवान् महावोरसे लेकर आज तक जितने परिवर्तन हुए वे ऐतिहासिक कहे जा सकते हैं। जैनियोंके बाह्याचार पर भगवान् महावीरके बादसे विक्रमको १५वीं १६वीं शताब्दी तक उत्तरोत्तर अधिक प्रभाव पड़ता गया। इसका कारण यह है कि यद्यपि भगवान महावीर और महात्मा बुद्धने वैदिक क्रियाकाण्डका अन्त कर दिया गया था, पर इस तरह की भावनाएँ कुछ लोगोंके हृदयमे बनी रही थीं, जिनके आधारवर ब्राह्मण संस्कृतिका उत्थान हुआ। इधर जैनधर्म और बौद्धधर्मकी बागडोरें ढीली पड़ीं, जिससे ब्राह्मण संस्कृतिको बढ़नेका अच्छा मौका मिला और उसका धीरे-धीरे व्यापक रूप बन गया । यही कारण है कि जैनधर्म उससे अछूता न रह सका। मेरा तो विश्वास है और सिद्ध भी किया जा सकता है कि बौद्धधर्मके तत्कालीन महापुरुषोंने बौद्धधर्म के बाह्यरूपमें रंचमात्र परिवर्तन नहीं किया, इसीसे वह भारतसे लुप्त हो गया । किन्तु जैनी स्याद्वादके महत्त्वको समझते थे. उनको देश-कालकी परिस्थितिका अच्छा अनुभव था, इसलिए उन्होंने समयानुसार धर्मको सत्ता कायम रखनेके लिये ब्राह्मण संस्कृतिको अपनाया । जैन उस समय ब्राह्मण संस्कृतिका इतना अधिक प्रभाव था कि सभी लोगोंका झुकाव उस तरफ हो गया था । इसलिये जैनाचार्यों को लिखना पड़ा कि "जिस लोकाचारसे सम्यक्त्वकी हानि या व्रत दूषित नहीं होते हैं वह लोकाचार जैनधर्मं बाह्य नहीं कहा जा सकता।" इस प्रकार उस समय जो जैनधर्मसे विमुख हो रहे थे उनकी स्थिरता करते हुए जैनाचार्योंने जैनधर्मकी सत्ता कायम रखी थी जिसका फल यह है कि आज भी भारतवर्ष में जैनी लोग विद्यमान हैं, अन्यथा बौद्धोंकी तरह जैनी भी आज दूसरे धर्मका अखतर पहिने दिखाई देते । आधुनिक भूलें ऊपर के कथनसे स्पष्ट हो जाता है कि पूर्व पुरुषोंने वस्तुव्यवस्थामें अपना सिद्धान्त व अपना आचार व्यवहार स्थाद्वादकी सहायतासे निश्चित किया था। - तात्पर्य यह कि किसी भी सिद्धान्तका साधक तर्क है—स्याद्वाद सहायक और विश्वास उसका आधार है । इन तीनोंका आश्रय लेकरके जिन लोगोंने वस्तुव्यवस्थाके सिद्धान्त स्थिर किये थे या जो आज करते हैं। उनका ऐसा करना असंगत नहीं कहा जायगा । बल्कि जिसका हृदय तर्क, स्याद्वाद और विश्वाससे व्याप्त होगा उसके द्वारा की गई वस्तुव्यवस्था आदरणीय समझी जायगी। जैन सिद्धान्तकी सत्यता या उपादेयता इसलिये नहीं है कि वह सर्वज्ञभाषित है, किन्तु इसलिये है कि उसका मूल तर्फ, स्याद्वाद और विश्वास है। सर्वज्ञ तो सिद्धान्तकी अविरोधतासे सिद्ध किया जाता है। हेतुका साध्य उसी हेतुका हेतु नहीं माना जाता । इसलिये जो लोग पूर्व पुरुषोंके किसी भी सिद्धान्तको तर्क, स्याद्वाद और विश्वासके बिना मिथ्या सिद्ध करनेकी कोशिश करते हैं वे स्वयं भूल करते हैं और जो किसी सिद्धान्तकी तर्क, स्याद्वाद और विश्वासके अधार पर परीक्षा करना पाप समझते हैं वे भी भूल करते हैं। दोनों ही स्वाद्वाद के रहस्यसे अनभिश हैं। इसी प्रकार जो आचरण या व्यवहार आज संक्लेश-वर्धक, लोकानुपयोगी, लोकनिन्दनीय हों वे भले ही किसी समय शान्तिवर्धक, लोकोपयोगी व लोकप्रशंसित रहे हों, आज उनको मिथ्या या अनुपादेय समझा Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्शन और न्याय : ४७ जायगा। इससे विपरीत जो आचार या व्यवहार आज शान्तिवर्धक, लोकोपयोगी व लोकप्रशंसित हों वे भले ही किसी समय संक्लेशवर्धक, लोकानुपयोगी व लोकनिन्दनीय रहे हों, आज उनको सत्य या उपादेय ही समझा जायगा । इसलिये जो लोग परिस्थितिका अध्ययन किये बिना ब्राह्मण संस्कृतिके अपनानेमें तात्कालीन जैनाचार्यों को भूल बतलाते हैं वे स्वयं भूल करते है । और जो आज की परिस्थितिका अध्ययन किये बिना उस जमानेकी संस्कृतिको आजकी संस्कृति बनाना चाहते हैं वे भी भूल करते है-दोनों ही स्याद्वादके रहस्यसे अनभिज्ञ है । इतना ही नहीं, स्याद्वादके रहस्यको हम लोग इतना भूल गये कि “मुण्डे मुण्डे मतिभिन्ना" की लोकोक्ति जैनियोंके अन्दर ही अन्दर चरितार्थ हो रही है। प्रत्येक जैनी इच्छानुकूल अपनी समझके अनुसार अपने आचार व व्यवहारको ही धर्म समझने लगा है। उसके सामने दूसरोंके उपदेशोंका कुछ महत्त्व नहीं, जबतक कि वे उसकी इच्छाके अनुकूल न हों। स्याद्वादके उपयोगकी कमीका फल जहाँ जैनधर्म में स्याद्वादका अधिक-से-अधिक उपयोग किया गया है वहीं उसके उपयोगमें कमी भी रह गई है। स्याद्वादका उद्देश्य संपूर्ण धर्मोंका समन्वय करके मनुष्यसमाजमें शान्ति स्थापित करना था, लेकिन दूसरी धार्मिक समष्टियाँ स्वार्थवासनाकी पूतिके लिये स्वधर्मप्रेमी होती हई भी परमधर्मासहिष्णु व हटनाही बन गई थी, इसलिये उस उदेशकी प्रतिमें तो स्याद्वादी असफल ही रहे। इसके अतिरिक्त जैनियोंमें भी स्वार्थवासना आने लगी थी, जिससे जैनी भी स्वधर्मप्रियताके साथ-साथ परधर्मासहिष्णुता व हटग्राहिताके शिकार हो गये, जिससे धीरे-धीरे स्याद्वादी जैनी भी सम्प्रदायवादी बने । स्याद्वादका महत्त्व एक सांप्रदायिक पुष्टिसे अधिक न रह सका । दूसरोंकी दृष्टि में जैनधर्म एक सम्प्रदाय समझा जाने लगा। इधर जैनियोंने भी पक्षपुष्टिमें अपनी शक्तिका उपयोग करना प्रारम्भ किया, जिससे जैनाचार्य जैसा कि ऊपर स्याद्वादका उपयोग बतला आये हैं उनके अनुसार सम्प्रदाय रूपसे ही जैनधर्मको कायस रख सके । उसका परिणाम यह हुआ कि आज जब साम्प्रदायिकता मनुष्य-समाजका रक्त-शोषण कर रही है उसमें जैनी भी कम भाग नहीं ले रहे हैं। तात्पर्य यह है कि स्याद्वादी होकरके जैनियोंने स्याद्वादका क्रियात्मक उपयोग करना नहीं सीखा, जिससे स्याद्वादके द्वारा मनुष्य-समाजका जो कुछ हित हो सकता था वह न तो हुआ और न हो रहा है। हमारा कर्तव्य इस भयानक किन्तु विचारशील यगमें हमारा कर्तव्य है कि अपने जीवनको लोकोपयोगी बनावें। यदि हम अपने जीवनको लोकोपयोगी नहीं बना सकते तो विश्वास रखना चाहिये कि हम परलोकके लिये भी कुछ नहीं कर रहे हैं। स्याद्वादसिद्धान्तके अधिकारी रहने मात्रसे हम स्याद्वादका असर दुसरों पर नहीं डाल सकते । कार्योंका ही दूसरोंपर असर हआ करता है। हम अपने लोकोपयोगी कर्तव्यको स्याद्वादके द्वारा निर्धारित कर उसीके लिये जीवन समर्पित कर दें; उसके द्वारा हमारे जीवनको शान्ति ही न होगी बल्कि ऊपरसे धर्म-धर्म चिल्लानेकी भारतकी कुप्रवत्ति नष्ट होगी एवं जैनधर्मकी लोकोपयोगिता मनुष्य-समाजमें क्रियात्मक चमत्कार दिखला देगी। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगका विश्लेषण विश्व की रचना जैनदर्शनमें विश्वको रचना जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालके भेदसे छह प्रकारके पदार्थोके आधारपर स्वीकृत की गयी है । इनमेंसे जीवोंकी संख्या अनन्तानन्त है, पुद्गलोंकी संख्या भी अनन्तानन्त है, धर्म, अधर्म और आकाश एक-एक हैं तथा काल असंख्यात हैं । प्रत्येक पदार्थका स्वभाव धर्म, अधर्म, आकाश और सभी कालोंमें अपनी-अपनी स्वतःसिद्ध स्वभावभूत भाववतीशक्ति विद्यमान है व सभी जीवों और पुद्गलोंमें अपनी-अपनी स्वतःसिद्ध स्वभावभूत भाववतीशक्तिके साथ-साथ अपनी-अपनी स्वतःसिद्ध स्वभावभत कियावतीशक्ति भी विद्यमान है। क्रियावतीशक्तिकी विद्यमानताके कारण ही जीव और पुद्गल दोनों प्रकारके पदार्थ सक्रिय कहलाते हैं और क्रियावतीशक्तिकी अविद्यमानताके कारण ही धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामके पदार्थ निष्क्रिय कहलाते हैं।' प्रत्येक पदार्थका कार्य प्रत्येक पदार्थ अपनी-अपनी भाववती शक्तिके आधारपर सतत अपना-अपना कार्य कर रहा है। अर्थात् आकाश अपनी भाववतीशक्तिके आधारपर स्व और अन्य सभी पदार्थोंको सतत अपने पेटमें समाये हए है, सभी काल अपनी-अपनी भाववतीशक्तिके आधारपर स्व और अन्य सभी पदार्थोंको सतत एक क्षणवर्ती तथा अनेक क्षणवर्ती पर्यायोंके रूप में विभाजित कर रहे हैं। धर्म अपनी भाववतीशक्तिके आधारपर जीवों और पुद्गलोंकी यथावसर होनेवाली हलन-चलनरूप क्रियामें सतत सहायक होता रहता है और अधर्म अपनी भाववतीशक्तिके आधारपर जीवों और पद्गलोंकी उक्त क्रियाके यथावसर होनेवाले स्थगनमें सतत सहायक होता रहता है। इसी प्रकार प्रत्येक जीव अपनी-अपनी यथायोग्य रूपमें विकसित भाववतीशक्तिके आधारपर स्व और अन्य सभी पदार्थों का सतत यथायोग्य रूपमें सामान्य अवलोकन (दर्शन) पूर्वक विशेष अवलोकन (ज्ञान) करता रहता है और इसी प्रकार प्रत्येक पुद्गल अपनी-अपनी भाववतीशक्तिके आधारपर सतत रससे रसान्तररूप, गन्धसे गन्धान्तररूप, स्पर्शसे स्पर्शान्तररूप और वर्णसे वर्णान्तररूप परिणमन किया करता है। इसके अतिरिक्त जीव और पुदगल अपनी-अपनी क्रियावतीशक्तिके आधारपर यथावसर क्षेत्रसे क्षेत्रान्तररूप क्रिया सतत करते रहते हैं और अपनी इसी क्रियावतीशक्तिके आधारपर संसारी जीव यथावसर पौदगलिक कर्मो तथा नोकर्मों के साथ व पुद्गल यथावसर संसारी जीवों और अन्य पुद्गलोंके साथ सतत मिलते व विछुड़ते रहते हैं। मुक्त जीवोंका जो ऊर्ध्वगमन होता है वह भी उनको अपनी इसी क्रियावतीशक्तिके आधार पर होता है ? किन्तु वे जो लोकके अग्रभागमें स्थित होकर रह जाते हैं उसका कारण आगे धर्मास्तिकायका अभाव है । १. पंचाध्यायी, अध्याय २, श्लोक २५, २६, २७ ।। २. तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात् । -तत्त्वार्थसूत्र १०-५ । ३. प्रश्न-'आह यदि मुक्त ऊर्ध्वगतिस्वभावो लोकान्तादुर्ध्वमपि कस्मान्नोत्पततीत्यत्रोच्यते ? (सर्वार्थ सिद्धि), समाधान-धर्मास्तिकायाभावात् । -तत्त्वार्थसूत्र । “जीवाण पौग्गलाणं गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थी । धम्मत्थिकायभावे तत्तो परदो ण गच्छंति । -नियमसार, १८३ । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्शन और न्याय : ४९ जीवकी भावती शक्तिमें विशेषता प्रत्येक जीवकी भाववतीशक्ति अनादिकालसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वीर्यान्तराय नामके पौद्गलिक कर्मोंसे प्रभावित होकर रहती आयी है, परन्तु अनादिकालसे ही प्रत्येक जीवमें उक्त तीनों कर्मोंका नियमसे यथायोग्यरूपमें क्षयोपशम रहनेके कारण वह भाववती शक्ति भी यथायोग्यरूपमें विकासको प्राप्त होकर रहती आयी है। प्रत्येक जीवकी भाववतीशक्तिका यह विकास ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमके आधारपर ज्ञानशक्तिके रूपमै दर्शनावरणकर्मके क्षयोपशमके आधारपर दर्शनभक्तिके रूपमें और वीर्यान्तरायकर्मके क्षयोपशमके आधारपर वीर्यशक्तिके रूपमें रहता आया है । यहाँ इतना विशेष समझ लेना चाहिये कि जिन जीवोंमें समस्त ज्ञानावरण, समस्त दर्शनावरण और वीर्यान्तराय कर्मोंका पूर्ण क्षय हो चुका है उनमें उनकी उस भाववतीशक्तिका ज्ञानशक्ति, दर्शनशक्ति और वीर्यशक्तिके रूपमें पूर्ण विकास हो चुका है व जिन जीवोंमें उक्त समस्त ज्ञानावरण, समस्त दर्शनावरण और वीर्यान्तराय कर्मोका आगे जब पूर्ण क्षय हो जायगा तब उनमें भी उनकी उस भाववतीशक्तिका ज्ञानशक्ति, दर्शनशक्ति और वीर्यशक्तिके रूप में पूर्ण विकास हो जायगा। यद्यपि जीवको भाववतीशक्तिपर दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय और उपभोगान्तराय कर्मोंका भी अनादिकालसे प्रभाव पड़ रहा है और अनादिकालसे इन कर्मोंका भी क्षयोपशम रहनेके कारण प्रत्येक जीवमें उस भाववतीशक्तिका दानशस्ति, लाभशक्ति, भोगशक्ति और उपभोगशक्तिके रूपमें यथायोग्य विकास भी अनादिकालसे रहता आया है, परन्तु इन दानादि चारों शक्तियोंका सम्बन्ध जीवकी क्रियावतीशक्तिके साथ होने के कारण यहाँ इनको उपेक्षित किया जा रहा है। ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगका स्वरूप जीवकी विकासको प्राप्त ज्ञानशक्ति, दर्शनशक्ति और वीर्यशक्ति-इन तीनों शक्तियोंमेंसे ज्ञानशक्तिका कार्य जीवको स्व और अन्यपदार्थोंका विशेष अवलोकन अर्थात् ज्ञान करानेका है, दर्शनशक्तिका कार्य जीवको स्व और अन्यपदार्थोंका सामान्य अवलोकन अर्थात दर्शन करानेका है और वीर्यशक्तिका कार्य उक्त ज्ञानशक्ति और दर्शनशक्तिके कार्य में जीवको यथायोग्यरूपमें सक्षम बनानेका है। इस तरह जीवकी विकसित ज्ञानशक्तिका जो स्व और अन्य पदार्थों का विशेष अवलोकन अर्थात् ज्ञान होने रूप कार्य है उसका नाम ज्ञानोपयोग है और उसकी विकसित दर्शनशक्तिका जो स्व और अन्यपदार्थों का सामान्य अवलोकन अर्थात् दर्शन होनेरूप कार्य है उसका नाम दर्शनोपयोग है। विशेष अवलोकन और सामान्य अवलोकनका अर्थ यहाँपर ज्ञानोपयोग और वर्शनोपयोगके स्वरूप-निर्देशनमें जो यह बतलाया गया है कि जीवकी विकसित ज्ञानशक्तिका स्व और अन्यपदार्थोंका विशेष अवलोकन अर्थात ज्ञान होने रूप कार्य तो ज्ञानोपयोग है व उसकी विकसित दर्शनशक्तिका स्व और अन्यपदार्थोंका सामान्य अवलोकन अर्थात् दर्शन होने रूप कार्य दर्शनोपयोग है। इसमें विशेष अवलोकन अर्थात ज्ञानका अर्थ जीव द्वारा दीपककी तरह स्व और अन्य पदार्थोंको प्रतिभासित किया जाना है और सामान्य अवलोकन अर्थात दर्शनका अर्थ जीवमें दर्पणकी तरह स्व और अन्यपदार्थोंका प्रतिबिम्बित होना है, जिसका तात्पर्य यह होता है कि जिस प्रकार दीपकका स्वभाव स्व और अन्यपदार्थोंको प्रतिभासित करनेका है उसी प्रकार जीवका स्वभाव भी स्व और अन्य पदार्थोंको प्रतिभासित करनेका है तथा जिस प्रकार दर्पणका स्वभाव स्व और अन्यपदार्थोंको अपने अन्दर प्रतिबिम्बित करनेका है उसी प्रकार जीवका स्वभाव भी स्व और अन्यपदार्थोंको अपने अन्दर प्रतिविम्बित करनेका है। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ यहाँ पर प्रतिविम्बित शब्दका अर्थ स्वकी अपेक्षा दर्पण अथवा जीवकी तदात्मक स्थितिके रूपमें और अन्यपदार्थों की अपेक्षा दर्पण अथवा जीवकी उन अन्यपदार्थोके निमित्तसे होनेवाली तदनुरूप परिणतिके रूपमें लेना चाहिये। जीवके स्वभावको समझनेके लिये यहाँ पर जो दीपक और दर्पण दोनोंको उदाहरण के रूपमें प्रस्तुत किया गया है, इसका कारण यह है कि यद्यपि दीपकका स्वभाव अन्य पदार्थोंको प्रतिभासित अर्थात् प्रकाशित करनेका है, परन्तु उन अन्य पदार्थोंको अपने अन्दर प्रतिबिम्बित करनेका स्वभाव नहीं है। इसी तरह यद्यपि दर्पणका स्वभाव अन्य पदार्थोंको अपने अन्दर प्रतिविम्बित करने का है, परन्तु उन अन्य पदार्थोंको प्रतिभासित अर्थात् प्रकाशित करनेका उसका स्वभाव नहीं है जब कि जीव में दीपक और दर्पणकी अपेक्षा यह विशेषता पायी जाती है कि उसका स्वभाव दीपककी तरह अन्य पदार्थोंको प्रतिभासित अर्थात् ज्ञान करनेका भी है और दर्पण की तरह अन्य पदार्थोंको अपने अन्दर प्रतिबिम्बित करनेका भी है। आगममें भी इसीलिये जीवके स्वभावको समझनेके लिये दीपक और दर्पण दोनोंको उदाहरणके रूपमें प्रस्तुत किया गया है। दोपक और जीव द्वारा अन्य पदार्थों के प्रतिभासित होनेका आधार देखने में आता है कि दीपक अन्य पदार्थोके साथ जब तक अपना सम्बन्ध स्थापित नहीं कर लेता है तब तक वह उनको प्रतिभासित अर्थात् प्रकाशित करने में असमर्थ ही रहा करता है। इसी प्रकार जीवके सम्बन्धमें भी यह स्वीकार करना आवश्यक है कि वह भी जब तक अन्य पदार्थोके साथ अपना सम्बन्ध स्थापित नहीं कर लेगा तब तक वह उनको प्रतिभासित अर्थात ज्ञात करने में असमर्थ ही रहेगा। परन्तु र वाद बात है कि जिस प्रकार दीपक अन्य पदार्थों के पास पहुँच कर उनसे अपना सम्बन्ध स्थापित करता है उस प्रकार जीव अन्य पदार्थोके पास पहुँच कर उनसे अपना सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाता है। अतः जैनदर्शनमें यह स्वीकार किया गया है कि जीवमें दर्पणकी तरह जब अन्य पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं तभी वह उनको दीपककी तरह प्रतिभासित अर्थात् ज्ञात करता है। इस विवेचनके आधारपर ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगके सम्बन्धमें मैं यह कहना चाहता हूँ कि जीवमें दर्पणकी तरह पदार्थका प्रतिबिम्बित हो जाना ही दर्शनोपयोग है और इस प्रकारके दर्शनोपयोगपूर्वक जीवको दीपककी तरह पदार्थका प्रतिभासित अर्थात ज्ञान हो जाना ही ज्ञानोपयोग है। दर्शनोपयोग ज्ञानोपयोगमें कारण होता है--यह बात आचार्य नेमिचन्द्रने द्रव्यसंग्रहमें "दंसणपुव्वं गाणं" गाथांश द्वारा स्पष्ट कर दी है। उपर्युक्त कथनका समर्थन उपर्युक्त कथनके समर्थनमें यह कहा जा सकता है कि जैनदर्शनमें वणित दर्शनोपयोग और बौद्धदर्शन में वर्णित प्रत्यक्षमें समानता पायी जाती है। इतना अवश्य है कि बौद्धदर्शनमें जहाँ उसके द्वारा माने गये प्रत्यक्षको प्रमाण माना गया है वहां जैनदर्शनमें उसके द्वारा माने गये दर्शनोपयोगको प्रमाणता और अप्रमाणताके दायरेसे परे रखा गया है। इसका कारण यह है कि जैनदर्शनमें स्वपरव्यवसायीको प्रमाण माना गया है और जो स्वव्यवसायी होते हए भी परव्यवसायी नहीं होता उसे अप्रमाण माना गया है। ये दोनों प्रकार १. जीवके स्वभावको समझनेके लिये परीक्षामुखमें "प्रदीपवत् ॥१-१२॥" सूत्र द्वारा दीपकको व पुरुषार्थ सिद्धयुपायमें "तज्जयति परं ज्योति" इत्यादि पद्य द्वारा तथा रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें "नमः श्रीवर्द्धमानाय' इत्यादि पद्य द्वारा दर्पणको उदाहरणके रूपमें प्रस्तुत किया गया है। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्मन और न्याय ५१ की अवस्थायें ज्ञानोपयोगकी ही हुआ करती है, अतः ज्ञानोपयोग तो प्रमाण तथा अप्रमाण दोनों रूप होता है, किन्तु दर्शनोपयोग में स्व और पर दोनों प्रकारको व्यवसायात्मकताका सर्वथा अभाव जनदर्शन में स्वीकार किया गया है। अतः उसे न तो प्रमाणरूप ही कह सकते हैं ओर न अप्रमाणरूप ही कह सकते हैं इतना अवश्य है कि ज्ञानोपयोगकी उत्पत्तिमें अनिवार्य कारणता के आधारपर दर्शनोपयोगकी सत्ता और उपयोगिताको अवश्य ही जैनदर्शनमें स्वीकृत किया गया है। दर्शनोपयोगी यह स्थिति, जीवमें पदार्थ के प्रतिबिम्बित रूपको दर्शनोपयोग माननेसे ही बन सकती है । अतः जीव में पदार्थ के प्रतिबिम्बित होनेको हो दर्शनोपयोग स्वीकृत करना चाहिये । तात्पर्य यह है कि जब सामान्य अवलोकन अर्थात् दर्शन या दर्शनोपयोगका अर्थ ज्ञेय पदार्थका जीवके अन्दर प्रतिबिम्बित होना स्वीकृत किया जाता है तभी उसकी स्थिति जनदर्शन के अनुसार प्रमाणता और अप्रमाणतासे परे सिद्ध हो सकती है व बौद्धदर्शनके अनुसार संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय रूप दोषों से रहित हो सकती है । इसका कारण यह है कि जैनदर्शनमें एक तो स्वपरव्यवसायात्मकताको प्रमाणताका और स्वव्यवसायात्मकता रहते हुए भी परव्यवसायात्मकता के अभावको अप्रमाणताका चिन्ह मानकर दर्शनोपयोग में स्वव्यवसायात्मकता और परव्यवसायात्मकता दोनोंका अभाव स्वीकार किया गया है। दूसरे जीवमें पदार्थका प्रतिविम्ब पड़े बिना ज्ञानोपयोगकी उत्पत्तिकी असंभावनाको स्वीकार किया गया है, तीसरे दर्शनोपयोगका ऐसा कोई अर्थ नहीं स्वीकृत किया गया है जो दर्शनोपयोगके उपयुक्त स्वरूपके विरुद्ध हो और चौथे यह बात भी है कि ज्ञानोपयोग जैसा विद्यमान और अविद्यमान दोनों तरहके पदार्थोंके विषयमें होता है वैसा दर्शनोपयोग विद्यमान और अविद्यमान दोनों प्रकारके पदार्थोंके विषय में न होकर केवल विद्यमान पदार्थोंके विषयमें ही होता है, इस बातको भी जनदर्शन में स्वीकार किया गया है। इतना ही नहीं, इसी आधारपर बौद्धदर्शन में प्रत्यक्षकी स्थिति संशय विपर्यय और अनध्यवसायरूप दोषोंसे रहित स्वीकृत की गयी है। इस प्रकार यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि जैनदर्शनके दर्शनोपयोग और बौद्धदर्शनके प्रत्यक्षका अर्थ जीवमें पदार्थका प्रतिविम्बित होना ही है और इसके आधारपर जीवको जो पदार्थका प्रतिभास होता है वही ज्ञानोपयोग है। यहां इतनी बात और समझ लेना चाहिये कि यत सर्वज्ञके दर्शनावरणकर्मका सर्वथा क्षय हो जाने से उसमें संपूर्ण पदार्थ अपनी त्रिकालवर्ती पर्यायोंके साथ प्रतिक्षण स्वभावतः प्रतिबिम्बित होते रहते हैं अतः उसको ज्ञानावरणकर्मके सर्वथा क्षय हो जाने के आधारपर वे सम्पूर्ण पदार्थ अपनी उन त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायोंके साथ प्रतिक्षण स्वभावतः प्रतिभासित होते रहते हैं और यतः अल्पज्ञमें ऐसे पदार्थोंका प्रतिबिम्बित होना निमित्ताधीन है अर्थात् प्रतिनियत पदार्थका प्रतिनियत इन्द्रिय द्वारा प्रतिनियत आत्मप्रदेशों में जब प्रतिविम्ब पड़ता है तब उस उस इन्द्रिय द्वारा उस-उस पदार्थका ज्ञान जीवको हुआ करता है। जैनदर्शन में उसउस इन्द्रिय द्वारा आत्मप्रदेशों में पड़नेवाले पदार्थप्रतिबिम्बको तो उस-उस इन्द्रियके दर्शन नामसे पुकारा गया है और इसके आधारपर होनेवाले पदार्थज्ञानको उस-उस इन्द्रियके मतिज्ञान नामसे पुकारा गया है। अर्थात् जनदर्शन में चक्षसे आत्मामें पढ़नेवाले पदार्थप्रतिबिम्बको चक्षुर्दर्शन तथा स्पर्शन, रसना, नासिका, कर्ण और मनसे आत्मामें पड़नेवाले पदार्थ प्रतिबिम्बको अचक्षुर्दर्शन कहा गया है तथा उस उस दर्शनके आधारपर उसउस इन्द्रियसे होनेवाले मतिज्ञानको देखने, छूने, चखने, सूपने, सुनने और अनुभव करनेके रूपमें उस-उस इन्द्रियका मतिज्ञान कहा गया है। यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये कि अवग्रह, ईहा अवश्य और धारणारूप मतिज्ञानमें पदार्थदर्शन Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं०बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ साक्षात् कारण होता है तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमानरूप मतिज्ञानमें तथा श्रुतज्ञानमें पदार्थदर्शन परंपरया कारण होता है । इसका आधार यह है कि दर्शन और अवग्रह, ईहा, अवाय अथवा धारणारूप मतिज्ञानोंके मध्य कोई व्यवधान नहीं है जबकि दर्शन और स्मृतिके मध्य धारणाज्ञानका, दर्शन और प्रत्यभिज्ञानके मध्य स्मृतिका, दर्शन और तर्कके मध्य प्रत्यभिज्ञानका, दर्शन और अनुमानके मध्य तर्कका और दर्शन और श्रुतज्ञानके मध्य अनुमानज्ञानका व्यवधान रहा करता है। यहां श्रुतसे शब्दजन्य श्रुत लिया गया है-ऐसा जानना चाहिये। जिन जीवोंको अवधिज्ञान होता है उनके उसकी उत्पत्तिमें भी दर्शन कारण होता है, जिसे अवधिदर्शन कहते हैं और केवलज्ञानकी उत्पत्तिमें जो दर्शन कारण होता है उसे केवलदर्शन कहा जाता है । यद्यपि मनःपर्ययज्ञान भी दर्शनपूर्वक ही होता है परन्तु उस दर्शनको कौनसा दर्शन कहा जाय ? इसका उल्लेख मुझे आगममें देखनेको नहीं मिला है। फिर भी मेरा अभिमत है कि मनःपर्ययज्ञान मनःस्थित आत्मप्रदेशोंमें मनःपर्ययज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमपूर्वक होता है और वह ईहाज्ञानके पश्चात् होता है अतः हो सकता है कि उस दर्शनको मानस दर्शनके रूपमें अचक्षदर्शनमें अन्तर्भूतकर दिया गया हो, विद्वान पाठकोंको इसपर विचार करना चाहिये। दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगके विविध नाम और उनका आधार (१) यतः दर्शन या दर्शनोपयोगका अर्थ पूर्वोक्त प्रकारसे आत्मामें पदार्थोंका प्रतिविम्बित होना ही है अतएव उसे सामान्य अवलोकन या सामान्यग्रहण नामोंसे पुकारा जाता है और ज्ञान या ज्ञानोपयोगका अर्थ पूर्वोक्त प्रकारसे आत्माको पदार्थोंका प्रतिभासित होना ही है अतः उसे विशेष अवलोकन या विशेषग्रहण नामोंसे पुकारा जाता है । यहाँपर वस्तुके सामान्य अंशका प्रतिभास होना दर्शन और विशेष अंशका प्रतिभास होना शान है-ऐसा अर्थ सामान्य अवलोकन या सामान्य ग्रहणका और विशेष अवलोकन या विशेष ग्रहणका नहीं करना चाहिये। तात्पर्य यह है कि उक्त प्रकारके दर्शन या दर्शनोपयोगमें पदार्थका अवलम्बन होनेसे वह पढार्थावलोकन या पदार्थ ग्रहणरूप तो है फिर भी वह द्रष्टाको अपना संवेदन करानेमें असमर्थ है और जो अपना संवेदन नहीं करा सकता है वह परका संवेदन कैसे करा सकता है ? अतः दर्शन या दर्शनोपयोगको सामान्य अवलोकन या सामान्य ग्रहण नामोंसे पुकारा जाता है। चूंकि प्रमाणज्ञानरूप ज्ञान या ज्ञानोपयोगमें स्वपरसंवेदकता पायी जाती है और अप्रमाणज्ञानरूप ज्ञान या ज्ञानोपयोगमें परसंवेदकताका अभाव रहते हुए भी स्वसंवेदकता तो नियमसे पायी जाती है अतः उन्हें विशेष अवलोकन या विशेष ग्रहण नामोंसे पुकारा जाता है। (२) दर्शन या दर्शनोपयोगका अर्थ जब आत्मामें पदार्थका प्रतिविम्बित होना ही है तभी उसे आगममें निराकार शब्दसे पुकारा गया है और ज्ञान या ज्ञानोपयोगका अर्थ जब आत्माको पदार्थका प्रतिभासित होना ही है तभी उसे साकार शब्दसे पुकारा जाता है । इसका भी तात्पर्य यह है कि उक्त प्रकारके दर्शन या दर्शनोपयोगमें पदार्थका अवलम्बन होते हुए भी स्वसंवेदकता और परसंवेदकता दोनों ही प्रकारके आकारोंका अभाव पाया जाता है अतः उसे निराकार शब्दसे पुकारते है। चूंकि प्रमाणज्ञानरूप ज्ञान या ज्ञानोपयोगमे स्वपरसंवेदकता पायी जाती है और अप्रमाणज्ञानमें परसंवेदकताका अभाव रहते हुए भी स्वसंवेदकता तो नियमसे पायी जाती है अतः उन्हें साकार शब्दसे पुकारते हैं । (३) दर्शन या दर्शनोपयोगका अर्थ जब आत्मामें पदार्थका प्रतिबिम्बित होना ही है तभी उसे आगममें Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्शन और न्याय : ५३ निर्विकल्पक शब्दसे पुकारते हैं और ज्ञान या ज्ञानोपयोगका अर्थ जब आत्माको पदार्थका प्रतिभासित होना ही है तभी उसे सविकल्पक शब्दसे पुकारते हैं । इसका भी तात्पर्य यह है कि उक्त प्रकारके दर्शन या दर्शनोपयोगमें पदार्थका अवलम्बन होते हए भी स्वसंवेदकता और परसंवेदकता दोनों ही प्रकारके विकल्पोंका अभाव पाया जाता है अतः उसे निर्विकल्पक शब्दसे पुकारते हैं। चूंकि प्रमाणज्ञानरूप ज्ञान या ज्ञानोपयोगमें स्वपरसंवेदकता पायी जाती है और अप्रमाणज्ञानरूप ज्ञान या ज्ञानोपयोगमें परसंवेदकताका अभाव रहते हुए भी स्वसंवेदकता तो नियमसे पायी जाती है अतः उन्हें सविकल्पक शब्दसे पुकारते हैं । अर्थात् विद्यमान घड़ेको विषय करनेवाले प्रमाणज्ञानमें “मैं घड़ेको जानता हूँ" ऐसा विकल्प और "यह घड़ा है" ऐसा विकल्प ज्ञाताको होता है तथा अप्रमाणज्ञानमें भी सीपमें “यह सीप है या चाँदी है" या "यह चांदी है" अथवा "यह कुछ है" ऐसा विकल्प ज्ञाताको होता है। परन्तु उक्त प्रकारके दर्शनमें उक्त प्रकार या अन्य प्रकारका कोई विकल्प संभव नहीं है। (४) इसी प्रकार दर्शन या दर्शनोपयोगका अर्थ जब आत्मामें पदार्थका प्रतिबिम्बित होना ही है तभी उसे अव्यवसायात्मक शब्दसे पुकारा गया है और ज्ञान या ज्ञानोपयोगका अर्थं जब आत्माको पदार्थका प्रतिभासित हो जाना है तभी उसे व्यवसायात्मक शब्दसे पुकारा जाता है। इसका भी तात्पर्य यह है कि उक्त दर्शन या दर्शनोपयोगमें पदार्थका अवलम्बन होते हुए भी स्वसंवेदकता और परसंवेदकता दोनों ही प्रकारको व्यवसायात्मकताका अभाव पाया जाता है अतः उसे अध्यवसायात्मक शब्दसे पुकारते हैं। चूंकि प्रमाणज्ञानरूप ज्ञान अथवा ज्ञानोपयोगमें स्वपरसंवेदकता पायी जाती है और अप्रमाणज्ञानरूप ज्ञान या ज्ञानोपयोगमें परसंवेदकताका अभाव रहते हए भी स्वसंवेदकता तो नियमसे पायी जाती है अतः उन्हें व्यवसायात्मक शब्दसे पुकारा जाता है । यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये कि आगममें अप्रमाणज्ञानको जो अव्यवसायी कहा गया है वह इसलिये कहा गया है कि विपर्ययज्ञानमें जिस पदार्थका दर्शन होता है उससे भिन्न पदार्थका ही साद श्यवशात बोध होता है, संशयज्ञानमें जिस पदार्थका दर्शन होता है उसका तथा उसके साथ ही उससे भिन्न पदार्थका भी सादृश्यवशात ढलमिल बोध होता है और अनध्यवसायज्ञानमें तो पदार्थका दर्शन होते हए भी अनिर्णीत बोध होना स्पष्ट है। दर्शनोपयोगकी उपयोगात्मकता आगममें दर्शन या दर्शनोपयोग और ज्ञान या ज्ञानोपयोग दोनोंको ही उपयोगात्मक माना गया है। इनमेंसे ज्ञान या ज्ञानोपयोगको पूर्वोक्त प्रकार विशेष अवलोकन या विशेष ग्रहण रूप होनेसे तथा साकार, सविकल्पक और व्यवसायात्मक होनेसे उपयोगात्मक मानना तो निर्विवाद है, परन्तु दर्शन या दर्शनोपयोगको सामान्य अवलोकन या सामान्यग्रहणरूप होनेसे तथा निराकार, निर्विकल्पक और अव्यवसायात्मक होनेसे उपयोगात्मक मानना अयुक्त जान पड़ता है । फिर भी उसे इसलिये उपयोगात्मक माना गया है कि एक इन्द्रियसे पदार्थका प्रतिबिम्ब आत्मामें पड़नेके अवसरपर अन्य इन्द्रियोंसे भी पदार्थका प्रतिबिम्ब आत्मामें पड़ता है और इसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रियसे एक साथ नाना पदार्थोंका प्रतिविम्ब भी आत्मामें एक साथ पड़ता है। इस तरह आत्मा नाना इन्द्रियोंसे नानापदार्थोंका प्रतिविम्बि एक साथ पड़ने पर भी अथवा एक ही इन्द्रियसे नाना पदार्थों का प्रतिबिम्ब एक साथ पड़नेपर भी उस समय उसी इन्द्रियसे और उसी पदार्थ के आत्मामें पड़नेवाले प्रतिबिम्बको दर्शन या दर्शनोपयोग कहना चाहिये, जो अपने प्रभावको अधिकताके कारण उस समय होनेवाले पदार्थज्ञानमें कारण होता है, क्योंकि नाना इन्द्रियोंसे नाना पदार्थों के तथा एक ही इन्द्रियसे नाना पदार्थोके Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रतिबिम्ब आत्मामें एक साथ पड़नेपर भी अल्पज्ञ जीवोंको उस अवसरपर एक ही इन्द्रियसे एक ही पदार्थका बोध हआ करता है। इस प्रकार आगममें पदार्थप्रतिबिम्बसामान्यको दर्शन या दर्शनोपयोग न मानकर पदार्थप्रतिबिम्बविशेषको ही दर्शन या दर्शनोपयोग स्वीकार किया गया है। दर्शनोपयोग ज्ञानोपयोगसे पथक है यद्यपि दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग दोनों ही उपयोगात्मक है फिर दर्शनोपयोगको ज्ञानोपयोगसे पृथक् ही जैनदर्शनमें स्थान दिया गया है। इसका एक कारण तो यह है कि जहां ज्ञानोपयोगको विशेप अवलोकन या विशेषग्रहणरूप तथा साकार, सविकल्पक और व्यवसायात्मक स्वीकार किया गया है वहां दर्शनोपयोगको सामान्य-अवलोकन या सामान्यग्रहणरूप तथा निराकार, निर्विकल्पक और अव्यवसायात्मक स्वीकार किया गया है। दूसरा कारण यह है कि पूर्वोक्त प्रकार दर्शनोपयोग ज्ञानोपयोगकी उत्पत्तिमें कारण होता है। तीसरा कारण यह है कि दर्शनोपयोग विद्यमान पदार्थका ही हुआ करता है जबकि ज्ञानोपयोग विद्यमान और सादृश्यवशात कदाचित् अविद्यमान पदार्थका भी हुआ करता है। चौथा कारण यह है कि दर्शन पदार्थप्रतिबिम्बरूप होता है जबकि ज्ञान पदार्थप्रनिभासरूप होता है। और पांचवा कारण यह है कि आगममें जीवकी भाववतीशक्तिके विकासके रूपमें दर्शन और ज्ञान दो पृथक् पृथक शक्तियां स्वीकार की गयी हैं तथा इनको ढकनेवाले दर्शनावरण और ज्ञानावरण दो पृथक पृथक् कर्म भी वहां स्गीकार किये गये हैं जिनके क्षयोपशम या क्षय से इनका पृथक् पृथक् विकास होता है। इन्हीं विकसित दर्शनशक्ति और ज्ञानशक्तिके पृथक् पृथक् सामान्य अवलोकन और विशेष अवलोकन करने रूप व्यापारोंको ही क्रमशः दर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग समझना चाहिये । दोनों उपयोगोंके क्रम और योगपद्यपर विचार यद्यपि आत्मामें पदार्थके प्रतिबिम्बित होनेका नाम दर्शनोपयोग है और वह तबतक विद्यमान रहता है जबतक जीवको पदार्थज्ञान होता रहता है, परन्तु दर्शनोपयोगकी पूर्वोक्त उपयोगात्मकताको लेकर यदि विचार किया जाय तो यही तत्त्व निष्पन्न होता है कि छद्मस्थ जीवोंको दर्शनोपयोगके अनन्तर ही ज्ञानोपयोग होता है व सर्वज्ञको दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग दोनों साथ-साथ ही हुआ करते है । जैसा कि द्रव्यसंग्रहकी निम्नलिखित गाथासे स्पष्ट है "दंसणपुव्वं णाणं छदुमत्थाणं ण दुण्णि उवओगा । जुगवं जम्हा केवलिणाहे जुगवं तु ते दो वि ॥४४॥" अर्थ-छद्मस्थ (अल्पज्ञ) जीवोंको दर्शनोपयोगपूर्वक अर्थात दर्शनोपयोगके अनन्तर पश्चात ज्ञानोपयोग हुआ करता है क्योंकि उनके ये दोनों उपयोग एकसाथ नहीं हआ करते हैं लेकिन सर्वज्ञके ये दोनों उपयोग एक ही साथ हुआ करते हैं। दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगकी छद्मस्थ (अल्पज्ञ) और सर्वज्ञकी अपेक्षासे क्रम और योगपद्य रूप उपर्युक्त व्यवस्थाको स्वीकृत करनेका आधार यह है कि सर्वज्ञके ज्ञान में संपूर्ण पदार्थ कालके प्रत्येक क्षणसे विभाजित अपनीअपनी समस्त त्रैकालिक पर्यायोंके साथ सतत् प्रतिभासित होते रहते हैं अर्थात् कालका ऐसा एक क्षण भी नहीं है जिसमें सम्पूर्ण पदार्थोंका अपनी-अपनी उक्त प्रकारकी समस्त कालिक पर्यायोंके साथ प्रतिभास न होता हो,क्योंकि उसका (सर्वज्ञका) ज्ञान भी पूर्वोक्त प्रकारके दर्शनका अवलम्बन लेकर ही उत्पन्न हुआ करता है। यतः उसके दर्शन और ज्ञानमें सहभावीपना निश्चित हो जाता है। यतः अल्पज्ञका ज्ञान विषयीकृत पदार्थकी क्षणवर्ती पर्यायको पकड़नेमें असमर्थ रहता है क्योंकि वह अन्तर्मुहुर्तवर्ती पर्यायोंकी स्थूलरूपताको हो सतत एक पर्या यके रूपमें ग्रहण करता है अतः उसके ज्ञान क्षणिक विभाजन नहीं हो पाता है। दूसरी बात यह है कि सर्वज्ञका Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/वर्शन और न्याय : ५५ ज्ञान समयके भेदसे परिवर्तित होनेपर भी विषयके भेदसे कभी परिवर्तित नहीं होता है, क्योंकि उसका ज्ञान प्रथम क्षणमें पदार्थीको जिस रूपमें जानता है उसी रूपमें द्वितीयादि क्षणोंमें भी जानता है। परन्तु अल्पज्ञका ज्ञान विषयभेदके आधारपर सतत परिवर्तित होता रहता है। अर्थात् अल्पज्ञको कभी किसी इन्द्रियद्वारा किसी रूपमें पदार्थज्ञान होता है और कभी किसी इन्द्रियद्वारा किसी रूपमें पदार्थज्ञान होता है। इसी प्रकार एक ही इन्द्रियसे कभी किसी रूप में पदार्थज्ञान होता है और कभी किसी रूप में पदार्थज्ञान होता है। पदार्थज्ञानकी यह स्थिति अल्पज्ञके दर्शनोपयोगमें परिवर्तन माननेके लिये बाध्य कर देती है। तीसरी बात, जैसी कि पूर्व में स्पष्टकी गयी है, यह है कि आत्मामें पड़ने वाले पदार्थ प्रतिविम्बसामान्यका नाम दर्शनोपयोग नहीं है किन्तु आत्मामें पड़ने वाले पदार्थप्रतिविम्बविशेषका नाम ही दर्शनोपयोग है अर्थात् ज्ञानोपयोगकी उत्पत्तिके कारणभूत आत्मामें पड़नेवाले पदार्थप्रतिबिम्बका नाम ही दर्शनोपयोग है । इस प्रकार इन आधारोंसे अल्पज्ञके दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगमें दोनोंकी उपयोगात्मकता और कार्यकारणभावके आधारपर दोनोंमें क्रम सिद्ध हो जाता है। अर्थात विशेषग्रहणके अवसरपर सामान्यग्रहणकी स्थिति उपयोगात्मकताके आधारपर क्षीण हो जाती है और कार्यकारणभावके आधारपर जैसे कषायका पूर्णरूपेण उपशम अथवा क्षय दशवें गुणस्थानके अन्त समयमें मानकर उसके अनन्तर समयमें उपशान्तमोह नामक एकादश गुणस्थानकी अथवा क्षीणमोह नामक द्वादश गुणस्थानको व्यवस्थाको आगममें स्वीकार किया गया है वैसे हो अल्पज्ञके दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगके क्रमको स्वीकार करना चाहिये तथा जैसे कषायके उपशम व क्षयके साथ आत्माकी उपशान्तमोहरूप अवस्थाके व क्षीणमोहरूप अवस्थाके सदभावकी अपेक्षा क्षणभेद नहीं है वैसा ही क्षणभेद सद्भावकी अपेक्षा अल्पज्ञके दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगमें नहीं है । अर्थात् ज्ञानोपयोगके साथ दर्शनोपयोगका यदि सद्भाव न स्वीकार किया जाय तो ज्ञानोपयोगका आधार समाप्त हो जानेसे ज्ञानोपयोगका ही अभाव हो जायगा। दर्शनोपयोगका महत्त्व यद्यपि पूर्व के विवेचनसे ज्ञानोपयोगके समान दर्शनोपयोगका महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। फिर भी यहाँ अनेक प्रकारसे दर्शनोपयोगका महत्त्व स्पष्ट किया जा रहा है। ज्ञान या ज्ञानोपयोपके अवस्थाओंके भेदके आधारपर आगममें पूर्वोक्त प्रकार अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलके भेदसे बारह भेद बतलाये गये हैं और इन सबको प्रत्यक्ष और परोक्षके नामसे दो वर्गोंम गभित कर दिया गया है। अब यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि एक ज्ञान प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष क्यों है ? इस प्रश्नके समाधान स्वरूप आगममें जो कुछ प्रतिपादित है उसका सार यह है कि सब जीवोंमें पदार्थोके जाननेकी जो शक्ति विद्यमान है उसके आधारपर ही प्रत्येक जीव पदार्थोंका बोध किया करता है, जिस बोधका फल प्रवृत्ति, निवृत्ति अथवा उपेक्षाके रूपमें जोवको प्राप्त होता है। पदार्थोंका बोध सामान्यतया मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानके भेदसे पाँच प्रकारका होता है। मतिज्ञानमें स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण इन पाँच इन्द्रियों अथवा मनकी सहायता अपेक्षित रहा करती है । श्रुतज्ञान केवल मनकी सहायतासे ही उत्पन्न हुआ करता है तथा अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीन ज्ञान इन्द्रिय अथवा मनकी सहायताकी अपेक्षा किये बिना ही उत्पन्न हुआ करते हैं। ज्ञानके उपयुक्त बारह भेदोंमें अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान इन सबको मतिज्ञानमें अन्तर्भूत कर दिया गया है तथा शेष श्रुत, अवधि, मनःपयय और केवल ये चार स्वतंत्र ज्ञान है । इनमेंसे अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीन ज्ञान सर्वथा प्रत्यक्ष है, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ अनुमान और श्रुत ये पाँच ज्ञान सर्वथा परोक्ष हैं तथा अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार ज्ञान कथंचित् प्रत्यक्ष हैं और कथंचित् परोक्ष हैं । अब यहाँ ये प्रश्न उपस्थित होते हैं कि मतिज्ञानके भेद स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान तथा श्रतज्ञान ये सब सर्वथा परोक्ष क्यों है ? तथा अवधि, मनःपर्यय और केवल ये ज्ञान सर्वथा प्रत्यक्ष क्यों है ? व इसी प्रकार मतिज्ञानके ही भेद अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये ज्ञान कथंचित प्रत्यक्ष और कथंचित् परोक्ष क्यों हैं ? इन प्रश्नोंका समाधान यह है कि आगममें प्रत्यक्ष और परोक्ष शब्दोंके दो-दो अर्थ स्वीकार किये गये है । अर्थात् एक प्रत्यक्ष तो वह ज्ञान है जो इन्द्रिय अथवा मनकी सहायताकी अपेक्षा किये बिना ही होता है और दूसरा प्रत्यक्ष वह ज्ञान है जिसमें पदार्थका विशद ( साक्षात्कार ) रूप बोध होता है। इसी प्रकार एक परोक्ष तो वह ज्ञान है जो इन्द्रिय अथवा मनकी सहायतासे होता है और दूसरा परोक्ष वह ज्ञान है जिसमें पदार्थका अविशद (असाक्षात्कार) रूप बोध होता है। प्रत्यक्ष और परोक्षके उक्त लक्षणोंमेंसे पहला-पहला लक्षण तो करणानुयोगको विशुद्ध आध्यात्मिक पद्धतिके आधारपर निश्चित किया गया है और दूसरा-दूसरा लक्षण द्रव्यानुयोगकी तत्त्वप्रतिपादक पद्धतिके आधारपर निश्चित किया गया है। पहला-पहला लक्षण तो ज्ञानोंकी स्वाधीनता व पराधीनता बतलाता है और दूसरा-दुसरा लक्षण ज्ञानोंके तथ्यात्मक स्वरूपका प्रतिपादन करता है। इस विवेचनके आधारपर मैं यह कहना चाहता हूँ कि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और श्रुत ये सभी ज्ञान इन्द्रिय अथवा मनकी सहायतासे उत्पन्न होनेके आधारपर पराधीन होनेके कारण करणानुयोगकी विशद्ध आध्यात्मिकदृष्टिसे भी परोक्ष हैं व इनमें पदार्थका अविशद ( असाक्षात्कार ) रूप बोध होनेके कारण द्रव्यानुयोगकी तथ्यात्मकस्वरूप-प्रतिपादनदृष्टिसे भी परोक्ष हैं, अतः सर्वथा परोक्ष है। इसी तरह अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीन ज्ञान इन्द्रिय अथवा मनकी सहायताके बिना ही उत्पन्न होनेके आधारपर स्वाधीन होनेके कारण करणानुयोगकी विशुद्ध आध्यात्मिकदृष्टिसे भी प्रत्यक्ष है व इनमें पदार्थका विशद (साक्षात्कार) रूप बोध होनेके कारण द्रव्यानुयोगकी तथ्यात्मकस्वरूप-प्रतिपादनदृष्टिसे भी प्रत्यक्ष हैं, अतः सर्वथा प्रत्यक्ष है । लेकिन अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार ज्ञान इन्द्रिय अथवा मनकी सहायतासे उत्पन्न होनेके आधारपर पराधीन होनेके कारण करणानुयोगको विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टिसे जहाँ परोक्ष हैं वहाँ इनमें पदार्थका विशद (साक्षात्कार) रूप बोध होनेके कारण द्रव्यानुयोगकी तथ्यात्मकस्वरूप-प्रतिपादनदृष्टि से प्रत्यक्ष हैं, अतः कथंचित् परोक्ष और कथंचित् प्रत्यक्ष हैं। यहाँपर यदि यह प्रश्न किया जाय कि पदार्थका विशद (साक्षत्कार) रूप बोध क्या है ? और पदार्थ का अविशद (असाक्षात्कार) रूप बोध क्या है ? तो इसका समाधान यह है कि जिस बोधमें पदार्थदर्शन साक्षात् कारण होता है वह बोध पदार्थका स्पष्ट बोध होनेके आधारपर विशद ( साक्षात्कार ) रूप बोध कहलाता है और जिस बोधमें पदार्थदर्शन साक्षात् कारण न होकर परंपरया कारण होता है वह बोध पदार्थका अस्पष्ट बोध होनेके आधारपर अवशिद (असाक्षात्कार) रूप बोध कहलाता है और यह बात पूर्वमें बतलायी जा चकी है कि पदार्थका विशद (साक्षात्कार) रूप बोध ही प्रत्यक्ष है और पदार्थका अविशद (असाक्षात्कार) रूप बोध ही परोक्ष है । यतः अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप मतिज्ञानोंमें व अवधि, मनःपर्यय और केवलरूप ज्ञानोंमें पदार्थदर्शन साक्षात् कारण होता है, इसलिये इस दृष्टिसे ये सब ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाते हैं और यतः स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क तथा अनुमानरूप मतिज्ञानोंमें व श्रुतज्ञानमें पदार्थदर्शन साक्षात् कारण नहीं होकर Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ वर्शन और न्याय : ५७ परंपरया कारण होता है क्योंकि दर्शन और इन ज्ञानोंके मध्य अन्य ज्ञानोंका व्यवधान रहा करता है जैसा कि पूर्वमें बतलाया जा चुका है कि दर्शन और स्मृतिके मध्य धारणाज्ञानका व्यवधान होता है क्योंकि स्मतिजान धारणाज्ञानपूर्वक होता है, दर्शन और प्रत्यभिज्ञानके मध्य धारणाज्ञानके अनन्तर पश्चात् होनेवाले स्मतिज्ञानका व्यवधान रहा करता है क्योंकि प्रत्यभिज्ञान स्मतिज्ञान पर्वक होता है, दर्शन और तर्क ज्ञानके मध्य स्मृतिज्ञानके अनन्तर पश्चात् होने बाले प्रत्यभिज्ञानका व्यवधान रहता है क्योंकि तर्कज्ञान प्रत्यभिज्ञान पूर्वक होता है, दर्शन और अनुमान ज्ञानके मध्य प्रत्यभिज्ञानके अनन्तर पश्चात् होने वाले तक ज्ञानका व्यवधान रहता है क्योंकि अनुमानज्ञान तर्कज्ञान पूर्वक होता है और दर्शन और श्रुतज्ञानके मध्य तर्क ज्ञानके अनन्तर पश्चात् होनेवाले अनुमान ज्ञानका व्यवधान रहता है क्योंकि श्रुतज्ञान अनुमान पूर्वक होता है, इसलिये ये स्मृति आदि ज्ञान इस दृष्टिसे परोक्ष कहलाते हैं। इस विवेचनसे यह बात बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि एक तो पदार्थदर्शन पदार्थज्ञानमें अनिवार्य कारण होता है और दूसरे पदार्थदर्शनको साक्षात् कारणता पदार्थ ज्ञानकी प्रत्यक्षाका और पदार्थदर्शनकी असाक्षात कारणता अर्थात परंपरया कारणता पदार्थ ज्ञानकी परोक्षताका आधार है. इसलिये दर्शनोपयोगका महत्त्व प्रस्थापित हो जाता है और तब इस प्रश्नका भी समाधान हो जाता है। कि एक ज्ञान प्रत्यक्ष और दूसरा ज्ञान परोक्ष क्यों है ? अब यहाँ पर एक बात और विचारणीय रह जाती है कि जिस प्रकार दर्शन और स्मृति, प्रत्यभिज्ञान तर्क, अनुमान और श्रुतनामके ज्ञानोंके मध्य पूर्वोक्त प्रकार यथासम्भव धारणा आदि ज्ञानोंका व्यवधान रहता है उसी प्रकार जब ईहाज्ञान अवग्रहपूर्वक होता है, अबायज्ञान ईहाज्ञानपूर्वक होता है और धारणाज्ञान अवायज्ञानपूर्वक होता है, तथा इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञान भी ईहाज्ञानपूर्वक ही होता है तो अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाज्ञानोंमें तथा मनःपर्ययज्ञानमें भी दर्शनके साथ यथासम्भव अन्य ज्ञानोंका व्यवधान सिद्ध हो जाने से इन्हें प्रत्यक्ष कैसे कहा जा सकता है ? इसका उत्तर यह है कि यद्यपि ईहाज्ञानमें अवग्रहज्ञानकी कारणता, अवायज्ञानमें ईहाज्ञानकी कारणता, धारणाज्ञानमें अवायज्ञानकी कारणता और मनःपर्ययज्ञानमें भी ईहाज्ञानकी कारणता विद्यमान है अर्थात् ये सब ज्ञान इनके पश्चात् ही होते हैं फिर भी पूर्वोक्त दर्शन इन ज्ञानोंमें साक्षात् ही कारण होता है अर्थात् दर्शन और इन ज्ञानोंके मध्य वे अवग्रह आदि ज्ञान व्यवधानकारक नहीं होते हैं इसलिये इन ज्ञानोंमें दर्शनकी साक्षात् कारणताकी सिद्धि में कोई बाधा नहीं उत्पन्न होती है । अतः इन ज्ञानोंकी प्रत्यक्षतामें भी इस दृष्टिसे कोई बाधा नहीं उत्पन्न होती है। ___ यहाँ प्रसंगवश मैं इतना और कह देना चाहता हूँ कि कहीं-कहीं (अभ्यस्त दशामें) अवग्रहज्ञान अवायात्मक रूपमें ही उत्पन्न होता है और कहीं-कहीं (अनभ्यस्त दशामें) अवग्रहज्ञानके पश्चात संशय उत्पन्न होने पर ईशाज्ञान उत्पन्न होता है और तब वह अवग्रहज्ञान अवायज्ञानका रूप धारण करता है। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन में दर्शनोपयोगका स्थान बौद्धदर्शन में वर्णित प्रत्यक्ष और जैनदर्शनमें वर्णित दर्शनोपयोग दोनोंके स्वरूप में करीब-करीब साम्य पाया जाता है । लेकिन बौद्धदर्शन में जहाँ उसके माने हुए प्रत्यक्षको प्रमाण मान लिया गया है वहाँ जैनदर्शन में दर्शनोपयोगको प्रमाणता और अप्रमाणताके दायरेसे परे रखा गया है, क्योंकि जैनदर्शन में स्वपरव्यवसायीको प्रमाण माना गया है और जो व्यवसायी होते हुए भी परव्यवसायी नहीं है उसे अप्रमाण माना गया है । ये दोनों प्रकारको अवस्थाएँ ज्ञानोपयोगकी ही हुआ करती हैं, अतः ज्ञानोपयोग तो प्रमाण और अप्रमाणरूप होता है लेकिन दर्शनोपयोगमें स्वपरव्यवसायात्मकताका सर्वथा अभाव पाया जाता है, अतः उसे न तो प्रमाण कह सकते हैं और न अप्रमाण ही कह सकते हैं । फिर भी ज्ञानोपयोगकी उत्पत्ति में अनिवार्य कारण होने की वजह से दर्शनोपयोगका महत्त्व जैनदर्शनमें कम नहीं आंका गया है । विश्वको जैनर्शनमें छह प्रकारके द्रव्यों में विभक्त कर दिया गया है - ( १ ) अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्तावाले अनन्त जीव द्रव्य, (२) अणु और स्कन्ध (पिंड) दो भेदरूप अनन्त पुद्गलद्रव्य, (३) एक धर्मद्रव्य, (४) एक अधर्मद्रव्य, (५) अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्तावाले असंख्यात कालद्रव्य और (६) एक आकाशद्रव्य । इन सब द्रव्यों को समुदायरूपसे विश्व नामसे पुकारा जाता है क्योंकि इनके अतिरिक्त विश्वमें कुछ शेष नहीं रह जाता है और विश्वको जगत् इसलिये कहते हैं क्योंकि ये सब अपने-अपने स्वरूपको न छोड़ते हुए परिणमनशील हैं। ये सब द्रव्य प्रतिसमय अपने-अपने नियत स्वभावके अनुरूप कार्य करते रहते हैं- आकाशद्रव्य समस्त द्रव्योंको सतत अपने अन्दर समाये हुए हैं, सभी कालद्रव्य समस्त द्रव्योंको प्रतिक्षण उनकी अपनी संभाव्य पर्यायोंके रूपमें पलटाते रहते हैं, धर्मद्रव्य सभी जीव और पुद्गल द्रव्योंको हलन चलनरूप क्रिया करते समय उस क्रियामें सतत सहायक होता रहता है, अधर्मद्रव्य उन सभी जीव और पुद्गल द्रव्योंको उक्त हलन चलनरूप क्रियाको बन्द करते समय उसमें सतत सहायक होता रहता है, सभी पुद्गल द्रव्य अशुद्ध जीवद्रव्यों के साथ और परस्पर एक दूसरे पुद्गलद्रव्योंके साथ सतत मिलते और बिछुड़ते रहते हैं तथा सभी जीवद्रव्य सम्पूर्ण द्रव्यों को अपनी-अपनी योग्यताके विकास के अनुसार सर्वदा देखते और जानते रहते हैं । जीवोंकी इस देखनेरूप प्रवृत्तिको हो जैनागममें दर्शनोपयोग और जाननेरूप प्रवृत्तिको ज्ञानोपयोग कहा गया है । इन दोनों उपयोगों में अविनाभावरूप संबन्ध पाया जाता है अर्थात् प्रत्येक पदार्थ के ज्ञानमें उस पदार्थका दर्शन कारण हुआ करता है । इसलिये प्रत्येक जीवमें ज्ञानोपयोगके साथ दर्शनोपयोगकी सत्ता जैनदर्शनमें स्वीकार की गयी है । परन्तु साथ ही आगमग्रन्थोंमें यह बात भी बतलायी गयी है कि सर्वज्ञजीवके दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग दोनों एक साथ होते रहते हैं और अल्पज्ञजीवके दर्शनोपयोगके अनन्तर ज्ञानोपयोग हुआ करता है अर्थात् उसके दर्शनोपयोगकी दशामें ज्ञानोपयोग उत्पन्न नहीं होता है और ज्ञानोपयोगकी दशामें दर्शनोपयोग समाप्त हो जाता है । बहुत कुछ सोचनेके बाद मैं इस निष्कर्षपर पहुँचा कि सर्वज्ञकी तरह अल्पज्ञोंके भी दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग दोनोंकी एक ही साथ उत्पत्ति और अवस्थिति होनी चाहिये, अन्यथा दोनोंमें कार्यकारणभावकी व्यवस्था नहीं बन सकती है क्योंकि कारण के सद्भावमें ही कार्य हुआ करता है कारणके अभाव में नहीं, इसलिये ""अल्पज्ञजीवके दर्शनके अनन्तर ज्ञान होता है" यह कल्पना अर्वाचीन जान पड़ती है, जैनदर्शनकी यह मौलिक बात नहीं है । यदि कहा जाय कि " द्रव्यकी पूर्वपर्याय उत्तरपर्याय में कारण हुआ करती है और दर्शनोपयोग अल्पज्ञजोवकी पूर्व पर्याय ज्ञानोपयोग उसकी उत्तरपर्याय ही तो है, अतः उक्त कार्यकारणभाव में कोई विरोध नहीं है", तो ऐसा माननेपर यह आपत्ति उपस्थित की जा सकती है कि सर्वज्ञके दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग में Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्शन और न्याय : ५९ भी क्रमसे पूर्वपर्याय और उत्तरपर्यायका रूप स्वीकार करना चाहिये । यदि सर्वज्ञकी सर्वज्ञताकी समाप्तिके भयसे उसके दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगमें क्रमसे पूर्वपर्याय और उत्तरपर्यायका रूप नहीं स्वीकार करके दोनोंकी एक ही साथ उत्पत्ति और अवस्थिति स्वीकार कर ली जाती है तो दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगमें क्रमसे पूर्वपर्यायता और उत्तरपर्यायताका अभाव निश्चित हो जाने की वजहसे अल्पज्ञके दर्शनोपयोगको उसकी पूर्वपर्याय और ज्ञानोपयोगको उसकी उत्तरपर्याय कैसे कहा जा सकता है ? वास्तवमें जीवकी देखने और जानने रूप दो पृथक-पृथक शक्तियाँ हैं। यही सबब है कि दोनों शक्तियोंको ढकनेवाले दर्शनावरण और ज्ञानावरण दो पृथक्-पृथक कर्मजैन कर्मसिद्धान्तमें स्वीकार किये गये हैं । इन्हीं दोनों शक्तियोंके पुथक-पृथक् विकास ही दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगके नामसे पुकारे जाते हैं, इसलिये दर्शनोपयोगको जीवकी पूर्वपर्याय और ज्ञानोपयोगको उसकी उत्तरपर्याय मानना अयुक्त है। यदि ये दोनों एक ही शक्तिके दो विकास होते, तो इन्हें अवश्य ही पूर्वपर्याय और उत्तरपर्यायके रूपमें स्वीकार किया जा सकता था परन्तु पूर्वोक्त प्रकारसे न तो ये एक ही शक्तिके दो विकास सिद्ध होते हैं और न इन्हें एक ही शक्तिके दो विकासके रूप में स्वीकार ही किया गया है इसलिये जब दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगमें कार्यकारणभाव मान्य है तो सर्वज्ञकी तरह अल्पज्ञोंमें भी इनका एक ही साथ सद्भाव रहना उपयुक्त है ? शंका-सर्वज्ञके दर्शन और ज्ञान सर्वथा निरावरण हो जानेकी वजहसे अपने आपमें परिपूर्ण और परावलंबनसे रहित है अतः दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग दोनोंके एक साथ होने या रहनेमें कोई बाधा नहीं आती है । परन्तु अल्पज्ञके दर्शन और ज्ञान जब अपने आपमें पूर्णतारहित एवं यथायोग्य समान परावलम्बी पाये जाते हैं तो उनका एक साथ पैदा होना या रहना कैसे संभव हो सकता है ? अतः सर्वज्ञके एक साथ दोनों उपयोगोंका सदभाव मानना और अल्पज्ञके दोनोंका एक साथ अभाव स्वीकार करना अयुक्त नहीं है ? समाधान-यदि जीवमें दो उपयोग एक साथ रहनेकी योग्यता है तो अल्पज्ञता उसमें बाधक नहीं हो सकती है और यदि जीवमें दो उपयोग एक साथ रहनेकी योग्यता नहीं है तो सर्वज्ञता उसमें साधक नहीं हो सकती है। जैसे एक ही दर्शनशक्ति या ज्ञानशक्तिके विकास स्वरूप दो उपयोग एक साथ रहनेकी योग्यता जीवमें नहीं है तो इस प्रकारके दो उपयोग एक साथ सर्वज्ञमें भी संभव नहीं हो सकते हैं । इसका मतलब यह हुआ कि सर्वज्ञके भी प्रतिक्षण जो संपूर्ण पदार्थोंका दर्शन और ज्ञान होता रहता है वह दर्शन और ज्ञान अनन्त पदार्थोंका होते हुए भी पृथक-पृथक् अनन्त उपयोग रूप नहीं होता, अपितु अनन्त पदार्थोको विषय करनेवाला एक ही दर्शनरूप उपयोग और एक ही ज्ञानरूप उपयोग होता है। इसी प्रकार जीवकी एक ही श्रद्धाशक्ति, एक ही चारित्रशक्ति, एक ही सुखशक्ति, एक ही वीर्यशक्ति आदि अनन्त शक्तियोंका पृथक्-पृथक् दो तरहका विकास सर्वज्ञके भी एक साथ संभव नहीं है । परन्तु जीवमें अनन्त प्रकारकी उक्त जितनी शक्तियाँ पायी जाती हैं वे सब अपने-अपने पृथक्-पृथक् एक-एक विकसित रूपमें सर्वज्ञ और अल्पज्ञ सब अवस्थाओंमें एक साथ पायी जाती हैं और पायी जाना उचित भी है क्योंकि जो भी शक्ति अपने किसी एक विकसित रूपके साथ एक अवस्थामें नहीं पायी जायगी, तो उस शक्तिका जीवकी सब अवस्थाओंमें अभाव मानना अनिवार्य हो जायगा । इसलिये सर्वज्ञको तरह अल्पज्ञ जीवमें जब ज्ञानशक्तिके किसी-न-किसी विकसित रूपके साथ श्रद्धाशक्ति, चारित्रशक्ति, सुखशक्ति, वीर्यशक्ति आदि अनन्त शक्तियोंका अपना अपना कोई-न-कोई विकसित रूप सर्वदा विद्यमान रहता ही है, तो इन सबके साथ दर्शनशक्तिका भी कोई-न-कोई विकसित रूप उसमें अवश्य ही सर्वदा विद्यमान रहना चाहिये । जोवकी प्रत्येक शक्तिका इस प्रकार अपने अपने किसी-न-किसी विकसित रूपमें रहने का नाम ही उपयोग है। यहांपर यह बात भी ध्यानमें रखना आवश्यक है कि जिस प्रकार सर्वज्ञके केवलज्ञानमें केवलदर्शन कारण हुआ करता है उसी प्रकार अल्पज्ञके अवधिज्ञानमें अवधिदर्शनको तथा उस उस इन्द्रियसे Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दम-ग्रन्थ होनेवाले मतिज्ञानमें उस उस इन्द्रियसे होनेवाले दर्शनको ही कारण माना गया है। यदि भिन्न समयका दर्शन भिन्न समयके ज्ञानमें कारण माना जाता है तो "अमुक प्रकारके ज्ञान में अमुक प्रकारका दर्शन ही कारण होता है। इस प्रकारका प्रतिनियत कार्यकारणभाव अल्पज्ञके दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगमें नहीं बन सकता है, क्योंकि फिर तो अवधिदर्शनके बाद भी मतिज्ञान हो जाना चाहिए और चक्षुदर्शन तथा अचक्षुदर्शनके बाद भी अवधिज्ञान हो जाना चाहिए । लेकिन जब ऐसा अप्रतिनियत कार्यकारणभाव न तो संभव है और न माना ही गया है तो इसका आशय यही है कि अल्पज्ञजीवके भी दर्शनके सद्भावमें ही ज्ञान हआ करता है, दर्शनके अनन्तर उसके अभावमें नहीं। शंका-दर्शनोपयोगको आगममें सामान्यग्रहण, निराकार, निर्विकल्पक और अव्यवसायात्मक तथा ज्ञानोपयोगको विशेषग्रहण, साकार, सविकल्पक और व्यवसायात्मक स्वीकार किया गया है, अतः परस्पर विरोधपना होनेकी वजहसे दर्शन और ज्ञानका एक कालमें सद्भाव मानना अयुक्त है ? समाधान-उक्त प्रकारका विरोधीपना जब सर्वज्ञके दर्शन और ज्ञानके अन्दर भी विद्यमान है और फिर भी उसके दर्शन और ज्ञान साथ-साथ एक ही कालमें उत्पन्न होते और अवस्थित रहते हैं तो इसका आशय यही है कि दर्शन और ज्ञानका उक्त प्रकारका विरोधीपना उनके एक कालमें एकसाथ उत्पन्न होने या रहने में बाधक नहीं होता है। यदि कहा जाय कि वास्तवमें सर्वज्ञके सर्वदा सिर्फ ज्ञानोपयोग ही रहता है-उसके दर्शनका अद्भाव तो केवल उपचार मात्र है तो इस तरहसे फिर जीवमें ज्ञानशक्तिसे पृथक् दर्शननामकी एक शक्ति और उसके आवारक स्वतंत्र दर्शनावरणकर्मको स्वीकार करने की आवश्यकता ही क्या रह जाती है ? इसलिये दर्शनोपयोगके सामान्यग्रहण आदि और ज्ञानोपयोगके विशेषग्रहण आदि संकेतोंका ठीक-ठीक अर्थ न समझ सकनेके कारण हो यह भ्रम पैदा हो गया है कि दर्शन और ज्ञान परस्पर विरोधी है । अतः इस भ्रमका निराकरण करनेके लिये यहाँपर उक्त संकेतोंके अर्थपर तथा दर्शनके स्वरूपपर दृष्टि डाल लेना आवश्यक है वर्तमानमें दर्शनके निम्नलिखित अर्थ प्रचलित है१. वस्तुविशेषका बोधरहित “है" इत्याकारक मानका नाम दर्शन है। २. पहले पदार्थसे उपयोग हटनेके बाद जबतक दूसरे पदार्थसे उपयोग नहीं जुड़ जाता, इस अन्तराल में जो केवल आत्मबोध हुआ करता है उसको दर्शन समझना चाहिये। ३. उक्त प्रकारके अन्तरालमें चैतन्यकी जो अनुपयुक्त अवस्था रहती है उसका नाम दर्शन है। दर्शनके उक्त प्रचलित अर्थों से पहले और दूसरे प्रकारके अर्थ इसलिये गलत हैं कि उक्त अर्थोके स्वीकार करनेसे दर्शन भी ज्ञानकी तरह सविकल्पक, साकार और व्यवसायात्मक हो जायगा। तीसरा अर्थ इसलिये गलत है कि ऐसा कोई क्षण नहीं, जिसमें चैतन्य अनुपयुक्त अवस्थामें रहता हो। साथ ही अनुपयुक्त चैतन्यको दर्शनोपयोग माननेसे दर्शनकी उपयोगात्मकता समाप्त हो जायगी। तीसरे अनुपयुक्त चैतन्यको दर्शन और उपयुक्त चैतन्यको ज्ञान स्वीकार कर लेनेसे दर्शनावरणकर्मका पृथक् अस्तित्व स्वीकार करना असंगत हो जायगा। मेरे मतसे दर्शनका अर्थ है आत्मप्रदेशोंमें ज्ञेय पदार्थके आकारका आ जाना। इस प्रकार जिस कालमें जिस ज्ञेय पदार्थका आकार आमोद आत्मप्रदेशोंमें आता है उस कालमें उस पदार्थका ही बोध हुआ करता है, सर्वज्ञके दर्शनावरणकर्मका सर्वथा क्षय हो जानेके सबबसे समस्त आत्मप्रदेशोंमें संपूर्ण पदार्थ प्रतिक्षण स्वभावतः प्रतिबिम्बित होते रहते हैं । अतः सर्वज्ञको प्रतिक्षण संपूर्ण पदार्थोका ज्ञान होता रहता है। लेकिन अल्पज्ञके आत्मप्रदेशोंमें ज्ञेय पदार्थका प्रतिबिम्बित होना निमित्ताधीन है अर्थात प्रतिनियत पदार्थों का प्रतिनियत इन्द्रिय द्वारा प्रतिनियत आत्मप्रदेशोंमें जब-जब आकार आता है तब-तब उस-उस इंद्रिय द्वारा उन-उन पदाथोका मतिज्ञान हआ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्शन और न्याय ६१ करता है और तब दर्शनको भी उस उस इन्द्रियका दर्शन कहा जाता है। श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक हुआ करता है, अतः उसके लिये दर्शनके सद्भावकी आवश्यकता नहीं रहती है। अवधिज्ञानमें दर्शनको आवश्यकता रहती है अर्थात् प्रतिनियत आत्मप्रदेशों में प्रतिनियत पदार्थोंका बिना इन्द्रियोंकी सहायताके जो प्रतिबिम्ब आता है उसके सद्भावमें अवधिज्ञान हुआ करता है ऐसे प्रतिबिम्बको अवधिदर्शन कहते हैं । मन:पर्ययज्ञान ईहामतिज्ञान पूर्वक हुआ करता है, अतः ईहामतिज्ञानमें जिस दर्शनकी अपेक्षा रहती है वही दर्शन मन:पर्ययज्ञानके समय विद्यमान रहता है। इस विवेचनका निष्कर्ष यह है कि १. एक पदार्थ या नाना अथवा संपूर्ण पदार्थोंका आत्मप्रदेशोंमें इन्द्रिय आदि निमित्तसापेक्ष अथवा निमित्तकी अपेक्षारहित प्रतिबिम्बित होना ही दर्शन कहलाता है। २. इस प्रकारके दर्शनके सद्भावमें ही सर्वज्ञ और अल्पक्ष दोनों तरहके जीवोंको पदार्थज्ञान हुआ करता है अन्यथा नहीं । ३. प्रतिनियत दर्शन ही प्रतिनियत पदार्थज्ञानमें कारण हुआ करता है। उक्त दर्शन सामान्यग्रहणरूप है क्योंकि उसमें ज्ञानकी तरह प्रमाणता और अप्रमाणताका विशेष (भेद) नहीं पाया जाता है और इसका कारण हम पहले बतला आये हैं कि दर्शन में स्वपरव्यवसायात्मकताका सर्वथा अभाव पाया जाता है जबकि स्वपरव्यवसायात्मकता प्रमाणताका तथा स्वव्यवसायात्मकताके रहते हुए परव्यवसायात्मकताका अभाव अप्रमाणताका • चिह्न माना जाता है । तात्पर्य यह है कि उक्त दर्शनमें पदार्थका अवलम्बन होने की वजहसे वह पदार्थग्रहणरूप तो होता है फिर भी वह द्रष्टाको अपना संवेदन कराने में असमर्थ रहता है और जो अपना संवेदन नहीं करा सकता है वह परका संवेदन कैसे करा सकता है ? इसलिये दर्शनको "सामान्यग्रहण" शब्दसे पुकारना उपयुक्त ही है। ज्ञान चाहे प्रमाण हो या चाहे अप्रमाण हो - उसमें स्वसंवेदकता तो हर हालत में रहती ही है अतः उसे ( ज्ञानको ) "विशेषग्रहण" शब्दसे पुकारा जाता है। उक्त दर्शनको निराकार भी कहते हैं क्योंकि उसमें पूर्वोक्त प्रकार से स्वसंवेदकता और परसंवेदकता दोनोंका अभाव होनेके कारण न तो प्रमाणताका आकार पाया जाता है और न अप्रमाणताका ही आकार पाया जाता है। इसी प्रकार उक्त दर्शनको अव्यवसायात्मक भी कहते हैं। क्योंकि हम बतला चुके हैं कि उसमें स्वसंवेदकता और परसंवेदकता दोनोंका अभाव रहता है जबकि प्रमाणज्ञानमें स्वसंवेदकता और परसंवेदकता दोनोंका सद्भाव और अप्रमाणज्ञानमें परसंवेदकताका अभाव रहते हुए भी कम-से-कम स्वसंवेदकताका सद्भाव पाया जाता है। इस प्रकार जो अव्यवसायात्मक होता है यह सविकल्पक नहीं हो सकता है इसलिये दर्शनको "निर्विकल्पक शब्दसे भी पुकारा जाता है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार पड़ेको विषय करनेवाले प्रमाणज्ञान में ''मैं घड़ेको जानता हूँ" ऐसा विकल्प और उक्त ज्ञानके विषयभूत घड़े में "यह घड़ा है" ऐसा विकल्प ज्ञाताको होता है तथा अप्रमाणज्ञान के भेद संशय, विपरीत और अनध्यबसाय इन तीनोंमें क्रमसे "सोप है या चांदी" या सीपमें "यह चांदी है" अथवा "कुछ है" इस प्रकार वस्तुकी अनिर्णीत अवस्थाका रूप ज्ञानविकल्प और विषयविकल्प ज्ञाताको होते रहते है उस प्रकार घड़ा आदि पदार्थोंके उक्त प्रकारके दर्शनमें "मैं घड़ेका दर्शन कर रहा हूँ" या "यह घड़ा है" आदि विकल्पोंका होना संभव नहीं है. क्योंकि पूर्वोक्त प्रकारसे दर्शन में स्वव्यसायात्मकता और परव्यवसायात्मकता दोनोंका अभाव विद्यमान रहता है। अतः दर्शनको निर्विकल्पक कहा गया है। इस प्रकार दर्शन और ज्ञान में सामान्य और विशेष निराकार और साकार अव्यवसायात्मक और व्यवसायात्मक तथा निर्विकल्पक और सविकल्पकका भेद रहते हुए भी इन दोनों का एक काल में एक साथ सद्भाव पाया जाना असंभव नहीं ठहरता है । आशा है दर्शनोपयोगके बारेमें मैने यहाँपर जो विचार उपस्थित किये हैं उनपर विद्वज्जनोंका अवश्य ही ध्यान जायगा । Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शनमें वस्तुका स्वरूप : एक दार्शनिक विश्लेषण जैनदर्शनमें वस्तुको अनन्तधर्मात्मक और अनेकान्तात्मक उभयरूप माना गया है। एक ही वस्तुमें एक ही साथ अनन्तधर्मोंका पाया जाना वस्तुको अनन्तधर्मात्मकता है और अनन्तधर्मात्मक उसी वस्तूमें परस्पर विरोधी अनेक धर्मोंका पाया जाना वस्तुकी अनेकान्तात्मकता है। इस कथनका तात्पर्य यह है कि विश्वकी सभी वस्तुयें अपने अन्दर अपने-अपने पृथक्-पृथक् अनन्तधर्मोकी एक ही साथ सत्ता रख रही हैं व प्रत्येक वस्तुके अपने-अपने उन अनन्तधर्मोमेंसे प्रत्येक धर्म अपने विरोधी धर्मके साथ ही वहाँ पर रह रहा है। अनेकान्तशब्दका ऊपर जो “वस्तुमें परस्पर विरोधी अनेक धर्मोंका पाया जाना" अर्थ किया गया है उसमें अनेकशब्दका तात्पर्य दो संख्यासे है। इस तरह अनेकान्त शब्दका वास्तविक अर्थ "वस्तुमें परस्पर विरोधी दो धर्मोंका एक ही साथ पाया जाना" होता है। यह अर्थ वास्तविक इसलिये है कि परस्पर विरोधिता दो धर्मों में ही संभव है, तीन, चार आदि संख्यात, असंख्यात व अनन्त धर्म मिलकर कभी परस्पर विरोधी नहीं होते हैं, कारण कि एक धर्मका विरोधी यदि दूसरा एक धर्म है तो शेष सभी धर्म परस्पर विरोधी उन दो धर्मोंमेंसे किसी एक धर्मके नियमसे अविरोधी हो जावेंगे। उपर्युक्त कथनसे यह बात सिद्ध होती है कि वस्तुका अनन्तधर्मात्मक होना एक बात है और उसका (वस्तुका) अनेकान्तात्मक हो ना दूसरी बात है। यही कारण है कि जनेतर सभी दर्शनकारोंके लिये वस्तुको अनन्तधर्मात्मक माननेमें कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि पृथ्वीमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श रूप धर्मचतुष्टयकी एक ही साथ सत्ताको वे भी स्वीकार करते हैं । परन्तु वे (जनेतर दर्शनकार) वस्तुको अनेकान्तात्मक माननेमें हिचकिचाते हैं । जैन और जैनेतर दर्शनकारोंके मध्य मुख्यतया अन्तर यही है कि जहाँ उक्त प्रकारके अनेकान्तको मान्यताके आधारपर जैनदर्शन अनेकान्तवादी कहलाता है वहाँ जैनेतर सभी दर्शन उसका विरोध करनेके कारण एकान्तवादी कहलाते हैं। इस कथनका तात्पर्य यह है कि परस्पर अविरोधी अनन्त धर्मोंकी एक ही साथ एक ही वस्तुमें सत्ता जैन और जैनेतर सभी दर्शनों में मान्य कर ली गयी है । परन्तु परस्परविरोधी दो धर्मोकी एक ही साथ एक हो वस्तुमें सत्ता जिस प्रकार जैन दर्शनमें मान्य की गयी है उस प्रकार जैनेतर दर्शन उसे मान्य करनेके लिये तैयार नहीं हैं । यह बात दूसरी है कि परस्परविरोधी दो धर्मों से किसी एक धर्मको कोई एक दर्शन स्वीकार करता है और उससे अन्य दूसरे धर्मको दूसरा दर्शन स्वीकार करता है लेकिन दोनों ही दर्शन अपनेको मान्य धर्म के विरोधी धर्मको अस्वीकृत कर देते हैं। जैसे सांख्यदर्शन वस्तुमें नित्यताधर्मको स्वीकार करता है लेकिन अनित्यताधर्मका वह निषेध करता है। इसी प्रकार बौद्धदर्शन वस्तुमें अनित्यताधर्मको स्वीकार करता है लेकिन नित्यताधर्मका वह निषेध करता है। जबकि जैनदर्शन वस्तुमें नित्यता और अनित्यता दोनों ही धर्मोको स्वीकार करता है। - वस्तुके अनन्त धर्मात्मक होने व उसमें (वस्तुमें) उन अनन्त धर्मो से प्रत्येक धर्मके अपने विरोधी धर्मके साथ ही रहनेके कारण प्रत्येक वस्तुमें परस्परविरोधी धर्मयुगलके अनन्त विकल्प हो जाते हैं। यही कारण है कि जैन दर्शनमें प्रत्येक वस्तुगत अनन्त धर्म सापेक्ष परस्परविरोधी धर्मयुगलके अनन्तविकल्पोंके आधार पर अनन्तसप्तभंगियोंकी स्थितिको स्वीकार कर लिया गया है । यथा "नन्वेकत्र वस्तुन्यनन्तानां धर्माणामभिलापयोग्यानामुपगमादनन्ता एव वचन-मार्गाः स्याद्वादिनाँ भवेयुर्न पुनः सप्तैव, वाच्येयत्तात्वाद्वाचकेयत्तायाः। ततो विरुद्धैव सप्तभंगीति चेन्न, Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ | दर्शन और न्याय : ६३ विधीयमाननिषिध्यमानधर्मविकल्पापेक्षया तदविरोधात् । “प्रतिपर्यायं सप्तभंगी वस्तुनि" इति वचनात् । तथानन्ताः सप्तभंग्यो भवेयुरित्यपि नानिष्टम् ।" ( श्लं न्ताः सप्तभग्या भवयुरित्याप नानिष्टम् ।" (श्लोकवा०, सूत्र ६, वा० ५२ के आगे सप्तभंगी प्रकरण) इस उद्धरणका भाव यह है कि जैनदर्शनमें वस्तुगत परस्परविरोधी धर्मद्वयके आधारपर सप्तभंगी को मान्यता दी गयी है। इसपर कोई यह आपत्ति करता है कि एक वस्तु में कथन करने योग्य जब अनन्त धर्म विद्यमान हैं तो इन सब धर्मोका कथन करनेके लिये स्यादादियों (जैनों के सामने अनन्तसंख्याक वचन मार्गोंकी प्रसक्ति होती है, केवल सात ही वचनमार्गोंकी नहीं. क्योंकि जितने वाच्य हो सकते हैं उतने ही वाचक होने चाहिये, अतः सप्तभंगीकी मान्यता असंगत है। इस आपत्तिका उक्त उद्धरणमें जो कुछ समाधानके रूपमें लिखा गया है उसका भाव यह है कि सप्तभंगीकी मान्यता विधीयमान और निषिध्यमान धर्मद्वयके विकल्पोंके आधारपर ही जैनदर्शनमें स्वीकृत की गयी है इसलिए एक ही वस्तुमें विद्यमान अनन्तधर्मोंमेंसे प्रत्येक धर्मको लेकर विधीयमान और निषिध्यमान धर्मद्वयके विकल्पोंके आधारपर जैन दर्शनमें सप्तभंगीको स्थान प्राप्त हो जानेसे अनन्तभंगीके बजाय अनन्तसप्तभंगीकी स्वीकृति स्याद्वादियों (जैनों) के लिए अनिष्ट नहीं है। इस प्रकार वस्तुगत अनन्तधर्मसापेक्ष परस्परविरोधी धर्मद्वयके प्रत्येक वस्तुमें निष्पन्न अनन्तविकल्पोंमेंसे आचार्य श्रीअमृतचन्द्रने समयसारके स्याद्वादाधिकार प्रकरणमें अनेकान्तका स्वरूप प्रदर्शित करते हए कतिपय विरोधी धर्मद्वयविकल्पोंकी निम्न प्रकार गणना को है "यदेव तत् तदेवातत्, यदेवकं तदेवानेकन्, यदेव सत् तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्त ।" अर्थ-जो ही वह है वही वह नहीं है, जो ही एक है वही एक नहीं है अर्थात् अनेक है, जो ही सत् है वही सत् नहीं है अर्थात् असत् है, जो ही नित्य है वही नित्य नहीं है अर्थात् अनित्य है इस प्रकार एक ही वस्तुके वस्तुत्व (स्वरूप) को निष्पादक परस्पर विरोधी शक्तिद्वयका प्रकाशन करना अनेकान्त कहलाता है । __ अनेकान्तके इसमें चार विकल्प बतलाये हैं । इन चारों विकल्पोंमेंसे “जो ही वह है वही वह नहीं है" इस विकल्पका स्पष्टीकरण इस प्रकार जानना चाहिए कि प्रत्येक वस्तु अपनी-अपनी पृथक्-पृथक् आकृति प्रकृति और विकृतिके आधारपर ही विश्वमें अपना अस्तित्व जमाये हुए हैं । आकृतिसे वस्तुकी द्रव्यरूपता (प्रदेशवत्ता) का ग्रहण होता है, प्रकृतिसे उसकी गुणरूपता (स्वभावशक्ति) का ग्रहण होता है और विकृतिसे उसमें होनेवाली परिणति (पर्याय) का ग्रहण होता है। जैसाकि आचार्यश्री कुन्दकुन्दने प्रवचनसार ग्रन्थके ज्ञेयाधिकारकी गाथा १ में दर्शाया है। यथा अत्थो खलु दव्वमयो दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि । तेहिं पुणो पज्जायाः पज्जयमूढ़ा हि परसमयाः ॥ अर्थ-अर्थ अर्थात् पदार्थ यानी वस्तु द्रव्यरूप है अर्थात् किसी-न-किसी आकृतिको धारण किए हुए है, द्रव्यमें अपनी गुणरूपता (स्वभावशक्ति) पायी जाती है तथा द्रव्य और गुण दोनों ही परिणमन अर्थात् पर्यायरूपताको धारण किए हुए हैं। लोकमें जितना भी परसमय पाया जाता है वह सब पर्यायोंमें ही रमकर मूढ़ताको प्राप्त हो रहा है। प्रत्येक वस्तुकी आकृति अर्थात् द्रव्यरूपता (प्रदेशवत्ता), प्रकृति अर्थात् स्वभावशक्तिरूप गुणरूपता और विकृति अर्थात् परिणति क्रियारूप पर्यायरूपता प्रतिनियत है अर्थात् एक वस्तुकी जो आकृति, प्रकृति और विकृति है वह त्रिकालमें कभी भी दूसरी वस्तुको न तो हुई है और न हो सकती है। अतः इस स्थितिके Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्वन-ग्रन्थ आधारपर ही जैनदर्शनमें यह सिद्वान्त मान्य किया गया है कि जो ही वस्तु वह है वही वस्तु वह नहीं है। उपयुक्त कथनका तात्पर्य यह है कि विश्वमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामसे छह प्रकारकी वस्तुएँ विद्यमान हैं। इनमें जीव नामकी वस्तुएँ अनन्तानन्त है, पुद्गल नामकी वस्तुएँ भी अनन्तानन्त है । धर्म, अधर्म और आकाश नामकी वस्तुएँ एक, एक है तथा काल नामकी वस्तुएँ असंख्यात हैं । ये सब वस्तुएँ अपनी-अपनी पृथक-पृथक् आकृति, प्रकृति और विकृतिको धारण करके ही लोकमें रह रही हैं । जीव नामक वस्तु कभी पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालकी आकृति, प्रकृति और विकृतिको धारण नहीं करती है । पुद्गल नामकी वस्तु कभी जीव, धर्म, अधर्म आकाश और कालकी आकृति, प्रकृति और विकृतिको धारण नहीं करती है । और यही बात धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामकी वस्तुओंमें भी समझना चाहिए । इतना ही नहीं, एक जीवनामक वस्तु कभी दूसरी जीवनामक वस्तुकी आकृति, प्रकृति और विकृतिको धारण नहीं करती है व एक पुद्गलनामक वस्तु भी कभी दूसरी पुद्गलनामक वस्तुकी आकृति. प्रकृति और विकृतिको धारण नहीं करती है। यहाँ तक कि जीव और पुदगलका तथा दो आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त पुदगलोंका परस्पर मेल (मिश्रण) होनेपर भी ये कभी एकत्वको प्राप्त नहीं होते है। यह बात दूसरी है कि उक्त वस्तुओंके परस्पर संयोग अथवा मिश्रणसे एक दूसरे परिणमन अवश्य हुआ करते हैं । लेकिन वे भी परिणमन उनके अपने-अपने रूप ही हुआ करते हैं। कभी एक-दूसरे रूप नहीं होते "जो ही वह है वही वह नहीं है" इस सिद्धान्तकी मान्यताका ही यह परिणाम है कि आचार्य कुन्दकुन्दने समयसारग्रन्थके कर्त-कर्माधिकार प्रकरणमें निम्नलिखित गाथाओं द्वारा आत्मा और पुदगलमें पररूप परिणतियोंका निषेध किया है "णवि परिणमइ ण गिण्हइ उप्पज्जइ ण परदब्बपज्जाए। णाणी जाणतो वि ह पुग्गलकम्म अणेयविहं ॥७६॥ णवि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदब्बपज्जाए। णाणी जाणतो वि ह सगपरिणामं अणेयविहं ॥७७।। ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदब्बपज्जाए। णाणी जाणतो वि हु पुग्गलकम्मफलमणंत ॥७८॥ णवि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदब्बपज्जाए। पुग्गलदब्बं पि तहा परिणमइ सएहिं भावेहिं ।।७९॥" इन गाथाओंका भान यह है कि आत्मा पुद्गल कर्मको, अपने परिणामको और पुद्गल कर्मके फलको जानता हआ भी परद्रव्यकी पर्यायरूपसे न परिणमन करता है, न उन्हें स्वीकार करता है और न उनमें उत्पन्न होता है। इसी प्रकार पुद्गल द्रव्य भी जीवपरिणामको, अपने परिणामको और अपने परिणामके फलको नहीं जानता हआ भी परद्रव्य की पर्याय रूपसे न परिणमन करता है, न उन्हें स्वीकार करता है और उनमें उत्पन्न होता है। इसी तरह "जो ही वह है वही वह नहीं है" इस सिद्धान्तको लक्ष्यमें रखकर ही आचार्य श्री कुन्दकुन्दने समयसारके कर्त-कर्माधिकार प्रकरणकी निम्नलिखित गाथाका प्रणयन किया है "जो जहि गुणे दब्बे सो अण्णह्मि ण संकमदि दब्बे।" (गाथा १०३ का पूर्वार्द्ध) इसकी टीका आचार्य श्री अमृतचन्द्रने निम्न प्रकारकी है 'इह किल यो यावान् कश्चित् वस्तु विशेषो यस्मिन् यावति कस्मिश्चिच्चि-दात्मनि-अचिदात्मनि वा १. समयसार, गाथा ८० । Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्शन और न्याय : ६५ द्रव्ये, गुणे च स्वरसत एवानादित एव वृत्तः स खलु अचलितस्य वस्तुस्थितिसीम्नो भेत्तुमशक्यत्वात्तस्मिन्नेव वर्तते न पुनः द्रव्यान्तरं गुणान्तरं वा संक्रामेत् ।" गाथा और टीकाका भाव यह है कि कोई भी वस्तु सर्वदा अपनी ही द्रव्यरूपता और अपनी ही गुणरूपता में वर्तमान रहती है, त्रिकालमें कभी भी दूसरी वस्तुकी द्रव्यरूपता व गुणरूपतामें संक्रमण नहीं करती है । इसी प्रकार उक्त सिद्धान्तके आधारपर ही आचार्य श्री अमृतचन्द्रके निम्नलिखित कथनकी संगति बैठती है " ततः सर्वत्रापि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवद्रव्यात्मनि लोके ये यावन्तः केचनाप्यर्थास्ते सर्व एव स्वकीयद्रव्यान्तर्मग्नस्वधर्मचक्रचुंविनोऽपि परस्परमचुंविनोऽत्यन्तप्रत्यासत्तावपि नित्यमेव स्वरूपादपतन्तः पररूपेणापरिणमनादनष्टानन्तव्यक्तित्वात्कीर्णा इव तिष्ठन्तः " ( समयसार गाथा ३ की आत्मख्यातिटीका) । अर्थ --- धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव द्रव्यमय संपूर्ण लकमें जितने परिमाणमें जो कुछ पदार्थ हैं वे सभी अपने-अपने धर्मं समूहका चुम्बन करते हुए भी एक दूसरे पदार्थका चुम्बन नहीं कर रहे हैं, यद्यपि सभी पदार्थ एक दूसरे पदार्थसे अत्यन्त संयुक्त हो रहे हैं तो भी वे कभी अपने स्वरूपसे च्युत नहीं होते -- इस तरह पररूपसे परिणत न होनेके कारण उनकी नियत परिमाणरूप अनन्तता कभी नष्ट नहीं हो सकती है इसलिए जैसे टांकीसे ही उत्कीर्ण किये गये हों ऐसे ही अपनी-अपनी अलग-अलग सत्ता रखते हुए नियत अनन्त संख्या के रूपमें ही वे सब रह रहे हैं । इस तरह कहना चाहिए कि "विश्वके जितने परिमाण में अनन्तसंख्याके पदार्थ हैं वे उतने परिमाण में ही अनादि अनन्तकाल तक रहनेवाले हैं उनकी उस संख्या में कभी भी घटा बढ़ी नहीं होती है" इस मान्यताकी पुष्टि "जो ही वह है वही वह नहीं है" इस अनेकान्तकी स्वीकृति के आधारपर ही हो सकती है । आचार्य श्री अमृतचन्द्रने दूसरे प्रकारका अनेकान्त यह बतलाया है कि “जो ही एक है वही एक नहीं है अर्थात् अनेक है" । • इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि वस्तुकी द्रव्यात्मकता, गुणात्मकता और पर्यायात्मकता के आधारपर "अत्थो खलु दव्बमयो" इत्यादि गाथाके अनुसार प्रत्येक वस्तुके अलग-अलग प्रकार से दो दो अंश निर्धारित होते हैं । उनमें एक प्रकारसे दो अंश हैं -- द्रव्यांश और गुणांश, दूसरे प्रकारसे दो अंश हैं - द्रव्यांश और पर्यायांश तथा तीसरे प्रकारसे दो अंश हैं - गुणांश और पर्यायांश । प्रत्येक वस्तुका द्रव्यांश एक ही रहा करता है लेकिन इसमें गुणांश नाना रहा करते हैं । जैसे आत्मा एक वस्तु है । परन्तु उसमें ज्ञानदर्शन आदि नाना गुणोंका सद्भाव हैं । इसी तरह पुद्गल एक वस्तु है । परन्तु उसमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि नाना गुणों का सद्भाव है । इसी प्रकार दूसरे प्रकारसे यों कहा जा सकता है कि वस्तुका द्रव्यांश हमेशा एक ही रहा करता है परन्तु उसमें बदलाहट होती रहती है जिससे पर्यायांश अनेक हो जाते हैं । जैसे आत्मा यद्यपि नियत असंख्यात प्रदेशी एक द्रव्य है परन्तु छोटे-बड़े शरीरके अनुसार उसकी छोटो बड़ी आकृति होती रहती है । इसी तरह प्रत्येक वस्तुमें विद्यमान उसके अपने-अपने नाना गुणों से प्रत्येक गुण भी अपनेमें परिवर्तन करता रहता है। जैसे आत्मा ज्ञान स्वभाव वाला नियत है परन्तु उसका वह ज्ञानरूप स्वभाव यथायोग्य मति, श्रुत, अवधि मन:पर्यय और केवलके भेदसे पाँचरूपसे परिमन कर सकता है । इसी तरह मति आदि ज्ञान भी यथायोग्य इन्द्रियादिक साधन व विषयभूत पदार्थको विविधताके आधारपर परिणमन करते रहते हैं । इस प्रकार आत्माका एक ज्ञानरूप स्वभाव भी उपर्युक्त ४-९ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रकारसे नाना पर्यायोंमें बदलता रहता है। इस प्रकार वस्तुके द्रव्यांशकी एकता और उसके गुणांशकी अनेकताके आधार पर, वस्तुके द्रव्यांशकी एकता और उसके पर्यायांशकी अनेकताके आधार पर तथा वस्तुके गुणांशकी एकता और उसके पर्यायांशकी अनेकताके आधारपर जैनदर्शनमें यह सिद्धान्त स्थिर किया गया है कि जो ही एक है वही एक नहीं है अर्थात् अनेक है । आचार्यश्री अमृतचन्द्रने तीसरे प्रकारका अनेकान्त यह बतलाया है कि “जो ही सत् है वही सत् नहीं है अर्थात् असत् है" । इसका स्पष्टोकरण इस प्रकार है कि प्रत्येक वस्तुकी सत्ताका निर्णय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आधार पर हुआ करता है। इनमेंसे द्रव्यके आधारपर वस्तकी सत्ताका निर्णय इस प्रकार होता है कि यद्यपि घटरूपसे परिणत पदगलद्रव्य पटरूपसे परिणत होनेकी योग्यता रखते है, परन्तु जिस समय जो पुद्गलद्रव्य घटरूपसे परिणत हो रहे हैं उस समय वे पटरूपसे परिणत नहीं हो रहे हैं इसलिये जिस समय जिस वस्तुमें घटरूपताका सद्भाव है उस समय उस वस्तुमें पटरूपताका अभाव है। इस तरह घटरूपसे परिणत वस्तु घटरूपसे ही सत् है पटरूपसे वह सत् नहीं है अर्थात् असत् है। क्षेत्रके आधारपर वस्तुकी सत्ताका निर्णय इस प्रकार होता है कि जो वस्तु जिस समय आकाशके जिन और जितने प्रदेशोंपर अवस्थित है वह वस्तु उस समय आकाशके उन और उतने प्रदेशों पर ही सत् कही जा सकती है उन और उतने प्रदेशोंसे अतिरिक्त अन्य सभी आकाशप्रदेशोंपर वह वस्तु उस समय असत् ही कही जायगी। कालके आधारपर वस्तुकी सत्ताका निर्णय इस प्रकार होता है कि यद्यपि प्रत्येक वस्तु स्वभावसे कालिक सत्स्वरूप है परन्तु जो वस्तु जिस समय जिन कालद्रव्योंसे संयुक्त है उस समय वह वस्तु उन कालाणुओंकी अपेक्षा ही वर्तमान रूपमें सत् है शेष अन्य सभी कालाणुओंकी अपेक्षा उस समय वह वर्तमान रूपमें सत् नहीं है अर्थात् असत् है। भावके आधारपर सत्ताका निर्णय इस प्रकार होता है कि जो वस्तु जिस समय अपनी जिस अवस्था (पर्याय) को धारण किये हुए है उस समय वह वस्त उस अवस्था (पर्याय) की अपेक्षा सतह शेष अन्य सम्भव सभी पर्यायोंको अपेक्षा वह सत् नहीं अर्थात् असत है । इन सभी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आधारपर जो प्रत्येक वस्तुकी सत्ताका निर्णय होता है वह व्यवहारकालको समय, आवली, मुहूर्त, घड़ी, घंटा, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, ऋतु, वर्ष आदिके रूपमें विभक्त करके उनके आधार पर ही होता है। . ___आचार्य श्री अमृतचन्द्र ने चौथे प्रकारका जो अनेकान्त बतलाया है वह यह है कि "जो ही नित्य है वही नित्य नहीं है अर्थात् अनित्य है"। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि प्रत्येक वस्तु अपनी आकृति अर्थात् द्रव्यरूपता (प्रदेशवत्ता) और प्रकृति अर्थात् गुणरूपता (स्वभावशक्ति) की अपेक्षा शाश्वत बनी हुई है तथा विकृति अर्थात् पर्यायरूपता (परिणति-क्रिया) की अपेक्षा व्यवहारकालके भेद--- समय, आवली, मुहर्त, घड़ी, घंटा, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, ऋतु, वर्ष आदिके रूपमें विभक्त होकर अशाश्वत बनी हुई है। यही कारण है कि जैनदर्शन में प्रत्येक वस्तको द्रव्यरूपता और गुणरूपताके आधारपर ध्रौव्यस्वभाववाली तथा पर्यायरूपताके आधारपर उत्पाद और व्यय स्वभाववाली माना गया है। इनमें से ध्रौव्यस्वभाव वस्तुकी नित्यताका चिह्न है और उत्पाद और व्ययरूप स्वभाव उसकी अनित्यताका चिह्न है । ___ जिस प्रकार आचार्य श्री अमृतचन्द्रने वस्तुको अनेकान्तात्मक सिद्ध करते हुए परस्परविरोधी धर्मद्वयके आधारपर अनेकान्तके तत्-अतत, एक-अनेक, सत-असत और नित्य-अनित्य ये चार विकल्प बतलाये है उसी प्रकार उन्होंने समयसारकी गाथा १४२ की टीका करते हए आत्माका अवलम्बन लेकर परस्परविरोधी धर्मद्वयके आधारपर बद्ध-अबद्ध, मोही-अमोही, रागी-अरागी, द्वेषी-अद्वषी आदि विविध प्रकारके और भी विकल्प बतला दिये हैं। Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्शन और न्याय ६७ इस तरह हम देखते हैं कि विश्वकी प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक सिद्ध होती है और वह अनन्तधर्मात्मक वस्तु परस्परविरोधी धर्मद्वयके अनन्त विकल्पोंके आधारपर विविध प्रकारसे अनेकान्तात्मक सिद्ध होती है। मैंने इस लेखमें वस्तुकी अनन्तधर्मात्मकता और अनेकात्मकतापर यथाशक्ति प्रकाश डाला है। आशा है इससे सर्वसाधारणको जैन तत्वज्ञानको समझनेकी दिशा प्राप्त होगी । वास्तवमें आज जैन तत्वज्ञानका प्रत्येक अंग विवादग्रस्त बन गया है। इसमें मैं सारा दोष विद्वानोंका मानता है। हमेशा विद्वान ही तस्वज्ञानके संरक्षक रहे हैं। आज भी विद्वानोंको ऐसा ही प्रयास करना चाहिए । यद्यपि आजका प्रत्येक विद्वान कहता है कि मेरा प्रयास तत्त्वसंरक्षणके लिये ही है । परन्तु यह प्रयास कैसा, जिसमें आचार्य कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, उमास्वाति, पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्द आदि महर्षियोंके वचनोंमें भी परस्पर विरोध दीखने लग जाय । प्रत्येक विद्वानको इस प्रश्न पर गहराईके साथ ही दृष्टिपात करना चाहिये । Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शनमें सप्ततत्त्व और षट्द्रव्य प्रास्ताविक : अखण्ड मानव-समष्टिको अनेक वर्गोंमें विभक्त कर देनेवाले जितने पंथभेद लोकमें पाये जाते हैं उन सबको यद्यपि 'धर्म' नामसे पुकारा जाता है, परन्तु उन्हें 'धर्म' नाम देना अनुचित मालूम देता है, क्योंकि धर्म एक हो सकता है, दो नहीं, दो से अधिक भी नहीं, धर्मं धर्म में यदि भेद दिखाई देता है तो उन्हें धर्म समझना ही भूल है । अपने अन्तःकरणमें क्रोध, दुष्टविचार, अहंकार, छल-कपटपूर्ण भावना, दीनता और लोभवृत्तिको स्थान न देना एवं सरलता, नम्रता और आत्मगौरव के साथ-साथ प्राणिमात्रके प्रति प्रेम, दया तथा सहानुभूति आदि सद्भावनाओं को जाग्रत करना ही धर्मका अन्तरंग स्वरूप माना जा सकता है और मानवताके धरातलपर स्वकीय वाचनिक एवं कायिक प्रवृत्तियोंमें अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह वृत्तिका यथायोग्य संवर्धन करते हुए समता और परोपकारकी ओर अग्रसर होना धर्मका बाह्य स्वरूप मानना चाहिये । पन्थ-भेदपर अवलंबित मानवसमष्टिके सभी वर्गोंको धर्मकी यह परिभाषा मान्य होगी, इसलिये सभी वर्गों की परस्पर भिन्न सैद्धान्तिक और व्यावहारिक मान्यताओं - जिन्हें लोकमें 'धर्म' नामसे पुकारा जाता है के बीच दिखाई देनेवाले भेदको महत्त्व देना अनुचित जान पड़ता है । मेरी मान्यता यह है कि मानव समष्टिके हिन्दू, जैन, बौद्ध, पारसी, सिख, मुसलमान और ईसाई आदि वर्गों में एक दुसरे वर्ग से विलक्षण जो सैद्धान्तिक और व्यावहारिक मान्यतायें पाई जाती हैं उन मान्यताओं को 'धर्म' न मानकर धर्म-प्राप्तिकी साधनस्वरूप 'संस्कृति' मानना ही उचित है । प्रत्येक मानव, यदि उसका लक्ष्य धर्म-प्राप्तिकी ओर हैं तो लोकमें पाई जानेवाली उक्त सभी संस्कृतियोंमेंसे किसी भी संस्कृतिको अपनाकर उल्लिखित अविवादी धर्मको प्राप्त कर सकता है । संस्कृतिको ही धर्म मान लेनेकी भ्रान्तिपूर्ण प्रचलित परिपाटीसे हिन्दू, जैन आदि सभी वर्गोंका उक्त वास्तविक धर्मकी ओर झुकाव ही नहीं रह गया है । इसीलिये इन वर्गों में विविध प्रकारके अनर्थकर विकारों, पाखण्डों एवं रूढ़ियोंको अधिक प्रश्रय मिला हुआ है और इस सबका परिणाम यह हुआ है कि जहाँ उक्त वास्तविक धर्म मनुष्य के जीवनसे सर्वथा अलग होकर एक लोकोत्तर वस्तु मात्र रह गया है वहाँ मानवतासे विहीन तथा अन्याय और अत्याचारसे परिपूर्ण उच्छृङ्खल जीवनप्रवृत्तियों के सद्भावमें भी संस्कृतिका छद्मवेष धारण करने मात्रसे प्रत्येक मानव अपनेको और अपने वर्गको कट्टर धर्मात्मा समझ रहा है। इतना ही नहीं, अपनी संस्कृति से भिन्न दूसरी सभी संस्कृतियोंको अधर्म मानकर उनमें से किसी भी संस्कृति के माननेवाले व्यक्ति तथा वर्गको धर्मके उल्लिखित चिह्न मौजूद रहनेपर भी वह अधर्मात्मा ही मानना चाहता है और मानता है और एक ही संस्कृतिका उपासक वह व्यक्ति भी उसकी दृष्टिमें अधर्मात्मा ही है जो उस संस्कृतिके नियमोंकी ढोंगपूर्वक ही सही, आवृत्ति करना जरूरी नहीं समझता है, भले ही वह अपने जीवनको धर्ममय बनानेका सच्चा प्रयत्न कर रहा हो। इस तरह आज प्रत्येक वर्ग और वर्ग के प्रत्येक मानव मानवताको कलंकित करनेवाले परस्पर विद्वेष, घृणा, ईर्षा और कलहके दर्दनाक चित्र दिखाई दे रहे हैं । यदि प्रत्येक मानव और प्रत्येक वर्ग धर्मकी उल्लिखित परिभाषाको ध्यान में रखते हुए उसे संस्कृतिका साध्य और संस्कृतिको उसका साधन मान लें तो उन्हें यह बात सरलताके साथ समझमें आजायगी कि वही संस्कृति सच्ची और उपादेय हो सकती है तथा उस सस्कृतिको ही लोकमें जीवित रहने का अधिकार प्राप्त हो सकता है जो मानव जगत्को धर्मकी ओर अग्रसर करा सके और ऐसा होनेपर प्रत्येक मानव तथा प्रत्येक वर्ग Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ दर्शन और न्याय : ६९ अपने जीवनको धर्ममय बनानेके लिये अपनी संस्कृतिको विकारों, पाखण्डों और रूढ़ियोंसे परिष्कृत बनाते हए अधिक-से-अधिक धर्मके अनुकूल बनाने के प्रयत्न में लग जायेंगे तथा उनमेंसे अहंकार, पक्षपात और हठके साथसाथ परस्परके विद्वेष, घृणा, ईर्षा और कलहका खात्मा होकर सम्पूर्ण मानव-समष्टिमें विविध संस्कृतियोंके सद्भावमें भी एकता और प्रेमका रस प्रवाहित होने लगेगा। ___मेरा इतना लिखनेका प्रयोजन यह है कि जिसे लोकमें 'जैन धर्म, नामसे पुकारा जाता है उसमें दूसरी दूसरी जगह पाये जानेवाले विशद्ध धार्मिक अंशको छोड़कर सैद्धान्तिक और व्यावहारिक मान्यताओंके रूपमें जितना जैनत्वका अंश पाया जाता है उसे 'जैन संस्कृति' नाम देना ही उचित है, इसलिये लेखके शीर्षकमें मैंने 'जैनधर्म के स्थानपर 'जैनसंस्कृति' शब्दका प्रयोग उचित समझा है और लेखके अन्दर भी यथास्थान धर्मके स्थानपर संस्कृति शब्दका ही प्रयोग किया जायगा । विषयप्रवेश किसी भी संस्कृतिके हमें दो पहलू देखनेको मिलते है-एक संस्कृतिका आचार-संबन्धी पहलू और दूसरा उसका सिद्धान्त-सम्बन्धी पहलू । जिसमें निश्चित उद्देश्यको पूर्तिके लिये प्राणियोंके कर्त्तव्यमार्गका विधान पाया जाता है वह संस्कृतिका आचारसम्बन्धी पहलू है। जैनसंस्कृतिमें इसका व्यवस्थापक चरणानुयोग माना गया है और आधुनिक भाषाप्रयोगकी शैलीमें इसे हम 'कर्तव्यवाद' कह सकते हैं। संस्कृतिके सिद्धान्त-सम्बन्धी पहलूमें उसके (संस्कृतिके) तत्त्वज्ञान (पदार्थव्यवस्था) का समावेश होता है। जैनसंस्कृतिमें इसके दो विभाग कर दिये हैं-एक सप्ततत्त्वमान्यता और दूसरी षडद्रव्यमान्यता । सप्ततत्त्वमान्यतामें जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात पदार्थोंका और षड्द्रव्यमान्यतामें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह पदार्थोंका समावेश किया गया है। जैनसंस्कृतिमें पहली मान्यताका व्यवस्थापक करणानुयोग और दूसरी मान्यताका व्यवस्थापक द्रव्यानुयोगको माना गया है । आधुनिक भाषाप्रयोगकी शैलीमें करणानुयोगको उपयोगितावाद और द्रव्यानुयोगको अस्तित्ववाद (वास्तविकतावाद) कहना उचित जान पड़ता है। यद्यपि जैन संस्कृतिके शास्त्रीय व्यवहारमें करणानुयोगको आध्यात्मिक पद्धति और द्रव्यानुयोगको दार्शनिक पद्धति इस प्रकार दोनोंको अलग-अलग पद्धतिके रूप में विभक्त किया गया है। परन्तु मैं उपयोगितावाद और अस्तित्ववाद दोनोंको दार्शनिक पद्धतिसे बाह्य नहीं करना चाहता हैं क्योंकि मैं समझता हैं कि भारतवर्षके सांख्य, वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय और वैशेषिक आदि सभी वैदिक तथा जैन, बौद्ध और चार्वाक आदि सभी अवैदिक दर्शनोंका मूलतः विकास उपयोगितावादके आधारपर ही हुआ है, इसलिये मेरी मान्यताके अनुसार करणानुयोगको भी दार्शनिक पद्धतिसे बाह्य नहीं किया जा सकता है । जगत क्या और कैसा है ? जगतमें कितने पदार्थोंका अस्तित्व है ? उन पदार्थोके कैसे-कैसे विपरिणाम होते है ? इत्यादि प्रश्नोंके आधारपर प्रमाणों द्वारा पदार्थोके अस्तित्व और नास्तित्वके विषयमें विचार करना अथवा पदार्थोके अस्तित्व या नास्तित्वको स्वीकार करना अस्तित्ववाद (वास्तविकतावाद) और जगत्के प्राणी दुःखी क्यों हैं ? वे सुखी कैसे हो सकते हैं ? इत्यादि प्रश्नोंके आधारपर पदार्थोंकी लोककल्याणोपयोगिताके आधारपर प्रमाणसिद्ध अथवा प्रमाणों द्वारा असिद्ध भी पदार्थोंको पदार्थ व्यवस्थामें स्थान देना उपयोगितावाद समझना चाहिये । संक्षेपमें पदार्थों के अस्तित्वके बारेमें विचार करना अस्तित्ववाद और पदार्थोंको उपयोगिताके बारेमें विचार करना उपयोगितावाद कहा जा सकता है। अस्तित्ववादके आधारपर वे सब पदार्थ मान्यताको कोटिमें पहँचते हैं जिनका अस्तित्व मात्र प्रमाणों द्वारा सिद्ध होता हो, भले ही वे पदार्थ लोककल्याणके लिये Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ उपयोगी सिद्ध हों अथवा उनका लोककल्याणोपयोगितासे थोड़ा भी सम्बन्ध न हो और उपयोगितावादके आधार पर वे सब पदार्थ मान्यताकी कोटिमें स्थान पाते हैं, जो लोककल्याणके लिये उपयोगी सिद्ध होते हों, भले ही उनका अस्तित्व प्रमाणों द्वारा सिद्ध हो सकता हो अथवा उनके अस्तित्वकी सिद्धिके लिये कोई प्रमाण उपलब्ध न भी हो। दर्शनोंमें आध्यात्मिकता और आधिभौतिकताका भेद दिखलाने के लिये उक्त उपयोगितावादको ही आध्यात्मिकवाद और उक्त अस्तित्ववादको ही आधिभौतिकवाद कहना चाहिये, क्योंकि आत्मकल्याणको ध्यानमें रखकर पदार्थ-प्रतिपादन करनेका नाम आध्यात्मिकवाद और आत्मकल्याणकी ओर लक्ष्य न देते हुए भूत अर्थात् पदार्थों के अस्तित्वमात्रको स्वीकार करनेका नाम आधिभौतिकवाद मान लेना मुझे अधिक संगत प्रतीत होता है । जिन विद्वानोंका यह मत है कि समस्त चेतन-अचेतन जगतकी सृष्टि अथवा विकास आत्मासे मानना आध्यात्मिकवाद और उपर्युक्त जगतकी सृष्टि अथवा विकास अचेतन अर्थात् जड़ पदार्थसे मानना आधिभौतिकवाद है उन विद्वानोंके साथ मेरा स्पष्ट मतभेद है। इस मतभेदसे भी मेरा तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिकवाद और आधिभौतिकवादके उनको मान्य अर्थ के अनुसार उन्होंने जो वेदान्तदर्शनको आध्यात्मिक दर्शन और चार्वाकदर्शनको आधिभौतिक दर्शन मान लिया है वह ठीक नहीं है। मेरा यह स्पष्ट मत है और जिसे मैं पहिले लिख चुका हुँ कि सांख्य, वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय और वैशेषिक ये सभी वैदिक दर्शन तथा जैन, बौद्ध और चार्वाक ये सभी अवैदिक दर्शन पूर्वोक्त उपयोगितावादके अधारपर ही प्रादुर्भुत हए हैं। इसलिये ये सभी दर्शन आध्यात्मिकवादके ही अन्तर्गत माने जाने चाहिये । उक्त दर्शनोंमेंसे किसी भी दर्शनका अनुयायी अपने दर्शनके बारेमें यह आक्षेप सहन करने को तैयार नहीं हो सकता है कि उसके दर्शनका विकास लोककल्याणके लिये नहीं हुआ है और इसका भी सबब यह है कि भारतवर्ष सर्वदा धर्मप्रधान देश रहा है। इसलिये समस्त भारतीय दर्शनोंका मूल आधार उपयोगितावाद मानना ही संगत है। इसका विशेष स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है 'लोककल्याण' शब्दमें पठित लोकशब्द 'जगतका प्राणिसमह' अर्थमें व्यवहत होता हआ देखा जाता है, इसलिये यहाँपर लोककल्याणशब्दसे 'जगत्के प्राणिसमूहका कल्याण' अर्थ ग्रहण करना चाहिये । कोई-कोई दर्शन प्राणियोंके दृश्य और अदृश्य दो भेद स्वीकार करते हैं और किन्हीं-किन्हीं दर्शनोंमें सिर्फ दृश्य प्राणियोंके अस्तित्वको ही स्वीकार किया गया है। दृश्य प्राणी भी दो तरह के पाये जाते हैं-एक प्रकारके दृश्य प्राणी वे हैं जिनका जीवन प्रायः समष्टि-प्रधान रहता है। मनुष्य इन्हीं समष्टि-प्रधान जीवनवाले प्राणियोंमें गिना गया है क्योंकि मनुष्योंके सभी जीवन-व्यवहार प्रायः एक-दुसरे मनुष्यकी सद्भावना, सहानुभूति और सहायतापर ही निर्भर है, मनुष्योंके अतिरिक्त शेष सभी दृश्य प्राणी पशु-पक्षी, सर्प-बिच्छू, कीट-पतंग वगैरह व्यष्टिप्रधान जीवनवाले प्राणी कहे जा सकते हैं क्योंकि इनके जीवन-व्यवहारोंमें मनुष्यों जैसी परस्परकी सद्भावना, सहानुभूति और सहायताकी आवश्यकता प्रायः देखने में नहीं आती है। इस व्यष्टिप्रधान जीवनकी समानताके कारण ही इन पशु-पक्षी आदि प्राणियोंको जैनदर्शनमें 'तिर्यग्' नामसे पुकारा जाता है, कारण कि 'तिर्यग्' शब्दका समानता अर्थ में भी प्रयोग देखा जाता है। सभी भारतीय दर्शनकारोंने अपने-अपने दर्शनके विकासमें अपनी-अपनी मान्यताके अनुसार यथायोग्य जगत्के इन दृश्य और अदृश्य प्राणियोंके कल्याणका ध्यान अवश्य रखा है। चार्वाकदर्शनको छोड़कर उल्लिखित सभी भारतीयदर्शनोंमें प्राणियोंके जन्मान्तररूप परलोकका समर्थन किया गया है। इसलिये इन दर्शनोंके आविष्कर्ताओंकी लोककल्याणभावनाके प्रति तो संदेह करनेकी गुंजाइश ही नहीं है लेकिन उपलब्ध साहित्यसे जो थोड़ा बहुत चार्वाकदर्शनका हमें दिग्दर्शन होता है उससे उसके (चार्वाकदर्शनके) आविष्कर्ताकी भी लोककल्याणभावनाका पता हमें सहज में ही लग जाता है। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ दर्शन और न्याय : ७१ "श्रुतयो विभिन्नाः स्मृतयो विभिन्ना, नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां - महाजनो येन गतः स पन्थाः ।।" इस पद्यमें हमें चार्वाकदर्शनकी आत्माका स्पष्ट आभास मिल जाता है । इस पद्यका आशय यह है कि "धर्म मनुष्यके कर्तव्यमार्गका नाम है और वह जब लोककल्याणके लिये है तो उसे अखण्ड एकरूप होना चाहिये, नानारूप नहीं, लेकिन धर्मतत्त्वकी प्रतिपादक श्रुतियाँ और स्मृतियाँ नाना और परस्परविरोधी अर्थको कहने वाली देखी जाती है। हमारे धर्मप्रवर्तक महात्माओंने भी धर्मतत्त्वका प्रतिपादन एकरूपसे न करके भिन्न-भिन्न रूपसे किया है । इसलिये इनके (धर्मप्रवर्तक महात्माओंके) वचनोंको भी सर्वसम्मत प्रमाण मानना असंभव है । ऐसी हालतमें धर्मतत्त्व साधारण मनुष्यों के लिये गूढ़ पहेली बन गया है अर्थात् धर्मतत्त्वको समझने में हमारे लिये श्रुति, स्मृति या कोई भी धर्मप्रवर्तक सहायक नहीं हो सकता है। इसलिये धर्मतत्त्वकी पहेलीमें न उलझ करके हमें अपने कर्त्तव्यमार्गका निर्णय महापुरुषोंके कर्त्तव्यमार्गके आधारपर ही करते रहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि महापुरुषोंका प्रत्येक कर्त्तव्य स्वपकल्याणके लिये ही होता है । इसलिये हमारा जो कर्तव्य स्वपरकल्याणविरोधी न हो उसे ही अविवादरूपसे हमको धर्म समझ लेना चाहिये।" मालूम पड़ता है कि चार्वाक दर्शनके आविष्कर्ताका अन्तःकरण अवश्य ही धर्मके बारेमें पैदा हुए लोककल्याणके लिये खतरनाक मतभेदोंसे ऊब चुका था। इसलिये उसने लोकके समक्ष इस बातको रखनेका प्रयत्न किया था कि जन्मान्तररूप परलोक, स्वर्ग और नरक तथा मक्तिकी चर्चा-जो कि विवादके कारण जनहितकी घातक हो रही है-को छोड़कर हमें केवल ऐसा मार्ग चुन लेना चाहिये जो जनहितका साधक हो सकता है और ऐसे कर्त्तव्यमार्गमें किसीको भी विवाद करने की कम गुंजाइश रह सकती है। "यावज्जीवं सुखी जावेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।।" यह जो चार्वाक दर्शनकी मान्यता बतलाई जाती है वह कुछ भ्रममूलक जान पड़ती है अर्थात् यह उन लोगोंका चार्वाकदर्शनके बारेमें आक्षेप है जो सांप्रदायिक विद्वेषके कारण चार्वाकदर्शनको सहन नहीं कर सकते थे। समस्त दर्शनोंमें बीजरूपसे इस उपयोगितावादको स्वीकार लेने पर ये सभी दर्शन जो एक-दूसरेके अत्यन्त विरोधी मालूम पड़ रहे हैं, ऐसा न होकर अत्यन्त निकटतम मित्रोंके समान दिखने लगेंगे अर्थात् उक्त प्रकारसे चार्वाक दर्शनमें छिपे हए उपयोगितावादके रहस्यको समझ लेनेपर कौन कह सकता है कि उसका (चार्वाकदर्शनका) परलोकादिके बारेमें दूसरे दर्शनोंके साथ जो मतभेद है वह खतरनाक है क्योंकि जहाँ दूसरे दर्शन परलोकादिको आधार मानकर हमें मनुष्योचित कर्तव्यमार्ग पर चलनेकी प्रेरणा करते हैं वहाँ चार्वाक दर्शन सिर्फ वर्तमान जीवनको सुखी बनाने के उद्देश्यसे ही हमें मानवोचित कर्त्तव्यमार्गपर चलनेकी प्रेरणा करता है। चार्वाकदर्शनकी इस मान्यताका दूसरे दर्शनोंकी मान्यताके साथ समानतामें हेतु यह है कि परलोकादिके अस्तित्वको स्वीकार करने के बाद भी सभी दर्शनकारोंको इस वैज्ञानिक सिद्धान्त पर आना पड़ता है कि "मनुष्य अपने वर्तमान जीवनमें अच्छे कृत्य करके ही परलोकमें सुखी हो सकता है या स्वर्ग पा सकता है।" इसलिये चार्वाक मतका अनुयायी यदि अपने वर्तमान जीवनमें अच्छे कृत्य करता है तो परलोक या स्वर्गके अस्तित्वको न मानने मात्रसे उसे परलोकमें सुख या स्वर्ग पानेसे कौन रोक सकता है ? अन्यथा इसी तरह नरकका अस्तित्व न माननेके सबब पाप करनेपर भी उसका नरकमें जाना कैसे संभव हो सकेगा? तात्पर्य यह है कि एक प्राणो नरकके अस्तित्वको न मानते हुए भी बुरे कृत्य करके यदि नरक जा सकता है तो दूसरा प्राणी स्वर्गके अस्तित्वको न मानते हुए अच्छे कृत्य करके स्वर्ग भी जा सकता हैं। परलोक तथा Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य स्वर्गादिके अस्तित्वको न मानने वाला व्यक्ति अच्छे कृत्य कर ही नहीं सकता है, यह बात कोई भी विवेकी व्यक्ति माननेको तैयार न होगा, कारणकि हम पहले बतला आये हैं कि मनुष्यका जीवन परस्परकी सद्भावना, सहानुभूति और सहायताके आधारपर ही सुखी हो सकता है । यदि एक मनुष्यको अपना जीवन सुखी बनानेके लिये सम्पूर्ण साधन उपलब्ध हैं और दूसरा उसका पड़ोसी मनुष्य चार दिनसे भूखा पड़ा हआ है तो ऐसी हालतमें या तो पहिले व्यक्तिको दूसरे व्यक्तिके बारेमें सहायताके रूपमें अपना कोई न कोई कर्तव्य निश्चित करना होगा, अन्यथा नियमसे दूसरा व्यक्ति पहिले व्यक्तिके सुखी जीवनको ठेस पहँचानेका निमित्त बन जायेगा। तात्पर्य यह है कि हमें परलोककी मान्यतासे अच्छे कृत्य करनेकी जितनी प्रेरणा मिल सकती है उससे भी कहीं अधिक प्रेरणा वर्तमान जीवनको सुखी बनानेकी आकांक्षासे मिलती है. चार्वाकदर्शनका अभिप्राय इतना ही है। बौद्धोंके क्षणिकवाद और ईश्वरकर्तत्ववादियोंके ईश्वरकर्तृत्ववादमें भी यही उपयोगितावादका रहस्य छिपा हुआ है । बौद्धदर्शन में एक वाक्य पाया जाता है-''वस्तुनि क्षणिकत्वपरिकल्पना आत्मबद्धिनिरासार्थम्" अर्थात् पदार्थोंमें जगत्के प्राणियोंके अनुचित राग, द्वेष और मोहको रोकनेके लिये ही बौद्धोंने पदार्थोंकी अस्थिरताका सिद्धान्त स्वीकार किया है। इसी प्रकार जगत्का कर्ता अनादि-निधन एक ईश्वरको मान लेनेसे संसारके बहुजन समाजको अपने जीवनके सुधारमें काफी प्रेरणा मिल सकती है । तात्पर्य यह है कि एक व्यक्ति पदार्थोकी क्षणभंगुरता स्वीकार करके उनसे विरक्त होकर यदि आत्मकल्याणकी खोज कर सकता है और दसरा व्यक्ति ईश्वरको कर्ता-धर्ता मान करके उसके भयसे यदि अनर्थोसे बच सकता है तो इस तरह उन दोनों व्यक्तियोंके लिये क्षणिकत्ववाद और ईश्वरकर्तृत्ववाद दोनोंकी उपयोगिता स्वयं सिद्ध हो जाती है । इसलिये इन दोनों मान्यताओंके औचित्यके बारेमें “पदार्थ क्षणिक हो सकता है या नहीं ? जगतका कर्ता ईश्वर है या नहीं ?" इत्यादि प्रश्नोंके आधारपर विचार न करके "क्षणिकत्ववाद अथवा ईश्वरकर्तृत्ववाद लोककल्याणके लिये उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं या नहीं ?" इत्यादि प्रश्नोंके आधारपर ही विचार करना चाहिये। सांख्य और वेदान्तदर्शनोंकी पदार्थमान्यतामें उपयोगितावादको स्पष्ट झलक दिखाई देती है, इसका स्पष्टीकरण 'षड्द्रव्यमान्यताके' प्रकरणमें किया जायगा। मीमांसादर्शनका भी आधार मनुष्योंको स्वर्ग प्राप्तिके उद्देश्यसे यागादि कार्यों में प्रवत्त कराने रूप उपयोगितावाद ही है तथा जैनदर्शनमें तो उपयोगितावादके आधारपर सप्ततत्वमान्यता और अस्तित्ववादके आधारपर षड्द्रव्यमान्यता इस प्रकार पदार्थव्यवस्थाको ही अलग-अलग दो भागोंमें विभक्त कर दिया गया है। इस तरहसे समस्त भारतीयदर्शनोंमें मूलरूपसे उपयोगितावादके विद्यमान रहते हए भी अफसोस है कि धीरे-धीरे सभी दर्शन उपयोगितावादके मूलभूत आधारसे निकल कर अस्तित्ववादके उदरमें समा गये अर्थात् प्रत्येक दर्शनमें अपनी व दूसरे दर्शनकी प्रत्येक मान्यताके विषयमें अमुक मान्यता लोककल्याणके लिये उपयोगी है या नहीं ?' इस दृष्टिसे विचार न होकर 'अमुक मान्यता संभव हो सकती है या नहीं ?' इस दृष्टिसे विचार होने लग गया और इसका यह परिणाम हुआ कि सभी दर्शकारोंने अपने-अपने दर्शनोंके भीतर उपयोगिता और अनुपयोगिताकी ओर ध्यान न देते हुए अपनी मान्यताको संभव और सत्य तथा दूसरे दर्शनकारोंकी मान्यताको असंभव और असत्य सिद्ध करनेका दुराग्रहपूर्ण एवं परस्पर कलह पैदा करने वाला ही प्रयास किया है। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्शन और न्याय : ७३ ३. सप्ततत्त्व ऊपर बतलाये गये दर्शनोंमें परलोक, स्वर्ग, नरक और मुक्तिकी मान्यताके विषयमें जो मतभेद पाया जाता है उसके आधारपर उन दर्शनोंमें लोककल्याणकी सीमा भी यथासंभव भिन्न-भिन्न प्रकारसे निश्चित की गयी है । चार्वाकदर्शनमें प्राणियोंका जन्मान्तररूप परलोक, पुण्यका फल परलोकमें सुखप्राप्तिका स्थान स्वर्ग, पापका फल परलोकमें दुःखप्राप्तिका स्थान नरक और प्राणियोंके जन्म-मरण अथवा सुख-दुःखकी परम्परारूप संसारका सर्वथा विच्छेदस्वरूप निःश्रेयसका स्थान मुक्ति इन तत्त्वोंकी मान्यता नहीं है इसलिये वहाँपर लोककल्याणकी सीमा प्राणियोंके और विशेषकर मानवसमाजके वर्तमान जीवनकी सुख-शान्तिको लक्ष्य करके ही निर्धारित की गयी है और इसी लोककल्याणको ध्यानमें रखकरके ही वहाँ पदार्थों की व्यवस्थाको स्थान दिया गया है । मीमांसादर्शनमें यद्यपि प्राणियोंके जन्म-मरण अथवा सुख-दुःखकी परंपरारूप संसारका सर्वथा विच्छेद स्वरूप निःश्रेयस और उसका स्थान मक्ति इन तत्त्वोंकी मान्यता नहीं है। वहाँपर स्वर्गसुखको ही निःश्रेयस पदका और स्वर्गको ही मुक्तिपदका वाच्य स्वीकार किया गया है, फिर भी प्राणियोंका जन्मान्तररूप परलोक, पुण्यका फल परलोकमें सुखप्राप्तिका स्थान स्वर्ग और पापका फल परलोकमें दुःखप्राप्तिका स्थान नरक इन तत्त्वोंको वहाँ अवश्य स्वीकार किया गया है। इसलिये वहाँपर लोककल्याणकी सीमा प्राणियोंके वर्तमान (ऐहिक) जीवनके साथ-साथ परलोककी सुखशान्तिको ध्यानमें रखकर निर्धारित की गई है और इसी लोककल्याणको ध्यानमें रखकरके ही वहाँ पदार्थ-व्यवस्थाको स्थान दिया गया है। चार्वाक और मीमांसा दर्शनोंके अतिरिक्त शेष उल्लिखित वैदिक और अवैदिक सभी दर्शनोंमें उक्त प्रकारके परलोक, स्वर्ग और नरककी मान्यताके साथ-साथ प्राणियोंके जन्म-मरण अथवा सुख-दुःखकी परंपरारूप संसारका सर्वथा विच्छेदस्वरूप निःश्रेयस और निःश्रेयसका स्थान मक्तिकी मान्यताको भी स्थान प्राप्त है। इसलिये इन दर्शनोंमें लोककल्याणकी सीमा प्राणियोंके ऐहिक और पारलौकिक सुख-शान्तिके साथ-साथ उक्त निःश्रेयस और मुक्तिको भी ध्यानमें रखते हुए निर्धारित की गयी है और इसी लोककल्याणके आधारपर ही इन दर्शनों में पदार्थव्यवस्थाको स्वीकार किया गया है। तात्पर्य यह है कि चार्वाक दर्शनको छोड़कर परलोकको माननेवाले मीमांसादर्शनमें और परलोकके साथ-साथ मुक्तिको भी माननेवाले सांख्य, वेदान्त, योग, न्याय, वैशेषिक, जैन और बौद्ध दर्शनोंमें जगत्के क प्राणीके शरीरमें स्वतंत्र और शरीरके साथ घल-मिल करके रहनेवाला एक चितशक्तिविशिष्ट तत्त्व स्वीकार किया गया है। यद्यपि सर्वसाधारण मनुष्योंके लिये इसका प्रत्यक्ष नहीं होता है और न ऐसा कोई विशिष्ट पुरुष ही वर्तमानमें मौजूद है जिसको इसका प्रत्यक्ष हो रहा हो । परन्तु इतना अवश्य है कि प्रत्येक प्राणीमें दूसरे प्राणियोंकी प्रेरणाके बिना ही जगत्के पदार्थों के प्रति राग, द्वेष या मोह करना अथवा विरक्ति अर्थात् समताभाव रखना, तथा हर्ष करना, विषाद करना दूसरे प्राणियोंका अपकार करना, पश्चात्ताप करना, परोपकार करना, हंसना, रोना, सोचना, समझना, सुनना, देखना, सूंघना, खाना, पीना, बोलना, बैठना, चलना, काम करना, थक जाना, विक्षान्ति लेना, पुनः काममें जुट जाना, सोना, जागना और पैदा होकर छोटेसे बड़ा होना इत्यादि यथासंभव जो विशिष्ट व्यापार पाये जाते हैं वे सब व्यापार प्राणिवर्गको लकड़ी, मिट्टी, पत्थर, मकान, कपड़ा, बर्तन, कुर्सी, टेबुल, सोना चाँदी, लोहा, पीतल, घंटी, घड़ी, ग्रामोफोन, रेडियो, सिनेमाके चित्र, मोटर, रेलगाड़ी, टेंक, हवाई जहाज और उड़नबम आदि व्यापारशून्य तथा प्राणियोंकी प्रेरणा पाकर व्यापार करनेवाले पदार्थोंसे पृथक कर देते है और इन व्यापारोंके आधारपर ही उक्त दर्शनोंमें यह स्वीकार कर लिया गया है कि प्रत्येक प्राणीके शरीरमें शरीरसे पृथक् एक-एक ऐसा तत्त्व भी विद्यमान है, जिसकी प्रेरणासे ही प्रत्येक प्राणीमें उल्लिखित विशिष्ट व्यापार हुआ करते हैं । इस तत्त्वको समी दर्शन, चित् ४-१० Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ शक्तिविशिष्ट स्वीकार करते हैं तथा अपने-अपने अभिप्रायके अनुसार सभी दर्शन इसको पुरुष, आत्मा, जीव, जीवात्मा, ईश्वरांश या परब्रह्मांश आदि यथायोग्य अलग नामोंसे उल्लेख करते हैं। प्रत्येक प्राणीके शरीरमें एक-एक चित्रशक्तिविशिष्ट तत्त्वके अस्तित्वकी समान स्वीकृति रहते हुए भी उक्त दर्शनोंमेंसे कोई-कोई दर्शन तो इन सभी चित्शवितविशिष्ट तत्त्वोंको परस्पर मूलतः ही पृथक्-पृथक् स्वीकार करते हैं और कोई-कोई ईश्वर या परब्रह्मके एक-एक अंशके रूपमें इन्हें पृथक्-पृथक् स्वीकार करते हैं। अर्थात् कोई-कोई दर्शन उक्त चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वोंकी स्वतंत्र अनादि सत्ता स्वीकार करते है और कोई दर्शन उनकी नित्य और व्यापक ईश्वर या परब्रह्मसे उत्पत्ति स्वीकार करके एक-एक चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वको उक्त ईश्वर या परब्रह्मका एक-एक अंश मानते है, उन्हें मूलतः पृथक्-पृथक् नहीं मानते हैं। सांख्य, मीमांसा आदि कुछ दर्शनोंके साथ-साथ जैनदर्शन भी संपूर्ण चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वोंकी स्वतंत्र अनादि सत्ता स्वीकार करके उन्हें परस्पर भी पृथक्-पृथक् ही मानता है । उक्त प्रकारसे चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वकी सत्ताको स्वीकार करनेवाले सांख्य, वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय, वैशेषिक, जैन और बौद्ध ये सभी दर्शन प्राणियोंको समय-समयपर होनेवाले सुख तथा दुःखका भोक्ता उन प्राणियोंके अपने-अपने शरीर में रहनेवाले चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वको ही स्वीकार करते है सभी दर्शनोंकी इस समान मूलमान्यताके आधारपर उनमें (सभी दर्शनोंमें) समानरूपसे निम्नलिखित चार सिद्धान्त स्थिर हो जाते है (१) प्रत्येक प्राणीके अपने-अपने शरीरमें मौजूद तथा भिन्न-भिन्न दर्शनोंमें पुरुष, आत्मा, जीव, जीवात्मा, ईश्वरांश या परब्रह्मांश आदि यथायोग्य भिन्न-भिन्न नामोंसे पकारे जानेवाले प्रत्येक चितशक्तिविशिष्टतत्वका अपने-अपने शरीरके साथ आबद्ध होनेका कोई-न-कोई कारण अवश्य है। (२) जब कि प्राणियोंके उल्लिखित विशिष्ट व्यापारोंके प्रादुर्भाव और सर्वथा विच्छेदके आधारपर प्रत्येक चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वकी अपने-अपने वर्तमान शरीरके साथ प्राप्त हई बद्धताका जन्म और मरणके रूपमें आदि तथा अन्त देखा जाता है तो मानना पड़ता है कि ये सभी चितशक्तिविशिष्ट तत्त्व सीमित काल तक ही अपने-अपने वर्तमान शरीरमें आबद्ध रहते हैं। ऐसी हालतमें यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अपने-अपने वर्तमान शरीरके साथ आबद्ध होनेसे पहले ये चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्व किस रूपमें विद्यमान रहे होंगे? यदि कहा जाय कि अपने-अपने वर्तमान शरीरके साथ आबद्ध होनेसे पहले वे सभी चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्व शरीरके बन्धनसे रहित बिल्कुल स्वतंत्र थे, तो प्रश्न उठता है कि इन्हें अपने-अपने वर्तमान शरीरके साथ आबद्ध होनेका कारण अकस्मात् कैसे प्राप्त हो गया ? इस प्रश्नका उचित समाधान न मिल सकनेके कारण चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वकी सत्ताको स्वीकार करनेवाले उक्त सभी दर्शनोंमें यह बात स्वीकार की गयी है कि अपने-अपने वर्तमान शरीरके साथ आबद्ध होनेसे पूर्व भी ये सभी चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्व किसी दूसरे अपने-अपने शरीरके साथ आबद्ध रहे होंगे और उससे भी पूर्व किसी दूसरे-दूसरे अपने-अपने शरीरके साथ आबद्ध रहे होंगे। इस प्रकार सभी चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वोंकी शरीरबद्धताकी वह पूर्वपरंपरा इनकी स्वतंत्र अनादि सत्ता स्वीकार करनेवाले दर्शनोंकी अपेक्षा अनादिकाल तक और ईश्वर या परमब्रह्मसे इनकी उत्पत्ति स्वीकार करनेवाले दर्शनोंकी अपेक्षा ईश्वर या परमब्रह्मसे जबसे इनकी उत्पत्ति स्वीकार की गयी है तब तक माननी पड़ती है । (३) चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वोंकी शरीरबद्धताका कारण उनका स्वभाव है-यह मानना असंगत है, कारण कि एक तो स्वभाव परतन्त्रताका कारण ही नहीं हो सकता है। दूसरे, स्वभावसे प्राप्त हुई परतन्त्रताकी हालतमे उन्हें दुःखानुभवन नहीं होना चाहिये, लेकिन दुःखानुभवन होता है । इसलिये सभी चितशक्तिविशि Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ दर्शन और न्याय : ७५ ष्टतत्त्वोंकी शरीरबद्धताका कारण स्वभावसे भिन्न किसी दूसरी चीजको ही मानना युक्तियुक्त जान पड़ता है और इसीलिये सांख्यदर्शनमें त्रिगुणात्मक (सत्वरजस्तमोगुणात्मक) अचित् प्रकृतिको, वेदान्तदर्शनमें असत कही जानेवाली अविद्याको, मीमांसादर्शनमें चितशक्तिविशिष्ट तत्वोंमें विद्यमान अशुद्धि (दोष) को, ईश्वरकर्तृत्ववादी योग, न्याय और वैशेषिक दर्शनोंमें इच्छा, ज्ञान और कृति शक्तित्रयविशिष्ट ईश्वरको, जैनदर्शनमें अचित् कर्म (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि द्रव्योंका सजातीय पौद्गलिक वस्तुविशेष) को और बौद्धदर्शनमें विपरीताभिनिवेशस्वरूप अविद्याको उसका कारण स्वीकार किया गया है। इनमेंसे योग, न्याय और वैशेषिक दर्शनोंमें माना गया ईश्वर उनकी मान्यताके अनुसार चित्शक्तिविशिष्टतत्त्वोंके साथ असंबद्ध रहते हुए भी उनके मन, वचन और शरीर सम्बन्धी पुण्य एवं पापरूप कृत्योंके आधारपर सुख तथा दुःखके भोगमें सहायक शरीरके साथ उन्हें आबद्ध करता रहता है । शेष सांख्य आदि दर्शनोंमें चित्शक्तिविशिष्टतत्त्वोंकी शरीरबद्धतामें माने गये प्रकृति आदि कारण उन चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वोंके साथ किसी-न-किसी रूपमें संवद्ध रहते हुए ही उनके मन, वचन और शरीर सम्बन्धी पुण्य एवं पापरूप कृत्योंके आधारपर सुख तथा दुःखके भोगमें सहायक शरीरके साथ उन्हें आबद्ध करते रहते हैं। इसी प्रकार चित्शक्तिविशिष्टतत्त्वोंकी शरीरबद्धताकी जिस पूर्वपरम्पराका उल्लेख पहले किया जा चुका है उसकी संगतिके लिये योग, न्याय और वैशेषिक दर्शनोंमें ईश्वरको शाश्वत (अनादि और अनिधन) मान लिया गया है तथा एक जैनदर्शनको छोड़कर शेष सांख्य आदि सभी दर्शनोंमें चितशक्तिविशिष्टतत्वोंके साथ प्रकृति आदिके सम्बन्धको यथायोग्य अनादि अथवा ईश्वर या परमब्रह्मसे उनकी (चित्शवितविशिष्टतत्वोंकी) उत्पत्ति होनेके समयसे स्वीकार किया गया है । जैनदर्शनमें चित्शक्तिविशिष्टतत्वोंको शरीरबद्धतामें कारणभूत धर्मके सम्बन्धको तो सादि स्त्रीकार किया गया है परन्तु उनकी उस शरीरबद्धताको पूवोंक्त अविच्छिन्न परम्पराकी संगतिके लिये वहांपर (जैनदर्शनमें) शरीरसम्बन्धकी अविच्छिन्न अनादि परम्पराकी तरह उसमें कारणभूत कर्मसम्बन्धकी भी अविच्छिन्न अनादि परम्पराको स्वीकार किया गया है और इसका आशय यह है कि यदि चित्शक्तिविशिष्टतत्वोंकी शरीरबद्धतामें कारणभूत उक्त कर्मसम्बन्ध को अनादि माना जायगा तो उस कर्मसम्बन्धको कारण रहित स्वाभाविक ही मानना होगा, लेकिन ऐसा मानना इसलिये असंगत है कि इस तरहसे प्राणियोंके जन्म-मरण अथवा सुख-दुःखकी परंपरास्वरूप संसारका सर्वथा विच्छेदके अभावका प्रसंग प्राप्त होगा, जो कि सांख्य, वेदान्त, योग, न्याय, वैशेषिक, जैन और बौद्ध इन दर्शनों मेंसे किसी भी दर्शनको अभीष्ट नहीं है। मीमांसादर्शनमें जो प्राणियोंके जन्म-मरण अथवा सुःख-दुखकी परंपरारूप संसारका सर्वथा विच्छेद नहीं स्वीकार किया गया है उसका सबब यही है कि वह चितशक्तिविशिष्ट तत्त्वोंमें विद्यमान अशद्धि के सम्बन्धको अनादि होनेके सबब कारणरहित स्वाभाविक स्वीकार करता है । परन्तु जो दर्शन प्राणियोंके जन्म-मरण अथवा सुख-दुःखकी परम्परास्वरूप संसारका सर्वथा विच्छेद स्वीकार करते है उन्हें चित्शक्तिविशिष्टतत्त्वोंकी शरीरबद्धतामें कारणरूपसे स्वीकृत पदार्थके सम्बन्धको कारणसहित-अस्वाभाविक ही मानना होगा और ऐसा तभी माना जा सकता है जबकि उस सम्बन्धको सादि माना जायगा। यही सबब है कि जैनदर्शनमें मान्य प्राणियोंके जन्म-मरण अथवा सुख-दुःखकी परम्परास्वरूप संसारके सर्वथा विच्छेदको संगतिके लिये वहांपर (जैनदर्शनमें) शरीरसम्बन्धमें कारणभूत कर्मके सम्बन्धको तो सादि माना गया है और शरीरसम्बन्धकी पूर्वोक्त अनादि परम्पराकी संगतिके लिये उस कर्मसम्बन्धको भी अविच्छिन्न परम्पराको अनादि स्वीकार किया गया है । इसकी व्यवस्था जैनदर्शनमें निम्न प्रकार बतलायी गयी है जैनदर्शनमें कार्माणवर्गणा नामका चितृशक्तिसे रहित तथा रूप, रस गंध और स्पर्श गुणोंसे युक्त होनेके कारण पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु तत्त्वोंका सजातीय एक पौद्गलिक तत्त्व स्वीकार किया गया है। यह तत्त्व बहुत ही सूक्ष्म है और पृथ्वी आदि तत्त्वोंकी ही तरह नाना परमाणुपुंजोंमें विभक्त होकर समस्त Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य लोकाकाशमें सर्वदा अवस्थित रहता है । प्राणियोंकी मन, वचन और शरीरके जरिये पुण्य एवं पापरूप कार्यो में जो प्रवृत्ति देखी जाती है उस प्रवृत्तिसे उस कार्माणवर्गणाके यथायोग्य बहतसे परमाणुओंके पुंज-के-पुंज उन प्राणियोंके शरीरमें रहने वाले चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वोंके साथ चिपट जाते हैं अर्थात् अग्निसे तपा हुआ लोहेका गोला पानीके बीचमें पड़ जानेसे जिस प्रकार चारों ओरसे पानीको खींचता है उसी प्रकार अपने मन, वचन और शरीर सम्बन्धी पुण्य एवं पापरूप कृत्यों द्वारा गरम हआ (प्रभावित) उक्त चितशक्तिविशिष्टतत्त्व समस्त लोकमें व्याप्त काणिवर्गणाके बीचमें पड़जानेके कारण चारों ओरसे उस काणिवर्गणाके यथायोग्य परमाणुपंजोंको खींच लेता है और इस तरहसे कार्माणवर्गणाके जितने परमाणपंज जवतक चितशक्तिविशिष्टतत्त्वोंके साथ चिपटे रहते हैं तबतक उन्हें जैनदर्शनमें 'कर्म' नामसे पुकारा जाता है तथा इस कर्मसे प्रभावित होकरके ही प्रत्येक प्राणी अपने मन, वचन और शरीर द्वारा पुण्य एवं पापरूप कृत्य किया करता है अर्थात् प्राणियोंकी उक्त पुण्य एवं पापरूप कार्यों में प्रवृत्ति करानेवाले ये कर्म ही है। प्राणियोंकी पुण्य एवं पापरूप कार्यों में प्रवृत्ति करा देनेके बाद इन कर्मोंका प्रभाव नष्ट हो जाता है और ये उस हालतमें चितशक्तिविशिष्ट तत्त्वं होकर अपना वही पुराना कार्माणवर्गणाका रूप अथवा पृथ्वी आदि स्वरूप दूसरा और कोई पौद्गलिक रूप धारण कर लेते हैं। यहांपर यह खासतौरसे ध्यानमें रखने लायक बात है कि इन कर्मोके प्रभावसे प्राणियोंकी जो उक्त पुण्य एवं पापरूप कार्योंमें प्रवृत्ति हुआ करती है उस प्रवृत्तिसे उन प्राणियोंके अपने-अपने शरीरमें रहनेवाले चितशक्तिविशिष्टतत्त्व काणिवर्गणाके दुसरे यथायोग्य परमाणपुजोंके साथ सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं और इस तरहसे चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वोंकी पूर्वोक्त शरीरसम्बन्धपरम्पराकी तरह उसमें कारणभूत कर्मसम्बन्धका परम्परा भी अनादिकालसे अविच्छिन्नरूपमें चली आ रही है । अर्थात् जिस प्रकार वृक्षसे बीज और बीजसे वृक्ष की उत्पत्ति होते हुए भी उनकी यह परम्परा अनादिकालसे अविच्छिन्न रूपमें चली आ रही है उसी प्रकार कर्मसम्बन्धसे चितशक्तिविशिष्ट तत्त्वोंका शरीरके साथ सम्बन्ध होता है। इस सम्बद्धशरीरकी सहायतासे प्राणी पुण्य एवं पापरूप कार्य किया करते हैं। उन कार्योंसे उनके साथ पुनः कर्मोका बन्ध हो जाता है और कर्मोंका यह बन्धन उन्हें दूसरे शरीरके साथ सम्बद्ध करा देता है। इस तरहसे यह कर्मसम्बन्धपरम्परा भी अनादिकाल से अविच्छिन्न रूपमें चलती रहती है। इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीरके साथ चितशक्तिविशिष्ट तत्त्वोंके आबद्ध होनेका कारण सांख्य, वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय, वैशेषिक जैन और बौद्ध इन सभी दर्शनोंमें स्वरूप तथा कारणताके प्रकारकी अपेक्षा यद्यपि यथायोग्य भिन्न-भिन्न बतलाया गया है तथापि इस बातमें ये सभी दर्शन एकमत है कि शरीरके साथ चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वोंके आबद्ध होनेका कारण अतिरिक्त पदार्थ है। (४) उल्लिखित तीन सिद्धान्तोंके साथ-साथ एक चौथा जो सिद्धान्त इन दर्शनों में स्थिर होता है वह यह है कि जब चितशक्तिविशिष्ट तत्त्वोंका शरीरके साथ संबद्ध होना उनसे अतिरिक्त कारणके अधीन है तो इस शरीरसंबंधपरंपराका उक्त कारणके साथ-साथ मूलतः विच्छेद भी किया जा सकता है। परन्तु इस चौथे सिद्धान्तको मीमांसादर्शनमें नहीं स्वीकार किया गया है क्योंकि पहले बतलाया जा चुका है कि मीमांसादर्शनमें शरीरसम्बन्धमें कारणभूत अशुद्धिके सम्बन्धको अनादि होनेके सबब अकारण स्वीकार किया गया है । इसलिये उसकी मान्यताके अनुसार इस सम्बन्धका सर्वथा विच्छेद होना असंभव है। इन सिद्धान्तोंके फलित अर्थके रूपमें निम्नलिखित पाँच तत्व कायम किये जा सकते है-(१) नाना चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्व, (२) इनका शरीरसम्बन्धपरंपरा अथवा सुख-दुःखपरंपरारूप संसार, (३) संसारका कारण, (४) संसारका सर्वथा विच्छेद स्वरूपमुक्ति और (५) मुक्तिका कारण । Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ दर्शन और न्याय : ७७ चार्वाक दर्शनमें इन पांचों तत्त्वोंको स्वीकार नहीं किया गया है क्योंकि ये पांचों तत्त्व परलोक तथा मुक्ति की मान्यतासे ही सम्बन्ध रखते हैं। मोमांसादर्शनमें इनमेंसे आदिके तीन तत्त्व स्वीकृत किये गये हैं, क्योंकि आदिके तीन तत्त्व परलोककी मान्यतासे सम्बन्ध रखते है और मीमांसादर्शनमें परलोककी मान्यताको स्थान प्राप्त है । परन्तु वहाँ पर ( मीमांसादर्शनमें ) भी मुक्तिकी मान्यताको स्थान प्राप्त न होनेके कारण अन्तके दो तत्त्वोंको नहीं स्वीकार किया गया है। शेष सांख्य, वेदान्त, योग, न्याय और वैशेषिक तथा जैन और वौद्धदर्शनमें इन पाँचों तत्त्वोंको स्वीकार गया गया है, क्योंकि इन दर्शनोंमें परलोक और मुक्ति दोनोंकी मान्यताको स्थान प्राप्त है। जैन संस्कृतिकी जीव, अजीव. आस्रव. बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्षस्वरूप सप्ततत्त्ववाली जिस पदार्थमान्यताका उल्लेख लेखमें किया गया है उसमें उक्त दर्शनोंको स्वीकृत इन पांचों तत्त्वोंका हो समावेश किया गया है अर्थात् सप्ततत्त्वोंमें स्वीकृत प्रथम जीवतत्त्वसे चित्शक्तिविशिष्ट तत्त्वका अर्थ लिया गया है, द्वितीय अजीवतत्त्वसे उक्त कार्माणवर्गणांका अर्थ स्वीकार करते हुए इन दोनों अर्थात् चित्शक्तिविशिष्टतत्त्व स्वरूप जोवतत्त्व और काणिवर्गणास्वरूप अजीवतत्त्वकी सम्बन्धपरम्परारूप मूल संसारको चौथे बन्धतत्त्वमें समाविष्ट करके चितशक्तिविशिष्टतत्त्वके शरीरसम्बन्धपरंपरारूप अथवा सुख-दुःखपरंपरारूप संसारको इसीका विस्तार स्वीकार किया गया है। तीसरे आस्रवतत्त्वसे उक्त जीव और अजीव दोनों तत्त्वोंकी सम्बन्धपरंपरारूप मूल संसारमें कारणभूत प्राणियोंके मन, वचन और शरीर सम्बन्धी पुण्य एवं पापरूप कार्योंका बोध होता है। तत्त्वव्यवस्थामें बन्ध तत्त्वको चौथा और आस्रवतत्त्वको तीसरा स्थान देनेका मतलब यह है कि बन्धरूप संसारका कारण आस्रव है इसलिये कारणरूप आस्रवका उल्लेख कार्यरूप बन्धके पहले करना ही चाहिये और चूंकि इस तत्त्वव्यवस्थाका लक्ष्य प्राणियोंका कल्याण ही माना गया है तथा प्राणियोंकी हीन और उत्तम अवस्थाओंका ही इस तत्त्वव्यवस्थासे हमें बोध होता है । इसलिये तत्त्वव्यवस्थाका प्रधान आधार होनेके कारण इस तत्त्वव्यवस्थामें जीवतत्त्वको पहला स्थान दिया गया है। जीवतत्त्वके बाद दूसरा स्थान अजीवतत्त्वको देनेका सबब यह है कि जीवतत्त्वके साथ इसके (अजीवतत्त्वके) संयोग और वियोग तथा संयोग और वियोगके कारणोंको ही शेष पाँच तत्त्वोंमें संगृहीत किया गया है । सातवें मोक्षतत्त्वसे कर्मसम्बन्धपरंपरासे लेकर शरीरसम्बन्धपरंपरा अथवा सुख-दुःखपरंपरारूप संसारका सर्वथा विच्छेद अर्थ लिया गया है और चूंकि प्राणियोंकी यह अन्तिम प्राप्य और अविनाशी अवस्था है इसलिये इसको तत्त्वव्यवस्था अन्तिम सातवां स्थान दिया गया है। __ पाँचवें संवरतत्त्वका अर्थ संसारके कारणभूत आस्रवका रोकना और छठे निर्जरातत्त्वका अर्थ संबद्ध कर्मों अर्थात् संसारको समूल नष्ट करनेका प्रयत्न करना स्वीकार किया गया है। तात्पर्य यह है कि जब पूर्वोक्त संसारके आत्यन्तिक विनाशका नाम मुक्ति है तो इस प्रकारकी मुक्तिकी प्राप्तिके लिए हमें संसारके कारणोंका नाश करके संसारके नाश करनेका प्रयत्न करना होगा, संवर और निर्जरा इन दोनों तत्त्वोंकी मान्यताका प्रयोजन यही है और चंकि इन दोनों तत्त्वोंको सातवें मोक्षतत्त्वकी प्राप्तिमें कारण माना गया है, इसलिये तत्त्वव्यवस्थामें मोक्षतत्त्वके पहले ही इन दोनों तत्वोंको स्थान दिया गया है। संवरको पाँचवाँ और निर्जराको छठा स्थान देनेका मतलब यह है कि जिस प्रकार पानीसे भरी हुई नावको डूबनेसे बचानेके लिये नावका बुद्धिमान मालिक पहले तो पानी आने में कारणभूत नावके छिद्रको बंद करता है और तब बादमें भरे हुए पानीको नावसे बाहर निकालनेका प्रयत्न करता है उसी प्रकार मुक्तिके इच्छुक प्राणीको पहले तो Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ सरस्वती वरवपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ कर्मबन्धमें कारणभूत आलवको रोकना चाहिये जिससे कि कर्मबन्धकी आगामी परंपरा रुक जाय और तब बादमें बद्ध कर्मोंको नष्ट करनेका प्रयत्न करना चाहिये । यहाँपर इतना और समझ लेना चाहिए कि पूर्ण संवर होजानेके बाद ही निर्जराका प्रारम्भ नहीं माना गया है बल्कि जितने अंशोंमें संवर होता जाता है उतने अंशोंम निर्जराका प्रारम्भ भी होता जाता है। इस तरह पानी आनेके छिद्रको बंद करने और भरे हुए पानीको धीरे-धीरे बाहर निकालने से जिस प्रकार नाच पानी रहित हो जाती है उसी प्रकार कर्मबन्धके कारणोंको नष्ट करने और बद्ध कमका धीरे-धीरे विनाश करनेसे अन्तमें जीव भी संसार ( जन्म-मरण अथवा सुख-दुःख की परंपरा ) से सर्वथा निर्लिप्त हो जाता है। सांख्य आदि दर्शनोंको यद्यपि पूर्वोक्त पांचों तत्त्व मान्य है । परन्तु उनकी पदार्थव्यवस्थामें जैनदर्शन के साथ परस्पर जो मतभेद पाया जाता है उनका कारण उनका भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण ही है। तात्पर्य यह हैं कि सारभूत मुख्य मूलभूत या प्रयोजनभूत पदार्थोंको तत्त्वनामसे पुकारा जाता है। यही सबब है कि जैन दर्शनके दृष्टिकोणके मुताबिक जगत्में नाना तरहके दूसरे दूसरे पदार्थोंका अस्तित्व रहते हुए भी तत्त्व शब्दके इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर प्राणियोंके आत्यन्तिक सुख (मुक्ति) की प्राप्ति में जिनका समझ लेना प्रयोजनभूत मान लिया गया है उन पूर्वोक्त चित्शक्तिविशिष्टतत्त्व स्वरूप जीव, कार्माणवर्गणास्वरूप अजीव तथा इन दोनोंके संयोगरूप बन्ध और वियोग मुक्ति एवं संयोगके कारणभूत आसव और वियोग के कारणस्वरूप संवर और निर्जराको ही सप्ततत्त्वमयपदार्थव्यवस्थामें स्थान दिया गया है । सांख्य दर्शनके दृष्टिकोणके अनुसार मुक्तिप्राप्ति के लिये चित्शक्तिविशिष्टतत्वस्वरूप पुरुष तथा इनकी शरीरसम्बन्धपरंपरारूप संसारकी मूलकारण स्वरूप प्रकृति और इन दोनोंके संयोगसे होनेवाले बुद्धि आदि पंच महाभूत पर्यन्त प्रकृतिविकारोंको समझ लेना हो जरूरी या पर्याप्त मान लिया गया है। इसलिये सांख्यदर्शनमें नानाचित्शक्तिविशिष्ट तत्त्व, इनका शरीरसम्बन्धपरंपरा अथवा सुख-दुःखपरंपरारूप संसारका कारण, संसारका सर्वथा विच्छेदस्वरूप मुक्ति और मुक्तिका कारण इन पाँचों तत्त्वोंकी मान्यता रहते हुए भी उसकी ( सांख्यदर्शनकी ) पदार्थव्यवस्था में सिर्फ पुरुष, प्रकृति और बुद्धि आदि तेईस प्रकृतिविकारोंको ही स्थान दिया गया है। जैनदर्शनको सप्ततत्वस्वरूप पदार्थव्यवस्थाके साथ यदि सांख्यदर्शनकी पच्चीस तत्त्वस्वरूप पदार्थव्यवस्थाका स्थूल रूपसे समन्वय किया जाय तो कहा जा सकता है कि जैनदर्शनके जीवतत्वके स्थानपर सांख्यदर्शन में पुरुषतत्वको और जैनदर्शनके अजीवतत्त्व ( कार्माणवर्गणा ) के स्थानपर सांख्यदर्शन में प्रकृतितत्वको स्थान दिया गया है तथा जैनदर्शन के बन्धतत्वका यदि विस्तार किया जाय तो सांख्यदर्शनको बुद्धि आदि तेईस तत्वों की मान्यताका उसके साथ समन्वय किया जा सकता है। इतना समन्वय करनेके बाद इन दोनों दर्शनोंकी मान्यताओं में सिर्फ इतना भेद रह जाता है कि जहाँ सांख्यदर्शनमें बुद्धि आदि सभी तत्वोंको पुरुषसंयुक्त प्रकृतिका विकार स्वीकार किया गया है वहाँ जैनदर्शन में कुछको तो प्रकृतिसंयुक्त पुरुषका विकार और कुछको पुरुषसंयुक्त प्रकृतिका विकार स्वीकार किया गया है। तात्पर्य यह है कि सांख्यदर्शनके पच्चीस तत्वोंको जैनदर्शनके जीव, अजीव और बन्ध इन तीन तत्त्वोंमें संग्रहीत किया जा सकता है। इस प्रकार सांख्यदर्शन में पच्चीस तत्वोंके रूपमें नानाचित्शक्तिविशिष्ट तत्व और इनका शरीरसम्बन्धपरम्परा अथवा सुख-दुःख परम्परारूप संसार ये दो तत्व तो कंठोक्त स्वीकार किये गये हैं। शेष संसारका कारण संसारका सर्वया विच्छेद स्वरूप मुक्ति और मुक्तिका कारण इन तीन तत्वोंकी मान्यता रहते हुए भी इन्हें पदार्थ मान्यतामें स्थान नहीं दिया गया है । Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ दर्शन और न्याय : ७९ योगदर्शनमें नाना चितशक्तिविशिष्टतत्व, उनका संसार, संसारका कारण, मुक्ति और मुक्तिका कारण इन तत्वोंकी मान्यता रहते हुए भी उसकी पदार्थव्यवस्था करीब-करीब सांख्यदर्शन जैसी ही है। विशेषता इतनी है कि योगदर्शनमें पुरुष और प्रकृतिके संयोग तथा प्रकृतिकी बुद्धि आदि तेईस तत्वरूप होने वाली परिणतिमें सहायक एक शाश्वत ईश्वरतत्वको भी स्वीकार किया गया है और मुक्तिके साधनोंका विस्तृत विवेचन भी योगदर्शनमें किया गया है। सांख्यदर्शनकी पदार्थव्यवस्था योगदर्शनकी तरह वेदान्तदर्शनको भी मान्य है। लेकिन वेदान्तदर्शनमें उक्त पदार्थव्यवस्थाके मूलमें नित्य, व्यापक और एक परब्रह्म नामक तत्वको स्वीकार किया गया है तथा संसारको इसी परब्रह्मका विस्तार स्वीकार किया गया है। इस प्रकार वेदान्तदर्शनमें यद्यपि एक परब्रह्मको ही तत्वरूपसे स्वीकार किया है परन्तु वहाँपर ( वेदान्तदर्शन में ) भी प्रत्येक प्राणीके शरीरमें पृथक्-पृथक् रहने वाले चितशक्तिविशिष्टतत्वोंको उस परब्रह्मके अंशोंके रूपमें स्वीकार करके उनका असत् स्वरूप अविद्याके साथ संयोग, इस संयोगके आधारपर उन चितशक्तिविशिष्टतत्वोंका सुख-दुःख तथा शरीर-संबन्धकी परम्परारूप संसार, इस संसारसे छुटकारा स्वरूप मुक्ति और मुक्तिका कारण ये सब बातें स्वीकार की गयी हैं। वेदान्तदर्शनमें परब्रह्मको सत् और संसारको असत् माननेकी जो दृष्टि है उसका सामञ्जस्य जैनदर्शनकी करणानुयोगदृष्टि ( उपयोगितावाद ) से होता है क्योंकि जैनदर्शनमें भी संसार अथवा शरीरादि जिन पदार्थोंको द्रव्यानुयोग ( वास्तविकतावाद ) की दृष्टिसे सत् स्वीकार किया गया है उन्हींको करणानुयोगकी दृष्टिसे असत् स्वीकार किया गया है। तात्पर्य यह है कि जैनदर्शनमें भी करणानुयोगकी दृष्टिसे एक चित्शक्तिविशिष्ट आत्मतत्वको ही शाश्वत् होनेके कारण सत् स्वीकार किया गया है और शेष संसारके सभी तत्वोंको अशाश्वत. आत्मकल्याणमें अनुपयोगी अथवा बाधक होनेके कारण असत् ( मिथ्या ) स्वीकार किया गया है। इसी प्रकार चितशक्तिविशिष्ट तत्व, उनका पूर्वोक्त संसार और संसारका कारण इन तीन तत्वोंको स्वीकार करने वाले मीमांसादर्शनमें तथा इनके साथ-साथ मुक्ति और मुक्तिके कारण इन दो तत्वोंको मिलाकर पाँच तत्वोंको स्वीकार करने वाले न्याय, वैशेषिक और बौद्ध दर्शनोंमें भी इनका जैनदर्शनकी तरह जो तत्वरूप से व्यवस्थित विवेचन नहीं किया गया है वह इन दर्शनोंके भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणका ही परिणाम है । इस संपूर्ण कथनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि जैनदर्शनकी सप्ततत्वमय पदार्थव्यवस्था यद्यपि उक्त सभी दर्शनोंको स्वीकार्य है परन्तु जहाँ जैनदर्शनमें उपयोगितावादके आधारपर उसका सर्वाङ्गीण और व्यवस्थित ढंगसे विवेचन किया गया है वहाँ दूसरे दर्शनोंमें उसका विवेचन सर्वाङ्गीण और व्यवस्थित ढगसे नहीं किया गया है। Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ भूल और उसका समाधान यों तो शब्दोंके अर्थमें कभी-कभी भूल हो जाया करती है और बाद में वह ठीक भी हो जाती है । लेकिन कोई-कोई भूल ऐसी हो जाती है जो कि परम्परामें पहुँच जाती है । फिर उसके विषयमें यह ध्यान भी नहीं होता कि भूल है या नहीं। ऐसे ही कुछ स्थलोंको यहाँपर रखता हूँ आशा है विद्वान पाठक अवश्य विचार करेंगे । १. न्यायदीपिका "असाधारणघर्मवचनं लक्षणमिति केचित् तदनुपपन्नं लक्ष्यर्धाभिवचनस्य लक्षणधर्मवचनेन सामानाधिकरण्याभावप्रसंगात् ।” यह तो मुझे स्मरण नहीं कि गुरुमुखसे इसका क्या अर्थ मैंने सुना था, किन्तु उस समय मुझे इस ग्रंथकी एटा निवासी पं० खूबचन्द्र जी कृत हिन्दी टीका देखनेका मौका मिला था, उसमें इन पंक्तियोंका जो अर्थ किया गया है वह मुझे असंगत जान पड़ा। मालूम होता है इस हिन्दी - टीकाके विद्यार्थी समाज में तो यह अर्थ अवश्य ही माना जाता है । सहारेपर ही कम-से-कम हमारी जैन परीक्षाओं में भी यह प्रश्न प्रायः पूछा जाता है और बहुधा विद्यार्थी भी इसी ढंगसे समाधान करते होंगे । अच्छा होता, यदि विद्वान परीक्षक इस अर्थके विषयमें कुछ संकेत करते, लेकिन इसपर आज तक किसीका भी ध्यान नहीं गया । अस्तु, उल्लिखित टोकामें इस प्रकार अर्थ किया गया है— " कई मतवाले सर्वथा असाधारण धर्मको लक्षण कहते हैं, परन्तु यह उनका कहना ठीक नहीं है क्योंकि "लक्ष्य और लक्षण दोनों एक ही अधिकरणमें रहते हैं ऐसा नियम है । यदि ऐसा न मानोगे तो घटका लक्षण पट भी मानना पड़ेगा, परन्तु प्रवादीके माने हुए लक्षणके अनुसार लक्ष्य तथा लक्षण (का) रहना एक ही अधिकरणमें नहीं बन सकता, क्योंकि उसके मतानुसार लक्षण लक्ष्यमें रहता है और लक्ष्य अपने अवयवोंमें रहता है । जैसे पृथिवोका लक्षण गंध है वह गंध पृथिवी में रहता है और पृथिवी अपने अवयवों में रहती है इसलिये इस लक्षण में असंभव दोष आता है ।" १. यहाँपर टीकाकारने लक्ष्य और लक्षणके विषयमें एक अधिकरणका नियम मानकर उस नियमके अभावमें जो जो यह आपत्ति दी है कि घटका लक्षण पट भी मानना पड़ेगा, वह ठीक नहीं, कारण कि दूध और जल ये दोनों पदार्थ एक पात्रमें रखे जा सकते हैं तो उस अवस्थामें दूध और जलमें परस्परके लक्ष्य लक्षणभावकी आपत्ति एक अधिकरणके माननेपर भी बनी रहती है । रस और रूप तो सर्वदा एक ही अघिकरणमें रहते हैं, इसलिये इनमें तो यह आपत्ति स्पष्ट ही है । २. स्वयं न्यायदीपिकाकारने भी लक्ष्य और लक्षणका एक अधिकरण स्वीकार नहीं किया है, अग्निका लक्षण उष्णपना और देवदत्तका लक्षण दण्ड इन दोनों लक्षणोंमें लक्ष्य और लक्षणका एक आधार कोई भी विद्वान स्वीकार नहीं करेगा । ३. आगे चलकर जो यह लिखा है कि " नैयायिकके मतानुसार लक्षण लक्ष्यमें रहता है और लक्ष्य अपने अवयवोंमें रहता है", यह लिखना भी ठीक नहीं, कारण एक तो लक्ष्य और लक्षणकी एकाधिकरणता लक्ष्य-लक्षणभावकी नियामक नहीं, जबकि लक्ष्य सर्वदा लक्षणका आधार ही रहता है । दूसरी बात यह है कि नैयायिकके मतानुसार गुणका लक्षण तो गुणमें रहता है और गुण द्रव्यमें रहता है न कि अपने अवयवोंमें, Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ दर्शन और न्याय : ८१ तब हम यह कैसे कह सकते हैं कि नैयायिकके मतानुसार लक्षण लक्ष्यमें रहता है और लक्ष्य अपने अवयवोंमें रहता है। यद्यपि द्रव्यकी अपेक्षासे यह कथन सम्मत कहा जा सकता है। किन्तु यहाँ पर लक्ष्य-लक्षणभावका सामान्य कथन होनेके कारण ऐसा लिखना समालोच्य अवश्य है। अब मैं पाठकोंके सामने उस अर्थको रखता हूँ जो संगत मालूम होता है। वचनका अर्थ वाक्य या शब्द होता है । लक्षणके कथनमें दो वाक्य होते हैं-१. लक्ष्यवाक्य, २. लक्षणवाक्य । नैयायिक असाधारणधर्मवचनको लक्षण मानता है, इसलिये उसके अनुसार जब लक्षण धर्मवचन हआ तो लक्ष्यको धर्मिवचन मानना होगा, कारण किसी पदार्थका आसाधारणधर्म जब उस पदार्थका लक्षण माना जाता है तो लक्ष्यपदार्थ धर्मिरूप ही सिद्ध होता है। "सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्, गंधवती' पृथ्वी" इनमें सम्यग्ज्ञानत्व प्रमाणका और गंधवत्व या गंध पथिवीका लक्षण है इसलिये 'सम्यग्ज्ञानं' और 'गंधवती' ये दोनों वचन लक्षणवचन हैं और 'प्रमाणं' तथा 'पथिवी' ये दोनों लक्ष्यवचन हैं। यहाँपर सम्यग्ज्ञानपदवाच्य जो वस्तु है वही प्रमाणपदवाच्य है तथा गंधवतीपदवाच्य जो वस्तु है वही पृथिवीपदवाच्य है। इस प्रकार लक्ष्यवचन और लक्षणवचनका सामानाधिकरण्य मानना पड़ता है, कारण बिना सामानाधिकरण्यके समानविभक्तिक प्रयोग नहीं हो सकते । २भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तवाले शब्दोंको एक अर्थमें वृत्तिको सामानाधिकरण्य कहते हैं। यहाँ पर वृत्तिका अर्थ सम्बन्ध है, वह सम्बन्ध शब्द और अर्थका वाच्य-वाचकभावरूप माना गया है। “सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं" इसमें 'सम्यग्ज्ञानं' इस लक्षणवचनका प्रवृत्तिनिमित्त सम्यग्ज्ञानत्व है, 'प्रमाणं' इस लक्ष्यवचनका प्रवृत्तिनिमित्त प्रमाणत्व है। इस तरह भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तवाले ये दोनों शब्द एक ही अर्थ के बोधक हैं अर्थात् सम्यग्ज्ञानशब्दसे जिस अर्थका बोध होता है वही अर्थ प्रमाणशब्दसे जाना जाता है, कारण कि जो वस्तु सम्यग्ज्ञान है वही तो प्रमाण है। इसी प्रकार गन्धवत्वप्रवृत्तिनिमित्तवाले गन्धवतीशब्दसे जिस अर्थका बोध होता है वही अर्थ पथिवीत्वप्रवृत्तिनिमित्तवाले पृथिवीशब्दसे जाना जाता है, कारण जो पदार्थ गन्धवान है वही तो पथिवी है। इस तरह लक्ष्यवचन और लक्षणवचन एक ही अर्थके प्रतिपादक होनेसे वे समानाधिकरण सिद्ध होते हैं। नैयायिकके मतानुसार लक्ष्यवचन मिवचनरूप और लक्षणवचन धर्मवचन रूप ही सिद्ध होते हैं। लेकिन धर्मिवचन और धर्मवचन कभी भी एक अर्थके प्रतिपादक नहीं होते हैं-धर्मवचन धर्मका ही प्रतिपादन करता है और धर्मिवचन धर्मीका ही प्रतिपादन करता है, इसलिये इन दोनोंमें एकार्थप्रतिपादनरूप सामानाधिकरण्यका अभाव प्राप्त होता है, वह उचित नहीं कहा जा सकता है, कारण कि लक्ष्यवचन और लक्षणवचनमें सामानाधिकरण्य “सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं, गन्धवती पृथ्वी" इत्यादि स्थलोंमें माना गया है, इसलिये नैयायिकके द्वारा माना हुआ लक्षणका लक्षण ठीक नहीं है। उसमें असम्भव दोष आता है। २. आप्तपरीक्षा "स्यान्मतं पथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशकालदिगात्ममनांसि नवद्रव्याणि । द्रव्यपदस्यार्थ इति (चेत्), कथमेको द्रव्यपदार्थः ? सामान्यसंज्ञाभिधानादिति चेन्न सामान्यसंज्ञायाः सामान्य वद्विषयत्वात् । तदर्थस्य सामान्यपदार्थत्वे ततो विशेष्वप्रवृत्तिप्रसंगात्; द्रव्यपदार्थस्यैकस्यासिद्धेश्च" (पृष्ठ ४, पुराना संस्करण)। १. नैयायिक मतानुसार । २. भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तानां शब्दानामेकस्मिन्नर्थे वृत्तिः सामानाधिकरण्यम् । -सिद्धान्तकौमुदी व्याकरण, न्या० त० बोधनी टीका । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ बहुधा विद्यालयोंमें इस स्थलपर “सामान्यवद्विषयत्वात्" के स्थानमें 'सामान्यविषयत्वात्' ऐसा पाठ सुधार दिया जाता है तथा अभी इस ग्रन्थका नवीन संस्करण कठनेराजीने निकाला है। उसमें तो "वत्" शब्दको बिलकुल निकाल दिया गया है। मेरी समझसे संशोधकोंका कर्तव्य होना चाहिये कि वे जिस पाठको अशुद्ध समझें उसका पाठान्तर कर दें, यह रीति बहुत ही आदरणीय मानी जा सकती है क्योंकि कहीं-कहींपर शुद्ध पाठको अशद्ध समझ कर निकाल देनेमें शद्ध पाठकी खोजके लिये बहत कठिनाई उठाना पड़ती है। ऊपर लिखा पाठ ही शुद्ध है। अभी तक जो हमारे विद्वान "वत्" शब्दको निकालकर अर्थ करते आ रहे हैं वह अशुद्ध है। इसका विचार करनेके लिये इस स्थलका अर्थ यहाँ लिखा जाता है। यहाँपर वादी वैशेषिक द्रव्यपदार्थको एक सिद्ध करना चाहता है। लेकिन वह पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन इन नवको द्रव्यपदका अर्थ स्वीकार करता है, इसलिये उससे प्रश्न किया गया है कि जब तुम द्रव्यपदके नव (नौ) अर्थ मानते हो तो एक द्रव्यपदार्थ कैसे सिद्ध होगा? इसके उत्तरमें वह कहता है कि 'द्रव्य' यह पद नौकी सामान्यसंज्ञा है। वह समझता है कि सामान्यसंज्ञाका वाच्य सामान्य ही हो सकता है, इसलिये द्रव्यपदका सामान्यरूप एक अर्थ सिद्ध होने में कोई बाधा नहीं हो सकती है । इसपर ग्रन्थकारने निम्न प्रकार बाधायें उपस्थित की है (१) सामान्यसंज्ञाका सामान्य विषय (वाच्य) नहीं होकर सामान्यवान विषय होता है क्योंकि जिस शब्दके श्रवणसे जिस पदार्थमें लोगोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है उस शब्दका वही अर्थ माना जाता है । “द्रव्यमानय", "द्रव्यं पश्य" इत्यादि वाक्योंसे पृथिवी, जल आदि विशेषमें ही आनयन व देखनेरूप मनुष्योंकी प्रवृत्ति देखी जाती है, द्रव्यत्वसामान्यमें नहीं, इसलिये द्रव्यपदके द्रव्यत्वसामान्यवान् पृथिवी, जल आदि विशेष नौ पदार्थ ही अर्थ सिद्ध होंगे, एक सामान्यपदार्थ नहीं। (२) यदि द्रव्यपदका द्रव्यत्वसामान्य ही अर्थ माना जाय तो द्रव्यपदके श्रवणसे पृथिवी, जल आदि विशेषमें मनुष्योंकी प्रवृत्ति नहीं होना चाहिये, लेकिन होती है, इसलिये द्रव्यपदका द्रव्यत्वसामान्य अर्थ युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता है। (३) किसी तरहसे द्रव्यत्वसामान्य अर्थ मान भी लिया जाय, तो भी द्रव्यपदार्थ एक सिद्ध न होगा। इसका कारण ग्रन्थमें इस स्थलके आगे स्पष्ट किया गया है, यहाँपर उपयोगी न होनेसे नहीं लिखा है। मुझे आशा है कि अब अवश्य ही इन स्थलोंके अर्थ में सुधार किया जायगा और यदि मेरे लिखने में कोई त्रुटि होगी तो विद्वान पाठक मुझे अवश्य ही सूचित करेंगे। इस लेखपर स्व० ५० महेन्द्रकुमार जी जैन न्यायतीर्थ न्यायाध्यापक स्याद्वाद महाविद्यालय काशीने अपना अभिप्राय निम्न रूपमें प्रकट किया था। जैन मित्र(४ मई १९३३) में भाई बंशीधरजी व्याकरणाचायका "अर्थमें भल" शीर्षक लेख देखा । मैं पंडितजोकी इस उपयोगी चर्चाका अभिनन्दन करता हूँ। पं० खूबचन्द्र जी कृत न्यायदीपिकाकी हिन्दी टीका तथा पं० जीके अर्थका मिलान किया। इस विषयमें मेरे विचार निम्न प्रकार हैं न्यायदीपिकाकारने लक्षणके दो भेद किये हैं-(१) आत्मभूत, (२) अनात्मभूत । अनात्भूतलक्षणमें सामानाधिकरण्य होना जरूरी नहीं, क्योंकि वह लक्षण वस्तुस्वरूपमें मिला हुआ नहीं होता, भिन्न पदार्थ ही Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ | दर्शन और न्याय : ८३ इसमें लक्षक होता है । 'दण्डः पुरुषस्य' इस लक्षणमें यदि एकाधारवृत्तित्वलक्षण सामानाधिकरण्य नहीं है तो एकार्थप्रतिपादकत्वलक्षण सामानाधिकरण्य भी नहीं है। जिस तरह 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं', इस लक्षणमें भी जो सम्यग्ज्ञानपदवाच्य है वही तो प्रमाणपदवाच्य है या जो प्रमाणपदवाच्य है वही तो सम्यग्ज्ञानपद वाच्य है ऐसा एकार्थप्रतिपादकत्वेन सामानाधिकरण्य होता है वैसा 'दण्डःपुरुषस्य' यहाँपर “जो पुरुषपदवाच्य है वही दण्डवत्वपदवाच्य है या जो दण्डवत्वपदवाच्य है वही पुरुषपदवाच्य" ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि दण्डवत्वाभावमें भी पुरुष और पुरुषाभावमें भी दण्डवत्व हो सकता है। परन्तु आत्मभूतलक्षणमें सामानाधिकरण्य होना अत्यावश्यक है। वह सामानाधिकरण्य यदि एकार्थप्रतिपादकत्वेन हो सकता है तो एकाधारवृत्तित्वेन होने में कोई बाधा नहीं है क्योंकि आत्मभूतलक्षण वस्तुस्वरूपात्मक होता है। स्वरूपसे कथंचित्तादात्म्य रखनेवाली वस्तुओंमें भिन्नाधिकरणता संभव ही नहीं है अन्यथा स्वरूप-स्वरूपवद्भाव ही न हो सकेगा। यह आपत्ति भी ठीक नहीं है कि दूध और जलमें एक भाजनवृत्तित्वेन सामानाधिकरण्य एवं रूप और रसमें अभिन्नद्रव्याधारतया सामानाधिकरण्य जब है तो लक्ष्यलक्षणभाव होना चाहिये, क्योंकि लक्ष्यलक्षणभाव व्याप्य है सामानाधिकरण्य व्यापक; इसलिये जहाँ-जहाँ लक्ष्यलक्षणभाव (आत्मभूतीय) होगा वहाँवहाँपर सामानाधिकरण्य अवश्य होगा, किन्तु सामानाधिकरण्य होनेपर लक्ष्यलक्षणभाव होना जरूरी नहीं है। _ 'अग्नेरोष्ण्यं' यहाँपर एकाधिकरण है क्योंकि जो औषण्यका आधार है वही तो अग्निका है कथंचित्तादात्म्य होनेसे भिन्नाधिकरणता कदापि सम्भव नहीं', अन्यथा गुणगणिभावका लोप हो जायगा । नैयायिकके यहाँ द्रव्य, गुण, कर्म आदि स्वतंत्र पदार्थ हैं । इनमें समवायसम्बन्ध होता है कथंचित् तादात्म्यसम्बन्ध उसने माना नहीं है। इसलिये उसके यहाँ द्रव्यका लक्षण द्रव्यमें रहेगा तो द्रव्य अपने अवयवोंमें, इस तरह भिन्नाधिकरणता, गुणका लक्षण गुणमें, गुण द्रव्यमें इस तरह भिन्नाधिकरणता, कर्मका लक्षण कर्ममें, कर्म द्रव्यमें इस तरह भिन्नाधिकरणता सर्वत्र बनी रहती है, इसलिये असम्भवदोष बाधित लक्ष्यवृत्ति होनेसे आ जाता है। न्यायदीपिकाकारने आत्मभूतलक्षणको जो पृथक् किया है उसका अन्तरंगकारण सामानाधिकरण्यकी आवश्यकता ही है । आशा है कि इस ग्रन्थको लगाते समय इन बातोंका ध्यान अवश्य रखा जायगा । जैनमित्र, ता० ८ जून सन् १९३३, अंक ३२ वर्ष ३४ में प्रकाशित । इसका उत्तर हमने निम्नलिखित दिया। बन्धवर पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायतीर्थ न्यायाध्यापक स्या० महाविद्यालय काशीने मेरे द्वारा किये गये न्यायदीपिकाके अर्थमें मतभेद दिखलाते हुए कुछ विचार प्रकट किये हैं। पं० जीका आशय है कि "आत्मभूतलक्षणमें मामानाधिकरण होना आवश्यक है वह एकार्थप्रतिपादकत्वरूप या एकाधारवृत्तित्वरूप हो सकता है। अनात्मभूतलक्षणमें सामानाधिकरण्य आवश्यक नहीं, चाहे वह एकार्थप्रतिपादकत्वरूप हो या एकाधारवृत्तित्वरूप हो ।" यह बात ध्यानमें रखना चाहिये कि एकार्थप्रतिपादकत्वरूप सामानाधिकरण्य शब्दवृत्ति है, इसलिये वह लक्ष्यवचन और लक्षणवचनमें रहेगा, एकाधारवृत्तित्वरूप सामानाधिकरण्य अर्थवृत्ति है, इसलिये वह लक्ष्यवस्तु और लक्षणवस्तुमें पाया जायगा। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ मेरा खयाल है कि आत्मभूतलक्षणमें भी अनात्मभूतलक्षणकी तरह लक्ष्य और लक्षण वस्तुओंमें एकाधारवृत्तित्वरूप सामानाधिकरण्यका सद्भाव अथवा उसका ज्ञान लक्ष्यलक्षणभावका प्रयोजक नहीं, यदि माना जाय तो नैयायिकको कभी भी गन्धवतीशब्दसे पृथ्वीका भान नहीं होना चाहिये, क्योंकि गंध और पृथ्वीका एक आधार नहीं होनेसे लक्ष्यलक्षणभाव नहीं बन सकता है। और तो क्या जैनी भी यदि नैयायिकके ग्रन्थोंमें गन्धवती शब्दको देखते है तो उसका अर्थ पृथ्वी ही करते हैं क्योंकि वे समझते है कि नैयायिकने गन्धको पृथ्वीका लक्षण स्वीकार किया है उसके यहाँ पृथ्वीका बोधक गन्धवतीशब्द लाक्षणिक है, सांकेतिक नहीं। इसलिये हम यह कैसे कह सकते हैं कि नैयायिकके यहाँ लक्ष्य और लक्षण वस्तुओंमें भिन्नाधिकरणता रहनेसे असाधारणधर्म रूप लक्षणमें असम्भव दोष आता है जबकि उसके मतानुसार हम गन्धको पृथ्वीका लक्षण स्वीकार कर लेते हैं। 'गंध पृथ्वीका लक्षण' हम (जैनी) इसलिये नहीं करते कि इसमें असंभव दोष आता है किन्तु इसलिये नहीं करते हैं कि गन्ध पृथ्वीका असाधारण धर्म नहीं है, कारण कि (जैन मान्यतानुसार) जलादिकमें भी गंध पाया जाता है । लक्षण पदार्थका ज्ञापक माना गया है । नैयायिककी मान्यतानुसार गन्ध पृथ्वीका ज्ञापक सिद्ध होता ही है; भले ही उनमें एकाधिकरण्य न हो। इसलिये इस ढंगसे असम्भव दोष बतलाना संगत नहीं कहा जा सकता है। जो लक्षण लक्ष्यमें न पाया जाय, उसको असंभवित कहते हैं, नैयायिक असाधारणधर्मको लक्षण मानता है तथा उसके यहाँ गन्ध पृथ्वीका असाधारण धर्म है अर्थात् गन्ध पृथ्वीरूप लक्ष्यमें रहता है तो यह लक्षण बाधितलक्ष्यवृत्ति कैसे हो सकता है ? 'गन्धवज्जलं' यह लक्षण उसके मतसे असंभवित है क्योंकि वह बाधितलक्ष्यवृत्ति है । जैनियोंने लक्षणके आत्मभूत और अनात्मभूत दो भेद स्वीकार किये हैं। नैयायिक इन भेदोको नहीं मानता, तब यदि वह 'गन्धवती पृथ्वी' इस लक्षणको 'दण्डी पुरुषः' की तरह अनात्मभूत स्वीकार कर ले तो फिर उसके यहाँ इस लक्षणमें असंभव दोष कैसे आ सकता है ? इतने पर भी यदि एकाधारवृत्तित्त्वरूप सामानाधिकरण्यके अभावसे यहाँपर असंभव दोष माना जाय तो 'दण्डी पुरुषः' इस अनात्मभूतलक्षणमें वह दोष क्यों नहीं होगा? यह बात विचारने योग्य है। दूध और जल तथा रूप और रसमें जब एकाधारवृत्तित्व है तो वहाँ पर लक्ष्य-लक्षण भावकी आपत्ति बिल्कुल स्पष्ट है । यद्यपि सामानाधिकरण्यको व्यापक और लक्ष्यलक्षणभावको व्याप्य मान लेनेसे यह आपत्ति नहीं रहती, किन्तु विचारना यह है कि ऐसा व्याप्यव्यापकभाव संगत है या नहीं? अनात्मभूतलक्षणमें एकाधारवृत्तित्वरूप सामानाधिकरण्यका अभाव रहनेपर भी लक्ष्य-लक्षणभाव स्वीकार किया गया है, इसलिये लक्ष्य-लक्षणभाव सामानाधिकरण्यका व्याप्य नहीं हो सकता है। आत्मभूतीय लक्ष्य-लक्षणभाव उक्त सामानाधिकरण्यका व्याप्य है अनात्मभतीय नहीं, इस तरहके भेदका कोई नियामक नहीं, जबकि दोनों जगह समानरूपसे लक्ष्य-लक्षणभाव पाया जाता है। आत्मभूतीय लक्ष्य-लक्षणभाव भी सामानाधिकरण्यका व्याप्य सिद्ध नहीं होता है, कारण कि जैसा एकाधारवृत्तित्वरूप सामानाधिकारण्य रूप और रस तथा दूध और जलमें पाया जाता है वैसा अग्नि और उष्णतामें नहीं पाया जाता, इस प्रकार जब अग्नि और उष्णतामें सामानाधिकरण्याभाव ही सिद्ध होता है तो लक्ष्य-लक्षणभाव सामानाधिकरण्यका व्याप्य कैसे हो सकता है ? रूप और रस तथा दुध और जलमें सामानाधिकरण्य रहते हुए भी लक्ष्य-लक्षणभाव आप स्वीकार नहीं करते है। इससे सुतरां सिद्ध होता है कि लक्ष्य-लक्षणभावका प्रयोजक उक्त सामानाधिकरण्य नहीं, बल्कि दूसरा ही कोई कारण है जिससे पदार्थोमें लक्ष्य-लक्षणभावकी कल्पना की जाती है। इसलिये आत्मभूतलक्षण Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्शन और न्याय : ८५ में लक्ष्य-लक्षणभावका प्रयोजक लक्ष्य और लक्षणवस्तुओंका एकाधारवृत्तित्वरूप सामानाधिकरण्यको मानना ठीक नहीं है। आत्मभूतलक्षण में उक्त सामानाधिकरण्यको लक्ष्य-लक्षणभावका प्रयोजक मानने में एक दोष यह भी है कि जब अनात्मभ तलक्षणमें भी लक्ष्यलक्षणभाव रहता है तो वहाँपर भी उसका प्रयोजक उक्त सामानाधिकरण्य भी रहना चाहिये, अन्यथा अनात्मभूतलक्षणमें लक्ष्य-लक्षणभावका अभाव मानना पड़ेगा। . यदि कहा जाय कि उक्त सामानाधिकरण्य लक्ष्य-लक्षणभावका प्रयोजक नहीं, किन्तु लक्षण ही आत्मभूतताका प्रयोजक है तो प्रथम तो लक्ष्य-लक्षणभावमें इसके माननेकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है, दसरे लक्षणकी आत्मभतताका भी प्रयोजक उक्त सामानाधिकरण्य नहीं है, कारण अग्निका लक्षण उष्णता है उष्णताका आधार अग्नि है, यह तो ठीक है किन्तु अग्निको स्वका भी आधार मान करके सामानाधिकरण्यकी कल्पना युक्ति और अनुभवसे विरुद्ध जान पड़ती है । तीसरे, ऐसा सामानाधिकरण्य तो अनात्मभूतलक्षणमें भी रह सकता है क्योंकि जिस पुरुषके हस्तमें जो दण्ड रहता है वही दण्ड लक्षक होता है और वह भी उसी पुरुष का, वह दण्ड दूसरे पुरुषका लक्षक नहीं, तथा दूसरा दण्ड उस पुरुषका लक्षक नहीं, ऐसी हालतमें उस दण्डका आधार वह पुरुष है-जिस तरह कि उष्णताका आधार अग्नि होता है तथा उस पुरुषको स्वका आधार मान लेना चाहिये, जिस तरह कि अग्निको स्वका आधार मान लिया गया है, इस तरहसे लक्षणके आत्मभूत और अनात्मभूत दो भेद असंगत ठहरते हैं। इसलिये एकाधारवृत्तित्वरूप सामानाधिकरण्य लक्षणकी आत्मभूतताका भी प्रयोजक सिद्ध नहीं होता है। लक्षणके आत्मभूत और अनात्मभुत भेदोंका प्रयोजक अपृथक्पना और पृथक्पना है। उष्णताको अग्निसे कभी भी पृथक नहीं कर सकते, जबकि दण्ड और पुरुष दोनों पदार्थ पृथक् सिद्ध हैं। जैनियोंने स्वरूप-स्वरूपवान तथा गुण-गुणीमें तादात्म्यसम्बन्ध माना है। तादात्म्यका अर्थ भेद और अभेद है, स्वरूपस्वरूपबद्भाव, गुणगणिभाव भेदका नियामक है, कारण स्वरूप और स्वरूपवानमें तथा गण और गुणीमें भेद माननेसे ही स्वरूपस्वरूपवद्भाव और गुणगुणिभावकी कल्पना हो सकती है, अभेद माननेसे अग्नि स्वरूपवान या गुणी है और उष्णता उसका स्वरूप या गुण है ऐसा भान या कथन नहीं हो सकता हैं। अभेद मानते इसलिये हैं कि उष्णता अग्निका ही स्वरूप है अन्यका नहीं । उष्णताको छोड़कर अग्निकी स्वतंत्र सत्ता निर्धारित नहीं कर सकते. यही तादात्म्यसम्बन्धका अभिप्राय है। उष्णताका आधार अग्नि है या उष्णता अग्निका लक्षण है, यह कथन भी भेददृष्टिसे हो हो सकता है, अभेदकी अपेक्षासे आधाराधेयभाव या लक्ष्यलक्षणभावको कल्पना कदापि संभव नहीं। तादात्म्य रखनेवाली वस्तुओंमें भिन्नाधिकरणता भले ही आप न माने, लेकिन उनमें एकाधिकरणता संभव नहीं, अथवा एकाधिकरणता स्वरूपस्वरूपवद्भाव, गुणगुणिभाव; आधाराधेयभाव, लक्ष्यलक्षणभाव आदिकी नियामक नहीं, यह बात स्पष्ट हो चुकी है। अब हमको थोड़ा न्यायदीपिकाके शब्दोंपर भी ध्यान देना चाहिये । न्यायदीपिकाकारने लक्ष्यमिवचन और लक्षणधर्मवचन में सामानाधिकरण्यके अभावका प्रसंग बतलाया है, न कि लक्ष्यवस्तु और लक्षणवस्तुमें । इसलिये वह भी सामानाधिकरण्य एकार्थप्रतिपादकत्वरूप ही हो सकता है और वह आत्मभूत एवं अनात्मभूत दोनों तरहके लक्षणवाक्योंके लक्ष्यवचन और लक्षणवचनमें समानरूपसे पाया जाता है। जिस प्रकार 'सम्यज्ञानं प्रमाणं' यहांपर सम्यग्ज्ञानत्व प्रमाणका लक्षण है, इसलिये 'सम्यग्ज्ञानं यह पद लक्षणवचन है और प्रमाण लक्ष्य है, इसलिये 'प्रमाणं' यह पद लक्ष्यवचन है । ये दोनों वचन एकार्थके प्रतिपादक हैं क्योंकि सम्यग्ज्ञानवस्तुको छोड़कर प्रमाण कोई दूसरी वस्तु नहीं। इसी प्रकार 'दण्डी पुरुषः' यहांपर दडित्व (दण्ड) Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य पुरुषका लक्षण है इसलिये 'दण्डी' यह पद लक्षणवचन है और पुरुष लक्ष्य है इसलिये 'पुरुषः' यहाँपर लक्ष्यवचन है । ये दोनों वचन भी एकार्थके प्रतिपादक है क्योंकि दण्डीशब्दसे दण्डविशिष्टका बोध होता है । दण्डविशिष्ट यहांपर पुरुषपदार्थ है वही पुरुषपदार्थ पुरुषपदका भी अर्थ होता है। इस तरह अनात्मभूतलक्षणमें भी लक्ष्यवचन और लक्षणवचनका एकार्थप्रतिपादकत्वरूप समानाधिकरण्य रहता ही है। जहां यह नहीं हो, वह लक्षण दूषित कहा जाता है। जैसे 'विषाणी पुरुषः' यहांपर 'विषाणी' इस लक्षणवचनका विषाणविशिष्ट अर्थ होता है लेकिन पुरुषपदार्थ विषाणविशिष्ट नहीं होता, इसलिये विषाणी और पुरुषः' इन दोनों वचनोंमें एकार्थप्रतिपादकत्वका अभाव होनेसे यह लक्षण असंभवित कहा जाता है । जैनमित्र, २४ अगस्त १९३३, अंक ४३ वर्ष २४ Nandanwar. Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य और इतिहास Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jan Education Intemation For Private & Personal use only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य और इतिहास १. वीराष्टकम्, समस्या कान्ताकटाक्षाक्षतः (क्षताः) २. समयसारकी रचनामें आचार्य कुन्दकुन्दको दृष्टि ३. तत्त्वार्थ-सूत्रका महत्व ४. जैन व्याकरणकी विशेषताएँ ५. षट्खण्डागमके 'संजद' पदपर विमर्श ६. सांस्कृतिक सुरक्षाको उपादेयता । ७. जैन संस्कृति और तत्त्वज्ञान ८. युगधर्म बननेका अधिकारी कौन ? ९. ऋषभदेवसे वर्तमान तक जैनधर्मकी स्थिति Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीराष्टकम् [समस्या-कान्ताकटाक्षाक्षतः (क्षताः)] यः कल्याणकरो मतस्त्रिजगतो लोकश्च यं सेवते । येनाकारि मनोभवो गतमदो यस्मै भवः क्रुध्यति ।। यस्मान्मोहमहाभटोऽपि विगतो यस्य प्रिया मुक्तिरमा । यस्मिन्स्नेहगतः स नो भवति कः कान्ताकटाक्षाऽक्षतः ।। १ ।। यस्याधृष्यमतं मतं जनहितं सद्धर्मषाणोपलम् । नम्रीभूतसुरेन्द्रवृन्दमुकुटे पादच्छलात्सङ्गतम् ।। भव्यरप्यनुगीयमानयशसा व्याक्रान्तलोकत्रयं । यस्माद्योऽस्ति नयार्पणां' दधदनेकान्ताऽकटाऽऽक्षाऽक्षतः ।। २।। यस्य प्रे-खदखर्वकांतिमणिभिः प्रोद्योतितामातता मास्थानावनिभागतेदिविरतैः प्रक्रान्ततूर्यत्रिकाम् ॥ तामालोक्य भवाङ्गभोगनिरता मिथ्यादृशोऽप्यादृताः । सम्यक्त्वं विभवं भवन्ति कुनयैकान्ताऽऽकटाक्षाऽक्षताः ।। ३ ।। ये प्राक् त्रासमुपागता मतिहता वाण्याः कृपाण्याः परेऽ नीतिज्ञानलवोद्धता गतपथास्तत्त्वार्थके २ सङ्गरे ।। निक्षिप्ताः सुनयप्रमाणभुवि ते चेतश्चमत्कारिणो । येन ज्ञानसमाहिताः खलु कृताः कान्ताकटाक्षाऽक्षताः ॥ ४ ॥ यस्य प्रार्चनभक्तिचञ्चितमना भेकोऽपि तत्कोपिना । देवेन प्रहतोऽप्यभूदमरभूकान्ताकटाक्षाऽऽक्षताः ।। तत् किं यस्य पदार्चने तधियः सामोदभावेन हि । जायन्ते भवयोषितां शिवरमाकान्ताः कटाक्षाऽक्षताः ॥ ५ ॥ यस्याद्य" भ्रमरावलीव कमले६ भव्यावलीमन्दिरे । सम्फुल्लत्कमलावली परिकनद्दीपावली विन्दती ।। १. नयार्पणां नयविवक्षां दधत् दधानो योऽनेकान्तः एकत्र वर्तमानसत्त्वासत्त्वादिरूपस्तस्य, अकटं-कटति गच्छति नश्यतीति यावत, कटम (पचाद्यचप्रत्ययः) विनशनशीलं, न कटमकटमविनाशि तच्च तद् आक्षम्, अक्ष आत्मा, स्वाभाव्येन तत्संबंधि-आक्षं ज्ञानम, अकटाक्षं केवलज्ञानं, तेन अक्षतो व्याप्त इत्यर्थः । २. कुत्सिता नयाः कुनयास्तद्विषयभतस्तद्रपो वा य एकांतस्तस्य, आकटाक्षा:-ईषत्कटाक्षाः (आईषदर्थ) तैरपि, अक्षताः अविद्धाः भवन्तीत्यन्वयः । ३. तत्त्वं स्वसिद्धान्तः शत्रपक्षे-स्वाभिलाषारूपमर्थः प्रयोजनं यस्य स तस्मिन, संगरे प्रतिज्ञावाक्ये । अत्रेदं ___तात्पर्यम् प्रतिज्ञावाक्यमुपन्यस्यन्तः एव परे त्रासमुपागता, न तु तैः हेत्वाद्युपन्यस्तम्, पक्षे-सङ्ग रे युद्धे । ४. अमरभूः स्वर्गः, तस्याः कान्ता अमराङ्गनाः, तासां कटाक्षः आक्षत:-आ समन्तात् क्षतः । ५. अद्य श्रीवीरभगवतो निर्वाण दिवसे । ६. जलविशिष्ट्रसरोवरे । Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ चेतस्याप्तमुदावलीति तु वरं चित्रं विचित्रं विद मेका कामवशाsपरा भवति नो कान्ताकटाक्षाक्षताः * ॥ ६ ॥ वीरः सोऽस्तु मम प्रसन्नमतये तं सङ्गतोऽहं ततः । सूक्तं तेन हितं मतं जगदतो वीराय तस्मै नमः ॥ अन्यो नास्ति ततः प्रियङ्कर इतस्तस्य स्मृतिर्मे हृदि । वीरे तत्र रतो भवान्ययमहं कान्ताकटाक्षाऽक्षतः ॥ ७ ॥ वं - शौन्नत्यकरोऽप्यसौ नरपतेः सिद्धार्थकस्यात्मभूः । शी-लेनाधिकृताहितोऽपि तपसास्त्रेण प्रकृत् " कर्मणाम् ॥ ध - न्यानामिति विस्मयं विदधती पूर्वं तु पश्चात् प्रभो - र--स्येयं कृतिरातनोतु कमनक्काऽन्ताऽकटाक्षाऽऽक्षतः ||८|| १. न्विति नन्यर्थे । २. भ्रमरावली । ३. भव्यावली । ४. कान्तानां कटाक्षैः आक्षता - इतिच्छेदस्तस्य आ - ईषदपि क्षता विद्धा नो भवतीत्यर्थ इति चित्रम्, भ्रमराबली भव्यावलीयुगलस्य प्रदर्शितसादृश्येऽपि विरुद्धकरणमिति चित्रत्वं स्पष्टमेव । किञ्च कान्तानां कटाक्षः अक्षता - इतिच्छेदः तस्य न क्षतेति अक्षता - अविद्धा नो भवतीत्यर्थः, इति विचित्रं विगत चित्रमित्यर्थः । भ्रमरावली भव्यावलीद्वयस्य यत्पूर्वं सादृश्यं प्रदर्शितं तदधुनापि वर्तते एवेति चित्रत्वाभावः । परमेतस्मिन्नर्थे भव्यावल्यपि, वीरभगवतो जिनालयं संप्राप्तापि, भगवतो निर्वाणमहोत्सवं विदधानापि, तत्रामोदं दधानापि कान्ताकटाक्षैरक्षता न भवतीतिविशेषण चित्रतेति । ५. प्रकर्षेण कृन्तति छिनत्तीति प्रकृत् । ६. नश्यतीति नक्, न नक् अनक्, अविनाशि, अनन्तमिति यावत् तच्च तत्कं सुखं तद् अन्तः स्वभावो यस्येति अनक्कान्तः अत्र अनन्तसुखसाहचर्याद् अनन्तज्ञानादिकमपि संग्रहीतं भवतीति अनन्तचतुष्टयस्वरूप इति तात्पर्यम्, स चासौ अश्च विष्णुर्व्यापक इत्यर्थः । भगवतो वीरस्य सकलपदार्थविषयज्ञानवित्वात् व्यापकत्वमक्षतम् इति अनक्कान्ताः भगवान् वीर एव तस्य कटाक्षाः तेभ्यो जातं यद् आक्षं ज्ञानं तस्मादिति (तसिल् प्रत्यय:) तस्माद्धेतोः अस्य प्रमोरियमस्य श्लोकस्य पूर्वार्ध दर्शिता कृतिः कं सुखमातनोतु विस्तारयतु, धन्यानामिति पूर्वेण सम्बन्धः । पूर्वं विस्मयकरी पश्चात्तु भगवत्प्रसादात् ज्ञानलाभात् सुखकरी भवतु कृतिरियं भगवतः इति भावः । एवं वंशीधरस्येयं वीरस्तुतिरूपकृतिः भगवतः प्रसादजन्यज्ञानलाभात् सुखकरी भवतु धन्यानामित्यपि बोध्यमिति । Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसारकी रचनामें आचार्य कुन्दकुन्दकी दृष्टि समयसारका आलोडन करनेसे मैं इस निष्कर्षपर पहुँचा हूँ कि उसकी रचना आचार्य कुन्दकुन्दने इस दृष्टिसे की है कि सम्पूर्ण मानवसमष्टि इसे पढ़कर इसके अभिप्रायको समझें और उस अभिप्रायके अनुसार अपनी जीवनप्रवृत्तियोंको नैतिक रूप देनेका दृढ़ संकल्प करें, जिससे वे जीवनके अन्ततक सुखपूर्वक जिन्दा रह सकें। इस प्रकार अपनी जीवनप्रवृत्तियोंको नैतिक रूप देनेवाली मानवसमष्टिमेंसे जो मानव जितने परिणाम में अपनी मानसिक, वाचनिक और कायिक स्वावलम्बनताका अपने में विकास कर ले, उतना वह आध्यात्मिक (आत्म-स्वातन्त्र्यके) मार्गका पथिक बन सकता है। जीवके भेद जैनशासनमें जीवोंके संसारी और मुक्त दो भेद बतलाये गये हैं। (देखो, त. सू., अ. २ का 'संसारिणो मुक्ताश्च" सू० १०)। इस सूत्रसे यह भी ज्ञात होता है कि संसारकी समाप्तिका नाम ही मुक्ति है और जो जीव संसारसे मुक्त हो जाते हैं, वे ही सिद्ध कहलाते हैं । जैनशासनके अनुसार कोई भी जीव अनादिसिद्ध नहीं है। जैसा कि इतर दार्शनिकोंने माना है। संसारी जीवोंके भेद जैनशासनके अनुसार संसारी जीव भी भव्य और अभव्य दो प्रकारके हैं। उनमेंसे भव्य जीव वे हैं जिनमें संसारसे मुक्त होनेकी स्वभावसिद्ध योग्यता विद्यमान हो और अभव्य जीव वे हैं, जिनमें उस स्वभावसिद्ध योग्यताका सर्वथा अभाव हो । भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकारके जीव अनादिकालसे पौद्गलिक कर्मोसे बद्ध होनेके कारण उन कर्मों के प्रभाव से अनादिकालसे ही यथायोग्य नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चार गतियोंमें परिभ्रमण करते आये हैं और अपनी स्वावलम्बनशक्तिको भूलकर यथासंभव मानसिक, वाचनिक और कायिक परावलम्बनताकी स्थितिमें रहते आये हैं, तथा मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषायके प्रभाव में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें रहते हए सतत मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानपूर्वक अनैतिक (मिथ्या) आचरण करते आये हैं। ऐसे जीवोंको समयसार गाथा १२ से लेकर गाथा २३ तक अपनेसे भिन्न पदार्थों में अहंबुद्धि और ममबुद्धि होनेके कारण अप्रतिबुद्ध प्रतिपादित किया गया है। तथा ये जीव अप्रतिबुद्ध क्यों हैं, इस बातको समयसार गाथा २४ और २५ में आगम और तर्कके आधारपर सिद्ध किया गया है । __यद्यपि नरक, निर्यञ्च, मनुष्य और देव इन सभी गतियोंके जीव इस प्रकारसे अप्रतिबुद्ध हो रहे हैं, और सभी गतियोंके बहुतसे जीव इस अप्रतिबद्धताको समाप्त कर प्रतिबुद्ध भी हो सकते हैं, परन्तु जीवोंको मक्तिकी प्राप्ति मनुष्यगतिसे ही हो सकती है। इसलिए समयसारमें जो विवेचन किया गया है वह मानवसमष्टिको लक्ष्यमें रखकर ही किया गया है। जैनशासनके अनुसार भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकारके जीव मुक्तिके मार्गमें प्रवेश कर सकते हैं, - क्योंकि न तो भव्य जीव अपनी भव्यताकी पहिचान कर सकते हैं और न अभव्य जीव अपनी अभव्यताकी पहिचान कर सकते हैं इसलिए भव्य जीवोंके समान अभव्य जीव भी अपनेको भव्य समझकर मुक्तिके मार्गमें Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ : सरस्वती-धरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ प्रवृत्त होते हैं। समयसार गाथा १७५ में बतलाया गया है कि अभव्य जीव भी भव्य जीवके समान मोक्षके मार्गभूत धर्म (व्यवहारधर्म) में आस्था रखता है, उसको समझता है, उसमें रुचि रखता है और उसमें प्रवृत्त भी होता है । इतनी बात अवश्य है कि उसका वह धर्माचरण मुक्तिका कारण न होकर यथायोग्य सांसारिक सुखकी वृद्धिका ही कारण होता है । ____ तात्पर्य यह है कि भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकारके जीव मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषायके प्रभाव में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें रहते हुए भी यथायोग्य चतुर्थ गुणस्थानवर्ती, पंचम गुणस्थानवर्ती और षष्ठ गुणस्थानवी जीवोंके समान धर्माचरण करते हैं । और इस प्रकार धर्माचरण करते हुए अभव्य जीव भी भव्य जीवोंके समान अपने में क्षयोपशम, विशुद्धि देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकास कर लेते हैं जिनके प्रभावसे वे नवम वेयिक तक स्वर्गमें भी उत्पन्न हो जाते हैं, परन्तु वे भव्य जीवोंके समान आत्मविशद्धिको सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्ररूप नहीं बना सकते है, क्योंकि जैनशासनमें बतलाया गया है कि उसी जीवकी आत्मविशद्धि सम्यग्दर्शनरूप होती है जिसने दर्शनमोहनीयकर्मकी तीन और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इन सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम किया हो। इसी प्रकार आत्माकी विशुद्धि देशव्रतरूप उसी जीव की होती है जिसने उक्त दर्शनमोहनीयकर्मकी तीन और अनन्तानुबन्धी कषायकी चार इन सात प्रकृतियोंके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमके साथ अप्रत्याख्यानावरण कषायकी चार प्रकृतियोंका क्षयोपशम किया हो, तथा आत्माकी विशुद्धि सर्वव्रतरूप उसी जीवकी होती है, जिसने उक्त दर्शनमोहनीय कर्मकी तीन, अनन्तानुबन्धी कषायकी चार इन सात प्रकृतियोंके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम और अप्रत्याख्यानावरण कषायके क्षयोपशमके साथ प्रत्याख्यानावरण कषायका क्षयोपशम किया हो । इसका भाव यह है कि मिथ्यात्वगुणस्थानमें मोहनीयकर्मको उक्त प्रकृतियोंका यथासम्भव उपशम, क्षय व क्षयोपशम उसी जीवमें होता है, जो भव्य हो । तथा, उस जीवमें वह उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम तभी होता है, जब वह सातिशय मिथ्यादृष्टि हो जाता है। वह सातिशय मिथ्यादृष्टि तभी कहा जाता है जब वह करणलब्धिको प्राप्त करता है अर्थात् क्रमशः अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण परिणामोंको प्राप्त होकर मोहनीयकर्मकी उक्त प्रकृतियोंका यथायोग्य उपशम, क्षय और क्षयोपशम करनेकी क्षमता प्राप्त कर लेता है । उसे करणलब्धिकी प्राप्ति तभी होती है जब वह समयसारमें प्रातिपादित भेदविज्ञानको प्राप्त कर लेता है। वह उक्त भेदविज्ञानको तब प्राप्त होता है जब वह क्षयोपशम, विशद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चार लब्धियों को प्राप्त कर लेता है। वह इन चार लब्धियोंको तब प्राप्त करता है, जब वह नैतिक आचरणके रूपमें अथवा नैतिक आचरणके साथ देशवतके रूपमें अथवा नैतिक आचरणके साथ सर्वव्रतके रूपमें मन, वचन और कायके समन्वयपूर्वक आगममें वर्णित व्यवहारधर्मको अंगीकार करता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि अभव्य जीव भी उक्त प्रकारके व्यवहारधर्मको अंगीकार करके क्षयोपशम, विशुद्ध, वेदना और प्रायोग्य इन लब्धियोंको प्राप्त कर लेता है, परन्तु वह अपनी अभव्यताके कारण उक्त भेदविज्ञानको प्राप्त नहीं होता है । समयसार गाथा १७५ का यही अभिप्राय है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि उन भव्य और अभव्य जीवोंको उक्त चार लब्धियोंकी प्राप्ति नहीं होती है जो उक्त प्रकारके व्यवहारधर्मोको अंगीकार तो करते हैं, परन्तु मन, वचन और कायके समन्वयपूर्वक नहीं अंगीकार करते हैं। इस विवेचनसे निर्णीत होता है कि मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवी भव्य जीवको ही उपर्युक्त क्रमसे भेदविज्ञानकी प्राप्ति होती है, अभव्य जीवोंका नहीं। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ / साहित्य और इतिहास : ५ समयसार की बेजोड़ व्याख्या करनेवाले आचार्य अमृतचन्द्र के कलश पद्य १२८, १२९, १३०, १३१ और १३२ से यही निर्णीत होता है कि आचार्य कुन्दकुन्दने समयसारकी रचनायें मुमुक्षु जीवके लिए मुक्तिकी प्राप्ति में भेदविज्ञानको प्रमुख स्थान दिया है । यहाँ उन कलशपद्योंको उद्धृत किया जाता है निजमहिमरतानां भेदविज्ञानशक्त्या, भवति नियतमेषां शुद्धतत्त्वापलंभः । अचलितमखिलान्यद्द्रव्यदूरे स्थितानां, भवति सति च तस्मिन्नक्षयः कर्ममोक्षः || १२८|| अर्थ - जो जीव निजमहिमामें रत है अर्थात् उस महिमाके जानकार हैं उन जीवोंको भेदविज्ञानके आधारपर नियमसे शुद्ध अर्थात् स्वतन्त्र स्वरूपका उपलम्भ (ज्ञान) होता है । ऐसे जीवोंके अन्य द्रव्योंसे सर्वथा दूर हो जानेपर अर्थात् पर-पदार्थों में अहम्बुद्धि और ममबुद्धिकी समाप्ति हो जानेपर कर्मोंका स्थायी क्षय हो जाता है । संपद्यते संवर एव साक्षात् शुद्धात्मतत्त्वस्य किलोपलंभात् । म भेदविज्ञानत एव तस्मात्तद्भेदविज्ञानमतीव भाव्यं ॥ १२९ ।। अर्थ- शुद्ध आत्मतत्वका ज्ञान हो जानेपर साक्षात् संवरका संपादन होता है । वह शुद्ध आत्मतत्वका ज्ञान भेदविज्ञानके आधारपर होता है, इसलिए जीवोंको भेदविज्ञानकी प्राप्तिका अभ्यास करना चाहिये । भावयेद्भेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया । तावद्यावत्पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते ॥ १३०॥ अर्थ - उस भेद विज्ञानका आच्छिन्न धारासे तबतक अभ्यास करना चाहिये, जबतक वह जीवपरसे च्युत होकर अर्थात् परमें अहंकार और ममकार समाप्त करके ज्ञानमें प्रतिष्ठित होता है । भेदविज्ञानन सिद्धाः सिद्धाः ये किल अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल अर्थ -- जो कोई जीव सिद्ध हुए हैं, वे भेदविज्ञानसे ही सिद्ध हुए हैं और जो कोई जीव बद्ध हैं वे भेदविज्ञान के अभाव से ही बद्ध हैं । केचन । केचन ॥ १३१ ॥ | भेदज्ञानोच्छलनकलनाच्छुद्धतत्त्वोपलंभात्, रागग्राम प्रलयकरणात्कर्मणां संवरेण । विभ्रत्तोषं परमममला लोकमम्लानमेकं, ज्ञानं ज्ञाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत् ॥ १३२॥ अर्थ — जीवको भेदविज्ञानकी प्राप्ति होनेपर शुद्धतत्त्वका उपलम्भ अर्थात् ज्ञान होता है और इस प्रकार रागसमूहका विनाश हो जानेसे कर्मोंका संवर होनेपर तोषको प्राप्त उत्कृष्ट अमलप्रकाशवाला निर्दोष, अद्वितीय ज्ञान नियमसे उदित होकर शाश्वत प्रकाशमान होता है । समयसारकी रचनामें जो क्रम पाया जाता है उससे भी वही भाव प्रकट होता है । जो निम्नप्रकार है- प्रथम गाथामें आचार्य कुन्दकुन्दने जो सिद्धोंको नमस्कार किया है इससे मुमुक्षु जीवके अपने लक्ष्यका निर्धारण होता है । दूसरी गाथामें यह बतलाया है कि जो जीव अभेददृष्टिसे अपने अखण्ड स्वभावभूत ज्ञानमें और भेददृष्टिसे दर्शन, ज्ञान और चारित्र में सतत स्थिर रहें, उन्हें स्वसमय कहा जाता है । तथा जो जीव पुद्गलकर्मप्रदेशोंम स्थित अर्थात् पुद्गलकर्मोसे बद्ध होनेके कारण परपदार्थोंमें अहंबुद्धि और ममबुद्धि Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ करते हैं, वे परसमय कहलाते हैं। तीसरी गाथामें यह शंका उठाई गई है कि लोकमें जितने पदार्थ हैं वे सब अपने अखण्ड एक स्वभावमें रहकर ही सुन्दरताको प्राप्त हो रहे हैं, इसलिए जीवके विषयमें बन्धकी कथा विसंवादपूर्ण हो जाती है। चतुर्थ गाथामें इस शंकाका इसप्रकार समाधान किया गया है कि सम्पूर्ण जीवोंको काम, भोग और बन्धकी कथा सुनने में आई है, देखने में आई है और अनुभूत भी है क परन्तु उसके अखण्ड एक स्वरूपका ज्ञान होना उसे सुलभ नहीं है। इसी तरह आचार्य कुन्दकुन्दने पाँचवीं गाथामें आत्माके उस अखण्ड एक स्वरूपको समयसारमें स्पष्ट करनेकी प्रतिज्ञा की है। तथा छठीं गाथामें आत्माके उस अखण्ड एक स्वरूपको स्पष्ट कर दिया गया है। इसके पश्चात गाथा १३में आचार्यश्रीने आध्यात्मिक मार्गमें उपयोगी जीव, अजीव, पुण्य, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्षको जैसे हैं उसी रूप में जिस जीवने जाना है, उसे सम्यग्दृष्टि बतलाया है। इससे निर्णीत होता है कि उक्त पदार्थोंको उनके पृथक्-पृथक् स्वरूपके आधार पर जान लेना ही भेदविज्ञान है । इसके आगे आचार्य कुन्दकुन्दने इसी जीवाधिकारमें जीवके स्वरूपका, अजीवाधिकारमें अजीवके स्वरूपका, कर्तकर्माधिकारमें जीव और अजीवके विषयमें कर्ता और कर्मको व्यवस्थाके निषेधका, पुण्यपापाधिकारमें पुण्य और पापका, आस्रवाधिकारमें आस्रवका, संवराधिकारमें संवरका, निर्जराधिकारमें निर्जराका, बन्धाधिकारमें बन्धका और मोक्षाधिकारमें मोक्षका जो पृथक् पृथक् स्वरूपविवेचन किया है, वह भेदविज्ञानका पोषण करने के लिए किया है। और अन्त में सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारमें आत्माके स्वतंत्र स्वरूपका विवेचन किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्दने समयसारकी रचनामें मुमुक्षु जीवोंको प्रथमतः भेदविज्ञानी बननेका ही उपदेश मुख्यतासे दिया है। निष्कर्ष : उपयुक्त विवेचनका निष्कर्ष यह है कि भव्य और अभव्यके भेदसे मिथ्यादष्टि संसारीजीवोंके जो दो . प्रकार आगममें निश्चित किये गये हैं वे दोनों ही एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चरिन्द्रिय, असंज्ञीपञ्चेन्द्रिय और संज्ञीपञ्चेन्द्रियके भेदसे छह प्रकारके हैं। इनमेंसे एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञीपञ्चेन्द्रिय तकके जीवोंमें केवल कर्मफलचेतना पायी जाती है; अर्थात् ये सब जीव कर्मफलका मात्र सुख-दुःख रूप अनुभव ही कर सकते हैं । इनके अतिरिक्त जो संज्ञी पञ्चेन्द्रिय भव्य और अभव्य जीव है वे सतत अपने अभिलषितकी सम्पन्नताके लिए संकल्प और बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ करते हैं और उनका वह पुरुषार्थ असीमित भोग और संग्रहका होता है । तथा, उनकी प्राप्तिके लिए वे हिंसा, असत्य भाषण और चोरीका भी पुरुषार्थ करते हैं और ऐसे पुरुषार्थमें उन्हें हमेशा हर्ष होता है, विषाद कभी नहीं होता । यही कारण है कि उनका ऐसा पुरुषार्थ अनैतिक आचरणके रूप में संकल्पी पाप माना गया है। इस संकल्पी पापका सद्भाव उन जीवोंमें जबतक रहता है, तबतक वे मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञानी और मिथ्याचारित्री होते हैं। तथा इनमेंसे जो जीव उक्त संकल्पी पापोंका सर्वथा त्याग कर अशक्ति या आवश्यकताके आधारपर जिन पापोंमें प्रवृत्त होते हैं उनके वे पाप अशक्तिवश और आवश्यकतावश होनेके कारण आरम्भी पाप कहलाते हैं। इस प्रकार आरम्भी पापोंमें प्रवृत्त वे भव्य और अभव्य मिथ्यादृष्टि जीव अविरत कहे जाते हैं। और जो भव्य और अभव्य उस अविरतिका एक देश त्याग कर देते हैं वे देशविरत मिथ्यादृष्टि कहे जाते हैं तथा जो भव्य और अभव्य उक्त आरम्भी पापोंका यथायोग्य सम्पूर्ण रूपसे त्याग कर देते हैं वे सर्वविरत मिथ्यादृष्टि कहे जाते हैं। ये भव्य और अभव्य दोनों जीव ही उक्त प्रकार अविरत, देशविरत और सर्व विरत होकर क्षयोपशम, विशद्धि, देशना और प्रायोग्यलब्धियोंको भी प्राप्त कर लेते हैं । इतनी बात अवश्य है कि अभव्य जीव उक्त लब्धियोंको प्राप्त करके भी अपनी अभव्यताके कारण भेदविज्ञानी नहीं बन सकते हैं। भव्य जीव ही अपनी भव्यताके आधारपर भेदविज्ञानी बन सकते हैं। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रका महत्त्व महत्त्व और उसका कारण इसमें संदेह नहीं, कि तत्त्वार्थसूत्रके महत्त्वको श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंने समानरूपसे स्वीकार किया है। यही सबब है कि दोनों सम्प्रदायोंके विद्वान आचार्योंने इसपर टीकायें लिखकर अपनेको सौभाग्यशाली माना है । सर्वसाधारणके मनपर भी तत्त्वार्थसूत्रके महत्त्वकी अमिट छाप जमी हुई है । दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्त्वार्थे पठिते सति । फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुङ्गवः ।। इस पद्यने सर्वसाधारणकी दृष्टिमें इसका महत्त्व बढ़ानेमें मदद दी है । यही कारण है कि कम से कम दिगम्बर समाजकी अपढ़ महिलायें भी दूसरोंके द्वारा सूत्रपाठ सुनकर अपनेको धन्य समझने लगती हैं। दिगम्बर समाजमें यह प्रथा प्रचलित है कि पर्युषणपर्वके दिनोंमें तत्त्वार्थसूत्रकी खासतौरसे सामूहिक पूजा की जाती है और स्त्री एवं पुरुष दोनों वर्ग बड़ी भक्तिपूर्वक इसका पाठ किया या सुना करते हैं । नित्यपूजामें भी तत्त्वार्थसूत्रके नामसे पूजा करनेवाले लोग प्रतिदिन अर्घ चढ़ाया करते हैं और वर्तमानमें जबसे दिगम्बर समाजमें विद्वान दृष्टिगोचर होने लगे, तबसे पयर्षणपर्वमें इसके अर्थका प्रवचन भी होने लगा है । अर्थ-प्रवचनके लिए तो विविध स्थानोंकी दि० जैन जनता पर्यषणपर्व में बाहरसे भी विद्वानोंको बुलानेका प्रबन्ध किया करती है। तत्त्वार्थसूत्रकी महत्ताके कारण ही श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंके बीच कर्ताविषयक मतभेद पैदा हुआ जान पड़ता है। यहाँपर प्रश्न यह पैदा होता है कि तत्त्वार्थसूत्रका इतना महत्त्व क्यों है? मेरे विचारसे इसका सीधा एवं सही उत्तर यही है कि इस सूत्रग्रन्थके अन्दर समूची जैन संस्कृतिका अत्यन्त कुशलताके साथ समावेश कर दिया गया है। संस्कृति-निर्माणका उद्देश्य संस्कृति-निर्माणका उद्देश्य लोक-जीवनको सुखी बनाना तो सभी संस्कृति-निर्माताओंने माना है । कारण कि उद्देश्यके बिना किसी भी संस्कृतिके निर्माणका कुछ भी महत्त्व नहीं रह जाता है। परन्तु बहत-सी संस्कृतियाँ इससे भी आगे अपना कुछ उद्देश्य रखती हैं और उनका वह उद्देश्य आत्मकल्याणका लाभ माना गया है। जैन संस्कृति ऐसी संस्कृतियोंमेंसे एक है। तात्पर्य यह है कि जैन संस्कृतिका निर्माण लोकजीवनको सखी बनानेके साथ-साथ आत्मकल्याणकी प्राप्ति (मुक्ति) को ध्यानमें रख करके ही किया गया है। संस्कृतियोंके आध्यात्मिक और भौतिक पहलुओंके प्रकार विश्वकी सभी संस्कृतियोंको आध्यात्मिक संस्कृतियाँ माननेमें किसीको भी विवाद नहीं होना चाहिए; क्योंकि आखिर प्रत्येक संस्कृतिका उद्देश्य लोकजीवनमें सुखव्यवस्थापन तो है ही, भले ही कोई संस्कृति आत्मतत्त्वको स्वीकार करती हो या नहीं करती हो। जैसे चार्वाककी संस्कृतिमें आत्मतत्त्वको नहीं स्वीकार किया गया है फिर भी लोकजीवनको सुखी बनानेके लिए "महाजनो येन गतः स पन्था" इस वाक्यके द्वारा उसने लोकके लिये सुखकी साधनाभूत एक जीवन-व्यवस्थाका निर्देश तो किया ही है। सुखका व्यवस्थापन और द.खका विमोचन ही संस्कृतिको आध्यात्मिक माननेके लिये आधार है। यहाँतक कि जितना भी भौतिक विकास है उसके अन्दर भी विकासकर्ताका उद्देश्य लोकजीवनको लाभ पहुँचाना ही रहता है अथवा रहना चाहिये । अतः समस्त भौतिक विकास भी आध्यात्मिकताके दायरेसे पृथक् नहीं है । लेकिन ऐसी स्थितिमें आध्यात्मिकता और Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८: सरस्वती-वरवपुत्र पं. बंशीषर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ भौतिकताके भेदको समझनेका एक ही आधार हो सकता है कि जिस कार्य के अन्दर आत्माके लौकिक लाभको दृष्टि अपनायी जाती है वह कार्य आध्यात्मिक और जिस कार्यमें इस तरहके लाभकी दृष्टि नहीं अपनायी जाती है, या जो कार्य निरुद्दिष्ट किया जाता है वह भौतिक माना जायगा। यद्यपि यह सभव है कि आत्मा या लोकके लाभकी दृष्टि रहते हुए भी कामें ज्ञानकी कमीके कारण उसके द्वारा किया गया कार्य उन्हें अलाभकर भी हो सकता है परन्तु इस तरहसे उसकी लाभसम्बन्धी दृष्टिमें कोई अन्तर नहीं होनेके कारण उसके उस कार्यकी आध्यात्मिकता अक्षुण्ण बनी रहती है। अतः आत्मतत्त्वको नहीं स्वीकार करनेवाली चार्वाक जैसी संस्कृतियोंकी आध्यात्मिक संस्कृतियाँ मानना अयुक्त नहीं है। यह कथन तो मैंने एक दृष्टिसे किया है । इस विषयमें दूसरी दृष्टि यह है कि कुछ लोग आध्यात्मिकता और भौतिकता इन दोनोंके अन्तरका इस तरह प्रतिपादन करते हैं कि जो संस्कृति आत्मतत्त्वको स्वीकार करके उसके कल्याणका मार्ग बतलाती है वह आध्यात्मिक संस्कृति है और जिस संस्कृतिमें आत्मतत्त्वको ही नहीं स्वीकार किया गया है वह भौतिक संस्कृति है। इस तरह आत्मतत्त्वको मानकर उसके कल्याणका मार्ग बतलाने वाली जितनी संस्कृतियां है वे सब आध्यात्मिक और आत्मतत्त्वको नहीं माननेवाली जितनी संस्कृतियाँ हैं वे सब भौतिक संस्कृतियाँ ठहरती है। इस विचारधारासे भी मेरा कोई मतभेद नहीं है, कारण कि यह कथन केवल दृष्टिभेदका ही सूचक है-आध्यात्मिकता और भौतिकताके मूल आधारमें इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है। आध्यात्मिकता और भौतिकताके अन्तरको बतलानेवाला एक तीसरा विकल्प इस प्रकार है-एक ही संस्कृतिके आध्यात्मिक और भौतिक दोनों पहल हो सकते हैं। संस्कृतिका आध्यात्मिक पहलू वह है जो आत्मा या लोकके लाभालाभसे सम्बन्ध रखता है और भौतिक पहलू वह है जिसमें आत्मा या लोकके लाभालाभका कुछ भी ध्यान नहीं रखकर केवल वस्तुस्थितिपर ही ध्यान रखा जाता है । इस विकल्पमें जहाँतक वस्तुस्थितिका ताल्लुक है उसमें विज्ञानका सहारा तो अपेक्षणीय है ही, परन्तु विज्ञान केवल वस्तुस्थितिपर तो प्रकाश डालता है, उसका आत्मा या लोकके लाभालाभसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता है । तात्पर्य यह है कि विज्ञान केवल वस्तुके स्वरूप और विकासपर ही नजर रखता है, भले ही उससे आत्माको या लोकको लाभ पहुँचे या हानि पहुँचे। लेकिन आत्मकल्याण या लोककल्याणकी दृष्टिसे किया गया प्रतिपादन या कार्य वास्तविक ही होगा, यह नियम नहीं है वह कदाचित् अवास्तविक भी हो सकता है, कारण कि अवास्तविक प्रतिपादन भी कदाचित् किसी किसीके लिये लाभकर भी हो सकता है। जैसे सिनेमाओंके चित्रण, उपन्यास या गल्प वगैरह अवास्तविक होते हए भी लोगोंकी चित्तवृत्तिपर असर तो डालते ही हैं। तात्पर्य यह है कि चित्रण आदि वास्तविक न होते हए यदि उनसे अच्छा शिक्षण प्राप्त किया जा सकता है तो फिर उनकी अवास्तविकताका कोई नहीं रह जाता है। जैन संस्कृतिके स्तुतिग्रन्थोंमें जो कहीं कहीं ईश्वरकतत्त्वकी झलक दिखाई देती है वह इसी दष्टिका परिणाम है जबकि विज्ञानकी कसोटीपर खरा न उतर सकनेके कारण ईश्वरकतत्ववादका जैन दार्शनिक ग्रन्थोंमें जोरदार खण्डन मिलता है और इसी दृष्टिसे ही जैन संस्कृतिमें अज्ञानी और अल्पज्ञानी रहते हुए भी सम्यग्दृष्टिको ज्ञानी माना गया है। जबकि वास्तविकताके नाते जीव बारहवें गणस्थानतक अज्ञानी या अल्पज्ञानी बना रहता है। इस विकल्पके आधारपर जैन संस्कृतिको दो भागोंमें विभक्त किया जा सकता है-एक आध्यात्मिक और दूसरा भौतिक । जैन संस्कृतिके उक्त प्रकारसे आध्यात्मिक और भौतिक ये दो भाग तो हैं ही, परन्तु सभी संस्कृतियोंके समान इसका एक तीसरा भाग आचार या कर्त्तव्यसम्बन्धी भी है। इस तरह समूची जैन संस्कृतिको यदि विभक्त Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ / साहित्य और इतिहास : ९ करना चाहें तो वह उक्त तीन भागोंमें विभक्त की जा सकती है। इनमेंसे आध्यात्मिक विषयका प्रतिपादक करणानुयोग, भौतिक विषयका प्रतिपादक द्रव्यानयोग और आचार या कर्त्तव्य विषयका प्रतिपादक चरणानुयोग इस तरह तीनों भागोंका अलग-अलग प्रतिपादन करनेवाले तीन अनुयोगोंमें जैन आगमको भी विभक्त कर दिया गया है। तत्त्वार्थसूत्र मख्यतः आध्यात्मिक विषयका प्रतिपादन करनेवाला ग्रन्थ है, कारण कि इसमें जो कुछ लिखा गया है वह सब आत्मकल्याणकी दृष्टिसे ही लिखा गया है अथवा वही लिखा गया है जो आत्मकल्याणकी दृष्टिसे प्रयोजन भत है, फिर भी यदि विभाजित करना चाहें तो कहा जा सकता है कि इस ग्रन्थके पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे, छठे, आठवें और दशवें अध्यायोंमें मख्यतः आध्यात्मिक दृष्टि ही अपनायी गयी है, इसी तरह पाँचवें अध्यायमें भौतिक दृष्टिका उपयोग किया गया है और सातवें तथा नवम अध्यायोंमें विशेषकर आचार या कर्त्तव्य सम्बन्धी उपदेश दिया गया है। तत्त्वार्थसूत्र आध्यात्मिक दृष्टिसे ही लिखा गया है या उसमें आध्यात्मिक विषयका ही प्रतिपादन किया गया है यह निष्कर्ष इस ग्रन्थको लेखनपद्धतिसे जाना जा सकता है। इस ग्रन्थका 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' यह पहला सूत्र है, इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्रको मोक्षका मार्ग बतलाया गया है। तदनन्तर 'तत्त्वार्थ-श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम' इस सुत्र द्वारा तत्त्वार्थोके श्रद्धानको सम्यकदर्शनका स्वरूप बतलाते हुए 'जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम्' इस सूत्रद्वारा जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष रूपसे उन तत्त्वार्थोकी सात संख्या निर्धारित कर दी गयी है और द्वितीयतृतीय-चतुर्थ-अध्यायोंमें जीवतत्त्वका, पञ्चम अध्यायमें अजीवतत्त्वका, छठे और सातवें अध्यायोंमें आस्रव तत्त्वका, आठवें अध्यायमें बन्धतत्त्वका, नवम अयायमें संवर और निर्जरा इन दोनों तत्त्वोंका और दशवें अध्यायमें मोक्षतत्त्वका इस तरह क्रमशः विवेचन करके ग्रन्थको समाप्त कर दिया गया है। जैन आगममें वस्तुविवेचनके प्रकार जैन आगममें वस्तुतत्त्वका विवेचन हमें दो प्रकारसे देखनेको मिलता है-कहीं तो द्रव्योंके रूपमें और कहीं तत्त्वोंके रूपमें । वस्तु-तत्त्व-विवेचनके इन दो प्रकारोंका आशय यह है कि जब हम भौतिक दृष्टिसे अर्थात् सिर्फ वस्तुस्थितिके रूपमें वस्तुतत्त्वकी जानकारी प्राप्त करना चाहेंगे तो उस समय वस्तुतत्त्व जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छः द्रव्यों के रूपमें हमारी जानकारीमें आयेगा और जब हम आध्यात्मिक दृष्टिसे अर्थात् आत्मकल्याणकी भावनासे वस्तुतत्त्वकी जानकारी प्राप्त करना चाहेंगे तो उस समय वस्तुतत्व जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंके रूपमें हमारी जानकारीमें आयगा। अर्थात् जब हम 'विश्व क्या है ?' इस प्रश्नका समाधान करना चाहेंगे तो उस समय हम इस निष्कर्षपर पहुँचेंगे कि जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छः द्रव्योंका समुदाय ही विश्व है और जब हम अपने कल्याण अर्थात् मुक्तिकी ओर अग्रसर होना चाहेंगे तो उस समय हमारे सामने ये सात प्रश्न खड़े हो जावेंगे-(१) मैं कौन हूँ ?, (२) क्या मैं बद्ध हैं ?, (३) यदि बद्ध हैं तो किससे बद्ध हैं ?, (४) किन कारणोंसे मैं उससे बद्ध हो रहा हूँ ?, (५) बन्धके वे कारण कैसे दूर किये जा सकते हैं ? (६) वर्तमान बन्धनको कैसे दूर किया जा सकता है ? और (७) मुक्ति क्या है ? और तब इन प्रश्नोंके समाधानके रूपमें जीव, जिससे जीव, बंधा हुआ है ऐसा कर्म-नोकर्मरूप पदगल, जीवका उक्त दोनों प्रकारके पदगलके साथ संयोगरूप बन्ध, १. तत्त्वार्थसूत्र ५-१, २, ३, ३९ । २. जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । -तत्त्वार्थसूत्र, १-४ । ५-२ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ इस बन्धके कारणीभूत मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूप आस्रव, इन मिथ्यात्व आदिकी समाप्तिरूप संवर, तपश्चरणादिके द्वारा वर्तमान बन्धनको ढीला करनेरूप निर्जरा और उक्त कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलके साथ सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद कर लेनेरूप मुक्ति ये सात तत्त्व हमारे निष्कर्ष में आवेंगे। भौतिक दृष्टिसे वस्तुतत्त्व द्रव्यरूपमें ग्रहीत होता है और आध्यात्मिक दृष्टिसे वह तत्त्वरूपमें ग्रहीत होता है । इसका कारण यह है कि भौतिक दृष्टि वस्तुके अस्तित्व, स्वरूप और भेद-प्रभेदके कथनसे सम्बन्ध रखती है और आध्यात्मिक दृष्टि आत्माके पतन और उसके कारणोंका प्रतिपादन करते हुए उसके उत्थान और उत्थानके कारणोंका ही प्रतिपादन करती है। तात्पर्य यह है कि जब हम अवस्तुके अस्तित्वकी ओर दृष्टि डालते हैं तो उसका वह अस्तित्व किसी-न-किसी आकृतिके रूपमें ही हमें देखनेको मिलता है। जैन संस्कृतिमें वस्तुकी यह आकृति ही द्रव्यपद वाच्य है। इस तरहसे विश्वमें जितनी अलग-अलग आकृतियाँ हैं उतने ही द्रव्य समझना चाहिये । जैन संस्कृतिके अनुसार विश्वमें अनन्तानन्त आकृतियाँ विद्यमान हैं अतः द्रव्य भी अनन्तानन्त ही सिद्ध हो जाते हैं। परन्तु इन सभी द्रव्योंको अपनी-अपनी प्रकृतियों अर्थात् गुणों और परिणमनों अर्थात पर्यायोंकी समानता और विषमताके आधारपर छह वर्गों में संकलित कर दिया गया है अर्थात् चेतनागुणविशिष्ट अनन्तानन्त आकृतियोंको जीवनामक वर्ग में, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुणविशिष्ट अणु और स्कन्धके भेदरूप अनन्तानन्त आकृतियोंको पुद्गल-नामक वर्गमें, वर्तनालक्षण विशिष्ट असंख्यात आकृतियोंको काल-नामक वर्ग में, जीवों और पुद्गलोंकी क्रियामें सहायक होनेवाली एक आकृतिको धर्मनामक वर्गमें, उन्हीं जीवों और पुद्गलोंके ठहरने में सहायक होने वाली एक आकृतिको अधर्म-नामक वर्गमें तथा समस्त द्रव्योंके अवगाहनमें सहायक होने वाली एक आकृतिको आकाश-नामक वर्गमें संकलित किया गया है। यही कारण है कि द्रव्योंकी संख्या जैन संस्कृतिमें छह ही निर्धारिन कर दी गई है। इसी प्रकार आत्मकल्याणके लिये हमें उन्हीं बातोंकी ओर ध्यान देनेकी आवश्यकता हैं जो कि इसमें प्रयोजनभत हो सकती हैं। जैन संस्कृतिमें इसी प्रयोजनमत बातको तत्त्व नामसे पुकारा गया है. ये तत्त्व भी पूर्वोक्त प्रकारसे सात ही होते हैं ।। इस कथनसे एक निष्कर्ष यह भी निकल आता है कि जो लोग आत्मतत्त्वके विवेचनको अध्यात्मवाद और आत्मासे भिन्न दूसरे अन्य तत्त्वोंके विवेचनको भौतिकवाद मान लेते हैं उनकी यह मान्यता गलत है क्योंकि उक्त प्रकारसे, जहाँपर आत्माके केवल अस्तित्व, स्वरूप या भेद-प्रभेदोंका ही विवेचन किया जाता है वहाँपर उसे भी भौतिकवादमें ही गभित करना चाहिये और जहाँपर अनात्मतत्त्वोंका भी विवेचन आत्मकल्याणकी दृष्टिसे किया जाता है वहाँपर उसे भी अध्यात्मवादकी कोटिमें ही समझना चाहिये । यह बात तो हम पहले ही लिख आये हैं कि जैन संस्कृतिमें अध्यात्मवादको करणानयोग और भौतिकवादको द्रव्यानयोग नामोंसे पुकारा गया है। इस प्रकार समूचा तत्त्वार्थसूत्र आध्यात्मिक दृष्टिसे लिखा जाने के कारण आध्यात्मिक या करणानयोगका ग्रन्थ होते हए भी उसके भिन्न-भिन्न अध्याय या प्रकरण भौतिक अर्थात द्रव्यानुयोग और चारित्रिक अर्थात चरणानयोगकी छाप अपने ऊपर लगाये हए हैं, जैसे पाँचवें अध्यायपर द्रव्यानुयोगकी और सातवें तथा नवम अध्यायोंपर चरणानुयोगको छाप लगी हुई है। तत्त्वार्थसूत्रके प्रतिपाद्य विषय तत्त्वार्थसूत्रमें जिन महत्त्वपूर्ण विषयोंपर प्रकाश डाला गया है वे निम्नलिखित हो सकते है'सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तथा इनकी मोक्षमार्गता, तत्त्वोंका स्वरूप, वे Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ / साहित्य और इतिहास : ११ जीवादि सात ही क्यों ? प्रमाण और नय तथा इनके भेद, नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, जीवकी स्वाधीन और पराधीन अवस्थाये, विश्वके समस्त पदार्थोंका छह द्रव्योंमें समावेश, द्रव्योंकी संख्या छह ही क्यों ? प्रत्येक द्रव्यका वैज्ञानिक स्वरूप, धर्म और अधर्म द्रव्योंकी मान्यता, धर्म और अधर्म ये दोनों द्रव्य एक-एक क्यों ? तथा लोकाशके बराबर इनका विस्तार क्यों ? आकाशद्रव्यका एकत्व और व्यापकत्व, कालद्रव्यकी अणरूपता और नानारूपता, जीवकी पराधीन और स्वाधीन अवस्थाओंके कारण. कर्म और नोकर्म, मोक्ष आदि ।' ___इन सब विषयोंपर यदि इस लेखमें प्रकाश डाला जाय तो यह लेख एक महान् ग्रन्थका आकार धारण कर लेगा और तब वह ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्रके महत्त्वका प्रतिपादक न होकर जैन संस्कृतिके ही महत्त्वका प्रतिपादक हो जायगा, इसलिए तत्त्वार्थसूत्र में निर्दिष्ट उक्त विषयों तथा साधारण दुसरे विषयोंपर इस लेख में प्रकाश न डालते हुए इतना ही कहना पर्याप्त है कि इस सूत्रग्रन्थमें सम्पूर्ण जैन संस्कृतिको सूत्रोंके रूपमें बहुत ही व्यवस्थित ढंगसे गूंथ दिया गया है । सूत्रग्रन्थ लिखनेका काम बड़ा ही कठिन है, क्योंकि उसमें एक तो संक्षेपसे सभी विषयोंका व्यवस्थित ढंगसे समावेश हो जाना चाहिए । दूसरे उसमें पुनरुक्तिका छोटे-से-छोटा दोष नहीं होना चाहिये । ग्रन्थकार तत्त्वार्थसूत्रको इसो ढंगसे लिखने में सफल हुए हैं, यह बात निर्विवाद कही जा सकती है। उपसंहार बड़े-बड़े विद्वानोंके सामने विश्व स्वयं एक पहेली बन कर खड़ा हआ है। संसारकी दुःखपूर्ण अजीबअजीब घटनाओंसे उद्विग्न आत्मोन्निनीषु लोगोंके सामने आत्मकल्याणकी भी एक समस्या है। इसके अतिरिक्त मानवमात्रको जीवन-समस्या तो, जिसका हल होना पहले और अत्यन्त आवश्यक है, बड़ा विकराल रूप धारण किये हए है। इन सब समस्याओंको सुलझानेमें जैन संस्कृति पूर्णरूपसे सक्षम है। तत्त्वार्थसूत्र-जैसे महान ग्रन्थोंका योग सौभाग्यसे हमें मिला हुआ है और इन ग्रन्थोंका पठन-पाठन भी हम लोग सतत किया करते हैं। परन्तु हमारी ज्ञानवृद्धि और हमारा जीवनविकास नहीं हो रहा है, यह बात हमारे लिये गम्भीरतापूर्वक सोचनेकी है। यदि हमारे विद्वानोंका ध्यान इस ओर जावे तो इन सब समस्याओंका हल हो जाना असम्भव बात नहीं है। Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन व्याकरणकी विशेषताएँ संसार में यदि भाषातत्त्व नहीं होता तो सर्व सचेतन जगत् पाषाणकी तरह मूक ही रहता, इसमें कोई सन्देह नहीं । यों तो भाषातत्त्व पशु, पक्षी आदिको भी उपयोगी है, किन्तु मनुष्यका तो एक-एक क्षण भी भाषातत्व के विना व्यर्थ -सा प्रतीत होता है । भाषाके जरिये ही हम अपने अभिप्रायको दूसरोंके प्रति प्रकट कर सकते हैं । हमारा जितना लोकव्यवहार है वह भाषातत्त्वके ऊपर ही निर्भर है। यहाँ तक कि भाषा-विज्ञान भी मुक्ति प्राप्ति में एक कारण है । संसार में नाना भाषाएँ प्रचलित हैं । प्रत्येक भाषाका गौरव और लोकमान्यता उस भाषाके शब्दोंकी प्रचुरता एवं मधुरताके साथ-साथ प्रत्येक शब्दके अर्थप्राचुर्यसे हो हो सकते हैं । यदि हम बिना व्याकरणके उल्लिखित कारणों की पुष्टिके लिये शब्दकल्पना और अर्थकल्पना करने बैठें, तो शायद जीवन की परिसमाप्ति होने पर भी उसे पूर्ण नहीं कर सकते तथा शब्दप्रयोगकी व्यवस्था बनाना असम्भव हो जाय, इसलिये भाषाके गौरव और लोकमान्यता के लिये भाषासम्बन्धी नियमका जानना आवश्यक होता है और इस नियमका नाम ही व्याकरण है । (वि + संस्कारविशेषेण) संस्कारविशेषसे ( आ = समन्तात् ) संपूर्ण ( शब्दान्) शब्दों को जो, (करोति = निष्पादयति) उत्पन्न करता है वह व्याकरण है । अथवा (वि = संस्कारविशेषेण ) संस्कारविशेषसे ( आ = समन्तात् ) संपूर्ण (शब्दाः) शब्द (क्रियन्ते = निष्पाद्यन्ते) उत्पन्न किये जाते हैं (येन ) जिससे, वह व्याकरण है । इन दोनों व्युत्पत्तियोंसे भी उल्लिखित भाव स्पष्ट झलकता है | व्याकरणसे भिन्न-भिन्न अर्थों में शब्दनिष्पत्ति की जाती है, इसलिये अर्थ प्राचुर्य में भी व्याकरण ही कारण है । 'अर्थभेदात् ध्रुवः शब्दभेदः, सर्वे शब्दाः सर्वार्थवाचकाः" इत्यादि नियम भी व्याकरणंको ही अर्थप्राचुर्यमें कारण बतला रहे हैं । इसलिये व्याकरण ही भाषातत्त्वमें प्रवेश करनेका मुख ( द्वार ) है । मनुष्य, पशु, पक्षी इत्यादिका यदि मुख नहीं होता, तो उनका जिन्दा रहना दुःशक्य तो क्या असम्भव ही था। ठीक यही हालत उस भाषाकी भी है, जिसकी कि अपनी व्याकरण नहीं है । भावकी स्थिति उस भाषाके प्रचुर साहित्य पर है । साहित्यका निर्माता कवि होता है और कवि नानार्थ से मीठे-मीठे शब्दोंकी चाह रखता है। जहां उसको ऐसे शब्द नहीं मिलते हैं वहाँ वह अपने साहित्यको रमणीय एवं हृदयवेधी नहीं बना सकता है और ऐसी हालत में उसके उस साहित्यको साधारण लोग भी पसन्द नहीं करते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि वह भाषा, जिसमें साहित्यकी रमणीयता और हृदयवेधिता नहीं रहती है, अन्तको प्राप्त हो जाती है संस्कृत व्याकरण और उसका वैशिष्ट्य संस्कृत भाषाका प्रचार संसारके कोने-कोने में ( चाहे वह किसी रूप में क्यों न हो ) आज भी विद्यमान है । इसका कारण यह है कि उसका साहित्य विस्तृत तो है ही, साथ में ग्राह्य भी अधिक है । इसका भी कारण संस्कृत भाषाका व्याकरण ही है । संस्कृत व्याकरणकी यह खूबी है कि एक ही शब्दसे शब्दान्तरके योगसे नाना शब्द बन जाते हैं । हार, विहार, आहार, संहार, प्रहार, निहार इत्यादि अनेक शब्दोंको सृष्टि "हृ" शब्दसे ही हुई है । इस खूबीको अन्य किसी भाषाका व्याकरण आज तक नहीं प्राप्त कर सका, इसलिये उन भाषाओं की संकीर्ण भूमिपर किसी साहित्यनिर्माता कविका अन्तःकरण स्वच्छन्द विहार नहीं कर सकता है । यद्यपि इंग्लिश आदि भाषाओं में साहित्यकी अधिकता है, फिर भी शब्दोंकी अधिक पुनरुक्ति कवियोंके लिये अवश्य करनी पड़ती है तथा शब्दकल्पना भी उनको बहुत करनी पड़ी है । आज संस्कृतभाषारूपी सूर्य, जो अपना प्रकाश नहीं फैला रहा है, उसका कारण उसके व्याकरण, Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ / साहित्य और इतिहास : १३ साहित्य और ग्राह्यताकी कमी नहीं है, किन्तु उसके साहित्यके अन्तस्तत्त्व तक पहुँचनेके लिये हम असमर्थ हो गये है तथा राजाश्रय छूट गया है इत्यादि हैं। भाषा स्वभावसे परिवर्तनशील होती है। राजाश्रयके बिना उसकी व्यावहारिक उपयुक्तता कम हो जाती है, अतः वह हमारे लौकिक कार्योंमें विशेष सहायक नहीं बन सकती है । यदि संस्कृतभाषा राजभाषा होती और उसके आश्रयसे ही लोग (जबकि हम लोगोंने नौकरी पेशा की ही अपना जीवनोपाय बना लिया है) लौकिक आवश्यक कार्योंका सम्पादन करते होते, तो मालूम पड़ता कि उस भाषाके अन्दर प्रवेश होनेसे हमारा जीवन कितनी धार्मिकताके साथ व्यतीत हो सकता था, तथा हमारे संस्कारोंमें कितनी आर्यताकी संस्कृतिका विकास होता, जिसके कि ह्राससे आज हम गुलाम हो रहे हैं। संस्कृतव्याकरणमें जैन व्याकरण और उसका महत्त्व तथा ग्राह्यता भारतमें जितने दर्शनोंका आविष्कार हआ है, उन्होंने संस्कृत भाषाको जरूर अपनाया है। इसका कारण उसकी व्यापकता और अर्थपूर्ण भाव द्योतकता है। यह मानी हुई बात है कि जो जिस विषयका पूरा विद्वान है. वह उस विषयको दूसरों के सामने स्वतंत्र ढंगसे पेश करता है. तथा जो जिस मतको अपना हितकर समझता है और उसके पोषक जितने विषय उसे आवश्यक प्रतीत होते हैं, उनमें दूसरे मतोंकी अपेक्षा रखना वह पसन्द नहीं करता, क्योंकि वह समझता है कि इस थोड़ी-सी परतन्त्रतासे हमारी संस्कृतिमें दुर्बलता आती है, अतः उसके अंग उपायभूत साहित्यका भी निर्माण वह स्वयं करता है और इस गौरवान्वित महत्त्वाकांक्षासे साहित्यका कलेवर परिपुष्ट होता है । यद्यपि व्याकरण शब्दार्थज्ञानके लिये है, उससे किसी मतविशेषकी पुष्टि नहीं होती, भले ही उसका निर्माता किसी मतविशेषसे सम्बन्ध रखता हो, फिर भी अपना स्वतन्त्र व्याकरण नहीं होनेसे कोई भी मतावलम्बी अपने लिये व अपने सिद्धान्तके लिये प्रभावित नहीं कर सकता है । इसके ऊपर पराधीनता, अर्वाचीनता आदि दोषोंका ( चाहे वह मत स्वतंत्र व प्राचीन क्यों न हो ) आरोप लगाया जाता है । इसी कारणसे संस्कृतभाषासम्बन्धी नाना व्वाकरणोंका आविष्कार हुआ है । उनमें प्रसिद्ध व्याकरणों और उनके निर्माताओंका निर्देश निम्न प्रकार पाया जाता है ऐन्द्र, चान्द्र, काशकत्स्नं, कौमारं, शाकटायनम् । सारस्वतं, चापिशलं, शाकलं पाणिनीयकम् ।। १ ।। इन्द्रश्चन्द्रः काशकत्स्ना पिशली शाकटायनः पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः ।। २ ॥ पहले पद्यमें नव व्याकरणोंके नाम हैं। उनमें शाकटायनव्याकरण शाकटायननामके जैनाचार्यकृत है । दुसरे पद्यमें आठ वैय्याकरणोंके नाम हैं, जिनमें शाकटायन और जैनेन्द्र ये दो जैन वैय्याकरण हैं। इन सब व्याकरणों व वैय्याकरणोंमें कौन किससे प्राचीन है, इसका निर्णय पद्यके निर्देशक्रमसे निश्चित नहीं कर सकते है. क्योंकि पहले पद्य में आपिशल व्याकरणका शाकटायन व्याकरणके पश्चात निर्देश किया है और दुसरे पद्य में उनके निर्माताओंका पूर्व निर्देशसे विपरीत निर्देश किया है। इनकी प्राचीनताका विशेष निर्णय तो इस समय इतिहासवेत्ताओं पर ही छोड़ता हूँ क्योंकि मेरी गति इतिहासविषयक नहीं है। किन्तु इतना अवश्य कह सकता है कि पाणिनीय व्याकरणसे शाकटायन व्याकरण पूर्वका होना चाहिये, क्योंकि पाणिनिने अपने व्याकरणमें "त्रिप्रभतिषु शाकटायनस्य" इस सूत्रके द्वारा शाकटायनका निर्देश किया है। आपिशल, काशकृत्स्न, शाकल आदि व्याकरणकर्ताओंका भी निर्देश पाणिनिने अपने ग्रंथोंमें किया है। इसलिये ये व्याकरण भी पाणिनि व्याकरणसे प्राचीन है। Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सरस्वती-वरवपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ पाणिनि नन्दराज्य के समय में हुए हैं। इससे भी प्राचीन समय में उल्लिखित वैय्याकरणोंकी उपस्थिति थी । कई लोग शाकटायन नामके जैन अजैन दो विद्वानको स्वीकार करते हैं। इससे उनका प्रयोजन यह है कि जैन शाकटायनाचार्य पाणिनिले अर्वाचीन हैं और पाणिनिने अपने व्याकरणमें जिनका निर्देश किया है, वे अर्जन थे और पाणिनिके पूर्व विद्यमान थे। वे इसमें यह कारण उपस्थित करते हैं कि शाकटायनका, जिनका कि पाणिनिने निर्देश किया है, वेदादि ग्रन्थोंसे भी बहुत कुछ सम्बन्ध है । किन्तु यह कारण इतना पुष्कल नहीं है कि उनके प्रयोजनको सिद्ध कर सके, क्योंकि मैंने पहले लिखा है कि व्याकरण शब्दार्थज्ञानका ही प्रयोजक है । वैय्याकरण व्याकरण लिखते समय किसी सिद्धान्तविशेषसे कोई प्रयोजन नहीं रखता है । वह तो शब्दसिद्धि ही अपने ग्रन्थ निर्माणका ध्येय समझता है । यदि ऐसा नहीं होता, तो काशिकाकार, जोकि जैन थे, पाणिनीय व्याकरणके ऊपर काशिकावृत्ति नामक टीका नहीं लिखते । और सिद्धान्तकौमुदीके पहले अजैन लोग भी जो उसका रुचिपूर्वक अध्ययन, अध्यापन करते थे वह भी अनुचित ठहरता । कादम्बरी ग्रन्थके ऊपर जैन टीकाकारने जो टीका लिखी है वह भी इसी सिद्धान्तको स्वीकार करनेमें सहायक है कि जो विषय किसी भी सिद्धान्तका विरोधी नहीं होकर समान रूपसे सर्वके उपयोगी है, वे सबको ग्राह्य हैं। कोई-कोई विरोधी ग्रन्थोंकी टीकायें भी आचार्योंने की हैं। लेकिन अवश्य है कि उसका उद्देश्य केवल उनके सिद्धान्तको विस्तारसे समझ उनकी असत्यता प्रकट करना ही है । यह भावना दार्शनिक ग्रंथोंमें ही सम्भव है क्योंकि विरोधकी सत्ता सिद्धान्तके विषय में ही पाई जाती है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है, कि जबतक अकाट्य प्रबल प्रमाण नहीं मिल जाता तबतक जैन शाकटायनाचार्यके अतिरिक्त एक अजैन शाकटायनाचार्यकी सत्ता स्वीकार करना विद्वानोंको रुचिकर प्रतीत नहीं होता। इस समय इस लेखको समयाभावसे संक्षेपमें लिख रहा हूँ अतः सम्पूर्ण बातोंपर विशेष प्रकाश नहीं डाल सका हूँ। मेरी हार्दिक इच्छा है कि जैन व्याकरणका संस्कृत संसारमें प्रचुर प्रचार हो और यह तभी हो सकता है जब विद्वान् लोग व्याकरणके उद्देश्यको सामने रख कर उसकी महत्ताका प्रचार करें। इसके लिये भी मैं भविष्य में यथासम्भव प्रयत्न करूँगा। इस समय तो इस लेखको संक्षेप पूर्वक लिखनेका ही प्रयोजन है । , जैनेन्द्र व्याकरण तो उनके नामसे ही जैनाचार्य कृत सिद्ध होता है। जैनेन्द्र व्याकरणके नामसे दो रूपक हमारे सामने उपस्थित है। एक तो वह जिसकी टीका जैनेन्द्रमहावृत्ति है और दूसरा वह जिसकी कि टीका शब्दार्णवचन्द्रिका है । इन दोनों रूपकोंके कर्ता स्वतंत्र हैं या एक दूसरेका रूपान्तर है, इसमें विद्वानोंका मतभेद है किन्हींका कहना है कि जिसकी टीका जैनेन्द्रमहावृत्ति है वह जैनेन्द्र व्याकरण है और उसके कर्ता देवनन्दि अपरनाम सर्वार्थसिद्धिके कर्ता पूज्यपादाचार्य है और जिसकी टीका शब्दार्णवचन्द्रिका है उस व्याकरणका नाम शब्दार्णव है और उस टीकाका नाम चन्द्रिका ही है, क्योंकि "शब्दार्णवचन्द्रिका" शब्दका शब्दार्णवव्याकरणकी चन्द्रिकानामक टीका अर्थ होता है। किन्हीं का कहना है। एक दूसरेका रूपान्तर है कि इन दोनोंके कर्ता स्वतंत्र ही नहीं है। शब्दार्णवचन्द्रिका यह नाम टीकाका ही है जैसे पाणिनीय व्याकरणकी टीका सिद्धान्तकौमुदी अर्थात् जिस प्रकार सिद्धान्तकौमुदीव्यका अर्थ सिद्धान्त नामक व्याकरणकी कौमुदी नामक टीका नहीं होता है उसी प्रकार शब्दावव्याकरणकी टीका चन्द्रिका यह अर्थ शब्दाणवचन्द्रिका शब्दका नहीं होना चहिये । तथा इन दोनों में सूत्रसादृश्य भी अधिक है । यदि ये स्वतन्त्र व्याकरण होते, तो अन्य व्याकरणोंकी तरह इन दोनोंमें भी इतना सूत्रसादृश्य नहीं होता । परन्तु इन दोनोंमें एक कोई मत तभी मान्य हो सकता है, जबकि एक मत अपनेमें संभव विरोधका निराकरण करते हुए अपनी सिद्धिमें प्रबल प्रमाण रखता हो। मैं इस समय तीनोंके विषय में तटस्वरूप है क्योंकि इस समय मेरे पास पर्याप्त सामग्री नहीं, जिसके आधारपर कुछ लिख सकू, फिर भी इसके निर्णय के लिये सचिन्त अवश्य हूँ । Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ / साहित्य और इतिहास : १५ यद्यपि और भी वैय्याकरणोंका उल्लेख जैनेन्द्रव्याकरणमें पाया जाता है। जैसे "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य, राद्भूतवलेः, वेत्ते सिद्धसेनस्य" इत्यादि । तथापि उनके निर्मित व्याकरण सम्बन्धी ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं । इसीलिये सम्भवतः उनका निर्देश प्रसिद्ध वैय्याकरणोंमें नहीं किया गया है । अथवा जबतक पद्योंका निर्माण हुआ है उसके बाद साम्प्रदयिकताके विषने प्रवेश करके इनकी कीर्तिको छपानेका प्रयत्न किया हो। अस्तु, कुछ भी हो, जैनेन्द्रव्याकरणमें इनका निर्देश पाया जाता है। इससे सम्भव है कि जैन साहित्यके अन्य आचार्योंने भी इस विषयमें कलम उठायी थी तथा वाङ्मयकी पवित्र सेवा करके जगतका कल्याण किया था। इस कथनसे मालूम पड़ता है कि जैन संसारमें बड़े-बड़े महत्त्वशाली वैय्याकरण हुए हैं। कोई यह कहनेका दावा नहीं कर सकता कि जैनियोंमें व्याकरणसूत्रकार नहीं हुए हैं, प्रत्युत हम यह कहने में समर्थ हैं कि जितने व्याकरणसूत्रकार जैनियोंमें हुए हैं उतने शायद ही किसी संप्रदायमें हुए हों। इनमें उपलब्ध व्याकरणोंकी टीकायें-प्रतिटीकायें उपलब्ध है, जिनको प्रकाशमें लानेकी बहुत आवश्यकता है। हाँ, इतना विस्ताररूप, जितना कि पाणिनीय व्याकरणको टीका-प्रतिटीकाओंका है जैन व्याकरणों की टीका-प्रतिटीकाओंका नहीं है। तथा पाणिनीय व्याकरणका इतना फैलाव इसीलिए हआ कि उसका वैदिक विद्वानोंने अत्यन्त श्रम करके प्रचार किया है। किन्तु जैनियोंने इस विषयपर बहुत दिनोंसे ध्यान देना छोड़ दिया है। किसी भी व्याकरणका महत्त्व लघुतामें है। वह लघुता कई तरहसे हो सकती है। जैसे प्रक्रियाकृत लघुता, प्रतिपत्तिकृत लघुता, संज्ञाकृत लघुता आदि। जैन व्याकरणमें इन सब प्रकारकी लघुताओंका पूरापूरा ध्यान रखा गया है। पाणिनीय व्याकरणमें जहाँ डीप, डौंष, ङीन प्रत्ययोंका विधान स्वरादिभेदके लिये स्वीकार किया है वहाँ जैनेन्द्र व्याकरणमें की प्रत्ययसे ही कार्य निकाल लिया है। यह प्रक्रियाकृत लघुता है । इसी तरह सर्वत्र प्रक्रियाकृत लघुता पायी जाती है । पाणिनिने "अर्धमात्रालाघवं पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः" इस न्यायको स्वीकार करके भी जब संज्ञाओंके विषयमें लघुताका अभाव देखा, तब संज्ञाविधिमें इस न्यायकी प्रवृतिका निषेध भी किया । लेकिन जैन व्याकरणमें संज्ञाकी लघुताको स्वीकार कर न्यायकी प्रवृत्तिको अक्षुण्ण रक्खा है। जैसे सर्वणसंज्ञाके स्थानमें स्वसंज्ञा, प्रतिपादिक संज्ञाके स्थानमें मत संज्ञा, सभास संज्ञाके स्थानमें सखंज्ञा इत्यादि सभी संज्ञाओंक लघु बनाया है जो ग्रन्थोंको देखनेसे स्पष्ट मालूम पड़ सकता है । जहाँ प्रक्रियाकृत और संज्ञाकृत लघुता है वहाँ पर प्रतिपत्तिकृत लघुता है ही, क्योंकि उक्त दोनों लघुताओंके रहनेसे पदार्थज्ञानमें सरलता पड़ जाती है। पाणिनिने इत्संज्ञा विधानमें कई नियम बताये हैं किन्तु जैनेन्द्र व्याकरणमें "अप्रयोगीत" इस नियमको स्वीकार करके अन्य नियमोंकी आवश्यकता नहीं समझी गयी है। इसी प्रकारकी और भी बहुत-सी लघुतायें व्याकरणकी महत्ताको प्रकट करती हैं । यहाँपर संक्षेपमें दिग्दर्शन मात्र कराया गया है। कातंत्रव्याकरणमें तो इतनी प्रतिपत्तिकृत लघुता मानी हुई है कि बंगाल प्रान्तमें उसीका प्रचार है और उसकी परीक्षा कलकत्ता संस्कृत कालेजमें होती है, जोकि कलाप व्याकरणके नामसे प्रसिद्ध है। यह उसकी महत्ताका द्योतक है। मुझे विश्वास है कि जिस प्रकार कातंत्रव्याकरणका किसी जमानेमें प्रचार हुआ है उसी प्रकार अन्य जैन व्याकरणोंका भी प्रचार हो सकता है। लेकिन हम स्वयं उसकी महत्ताको नहीं समझे हैं। कातंत्रका भी Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रचार जैनियोंने नहीं किया, दूसरोंने स्वयं ही उसकी महत्तासे उसे ग्राह्य समझकर उसको अपनाया है। इसमें भी हमें इतनेसे ही सन्तोष करना पड़ता है कि उसका प्रचार है। पढ़ने-पढ़ाने वाले यह नहीं समझते कि इस व्याकरणके मूलकर्ता जैन थे। परन्तु यह बात सब व्याकरणोंके लिये लागू नहीं हो सकती है, क्योंकि जो स्वयं अपनी वस्तुको पसन्द नहीं करता है उसको दुसरा कैसे पसन्द कर सकता है। हमारा कर्तव्य होना चाहिये कि उसकी महत्ताको समझें और उसकी उपादेयताका विचार कर उसीका अध्ययन-अध्यापन करें । पाणिनिकी अष्टाध्यायीसे जो काम नहीं निकलता, वह जैनेन्द्र पन्चाध्यायीसे अनायास सिद्ध हो जाता है । पाणिनिकी कमीको वार्तिककारने पूरी की और वातिककार भी जिन शब्दोंको सिद्ध करना भूल गये उनकी सिद्धि भाष्यकारने भाष्यवार्तिक बनाकर की है। लेकिन ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो सूत्रकार पाणिनि, वार्तिककार कात्यायन और भाष्यकार पतंजलिने सिद्ध किया हो और जैनेन्द्र पंचाध्यायीसे सिद्ध न होता हो। यह भी जैनेन्द्र व्याकरणकी महत्ताका प्रयोजक है। इसी प्रकार सम्पूर्ण जैन व्याकरणोंको महत्त्वशाली बनानेमें आचार्योंने पूरा-पूरा प्रयास किया है । भाषाके प्रचारसे अपनी संस्कृतिका प्रचार होता है। परकी संस्कृतिसे बचाव होता है। यह तत्त्व सर्वमान्य है और यही कारण है कि मुसलमान और यूरोपियन शासकोंने अपनी-अपनी भाषाओंको राजाश्रय दिया है । यदि ऐसा नहीं किया होता तो इनके साम्राज्यका वा जातीय महत्त्वका प्रचार ही नहीं हो पाता । यह तत्त्व आज ही नहीं, प्राचीन कालसे संस्कृतिकी रक्षाके लिये अत्यन्त उपयोगी माना गया है। हमारे आचार्योंने भी इसका उपयोग किया है, अतः हमारे यहाँ जितने आचार्य हुए हैं वे दार्शनिक हो या कवि सभीने आवश्यकता पड़नेपर जैन व्याकरणको ही अपनाया है। मुझे तो विश्वास है कि उन्होंने जैन व्याकरणके द्वारा ही संस्कृत भाषाका ज्ञान किया होगा। क्योंकि उन्होंने अपने ग्रन्थोंमें जगह-जगह जैन व्याकरणका उल्लेख किया है । अकलंक देव, प्रभाचन्द्राचार्य, विद्यानन्द स्वामी प्रभृति कम विद्वान नहीं थे, जिन्होंने जैन व्याकरणका पूरा-पूरा गौरव रखा। बात तो यह है कि उन्होंने उसके गौरव और ग्राह्यताको समझ लिया था। पं० आशाधरजी, कवि अर्हदासजी आदि, जो कि पूर्वाचार्योंकी अपेक्षासे वहुत अर्वाचीन है, जैन व्याकरणके सहारेपर ही उच्च विद्वान हुए, जिनकी मान्यता और जिनके ग्रन्थोंकी मान्यताको आज हम बड़े गौरव और उत्साहके साथ उल्लिखित करते हैं। अब हम समझ सकते हैं कि कितनी उपादेयता जैन व्याकरणमें भरी हई है। हमारे पूज्य आचार्यों ने व्याकरण इसलिये नहीं बनाया था कि हम लोग उसको व्यवहृत करना भूल जावेंगे, किन्तु उसका ध्येय, भाषा और भावका, जो बोध्य-बोधक सम्बन्ध है और वैय्याकरण भी अपने ही धर्म सम्बन्धी उदाहरणोंसे व्याकरणके नियमोंका विकास करता हुआ जो श्रद्धाका भाव पुष्टि करता है उसके प्रचारका था। जैसे आप जब अन्य काव्य पढ़ते हैं उससे उसके कर्ता कविके विचारोंका आपपर असर पड़ता है वैसे ही आप अन्य व्याकरण पढ़ते हैं उस समय भी अन्यके विचारोंका अनायास ग्रहण होता है । उदाहरणके लिये पाणिनीय व्याकरणमें 'रमन्ते योगिनो यस्मिन्निति रामः ।' जैनेन्द्र व्याकरणमें 'सांसारिकसूख-दुःखतः उत्तमे मोक्षसुखे धरतीति धर्मः' आदि-आदि उदाहरणोंमें कितना धार्मिक भाव भरा हआ है, जिसका कि असर कोमल हृदय विद्यार्थीके अन्तःकरणपर पड़े बिना नहीं रह सकता है। यदि सब विषयके ग्रन्थ अपने होते तो अपनी संस्कृतिका भी अच्छा प्रचार हो सकता है। तथा विपुल साहित्यरूप कार्य देखकर अपनी समाज विद्वान कहला कर आदर्श समाजकी पदवीको प्राप्त हो सकती है। अन्यथा जिस प्रकार खजाना और सेनाका परस्पर अविनाभाव है। खजानेके रहनेपर ही सेनाका जीवननिर्वाह तथा सेनाके रहनेपर ही खजानेकी रक्षा हो सकती है उसी प्रकार जैनधर्ममें स्वसमय और परसमयका भी अविनाभाव है। जितने भी सिद्धान्तग्रन्थ हैं और Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ / साहित्य और इतिहास १७ जिनका सम्बन्ध आध्यात्मिकतासे है वे स्वसमयमे अन्तर्भूत होते हैं तथा जितने न्याय व्याकरण, साहित्य सम्बन्धी ग्रन्थ हैं ये परसमय कहलाते हैं । 7 न्याय, व्याकरण, साहित्यरूप परसमयके ग्रन्थोंके बिना सिद्धान्तग्रंथों (स्वसमय) का स्वरूप व्यवस्थित नहीं हो सकता, न उनसे आत्मार्थी पुरुष कुछ लाभ भी ले सकता है एवं बिना स्वसमय के न्यायादि परसमयका भी कुछ उपयोग नहीं हो सकता। अतः ऐसी हालत में समाज जो दोनोंको अनुपादेय समझ रहा है उससे समाजका और उसके स्वसमय परसमयरूप साहित्यका नाश हो रहा है । इसलिये इनकी रक्षा करनेका हमारे समाजका परम कर्त्तव्य है । अतः इनके उद्वारके लिये कटिबद्ध हो जाना चाहिये । ५-३ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खण्डागमके 'संजद' पदपर विमर्श [ यह लेख साहित्यिक एवं सैद्धान्तिक चर्चाओंके ऐतिहासिक दृष्टिकोणसे आज भी महत्त्वपूर्ण है । ] अर्सेसे प्रोफेसर हीरालालजी जैनके "क्या दिगम्बर और क्या श्वेताम्बर सम्प्रदायोंके शासनोंमें कोई मौलिक भेद है ?" शीर्षक वक्तव्यपर उनके और दिगम्बर जैन समाजके बीच विवाद चल रहा है। दिगम्बर समाजने प्रोफेसर साहबके वक्तव्यको दिगम्बर मान्यताओंके मूलपर एक आघात समझा है। उसकी धारणा है कि यदि इस वक्तव्यका निराकरण न करके इसके प्रति उपेक्षा धारण कर ली जाय, तो भविष्यमें दिगम्बर मान्यताओंके प्रति जनसाधारणका अविश्वास हो सकता है। किसी भी संस्कृतिककी उपासक समष्टि उस संस्कृतिको जहाँ अपने कल्याणका साधन समझती है वहाँ उसकी सन्तान और दूसरे-दूसरे लोग भी उस संस्कृतिसे अपना कल्याण कर सकें, यह भावना भी उसमें स्वाभाविक तौरपर विद्यमान रहती है। यही एक आधार है कि प्रत्येक समष्टिके ऊपर अपनी-अपनी संस्कृतिके संरक्षण और प्रसारका भार बना हआ है। इस दृष्टिसे प्रोफेसर साहबके उक्त वक्तव्यके विरुद्ध दिगम्बर समाजका आवाज उठाना जहाँ न्याय-संगत माना जा सकता है वहाँ यह मानना भी न्याय्य है कि प्रोफेसर साहबने अपनी बुद्धिपर भरोसा करके दिगम्बर आगमग्रन्थोंका एक निष्कर्ष निकालने और उस निष्कर्षको समाजके सामने रखनेका जो प्रयत्न किया है वह उनके भी स्वतंत्र अधिकारकी बात है। फिर जिस विषयको एक निष्कर्ष के रूपमें प्रोफेसर साहबने समाजके सामने उपस्थित किया है वह विषय संदिग्धरूपसे न मालूम कितने आगमके अभ्यासी व्यक्तियोंके हृदयमें विद्यमान होगा। इसलिये प्रोफेसर साहबके इस प्रयत्नसे वक्तव्यसंग्रहीत विषयोंको आगमग्रन्थोंके निर्विवाद अर्थों द्वारा एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचा देनेका योग्य अवसर ही समझना चाहिये था। परन्तु हम देखते हैं कि प्रोफेसर साहब और उनके सहयोगियों तथा दिगम्बर समाजके विचारोंका प्रतिनिधित्व करनेवाले विषयके अधिकारीवर्गके बीच लम्बे अर्सेसे चल रहे वाद-विवादके बाद भी उभयपक्षके बहुत कुछ अनुचित प्रयत्नों द्वारा परस्पर कटुता बढ़नेके अतिरिक्त कोई लाभ नहीं हुआ है । और यही कारण है कि इस तथ्यहीन वाद-विवादसे ऊबकर 'जैनमित्र' के सम्पादक महोदयको बाध्य होकर यह लिखना पड़ा है कि इस विवादसे सम्बन्ध रखनेवाले किसी भी लेखको 'जनमित्र' में स्थान नहीं दिया जायगा। तात्पर्य यह है कि कोई भी विषय जब पक्ष और विपक्षके झमेले में पड़ जाता है तो वहाँ विचारकी दृष्टि जाती रहती है और मान-अपमानका प्रश्न खड़ा हो जाता है, इसलिये उभय पक्षकी ओरसे प्रधानतया अपना प्रभाव अक्षुण्ण रखने तथा दूसरे पक्षका प्रभाव नष्ट करनेका ही प्रयत्न होने लगता है। दूसरे-दूसरे बाह्य कारणोंके साथ यह एक अतरंग कारण है कि इस विषयमें हम अभी तक मौन रहते आये है। लेकिन आज हम जो अपने विचारोंको नहीं दबा सक रहे हैं उसका कारण यह है कि हमारे सामने एक तो श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारका वह लेख है जो उन्होंने श्री प्रेमीजीके "अन्यायका प्रमाण मिल गया' शीर्षक लेखके ऊपर जैनमित्रमें लिखा है और दूसरे दिगम्बर जैन समाज बम्बईकी ओरसे प्रकाशित दिगम्बर जैन सिद्धान्त दर्पणके वे दोनों भाग हैं जिनमें भिन्न-भिन्न विद्वानों द्वारा श्री प्रोफेसर साहबके उक्त वक्तव्य तथा दसरे वक्तव्योंके विरोधमें लिखे गये लेखोंका संग्रह है। श्री प्रेमीजीने अपने उक्त लेखमें यह लिखा था कि सत्प्ररूपणाके ९३वें सूत्रमें प्रोफेसर साहबने लेखकोंकी गलतीसे 'संयत' पद छूट जानेकी जो कल्पना की है वह सही है और वह पद मूडबिद्रीकी प्रतिमें मौजूद है। इसपर श्री मुख्तारसाहबने अपने लेखमें कई आनुषंगिक शंकायें उपस्थित को है और उनके निराकरण Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५/ साहित्य और इतिहास : १९ करनेके लिये प्रेरणा करते हुए कुछ उपाय भी सुझाये हैं। और हमें विश्वास है कि श्री मुख्तार साहब भी स्वप्नमें यह नहीं सोच सकते हैं कि प्रोफेसर साहब और उनके सहयोगियों द्वारा मूडबिद्रीकी प्रतिमें संयतपद जोड़नेका अनुचित प्रयत्न किया गया होगा, परन्तु संदेह पैदा होनेके कारणभूत जिन दलीलोंका श्री मुख्तार साहबने अपने लेखमें संकेत किया है वे इतनी स्वाभाविक हैं कि उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। हम आशा करते हैं कि संबंधित महानुभावोंका ध्यान श्री मुख्तार साहबके लेख पर पहुँचा होगा और उन्होंने संदेह निवारण करने के लिये प्रयत्न चालू कर दिया होगा। हम मानते है कि उक्त संदेह श्री प्रोफेसर साहब और उनके सहयोगियोंकी नीयत पर भयंकर हमला है परन्तु जब मनुष्य किसी भी वाद-विवादके दलदलमें फँस जानेपर अपनी प्रामाणिकताको सुरक्षित रखनेके महत्त्वको भूल कर स्वार्थ और अभिभावकी पुष्टिके लिये उदारता और सहिष्णुताके मार्गको छोड़ देता है तो उसकी नीयत पर ऐसे भयंकर हमलोंका होना आश्चर्यकी बात नहीं है। और हमें कहना पड़ रहा है कि साधारण समाजने प्रोफेसर साहबके उक्त वक्तव्यके विरुद्ध अपनी जो भावना प्रदर्शित की है वह तो किसी रूपमै उचित मानी जा सकती है परन्तु समाजके विचारोंका प्रतिनिधित्व करनेवाले विषयके विद्वानोंने तथा श्री प्रोफेसर साहब और उनके सहयोगियोंने निश्चित ही अपनी जवाबदारी यथोचित रीतिसे नहीं निबाही है। जब श्री प्रोफेसर साहबके उक्त वक्तव्यके विरुद्ध दिगम्बर समाजमें आवाज उठी तो उन्होंने यह कहकर उस आवाजको दबानेकी कोशिश की, कि उन्होंने वह वक्तव्य जिज्ञासुभावसे प्रेरित होकर प्रकट किया है, उनकी मंशा दिगम्बर मान्यताओं पर चोट करनेकी नहीं है। प्रोफेसर साहबकी मंशा भले ही दिगम्बर मान्यताओं पर चोट करनेकी न हो, परन्तु उनका वक्तव्य दिगम्बर मान्यताओंका स्पष्ट खण्डन है, इस बातसे इन्कार नहीं किया जा सकता है। हमें प्रोफेसर साहबके उक्त वक्तव्यमें ऐसा एक भी वाक्य नहीं मिल रहा है जो उनके जिज्ञासुभावको प्रदर्शित कर रहा हो। इसलिये ववतव्य प्रकट करनेके बाद दिगम्बर समाजको सान्त्वना देनेके लिये प्रोफेसर साहब द्वारा लुभावने शब्दोंका प्रयोग हमारी समझके अनुसार निरर्थक ही नहीं बल्कि अनुचित जान पड़ता है । इसी प्रकार कहना होगा कि श्री प्रेमीजीके लेखका "अन्यायका प्रमाण मिल गया" यह शीर्षक उनके स्वगत अभिमान और विरोधी पक्षके प्रति रोष एवं तिरस्कारका ही सूचक है। हमारा यह भी खयाल है कि प्रोफेसर साहब व पं० फूलचन्द्रजीके बीच चल रही उक्त वक्तव्यसे संबद्ध तत्त्वचर्चाका बीच में ही पं० फूलचन्द्रजीसे बिना पूछे ही स्वतंत्र पुस्तकके रूपमें प्रकाशित कर देना श्री प्रेमीजी जैसे गण्यमान्य व्यक्तिके लिये शोभास्पद बात नहीं है ।। हमें अच्छी तरह याद है कि गतवर्ष कलकत्तामें वीर-शासन महोत्सवके अवसरपर प्रोफेसर साहबके उक्त वक्तव्यपर उभय पक्षकी ओरसे जिस तत्त्वचर्चाका आयोजन किया गया था वह तत्त्वचर्चा उस आयोजनके लिये निर्णोत सभापतिके संचालनको ढिलाईके कारण अनावश्यक और अनुचित शास्त्रार्थका रूप धारण कर गयी थी और उपस्थित समाजको अपनी ओर आकर्षित करना तथा अपने विपक्षका किसी तरह मुख बन्द करना ही उसका प्रधान लक्ष्य हो गया था। हम मानते हैं कि इसमें अधिक अपराधी वक्तव्यके विरुद्ध बोलनेवालो पार्टीको ही ठहराया जा सकता है। हमें पं० हीरालालाजीके "प्रोफेसर साहबके वक्तव्य पर मेरा स्पष्टीकरण' शीर्षक वक्तव्यको देखकर महान आश्चर्य हुआ कि ग्रन्थके सम्पादक होते हुए भी सूत्रमें संयत" पंद जोड़नेकी अपनी जवाबदारीसे हटनेके लिये उन्होंने अनुचित, असोचनीय और असफल प्रयत्नको अपनाया है। तथा यह देख कर तो और भी Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ आश्चर्य हआ कि बम्बईकी दिगम्बर समाजने इस सारहीन वक्तव्यका प्रोफेसर साहबके वक्तव्यके विरुद्ध प्रकाशित पुस्तकमें उपयोग करना उचित समझा है। क्या पं० हीरालालजीने ग्रन्थ प्रकाशित हो जानेके बाद उस टिप्पणीको नहीं देखा होगा? और जिस वाक्यांशका उनकी दृष्टिसे भ्रामक अर्थ छपा है उसके बारे में क्या वे फुटनोट द्वारा अपना अभिप्राय प्रकट नहीं कर सकते थे? यदि उन्हें ऐसा नहीं करने दिया गया हो, तो वे समाचारपत्रों द्वारा अपनो सम्मति उसी समय समाज पर प्रकट नहीं कर सकते थे? उन्होंने ऐसा नहीं किया, इसका अर्थ यह करना अनुचित नहीं माना जायगा कि पं० हीरालाल जी "जैसी चले वयार पीठ पनि तैसी दीजै' की नीतिका अनुसरण करना जानते हैं । इसी तरह बम्बईकी दिगम्बर जैन सम भी कहा जा सकता है कि उसने श्री पं० हीरालालजीके उक्त स्पष्टीकरणको प्रोफेसर साहबके विरू हथियार बनाकर 'अर्थी दोषं न पश्यति' की नीतिको चरितार्थ किया है।। उभय पक्षकी ऐसी बहुत-सी मिसालें यहाँ पर उद्धृत की जा सकती हैं, जिन्होंने विषयको निष्कर्ष पर पहँचानेकी अपेक्षा हानि ही अधिक पहँचाई है। विचार-विनिमयसे उभय पक्षको जितना एक-दूसरेके निकट आना चाहिए था उक्त दूषित नीतिका अनुसरण करनेके कारण वे उतनी ही दूरी पर चले गये हैं। और यह सभीके लिये अत्यन्त खेदकी बात होना चाहिये, कारण कि ऐसो प्रवृत्तियोंसे उभय पक्षका गौरव नष्ट होता है और सर्वसाधारणके अहितकी सम्भावना रहती है । इसीलिये हमने यहांपर संक्षेपमें उभय पक्षकी दृषित मनोवृत्तिको परिचायक कुछ प्रवृत्तियोंका संकेत किया है, ताकि उभय पक्ष अज्ञान, प्रमाद अथवा और किसी हेतुसे की गयी अपनी दूषित प्रवृत्तियोंकी ओर दृष्टिपात कर सके तथा अपनी बौद्धिक शक्तिका उपयोग धर्म, संस्कृति और समाजके हितसाधनमें कर सके। हम आशा करते हैं कि जब तक प्रोफेसर साहबके वक्तव्यमें निर्दिष्ट विवाद-ग्रस्त विषय एक निष्कर्ष पर न पहँचा दिये जायें, तब तक उभय पक्षकी चर्चा व्यक्तिको छोड़कर विषय तक ही सीमित रहेगी। बम्बईकी दिगम्बर जैन समाजकी ओरसे प्रोफेसर साहबके वक्तव्यके विरुद्ध यद्यपि हमारे सामने मौजूदा दो पुस्तकें प्रकाशित हुई है। परन्तु इतने मात्रसे दिगम्बर समाजका उद्देश्य सफल नहीं हो सका है और हमारी धारणा है कि इस प्रकारके प्रयत्नों द्वारा कभी भी उद्देश्यमें सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती है। हमारी राय है कि उद्देश्यको सफलताके लिये उभय पक्षकी ओरसे सिलसिलेवार उत्तर-प्रत्युत्तर स्वरूप चलनेवाली एक लेखमालाकी हो स्वतन्त्र व्यवस्था होना चाहिये । हमारी हार्दिक इच्छा है कि इस प्रकारकी व्यवस्था करनेका भार विद्वत् परिषदको अपने ऊपर ले लेना चहिये, साथ ही उसका कर्तव्य है कि वह प्रोफ़ेसर साहबके . साथ इस विषयके निर्णयमें भाग लेनेके लिये दिगम्बर समाजकी ओरसे कुछ विद्वानोंकी एक उपसमिति कायम करें और कोई भी विद्वान प्रोफेसर साहबके वक्तव्यके विरोधमें जो कुछ लिखे, वह इस उपसमितिकी देखरेख में ही प्रकाशित हो, क्योंकि प्रायः सभी विद्वानोंमें किसी-न-किसी उद्देश्यको लेकर कुछ-न-कुछ लिखनेकी आकांक्षा पैदा होना स्वाभाविक बात है और यदि एक ही पक्षका समर्थन करनेवाले दो विद्वान एक ही विषयमें अज्ञान अथवा प्रमादकी वजहसे भिन्न-भिन्न विचार प्रगट कर जाते हैं तो विषयका निर्णय करना बहुत ही जटिल हो जाता है। हम देखते हैं कि पं० मक्खनलालजी न्यायालंकार और पं० रामप्रसादजी शास्त्री बम्बई (जिन्हें स्वयं अपनी विद्वत्तापर पूर्ण विश्वास है और समाज भी योग्य विद्वानोंमें जिनकी गणना करती है) अपने लेखोंमें षट्खण्डागमकी सत्प्ररूपणाके ९३वे सूत्रकी धवला-टीकाके कुछ अंशोंका परस्पर भिन्न अनुवाद कर गये हैं और प्रोफेसर साहबके बक्तव्यके विरोधर्म बम्बई दिगम्बर जैन सम प्रकाशित दिगम्बर जैन सिद्धान्त दर्पणके दोनों भागोंका सम्पादन करते समय भी इसकी ओर लक्ष्य नहीं | Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ / साहित्य और इतिहास : २१ रखा गया है। आज यदि इसका स्पष्टीकरण किया जाता है तो बहुत कछ सम्भव है कि ये दोनों विद्वान भी अपनी-अपनी ज़िदपर अड़ सकते हैं । इसलिये विषयके निर्णयके लिये सीधा और उपयुक्त मार्ग यही है कि विद्वत् परिषद् कुछ चुने हुए विद्वानोंकी एक उपसमिति कायम करे । हम आशा करते हैं विद्वत् परिषद्का ध्यान हमारे इस सुझावकी ओर अवश्य जायगा । पं० मक्खनलालजी व पं० रामप्रसादजी शास्त्रीके ऊपर निर्दिष्ट अनुवाद-भेदका स्पष्टीकरण तथा उक्त सूत्रमें 'संयत' पदकी आवश्यक्ता ओर अनावश्यक्तापर विचार किया जायेगा । पहले किये गये संकेतके अनुसार यहाँपर हम शीर्षकके अन्तर्गत निर्दिष्ट सूत्रकी धवलाटीकाके पं० मक्खनलालजी न्यायालंकार और पं० रामप्रसादजी शास्त्री द्वारा किये गये परस्पर भिन्न हिन्दी अनुवादोंपर विचार करते हुए सूत्र में 'संयत' पदको आवश्यक्ता और अनावश्यक्तापर यहाँ अपना विचार प्रकट करेंगे । धवलाटीकाका वह मूल अंश, जिसके हिन्दी अनुवादमें उक्त उभय विद्वानोंका मतभेद बतलाया गया हैं, मुद्रित प्रतिमें निम्न प्रकार पाया जाता है "हुण्डावसर्पिण्यां स्त्रीषु सम्यग्दृष्टयः किन्नोत्पद्यन्त इति चेन्न, उत्पद्यन्ते । कुतोऽवसीयते ? अस्मादेवार्षात् । अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निर्वृतिः सिद्धयेदिति चेन्न, सवासस्त्वादप्रत्याख्यानगुणास्थितानां संयमानुपपत्तेः । " इसका हिन्दी अनुवाद मुद्रित प्रतिमें निम्न प्रकार पाया जाता है शंका- हुण्डावसर्पिणी काल संबन्धी स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि जीव क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि उनमें सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं । शंका - यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान - इसी आगम प्रमाणसे जाना जाता है । शंका- तो इसी आगमप्रमाणसे द्रव्यस्त्रियोंका मुक्ति जाना भी सिद्ध हो जायगा ? समाधान- नहीं, क्योंकि वस्त्रसहित होने से उनके संयतासंयत गुणस्थान होता है, अतएव उनके संयमकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । पं० मक्खनलालजीने धवलाटीकाके उक्त अंशका हिन्दी अनुवाद करते हुए मुद्रित प्रतिके इस अनुवादको पूर्णतः सही माना है, परन्तु पं० रामप्रसादजी शास्त्रीने वाक्यविन्यासको गलती के आधारपर इस अनुवादको ग़लत माना है और अपना भिन्न ही अभिप्राय प्रकट किया है। उनकी दृष्टिके अनुसार इस अंशकी स्थिति निम्न प्रकार है " हुण्डावसर्पिण्यां स्त्रीषु सम्यग्दृष्टयः किन्नोत्पद्यन्त इति चेत् नोत्पद्यन्ते । कुतोऽवसीयते ? अस्मादेवार्षात्, अस्मांदेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां न निर्वृतिः । सिद्धयेदिति चेन्न, सवासस्त्वादप्रत्याख्यान - गुणस्थितानां संयमानुपपत्तेः ।" मुद्रित प्रतिके उक्त अंशसे इसमें एक तो वाक्यविन्यासकी विशेषता है और दूसरे 'द्रव्यस्त्रीणां निर्वृतिः'के स्थानपर 'द्रव्यस्त्रीणां न निर्वतिः' ऐसा पाठभेद स्वीकार किया गया है तथा इसका जो हिन्दी अनुवाद पं० रामप्रसादजीको मान्य है उसको निम्न प्रकारसे प्रकट किया गया है शंका- हुण्डावसर्पिणी कालदोष के प्रभावसे स्त्रियोंमें सम्यग्दृष्टि जीव क्या नहीं उत्पन्न होते हैं ? समाधान -- नहीं उत्पन्न होते हैं । शंका - यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशी घर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ समाधान-इसी (९३३) ऋषिप्रणीत आगमसूत्रसे जाना जाता है और इसी (९३३) ऋषिप्रणीत आगमसूत्रसे यह भी जाना जाता हैं कि द्रव्यस्त्रियोंके मोक्ष नहीं होता है। शंका-द्रव्यस्त्रियोंको मोक्ष तो सिद्ध हो सकता है ? समाधान नहीं, क्योंकि वस्त्रसहित होनेसे वे संयतासंयत गुणस्थानमें स्थित रहती हैं, इसलिये उनके संयमकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । पाठक देखेंगे, कि दोनों प्रकारका हिन्दी अनुवाद उत्तरोत्तर तीन शंका-समाधानों में विभक्त है। इनमेंसे पं० रामप्रसादजी शास्त्री द्वारा धवलाटीकाकी मुद्रित वाक्ययोजनाको बदल कर किये गये अनुवादके पहले शंकासमाधानरूप भागसे हम भी सहमत हैं क्योंकि हुण्डावसपिणीकालदोष के प्रभावसे परंपराविरुद्ध कार्य तो हो सकते हैं परन्तु उनसे करणानुयोग और द्रव्यानुयोग द्वारा निर्णीत सिद्धान्तोंका अपलाप नहीं हो सकता है, कारण संपूर्ण काल, संपूर्ण क्षेत्र, सम्पूर्ण द्रव्य और सम्पूर्ण अवस्थाओंको ध्यानमें रखकर करणानुयोग और द्रव्यानुयोग द्वारा निॉन सिद्धान्तोंपर कालविशेष, क्षेत्रविशेष, द्रव्यविशेष और अवस्थाविशेषका प्रभाव नहीं पड़ सकता है । इसलिये जब करणानुयोगका यह नियम है कि कोई प्राणी सम्यग्दर्शनकी हालतमें मर कर स्त्रियोंमें उत्पन्न नहीं होता है तो हुण्डावसर्पिणोकालका दोष इसका अपवाद नहीं हो सकता है। इस प्रकार पं० रामप्रसादजी शास्त्रीके साथ-साथ हमारी भी यह मान्यता है कि मुद्रित प्रतिमें धवलाटीकाके इस अंशको वाक्ययोजना निश्चित करने और उसका हिन्दी अनुवाद करनेमें गलती कर दी गई है और पं० मक्खनलालजी न्यायालंकार भी अपने अनुवादमें उस गलतीको दुहरा गये। परन्तु आगे पं० रामप्रसादजी शास्त्रीने मुद्रित प्रतिमें स्वीकृत धवला टीकाके 'द्रव्यस्त्रीणां निर्वतिः' इस वाक्यांशके स्थानपर 'न' पद जोड़कर 'द्रव्यस्त्रीणां न निर्वृतिः' इस वाक्यांशको स्वीकार करके वाक्ययोजना बदलने और उस बदली हई वाक्ययोजनाके आधारपर हिन्दी अनुवाद करनेका जो प्रयास किया है उसमें एक तो अनुवाद करते समय अधिक खींचातानी करनी पड़ी है, दूसरे उनके अभिप्रायकी पुष्टिके लिये इसे हम उनका द्रावड़ीय प्राणायामका अनुसरण कह सकते हैं और तीसरे उनका यह प्रयास निरर्थक भी है। ___ इनमेंसे अनुवाद करते समयकी खींचातानी तो यहाँपर स्पष्ट ही है क्योंकि धवलाटीकाके इस अंशका जो अभिप्राय अनुवादद्वारा पं० रामप्रसादजी शास्त्री निकालना चाहते हैं उसके अनुकूल वाक्यरचनाका धवलाटीकामें अभाव है। यदि 'अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां न निवृतिः' इस वाक्यको सिद्धान्तपरक मानकर सिर्फ 'सिद्धघेत' इस क्रियारूप वाक्यको ही आक्षेपपरक माना जाय तो वाक्यरचनामें अधूरेपनका अनुभव होने लगता है जो कि अनुचित है। ___ द्रावड़ीय प्राणायामका अनुसरण हम इसलिये कहना चाहते हैं कि पं० रामप्रसादजी शास्त्री 'अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां न निर्वृतिः' इस वाक्यसे उक्त ९३वें सूत्रमें 'संयत' पदके अभावके आधारपर दिगंबर संप्रदायको मान्य 'द्रव्यस्त्रियोंकी मुक्तिका अभाव' प्रस्थापित करना चाहते हैं और 'सिद्धयेत्' इस वाक्यसे क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम आदि प्ररूपणाओंके अन्तर्गत मनुष्यप्ररूपणाके आधारपर दिगम्बर संप्रदायको उक्त मान्यतापर आक्षेप उपस्थित करना चाहते है, जिसका समाधान 'सवासत्वात्-' आदि पंक्ति द्वारा किया गया है। लेकिन इस विषयमें हमारा कहना यह है कि यदि पं० रामप्रसादजी शास्त्रीको यह अर्थ अभीष्ट है तो इसके लिये 'द्रव्यस्त्रीणां निर्वृतिः'के स्थानपर 'द्रव्यस्त्रीणां न निवृतिः' इस पाठको मान कर एक ही वाक्यमें दो वाक्योंकी कल्पना करनेके कष्ट साध्य प्रयत्नके करनेकी उन्हें क्या जरूरत है ? क्योंकि 'अस्मादेवार्षाद' इस वाक्यांशको सूत्रपरक न मानकर यदि सूत्रोंके समूहरूप ग्रन्थपरक मान लिया जाय और इसका अर्थ इसी - Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ / साहित्य और इतिहास : २३ ऋषिप्रणीत ९३वे सूत्रसे' इस प्रकार न करके 'इसी ऋषिप्रणीत आगमपन्थसे अर्थात् क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम आदि प्ररूपणाओंके अन्तर्गत मनुष्यप्ररूपणा द्वारा इस प्रकार मान लिया जाय, तो उसके लिये अभीष्ट 'संयतपदका अभाव' भी सूत्र में बना रहता है और 'न' पद जोड़ कर एक वाक्यमें दो वाक्योंकी कल्पना भी उन्हें नहीं करनी पड़ती है। केवल 'अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निर्वृतिः सिद्धयेत्' इस संपूर्ण वाक्यको आक्षेपपरक एक वाक्य मान करके पं० रामप्रसादजी शास्त्रीके अभिप्रायानुसार 'इसी आगमग्रन्थसे अर्थात क्षेत्रानुगम आदि प्ररूपणाओंके अन्तर्गत मनुष्यप्ररूपणा द्वारा द्रव्यस्त्रियोंकी मुक्तिका प्रसङ्ग हो सकता है । इस प्रकारके प्रकरणगत अर्थकी संगति बैठ जाती है। परन्तु पं० रामप्रसादजी शास्त्रोकी 'अस्मादेवार्षाद्' इस वाक्यको सूत्रोंके समूहरूप ग्रन्थपरक न मान कर केवल सूत्रपरक मानते हुए उसका 'इसी ९३वें सूत्ररूप आगमप्रमाणसे' ऐसा अर्थ करना [जो कि हमारी रायमें भी ठीक अर्थ है] इसलिये अभीष्ट है कि वे इसी आधारपर इस ९३वें सूत्र में विवादग्रस्त 'संयत' पदका अभाव सिद्ध करना चाहते हैं। लेकिन हमारी रायसे वे इसमें भी सफल नहीं हो सकते हैं। पं० रामप्रसादजी शास्त्रीका खयाल है कि क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम आदिकी मनुष्यप्ररूपणाओं में केवल मनुष्यणी शब्द पाया जाता है इसलिये उन सूत्रोंमें इसका अर्थ भावस्त्री करना चाहिये और सत्प्ररूपणा के ९३ वें सूत्रमें मनुष्यणी शब्दका अर्थ द्रव्यस्त्री करना चाहिए, परन्तु उनका यह ख्याल गलत है क्योंकि सत्प्ररूपणा, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम आदि सभी प्ररूपणाओंमें 'मनुष्यणी' शब्दका अर्थ समानरूपसे पर्याप्तनामक कर्म, स्त्रीवेदनोकषाय और मनुष्यगतिनामकर्मके उदयवाला जीव' ही मुक्ति-पात्र तथा आगमसम्मत है और मनुष्यणी संज्ञावाले इस जीवके ही ९२ वें और ९३ वें सूत्रों द्वारा यदि वह निर्वृत्यपर्याप्तक हालतमें है तो प्रथम और द्वितीय गुणस्थानोंकी और यदि वह निवृत्त्यपर्याप्तक हालतको पारकर गया हो तो उसके प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ आदि सभी गुणस्थानोंकी संभावना बतलाई गई है। सत्प्ररूपणाके ९३वें सूत्रमें 'मनुष्यणी' शब्दसे यदि सिर्फ द्रव्यस्त्रीको ही ग्रहण किया जाता है तो जो जीव दिगम्बर मान्यताके अनुसार द्रव्यसे पुरुष और भावसे स्त्री है उसका ग्रहण उक्त सूत्रमें पठित मनुष्यणी शब्दसे न हो सकनेके कारण उसकी निवृत्त्यपर्याप्तक हालतमें चतुर्थ गुणस्थानके प्रसंगको टालनेके लिये आगमका कौनसा आधार होगा, कारण कि दिगम्बर मान्यताके अनुसार कर्मसिद्धांतके आधारपर स्त्रीवेदोदयविशिष्ट पुरुषके भी निर्वृत्त्यपर्याप्तक हालतमें चतुर्थ गुणस्थान नहीं स्वीकार किया जाता है । इसलिये आगमग्रथोंमें जहां भी मनुष्यणोशब्दका उल्लेख पाया जाया है वहांपर उसका अर्थ 'पर्याप्तनामकर्म, स्त्रीवेदनोकषाय और मनुष्यगतिनामकमके उदयवाला जीव ही करना चाहिये । ऐसा अर्थ करनेमें सिर्फ एक यह शंका अवश्य उत्पन्न होती है कि स्त्रीवेदोदयविशिष्ट मनुष्यगतिनामकर्मके उदयवाले जीवके अधिक-से-अधिक नौ (९) गुणस्थान तक हो सकते हैं। इसलिये इस जीवके १४ गुणस्थानोंका कथन करना असंगत और आगमविरुद्ध है । लेकिन इसका समाधान उक्त ९३वें सूत्रकी धवला टीकामें कर दिया गया है कि यहाँपर मनुष्यगतिनामकर्मका उदय प्रधान है और स्त्रीवेदनोकषायका उदय इसका विशेषण है। इसलिये विशेषणके नष्ट हो जानेपर भी विशेष्यका सद्भाव बना रहनेके कारण ही मनुष्यणीके १४ गुणस्थानोंकी सम्भावना बतलायी गयी है । इस प्रकार जब उक्त ९३वे सूत्र में 'मनुष्यणी' शब्दसे स्त्रीवेदोदयविशिष्ट द्रव्यपुरुषका ग्रहण भी अभीष्ट है तो क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम आदि प्ररूपणाओंके अन्तर्गत मनुष्यप्ररूपणावाले सूत्रोंके साथ सामञ्जस्य बिठलानेके लिये इस सूत्र में भी संयतपदका सद्भाव अनिवार्य रूपसे स्वीकार करना पड़ता है और तब पं. रामप्रसादजी शास्त्रीने उक्त ९३वें सूत्रमें संयतपदका अभाव सिद्ध करनेके लिये जिन दलीलोंका उपयोग किया है वे सब निःसार हो जाती हैं। Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ अपने लेखके परिशिष्टमें पं० रामप्रसादजी शास्त्री एक और गलती कर गये हैं। उन्होंने अपनी ऊपर बतलायो हुई कल्पनाको गौण करके वहाँपर एक दूसरी ही कल्पनाको जन्म दिया है। वे कहते हैं कि 'अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निवृत्तिः सिद्धचेदिति चेन्न' इस पंक्तिमें द्वितकारवाले 'निर्वृत्ति' शब्दका अर्थ मुक्ति नहीं है बल्कि निष्पत्ति है । हम नहीं समझते कि 'निर्गता नष्टा नृत्तिर्वर्तनं संसारभ्रमणमित्थर्थःइस व्युत्पत्ति के आधारपर द्वितकारवाले निवृत्ति शब्दका अर्थ 'मुक्ति' करने में उन्हें क्या आपत्ति है और फिर श्रीवीरसेन स्वामीने द्वितकारवाले 'निर्वृत्ति' शब्दका पाठ न करके एक तकारवाले 'निर्वृति' शब्दका पाठ किया हो, इस सम्भावनाको कैसे टाला जा सकता है ? यद्यपि वाक्यविन्यासको तोड़-मरोड़ करके पं० रामप्रसादजी शास्त्रीने इस बातकी कोशिश की है कि श्री वीरसेन स्वामीको वहांपर द्वितकारवाले 'निर्वृत्ति' शब्दका पाठ ही अभीष्ट है, परन्तु हम कहेंगे कि पं० रामप्रसादजी शास्त्रीने इस प्रयत्नमें विशुद्ध वैयाकरणत्वका ही आधयण किया है क्योंकि उनकी अपने ढंगसे वाक्योंकी तोड़मरोड़ करनेकी कोशिशके बाद भी वे अपने उद्देश्यके नजदीक नहीं पहुँच सकते हैं अर्थात् पहले कहा जा चुका है कि मनुष्यणी शब्दका अर्थ पर्याप्तनामकर्म और स्त्रीवेदनोकषायके उदयविशिष्ट मनुष्यगतिनामकर्मके उदयवाला जीव ही आगमग्रन्थोंमें लिया गया है और वह द्रव्यसे स्त्रीकी तरहसे द्रव्यसे पुरुष भी हो सकता है । तात्पर्य यह है कि 'मनुष्यणी' शब्दका अर्थ स्त्रीवेदनोकषायके उदयसहित द्रव्यस्त्रीकी तरह स्त्रीवेदनोकषायके उदयसहित द्रव्यपुरुष भी होता है और यही अर्थ समानरूपसे सत्प्ररूपणा, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम आदि प्ररूपणाओंमें 'मनुष्यणी' शब्दका है ऐसा समझना चाहिये । इस तथ्यको समझनेके लिये सम्बद्ध सूत्रों तथा उनको धवला टीकाका गम्भीरतापूर्वक चिन्तन करनेको जरूरत है । सम्बद्ध सूत्रों और उनकी धवला टीका गम्भीरतापूर्वक चिन्तन न करनेका हो यह परिणाम है कि पं० रामप्रसादजी शास्त्री और भी बहुत-सी आलोचनाके योग्य बातें अपने लेखमें लिख गये हैं, जिनपर विचार करना यहाँ पर हम अनावश्यक समझते हैं। बहुत विचार करनेके बाद हमने श्री पं० रामप्रसादजी शास्त्रीके उनके अपने लेखमें गलत और कष्टसाध्य प्रयत्न करनेका एक ही निष्कर्ष निकाला है और वह यह है कि वे इस बातसे बहुत ही भयभीत हो गये हैं कि यदि सत्प्ररूपणाके ९३वें सूत्रमें 'संयत' पदका समावेश हो गया तो दिगम्बर सम्प्रदायको नीव ही चौपट हो जायगी । परन्तु उन्हें विश्वास होना चाहिये कि ९३वे सूत्र में संयतपदका समावेश हो जानेपर भी न केवल स्त्रीमुक्तिका निषेधविषयक दिगम्बर मान्यताको आंच आनेकी सम्भावना नहीं है अपितु षट्खण्डागमकी सत्प्ररूपणा, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम आदि प्रकरणगत सूत्रोंमें परस्पर सामञ्जस्य भी हो जाता है । हमारे इस कथनका मतलब यह है कि मूडबिद्रीको प्राचीनतम प्रतिमें भी संयत पद मौजूद हो, या न हो, परन्तु सत्प्ररूपणाके ९३वें सूत्रमें उसकी (संयतपदकी) अनिवार्य आवश्यकता है, हर हालतमें वह अभीष्ट है । दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंमें परस्पर जो मतभेद है वह पर्याप्त मनुष्यणीके चौदह गुणस्थान न मानने अथवा माननेका नहीं है क्योंकि पर्याप्त मनुष्यणीके चौदह गुणस्थानोंकी मान्यता उक्त दोनों सम्प्रदायोंमेंसे किसी एक सम्प्रदायकी मान्यता नहीं है बल्कि जैनधर्मकी ही मूल मान्यता है और इस मान्यताको उभय सम्प्रदायोंने समान रूपसे अपनी-अपनी मान्यतामें स्थान दिया है। इन दोनों सम्प्रदायोंमें जो मतभेद है वह इस बातका है कि जैनधर्ममें पर्याप्त मनुष्यणीके जो चौदह गुणस्थान स्वीकार किये गये हैं वे जहाँ दिगम्बर सम्प्रदायोंमें पर्याप्त मनुष्यणीशब्दसे व्यवहृत स्त्रीवेदनोकषायके उदयवाले द्रव्यसे पुरुषके ही संभव माने गये है वहाँ श्वेताम्बर सम्प्रदायमें पर्याप्तमनुष्यणीशब्दसे व्यवहृत स्त्रीवेदनोकषायके उदयवाले द्रव्यसे स्त्रीके भी संभव माने गये हैं और इस मतभेदका मूल कारण यही जान पड़ता है कि दिगम्बर संप्रदायमें वस्त्रग्रहणको संयमका Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसा ५ / साहित्य और इतिहास : २५ घातक स्वीकार किया गया है जबकि श्वेताम्बर संप्रदायमें उसे (वस्त्रग्रहणको) संयमका घातक स्वीकार नहीं किया गया है। इसलिये द्रव्यस्त्रीके चौदह गणस्थान हो सकते हैं या नहीं? इस प्रश्नका निर्णय इस प्रश्नके निर्णयपर अवलंबित है कि वस्त्रग्रहणके साथ संयमका सद्भाव रह सकता है या नहीं ? जो विद्वान वेदवैषम्यके आधारपर द्रव्यस्त्रीके संयम तथा मुक्तिकी निषेधविषयक दिगम्बर-मान्यता का समर्थन करना चाहते हैं वे भी हमारी रायसे इस तरहसे दिगम्बर संप्रदायमें मान्य 'द्रव्यस्त्रीके संयम तथा मक्तिके अभाव' का समर्थन नहीं कर सकते हैं, कारण कि द्रव्यस्त्रीके संयम तथा मुक्तिका निषेध विषयक मान्यताके सदभावमें दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार वेदवैषम्यके आधारपर जैनधर्मकी 'पर्याप्त मनुष्यणीके चौदह गुणस्थानोंकी प्राप्ति विषयक मूल्यमान्यता'का समन्वय तो किया जा सकता है परन्तु इसके (वेदवैषम्यके) आधारपर यह तो किसी हालतमें नहीं कहा जा सकता है कि द्रव्यस्त्रीके आदिके पाँच गुणस्थानोंको छोड़कर ऊपरके प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थान नहीं हो सकते हैं। इसी प्रकार प्रोफ़ेसर हीरालालजीके बारे में भी हम यह निवेदन कर देना उचित समझते हैं कि भले ही षट्खण्डागमग्रन्थमें द्रव्यस्त्रीके लिये आदिके पाँच गणस्थान तक प्राप्त कर सकनेका स्पष्ट उल्लेख न हो, परन्तु वहाँपर ऐसा उल्लेख भी तो स्पष्ट नहीं है कि द्रव्यस्त्रीके भी चौदह गुणस्थान हो सकते है, इसलिये षट्खण्डागमकी सत्प्ररूपणाके ९३३ सूत्रकी धवलाटीका कितनी ही अर्वाचीन क्यों न हो, उसे षट्खण्डागमके आशयके विपरीत आशयको प्रकट करनेवाली तो किसी भी हालतमें नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार षटखण्डागमग्रन्थमें बतलायी गयी मनुष्यणीके चौदह गणस्थानोंकी प्राप्तिका अर्थ वेदवैषम्यकी असंभवताके आधारपर 'द्रव्यस्त्रोके चौदह गुणस्थानोंकी प्राप्ति' आगमकी मान्यता न होकर प्रोफ़ेसर सा० की ही मान्यता कही जा सकती है क्योंकि श्वेताम्बर ओर दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें जब वेदवैषम्य स्वीकर किया गया है तो इसपर (वेदवैषम्यकी असंभवतापर) आगमकी छाप किसी भी हालतमें नहीं लगाई जा सकती है। तात्पर्य यह है कि वेदवैषम्य संभव है या नहीं ?' यह एक ऐसा प्रश्न है जैसे कि 'शरीरसे भिन्न जीव नामका कोई स्वतंत्र पदार्थ है या नहीं ?' 'जीवकी मुक्ति होती है या नहीं ?' 'स्वर्ग, नरक आदि वास्तविक हैं या काल्पनिक ?' आदि प्रश्न हैं क्योंकि इन प्रश्नोंके समान ही यह प्रश्न भी आगमको संदिग्ध कोटिमें रख देनेके बाद ही उठ सकता है। इसलिये इस प्रश्नके बारे में विचार करना मानों वेदवैषम्यको मानने वाला आगम प्रमाण है या अप्रमाण ? इस प्रश्नके बारेमें ही विचार करना है । यद्यपि इस प्रश्नपर विचार करनेको हम बुरा नहीं समझते हैं परन्तु इस लेखके लिखते समय हमारे भतीजे श्री पं० बालचन्द्रजी शास्त्री सहसम्पादक धवलाके द्वारा हमें जो सिद्धान्त-समीक्षा भाग १-२ प्राप्त हुए हैं उनमेंसे पहले भागके ऊपर दृष्टि डालनेसे हम इस निष्कर्षपर पहुँचे हैं कि वेदवैषम्य सम्भव है या नहीं ? इस प्रश्नके विचारके झमेले में पड़कर 'द्रव्यस्त्रीको मुक्ति हो सकती है या नहीं ?' यह प्रश्न सर्वसाधारणके लिये और भी जटिल बन गया है। . हम पहले कह आये हैं कि द्रव्यस्त्रीके छठा आदि गुणस्थान हो सकते हैं या नहीं ? इस प्रश्नका समाधान करनेके लिये संयमके लिये वस्त्रत्याग आवश्यक है या नहीं ? इस प्रश्नका समाधान हो जाना ही साधारण जनताके लिये सीधा और सरल आय है। यद्यपि विद्वानोंने इस प्रश्नपर भी बहुत कुछ विचार किया है और पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री बनारसका भगवान महावीरका अचेलक धर्म' शीर्षक ट्रैक्ट इस विषयका काफ़ी महत्त्वपूर्ण ट्रैक्ट माना जाता है। परन्तु अभी तक इस विषयका उभय-पक्षसम्मत कोई निर्णय सामने नहीं है। इस विषयमें हमारे विचार निम्न प्रकार हैं शरीरके सद्भावकी तरह वस्त्रके सद्भावमें भी संयम रह तो सकता है परन्तु वस्त्रग्रहण उसका विरोधो अवश्य है, कारण कि ग्रहणका अर्थ स्वीकृति है और जहाँ वस्त्रकी स्वीकृति मौजूद है वहाँ वस्त्रसम्बन्धी Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ असंयम मानना ही चाहिये। इस वस्त्रसम्बन्धी असंयमके लिये शेष संयमकी पूर्णता रहते हुए श्वेताम्बर सम्प्रदायकी मान्यताको ध्यानमें रखते हए हम छठे गुणस्थानका जघन्य रूप कह सकते हैं और दिगम्बर मान्यताको ध्यानमें रखते हुए पंचम गुणस्थानका उत्कृष्ट रूप कह सकते हैं । इन दोनों मान्यताओंमें वास्तविक अन्तर कुछ भी नहीं रह जाता है । केवल पांचवें गुणस्थानकी अन्तभूत और छठे गुणस्थानकी आदिभूत मर्यादा बाँधनेका बाह्य अन्तर दोनों सम्प्रदायोंके बीच रह जाता है । वस्त्रको संयमका विरोधी न मानकर वस्त्रग्रहणको ही संयमका विरोधी माननेका हमारा मतलब यह है कि दिगम्बर सम्प्रदायमें भी चेलोपष्ट मनिके संयमका अभाव नहीं स्वीकार किया गया है। तथा मिथ्यात्वव्रतरहित सम्यग्दर्शन और सम्यग्दर्शनके साथ-साथ देशव्रतकी अवस्थाओंमें संयमकी ओर अभिमुख होनेवाले व्यक्तिके जहाँ प्रथम ही सातवें गुणस्थानकी प्राप्ति बतलाई गयी है वहाँ वस्त्रत्यागकी अनिवार्यता नहीं मानी गयी है । इसका मतलब यह है कि सातवें गुणस्थानकी प्राप्ति सवस्त्र हालतमें दिगम्बर मान्यताके अनुसार भी असंभव नहीं है, तो फिर सवस्त्र हालतमें छठे गणस्थानकी प्राप्तिका निषेध दिगम्बर सम्प्रदाय क्यों करता है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि चौदह गुणस्थानोंमेंसे दूसरे, तीसरे और सातवेंसे लेकर बारहवें तक तथा चौदहवें इन गुणस्थानोंका जितना वर्णन किया गया है वह भावाधारपर किया गया है और पहला, चौचा, छठा तथा तेरहवाँ इन गुणस्थानोंका कथन व्यवहाराश्रित है, क्योंकि इन गणस्थानोंका कथन व्यक्तिके अन्तरंग भावोंका कार्यस्वरूप बाह्य प्रवृत्तिके आधारपर किया गया है, इसलिये दिगम्बर सम्प्रदायकी यह मान्यता युक्तियुक्त है। वस्त्रकी स्वीकृति रहते हए भावापेक्षासे भी सकलसंयम नहीं रह सकता है। परन्तु जहाँ वस्त्रकी स्वीकृति रहते हए भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय सकलसंयमकी प्राप्तिको स्वीकार करता है वहाँ दिगम्बर सम्प्रदायकी भी यह मान्यता है कि वस्त्रके सद्भावमें भावापेक्षया भी सकलसंयम नहीं रह सकता है। तात्पर्य यह है कि सवस्त्र हालतमें व्यवहाराश्रित षष्ठ गुणस्थानको सम्भावनाको तो किसी तरह टाला जा सकता है परन्तु सप्तम आदि गुणस्थानोंकी सम्भावना अनिवार्य रूपसे जैसीकी तैसी बनी रहती है और इसका अर्थ यह है कि द्रव्यस्त्रीके लिये भी उपशमश्रेणी तथा क्षपकश्रेणी आदि चढ़नेका कोई विरोध नहीं होना चाहिये, परन्तु 'कर्मभूमिज स्त्रियोंके अन्तके तीन ही संहनन हो सकते हैं यह आगम इसमें बाधक हो सकता है, इसलिये इस आगमकी प्रमाणताके लिए आज वैज्ञानिक शोधकी आवश्यकता है । केवली-कवलाहारके बारे में विचार करने का अर्थ है जैन धर्ममें मानी हुई सर्वज्ञकी परिभाषाके बारेमें विचार, कारण कि ये दोनों (कवलाहार और जैन धर्मोक्त सर्वज्ञता) परस्पर-विरोधी ही माने जा सकते हैं, इसलिये जो विद्वान् तत्त्वनिर्णयकी दृष्टिसे इस विषयमें प्रविष्ट हों उन्हें इस मूल बातको पहले ध्यानमें रख लेना चाहिये । हमने इस विषयमें अभी तक जितना विचार किया है उसमें यह निर्णय नहीं कर पाये है कि केवलीके कवलाहार माना जाय या जैन धर्मोंक्त सर्वज्ञता। अन्तमें हमारा निवेदन यह है कि इन विषयों पर या इसी तरहके और भी विषयों पर जितना भी विचार किया जाय वह सब तत्त्वनिर्णायक द्रव्यानुयोगकी दृष्टि है। इससे सर्व साधारणको लाभ और अलाभका सीधा सम्बन्ध नहीं है । सर्व साधारणके लाभ और अलाभका सम्बन्ध तो आध्यात्मिक करणानुयोगकी दृष्टिसे ही है। इसलिये न तो स्त्रीमुक्ति, सवस्त्र-संयम और केवलि-कवलाहारके सिद्ध हो जानेपर समाजका उद्धार हो जायगा और न इसके निषिद्ध कर दिये जाने पर ही समाज उद्धार पा जायगा। अतएव विद्वानोंका एक ओर तो यह कर्तव्य है कि ऐसे विशुद्ध तार्किक मामलोंमें समाजको घसीटनेका प्रयत्न न करते हुए उसके उद्धारका मार्ग खोजनेका प्रयत्न करें और दूसरी ओर स्वपक्षहट और विचारोंकी खींचातानी न करते हुए तत्त्व-निर्णायक (वैज्ञानिक) दृष्टिसे गृढ तत्त्वोंकी शोध भी करें। Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांस्कृतिक सुरक्षाकी उपादेयता' देव-आगम-गुरु वन्दना पुरःसर भो विद्वद्वन्द ! और समादरणीय उपस्थित जन-समूह ! आज मुझे इस बात का अत्यन्त संकोच हो रहा है कि भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद जैसी महत्त्वपूर्ण संस्थाका मुझे अध्यक्ष बना दिया गया है। मेरे इस संकोचका कारण यह है कि एक तो शास्त्रमर्मज्ञ, कार्यकुशल और समाजमें ख्याति प्राप्त बड़े-बड़े विद्वान विद्वत्परिषद्में सम्मिलित है, दूसरे इसके सामने आज जो समस्यायें हल करनेके लिये उपस्थित हैं उन्हें देखते हए जब मैं गहराईके साथ सोचता है तो ऐसा लगता है कि इन समस्याओंको हल कर नेकी अल्पतम क्षमता भी मेरे अन्दर नहीं है। लेकिन आपकी आज्ञाको शिरोधार्य कर मैं उन समस्याओंको आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हैं। उन पर हमें व आपको गम्भीरताके साथ मंथन करना है। प्रथम समस्या : सांस्कृतिकताको रक्षा करें विश्वके प्रांगणमें आप देखनेका प्रयत्न करेंगे तो वहाँ प्रत्येक स्थल पर आपको किसी-न-किसी संस्कृतिके दर्शन अवश्य होंगे । हमारा भारतवर्ष तो अत्यन्त प्राचीनतम कालसे ही विविध संस्कृतियोंकी जन्मभूमि रहा है और आज भी यहाँपर अनेक संस्कृतियां विद्यमान हैं। __ आप जब उनपर दृष्टिपात करेंगे तो आपको उनके दो पहलू देखनेको मिलेंगे। एक पहलू तो उस संस्कृतिके विशिष्ट तत्त्वज्ञानका होगा और दूसरा पहलू मानवप्राणियोंके जीवन-निर्माणके लिये उनके द्वारा निश्चित की गई आचारपद्धतिका होगा। सम्पूर्ण मानव-समष्टिमें सांस्कृतिक आधारको लेकर जितने समाज पाये जाते हैं उन सब समाजोंमेंसे जिस समाजका ढांचा जिस संस्कृतिके आधारपर निर्मित हुआ है उस समाजके प्रत्येक व्यक्तिका स्वाभाविकरूप से यह कर्तव्य हो जाता है कि वह अपनी संस्कृतिके तत्त्वज्ञानके प्रति दृढ़तम आस्था रखे तथा उसमें उपदिष्ट आचारपद्धतिके आधारपर यथाशक्ति अपनी जीवन-प्रवृत्तियोंके निर्माण करनेका प्रयत्न करे । यह तभी हो सकता है जब व्यक्तिको उस संस्कृतिके तत्त्वज्ञानका और आचार-पद्धतिका उपयोगी ज्ञान हो। सर्वसाधारणके लिये तत्त्वज्ञानका और आचार-पद्धतिका उपदेष्टा उस संस्कृतिके रहस्योंका ज्ञाता और व्याख्याता विद्वान ही होता है। अतः कोई भी व्यक्ति अपनी संस्कृतिके तत्त्वज्ञानके प्रति अन्तःकरणमें समापन्न आस्थासे चलायमान न हो जावे तथा उसमें उपदिष्ट आचार-पद्धतिकी उपेक्षा करके अपने जीवनको उच्छृखल न बना ले, इसका उत्तरदायित्त्व उस-उस संस्कृतिके मर्मको जाननेवाले विद्वानोंपर ही स्वाभाविकरूपसे आकर पड़ता है, यह बात हम सभी विद्वानोंको अच्छी तरह समझ लेना है। जैनसंस्कृतिका मूलभूत उद्देश्य जड़ पदार्थोके साथ बद्ध रहनेके कारण परतंत्र हुये संसारी आत्माको उन जड़ पदार्थोसे मुक्त यानी स्वतंत्र बनानेका है, लेकिन किसी भी संसारी प्राणीको जबतक आत्मस्वातंत्र्य प्राप्तिके साधन प्राप्त न हो जावें, तथा साधनोंके प्राप्त हो जानेपर भी वह प्राणी जबतक अपनी जीवनप्रवृत्तियोंको आत्म-स्वातंत्र्य प्राप्तिको दिशामें मोड़ न दे दे, तबतक उसे अपना लक्ष्य जीवनको सही ढंगसे सुख-पूर्वक व्यतीत करनेका बनाना चाहिये। १. सन् १९६५ में सिवनी (म०प्र०) में आयोजित भा० दि० जैन विद्वत्परिषदके दशम अधिवेशनके अध्यक्ष पदसे दिया गया अभिभाषण । Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ जीवनको सुखपूर्वक व्यतीत करनेका सही ढंग क्या हो सकता है ? इस प्रश्नका समाधान यह है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्यको जब तक अन्य मनुष्यका आवश्यक सहयोग प्राप्त नहीं होगा तबतक उसे अपने जीवनका संचालन करना दुःसाध्य ही रहेगा । यह बात प्रत्येक व्यक्ति अच्छी तरह समझता है कि उसके जीवनकी जितनी आवश्यकतायें या हो सकती उनकी पूर्ति में उसे अन्य मनुष्योंका सहयोग अनिवार्यरूपसे अपेक्षित होता है । ग्राहकको अपनी आवश्यकताकी पूर्ति के लिए दुकानदार चाहिये और दुकानदारको अपनी आवश्यकताकी पूर्ति के लिये ग्राहक चाहिये। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णोंकी व्यवस्था हमें मानवजीवनकी पर सहयोग निर्भरताकी सूचना दे रही है । जैनसंस्कृति में तो प्रत्येक प्राणीके जीवन-यापन के लिये पंचेन्द्रिय मनुष्यसे लेकर एकेन्द्रिय प्राणि तकके सहयोग की भूमिका प्रतिपादित की गई है । आचार्य उमास्वातिका " परस्परोपग्रहो जीवानाम् ” सूत्रवाक्य हमारे समक्ष इसी रहस्यका उद्घाटन कर रहा है । एक मानव जीवनमें दूसरे मानवके सहयोगको अपेक्षा होना ऐसा कारण है, जिसके आधारपर लोकमें मानव जीवनको सुखी और सुन्दरतम बनानेके लिये कौटुम्बीय, नागरीय और राष्ट्रीय संगठनों को स्थान प्राप्त हो गया है और आज तो उक्त उद्देश्यकी पूर्तिके लिये प्रत्येक समझदार व्यक्ति सम्पूर्ण राष्ट्रोंके एक संगठनको भी महत्त्व देने लगा है। संयुक्त राष्ट्र महासंघका निर्माण इसीका परिणाम है । आज प्रत्येक समझदार व्यक्ति यह भी सोचता है कि उपर्युक्त सभी संगठन बदस्तूर बने रहें, इसलिये उसे हमेशा इस बातकी चिन्ता बनी रहती है कि किसी भी संगठनमें किसी भी प्रकार कहींसे दरार न पड़ जावे । किसी भी संगठनमें दरार व्यक्तियोंके, कुटुम्बोंके, नगरोंके और राष्ट्रोंके पारस्परिक संघर्षोंसे पड़ती है और ये संघर्ष तब पैदा होते हैं जब एकके स्वार्थं दूसरेसे टकरा जाते हैं । स्वार्थोंकी इस टकराहट में एक व्यक्ति, एक कुटुम्ब, एक नगर और एक राष्ट्र; दूसरे व्यक्ति, दूसरे कुटुम्ब, दूसरे नगर और दूसरे राष्ट्रपर आई हुई विपत्ति मेटने में समर्थ होते हुए भी उदासीनतापूर्वक उसकी तरफसे मुख मोड़ लेता है । इतना ही नहीं, बल्कि इससे भी आगे स्वार्थों की इस टकराहट में व्यक्ति व्यक्तिके साथ, कुटुम्ब कुटुम्बके साथ, नगर नगर के साथ और राष्ट्र राष्ट्रके साथ सहिष्णुतारहित, अपमानपूर्ण और अविश्वसनीय व्यवहारतक करनेपर उतारू हो जाता है । इस तरह एक व्यक्तिका दूसरे व्यक्तिके साथ, एक कुटुम्बका दूसरे कुटुम्बके साथ, एक नगरका दूसरे नगर के साथ और एक राष्ट्रका दूसरे राष्ट्रके साथ संघर्ष होने लगता है । इस संघर्षको समाप्त करने तथा उक्त संगठनोंको सुदृढ़ बनानेके लिये जैन संस्कृति में यह उपदेश मिलता है कि जो व्यक्ति या जो कुटुम्ब, अथवा जो नगर या जो राष्ट्र, सुखी रहकर जिन्दा रहना चाहता है उसे 'आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्” अर्थात् " जो प्रवृत्ति अपने लिये प्रतिकूल हो उसका आचरण दूसरों के प्रति भी नहीं करना चाहिये" इस सिद्धान्तके अनुसार दूसरे व्यक्तियों, दूसरे कुटुम्बों, दूसरे नगरों और दूसरे राष्ट्रोंके साथ असहिष्णुता समाप्त कर सहिष्णुताका वर्ताव करना चाहिये, यानी कि क्षमाधर्म अपनाना चाहिये । उनके जीवनको अपने जीवनसे हीन न समझकर उनके जीवन अधिकारोंकी अपने साथ समानता स्वीकार करना चाहिये यानी मार्दवधर्म अपनाना चाहिये। उनके साथ स्वप्न में भी अविश्वसनीय वर्ताव एवं धोखाधड़ी करनेकी कल्पना न करते हुए सतत प्रामाणिक व्यवहार ही करना चाहिये यानी आर्जवधर्म अपनाना चाहिये और उनके ऊपर आयी हुई विपत्तियोंकी उपेक्षा न करते हुए उन्हें आवश्यकतानुसार यथा-शक्ति निःस्वार्थ सहायता भी देना चाहिये यानी सत्यधर्मको भी स्वीकार करना चाहिये । ये चारों ही धर्म जैन संस्कृति में अहिंसाकी प्रकृतिके रूपमें स्वीकार किये गये हैं । T Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ साहित्य और इतिहास : २९ आप तत्त्वदृष्टिसे विचार करें तो मालूम होगा कि आज प्रत्येक व्यक्तिने, प्रत्येक कुटुम्बने, प्रत्येक नगरने और प्रत्येक राष्ट्रने उक्त प्रकारके क्षमा, मार्दव, आर्जव और सत्यरूप अहिंसा धर्मको अपनी नासमझी के कारण अपने जीवनसे उपेक्षित कर रखा है, सर्वत्र इनके विरुद्ध असहिष्णुता, असमानता, अप्रामाणिकता और असहयोगरूप विविध प्रकारकी दूषित प्रवृत्तियोंके रूपमें हिंसाका ही प्रसार किया है। स्वयं जैन समाज ही अपनी संस्कृतिके आधारभूत उक्त उपदेशोंको भूल चुका है। इतना ही नहीं जैन संस्कृतिके रहस्यके ज्ञाता और प्रवक्ता हम जैसे विद्वानोंकी जीवन- प्रवृत्तियोंमें भी उक्त प्रकारकी हिंसाका रूप ही देखनेमें आ रहा है तथा अहिंसा धर्म के उल्लिखित रूपों का दर्शन दुर्लभ हो रहा है । कहना चाहिये कि जैन संस्कृतिका प्रकाश तो अब लुप्त ही हो चुका है, केवल नाममात्र ही जैन संस्कृतिका शेष रह गया है । सर्वत्र जैन और जैनेतर सभी वर्गोंके लोगोंकी जीवन-प्रवृत्तियां जो इतनी कलुषित हो रही हैं उसका कारण यह है कि प्रायः सभी लोग भोग और संग्रह इन दो पापोंके वशीभूत हो रहे हैं। यदि आप गहराई के साथ सोचनेका प्रयत्न करेंगे तो आपको मालूम हो जायगा कि इनकी पूर्तिके लिये ही लोग हिंसा में प्रवृत्त होते हैं, चोरी करते हैं तथा विविध प्रकारके असत्याचरण भी करते हैं। यह आश्चर्यजनक बात है कि भोग और संग्रहकी वशीभूतताकै कारण लोगोंका विवेक भी समाप्त हो गया है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि पाप होते हुए भी उन्होंने पुण्यका ठाठ मान लिया है, भले ही उस भोग और संग्रहके लिये उन्हें हिंसाका मार्ग अपनाना पड़ा हो, चोरी करनी पड़ी हो या असत्याचरण करना पड़ा हो । जैन संस्कृतिमें भोग और संग्रहको ही मुख्य पाप बतलाया गया है "लोभ पापका बाप बखाना" का पाठ जैनके बच्चे को भी भली भाँति याद है । यद्यपि यहां पर प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि भोजन, वस्त्र और आवास आदिका उपयोग मानवजीवन के लिये अत्यन्त उपयोगी है तथा इन भोजनादिकी प्राप्तिके लिये धनादि वस्तुओंका संग्रह भी मानवजीवनके लिये उपयोगी है। अतः भोग तथा संग्रहको पाप मानना कैसे उचित कहा जा सकता है ? इस प्रश्नका समाधान यह है कि जहाँतक और जिस प्रकारसे भोजनादि हमारे जीवन के लिये उपयोगी सिद्ध होते हैं वहांतक उनको उपभोग करनेका हमें अधिकार है और वहाँतक उनका उपभोग हमारे लिये पाप भी नहीं है। इसी प्रकार जीवनोपयोगी भोजनादि सामग्रीकी प्राप्तिके लिये यदि हम धनाविका संग्रह करते हैं तो वहाँ तक हमें धनादिकके संग्रह करनेका अधिकार है और वहाँतक यह भी पाप नहीं है, परन्तु हम भोजनादिकका उपभोग तथा धनाविकका संग्रह जीवनके लिये उपयोगी समझकर करते कहाँ है? हम तो अपने इस अधिकारके बाहर भोजनादिके उपभोग और धनादिके संग्रहकी बात सोचने लगे हैं। जैसे यदि भोजनका उपभोग हम अपनी भूख मिटानेके लिये करते हैं और वस्त्रका उपभोग शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये करते हैं तो ऐसा करना हमारा अधिकार है और यह पाप नहीं है, लेकिन यदि हमारा मन भोजनके स्वावमें रम जाय या वस्त्रकी किनार, डिजायन, रंग अथवा पोतपर हमारा मन ललचा जाय तो हमारा भोजन या वस्त्रका वह उपभोग पापमें गभित हो जायगा। इसी प्रकार धनके संग्रहमें जीवनकी आवश्यकताओं की पूर्ति तक ही यदि हमारा लक्ष्य सीमित रहता है तो ऐसा धन संग्रह करना हमारा अधिकार है, पाप नहीं है। लेकिन यदि अमीर बनने के लिये हम धन संग्रह करनेका प्रयत्न करने लगते है तो हमारा वह धन संग्रह पापमें गर्भित हो जायेगा । जैन संस्कृतिके इस सूक्ष्मतम तत्त्वज्ञान को समझकर हम विद्वानोंको अपने जीवन में उतारना तथा पचभ्रष्ट जैन समाजको सही मार्गपर लाकर पतनोन्मुख जैनसंस्कृतिका संरक्षण करना है और मानवमात्रको इस तस्व ज्ञानको शिक्षा देकर संपूर्ण विश्वमें जैन संस्कृतिका प्रसार भी करना है। इसलिये इस उद्देश्यकी पूर्ति के लिये कोई योजनाबद्ध प्रचारात्मक ढंग हमें निकालनेका प्रयत्न करना चाहिये । जैनसंस्कृतिके संरक्षण और विस्तार के लिये Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य और विश्वमें शान्ति तथा सुखका साम्राज्य स्थापित करनेके लिये हमारा यह सबसे बड़ा कार्यक्रम होगा। द्वितीय समस्या : तत्त्वचर्चा द्वारा गुत्थियाँ सुलझायें दि० जैनसमाजमें जैनसंस्कृतिके अध्येता, अध्यापयिता और व्याख्याता विद्वान विद्यमान हैं । परन्तु प्रायः देखनेमें आ रहा है कि संस्कृतिके तत्त्वज्ञान और आचार संबन्धी बड़ी-से-बड़ी और छोटी-से-छोटी ऐसी बहुतसीगुत्थियाँ है जो विद्वानोंके पारस्परिक विवादका स्थल बनी हुई हैं। इनके अतिरिक्त सैकड़ों ही नहीं, हजारों सांस्कृतिक गुत्थियां आगमग्रन्थों में ऐसी विद्यमान है जिनके ऊपर अभी विद्वानोंका लक्ष्य ही नहीं पहुँच पाया है। लेकिन उनका सुलझ जाना सांस्कृतिक दृष्टिसे और मानवकल्याणकी दृष्टिसे बड़ा उपयोगी हो सकता है। यदि विद्वानोंकी समझमें यह बात आ जाय कि साँस्कृतिक गुत्थियोंको सुलझाना हमारा परम कर्तव्य है और यह भी समझमें आ जाय कि सब विद्वान एक स्थानपर एक साथ बैठकर सद्भावनापूर्ण विचार-विमर्श द्वारा ही सरलतापूर्वक इस कार्यको सम्पन्न कर सकते हैं तो फिर मेरा सुझाव है कि हम अपने कार्यक्रमकी एक ऐसी स्थायी योजना बनावें, जिसके आधारपर वर्ष में कम-से-कम एक बार प्रायः सभी विद्वान एक स्थलपर बैठे तथा संस्कृतिके गूढ़तम रहस्योंकी खोज करें और विवादग्रस्त विषयोंको भी सुलझानेका प्रयत्न करें । गत वर्ष सांस्कृतिक रहस्योंकी खोजके लिये जयपुर-खानियामें विद्वानों द्वारा की गयी सद्भावनापूर्ण तत्त्वचर्चाने यह सिद्ध कर दिया है कि परस्पर-विरुद्ध विचारधारा वाले विद्वान भी एक स्थानपर एक साथ बैठकर सद्भावनापूर्ण ढंगसे तात्त्विक गुत्थियोंको सुलझानेका प्रयत्न कर सकते हैं। वास्तवमें जयपुर-खनियामें जो तत्त्वचर्चा हुई उसका ढङ्ग आदर्शात्मक रहा और उससे जो सामग्री प्रकाशमें आनेवाली है वह जैनसंस्कृतिके लिये ऐतिहासिक महत्त्वकी होगी। इसलिये तत्त्वचर्चाओंकी इस परम्पराको इसी ढङ्गसे आगे चालू रखनेका हमें ध्यान रखना ही चाहिये । उल्लिखित प्रकारकी तत्त्वचर्चाओंका महत्त्व इसलिये और है कि पुरातन सांस्कृतिक विद्वान हमारे बीचमेंसे धीरे-धीरे कालकवलित होते जा रहे हैं और आगे सांस्कृतिक विद्वान तैयार होनेके आसार ही दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं। ऐसी हालतमें यदि मौजूदा विद्वान अपने बीच उत्पन्न संस्कृति-सम्बन्धी विवाद नहीं सुलझा सके, तो जैन समाजकी भावी पीढ़ीके समक्ष हम अपराधी सिद्ध होंगे तथा जैन संस्कृतिके बहुतसे मानवकल्याणकारी गूढ़तम रहस्य हमेंशाके लिये गुप्त ही बने रहेंगे । जैन संस्कृतिका तत्त्वज्ञान तथा आचार-पद्धति सर्वज्ञताके आधारपर स्थापित होनेके कारण विज्ञानसमर्थित हैं । षद्रव्यों और सप्ततत्त्वोंकी अपने-अपने ढङ्गसे व्यवस्था, आत्मामें संसार और मुक्तिको व्यवस्था, संसारके कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग तथा मुक्तिके कारण सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र, उन्नति और अवनतिकी सूचक गुणस्थानव्यवस्था, कर्मसिद्धान्त, अनेकान्तवाद और स्याद्वाद, प्रमाण और नयकी व्यवस्था, निश्चय और व्यवहार नयोंका विश्लेषण, द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नय, नैगम आदि नयोंकी स्थापनाका आधार तथा इनमें अर्थनय और शब्द नयोंकी कल्पना आदि-आदि जैन संस्कृतिका तत्वज्ञानसे सम्बन्ध-विवेचन वैज्ञानिक और दूसरी संस्कृतियोंकी तुलनामें सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हो सकता है। इसी प्रकार जैन संस्कृतिकी आचार-पद्धतिकी व्यवस्थाएं भी समझदार लोगोंके गले उतरने वाली हैं। हाथसे कूटे गये और मिलोंसे साफ किये गये चावल में, हाथ-चक्कीसे और मशीन-चक्कीसे पीसे गये आटेमें पोषक तत्त्वोंकी हीनाधिकताके कारण उपादेयता और अनुपादेयताका प्रचार महात्मा गांधीने भी किया था। इसी प्रकार रात्रिभोजन-त्याग तथा पानी छानकर पीनेकी व्यवस्था, आटे आदिका कालिक मर्यादाके भीतर ही उपयोग करनेका उपदेश आदि जितना भी आचार-पद्धतिसे सम्बन्ध रखने वाला जैन संस्कृतिका विषय है वह भी Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ / साहित्य और इतिहास : ३१ मानवजीवनके लिये कितना हितकर है, इसे आज प्रत्येक व्यक्ति सरलतासे समझ सकता है । हमें इन सबबातोंको प्रकाशमें और प्रचारमें लाना है, इसलिये इसे भी हमें अपने कार्यक्रमका अंग बनाना चाहिये। उल्लिखित सम्पूर्ण कार्योंको सम्पन्न करनेके लिये एक उपाय यह भी हो सकता है कि बिद्वत्परिषद्का अपना एक सांस्कृतिक पत्र हो, जिसके माध्यमसे विद्वान जैनसंस्कृतिके गूढ़तम रहस्योंको प्रकाशमें लायें, परस्परके तात्त्विक विवादोंको सुलझाएं और आचार-पद्धतिकी वैज्ञानिक ढङ्गसे जनताके लिये उपयोगिता समझाएँ । अभी जैन समाजमें जितने पत्र निकलते हैं उनकी पद्धति प्रायः स्वार्थपूर्ण और संघर्षात्मक है । मैं नहीं समझता हूँ कि उनके द्वारा जनताका या संकृतिका कुछ भला हो रहा है, वे तो केवल व्यक्तिगत कषायपुष्टिके ही साधन हो रहे हैं, इसलिये हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि विद्वत्परिषद्का पत्र मौजूदा पत्रोंमें दिखाई देनेवाली बुराइयोंसे परे हो । तृतीय समस्या : विद्वानोंका संगठन और उनकी कठिनाइयाँ __कलकत्तेमें वीरशासन महोत्सवके अवसरपर जब विद्वत्परिषद्की स्थापना हुई थी उस समय वहाँ नरम और गरम, सुधारक और स्थितिपालक आदि परस्परविरोधी विचारधाराओं वाले बहुतसे सांस्कृतिक विद्वान उपस्थित थे। उक्त अवसरपर अकस्मात् एक ऐसी घटना घट गयी थी, जिससे प्रभावित होकर उपस्थित सभी सांस्कृतिक विद्वानोंने अपना संगठन बनानेका दृढ़ संकल्प किया था और उसी संकल्पके बलपर उन्होंने अपनी पारस्परिक विचार-भिन्नताको गौण करके तत्काल इम विद्वत्परिरदकी स्थापना कर डाली थी। यह विद्वत्परिषद् आज भी उसी आधारपर चल रही है यानी इसमें आज भी पारस्परिक विचारभेद रखने वाले विद्वान सम्मिलित हैं, उन्हें इससे ममता है और इसके कार्यो में बराबर हाथ बटा रहे हैं। इतना होते हुए भी जब तक हम सब मिलकर सामूहिक ढङ्गसे सर्व-साधारण विद्वानोंकी कठिनाइयोंपर गौर नहीं करेंगे तब तक हमारा यह संगठन सुदढ़ नहीं रह सकता है। विद्वत्परिषदकी स्थापनाके अवसरपर मुख्यरूपसे इस बातपर बल दिया गया था कि विद्वानोंकी कठिनाइयोंको समझा जाय और उनके निराकरण करनेके सुन्दरतम उपाय भी खीज निकाले जावें । यद्यपि विद्वत्परिषद्ने इस ओर ध्यान अवश्य दिया है परन्तु अभी तक इसमें वह पूर्णरूपसे सफल नहीं हो पायी है। विद्वानोंके सामने विद्वत्परिषद्की स्थापनाके समय जिस रूपमें कठिनाइयां विद्यमान थीं, इस समय उनका रूप कई गुणा अधिक हो गया है, इसलिये हमें विद्वानोंकी कठिनाइयोंके निराकरण करनेकी और पुनः ध्यान देना है, अतः इसके लिये कैसी योजना उचित हो सकती है, इसपर विचार करें। चतुर्थ समस्या : विद्वत्परिषद् और शास्त्रीपरिषद्का एकोकरण दिगम्बर जैन समाजमें सांस्कृतिक विद्वान तो हैं, परन्तु उनकी संख्या विशेष अधिक नहीं कही जा सकती है फिर भी विद्वानोंके नामपर विद्वत्परिषद् और शास्त्रिपरिषद् दो संस्थाये वर्तमानमें कार्य कर रही है । मेरा अपना ख्याल है कि यदि दोनों संस्थाओंका एकीकरण हो जाय तो मिली हुई कार्यशक्तिसे कार्य भी अधिक और उत्तम हो सकता है। एक बात और है कि अलगावसे पारस्परिक संघर्षको भी प्रोत्साहन मिलता है । यदि मेरा इन दोनोंके एकीकरणका सुझाव आपको मान्य हो, तो एकीकरणकी क्या भूमिका हो सकती है ? इसपर भी आपको विचार करना चाहिये । पंचम समस्या : सांस्कृतिक ज्ञानकी सुरक्षा अभी भी दिगम्बर जैन समाजके अन्दर संस्कृतिका अध्ययन कराने और सांस्कृतिक विद्वान तैयार Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ करनेके लिये बड़े-बड़े विद्यालय मौजूद हैं, समाजका आर्थिक सहयोग भी उन्हें मिल रहा है, बहुतसे विश्वविद्यालयोंकी परीक्षाओंमें जैन संस्कृतिका कोर्स रख दिया गया है और पठन-पाठनके लिये अध्यापकोंकी नियुक्तियाँ भी कर दी गयी हैं । परन्तु शिक्षण लेने वालोंकी अत्यधिक कमी दृष्टिगोचर हो रही है। इसका मूल कारण यह है कि सभी प्रकारकी शिक्षाका उद्देश्य आज नौकरी करना हो गया है और नौकरीमें भी अधिक-से-अधिक अर्थलाभकी दृष्टि बन चुकी है, जिसकी पूर्तिकी आशा सांस्कृतिक शिक्षासे कभी नहीं की जा सकती है। इस तरह सांस्कृतिक शिक्षण लेनेवालोंको कमी हो जानेके कारण भविष्यमें सांस्कृतिक ज्ञानके लुप्त हो जानेकी आशंका होने लगी है। यद्यपि यह प्रसन्नताकी बात है कि हमारे विद्यालयोंने भविष्यमें सांस्कृतिक ज्ञानकी सुरक्षाकी दृष्टिसे अपनी शिक्षणपद्धतिमें कुछ सुधार किये हैं तथा उनका लाभ इन विद्यालयोंमें पढ़ने वालोंको मिला भी है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि ऐसे विद्वान सामाजिक क्षेत्रसे बाहर अच्छे क्षेत्रोमें कार्य कर रहे हैं । परन्तु साथमें इसका यह भी परिणाम हुआ है कि ऐसे बहुतसे विद्वानोंका सामाजिक और सांस्कृतिक कार्योंसे प्रायः सम्पर्क समाप्त हो चुका है। विद्वत्परिषद्का कर्तव्य है कि वह ऐसे विद्वानोंसे सम्पर्क स्थापित करे और उनके अन्दर सामाजिक तथा सांस्कृतिक कार्योंके प्रति रुचि जागृत करे। इसके अतिरिक्त सांस्कृतिक ज्ञानकी भावी सुरक्षाको दृष्टिसे कुछ ठोस उपाय भी आपको सोचना है । इस विषयमें मेरा सुझाव है कि त्यागमार्गकी ओर बढ़ने वाले व्यक्तियोंमेंसे बुद्धिमान व्यक्तियोंको चुनकर उनमें सांस्कृतिक तत्त्वज्ञानके अध्ययनकी रुचि जागत की जावे तथा उनको विद्यालयोंमें छात्र के रूप में रहनेकी उचित सुविधा दिलायी जावे । यदि इस परम्पराके चलानेमें विद्वत्परिषद् सफल हो जाती है तो सांस्कृतिक ज्ञानकी भावी सुरक्षाका प्रश्न सुदुर भविष्य तकके लिये हल हो सकता है। एक जिस बातके ऊपर विद्वत्परिषद्का ध्यान जाना जरूरी है वह यह है कि सांस्कृतिक अध्ययनअध्यापनको जी पद्धति अभी चल रही है उससे छात्रोंको ग्रंथोंका अभ्यास तो हो जाता है परन्तु विषयके समझने में वे अन्त तक कमजोर रहा करते हैं। पढ़ने में भी उन्हें अधिक श्रम करना पड़ता है अतः सांस्कृतिक पठन-पाठनके विषयमें वैज्ञानिक पद्धति निकालनेकी योजना बनानेकी ओर भी हमारा लक्ष्य जाना चाहिये। इससे पढ़ने वाले छात्रोंको विषय सरलताके साथ समझमें आने लगेगा। साथ ही उनके श्रममें भी कभी आ जायगी । इसका एक परिणाम यह भी होगा कि अभी जो सांस्कृतिक अध्ययन करने वाले छात्र अरुचिपूर्वक सांस्कृतिक अध्ययन करते हैं यह बात न रहकर वे रुचिपूर्वक अध्ययन करने लगेंगे । एक बात यह भी प्रसन्नता की है कि हमारे सांस्कृतिक विद्वान जैन संस्कृतिके साहित्यके विषयमें ऐतिहासिक दृष्टिसे बहत कुछ सोचने और लिखने लगे हैं। इसका प्रत्यक्ष लाभ यह हआ है कि जैनेतर विद्वानोंकी रुचि जैन संस्कृतिके साहित्यका अध्ययन करनेकी ओर उत्पन्न हुई है, जैन संस्कृतिके प्रसारकी दृष्टिसे यह उत्तम बात है। इसके साथ ही हमें अपने प्राचीनतम साहित्यके आधारपर लोकभाषा हिन्दी आदि भाषाओंमें भी सांस्कृतिक मौलिक साहित्यका निर्माण करना चाहिये। हमारे पुरातन महर्षियोंने जैन संस्कृतिके साहित्यनिर्माणमें जिस प्रकार तत्कालीन लोकभाषाओंका समादर किया था, ठीक उसी प्रकार आज हमें भी करना चाहिये । यद्यपि हमारे बहुतसे विद्वानोंने पुरातन साहित्यका हिन्दी आदि भाषाओंमें अनुवाद किया है और कर रहे हैं परन्तु इतनेसे ही हमें संतोष नहीं कर लेना चाहिये। मैंने जिन बातोंका ऊपर संकेत किया है वे सब बातें विद्वत्परिषद्के उद्देश्यसे सम्बन्ध रखनेवाली है और इसके कर्त्तव्यक्षेत्रमें आती हैं। इनके अतिरिक्त आपके मस्तिष्कमें भी बहुत-सी बातें होंगी उन्हें आप भी www.jainelibrary:org Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ / साहित्य और इतिहास : ३३ यहाँपर रखेंगे । मैं चाहता हैं कि इन सब बातोंपर यहाँ गम्भीर मंथन किया जाय और उनके विषयमें यथाशक्ति कार्यक्रम निर्धारित किया जाय । कार्यक्रम भले ही छोटा हो परन्तु ठोस होना चाहिये। उपसंहार विद्वत्परिषद्का यह अधिवेशन सिवनी जैसी सांस्कृतिक नगरीमें हो रहा है। यह नगरी जैन समाजकी दृष्टिसे काफी महत्त्वपूर्ण रही है और आज भी इसका वही महत्त्व है। यहाँ जैन संस्कृतिके अच्छे ज्ञाता और अनुभवी व्यक्ति रहे हैं और आज भी हैं । यहाँके बड़े-बड़े गगनचुम्बी जैन मंदिर मध्यप्रदेशके ख्यातिप्राप्त मन्दिरोंमें हैं । इस समय मंगलमय पंचकल्याणक जिनविम्ब प्रतिष्ठा भी यहाँपर हो रही है । सभी तरहकी सुन्दर और आरामदेह व्यवस्था यहाँको समाजने बाहरसे आये हुए जनसमूहके लिये की है और स्वागत समितिने हमारा स्वागत और आतिथ्य करने में कोई कमी नहीं रहने दी है। इसके पूर्व विद्वत्परिषद्के जितने अधिवेशन हुए हैं उन सबमें प्रातःस्मरणीय पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी महाराजको प्रत्यक्ष या परोक्ष छत्र-छाया हमें प्राप्त होती रही है। परन्तु दुःख है कि यह दशम अधिवेशन उनकी छत्रछायाके बिना सम्पन्न हो रहा है। पूज्य वर्णीजीके हृदयमें प्रत्येक विद्वानके अभ्युत्थानकी उदात्त भावना थी। उन्होंने जैन समाजकी सर्वाङ्गीण उन्नतिमें जो कार्य किया है उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। उनके द्वारा प्रचारित जिनवाणीके अध्ययन-अध्यापनको हमें निरन्तर जारी रखना है। अच्छा हो कि उनकी स्मतिमें जगह-जगह 'वर्णी स्वाध्याय-शालाएँ' स्थापित की जावें और उनके माध्यमसे हमारे विद्वान् समाजमें सम्यग्ज्ञानका प्रचार करें। __ अपना भाषण समाप्त करते हुए विद्वत्परिषदके माननीय सदस्यों, सिवनीकी जैन समाज और सभी उपस्थित जनसमुदायसे प्रार्थना है कि अज्ञान और कार्यशक्तिकी अल्पताके कारण जो त्रुटियों रही हों, आप सब उनपर ध्यान न देंगे। ५-५ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति और तत्त्वज्ञान' सार वीतरागविज्ञानता । तीन भुवन में शिवस्वरूप शिवकार नमहुँ त्रियोग सम्हारिके ॥ गत वर्ष विद्वत्परिषद्का साधारण अधिवेशन मध्यप्रदेशकी सिवनी नगरीमें त्रैलोक्याधिपति श्री १००८ जिनेन्द्रदेव के पञ्चकल्याणक महोत्सव के अवसरपर इसी फरवरी मास में हुआ था । उसके एक वर्ष पश्चात् यहाँपर उसका यह नैमित्तिक अधिवेशन हो रहा है । सिवनी में हुए साधारण अधिवेशनके अवसरपर मैंने अपने अध्यक्षीय भाषण में विद्वत्परिषद् के उद्देश्योंके अनुकूल कुछ अवश्य विचारणीय समस्यायें प्रस्तुत की थीं। प्रसन्नता की बात है कि उनको लक्ष्यमें रखकर उस अधिवेशन में माननीय सदस्यों द्वारा कुछ निर्णय भी लिये गये थे । उन निर्णयोंके आधारपर विद्वत्परिषद्ने गत एक वर्ष में क्या प्रगति की है ? इसकी जानकारी विद्वत्परिषद्‌के सुयोग्य मंत्री जी आपको देंगे । सर्वप्रथम यह निवेदन करना चाहता हूँ कि एक वर्षके अनन्तर हमें पुनः विद्वत्परिषद्का अधिघेशन जैन संस्कृति की प्राचीनतम और गौरवपूर्ण पवित्र तीर्थभूमि इस श्रावस्ती नगरीमें हो रहे पञ्चकल्याणक महोत्सव के अवसरपर नैमित्तिकरूपसे करनेका उत्तम योग प्राप्त हुआ है । भावना है कि हमारी श्रमशक्तिका अधिक-से-अधिक उपयोग विद्वत्परिषद्की गतिशीलताको जीवित रखकर उसको सुदृढ़ बनाने और उसके उद्देश्योंकी पूर्ति करने में हो सके । विद्वत्परिषद्का वर्तमान में जो कार्यक्रम चालू है उसके विषय में विद्वत्परिषद्के सिवनी अधिवेशन द्वारा निर्णीत किये गये महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव आधार हैं । उन प्रस्तावोंको आपके समक्ष दुहरा देना उचित समझता हूँ व आशा करता हूँ कि आप उन्हें सावधानीसे श्रवण करेंगे तथा उनपर गम्भीरतापूर्वक विचार करेंगे । “विद्वत्परिषद्का यह अधिवेशन अनुभव करता है कि जैनतत्त्वज्ञान और संस्कृतिको आधुनिक ढंगसे प्रकट करनेके लिये आवश्यक है कि विद्वत्परिषद् ऐसी गोष्ठियोंका अधिवेशनपर आयोजन करें, जिनमें जैन विषयोंपर शोधपूर्ण एवं परिचयात्मक निबन्ध पढ़े जायें और उन निबन्धोंको एक स्मारिकाके रूपमें प्रकट किया जाय । " ( प्रस्ताव ६ ) "दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् यह प्रस्ताव पास करती है कि जो अंग्रेजीके विद्वान होने के साथ ही संस्कृत एवं धर्मके ज्ञाता विद्वान् हैं उनसे सम्पर्क बनाया जाय और उनसे अनुरोध किया जाय कि वे विद्वत्परिषद् सम्बन्धित होकर सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्र में कार्य करें, ताकि जैन संस्कृति अक्षुण्य बनी रहे ।” (प्रस्ताव ७ ) "विद्वत्परिषद् के द्वारा प्रयास किया जावे कि रेडियोपर प्रसारित करने योग्य प्राचीन पद तथा अन्य सामयिक भाषण आदि अच्छी और उपयुक्त सामग्री उपलब्ध की जासके तथा प्रचारमंत्रालयको इस दिशा में प्रेरित भी किया जावे । " ( प्रस्ताव ९ ) " समाजमें विद्वानोंकी परम्पराको अक्षुण्ण रखनेके लिये विद्वत्परिषद् प्रस्ताव करती है कि गृहविरत त्यागियोंके हृदय में भी ज्ञानवृद्धिकी भावनाको जाग्रत करके किसी विद्यालयमें उनके शिक्षणकी व्यवस्था की जावे व विद्यालय इसके लिये त्यागियोंके उपयुक्त सब व्यवस्थाका उत्तरदायित्व लेकर ज्ञानप्राप्तिका सुअवसर प्रदान करें ।" (प्रस्ताव १० ) १. श्रावस्ती में १९६६ में आयोजित वि० प० के नैमि० अधिवेशनपर अध्यक्षपद से दिया गया भाषण । Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ / साहित्य और इतिहास : ३५ "जैन साहित्य के विविध अंगोंपर राष्ट्रभाषा हिन्दीमें रचित गद्य और पद्यकी मौलिक रचनाओंको प्रतिवर्ष पुरस्कृत करने की योजना कार्यान्वित करके विद्वत्परिषद्के द्वारा ऐसे साहित्यसृजनको विशिष्ट प्रेरणा और गति दी जावे । " ( प्रस्ताव ११ ) "विद्वत्परिषद् के प्रत्येक अधिवेशन में समाजके योग्यतम विद्वानोंको सार्वजनिक रूपसे सम्मानित किया जावे | यह सम्मान संबन्धित विद्वान्‌की समाजसेवा, साहित्यसेवा तथा अन्य धर्महितकारी गतिविधियों के आधारपर प्राप्त साधनोंके अनुसार परिचय-ग्रन्थ, अभिनन्दन ग्रन्थ अथवा प्रशस्तिपत्रके द्वारा किया जावे।" ( प्रस्ताव १२ ) अलग-अलग ढंगके हैं । लेकिन इन ये छहों निर्णय यद्यपि अपने-अपने स्वतन्त्र वैशिष्ट्यकी रखते हुए सभी में विद्वत्परिषद्का एक ही ध्येय गर्भित है और वह है जैन संस्कृतिका संरक्षण, विकास तथा प्रसार । जैन संस्कृतिके संरक्षण, विकास और प्रसारकी आवश्यकतापर मैंने सिवनी अधिवेशन के अवसरपर पठित अपने भाषण में विस्तार से चर्चा की थी । उसमें मैंने बतलाया था कि विश्वकी सम्पूर्ण मानवसमष्टिके जीवनपर यदि दृष्टि डाली जाय तो यह बात अच्छी तरह समझी जा सकती है कि प्रत्येक मानव-हृदयमें अनधिकारपूर्ण और न करने योग्य असीमित भोग व संग्रहकी आकांक्षायें उद्दीप्त हो रही हैं तथा इनकी पूर्तिके लिये ही सम्पूर्ण विश्व अहिंसा मार्गसे विमुख होकर परस्परके संघर्ष में रत हो रहा है । यद्यपि इस तरह की आकांक्षायें व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्वके लिये अहितकर हैं, तो भी इनके उन्मादमें मानवमात्रका विवेक समाप्त हो चुका है और इस तरह सम्पूर्ण मानवसर्माष्टका जीवन त्रस्त है व प्रत्येक मानवहृदय में अशान्ति तथा आकुलतायें बढ़ती ही चली जा रही हैं । जैन संस्कृतिके पुरस्कर्ता महर्षियोंने इन सब प्रकारको बुराईयों को मानवसमष्टिसे हटाने के लिये अपने अनुभवके बलपर कुछ वैज्ञानिक सिद्धान्त मानवजीवनके संचालनके लिये स्थिर किये थे, जिनके प्रति हमारी उपेक्षाबुद्धि हो जानेके कारण यह समस्त पृथ्वीतल नरकका महाविकराल - रूप धारण किये हुए दृष्टिगोचर हो रहा है। लेकिन यदि अब भी उन सिद्धान्तों को समझकर हम अपने जीवनमें उन्हें ढाल लें तो यही पृथ्विीतल स्वर्गका सौन्दर्यपूर्ण अनुपम रूप भी धारण कर सकता है । विचारकी बात है कि जब भरतक्षेत्रके इस आर्यखण्ड में भोगभूमिका वर्तमान था, तो उस समय सम्पूर्ण मानवसमष्टि सुख और शान्तिपूर्वक रहती थी। इसका कारण यह था कि उस समय प्रत्येक मानव अपना जीवन आकांक्षाओंके आधारपर संचालित न करके आवश्यकताओंके आधारपर ही संचालित करता था । आवश्यकतायें भी प्रत्येक मानवके जीवनकी कम हुआ करती थीं, इसलिये एक तो उसका उपभोग्य पदार्थोंका उपभोग कम हुआ करता था । दूसरे, उसके हृदयमें उपभोग्य पदार्थोंके प्रति आकर्षणका अभाव होनेसे वह उनके संग्रहसे भी सदा दूर रहा करता था । इस प्रकार उस समय सभी मानव परस्पर घुलमिलकर समानरूपसे ही रहा करते थे, उनमें परस्पर कभी भी संघर्षका अवसर नहीं आ पाता था । आज हालत बिलकुल विपरीत है । प्रत्येक व्यक्तिने अपनी आवश्यकतायें अप्राकृतिक ढंगसे अधिकाधिकरूपमें बढ़ा रखी हैं और वह बढ़ती ही चली जा रही हैं । इसके अलावा सभी प्रकारकी उपयोगी वस्तुओंके अमर्यादित संग्रहकी ओर भी प्रत्येक व्यक्ति झुका चला जा रहा है । इस तरह सम्पूर्ण मानव- समष्टिका जीवन परस्परकी विषमताओंसे भरा हुआ है । ऐसी हालत में संघर्ष होना अनिवार्य ही समझना चाहिये । जैन संस्कृतिके तत्त्वज्ञानमें ऐसे सभी संघर्षोंको समाप्त करनेकी क्षमता पायी जाती है, कारण कि वह मानवमात्रको न्यायोचित मार्गपर चलनेकी शिक्षा देता है । इतना ही नहीं, वह उसे ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मों Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ व शरीरादि नोकर्मों के साथ अपथकभावको प्राप्त आत्माको इनसे पृथक करके स्वतन्त्र बनानेके मार्गपर भी चलनेकी शिक्षा देता है । इस तरह जाना जा सकता है कि जैन संस्कृतिका सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान दो भागोंमें विभक्त है। उनमेंसे एक भाग तो प्राणियोंके जीवनको सूखी बनामें समर्थ लौकिक तत्त्वज्ञानका है जिसे जैन संस्कृतिके आगमग्रन्थों में “सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ! ॥" के रूप में प्रतिपादित किया गया है और दूसरा भाग आत्माको स्वतन्त्र बनाने में समर्थ आध्यात्मिक तत्त्वज्ञानका है, जिसे आगमग्रन्थोंमें 'अहमिक्को खलु सुद्धो' इत्यादि वचनों द्वारा आत्मतत्त्वकी पहिचान करके उसे प्राप्त करनेके मार्ग के रूपमें प्रतिपादित किया गया है। जैन संस्कृतिके लौकिक तत्त्वज्ञानका मूल आधार उल्लिखित पद्य द्वारा निर्दिष्ट "जियो और जीने दो" का सिद्धान्त है । अतः जैन संस्कृतिके पुरस्कर्ता तीर्थंकरों, विकासकर्ता गणधरदेवों और प्रसारकर्ता आचार्योंने उद्घोषणा की है कि भो ! मानव प्राणियो ! यदि तुम अपना जीवन सुख और शान्तिपूर्वक व्यतीत करना चाहते हो तो जैन संस्कृतिके "जियो और जीने दो" इस सिद्धान्तको हृययंगम करो, क्योंकि इसमें मनके संकल्पोंको पवित्र तथा वाणीको अमृतमयो बनानेकी क्षमता विद्यमान है व इसके प्रभावसे प्राणियोंकी जीवनप्रवृत्तियाँ भी एक-दूसरे प्राणियोंके जीवनको अप्रतिघाती बन जाती हैं। यही कारण है कि भगवज्जिनेन्द्र के पुजारीको अपने जीवनमें "जियो और जीने दो'का सिद्धान्त अपनानेके लिये प्रतिदिन पूजाकी समाप्तिपर यह उद्घोष करनेका जैन संस्कृतिके आगमग्रन्थोंमें उपदेश दिया गया है कि "क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपालः काले काले च सम्यग् वर्षतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् । दुभिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मास्मभूज्जीवलोके जैनेन्द्रं धर्मचक्र प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि ॥" इसके अर्थको प्रकट करनेवाला सर्वसाधारणको समझमें आने योग्य हिन्दी पद्य निम्न प्रकार है "होवे सारी प्रजाको सुख, बलयुत हो धर्मधारी नरेशा ' होवै वर्षा समय पै, तिलभर न रहै व्याधियोंका अंदेशा । होवे चोरी न जारी, सुसमय वर्ते, हो न दुष्काल भारी सारे ही देश धाएँ जिनवरवृषको, जो सदा सौख्यकारी॥" इससे यह बात अच्छी तरह ज्ञात हो जाती है कि प्रत्येक मानवको अपने जीवनमें सुख और शान्ति लानेके लिये सम्पूर्ण मानव-समष्टिके जीवनमें सुख और शान्ति लानेका ध्यान रखना परमावश्यक है। जैन संस्कृतिके आध्यात्मिक तत्त्वज्ञानकी विशेषता यह है कि इसे पाकर यह तुच्छ मानव देहधारी प्राणी अपनी जन्म और मरणकी प्रक्रियाको समाप्त करके हमेशाके लिये अजर-अमर बनकर नित्य और निरामय स्वातंत्र्य-सुखका उपभोक्ता हो जाता है। इस तन्वज्ञानके आधारपर मानव-जीवनके विकासके अनुसार आत्मविकासको प्रक्रियाका विवेचन जैन संस्कृतिके आगमग्रन्थोंमें निम्न प्रकार उपलब्ध होता है जब कोई बिरला मनुष्य "जियो और जीने दो"के सिद्धान्तानुसारी लौकिक धर्ममार्गपर चलकर उपलब्ध किये गये जीवनसम्बन्धी (लौकिक) सुखकी पराधीनता और विनशनशीलताको समझकर उसके प्रति Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ / साहित्य और इतिहास : ३७ अपने अन्तःकरणमें विरक्तिभाव जागृत कर लेता है तथा "नित्य और निरामय सुख आत्माके स्वतन्त्र हो जानेपर ही प्राप्त हो सकता है" ऐसा जानकर वह मुमक्ष बन जाता है तो उसके उस विरक्तिभावसे भरे हए अन्तःकरणसे यह आवाज अनायास ही निकलने लगती है कि "मेरे कब हो वा दिनकी सुघरी तन, बिन बसन, असन बिन, वनमें निवसों, नासादष्टि धरी" अर्थात् वह विचारने लगता है कि मुझे कब उस दिनका शुभ अवसर प्राप्त हो, जिस दिन मैं नग्न दिगम्बरमद्राको धारण करके वनको अपना निवास स्थल बना लं? और अपनी इस भावनाको सुदढ़ करता हआ वह आगे चलकर जब वास्तवमें वनवासी हो जाता है तब उसके परिणामोंकी वृत्ति भी "अरि-मित्र, महल-मसान, कंचन-कांच, निन्दन-थुतिकरन, अर्घावतारण-असिप्रहारणमें सदा समता धरन ।" -के रूपमें चमक उठती है। इतना ही नहीं, वह इतने मात्रसे सन्तुष्ट न होकर आगे अपनी प्रवृत्तियोंकी बहिर्मुखताको समाप्त करके उन्हें अन्तर्मुखी बनाकर मन, वचन और काय सम्बन्धी योगोंकी निश्चलता प्राप्त करता हुआ आत्माका इस तरह ध्याता बन जाता है कि मृग भी उसे पाषाण समझकर निर्भयताके साथ उसके पास आकर अपनी खाज खुजलाने लग जाता है और अन्तमें उसकी यहाँ तक स्थिति बन जाती है कि उसे इतना भी पता नहीं रह जाता है कि कौन तो ध्याता है ? किसका ध्यान किया जा रहा है ? और वह ध्यानक्रिया भी कैसी हो रही है ? अर्थात् उस समय वह केवल शुद्धोपयोगरूप ऐसा निश्चलदशाको प्राप्त हो जाता है, जिसके होनेपर वह यथायोग्य क्रमसे कर्मों तथा नोकर्मों के साथ विद्यमान आत्माकी परतन्त्रताको समूल नष्ट करके अन्तमें अपना चरमलक्ष्यभूत परमपद अर्थात् आत्मस्वातंत्र्यस्वरूप मोक्षको प्राप्त कर लेता है। . लौकिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकारके तत्त्वज्ञानोंमेंसे लौकिकतत्त्वज्ञान तो जैन संस्कृतिको बाह्य आत्मा है क्योंकि इससे हमें अपने जीवनको सुखी बनानेका मार्ग प्राप्त होता है और आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान उसकी (जैन संस्कृतिकी) अन्तरंग आत्मा है क्योंकि इससे हमें आत्माको स्वतन्त्र बनानेका मार्ग प्राप्त होता है । यद्यपि प्रत्येक मनुष्यका कर्तव्य है कि वह आत्माको स्वतन्त्र बनानेके मार्गकी प्राप्तिको अपने जीवनका मुख्य लक्ष्य निर्धारित करे तथा मुमुक्षु बनकर वह अपने शरीरको अधिक-से-अधिक स्वावलम्बी बनानेका प्राकृतिक ढंगसे प्रयास करे और इस तरह उसका शरीर जितना-जितना स्वावलम्बी बनता जाय उतना-उतना ही वह अणुनतों व इससे भी आगे महावतोंके रूप में क्रमशः शरीरसंरक्षण के लिये तब तक आवश्यक परवस्तुओंका अवलम्ब छोड़ता चला जाय, परन्तु अन्तःकरणमें मोक्षप्राप्तिकी भावनाका जागरण न होनेसे जो अभी तक ममक्ष नहीं बन सके अथवा मोक्षप्राप्तिकी भावनाका अन्तःकरणमें जागरण हो जानेपर भी जो अपने शरीरको स्वावलंबी बनानेमें असमर्थ हैं उन्हें भी “जियो और जीने दो'के सिद्धान्तानुसार सम्पूर्ण मानवसमष्टिके संरक्षणकी चिन्ता रखते हुए उसके साथ घुलमिलकर समानरूपमें रहनेका अपना जीवनमार्ग निश्चित करना परमावश्यक है क्योंकि इसके बिना न तो उनका जीवन उदात्त और सुख-शान्तिमय हो सकता है और न वे अपने जीवनको आध्यात्मिकताकी ओर मोड़ सकते हैं। जिन महापुरुषोंने पूर्व में जब भी आध्यात्मिक धर्मके मार्गपर चलनेकी ओर कदम बढ़ाया है तो उन्होंने अपने जीवनमार्गको "जियो और जीने दो"के सिद्धान्तानुसार परिष्कृत करनेका सर्व प्रथम प्रयत्न किया है। मैंने इस भाषणके प्रारम्भमें श्रद्धेय पं० दौलतरामजी कृत छहढालाके जिस मंगलमय पद्यके द्वारा Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ मङ्गलाचरण किया है उससे मेरे उल्लिखित कथनका ही समर्थन होता है। उस पद्य में वीतराग-विज्ञानताको तीनों लोकोंमें श्रेष्ठ प्ररूपित करते हुए उसके समर्थनके लिये जो "शिवस्वरूप' और 'शिवकार' ये दो पद निक्षिप्त किये गये हैं उनमेंसे 'शिवस्वरूप' पदसे तो वीतराविज्ञानताको स्वयं आनन्दस्वरूप बतला दिया गया है और 'शिवकार' पदसे उस वीतराग-विज्ञानताको आनन्दका कारण भी प्ररूपित कर दिया गया है । जहाँ वीतरागविज्ञानताको आनन्दस्वरूप कहा गया है वहाँ तो उसका आशय मानवजीवनके आध्यात्मिक चरमोत्कर्षसे लिया गया है और उस वीतरागविज्ञानताको जहाँ आनन्दका कारण स्वीकार किया गया है वहाँ उसका आशय मूलतः अन्तःकरणमें उद्धृत विवेक या सम्यग्दर्शनके साथ यथायोग्यरूपमें पाये जानेवाले उस ज्ञानसे लिया गया है जिसे "जियो और जीने दो"के सिद्धान्तकी आधारभूमि कहा जा सकता है। अब इससे मेरे उल्लिखित कथनका समर्थन किस प्रकार होता है, इसका स्पष्टोकरण निम्न प्रकार जानना चाहिये। वीतराग शब्दमें जो रागशब्द गर्भित है वह द्वेषका भी उपलक्षण है। इस प्रकार जो ज्ञान राग अथवा द्वेषसे प्रभावित न हो उस ज्ञानको ही जैन संस्कृतिमें 'वीतरागविज्ञान' शब्दसे पुकारा गया है। जीवमें राग और द्वेष दोनोंकी उत्पत्ति दो प्रकारसे हुआ करती है। उन दोनों प्रकारों से एक प्रकार तो दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे जीवमें ही उत्पन्न होनेवाला मोहपरिणाम यानी जीवका परपदार्थोंमें अहंभाव या ममभाव है और दुसरा अन्तरायकर्मके देशघातिस्पर्धकोंके उदयसे जीवमें ही उत्पन्न होनेवाली जीवनसम्बन्धी भोग, उपभोग आदि पर पदार्थोंकी अधीनता यानी परवशता या मजबूरी है। यद्यपि राग और द्वेष दोनों चारित्रमोहनीयकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले आत्मपरिणाम है । परन्तु ये दोनों ही परिणाम जीवमें या तो उक्त मोहरूप आत्मपरिणामकी प्रेरणा मिलनेपर उत्पन्न होते हैं या फिर जीवकी जीवनसम्बन्धी भोगादिपरवशता रूप आत्मपरिणामकी प्रेरणा मिलनेपर उत्पन्न होते हैं। मनमें उत्पन्न होनेवाली अनधिकारपूर्ण और अकरणीय आकांक्षाओंकी पूतिके कारणोंके प्रति होनेवाले प्रीतिरूप आत्मपरिणामका नाम मोहनीयकर्मके उदयसे उत्पन्न उक्त मोहरूप आत्मपरिणामकी प्रेरणा मिलनेपर उत्पन्न होने वाला रागभाव है और उक्त प्रकारकी उन आकांक्षाओंकी पूर्तिमें बाधा पहुँचाने वाले कारणोंके प्रति होनेवाले अप्रीति व आत्मपरिणामका ही नाम उक्त मोहरूप आत्मपरिणामकी प्रेरणा मिलनेपर उत्पन्न होनेवाला द्वषभाव है। इसी प्रकार जीवके भोग और उपभोग आदि परवस्तुओंकी अधीनताको प्राप्त जीवनकी जो भी आवश्यकतायें हों उनकी पूतिके कारणोंका उपयोग करने रूप आत्मपरिणामका नाम अन्तरायकर्मके देशघातिस्पर्द्धकोंके उदयसे उत्पन्न परवशतारूप आत्मपरिणामकी प्रेरणा मिलनेपर उत्पन्न होनेवाला रागभाव है और उक्त प्रकारको आवश्यकताओंकी पूर्तिमें बाधा पहँचानेवाले कारणोंका प्रतिरोध करने रूप आत्मपरिणामका नाम उक्त परवशतारूप आत्मपरिणामकी प्रेरणा मिलनेपर उत्पन्न होनेवाला द्वद्वेष भाव है। दर्शनमोहनीयकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले उक्त मोहको प्रेरणासे उत्पन्न होनेवाले राग और द्वेष और अन्तरायकर्म के देशघातिस्पर्धकोंके उदयसे उत्पन्न होनेवाली उक्त परवशताकी प्रेरणासे उत्पन्न होनेवाले राग और दूषके अन्तरको सरलतासे समझनेके लिये उदाहरणके रूपमें यह बात कही जा सकती है कि अभी कुछ मास पूर्व जो पाकिस्तान और भारतके मध्य भयंकर युद्ध हुआ था उसने पाकिस्तानके राष्ट्रपतिकी इच्छा भारतको पददलित करनेकी थी इसलिये उनका वह युद्ध करने रूप परिणाम मोहकी प्रेरणासे उत्पन्न होनेवाला द्वेषभाव था और चूँकि जब पाकिस्तानका भारतपर आक्रमण हो गया तो भारतको भी परवश युद्धमें कूदना पड़ा । इसलिये भारतके तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री लालबहादुर शास्त्रीका परवशताकी प्रेरणासे उत्पन्न होनेवाला द्वषभाव था। उन दोनोंके द्वेषभावमें अन्तर विद्यमान रहने के कारण ही विवेकशील देशोंने Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाकिस्तान के पक्षको अन्यायका और भारतके पक्षको न्यायका पक्ष माना है । मोहके कारण उत्पन्न होनेवाले राग और द्वेष प्राणियोंके जीवनको अशान्त और संघर्षमय बनाते हैं। जबकि परवशता (पराधीनता) के कारभ उत्पन्न होनेवाले राग और द्वेष प्राणियोंके जीवनकी सुखशान्तिमें बाधक न होकर केवल आध्यात्मिक जीवनके विकासमें बाधक होते हैं। इसको जैनागमके आधारपर यों कहा जा सकता है कि मोहके कारण होनेवाले राग और द्व ेष अनन्तानुबन्धी कषायरूप होते हैं, इसलिये वे जीवोंको विवेकी या सम्यग्दृष्टि बननेसे रोकते हैं अर्थात् इससे उनका (जीवोंका) जीवन अशांत और संघर्षमय बना रहता है। इसी तरह परवशता ( पराधीनता) के कारण उत्पन्न होनेवाले राग और द्वेष अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषायरूप होते हैं इसलिये वे जीवोंको चारित्रकी ओर बढ़नेसे रोकते हैं अर्थात् इसके कारण वे अपना जीवन भोजन, वस्त्र, आवास आदिके बिना सुरक्षित रखने में असमर्थ रहा करते हैं । उपर्युक्त कथनका तात्पर्य यह है कि जिस जीवके मोहका अभाव हो जानेसे उसके कारण उत्पन्न होनेवाले अनन्तानुबन्धी कषायरूप राग और द्वेष समाप्त हो जाते हैं उस जीवमें वीतरागविज्ञानताका प्रारम्भिक रूप आ जाता है और फिर इसके पश्चात् एक ओर तो धीरे-धीरे अन्तरायकर्मके देशघातिस्पर्द्धकों के उदयका अभाव होते हुए वह पूर्णतया नष्ट हो जावे तथा दूसरी ओर उत्तरोत्तर अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कवायके कमसे राग और द्वेष भी धीरे-धीरे पटते हुए अन्तमें पूर्णतया नष्ट हो जावे व इसके अलावा ज्ञान भी इसके बाधक समस्त ज्ञानावरण कर्मका अभाव हो जानेसे पूर्णतया प्रकट हो जावे, तो ऐसी स्थिति जब बन जाती है तब उस जीवमें वीतरागविज्ञानता अपने चरमउत्कर्ष पर पहुँच जाती है । ५ / साहित्य और इतिहास ३९ वीतरागविज्ञानताका उक्त प्रारम्भिकरूप प्रकट हो जानेसे जब जीव है तब अशांति व संघर्षका बीज समाप्त हो जानेके कारण उसको भावना में, कार्यमे "जियो और जीने दो' के सिद्धान्तकी झलक दिखाई देने लगती है। लौकिक धर्म इसीका नाम है । यही जीव जब आगे चलकर अप्रत्याख्यानावरण कषायको किंचित् हानि हो जानेपर मोक्षप्राप्तिके प्रति उत्सु कतारूप दर्शनप्रतिमाका पारी हो जाता है तब वह सर्वप्रथम "मुमुक्षु" संज्ञाको प्राप्त होता है और वह जीव वहीं से आध्यात्मिक धर्मके मार्ग में प्रवेश करता है । यहाँसे लेकर जिस जीव में अध्यात्मिक धर्मका मार्ग जैसाजैसा विकसित होता जाता है उसके लौकिक धर्मके मार्गका दायरा वैसा-वैसा ही संकुचित होता जाता है। अर्थात् इसके लिये उक्त क्रमसे जीवनसंरक्षणका प्रश्न गौण व आत्मविकासका प्रश्न मुख्य हो जाता है। इस तरह उस हालत में जो कुछ वह सोचता है और जो कुछ वह करता है उसका मेल वह मुख्यतया अपने आत्मविकासके साथ ही बिठलाने लगता है । विवेकी या सम्यग्दृष्टि बन जाता उसकी वाणी में और उसके प्रत्येक इस विषयको इस तरह भी स्पष्ट किया जा सकता है कि लौकिक धर्म प्रवृत्ति-परक धर्म है और आध्यात्मिक धर्म निवृत्तिपरक धर्म है। जिस व्यक्ति के सामने केवल जीवनके संरक्षणका प्रश्न ही महत्त्वपूर्ण है उसका कर्त्तव्य है कि वह प्रवृत्तिपरक लौकिकधर्मके मार्गपर चले । अर्थात् वह अपनी प्रवृत्ति ऐसा निर्णय करके करे कि वह प्रवृत्ति किस दृष्टिसे और कहाँ तक न्यायोचित है तथा स्वके लिये व समाज, राष्ट्र एवं विश्वके लिये किसी भी प्रकार विघातक नहीं है । परन्तु लौकिक धर्मके मार्गपर चलनेवाले व्यक्ति के लिये स्व, तथा समाज एवं राष्ट्रकी रक्षाके निमित्त यदि कदाचित् आवश्यक हो जावे तो न्यायोचित तरीकेसे शस्त्रका उपयोग करना भी जैन संस्कृतिके धार्मिक तत्त्वज्ञान के अनुसार अहिंसाकी परिधि में आता है । इसलिये भारत पर पाकिस्तान द्वारा आक्रमण किये जानेपर भारतको अपनी रक्षाके लिये जो युद्धमें प्रवृत्त होना पड़ा उससे भारतको किसी भी प्रकार हिंसक नहीं माना जा सकता है और न इससे उसकी (भारतको) अहिंसक नीतिमें कोई अन्तर ही उत्पन्न होता है । 1 Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० : सरस्वती-वरदपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य उक्त लौकिक धर्मके मार्ग पर चलनेके लिये मनुष्यको मनोबलकी बड़ी आवश्यकता है। जिस व्यक्तिमें मनोबलका अभाव है उसका मन कभी उसके नियंत्रणमें रहनेवाला नहीं है और अनियन्त्रित मनवाला व्यक्ति हमेशा लोकमें अन्याय और अत्याचार रूप अनुचित तथा जीवन-संरक्षणके लिये अनुपयोगी व अनावश्यक प्रवृत्तियाँ किया करता है जिससे उसके जीवनमें सुख और शांति सही अर्थों में कभी आ ही नहीं सकती है । ऐसे व्यक्तिको जैन संस्कृतिके धार्मिक तत्त्वज्ञानके अनुसार मिथ्यादृष्टि या अधर्मात्मा कहा जाता है । जो व्यक्ति अपनेको मनोबलका धनी बना लेता है उसका मन उसके नियंत्रणमें हो जाता है तब वह व्यक्ति उक्त प्रकारकी अनुचित, अनुपयोगी और अनावश्यक प्रवृत्तियोंको समाप्त कर केवल उचित उपयोगी और आवश्यक प्रवृतियों तक हो अपना प्रयास सीमित कर लेता है । व्यक्तिके इस प्रकारके प्रयाससे लोकमें सघर्ष समाप्त होकर शांति स्थापित हो सकती है तथा व्यक्तिके जीवनमें सुख और शान्ति आ सकती है। जो व्यक्ति जब उचित, उपयोगी और आवश्यक प्रवृत्तियों तक ही अपना व्यपार सीमित कर लेता है तब जैन संस्कृतिके धार्मिक तत्त्वज्ञानके अनुसार उसे सम्यग्दृष्टि या लौकिक दृष्टिसे धर्मात्मा कहा जा सकता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति जब अपने जीवन-संरक्षणके प्रश्नको गौणकर आत्मस्वातंत्र्यके प्रश्नको प्रमुख बना लेता है तब उसका कर्तव्य हो जाता है कि वह यथाशक्ति निवृत्तिपरक आध्यात्मिक धर्मके मार्गपर चले । आध्यात्मिक मार्गपर चलने के लिये प्रत्येक व्यक्तिको मनोबलके साथ-साथ जीवनकी भोगादि वस्तुओंकी पराधीनताको समाप्त करनेवाले शारीरिक बल और आत्मबलकी भी आवश्यकता है। जैनागममें वणित बाह्यतपशारीरिकबलकी वृद्धिके और अन्तरंग तप आत्मबलकी वृद्धिके कारण हैं। जिस व्यक्तिके अन्दर ये दोनों ही बल जितनी वृद्धिको प्राप्त होते जावेंगे उस व्यक्तिके सामने जीवनसंरक्षणका प्रश्न उतना ही गौण होता जायगा । इस तरह वह व्यक्ति धीरे-धीरे प्रवृत्ति कर लौकिकधर्मके मार्गसे ऊपर उठता हआ क्रमशः अणव्रत और महाव्रत आदिके रूपमें निवृत्तिपरक आध्यात्मिक धर्मके मार्गपर अग्रसर होता जायगा और इसके एक सीमा तक पहुँच जानेपर वह इतना आध्यात्मिक दृष्टिसे धर्मात्मा बन जाता है कि वह अपने जीवनसंरक्षणके लिये शस्त्रादिकका उपयोग करना तो दूरकी बात है, अपितु इससे भी आगे वह ऐसी प्रवृत्तियोंका भी त्यागी बन जायगा, जिन प्रवृत्तियोंका साक्षात् या परंपरया आत्मविकाससे सम्बन्ध न हो अथवा जिनका त्याग करना उसे थोड़ा भी सम्भव हो । ऐसा व्यक्ति अपने आत्मविकासके लिये निःस्पृहतापूर्वक जीवनको तुच्छ समझकर अवसर आनेपर निद्वतापूर्वक मृत्युको भी वरण कर लेगा। जैन संस्कृतिमें प्रवृत्तिपरक लौकिक धर्म और निवृत्तिपरक आध्यात्मिक धर्मके मध्य यही अन्तर प्रतिपादित किया गया है। इस तरह जैन संस्कृतिके धार्मिक तत्वज्ञानको जो विवेचना यहाँ पर की गई है उससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि प्रत्येक व्यक्तिको अपने जीवनकी सुरक्षाके लिए अनुचित, अनुपयोगी और अनावश्यक भोग तथा संग्रहरूप प्रवृत्तियों (जिन्हें अधर्मके नामसे पुकारा गया है) का सर्वथा त्यागकर उचित, उपयोगी और आवश्यक भोग तथा संग्रहरूप प्रवृत्तियों (जिन्हें लौकिक धर्म के नामसे पुकारा गया है) को स्वीकार करना ही उत्तम मार्ग है और जिनके अन्तःकरणमें आत्मस्वातंत्र्य प्राप्त करने की उत्कट भावना जाग्रत हो चुकी है अर्थात् जो मुमुक्षु बन चुके हैं उन्हें लौकिक धर्म के नामसे पुकारो जानेवालो प्रवृत्तियोंको भी त्यागकर निवृत्तिरूप आध्यात्मिक धर्मको अपनाना ही उत्तम मार्ग है । जैन संस्कृतिके इस धार्मिक तत्त्वज्ञानके संरक्षण, विकास और प्रसारके लिए ही विद्वत्परिषद्ने सिवनी अधिवेशनमें उपर्युक्त छह प्रस्ताव पारित किये थे । इसलिये उन्हें क्रियात्मकरूप देने के लिये हमे अपनी पूरी शक्ति लगानेकी आवश्यकता है। उनमेंसे प्रस्ताव संख्या ६ व ७ को क्रियात्मकरूप दिया जा चुका है जिससे अनुमान होता है कि इनकी सफलता असंदिग्ध है । Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ / साहित्य और इतिहास : ४१ प्रस्ताव संख्या ९ को कार्यान्वित करनेके लिये जो उपसमिति सिवनी अधिवेशन में बनायी गयी थी उसने मुझे जहाँ तक मालूम है, अभी तक अपना कार्य प्रारम्भ नहीं किया है । मेरा उस उपसमिति के संयोजक श्री नीरज जैन सतनासे अनुरोध है कि वे इस प्रस्तावको क्रियात्मक रूप देनेके लिये उचित कार्यवाही करे । प्रस्ताव संख्या १० इस दृष्टिसे पारित किया था कि समाज में सांस्कृतिक विद्वानोंकी संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है और नवीन विद्वान तैयार नहीं हो रहे हैं, इसलिये दि० जैन संस्कृतिके संरक्षणकी जटिल समस्या सामने उपस्थित है । इसको हल करनेका यह उपाय उत्तम था कि गृहविरत त्यागीजन संस्कृतिके संरक्षणकी चिन्ता करने लगें व इस तरह वे अपने जीवनका अमूल्य समय संस्कृतिके तत्त्वज्ञानके अध्ययनमें लगायें । परन्तु ऐसे गृहविरत त्यागियोंका मिलना दुर्लभ हो रहा है, जिनकी अभिरुचि संस्कृतिके तत्त्वज्ञानके अध्ययन की हो। अभी तीन-चार माह पूर्व श्रीमहावीरजीमें व्रती विद्यालयकी स्थापना हुई थी, लेकिन जनवरीअन्तिम सप्ताह श्री महावीरजी जानेपर देखा तो उस व्रती - विद्यालय में व्रतियोंका अभाव- सा देखनेको मिला । दो-चार व्रती हैं भी तो एक तो उनमें अध्ययनकी रुचि नहीं देखी गयी। दूसरे, वे वहाँ पर स्थिर होकर अध्ययन करेंगे — यह कहना कठिन है । इन्दौरका उदासीनाश्रम तो लम्बे समयसे स्थापित है, परन्तु वहाँसे एक भी उदासीन संस्कृतिका सर्वांगीण विद्वान बनकर बाहर आया है, यह नहीं कहा जा सकता है । इसी तरह और कई व्रती - विद्यालयों की स्थापना तथा समाप्तिके उदाहरण दिये जा सकते हैं । गृहविरत त्यागियोंकी अध्ययनकी ओर रुचि क्यों नहीं ? इसका एक ही कारण है कि वे अपना लक्ष्य अध्ययन करनेका नहीं बनाते हैं । पुरातन कालमें हमारे महर्षियोंका लक्ष्य संस्कृतका अध्ययन-अध्यापन रहता था, इसलिये उनकी बदौलत ही आज हमें संस्कृतके महान् ग्रन्थ उपलब्ध हो रहे हैं । यदि अभी भी हमारे महर्षियों का लक्ष्य संस्कृतके प्रकाण्ड विद्वान् बनने की ओर हो जाय, तो संस्कृतके संरक्षणकी समस्या हल होने में देर न लगे, परन्तु इसके लिये हमारे महर्षियोंमें एक तो अनुशासनकी भावना हो । दूसरे, ऐसे व्यक्तियोंको ही गृहविरत त्यागी, ब्रह्मचारी या मुनि बनने की छूट होना चाहिये, जिनका लक्ष्य संस्कृतकें प्रकाण्ड विद्वान् बनना हो । प्रस्ताव संख्या ११ को सफल बनानेके लिये समाजके लब्धप्रतिष्ठ श्रीमान् साहु शान्तिप्रसादजी १०००) वार्षिक विद्वत्परिषद्को देनेकी स्वीकारता दी है। इसके लिये विद्वत्परिषद् उनका प्रसन्नतापूर्वक आभार मानती है और विद्वानोंसे आशा करती है कि वे इससे समुचित लाभ लेकर संस्कृति के संरक्षण में अपना योगदान करेंगे । विद्वत्परिषद् सिवनी अधिवेशन में ही संख्या ५ का एक प्रस्ताव स्व० पं० गुरु गोपालदासजी बरैयाकी सौवीं जयन्ती उच्चस्तरपर मनानेके सम्बन्ध में पारित किया था। प्रसन्नताकी बात है कि इस कार्यको सम्पन्न करनेके लिये बनायी गयी उपसमिति तत्परताके साथ कार्य कर रही है। इसके लिये यह उपसमिति और इसके संयोजक डॉ० नेमिचन्द्रजी ज्योतिषाचार्य आरा अधिक अधिक धन्यवादके पात्र हैं । समाज व विद्वानोंने भी इस कार्य में काफी दिलचस्पी दिखाकर आर्थिक सहयोग प्रदान किया है तथा इनसे आगे भी अत्यधिक आर्थिक सहयोग मिलने की आशा है । प्रत्येक विद्वानको भी अपना कर्तव्य समझकर इसमें आर्थिक सहयोग देना चाहिये । विद्वत्परिषद्ने सिवनी अधिवेशन के प्रस्ताव संख्या ८ द्वारा लेखक व वक्ता विद्वानोंसे अनुरोध किया था कि वे लेखों और प्रवचनों में शिष्टसम्मत शैलीका पालन करें और व्यक्तिगत आपेक्षसे बचें । गत जनवरी मासके अन्तिम सप्ताह में श्रीमहावीरजी तीर्थक्षेत्रपर भो उक्त विषय के सम्बन्ध में विद्वानों और श्रीमानों का ५-६ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ एक सम्मेलन हआ था। उसमें प्रभावक ढङमें हए निर्णयसे आशा बँधती है कि उससे लाभ होगा। वे महानुभाव धन्यवादके पात्र हैं। जिन्होंने श्रीमहावीरजीके सम्मेलनका आयोजन किया और उसे सफल बनाया । इन्दौरमें तेरहपंथ और बीसपंथका संघर्ष सुनने में आया है तथा कतिपय स्थानोंपर सोनगढ़से नियंत्रित मुमुक्षुमण्डलों और पुरातन समाजके बीच भी संघर्ष सुननेमें आये हैं । यह बड़े दुःखकी बात है । ऐसी घटनाओंसे समाज कलंकित होती है। मैं समझता हूँ कि धर्मके संरक्षण अथवा प्रचारके लिये कषायपूर्ण संघर्ष होना धर्मके ही महत्त्वको कम करते हैं । इसलिये परस्पर-विरोधी आस्था रखनेवाले व्यक्तियोंको केवल धर्माराधनपर ही दृष्टि रखना चाहिये, उनका कल्याण उसीमें है। इस प्रसंगमें एक बातमें यह कहना चाहता हूँ कि समाजमें विद्यमान सहनशीलताके अभावसे ही प्रायः ऐसे या अन्य प्रकारके सामाजिक संघर्ष हआ करते हैं। इसलिये हमारी सामाजिक संस्थाओंको अपनी स्थिति इतनी सुदृढ़ बनानी चाहिये, ताकि वे सहनशीलताको अपना सकें व समाजको संगठित कर सकें। श्री सम्मेदशिखरजी तीर्थक्षेत्रके विषयमें विहार सरकार और श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाजके मध्य जो इकरार हआ है उससे दिगम्बर समाजके अधिकारोंका हनन होता है । अतः इस इकरारको समाप्त करवानेका जो प्रयत्न अ०भा० तीर्थक्षेत्र कमेटी द्वारा किया जा रहा है वह स्तुत्य है। इसमें सन्देह नहीं कि उक्त कमेटीने गतवर्ष समाजमें श्रीसम्मेदशिखरजी तीर्थक्षेत्र की रक्षा करने के लिये जो चेतना जाग्रत की, उसके कारण वह अत्यन्त प्रशंसाको पात्र है। परन्तु अब वह क्या कर रही है, इसकी जानकारी समाचारपत्रों द्वारा होते रहना चाहिए। हम मानते हैं कि तीर्थक्षेत्र कमेटीके सामने कार्यको तत्परतापूर्वक सम्पन्न करने में कुछ कठिनाईयाँ सम्भव हैं और हम उसके पदाधिकारियोंको यह विश्वास दिला देना चाहते हैं कि समाजको कमेटीके ऊपर । है, फिर भी उससे हमारा अनुरोध है कि समाजमें क्षेत्रके विषयमें जो चिन्ता और बेचैनी हो रही है उसको ध्यानमें रखते हुए वह यथासम्भव अधिक-से-अधिक तत्परतापूर्वक समस्याको सन्तोषप्रद ढंगसे शासनसे शीघ्र हल करवाने का प्रयत्ल करे । 'सरिता' पत्रमें जैनसंस्कृतिके विरुद्ध "कितना महंगा धर्म" शीर्षकसे प्रकाशित लेखसे जैन समाजका क्षुब्ध होना स्वाभाविक है । लेखका लेखक और पत्रका सम्पादक दोनों यदि यह समझते हों कि उन्होंने उत्तमकार्य किया है तो यह उनकी आत्मवञ्चना ही सिद्ध होगी। इसका जैसा प्रतिरोध जैन समाजकी तरफसे किया गया है या किया जा रहा है वह तो ठीक है परन्तु जैन समाज और उसकी साधुसंस्थाको संस्कृतिके वैज्ञानिक और आध्यात्मिक महत्त्व व उसकी उपयोगिताकी लोकको जानकारी देने के लिये संस्कृतिके अनुकूल कुछ विधायक कार्यक्रम भी अपनाना चाहिये। वाराणसीमें विद्वत्परिषद्को कार्यकारिणीको बैठकके अवसरपर ऐसी चर्चा उठी थी कि विद्वत्परिषद्के उददेश्य और कार्यक्रमके साथ भारतीय जैन साहित्यसंसद्के उद्देश्य और कार्यक्रमका सुमेल बैठता है, अतः क्यों न उसे विद्वत्परिषदके अन्तर्गत स्वीकार कर लिया जाय ? इस चर्चाको यदि सार्थकरूप दिया जा सके तो मेरे ख्यालसे सांस्कृतिक लाभकी दृष्टिसे यह अत्यधिक उत्तम बात होगी। मैं पुनः विद्वत्परिषद् और शास्त्रिपरिषद्के एकीकरणकी बातको दुहराता हैं और कहना चाहता है कि इसके लिये यदि विद्वत्परिषद्को पहल भी करना पड़े तो करना चाहिये। श्रीमहावीरजीमें हुए सम्मेलनसे निर्मित वातावरण इस एकीकरणके लिए सहायक हो सकता है। इसके अलावा मेरा दृष्टिकोण अब भी यह बना हुआ है कि विद्वत्परिषद्का एक सांस्कृतिक पत्र अवश्य होना चाहिए । Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ / साहित्य और इतिहास : ४३ अब मैं ऐसे महत्त्वपूर्ण विषयपर प्रकाश डालना चाहता हूँ जिसके सम्बन्ध में समस्त जैन समाजको रुचि और उत्साह प्रसन्नतापूर्वक दिखलाना चाहिए। वह है इस श्रावस्ती तीर्थक्षेत्रका विकासकार्य । श्रावस्ती भारतवर्षकी एक प्राचीनतम सांस्कृतिक एवं प्रसिद्ध नगरी रही है। सांस्कृतिक दृष्टिसे इसका विशेष महत्त्व रहा है । यही कारण है कि इसको भारतवर्षकी सभी संस्कृतियोंके प्रवर्तकोंने अपने-अपने समयमें अपनाया है । जैन समाजसे तो इसका सम्बन्ध अतिप्राचीनतम कालसे है। जैन संस्कृतिके मुख्य प्रवर्तक २४ तीर्थंकरों से प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव और द्वितीय तीर्थकर श्री अजितनाथके अनन्तर जो नृतीय तीर्थंकर श्री शंभवनाथ हए हैं उनके गर्भ, जन्म, तप और केवल ये चारों कल्याणक इसी श्रावस्ती नगरीमें ही हए हैं और तभीसे वह नगरी अपने वैभवपूर्ण सौंदर्यके कारण इतिहासप्रसिद्ध है। साथ ही ऐतिहासिक कालके पूर्व भी यह महती वैभवशालिनी रही है-इसकी जानकारी हमें पुराणग्रन्थों में प्रचुरताके साथ पायी जाने वाली विवेचनासे प्राप्त होतो है । "जगत्की प्रत्येक दृश्यमान वस्तु अस्थिर और अनित्य है" इसका अपवाद यह नगरी भी नहीं बन सकी और इसलिये आज यह इस भग्नकायाके रूपमें दृष्टिगोचर हो रही है। बहराइचकी दि० जैन समाज और श्री श्रावस्ती दि० जैन तीर्थक्षेत्र कमेटीको हम इसलिये साधुवाद देना चाहते हैं कि इन्होंने उसे सम्पूर्ण जैन समाजके दृष्टिपथ पर लानेके लिये यह पञ्चकल्याणक महोत्सव कराया है। श्री भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषद यहाँ अधिवेशन करके अपनेको कृतार्थ समझती है। मुझे आशा है कि भारतवर्षकी सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज 'शानदार था भूत, भविष्यत् भी महान् है।। अगर सम्हालो आज उसे, जो वर्तमान है ॥" -इस पद्य की भावनाके अनुसार इस क्षेत्रके सांस्कृतिक उत्थानमें अपना पूर्ण योगदान करेगी तथा उपस्थित जन समुदायके इस क्षेत्रके विकासमें यथाशक्ति आर्थिक योगदान किये बिना यहाँसे नहीं लौटेगा। सन् १९६६ का वर्ष प्रारम्भ राष्ट्रकी दृष्टिसे बड़ा दुखदायी सिद्ध हुआ है। राष्ट्रके प्रधानमंत्री लालबहादूर शास्त्रीका अकल्पित वियोग एक ऐसी घटना है जिससे संसार स्तब्ध रह गया है। भारत और पाकिस्तानके मध्य १८ वर्षसे चले आ रहे झगड़ेका ताशकन्द ( रूस ) में सुखद अन्त श्री शास्त्रीजीके द्वारा होना और फिर करीब ८-९ घन्टेके अनन्तर ही वहींपर उनका स्वर्गवास हो जाना इत्यादि बातें हृदयविदारक हैं। श्री नेहरूजीके स्वर्गवासके अनन्तर ये भारतके प्रधानमंत्री बने । परन्तु यह भारतका दुर्भाग्य था कि इन्हें अपने डेढ वर्षके कार्यकालमें विरासतमें प्राप्त और कुछ नवीन जटिल संघर्षोंसे ही जूझना पड़ा। इसमें सन्देह नहीं कि संघर्षों के साथ जूझना शास्त्रीजीका अजेय वीर योद्धा जैसा युद्ध था। उन्होंने अपने कार्यकलापके डेढ़ वर्षके अल्पसमयमें ही भारतका मस्तक विश्वमें ऊँचा कर दिया और स्वय विश्वके श्रद्धाभाजन बन गये। सन् ९६६ का प्रारम्भ हमें सामाजिक दृष्टिसे भी दुःखदायी सिद्ध हुआ है । श्रीमान् बाबू छोटेलाल जी कलकत्ताका वियोग सांस्कृतिक और सामाजिक दोनों दृष्टियोंसे जैन समाजके लिये हानिकारक है। जैनसाहित्य, इतिहास और पुरातत्त्वका जितना कार्य आपने किया है वह सब स्वर्णाक्षरोंमें लिखा जाने लायक है। कितना दुर्बल शरीर और कितना अटूट श्रम उनका था, किन्तु कभी उनका उत्साह भंग नहीं हुआ। ऐसे महान् व्यक्तिके प्रति हमारे श्रद्धा-सुमन अर्पित है। मेरा भाषण विद्वत्परिषद के अध्यक्ष पदका भाषण है। अतः इसमें सांस्कृतिक तत्त्वज्ञानकी पुट रहना स्वाभाविक था। मैंने इसे बहुत कुछ सरल और स्वाभाविक बनानेका प्रयत्न किया है। अन्तमें स्वागत समिति द्वारा किये गये आतिथ्यके लिये अपनी ओरसे और विद्वत्परिषदकी औरसे आप सबका आभार प्रकट करता हुआ अपना भाषण समाप्त करता हूँ। Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगधर्म बननेका अधिकारी कौन? अर्वाचीन युगके इस द्वितीय महायुद्धमे मानव-जगत काफी उत्पीडित हुआ है । बमों, उड़नबमों और अणुबमोंके द्वारा निरीह और निरपराध जनतासे आबाद अनेक शहर बर्बाद कर दिये गये हैं, बहुतसे छोटे-छोटे देश परस्परके शत्र बड़े देशोंके बीचमें पड़ जानेके कारण चक्कोके दो पाटोंके बीच में पड़े हुए अनाजके दानोंकी तरह पिस गये है, युद्धरत देशोंके लाखों मनुष्य युद्धके मैदानमें मारे गये हैं और भारत जैसे कृषिप्रधान देशमें भारत सरकारकी गैर जवाबदारीपूर्ण अव्यवस्थाके कारण अर्घ कोटिके करीब मनुष्य अकालके उदरमें समा गये हैं। यद्यपि आज युद्ध समाप्त हो गया है, परन्तु उसकी छाया आज भी मौजूद है। विजित राष्ट्र विजेता राष्ट्रोंका बदला लेनेकी भावनाके शिकार हो रहे हैं, उन्हें (विजित राष्ट्रोंको) कुचल दिया गया है, परतन्त्र बना लिया गया है और अभी भी दमनकी चक्कीमें पीसा जा रहा है। युद्धापराधियोंकी सूचीमें आये हुए या तो स्वयं आत्मघात कर रहे हैं या फिर उन्हें कानूनी न्यायके आधारपर गोलीसे उड़ाया जा रहा है । बहुतसे देशोंमें शासनकी बागडोर सम्हालने वाली पार्टी अपने ही देशवासियोंको न्यायका ढोंग रच-रच कर खत्म कर रही है और बड़े-बड़े राष्ट्रोंके साम्राज्यवादके शिकार हए देश युद्धकालमें किये गये बायदोंके आधारपर स्वतन्त्र होनेके लिये छटपटा रहे हैं, उनका हर तरहसे दमन किया जा रहा है। इस युद्ध में जिन लोगोंके कुटुम्बीजनोंका विनाश हो गया है और जिन्हें जबर्दस्त आर्थिक क्षति उठानी पड़ी है उन लोगोंको तो इसकी याद करके जिंदगी भर रोना ही है। परन्तु युद्धकी समाप्तिसे संपूर्ण मानवजातिमें वही पुराना शांतिका जीवन प्राप्त करनेकी जो आशा उदित हो गयी थी उसकी पूत्तिके आसार नजर नहीं आ रहे हैं । युद्धके दरम्यान जिन कानूनी कठिनाइयोंका उसे सामना करना पड़ रहा था वे कठिनाइयाँ आज भी मौजूद हैं, मॅहगाई, चोर बाजार और घूसखोरीसे छोटेसे लेकर बड़े तक हजारों, लाखों और करोड़ों तककी दौलत कमाने वाले लोग, जिनके सौभाग्यसे ही मानों युद्धकी भट्टी धधक उठी थी, आनन्दविभोर होते हुए आज भी अपनी आदतोंसे बाज नहीं आये हैं। इसके अतिरिक्त बेकारीकी समस्या भी प्रत्येक देशमें धीरे-धीरे घर करती जा रही है। इन सब बातोंके परिणामस्वरूप दुनियाके इस छोरसे उस छोर तक मानवजातिको एक ही चाह है और एक ही आवाज है कि ऐसे उपाय किये जाने चाहिये कि भविष्यमें कभी भी युद्धका मौका आनेकी सम्भावना जाती रहे। परन्तु दुनियाँकी बड़ी-बड़ी ताकतोंकी साम्राज्य-लिप्सा, विजित राष्ट्रोंका दमन और आपसमें वर्ती जानेवाली दाव-पेंचकी अविश्वासपूर्ण नीतिको देखते हुए यह कहना कठिन है कि निकटभविष्यमें ही युद्धका मौका नहीं आ सकता है। वास्तवमें सम्पूर्ण मानव जाति अब इस किस्मके अमानवीय युद्धोंमें यदि नहीं फँसना चाहती है तो इसे युद्धको प्रोत्साहन देनेवाली स्वार्थपूर्ण दूषित मनोवृत्तियों और प्रवृत्तियोंको छोड़कर धार्मिकताकी ओर कदम बढ़ानेका प्रयत्न करना होगा। विजित राष्ट्र विजेता राष्ट्रों द्वारा बलपूर्वक दबा लिये जाँय, इसकी अपेक्षा विजित राष्ट्रोंके प्रति सहृदयता और प्रेमका व्यवहार करनेकी जरूरत है ताकि विजेता राष्ट्र सम्पूर्ण मानवजातिके प्रति सहृदयता और प्रेमका व्यवहार करना सीख जायें, शक्तिसे युद्धको दबाया तो जा सकता है परन्तु उसके बीजोंको समूल नष्ट नहीं किया जा सकता है । पहला महायुद्ध शक्तिसे ही तो दबाया गया था। जिससे अल्पकालमें ही हमें उससे भी भयंकर दूसरा युद्ध देखना पड़ा है । धार्मिकताके आधारपर कायम की गयी शान्ति Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ / साहित्य और इतिहास : ४५ ही स्थायित्वको प्राप्त हो सकती है । परन्तु धर्म क्या ? यह भी एक विचारणीय प्रश्न है । विश्वके रंग-मंचपर धर्म नामपर हिन्दु, जैन, बौद्ध, पारसी, सिख, मुस्लिम और ईसाई आदि बहुतसे धर्म अपने - अपने भेदों और प्रभेदों सहित देखने में आ रहे हैं। क्या इन सभीको धर्म मान लिया जाय या इनमेंसे किसी एकको धर्म नामसे पुकारा जा सकता है ? अथवा इनमेंसे कोई भी धर्म, धर्म नामका अधिकारी नहीं हो सकता है ? धर्मतत्त्व के सही अर्थको समझने की इसलिये जरूरत है कि उल्लिखित तथा कथित धर्मोके जरिये संपूर्ण मानवजाति अनेक अनिष्टकर वर्गोंमें विभक्त हो गयी है और मानवजातिके ये वर्ग अपने-अपने तथाकथित धर्मको दूसरे तथा कथित धर्मोकी अपेक्षा न केवल अधिक महत्त्व ही देना चाहते हैं बल्कि अपने तथाकथित धर्मको ही धर्म और दूसरे तथाकथित धर्मोंको अधर्म कहने में भी इन्हें संकोच नहीं होता है । और आश्चर्य यह है कि इन तथाकथित धर्मोमेंसे प्रत्येक धर्मको मानने वाले इन अनेक वर्गोंने धार्मिकताको एक निश्चित दायरे में बाँध रखा है। हिन्दू धर्मको मानने वाला हिन्दूवर्ग यश, हवन आदि वैदिक क्रियाकाण्ड और गंगा आदि नदियोंमें स्नान आदिको ही धर्म मानता है, साधुओंका जटा बढ़ाना, पंचाग्नि तप करना और भंग, गाँजा आदि मादक वस्तुओं का सेवन करना आदिको भी वह धर्ममें शुमार करता है । जैनधर्मको माननेवाला जैन वर्ग जैमधर्म प्रसारक तीर्थकरोंकी पूजा वंदना और ध्यान करना पुराणोका ही स्वाध्याय करना और उनमें उपदिष्ट व्रत आदिका अनुष्ठान करना आदिको ही धर्म मानता है। बौद्ध, सिख और पारसी आदि धर्मो को माननेवाले बौद्ध, सिख और पारसी आदि वर्ग अपने-अपने नियत क्रियाकाण्डोंको ही धर्म समझते हैं, मुस्लिम धर्मका उपासक मुसलमानवर्ग मसजिदमें जाकर समाज पढ़ना आदिको धर्म मानता है और दूसरे धर्म वालोंको काफिर समझकर तकलीफ देना आदि बातोंको भी धर्मकी कोटिमें शुमार करनेका साहस करता है तथा ईसाई धर्मका धारक ईसाई भाई गिरजामें जाना और अपने धर्म गुरु ( पादरी) का उपदेश सुनना आदि बातोंको ही धर्म मानता है। उक्त प्रत्येक वर्ग अपनी-अपनी उक्त धार्मिकतामें कभी भी अपूर्णता, सदोषता और निरर्थकताका अनुभव नहीं करता है। इस प्रकार उक्त प्रत्येक वर्ग जहाँ अपने तथाकथित धर्मको धर्म और उसको माननेवाली मानवसमष्टिको धर्मात्मा मानता है वहां वह अपने इस कथित धर्मको राष्ट्र-धर्म और यहाँ तक कि विश्व धर्म कहनेका दुःसाहस भी करता है । जहाँ तक मैं सोच सका हूँ उससे इस परिणामपर पहुंचा हूँ कि उक्त तथाकथित धर्मोमें कोई भी धर्म, धर्म नहीं है क्योंकि धर्म एक ही हो सकता है, दो नहीं, और अधिक भी नहीं । धर्मका प्रतिपक्षी यदि कोई हो सकता है तो वह अधर्म ही होगा, धर्म-धर्ममे प्रतिपक्षिता कभी भी सम्भव नहीं मानी जा सकती है। दुनियाँके किसी भी छोरपर जाया जाय, धर्मके प्रचार और रंग-रूप में कोई भी भेद नजर नहीं आयेगा और यदि भेद नजर आता है तो उसे धर्म समझना ही भूल है। इस प्रकार धर्म जिस तरह सार्वत्रिक है उसी तरह वह शाश्वत भी है, उसकी युगधर्मता अपरिवर्तनीय है, वह हमेशा युगधर्म के रूपमें एक-सा प्रकाशमान होता रहता है। प्रत्येक मनुष्य अपने सीमित बुद्धिवलसे धर्म और अधर्मका विश्लेषण सहजमें ही कर सकता है। इसके लिये बड़े-बड़े ग्रन्थों को टटोलने व परिश्रमके साथ उनका अध्ययन और मनन करनेकी जरूरत नहीं है और न बड़े-बड़े विद्वानोंकी शरण लेना भी इसके लिये आवश्यक हैं । अपने अन्तःकरणमें क्रोध, दुष्ट विचार, अहंकार, छल-कपटपूर्ण भावना, दीनता और लोभवृत्तिको स्थान न देना तथा सरलता, नम्रता और आत्म गौरवके साथ-साथ प्राणिमात्र के प्रति प्रेम, दया और सहानुभूति आदि सद्भावनाओं को जाग्रत करना धर्म है और अपनी वाचनिक और कायिक बाह्य प्रवृत्तियोंमें अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहवृत्तिको मानवताके धरातलपर यथायोग्य स्थान देते हुए समता और परोपकारको स्थान देना भी धर्म है। Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकर गाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ इस धर्मको न तो क्षेत्रीय और कालिक किसी भी मर्यादामें बांधा जा सकता है और न ऊपर बतलायी गयी हिन्दू, जैन बौद्ध, सिख, पारसी, मुसलमान और इसाई आदि किसी खास समष्टिसे ही इसका ताल्लुक है। यह धर्म हिंदू आदि किसी भी समष्टिके किसी भी व्यक्तिका धर्म हो सकता है। इस धर्मकी प्राप्तिमें ब्राह्मण और भंगी, पुरुष और स्त्री विद्वान और मूर्ख, अमीर और गरीबका भेद कहींपर भी कभी भी बाधक नहीं हो सकता है और इसकी उपयोगिता कहीं भी, कभी भी. कैसी भी हालत क्यों न हो. मानवसमाजके लिये बनी हुई है। हम देखते हैं कि उल्लिखित तथाकथित धर्मोके आधारपर अपनेको धार्मिक समझनेवाली किसी भी समष्टिमें सामूहिकरूपसे यह धर्म नहीं पाया जाता है। प्रत्येक समाजमें स्वार्थका पोषण सर्वोपरि है और इसके लिये छल-कपट, बेईमानी, असत्यताका व्यवहार और भाई-भाई तथा पिता-पुत्रके लड़ाई-झगड़े तो जीवनके अनिवार्य अंग बन गये हैं। इन सबके विद्यमान रहते हुए भी मनुष्य केवल मनुष्य बना रहता है बल्कि वह धर्मात्मा भी बना रहता है। और तो क्या, चोरबाजार और घुसखोरी जैसे राक्षसी कृत्य करनेवाले तथा उचित-अनुचित तरीकों द्वारा निर्दयतापूर्वक व्यापकरूपसे मानवसमष्टिका संहार करनेवाले युद्धोंके प्रवर्तक और संचालक लोग भी अपनेको धर्मात्मा ही मानते हैं । हम पूछते हैं कि इस विश्वयुद्धको क्या एक ही धर्मके माननेवालोंके बीचका युद्ध नहीं कहा जा सकता है और आज कौनसी तथाकथित धार्मिक समाज गर्वके साथ इस बातका दावा कर सकती है कि उसके अन्दर चोरबाजार और घूसखोरी जैसे राक्षसी कृत्य करनेवाले व्यक्ति अधिकाधिकरूपमें मौजूद नहीं हैं ? तात्पर्य यह है कि धार्मिकताके आधारपर निर्मित हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख, पारसी, मुसलमान और ईसाई आदि सभी समष्टियोंमें जब न केवल अधर्म ही बल्कि मनुष्यताका भी अभाव मौजद है तो उन्हें धार्मिक समष्टि और उनकी उस धार्मिकताको धर्म नामसे कैसे पुकारा जा सकता है ? लेकिन इस सिलसिले में यहाँपर एक और प्रश्न उपस्थित हो जाता है कि जब उल्लिखित तथाकथित धर्म धर्म नहीं है तो क्या वे सब अधर्म हैं ? और यदि वे सब अधर्म हैं तो उन्हें कैसे नष्ट किया जा सकता है ? इस विषयमें मेरी मान्यता है कि उल्लिखित तथाकथित धर्म यदि धर्म नहीं हैं तो वे सर्वथा अधर्म भी नहीं हैं । परन्तु इस सबके परिष्कृत रूपोंको धर्म-प्राप्तिके उपायोंके रूपमें स्वीकार किया जाना चाहिये और इसके परिष्कृतरूपोंको मैं हिन्दू संस्कृति, जैन संस्कृति, बौद्ध संस्कृति, सिख संस्कृति, पारसी संस्कृति, मुस्लिम संस्कृति और ईसाई संस्कृति आदि नाम देना उपयुक्त समझता हैं। प्रत्येक संस्कृतिको दो भागोंमें विभक्त किया जा सकता है-एक तत्त्वज्ञान और दूसरा आचार । इन दोनों विभागोंसे सजी हुई संस्कृतिको मैं धर्म न मानकर उल्लिखित धर्मकी प्राप्तिका साधन मानता हूँ। मेरा तो यह निश्चित विचार है कि संस्कृतिको धर्मका साधन न मानकर उसे ही धर्म मान लेनेसे प्रत्येक संस्कृतिके अन्दर ढोंग, कई किस्मके अनर्थकारी विकार और रूढ़िवादको प्रश्रय मिला है तथा मनुष्य में अहंकार, पक्षपात, हट और परस्र विद्वेष तथा घृणाको अधिक-से-अधिक प्रोत्साहन मिला है। अपने धर्मको और अपनेको सच्चा और ईमानदार तथा दूसरोंके धर्मोको और दूसरोंको मिथ्या और बेईमान समझनेकी जो प्रवृत्ति मानवप्रकृतिमें पायी जाती है उसका आधार भी धर्मकी साधनभूत संस्कृतिको ही धर्म मान लेनेकी हमारी मान्यता है। यदि हम इस मान्यताको छोड़ दें और संस्कृतिको धर्मप्राप्तिका साधन समझकर उसके जरिये अपने जीवनको धार्मिक जीवन बनानेका प्रयत्न करने लग जायें, तो निश्चित ही वर्तमान प्रत्येक संस्कृतिके अन्दरसे ढोंग, अनर्थकारी विकार और रूढ़िवादका खात्मा हो जायगा तथा किसी भी संस्कृतिको अपनानेवाला मनुष्य Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ / साहित्य और इतिहास : ४७ अहंकार, पक्षपात, हठ और परस्पर-विद्वेष तथा घृणाका शिकार न हो सकेगा। प्रत्येक मनुष्यके अन्दरसे अपने धर्मको और अपनेको सच्चा और ईमानदार तथा दूसरोंके धर्मोको और दूसरोंको मिथ्या और बेईमान समझनेकी प्रवृत्ति उठ जायगी। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक प्राणी अपने ऐहिक जीवन में भी सुखसे ही रहना चाहता है। मनुष्य चूंकि क प्राणी है अर्थात् उसका जीवन पशुओं जैसा आत्मनिर्भर न होकर, प्रायः सामाजिक सहयोगपर ही निर्भर है । इसलिये संबद्ध मानवसमष्टिका ऐहिक जीवन जबतक सुखी नहीं हो जाता है तबतक संवद्ध मानवव्यक्तिका भी ऐहिक जीवन सुखी नहीं हो सकता है। संबद्ध मानवसमष्टिका ऐहिक जीवन सुखपूर्ण बने, इसके लिये मानवव्यक्तिके जीवन में ऊपर बतलाई गयी अतरंग और बाह्य धार्मिकताको लानेकी जरूरत है। मानवजीवन में उक्त धार्मिकताको लानेके लिये ही भिन्न-भिन्न महापुरुषोंने अपने-अपने समयमें ऊपर बतलायी गयी हिन्दू, जैन आदि भिन्न-भिन्न संस्कृतियों को जन्म दिया है अर्थात वर्तमानमें हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख, पारसी, मस्लिम और ईसाई आदि जितनी संस्कृतियां पायी जाती हैं इन सबका उद्देश्य उन-उन संस्कृतियोंके उपासक मनुष्योंको पूर्वोक्त प्रकारसे धार्मिक बनाना ही है । लेकिन संस्कृतिको ही धर्म मान लेनेसे जब केवल भिन्न-भिन्न संस्कृतिकी उपासना मात्रसे मनुष्य धर्मात्मा माना जा सकता है तो उसे अपने जीवन में उक्त धार्मिकताके लानेकी आवश्यकता ही नहीं रह गयी है। इसीका यह परिणाम है कि एक ओर तो प्रत्येक संस्कृति ढोंग, कई किस्मके अनर्थकारी विकार और रूढ़िवादसे परिपूर्ण होते हुए भी इन विकारोंको नष्ट करनेकी ओर उसके उपासकोंका यथायोग्य ध्यान नहीं जा रहा है और दूसरी ओर अपनेको धर्मात्मा तथा सच्ची और सर्वहितकारी संस्कृतिकी उपासक समष्टिका अंग मानते हुए भी उनमें (प्रत्येक संस्कृतिके उपासक व्यक्तियोंमें) मानवताको कुचलने वाली स्वार्थपूर्ण असीमित दुराकांक्षाएँ और दुष्प्रवृत्तियाँ वे-रोक-टोक बढ़ती ही जा रही हैं। इसलिये आज सबसे बड़ी आवश्यकता इस बातकी है कि प्रत्येक संस्कृतिको उपासक समष्टि और उस समष्टिका अंगभूत प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी संस्कृतिको धर्म न मानकर धर्मका साधन समझने लग जाय । इसका यह परिणाम होगा कि प्रत्येक संस्कृतिके उपासक समाज और इसका अंगभूत व्यक्ति अपनेको धर्मात्मा और अपनी संस्कृतिको सच्ची और उपयोगी सिद्ध करनेके लिये अपने जीवन में पूर्वोक्त प्रकारकी धार्मिकताको लानेका ही प्रयत्न करने लगेगा और जिस समाजका लक्ष्य इस ओर न होगा उसकी संस्कृति निश्चित ही केवल इतिहासके पत्रोंमें रह जायगी। मेरी मान्यताके अनुसार वर्तमान सभी संस्कृतियाँ मानवसमाजके लिये उपयोगी हैं । परन्तु जैन संस्कृतिको मैं उपयोगी होनेके साथ-साथ अधिक-से-अधिक वैज्ञानिक भी मानता है। उसका तत्त्वज्ञान और उसका आचार अधिक-से-अधिक वास्तविकताको लिये हए है। इसलिये दूसरी संस्कृतियोंकी अपेक्षा जैन संस्कृति अधिक स्थायी और अधिक व्यापक बनायी जा सकती है। यदि इस विश्वयुद्ध के दौरानमें जैन समाज अपनी मनोवृत्तिका संतुलन बनाये रखता और दूसरे सामाजोंके साथ व्यापारमें चोरबाजारको स्थान नहीं देता तो जैन संस्कृति निश्चित ही अपने लायक स्थानपर खड़ी दिखाई देती । यह जैन संस्कृतिका उत्थान चाहने वालोंके लिये असीम दुःखका विषय है और सम्पूर्ण जैन समाजके लिये लज्जाका विषय है कि व्यापारी जैन समाजने जैन संस्कृतिको आज इस रूपमें कलंकित किया है। क्या यह आशा करना उचित न होगा कि जैन संस्कृतिको युगका धर्म (संस्कृति) बनाने के लिये जैन समाज ही पहले अपनेको युगका समाज बनायेगा । Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभदेवसे वर्तमान तक जैनधर्मकी स्थिति प्रायः धर्मकी सभी मान्यताओंमें अमर्यादित कालको मर्यादित अनन्तकल्पोंके रूपमें विभक्त किया गया है, लेकिन किन्हीं-किन्हीं मान्यताओंमें जहाँ इस दृश्यमान् जगत्की अस्तित्त्वस्वरूप और अभावस्वरूप प्रलयको आधार मानकर एक कल्पकी सीमा निर्धारित की गई है, वहाँ जैन मान्यतामें प्राणियोंके दुःखके साधनोंकी क्रमिक हानि होते-होते सुखके साधनोंकी क्रमिक वद्धिस्वरूप उत्सर्पण और प्राणियोंके सूखके साधनोंको क्रमिक हानि होते-होते दुःखके साधनोंको क्रमिक वृद्धिस्वरूप अवसर्पणको आधार मानकर एक कल्पकी सीमा निर्धारित की गई है। तात्पर्य यह कि धर्मकी किन्हीं-किन्हीं जैनेतर मान्यताओंके अनुसार उनके माने हुए कारणों द्वारा पहले तो यह जगत् उत्पन्न होता है और पश्चात् यह विनष्ट हो जाता है। उत्पत्तिके अनन्तर जबतक जगत्का सद्भाव बना रहता है उतने कालका नाम सृष्टिकाल और विनष्ट हो जानेपर जबतक उसका अभाव रहता है उतने कालका नाम प्रलयकाल माना गया है। इस तरहसे एक सृष्टिकाल और उसके अनन्तर होनेवाले एक प्रलयकालको मिलाकर इन मान्यताओंके अनुसार एक कल्पकाल हो जाता है । जैन मान्यतामें इन मान्यताओंको तरह जगत्का उत्पाद और विनाश नहीं स्वीकार किया गया है। जैन मान्यतामें जगत तो अनादि और अनिधन है, परन्तु रात्रिके बारह बजेसे अन्धकारका क्रमपूर्वक ह्रास होते-होते दिनके बारह बजे तक प्रकाशकी क्रमपूर्वक होनेवाली वृद्धिके समान जैन मान्यतामें जितना' काल जगत्के प्राणियोंके दुःखके साधनोंका क्रमपूर्वक ह्रास होते-होते सुखके साधनोंकी क्रमपूर्वक होनेवाली वृद्धिस्वरूप उत्सर्पणका बतलाया गया है उतने कालका नाम उत्सर्पिणीकाल और दिनके बारह बजेसे प्रकाशका क्रमपूर्वक ह्रास होते-होते रात्रिके बारह बजे तक अन्धकारकी क्रमपूर्वक होनेवाली वृद्धिके समान वहाँपर (जैन मान्यतामें) जितनाकाल२ जगत्के प्राणियोंके सुखके साधनोंका क्रमपूर्वक ह्रास होते-होते दुःखके साधनोंकी क्रमपूर्वक होनेवाली वृद्धिस्वरूप अवसर्पणका बतलाया गया है उतने कालका नाम अवसर्पिणीकाल स्वीकार किया गया है। एक उत्सर्पिणीकाल और उसके अनन्तर होनेवाले एक अवसर्पिणीकालको मिलाकर जैन मान्यताका एक कल्पकाल हो जाता है। चूँकि उक्त दूसरी मान्यताओंमें सष्टिकाल और प्रलयकालकी परम्पराको पूर्वोक्त सृष्टिके बाद प्रलय और प्रलयके बाद सृष्टिके रूपमें तथा जैनमान्यतामें उत्सर्पिणीकाल और अवसर्पिणीकालको परम्पराको पूर्वोक्त उत्सर्पणके बाद अवसर्पण और अवसर्पणके बाद उत्सर्पणके रूपमें अनादि अनन्त स्वीकार किया गया है, इसलिए उभय मान्यताओंमें (जैन और जैनेतर मान्यताओंमें) कल्पोंकी अनन्तता समानरूपसे मान ली गई है। जैन मान्यतामें प्रत्येक कल्पके उत्सपिणी काल और अवसर्पिणी कालको उत्सर्पण और अवसर्पणके खंड करके निम्नलिखित छह-छह विभागोंमें विभक्त कर दिया गया है-(१) दुःषम-दुःषमा (अत्यन्त दुःखमय यह काल जैन ग्रन्थोंके आधारपर दश कोटी-कोटी सागरोपमसमयप्रमाण है। कोटी (करोड़)को कोटी (करोड़)से गुणा कर देनेपर कोटी-कोटीका प्रमाण निकलता है और सागरोपम जैनमान्यताके अनुसार असंख्यात वर्षप्रमाण कालविशेषकी संज्ञा है। २. यह काल भी जैन ग्रन्थोंमें दश कोटी-कोटी सागरोपमसमयप्रमाण ही बतलाया गया है ३. आदिपुराण पर्व ३, श्लोक १४-१५ । ४, इक्कीस हजार वर्षप्रमाण । Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५/साहित्य और इतिहास : ४९ काल), (२) दुःषमा' (साधारण दुःखमय काल), ३-दुःषम-सुषमा२ (दुःख प्रधान सुखमय काल), ४-सुषमदुःषमा (सुखप्रधान दुःखमय काल), ५-सुषमा (साधारण सुखमय काल) और ६-सुषम-सुषम सुखमय काल)। ये छह विभाग उत्सर्पिणी कालके तथा इनके ठीक विपरीत क्रमको लेकर अर्थात् १-सुषमसुषमा (अत्यन्त सुखमय लाल), २--सुषमा (साधारण सुखमय काल), ३-सुषम-दुःषमा (सुखप्रधान दुःखमय काल), ४-दुषमा-सुषमा (दुःखप्रधान सुखमय काल), ५-दुःषमा१ (साधारण दुःखमय काल) और ६–दुःषम-दुःषमा१२ (अत्यन्त दुःखमय काल) ये छह3 विभाग अवसर्पिणी कालके स्वीकार किये गये हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सूर्यकी गतिके दक्षिणसे उत्तर और उत्तरसे दक्षिणकी ओर होनेवाले परिवर्तनके आधारपर स्वीकृत वर्षके उत्तरायण और दक्षिणायन विभाग गतिक्रमके अनुसार तीन-तीन ऋतुओंमें विभक्त होकर सतत चालू रहते हैं उसी प्रकार एक दूसरेसे बिलकुल उलटे पूर्वोक्त उत्सर्पण और अपसर्पणके आधारपर स्वीकृत कल्पके उत्सर्पिणी और अवसपिणी विभाग भी उत्सर्पणक्रम और अवसर्पणक्रमके अनुसार पूर्वोक्त छह-छह विभागोंमें विभक्त होकर अविच्छिन्न रूपसे सतत चालू रहते हैं । १४ अथवा रात्रिके बारह बजे से दिनके बारह बजेतक अन्धकारकी क्रमसे हानि होते-होते क्रमसे होनेवाली प्रकाशकी वृद्धिके आधार पर और दिनके बारह बजेसे रात्रिके बारह बजेतक प्रकाशकी क्रमसे हानि होते-होते क्रमसे होनेवाली अन्धकारकी वृद्धिके आधारपर जिस प्रकार चार-चार प्रहरोंकी व्यवस्था पाई जाती है उसी प्रकार उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी कालमें भी पूर्वोक्त छह-छह विभागोंकी व्यवस्था जैन मान्यतामें स्वीकृत की गई है। जैनमान्यताके अनुसार प्रत्येक उत्सर्पिणी कालके तीसरे और प्रत्येक अवसर्पिणी कालके चौथे दुःषमासुषमा नामक विभागमें धर्मको प्रकाशमें लानेवाले एकके बाद दूसरा और दूसरेके बाद तीसरा इस प्रकार क्रमसे नियमपूर्वक चौबीस तीर्थकर (धर्मप्रवर्तक महापुरुष) उत्पन्न होते रहते हैं। इस समय जैनमान्यताके अनुसार १. वही। २. व्यालीस हजार वर्ष कम एककोटीकोटी, सागरोपमसमयप्रमाण । ३. दोकोटीकोटीसागरोपमसमयप्रमाण । ४. तीनकोटीकोटीसागरोपमसमयप्रमाण । ५. चारकोटीकोटीसागरोपमसमयप्रमाण । ६, अवसर्पिणी कालके समाप्त हो जानेपर जब उत्सपिणी कालका प्रारम्भ होता है उस समयका यह वर्णन है--- --तिलोयपण्णत्ती, चौथा महा अधिकार, गाथा १५५५, १५५६ । ७. चारकोटीकोटीसागरोपमसमयप्रमाण । ८. तीनकोटोकोटीसागरोपमसमयप्रमाण । ९. दोकोटीकोटीसागरोपमसमयप्रमाण । १०. व्यालीस हजार वर्ष कम एककोटीकोटीसागरोपमसमयप्रमाण । ११. इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण । १२. इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण ।। १३. आदिपुराण पर्व ३, श्लोक १७, १८ । १४. आदिपुराण पर्व ३, श्लोल २०, २१ । १५. उत्सर्पिणी कालके तीसरे दुःषमसुषमा कालका वर्णन करते हुए यह कथन है -तिलोयपण्णत्ती, चौथा महाधिकार, गाथा १५७८ । Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ कल्पका दुसरा विभाग अवसर्पिणीकाल चालू है और उसके ( अवसर्पिणी कालके) पांचवें दुःषमा नामक विभागमेंसे हम गुजर रहे हैं ।" आजसे करीब ढाई हजार ( २५०० ) वर्ष पहले इस अवसर्पिणीकालका दुःषमा- सुषमा नामक चतुर्थी विभाग समाप्त हुआ है । उस समय धर्मको प्रकाशमें लानेवाले और इस अवसर्पिणीकालके अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर इस धरातलपर मौजूद थे तथा उनके भी पहले पूर्वपरम्परामें तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथसे प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव तक तेईस तीर्थंकर धर्मका प्रकाश कर चुके थे । तात्पर्य यह है कि जैन मान्यता में उत्सर्पिणीकालके चौथे, पाँचवें और छठे तथा अवसर्पिणीकालके पहले, दूसरे और तीसरे विभागोंके समुदायको भोगयुग एवं अवसर्पिणीकालके चौथे, पाँचवें और छठवें तथा उत्सर्पिणीकालके पहले, दूसरे और तीसरे विभागों के समुदायको कर्मयुग बतलाया गया है । २ भोगयुगका मतलब यह है कि इस युगमें मनुष्य अपने जीवनका संचालन करनेके लिए साधन-सामग्री के संचय और संरक्षणकी ओर ध्यान देना अनावश्यक ही नहीं, व्यर्थ और यहाँतक कि मानवसमष्टिके जीवन निर्वाहके लिए अत्यन्त घातक समझता है । इसलिए प्रत्येक मनुष्य अपने जीवनका संचालन निश्चिन्तता और संतोषपूर्वक सर्वत्र बिखरे हुए प्राकृतिक साधनों द्वारा बिना किसी भेद-भावके समान रूपसे किया करता है। उस समय मानव जीवनके किसी भी क्षेत्र में आजकल जैसी विषमता नहीं रहती है । उस कालमें कोई मनुष्य न तो अमीर और न गरीब ही रहता है और न ऊँच-नीचका भेद ही उस समयके मनुष्यों में पाया जाता है । आहार-बिहार तथा रहनसहनकी समानताके कारण उस कालके मनुष्योंमें न तो क्रोध, मान, माया और लोभ रूप मानसिक दुर्बलताएँ ही पाई जाती हैं और न हिंसा, झूठ, चोरी व्यभिचार तथा पदार्थों का संचय रूप परिग्रहमें ही उनकी प्रवृत्ति होती है । लेकिन उत्सर्पिणी कालमें जीवन संचालनकी साधनसामग्री में उत्तरोत्तर वृद्धि होते-होते उसके पराकाष्ठापर पहुँच जानेके बाद जब इस अवसर्पिणीकालमें उसका ह्रास होने लगा और वह ह्रास जब इस सीमा तक पहुँच गया कि मनुष्योंको अपने जीवन संचालन में कमीका अनुभव होने लगा तो सबसे पहिले मनुष्यों में साधन-सामग्रीके संग्रह करनेका लोभ पैदा हुआ तथा उसका संवरण न कर सकनेके कारण धीरे-धीरे माया, मान और क्रोधरूप दुर्बलताएँ भी उनके अन्तःकरणमें उदित हुईं और इनके परिणामस्वरूप हिंसा, झूठ, चोरी व्यभिचार और परिग्रह इन पाँच पापोंकी और यथासंभव उनका झुकाव होने लगा । अर्थात् सबसे पहले जीवन-संचालनकी साधनसामग्री के संचय करनेमें जब किन्हीं - किन्हीं मनुष्योंकी प्रवृत्ति देखने में आई तो उस समयके विशेषविचारक व्यक्तियोंने इसे मानव - समष्टिके जीवन-संचालनके लिए जबरदस्त खतरा समझा । इसलिए इसके दूर करने लिए उन्होंने जनमतकी सम्मतिपूर्वक उन लोगोंके विरुद्ध 'हा' नामक दण्ड कायम किया । अर्थात् उस समय जो लोग जीवन-संचालनकी साधन-सामग्री के संचय करनेमें प्रवृत्त होते थे उन्हें इस दण्डविधान के अनुसार "हमें खेद है कि तुमने मानव समष्टिके हितके विरुद्ध यह अनुचित कार्य किया है ।" इस प्रकार दंडित किया जाने लगा और उस समयका मानव हृदय बहुत ही सरल होनेके कारण उसपर इस दंड १. भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकर इस अवसर्पिणीकालके चौथे दुःषमसुषमा काल में ही हुए हैं । २. भोगयुग और कर्मयुगका विस्तृत वर्णन आदिपुराणके तीसरे पर्व में तथा तिलोयपण्णत्तीके चतुर्थ महाधिकार. में किया गया है । ३. तिलोयपण्णत्ती, चौथा महाधिकार, गाथा ४५१ " । ४. वही, गाथा ४५२ । Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५/ साहित्य और इतिहास : ५१ विधानका यद्यपि बहत अंशोंमें असर भी हआ। लेकिन धीरे-धीरे ऐसे अपराधी लोगोंकी संख्या बढ़ती ही गई। साथ ही उनमें कुछ धृष्टता भी आने लगी। तब इस दंडविधानको निरुपयोगी समझकर इससे कुछ कठोर "मा' नामक दंडविधान तैयार किया गया। अर्थात् खेद प्रकाश करने मात्रसे जब लोगोंने जीवन संचालनकी साधन-सामग्रीका संचय करना नहीं छोड़ा, तो उन्हें इस अनुचित प्रवृत्तिसे शक्तिपूर्वक रोका जाने लगा। अन्त में जब इस दंडविधानसे भी ऐसे अपराधी लोगोंको बाढ़ न घटी तो फिर 'धिक' नामका बहुत ही कठोर दंडविधान लागू कर दिया गया। अर्थात् ऐसे लोगोंको उस समयकी सामाजिक श्रेणीसे बहिष्कृत किया जाने लगा, लेकिन यह दंडविधान भी जब असफल होने लगा, साथ ही इसके द्वारा ऊँच और नीचके भेदकी कल्पना भी लोगोंके हृदयमें उदित हो गई तो इस विषम परिस्थितिमें राजा नाभिके पुत्र भगवान् ऋषभदेव इस पृथ्वीतलपर अवतीर्ण हुए। इन्होंने बहुत ही गम्भीर चिन्तनके बाद एक ओर तो कर्मयुगका प्रारम्भ किया अर्थात् तत्कालीन मानव-समाजमें वर्णव्यवस्था कायम करके परस्पर सहयोगकी भावना भरते हुए उसको जीवन-संचालनके लिए यथायोग्य असि', मषि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्य आदि कार्योंके करने की प्रेरणा की तथा दूसरी ओर लोगोंकी अनुचित प्रवृत्तिको रोकने के लिए धार्मिक दंडविधान चालू किया । अर्थात् मनुष्योंको स्वयं ही अपनी-क्रोध, मान, माया और लोभरूप-मानसिक दुर्बलताओंको नष्ट करने तथा हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह स्वरूप प्रवृत्तिको अधिक-से-अधिक कम करनेका उपदेश दिया। जैन-मान्यताके अनुसार धर्मोत्पत्ति का आदि समय यही है।। धर्मोत्पत्तिके बारेमें जैन-मान्यताके अनुसार किये गये इस विवेचनसे इस निष्कर्षपर पहँचा जा सकता है कि मानव-समाजमें व्यवस्था कायम करनेके लिए यद्यपि सर्वप्रथम पहले प्रजातंत्रके रूपमें और बादमें राजतंत्रके रूपमें शासनतंत्र ही प्रकाशमें आया था। परन्तु इसमें अधूरेपनका अनुभव करके भगवान ऋषभदेवने इसके साथ धर्मतंत्रको भी जोड़ दिया था। इस तरह शासनतंत्र और धर्मतंत्र ये दोनों तबसे एक दूसरेका बल पाकर फूलते-फलते हुए आज तक जीवित हैं। यद्यपि भगवान ऋषभदेवने तत्कालीन मानव-समाजके सम्मुख धर्मके ऐहिक और आध्यात्मिक दो पहलू उपस्थित किये थे और दूसरे ( आध्यात्मिक ) पहलूको पहले से ही स्वयं अपना कर" जनताके सामने महान् आदर्श उपस्थित किया था--आज भी हमें भारतवर्ष में साधुवर्गके रूपमें धर्मके इस आध्यात्मिक पहलकी झांकी देखनेको मिलती है। परन्तु आज मानव-जीवन जब धर्मके ऐहिक पहलूसे ही शुन्य है तो वहाँपर उसके आध्यात्मिक पहलूका अंकुरित होना असम्भव ही है । यही कारण है कि प्रायः सभी धर्मग्रंथोंमें आजके समयमें मुक्ति प्राप्तिकी असंभवताको स्वीकार किया गया है। इसलिए इस लेख में हम धर्मके ऐहिक पहलूपर ही विचार करेंगे। धर्मके आध्यात्मिक पहलूका उद्देश्य जहाँ जन्म-मरणरूप संसारसे मुक्ति पाकर अविनाशी अनन्तसुख १. ति० ५०, गाथा ४७४ । २. आदिपुराण, पर्व ३, श्लोक २१४, २१५ । ३. वही, पर्व १६, श्लोक १८३ । ४. (क) वही, पर्व १६, श्लोक १७९, १८० । (ख) प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषूः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः ।।-स्वयंभूस्तोत्र । ५. विहाय यः सागरवारिवाससं वधूमिवेमां वसुधावळू सतीम् । मुमुक्षुरिक्ष्वाकुकुलादिरात्मवान् प्रभुः प्रवव्राज सहिष्णुरच्युतः ॥-स्वयंभूस्तोत्र श्लोक ३, ४ । Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ प्राप्त करना है वहाँ उसके ( धर्मके ) ऐहिक पहलूका उद्देश्य अपने वर्तमान जीवनको सुखी बनाते हुए आध्यात्मिक पहलूकी ओर अग्रसर होना है। यह तभी हो सकता है जब कि मानव-समाजमें सुख और शान्तिका साम्राज्य हो। कारण कि मनुष्य स्वभावसे समष्टिगत प्राणी है। इसलिए उसका जीवन मानवसमाजके साथ गुंथा हुआ है। अर्थात् व्यक्ति तभी सुखी हो सकता है जबकि उसका कुटुम्ब सुखी हो, कुटुम्ब भी तब सुखी हो सकेगा जबकि उसके मुहल्ले में अमन-चैन हो। इसी क्रमसे आगे भी मुहल्लेका अमन-चैन ग्रामके अमन-चैनपर, ग्रामका अमन-चैन प्रान्तके अमन-चैनपर और प्रान्तका अमन-चैन देशके अमन-चैनपर ही निर्भर है तथा आज तो प्रत्येक देशके ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध स्थापित हो चुके हैं कि एक देशका अमन-चैन दूसरे देशके अमन-चैनपर निर्भर हो गया है। यही कारण है कि आज दुनियाके विशेषज्ञ विश्वसंघकी स्थापनाकी बात करने लगे हैं, लेकिन विश्वसंघ तभी स्थापित एवं सार्थक हो सकता है जबकि मानव अपनी क्रोध, मान, माया और लोभरूप मानसिक दुर्बलताओंको नष्ट करना अपना कर्त्तव्य समझ ले। साथ ही अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहताको अपने जीवनमें समाविष्ट कर ले। इसके बिना न तो विश्वसंघको स्थापना हो सकती है और न दुनियामें सुखशान्तिका साम्राज्य ही कायम हो सकता है। महात्मा गाँधीजीने विश्वमें शान्ति स्थापित करनेके लिए इसी बातको आज विश्वके सामने रखा है, परन्तु यह विश्वका दुर्भाग्य है कि उसका लक्ष्य अभी इस ओर नहीं है। इस प्रकार भगवान ऋषभदेवने जिस धर्मको आत्मकल्याण और विश्वमें व्यवस्था कायम करनेके लिए चुना था, वह क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारोंसे शून्य मानसिक पवित्रता तथा अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहता विशिष्ट बाह्यप्रवृत्ति स्वरूप है। हम देखते हैं कि आज भी इसकी उपयोगिता नष्ट नहीं हुई है और भविष्यमें तो मानव-समष्टिमें मानवताके विकासका यही एक अद्वितीय चिह्न माना जायगा। भगवान ऋषभदेवसे लेकर चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर पर्यन्त सब तीर्थंकरोंने भगवान ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित इसी धर्मका प्रकाश एवं समुत्थान किया है । इनके अतिरिक्त आगे या पीछे जिन महापुरुषोंने धर्मके बारेमें कुछ शोध की है वह भी इससे परे नहीं हैं। अर्थात् न केवल भारतवर्षके, अपितु विश्वके किसी भी महापुरुष द्वारा जब कभी धर्मकी आवाज बुलन्द की गई, उस धर्मकी परिभाषा भगवान ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित धर्मको परिभाषासे भिन्न नहीं है। इसका कारण यह है कि एक ही देशमें रहनेवाली भिन्न-भिन्न मानवसमष्टियोंकी तो बात ही क्या, दुनियाके किसी भी कोनेमें रहने वाले मनुष्योंकी जीवनसम्बन्धी आवश्यकताओंमें जब भेद नहीं किया जा सकता है तो उनके धर्ममें भेद करना मानवसमष्टिके साथ घोर अन्याय करना है। इसलिए धर्मके जैन, बौद्ध, वैदिक, इस्लाम, क्रिश्चियन इत्यादि जो भेद किये जाते हैं, ये सब किसी हालतमें धर्मके भेद नहीं माने जा सकते हैं। धर्मरूप वस्तु तो इन सबके अन्दर एक रूप ही मिलेगी और हमें इनके अन्दर जो कुछ भेद दिखलाई देता है वह भेद या तो धर्मका प्रतिपादन करने या उसके प्राप्त करनेके तरीकोंका है या फिर वह अधर्म ही कहा जायगा। ___इस तरह अपने जीवनको सुख-शान्तिमय बनानेके उद्देश्यसे मानव-समष्टिमें सुख-शान्तिका वातावरण लानेके लिए प्रत्येक मनुष्यको जिस प्रकार अपनी क्रोध, मान, माया, लोभ आदि मानसिक दुर्बलताओंको कम करना तथा हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और परिग्रहस्वरूप प्रवृत्तिको रोकना आवश्यक है उसी प्रकार परस्पर सौहार्द्र, सहानुभूति और सहायता आदि बातें भी आवश्यक हैं। इसलिए इन सब बातोंका समावेश भी धर्मके ही अन्दर किया गया है । इसके अतिरिक्त अपने जीवनको सुखी बनाने में शारीरिक स्वास्थ्यको भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। अतः शारीरिक स्वास्थ्य-सम्पादनके लिए जो नियम-उपनियम उपयोगी सिद्ध होते Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ / साहित्य और इतिहास : ५३ हैं उन्हें भी जैन-मान्यताके अनुसार धर्मकी कोटिमें रखा गया है। जैसे पानी छानकर पीना, रात्रि में भोजन नहीं करना, मद्य, मांस और मधुका सेवन नहीं करना, असावधानीसे तैयार किया हुआ भोजन नहीं करना, भोजनमें ताजा और ससत्त्व आटा, चावल, साग-फल आदिका उपयोग करना, उपवास या एकाशन करना, उत्तम संगति करना आदि इन सब प्रवृत्तियोंको धर्मरूप ही मान लिया गया है तथा ऐसी प्रवृत्तियोंको अधर्म या पाप मान लिया गया है, जिनके द्वारा साक्षात् या परंपरासे हमारे शारीरिक स्वास्थ्यको हानि पहुँचनेकी सम्भावना हो या जो हमारे जीवनको लोकनिंद्य और कष्टमय बना रही हों। जुआ खेलना, शिकार खेलना और वेश्यागमन आदि प्रवृत्तियाँ इस अधर्मकी ही कोटिमें आ जाती हैं। जैन मान्यताके अनुसार अभक्ष्यभक्षणको भी अधर्म कहा गया है और अभक्ष्यकी परिभाषामें उन चीजोंको सम्मिलित किया गया है, जिनके खानेसे हमें कोई लाभ न हो अथवा जिनके तैयार करनेमें या खानेमें हिंसाका प्राधान्य हो अथवा जो प्रकृतिविरुद्ध हों या लौकिक दृष्टिसे अनुपसेव्य हों । जैन मान्यताके अनुसार अधिक खाना भी अधर्म है और अनिच्छापूर्वक कम खाना भी अधर्म है । तात्पर्य यह है कि मानव-जीवनकी प्रत्येक प्रवृत्तिको जैन-मान्यतामें धर्म और अधर्मकी कसौटीपर कस दिया गया है। आज भले ही पचड़ा कहकर इन सब बातोंके महत्त्वको कम करनेकी कोशिश की जाय, परन्तु इन सब बातोंकी उपयोगिता स्पष्ट है। पूज्य गाँधीजीका भोजनमें हाथ-चक्कीसे पिसे हए ताजे आटेका और हाथसे कूटे गये चावलका उपयोग करनेपर जोर देना तथा प्रत्येक व्यक्तिको अपनी प्रत्येक प्रवृत्तिमें आवश्यकता, सादगी, स्वच्छता, सच्चाई आदि बातोंपर ध्यान रखनेका उपदेश देना इन बातोंकी उपयोगिताका ही दिग्दर्शन है। इस प्रकार जैन समाज जहाँ इस बातपर गर्व कर सकती है कि उसकी मान्यतामें मानव-जीवनको छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी प्रत्येक प्रवृत्तिको धर्म और अधर्मकी मर्यादामें बांधकर विश्वको सुपथपर चलनेके लिए सुगमता पैदा की गई है, वहाँ उसके लिए यह बड़े सन्तापकी बात है कि इन सब बातोंका जैन समाजके जीवनमें प्रायः अभाव-सा हो गया है और दिन-प्रतिदिन होता जा रहा है तथा जैन समाजकी कोधादि कषायरूप परिणति और हिसादि पापमय प्रवृत्ति आज शायद ही दूसरे समाजोंकी अपेक्षा कम हो। जो कुछ भी धार्मिक प्रवृत्ति आज जैन समाजमें मौजूद है वह इतनी अव्यवस्थित एवं अज्ञानमूलक कि उस प्रवृत्तिको धर्मका रूप देने में संकोच होता है। ___ जैन समाजमें पूर्वोक्त धर्मको अपने जीवनमें न उतारनेकी यह एक बुराई तो वर्तमान है ही, इसके अतिरिक्त दूसरो बुराई जो जैन समाजमें पाई जाती है, वह है खाने-पीने इत्यादिके छुआ-छूतके भेद की। जैन समाजमें वह व्यक्ति अपनेको सबसे अधिक धार्मिक समझता है, जो खाने-पीने आदिमें अधिक-से-अधिक छा-छतका विचार रखता हो। परन्तु भगवान ऋषभदेवने द्वारा स्थापित और शेष तीर्थंकरों द्वारा पुनरुज्जीवित धर्म में इस प्रकारके छुआछूतको कतई स्थान प्राप्त नहीं है। कारण कि धर्म मानव-मानवमें भेद करना नहीं सिखलाता है और यदि किसी धर्मसे ऐसी शिक्षा मिलती हो तो उसके बराबर अधर्म दुनियामें दूसरा कोई नहीं हो सकता। हम गर्वपूर्वक कह सकते हैं कि जैन तीर्थंकरों द्वारा प्रोक्त धर्म न केवल राष्ट्रधर्म ही हो सकता है, अपितु वह विश्वधर्म कहलानेके योग्य है । परन्तु छुआछूतके इस संकुचित दायरेमें पडकर वह एक व्यक्तिका भी धर्म कहलाने योग्य नहीं रह गया है, क्योंकि यह भेद न केवल राष्ट्री ही विरोधी है, बल्कि मानवताका भी विरोधी है और जहाँ मानवताको स्थान नहीं, वहाँ धर्मको स्थान मिलना असम्भव ही है । यद्यपि ये सब दोष जैन समाजके समान अन्य धार्मिक समष्टियोंमें भी पाये जाते हैं. परन्तु प्रस्तत Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ लेख केवल जैन मान्यताके अनुसार प्रतिपादित धर्मके बारेमें लिखा गया है । इसलिए दूसरी धार्मिक समष्टियोंकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। हमें आश्चर्य होता है कि क्या जैन समष्टि और क्या दूसरी धार्मिक समष्टियाँ, सभी अपने द्वारा मान्य धर्मको हो राष्ट्रधर्म तथा विश्वधर्म कहनेका साहस करती हैं, परन्तु उनका धर्म किस ढंगसे राष्ट्रका उत्थान एवं विश्वका कल्याण करने में सहायक हो सकता है और हमें इसके लिए अपनी वर्तमान दुष्प्रवृत्तियोंको दूर करनेके लिये कितने प्रयासकी जरूरत है, इसकी ओर किसीका भी लक्ष्य नहीं है। Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gਹੇ ਗੰਦ ਬਸ Jain Eccion Internelonen www.lain breyst Page #613 --------------------------------------------------------------------------  Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति और समाज १. हमारी द्रव्यपूजाका रहस्य २. साधुत्वमें नग्नताका महत्त्व ३. जैनदृष्टिसे मनुष्योंमें उच्च-नीच व्यवस्थाका आधार ४. भगवान महावीरका समाज-दर्शन ५. जैन मन्दिर और हरिजन ६. भारतीय संस्कृतिके सन्दर्भमें हिन्दू शब्दका व्यापक अर्थ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारी द्रव्य-प्रजाका रहस्य - पूजाका अर्थ भक्ति, सत्कार या सम्मान होता है और वह छोटों द्वारा बड़ों ( पूज्यों ) के प्रति प्रकट किया जाता है। इसका मल कारण पूजकको अपनी लघता और पज्यको महत्ताको स्वीकार उद्देश्य अपनी लघुताको नष्ट कर पूज्य जैसी महत्ताकी प्राप्तिमें प्रयत्न करना है। इसके प्रकट करनेके साधन मन, वचन और काय तो हैं ही, परन्तु कहीं-कहीं बाह्य सामग्री भी इसमें साधनभूत हो जाया करती हैं । जहाँ पर मन, वचन और कायके साथ-साथ बाह्य सामग्री इसमें साधनभूत हो, उसका नाम द्रव्यपूजा है तथा जहाँ केवल मन, वचन और कायसे ही भक्ति-प्रदर्शन किया जाय उसे भावपूजा समझना चाहिए। वैसे जो मनके . द्वारा भक्तिप्रदर्शन भावपूजा तथा वचन और कायके द्वारा भक्ति प्रदर्शन द्रव्यपूजा कही जा सकती है, परन्तु यहाँपर इस प्रकारकी द्रव्यपूजा और भावपूजाकी विवक्षा नहीं है। शास्त्रोंमें जो द्रव्यपूजा और भावपूजाका उल्लेख आता है वह क्रमसे बाह्य सामग्रीकी अपेक्षा और अनपेक्षामें ही आता है । - उल्लिखित द्रव्यपूजाका लोकव्यवहारमें समावेश तो परंपरागत कहा जा सकता है । अपनेसे बड़े पुरुषोंको उनकी प्रसन्नताके लिये उत्तमोत्तम सामग्री भेंट करना शिष्टाचारमें शामिल है । भगवदाराधनमें भी कबसे इसका उपयोग हुआ, इसकी गवेषणा यद्यपि ऐतिहासिक दृष्टिसे की जा सकती है। लेकिन यहाँपर इसकी आवश्यकता नहीं है, यहाँ तो सिर्फ इस बातको प्रकट करना है कि हमारे यहाँ ईश्वरोपासनामें द्रव्यपूजाका जो प्रकार है वह किस अर्थको लिये हुए है। यद्यपि मेरे विचारोंके अनुसार शास्त्रोंमें स्पष्ट उल्लेख तो जहाँ तक है, नहीं मिलता है। परन्तु पूजापाठोंके अवतरण, अभिषेक व जयमाला आदि भागोंमें, मेरे इन विचारोंका फिर यह तो ध्यानमें रखना ही चाहिये कि जो विचार युक्ति और अनुभव विरुद्ध नहीं, वे शास्त्रबाह्य नहीं कहे जा सकते । इसी विचारसे मैं अपने विचारों को प्रकट करनेके लिये बाध्य हुआ हूँ। शास्त्रोंमें द्रव्यपूजाका अष्टद्रव्यसे करनेका विधान पाया जाता है और हमारा श्रद्धालु समाज बिना किसी तर्क-वितर्कके निःसंकोच अर्हन्त, सिद्ध, गुरु, शास्त्र, धर्म, व्रत, रत्नत्रय, तीर्थस्थान आदिको पूजा करते समय निश्चित अष्टद्रव्योंको उपयोगमें लाता है। समाजके उदार हृदयमें यह विचार ही पैदा नहीं होता कि ये वस्तुयें जिसके लिये अर्पण की जा रही हैं वह जड़ हैं या चेतन है अथवा आत्माकी अवस्थाविशेष है। अरहंत, सिद्ध, शास्त्र, धर्म, व्रत, रत्नत्रय व तीर्थस्थानोंको जलादि अष्टद्रव्यका अर्पण करना बुद्धिगम्य कहा जा सकता है या नहीं ? परन्तु तर्कशील लोगोंने इसके ऊपर हमेशासे आक्षेप उठाये है और वे आज भी उठाते चले जा रहे हैं । उन आक्षेपोंका यथोचित समाधान न होने के कारण ही एक संप्रदायमें मूर्तिमान्यताके विरोधी दलोंका आविष्कार हुआ है। जैनियोंके श्वेताम्बर सम्प्रदायमें हँढिया पंथ और दिगम्बर सम्प्रदायमें तारण पंथ 'इन आक्षेपोंके समाधान न होनेके ही फल हैं। केवल जैनियोंमें ही नहीं, जैनेतरोंमें भी इस प्रकारके पंथ कायम हुए है, परन्तु यह संभव है कि जैनेतरोंमें विरोधके कारण जैनियोंसे भिन्न है । ___ कुछ भी हो, परन्तु जैन सिद्धान्त इस बातको नहीं मानता कि जो द्रव्य भगवानके लिये अर्पण किया जाता है वह उनकी तृप्तिका कारण होता है, कारण कि उनमें इच्छाका सर्वथा अभाव है। इसलिये कोई भी वाह्य वस्तु उनकी तृप्तिका कारण नहीं हो सकती, उनकी तृप्ति तो स्वाभाविक ही है। इसलिये अपने विचारों व आचरणोंको पवित्र व उन्नत बनानेके लिये भगवानके गुणोंका स्मरण ( भावपूजा) ही पर्याप्त है । भगवानके गुणस्मरणमें मूर्ति सहायक है, मूर्तिको देखकर गुणस्मरणमें हृदयका झुकाव सरलतासे हो जाता है । इसलिये भगवानके गुणोंका स्मरण करते समय मूर्तिका अवलम्बन युक्ति और अनुभव विरुद्ध नहीं, परन्तु ऊपर बतलाये Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ उद्देश्यकी सिद्धि में जब बाह्य सामग्रीका कोई उपयोग नहीं, तब भगवदाराधनमें बाह्य सामग्रीका समावेश क्यों किया गया है ? इस आक्षेपका यथोचित समाधान न मिलनेके कारण जैनियोंमें द्रव्यपूजाके बजाय मूर्तिमान्यता के विरोधी पंथ बन गये हैं । तात्पर्य यह कि मूर्तिकी मान्यताको अनिवार्य रूपसे प्रत्येक व्यक्तिके हृदयमें स्थान है । यह निश्चित है कि मूर्तिमान्यता विरोधी स्वयं मूर्तिकी मान्यताको छोड़ नहीं सकते, बल्कि आवश्यकतानुसार उसका उपयोग ही करते रहते हैं । मूर्ति मुख्य वस्तुका प्रतिनिधि होती है, जो हमको मुख्य वस्तुके किसी निश्चित उद्दिष्ट स्वरूप तक पहुँचाने में समर्थ है । किसी वस्तुका प्रतिनिधि आवश्यकता व उद्देश्यके अनुकूल सचेतन व अचेतन दोनों पदार्थ हो सकते हैं । एक वस्तुके समझने में जो दृष्टान्त वगैरहका उपयोग किया जाता है उससे मूर्ति मान्यताका अकाट्य समर्थन होता है । परन्तु द्रव्यपूजाके विषयमें कई तरहके आक्षेप उठाये जा सकते हैं, जिनका समाधान हो जानेपर ही द्रव्यपूजा उपयोगी मानी जा सकती है। नीचे सम्भवित आक्षेपोंके समाधान करने का ही प्रयत्न किया जाता है । आक्षेप १ - जबकि भगवानमें इच्छाका सर्वथा अभाव है तो उनके उद्देश्यसे मूर्तिके समक्ष मंत्रोच्चारणपूर्वक नाना उत्तमोत्तम पदार्थ रख देनेपर भो वे उनकी तृप्तिके कारण नहीं हो सकते, मूर्ति तो स्वयं अचेतन पदार्थ है, इसलिये उसके उद्देश्यसे इन पदार्थोंके अर्पण करनेकी भावना ही पूजकके हृदयमें पैदा नहीं हो सकती और न वह इस अभिप्रायसे ऐसा करता ही है । इसलिये भगवानकी पूजा अष्टद्रव्यसे ( द्रव्यपूजा ) नहीं करनी चाहिए । इस आक्षेपका समाधान कई प्रकारसे किया जाता है । परन्तु वे प्रकार सन्तोषजनक नहीं कहे जा सकते। जैसे— समा० १ - जिनेन्द्र भगवान तृषा आदि दोषोंके विजयी हैं । इसलिये वे हमारे तृषा आदि दोषोंके नष्ट करने में सहायक हों, इस उद्देश्यसे पूजक उनकी मूर्ति के समक्ष अष्टद्रव्य अर्पण करता है । आलोचना - यह तो माना जा सकता है कि जिनेन्द्र भगवान तृषा आदि दोषोंके विजयो हैं, परन्तु उनको अष्टद्रव्य चढ़ा देने मात्र से हमारे दोष भी नष्ट हो जायेंगे, यह बात तर्क और अनुभवको कसौटीपर नहीं टिक सकती । समाधान २ - जिनेन्द्र भगवानको अष्टद्रव्य इसलिए चढ़ाये जाते हैं कि इसके द्वारा पूजकमें बाह्य वस्तुओंसे रागपरिणति घटकर त्यागबुद्धि पैदा हो जाती है जो कि तृषा आदि दोषोंके नाश करनेका प्रधान कारण है । आलोचना - यह समाधान भी ठीक नहीं, कारण कि शास्त्रोंका स्वाध्याय विद्वानोंके उपदेश व जिनेन्द्र भगवानके गुणोंका स्मरण आदि ही बाह्य वस्तुमें हमारी रागपरिणति घटाने व त्यागबुद्धि पैदा करनेके यथोचित कारण हो सकते हैं । समाधान ३ - दानकी परिपाटी चलानेके लिए यह एक निमित्त है । आलोचना - ऐसे निरर्थक दान ( जिनका कि कोई उपयोग नहीं ) की कोई सराहना नहीं करेगा । वास्तविक दान बाह्य वस्तुओंमें अपनी ममत्व बुद्धिको नष्ट करना हो सकता है। यह तो हम करते नहीं । और न इस तरह से यह नष्ट की भी जा सकती है । यह तो शास्त्रस्वाध्याय, उपदेश व जिनेन्द्र भगवान के गुणस्मरण आदिसे ही होगी, ऐसा पहले बतलाया जा चुका है । व्यावहारिक दान दुसरे प्राणियोंकी आवश्यकताओं Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ / संस्कृति और समाज ३ की यथाशक्ति पूर्ति करना कहा जाता है। जिनेन्द्र भगवान कृतकृत्य है उनकी कोई ऐसी आवश्यकता नहीं, जिसकी पूर्ति हमारे अष्टद्रव्यके अर्पण करनेसे होती हो, इसलिए ऐसा दान निरक ही माना जायगा । समाधान ४ - भगवानके गुण स्मरणमें बाह्य सामग्री से सहायता मिलती है, इसलिये पूजक भगवानको अष्टद्रव्य अर्पण करता है । --- आलोचनाT- गुणस्मरणका अवलम्बन मूर्ति तो है ही तथा स्तोत्रपाठ वगैरह से गुण-स्मरण किया जाता ही है, बाह्य सामग्रीकी उपादेयता इसमें कुछ भी नहीं है बल्कि जब पूजक भगवानके लिये अष्टद्रव्य अर्पण करता है तो द्रव्यपूजा यह उनकी वीतरागताको नष्ट कर उनको सरागी सिद्ध करनेकी ही कोशिश है। समाधान ५ – पूजक भक्तिके आवेशमें यह सब किया करता है, इसका ध्यान इसकी हेयोपादेयता तक पहुँचता ही नहीं और न भक्तिमें यह आवश्यक हो है, इसलिये द्रव्यपूजाके विषयमें किसी तरहके आक्षेपोंका उठाना ही व्यर्थ है । आलोचना - भक्तिमें विवेक जाग्रत रहता है, विवेकशून्य भक्ति हो ही नहीं सकती । जहाँ विवेक नहीं है उसको भक्ति न कहकर मोह ही कहा जायगा, इसलिये यह समाधान भी उचित नहीं माना जा सकता है । 1 इसके पहले कि इस आक्षेपका समाधान किया जाय दूसरे आक्षेपोंपर भी दृष्टि डाल लेना आबश्यक है आक्षेप २ - प्रतिमायें जब भगवानकी स्थापना की जा चुकी है और वह पूजकके सामने है तो फिर अवतरण, स्थापन और सन्निधिकरणकी क्या आवश्यकता रह जाती है ? समाधान - जिनकी प्रतिमा पूजकके सामने है उनकी पूजा करते समय अवतरण, स्थापन और सन्निधिकरण नहीं करना चाहिये, लेकिन जिनकी पूजा उनकी प्रतिमाके अभावमें भी यदि पूजक करना चाहता है तो उनकी अतदाकारस्थापना पुष्पोंमें कर लेना आवश्यक है, इसलिये अवतरण स्थापना और सन्निधिकरणकी क्रिया करनेका विधान बतलाया गया है । आलोचना- एक तो यह कि किन्हीं भी भगवानकी पूजा करते हो, या न हो -- समान रूपसे अवतरण आदि तीनों क्रियायें की जाती है, मानना अनुचित है कि जिनकी प्रतिमा न हो, उनकी पूजा करते समय ही अवतरण आदि क्रियायें करनी चाहिये । समय चाहे उनकी प्रतिमा सामने इसलिये बिना प्रबल आधारके यह पुष्पोंमें अतदाकारस्थापना के लिए दूसरे यह कि जब पूजक भावोंकी स्थिरताके लिए केवल भगवानकी पुष्पोंमें अतदाकारस्थापना करता है, तो इतना अभिप्राय स्थापन और सन्निधिकरणमेंसे किसी एक क्रियासे ही सिद्ध हो सकता है । इन दोनोंमेंसे कोई एक तथा अवतरणकी क्रिया निरर्थक ही मानी जायगी। इस समाधानको माननेसे स्थापन और सन्निधिकरण दोनोंका एक स्थानमें प्रयोग लोक व्यवहारको दृष्टिसे भी अनुचित मालूम पड़ता है। लोकव्यव हारमें जहाँ समानताका व्यवहार है वहाँ तो पहले "आइये बैठिये" कहकर, "यहाँ पासमें बैठिये" ऐसा कहा जा सकता है परन्तु अपने से बड़ोंके प्रति ऐसा व्यवहार कभी नहीं किया जायगा । ---- बहुत से लोग " मम सन्निहितो भव" इस वाक्यका अर्थ करते हैं "हे भगवान मेरे हृदयमें विराजो" । लेकिन यह अर्थ भी ठीक मालूम नहीं पड़ता है, कारण कि एक तो इधर हम पुष्पों में भगवानका आरोप कर रहे हैं और उधर उनको हृदय में स्थान दे रहे हैं ये दोनों बातें विरोधी है। दूसरे पूजक हृदयमें स्थापित Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ भगवानको लक्ष्य करके द्रव्य नहीं चढ़ाता, उसका लक्ष्य तो उस समय प्रतिमाकी ओर ही रहता है । इसलिये दुसरे आक्षेपका भी समाधान ठीक-ठीक नहीं होता है। आक्षेप ३--भगवान क्या हमारे बुलानेसे आते हैं और हमारे विसर्जन करनेपर चले जाते हैं ? यदि हाँ, तो जैन सिद्धान्तसे इसमें जो विरोध आता है उसका क्या परिहार होगा ? यदि नहीं, तो फिर अवतरण व विसर्जन करनेका क्या अभिप्राय है ? आक्षेप ४--आजकल जो प्रतिमायें पायी जाती हैं उनको यदि हम अरहन्त व सिद्ध अवस्थाकी मानते हैं तो इन अवस्थाओंमें अभिषेक करना क्या अनुचित नहीं माना जायगा? यह आक्षेप अभी थोड़े दिन पहले किसी महाशयने जैनमित्रमें भी प्रकट किया है । ये चारों आक्षेप बड़े महत्त्वके हैं, इसलिये यदि इनका समाधान ठीक तरहसे नहीं हो सकता है, तो निश्चित समझना चाहिये कि हमारी द्रव्यपूजा तर्क एवं अनुभवसे गम्य न होनेके कारण उपादेय नहीं हो सकती है। परन्तु उद्देश्यकी सफलताके लिये रत्नत्रयवाद, पदार्थों की व्यवस्थाके लिए निक्षेपवाद तथा उनके ठीक-ठीक ज्ञानके लिए प्रमाणवाद और नयवाद तथा अनेकान्तवाद, सप्तभंगीवाद आदिका तर्क और अनुभवपूर्ण व्यस्थापक जैनधर्म इस विषयमें अधूरा ही रहेगा, यह एक आश्चर्य की बात होगी। इसलिये मेरे विचारसे जैन सिद्धान्तानुसार द्रव्यपूजाका रहस्य होना चाहिये, वह नीचे लिखा जाता है। द्रव्यपूजा निम्नलिखित सात अंगोंमें समाप्त होती है--१ अवतरण, २ स्थापन, ३ सन्निधिकरण, ४ अभिषेक, ५ अष्टक. ६ जयमाला और ७ विसर्जन । शान्तिपाठ व स्तुतिपाठ जयमालाके बाद उसीका एक अंग समझना चाहिये । यद्यपि अभिषेककी क्रिया हमारे यहाँ अवतरणके पहलेकी जाती है। परन्तु यह विधान शास्त्रोक्त नहीं। शास्त्रोंमें सन्निधिकरणके बाद ही चौथे नंबर पर अभिषेककी क्रियाका विधान मिलता है। द्रव्यपूजाके ये सातों अंग हमको तीथकरके गर्भसे लेकर मुक्ति पर्यन्त माहात्म्यके दिग्दर्शन कराने, धार्मिक व्यवस्था कायम रखने व अपना कल्याणमार्ग निश्चित करनेके लिये हैं-ऐसा समझना चाहिये। ___ यह निश्चित बात है कि संसारमें जिसका व्यक्तित्व मान्य होता है वही व्यक्ति लोकोपकार करनेमें समर्थ होता है, उसीका प्रभाव लोगोंके हृदयको परिवर्तित कर सकता है, अतएव तीर्थकरके गर्भ में आनेके पहलेसे उनके विषयमें असाधारण घटनाओंका उल्लेख शास्त्रोंमें पाया जाता है। १५ मास असंख्य रत्नोंकी वृष्टि, जन्म समय पर १००८ बड़े-बड़े कलशों द्वारा अभिषेक आदि क्रियायें उनके आश्चर्यकारी प्रभावकी द्योतक नहीं तो और क्या है ? वर्तमानमें हमलोग भी उनके व्यक्तित्वको समझनेके लिये तथा आचार्यों द्वारा शास्त्रों में गूंथे हुए उनके उपदिष्ट कल्याणमार्गपर विश्वास करने व उसपर चलनेके लिए और "परंप कल्याणमार्गसे विमुख न हो जावे" इसलिए भी साक्षात् तीर्थकरके अभावमें उनको मूर्ति द्वारा उनके जीवनको असाधारण घटनाओं व वास्तविकताओंका चित्रण करनेका प्रयत्न करें, यही द्रव्यपूजाके विधानका अभिप्राय है। हमारा यह प्रयत्न नित्य और नैमित्तिक दो तरहसे हुआ करता है। नैमित्तक प्रयत्नमें तीर्थंकरके पंचकल्याणकोंका बडे समारोहके साथ विस्तारपूर्वक चित्रण किया जाता है तथा प्रतिदिनका हमारा यह प्रयत्न संक्षेपसे आवश्यक क्रियाओमें ही समाप्त हो जाता है । १-हमारी द्रव्यपूजा नित्य प्रयत्नमें शामिल है। इसमें सबसे पहले अवतरणकी क्रिया की जाती है। इस समय पूजक यह समझकर कि तीर्थंकरपर्यायको धारण करनेके सन्मुख विशिष्ट पुण्याधिकारी देव स्वर्गसे अवरोहण करनेवाला है, प्रतिमा तीर्थकरके प्रारूपका दर्शन करता हुआ अपरिमित हर्षसे 'अत्र अक्तर-अवतर' कहता हुआ पुष्प वर्षा करके अवतरण महोत्सव मनावे । Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ / संस्कृति और समाज : ५ 1 मनाव। २-दूसरी क्रिया स्थापनकी है। इस समय पूजक यह समझकर कि तीर्थंकर माताके गर्भमें आ रहे हैं। प्रतिमामें गर्भप्रवेशोन्मुख तीर्थंकरके रूपको देखता हआ बडे आनन्दके साथ "अत्र तिष्ठ-तिष्ठ" कहता हुआ पुष्पवर्षा करके गर्भस्थिति-महोत्सव मनावे । ३-तीसरी क्रिया सन्निधिकरणकी है। जिस प्रकार तीर्थकरका जन्म हो जानेपर अभिषेकके लिए सुमेरु पर्वतपर ले जानेके उद्देश्यसे इन्द्र उनको अपनी गोदमें लेता है उसी प्रकार इस क्रियाके करते समय पूजक यह समझकर कि "तीर्थकरका जन्म हो गया है" प्रतिमामें जन्मके समयके तीर्थकरकी कल्पना करता हआ उनके जन्म-अभिषेककी क्रिया सम्पन्न करनेके लिये 'मम सन्निहितो भव-भव" कहकर पुष्पवर्षा करते हुए प्रतिमाको यथास्थानसे उठाकर अपनी गोदीमें लेता हआ बड़े उत्साहके साथ सन्निधिकरणमहोत्सव मनावे । इसके अनन्तर वह कल्पित सुमेरु पर्वतकी कल्पित पांडुक शिलापर इस प्रतिमाको स्थापन करे । ४--चौथी क्रिया अभिषेककी है। इस समय पूजक घंटा, वादित्र आदिके शब्दोंके बीच मंगलपाठका उच्चारण करता हआ बड़े समारोह के साथ प्रतिमाका अभिषेक करके तीर्यकरके जन्माभिषेककी क्रिया सम्पन्न करें। यह चारों क्रियायें तीर्थकरके असाधारण महत्त्वको प्रकट करनेवाली हैं। इनके द्वारा पूजकके हृदयमें तीर्थकरके असाधारण व्यक्तित्वकी गहरी छाप लगती है। इसलिये इनका समावेश द्रव्यपूजामें किया गया है । इसके बाद तीर्थकरके गार्हस्थ्य जीवनमें भी कुछ उपयोगी घटनायें घटती है। परन्तु असाधारण व नियमित न होनेके कारण उनका समावेश द्रव्यपूजामें नहीं किया गया है। ५--यह क्रिया अष्टद्रव्यके अर्पण करनेकी है । पूजकका कर्तव्य है कि वह इस समय प्रतिमामें तीर्थंकरकी निग्रंथ-मनि-अवस्थाकी कल्पना करके आहारदानकी प्रक्रिया सम्पन्न करनेके लिए सामग्री चढावें । तीर्थङ्करकी निग्रंथ-मुनि-अवस्थामें इसी तरहकी पूजा उपादेय कही जा सकती है। इसलिए बाह्यसामग्री चढ़ानेका उपदेश शास्त्रोंमें पाया जाता है । इस क्रियाके द्वारा पूजकके हृदयमें पात्रोंके लिए देनेकी भावना पैदा हो। इस उद्देश्यसे ही इस क्रियाका विधान किया गया है । किसी समय हम लोगोंमें यह रिवाज चालू था कि जो भोजन अपने घर पर अपने निमित्तसे तैयार किया जाता था उसीका एक भाग भगवानकी पूजाके काममें लाया जाता था, जिसका उद्देश्य यह था कि हम लोगोंका आहार-पान शुद्ध रहे, परन्तु जबसे हम लोगोंमें आहारपानकी शुद्धताके विषयमें शिथिलाचारी हुई, तभी से वह प्रथा बन्द कर दी गई है । और मेरा जहाँ तक खयाल है कि कहीं-कहीं अब भी यह प्रथा जारी है । ६--छठी क्रिया जयमालाकी है । जयमालाका अर्थ गुणानुवाद होता है । गुणानुवाद तभी किया जा सकता है जबकि विकास हो जावे । केवलज्ञानके हो जानेपर तीर्थकरके गुणोंका परिपूर्ण विकास हो जाता है। इसलिए जयमाला पढ़ते समय पूजक प्रतिमामें केवलज्ञानी-सयोगी-अर्हन्त तीर्थकरकी कल्पना करके उनके गुणोंका अनुवाद करें। यही उस समयकी पूजा है। तीर्थ करके सर्वज्ञपने, वीतरागपने और हितोपदेशपनेका भाव पूजकको होवे, यह उद्देश्य इस क्रियाके विधानका समझना चाहिए । यही कारण है कि जयमालाके बाद शान्तिपाठके द्वारा जगतके कल्याणकी प्रार्थना करते हुए पूजकको तदनन्तर प्रार्थना पाठके द्वारा आत्मकल्याणकी भावना भगवानकी प्रतिमाके सामने प्रकट करनेका विधान पूजाविधि में पाया जाता है। जयमाला पढनेके बाद अर्घ चढ़ानेकी जो प्रवृत्ति अपने यहाँ पायी जाती है वह ठीक नहीं, बयोंकि अरन्त अवस्थामें तीर्थंकर कृतकृत्य सर्वाभिलाषाओंसे रहित होनेके कारण हमारे द्वारा अर्पित किसी भी वस्तुको ग्रहण नहीं करते है । अतएव केवल Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ : सरस्वती - बरवपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थं गुणानुवाद करके ही पुजकको यह क्रिया समाप्त करना चाहिए। इसके बाद वह जगतके कल्याणकी भावनासे शान्तिपाठ व इसके बाद आत्मकल्याणकी भावनासे स्तुतिपाठ पढ़े । ये दोनों बातें तीर्थंकर की अरहंत अवस्थामें हो सम्भव हो सकती हैं, कारण कि तीर्थंकरका हितोपदेशीपना इसी अवस्था में पाया जाता है । ७--सातवीं क्रिया विसर्जनकी है । इस समय पूजक यह समझ कर कि भगवानकी मुक्ति हो रही है, अपरिमित हर्षसे पुष्पवर्षा करता हुआ विसर्जनकी क्रियाको समाप्त करें । जयमाला पढ़ते हुए भी यदि पुष्पवर्षा की जाय तो अनुचित नहीं, क्योंकि उससे हर्षातिरेकका बोध होता है, परन्तु अर्ध चढ़ाना तो पूर्वोक्त रीतिसे अनुचित ही हैं । यह हमारी द्रव्यपूजाकी विधिका अभिप्राय हैं । और पूजकको प्रतिदिन इसी अभिप्रायसे द्रव्यपूजामें भाग लेना चाहिये | ऐसी प्रक्रिया तर्क और अनुभव विरुद्ध नहीं कही जा सकती है । तथा जो चार आक्षेप पहले बतला आये हैं उनका समाधान भी इसके जरिये हो जाता है कारण कि प्रतिमा तीर्थंकर की किसी अवस्था विशेष की नहीं है वह तो सामान्यतौरपर तीर्थंकरकी प्रतिमा है, उसका अवलम्बन लेकर हमलोग अपने लिए उपयोगी तीर्थंकरकी स्वर्गावतरणसे लेकर मुक्तिपर्यन्तकी जीवनीका चित्रण किया करते हैं । यदि हम अवतरण करते हैं तो तीर्थंकरके स्वर्गसे चय कर गर्भ में आते समय, यदि अभिषेक करते हैं तो तीर्थङ्करके जन्मके समय, यदि सामग्री चढ़ाते हैं तो तीर्थङ्करकी साधु अवस्थामें, जिस तरह अवतरण द्वारा मुक्त तीर्थङ्करको बुलाते नहीं, उसी प्रकार विसर्जनके द्वारा भेजते भी नहीं, केवल विसर्जन के द्वारा मोक्ष कल्याणकका उत्सव मनाया करते हैं । इस तरह पूर्वोक्त आक्षेपोंके होनेकी सम्भावना भी हमारी द्रव्यपूजाको प्रक्रियामें नहीं रह जाती है । ऐसा मान लेनेपर हमारा कर्त्तव्य हो जाता है कि सिद्धोंकी पूजा उनकी प्रतिमाका अवलम्बन लेकर केवल उनके स्वरूपका अनुवाद व चिन्तवनमात्रसे करें, तीर्थङ्करके समान अवतरणसे लेकर विसर्जन पर्यन्तकी क्रियाओं का समारोह न करें क्योंकि यह यह प्रक्रिया तो सिर्फ तीर्थङ्करको पूजामें ही सम्भव है । हमारे शास्त्र एक दूसरे प्रकारसे भी उस अभिप्रायकी पुष्टि करते हैं- प्रतिमा जितनी बनाई जाती हैं वे सब तीर्थंकरोंकी बनायी जाती हैं और प्रतिष्ठा करते समय तीर्थंकरकेही पाँच कल्याणकोंका समारोह किया जाता है, क्योंकि तीथकर ही मोक्षमार्गके प्रवर्तक हैं और उन्हीं के जीवनमें वह असाधारणता (जिसका कि समारोह हम किया करते हैं ) पायी जाती है । सामान्यकेवलियोंकी इस तरहसे प्रतिमायें प्रतिष्ठित नहीं की जातीं, क्योंकि वे मोक्षमार्गके प्रवर्तक नहीं माने जाते और न उनका जीवन हो इतना असाधारण रहता है। केवल उन्होंने शुद्ध आत्मस्वरूपकी प्राप्ति कर ली है । उनकी त्यागवृत्तिका ध्येय भी उनके जीवनमें आत्मकल्याण रहा है, इसके लिये उनकी पूजा केवल सिद्ध-अवस्थाको लक्ष्य करके की जाती है । यही कारण है कि सिद्ध प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा पंचकल्याणक रूपसे न करके केवल मोक्षकल्याणक रूपसे की जाती है । अरहन्त और सिद्धको छोड़कर अन्य किसीकी प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा करनेका रिवाज हमारे यहाँ नहीं है। इसका कारण यह है कि आचार्य, उपाध्याय और मुनि ये तीनों सामान्य तौरसे मुनि ही हैं । मुनियोंका अस्तित्व शास्त्रोंमें पंचमकालके अन्त तक बतलाया है, इसलिये हमारे कल्याणमार्गका उपदेश, जो साक्षात् रूपसे विद्यमान है, उसकी मूर्तिको आवश्यकता ही क्या रह जाती है ? क्योंकि मूर्ति प्रतिष्ठाका उद्देश्य तो अपने कल्याणमार्गकी प्राप्ति ही हैं । पूजा करते समय पूजकका कर्त्तव्य यह अवश्य कि वह जिन तोर्थङ्करकी प्रतिमा अपने समक्ष हो उनकी द्रव्यपूजा ऊपर कहे अभिप्रायको लेकर करे, जिनकी प्रतिमा न हो, उनकी पूजा यदि वह करना चाहता है तो उनको कल्पना दूसरे तीर्थंकरकी Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ / संस्कृति और समाज : ७ प्रतिमामें करके उनकी द्रव्यपूजा करे, क्योंकि जब हमारी पूजा ही कल्पनामय है तो दूसरे तीर्थङ्करकी प्रतिमामें दूसरे तीर्थङ्करकी कल्पना अपने भावोंकी विशुद्धिके लिये अनुचित नहीं कही जा सकती। तथा जिस प्रकार सिद्धोंकी पूजा उनके स्वरूपका अनुवाद व चितनमात्र ही युक्ति-अनुभवगम्य कही जा सकती है उसी प्रकार शास्त्रकी पूजा केवल उसकी बाँचना. पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश रूप स्वाध्याय करना ही है। तीर्थक्षेत्रोंकी पूजा उनका अवलंबन लेकर भगवानके गुणों की भावना मानना, रत्नत्रयकी पूजा उनकी प्राप्तिका प्रयत्न करना, धर्म व व्रतोंकी पूजा उनका यथाशक्ति पालन करना समझना चाहिये। तीर्थंकरोंके समान उनकी अवतरणसे लेकर विसर्जन पर्यन्त सात प्रकारसे द्रव्यपूजा करना तो केवल हमारी तर्क और अनुभवकी शून्यताका द्योतक है। मुझे विश्वास है कि समाज इस तरहसे पूजाके रहस्यको समझ कर इसमें सुधार करनेका प्रयत्न करेगा। ANIM ANNIVE ANI Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुत्वमें नग्नताका महत्व पृष्ठभूमि : एक लेख "दिगम्बर जैन साधुओंका नग्नत्व" शीर्षकसे जैन जगत (वर्धा, फरवरी १९५५का अंक) में प्रकाशित हआ है। लेख मूलतः गुजराती भाषाका था और "प्रबुद्ध जीवन" श्वे० गुजराती पत्रमें प्रकाशित हुआ था। लेखके लेखक “प्रबुद्ध जीवन''के सम्पादक श्रीपरमानन्द कुंवरजी कापड़िया है तथा जैनजगतवाला लेख उसी लेखका श्रीभंवरलाल सिवो द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद है। जैन जगतके संपादक भाई जमनालाल जैनने लेखकका जो परिचय सम्पादकीय नोटमें दिया है उसे ठीक मानते हुए भी हम इतना कहना चाहेंगे कि लेखकने दिगम्बर जैन साधुओंके नग्नत्वपर विचार करनेके प्रसंगसे साधुत्वमेंसे नग्नताकी प्रतिष्ठाको समाप्त करनेका जो प्रयत्न किया है उसे उचित नहीं कहा जा सकता है। इस विषयमें पहली बात तो यह है कि लेखकने अपने लेखमें मानवीय विकासक्रमका जो खाका खींचा है उसे बुद्धिका निष्कर्ष तो माना जा सकता है, परन्तु उसकी वास्तविकता निविवाद नहीं कही जा सकती है। दसरी बात यह है कि सभ्यताके विषयमें जो कुछ लेखमें लिखा गया है उसमें लेखकने केवल भौतिकवादका ही सहारा लिया है, जबकि साधुत्वकी आधारशिला विशुद्ध अध्यात्मवाद है । अतः भौतिकवादकी सभ्यताके साथ अध्यात्मवादमें समर्थित नग्नताका यदि मेल न हो, तो इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये। तीसरी बात यह है कि बदलती हुई शारीरिक परिस्थितियाँ हमें नग्नतासे विमुख तो कर सकती हैं, परन्तु सिर्फ इसी आधार पर हमारा साधुत्वमेंसे नग्नताके स्थानको समाप्त करनेका प्रयत्न सही नहीं हो सकता है। साधुत्वका उद्देश्य प्रायः सभी संस्कृतियोंमें मानववर्गको दो भागोंमें बांटा गया है-एक तो जन-साधारणका वर्ग गृहस्थवर्ग और दूसरा साधुवर्ग। जहाँ जनसाधारणका उद्देश्य केवल सुखपूर्वक जीवनयापन करने का होता है वहाँ साधका उददेश्य या तो जनसाधारणको जीवन के कर्त्तव्यमार्गका उपदेश देनेका होता है अथवा बहतसे मनुष्य मुक्ति प्राप्त करनेके उद्देश्यसे ही साधुमार्गका अवलंबन लिया करते हैं । जैन संस्कृतिमें मुख्यतः मुक्ति प्राप्त करने के उद्देश्यसे ही साधुमार्गके अवलंबनकी बात कही गयी है । "जीवका शरीरसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाना'' मुक्ति कहलाती है परन्तु यह दिगम्बर जैन संस्कृतिके अभिप्रायानुसार उसी मनुष्यको प्राप्त होती है जिस मनुष्यमें अपने वर्तमान जीवनकी सुरक्षाका आधारभूत शरीरकी स्थिरताके लिये भोजन, वस्त्र, औषधि आदि साधनोंकी अवाश्यकता शेष नहीं रह जाती है और ऐसे मनुष्यको साधुओंका चरमभेद स्नातक (निष्णात्) या जीवन्मुक्त नामसे पुकारा जाता है। साधुत्वमें नग्नताको प्रश्रय क्यों ? सामान्यरूपसे जैन संस्कृतिकी मान्यता यह है कि प्रत्येक शरीरमें उस शरीरसे अतिरिक्त जीवका अस्तित्व रहता है। परन्तु वह शरीरके साथ इतना घुला-मिला है कि शरीरके रूपमें ही उसका अस्तित्व समझमें आता है और जीवके अन्दर जो ज्ञान करनेकी शक्ति मानी गयी है वह भी शरीरका अंगभूत इन्द्रियों Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६/संस्कृति और समाज : ९ के सहयोगके बिना पंगु बनी रहती है, इतना ही नहीं, जीव शरीरके इतना अधीन हो रहा है कि उसके जीवनकी स्थिरता शरीरकी स्वास्थ्यमय स्थिरता पर ही अवलंबित रहती है। जीवकी शरीरावलंबनताका यह भी एक विचित्र फिर भी तथ्यपूर्ण अनुभव है कि जब शरीरमें शिथिलता आदि किसी किस्मके विकार पैदा हो जाते हैं तो जीवको क्लेशका अनुभव होने लगता है और जब उन विकारोंको नष्ट करनेके लिये अनुकूल भोजन आदिका सहारा ले लिया जाता है तो उनका नाश हो जानेपर जीवको सुखानुभव होने लगता है । तात्पर्य यह है कि यद्यपि भोजनादि पदार्थ शरीरपर ही अपना प्रभाव डालते हैं परन्तु शरीरके साथ अनन्यमयी पराधीनताके कारण सुखका अनुभोक्ता जीव होता है । दिगम्बर जैन संस्कृतिकी यह मान्यता है कि जीव जिस शरीरके साथ अनन्यमय हो रहा है उसकी स्वास्थ्यमय स्थिरताके लिये जबतक भोजन, वस्त्र, औषधि आदिकी आवश्यकता बनी रहती है तबतक उस जीवका मुक्त होना असंभव है और यही एक कारण है कि दिगम्बर जैन संस्कृति द्वारा साधुत्वमें नग्नताको प्रश्रय दिया गया है। दूसरी बात यह है कि यदि हम इस बातको ठीक तरहसे समझ लें कि साधुत्वकी भूमिका मानव जीवन में किस प्रकार तैयार होती है ? तो सम्भवतः साधत्वमें नग्नताके प्रति हमारा आकर्षण बढ़ जायगा। साधुत्वकी भूमिका जीव केवल शरीरके हो अधीन है, सो बात नहीं है। प्रत्युत वह मनके भी अधीन हो रहा है और धीनताने जीवको इस तरह दबाया है कि न तो वह अपने हितकी बात सोच सकता है और न शारीरिक स्वास्थ्यकी बात सोचनेकी ही उसमें क्षमता रह जाती है। वह तो केवल अभिलाषाओंकी पूर्तिके लिये अपने हित और शारीरिक स्वास्थ्यके प्रतिकल ही आचरण किया करता है। यदि हम अपनी स्थितिका थोडासा भी अध्ययन करनेका प्रयत्न करें तो मालूम होगा कि यद्यपि भोजन आदि पदार्थों की मनके लिये कुछ भी उपयोगिता नहीं है, वे केवल शरीरके लिये ही उपयोगी सिद्ध होते हैं। फिर भी मनके वशीभत होकर हम ऐसा भोजन करनेसे नहीं चकते हैं जो हमारी शारीरिक प्रकृतिके बिल्कुल प्रतिकूल पड़ता है और जब इसके परिणामस्वरूप हमें कष्ट होने लगता है तो उसका समस्त दोष हम भगवान या भाग्यके ऊपर थोपनेकी चेष्टा करते हैं। इसी प्रकार वस्त्र या दूसरी उपभोगकी वस्तुओंके विषयमें हम जितनी मानसिक अनकलताकी बात सोचते है उतनी शारीरिक स्वास्थ्यकी अनुकूलताकी बात नहीं सोचते । यहाँ तक कि एक तरफ तो शारीरिक स्वास्थ्य बिगड़ता चला जाता है और दूसरी तरफ मनकी प्रेरणासे हम उन्हीं साधनोंको जुटाते चले जाते हैं जो साधन हमारे शारीरिक स्वास्थ्यको बिगाड़नेवाले होते हैं। इतना ही नहीं, उन साधनोंके जुटाने में विविध प्रकारकी परेशानीका अनुभव करते हुए भी हम परेशान नहीं होते बल्कि उन साधनोंके जुट जाने पर हम आनन्दका ही अनुभव करते हैं। मनकी आधीनतामें हम केवल अपना या शरीरका ही अहित नहीं करते हैं, बल्कि इस मनकी अधीनताके कारण हमारा इतना पतन हो रहा है कि बिना प्रयोजन हम दूसरोंका भी अहित करनेसे नहीं चूकते हैं और इसमें भी आनन्दका रस लेते हैं । दिगम्बर जैन संस्कृतिका मुक्ति प्राप्तिके विषयमें यह उपदेश है कि मनुष्यको इसके लिए सबसे पहले अपनी उक्त मानसिक पराधीनताको नष्ट करना चाहिए और तब इसके बाद उसे साधुत्व ग्रहण करना चाहिए। यद्यपि आजकल प्रायः सभी सम्प्रदायोंमें उक्त मानसिक पराधीनताके रहते हुए ही प्रायः साधुत्व ग्रहण करने की होड़ लगी हुई है, परन्तु नियम यह है कि जो साधुत्व मानसिक पराधीनतासे छुटकारा पानेके ६-२ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ बाद ग्रहण किया जाता है वही सार्थक हो सकता है और उसीसे ही मुक्ति प्राप्त होनेको आशा की जा सकता है । तात्पर्य यह है कि उक्त मानसिक पराधीनताकी समाप्ति ही साधुत्व ग्रहण करने के लिए मनुष्यकी भूमिका काम देती है । इसको (मानसिक पराधीनताकी समाप्तिको) जैन संस्कृतिमें सम्यग्दर्शन नामसे पुकारा गया है और क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच और संयम ये छह धर्म उस सम्यग्दर्शनके अंग माने गए है। मानव-जोवनमें सम्यग्दर्शनका उद्भव प्रत्येक जीवके जीवनको सुरक्षा परस्परोपग्रहो जीवानाम्' सूत्रमे प्रतिपादित दुसरे जीवोंके सहयोग पर निर्भर है। परन्तु मानव जीवन में तो इसकी वास्तविकता स्पष्ट रूपमे दिखाई देती है । इसीलिए ही मनुष्यको सामाजिक प्राणी स्वीकार किया गया है, जिसका अर्थ यह होता है कि सामान्यतया मनुष्य कौटुम्बिक सहवास आदि मानव समाजके विविध संगठनोंके दायरेमें रहकर ही अपना जीवन सुखपूर्वक बिता सकता है। इसलिए कूटम्ब, ग्राम, प्रान्त, देश और विश्वके रूपमें मानव संगठनके छोटे-बड़े जितने रूप हो सकते हैं उन सबको संगठित रखनेका प्रयत्न प्रत्येक मनुष्यको सतत करते रहना चाहिए । इसके लिये प्रत्येक मनुष्यको अपने जीवनमें “आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्"का सिद्धान्त अपनानेकी अनिवार्य आवश्यकता है, जिसका अर्थ यह है कि "जैसा व्यवहार दूसरोंसे हम अपने प्रति नहीं चाहते हैं वैसा व्यवहार हम दूसरोंके साथ भी न करें और जैसा व्यवहार दूसरोंसे हम अपने प्रति चाहते हैं वैसा व्यवहार हम दूसरोंके साथ भी करें।" अभी तो प्रत्येक मनुष्यकी यह हालत है कि वह प्रायः दूसरोंको निरपेक्ष सहयोग देनेके लिए तो तैयार ही नहीं होता है। परन्तु अपनी प्रयोजन सिद्धिके लिए प्रत्येक मनुष्य न केवल दूसरोंसे सहयोग लेनेके लिए सदा तैयार रहता है । बल्कि दूसरोंको कष्ट पहुँचाने, उनके साथ विषमताका व्यवहार करने और उन्हें धोखेमें डालनेसे भी वह नहीं चूकता है। इतना ही नहीं, प्रत्येक मनुष्यका यह स्वभाव बना हुआ है कि अपना कोई प्रयोजन न रहते हुए भी दूसरोंके प्रति उक्त प्रकारका अनुचित व्यवहार करने में उसे आनन्द आता है। जैन संस्कृतिका उपदेश यह है कि 'अपना प्रयोजन रहते न रहते कभी किसोके साथ उक्त प्रकारका अनुचित व्यवहार मत करो। इतना ही नहीं, दूसरोंको यथा-अवसर निरपेक्ष सहायता पहुँचानेको सदा तैयार रहो' ऐसा करनेसे एक तो मानव संगठन स्थायी होगा दूसरे प्रत्येक मनुष्यको उस मानसिक पराधीनतासे छुटकारा मिल जायेगा, जिसके रहते हए वह अपनेको सभ्य नागरिक तो दूर मनुष्य कहलाने तकका अधिकारी नहीं हो सकता है। __ अपना प्रयोजन रहते न रहते दुसरोंको कष्ट नहीं पहुँचाना, इसे हो क्षमाधर्म, कभी भी दूसरोंके साथ विषमताका व्यवहार नहीं करना व इसे ही मार्दव धर्म; कभी भी दूसरोंको धोखे में नहीं डालना, इसे ही आर्जव धर्म; और यथा-अवसर दूसरोंको निरपेक्ष सहायता पहुँचाना, इसे ही सत्यधर्म समझना चाहिए। इन चारों धर्मोको जीवन में उतार लेनेपर मनुष्यको मनुष्य, नागरिक या सभ्य कहना उपयुक्त हो सकता है । यह भी देखते हैं कि बहुत मनुष्य उक्त प्रकारसे सभ्य होते हुए भी लोभके इतने वशीभूत रहा करते है कि उन्हें सम्पत्तिके संग्रहमें जितना आनन्द आता है उतना आनन्द उसके भोगने में नहीं आता। इसलिए अपनी शारीरिक आवश्यकताओंकी पूर्तिमें वे बड़ी कंजूसीसे काम लिया करते है, जिसका परिणाम यह होता है कि उनका स्वास्थ्य बिगड़ जाता है । इसी तरह दूसरे बहुतसे मनुष्योंकी प्रकृति इतनो लोलुप रहा करती है Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ / संस्कृति और समाज : ११ कि वे संपत्तिका उपभोग आवश्यकतासे अधिक करते हुए भी कभी तृप्त नहीं होते । इसलिए ऐसे मनुष्य भी अपना स्वास्थ्य बिगाड़ कर बैठ जाते हैं । . जैन संस्कृति बतलाती है कि भोजन आदि सामग्री शारीरिक स्वास्थ्यको रक्षाके लिए बड़ी उपयोगी है इसलिए इसमें कंजूसीसे काम नहीं लेना चाहिए। लेकिन अच्छी बातोंका अतिक्रमण भी बहुत बुरा होता है। अतः भोजनादि सामग्रीके उपभोगमें लोलुपता भी नहीं दिखलाना चाहिये, क्योंकि शारीरिक स्वास्थ्यरक्षाके लिए भोजनादि जितने जरूरी हैं उतना ही जरूरी उनका शारीरिक प्रकृतिके अनुकूल होना और निश्चित सीमातक भोगना भी है। इसलिए शरीरके लिए जहाँ तक इनको आवश्यकता हो, वहाँ तक इनके उपभोगमें कंजूसी नहीं करना चाहिए और इनका उपभोग आवश्यकतासे अधिक भी नहीं करना चाहिए। आवश्यकता रहते हुए भोजनादि सामग्री के उपभोगमें कंजूसी नहीं करना, इसे ही शौचधर्म और अनर्गल तरीकेसे उसका उपभोग नहीं करना इसे ही संयमधर्म समझना चाहिए । इस प्रकार मानव जीवनमें उक्त क्षमा, मार्दव, आर्जव और सत्यधर्मोक साथ शौच और संयम-धर्मोका भी समावेश हो जानेपर सम्पूर्ण मानसिक पराधीनतासे मनुष्यको छुटकारा मिल जाता है और तब उस मनुष्यको विवेकी या सम्यग्दृष्टि नामसे पुकारा जाने लगता है क्योंकि तब उस मनुष्यके जीवन में न केवल "आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्'का सिद्धान्त समा जाता है, बल्कि वह मनुष्य इस तथ्यको भी हृदयंगम कर लेता है कि भोजनादिकका उपयोग क्यों करना चाहिये और किस ढंगसे करना चाहिये ? सम्यग्दृष्टि मनुष्यकी साधुत्वको ओर प्रगति . इस प्रकार मानसिक पराधीनताके समाप्त हो जानेपर मनुष्य के अन्तःकरणमें जो विवेक या सम्यग्दर्शनका जागरण होता है उसकी वजहसे, वह पहले जो भोजनादिकका उपभोग मनकी प्रेरणासे किया करता था, अबसे आगे उनका उपभोग वह शरीरकी आवश्यकताओंको ध्यानमें रखते हुए ही करने लगता हैं । ___ इस तरह साधुत्वकी भूमिका तैयार हो जानेपर वह मनुष्य अपना भावी कर्तव्य-मार्ग इस प्रकार निश्चित करता है कि जिससे वह शारीरिक पराधीनतासे भी छटकारा पा सके। वह सोचता है कि 'मेरा जीवन तो शरीराश्रित है ही, लेकिन शरीरकी स्थिरताके लिये भी मुझे भोजन, वस्त्र, आवास और कौटुम्बिक सहवासका सहारा लेना पड़ता है, इस तरह मैं मानव संगठनके विशाल चक्करमें फंसा हुआ हूँ।' इस डोरीको समाप्त करनेका एक ही युक्ति संगत उपाय जैन संस्कृतिमें प्रतिपादित किया गया है कि शरीरको अधिक-से-अधिक आत्म निर्भर बनाया जावे । इसके लिए (जैन संस्कृति) हमें दो प्रकारके निर्देश देतो है-एक तो आत्मचिंतन द्वारा अपनी (आत्माकी) उस स्वावलम्बन शक्तिको जाग्रत करने की, जिसे अन्तरायकर्मने दबोचकर हमारे जीवनको भोजनादिकके अधीन बना रखा है और दूसरा व्रतादिकके द्वारा शरीरको सबल बनाते हुए भोजनादिककी आवश्यकताओंको कम करनेका । इस प्रयत्नसे जैसे-जैसे शरीरके लिये भोजनादिककी आवश्यकतायें कम होती जायेंगी (याने शरीर जितना-जितना आत्म-निर्भर होता जायगा) वैसे-वैसे ही हम अपने भोजनमें सुधार और वस्त्र, आवास तथा कौटुम्बिक सहवासमें कमी करते जावेंगे जिससे हमें मानव संगठनके चक्करसे निकलकर (याने समष्टि गत जोवनको समाप्त कर) वैयक्तिक जीवन बितानेकी क्षमता प्राप्त हो जायगी। आत्माकी स्वावलंबन शक्तिको जाग्रत करने और शरीर सम्बन्धी भोजनादिकको आवश्यकताओंको Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य कम करनेके प्रयत्नोंको जैन संस्कृतिमें क्रमशः अन्तरंग और बाह्य दो प्रकारका तपधर्म तथा भोजनादिकमें सुधार और कमी करनेको त्यागधर्म कहा गया है। साधु मार्गमें प्रवेश जीवनमें तप और त्याग इन दोनों धर्मोंकी प्रगति करते हुए विवेक या सम्यग्दर्शन सम्पन्न मनुष्य जब जन साधारणके वर्गसे बाहर रहकर जीवन बिताने में पूर्ण सक्षमता प्राप्त कर लेता है और शारीरिक स्वास्थ्यकी रक्षाके लिये उसकी वस्त्र ग्रहणकी आवश्यकता समाप्त हो जाती है तब वह नग्न दिगम्बर होकर दिगम्बर जैन संस्कृतिके अनुसार साधुमार्गमें प्रवेश करता है। नग्न दिगम्बर बनकर जीवन बितानेको दिगम्बर जैन संस्कृतिमें आकिंचन्य धर्म कहा गया है। आकिंचन्य शब्दका अर्थ है, पासमें कुछ नहीं रह जाना, अर्थात् अब तक मनुष्यने जो शरीर रक्षाके लिये वस्त्र, आवास, कुटुम्ब और जन साधारणसे सम्बन्ध जोड़ रखा था, वह सब उसने समाप्त कर दिया है केवल शरीरकी स्थिरताके लिये भोजनसे ही उसका सम्बन्ध रह गया है और भोजन ग्रहण करने की प्रक्रियामें भी उसने इस किस्मसे सुधार कर लिया है कि उसे पराश्रयताका लेशमात्र भी अनुभव नहीं होता है । इतनेपर भी कदाचित् पराश्रयताका अनुभव होनेकी सम्भावना हो जाय तो पराश्रयता स्वीकार करनेकी अपेक्षा सन्यस्त होकर (समाधिमरण धारण करके) जीवन समाप्त करनेके लिये सदा तैयार रहता है । भोजनसे उसका सम्बन्ध भी तब तक रहता है जब तक कि शरीर रक्षाके लिये उसकी आवश्यकता बनी रहती है, इसलिये जब शरीर पूर्णरूपसे आत्म निर्भर हो जाता है तब उसका भोजनसे भी सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है और फिर शरीरकी यह आत्मनिर्भरता तब तक बनी रहती है जब तक कि जोवका उस शरीरसे सम्बन्धविच्छेद नहीं हो जाता है । शरीरका पूर्ण रूपसे आत्म निर्भर हो जानेसे मनुष्यका भोजनसे भी सम्बन्ध विच्छेद हो जानेको आकिंचन्य धर्मको पूर्णता कहते हैं और इस तरह आकिंचन्यधर्मकी पूर्णता हो जानेपर उसे साधु वर्गका चरमभेद स्नातक नामसे पुकारने लगते हैं। जैन संस्कृतिमें यही जीवन्मुक्त परमात्मा कहलाता है । यह जीवन्मुक्त परमात्मा आयुकी समाप्ति हो जानेपर शरीरसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जानेके कारण जो अपने आपमें स्थिर हो जाता है यही ब्रह्मचर्य धर्म है और यही मुक्ति है। इस ब्रह्मचर्य धर्म अथवा मुक्तिकी प्राप्तिमें ही मनुष्यका साधुमार्गके अवलम्बनका प्रयास सफल हो जाता है। यहाँपर हम यह भी स्पष्ट कर देना चाहते है कि दि० जैन संस्कृतिमें साधुओंको जन-साधारणके वर्गसे अलग परस्पर समूह बनाकर अथवा एकाकी वास करनेका निर्देश किया गया है । अतः जब उन्हें भोजनग्रहण करनेकी आवश्यकता महसूस हो, तभी और सिर्फ भोजनके लिये ही जनसाधारणके सम्पर्कमें आना चाहिये । वैसे जनसाधारण चाहें, तो उनके पास पहुँच कर उनसे उपदेश ग्रहण कर सकते हैं। अन्तिम निष्कर्ष इस लेखमें साधुत्वके विषयमें लिखा गया है वह यद्यपि दि० जैन संस्कृतिके दृष्टिकोणके आधारपर ही लिखा गया है परन्तु यह समझना भूल होगी कि साधुत्त्वके विषयमें इससे भिन्न दृष्टिकोण भी अपनाया जा सकता है कारण कि साधुत्त्व ग्रहण करते समय मनुष्यके सामने निर्विवाद रूपसे आत्माकी स्वावलम्बन शक्तिको उत्तरोत्तर बढ़ाना और शरीरमें अधिकसे-अधिक आत्मनिर्भरता लाना ही एक मात्र लक्ष्य रहना उचित है । अतः किसी भी सम्प्रदायका साधु क्यों न हो, उसे अपने जीवनमें दिगम्बर जैनसंस्कृति द्वारा समर्थित दृष्टिकोण ही अपनाना होगा अन्यथा साधुत्त्व ग्रहण करनेका उसका उद्देश्य सिद्ध नहीं होगा। वर्तमानमें सभी सम्प्रदायोंके साधु-जिनमें दि० जैन सम्प्रदायके साधु भी सम्मिलित हैं, साधुत्त्वके स्वरूप, उद्देश्य और उत्पत्तिक्रमकी नासमझीके कारण बिल्कुल पथभ्रष्ट हो रहे हैं। इसलिए केवल सम्प्रदाय विशेषके Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ / संस्कृति और समाज : १३ साधुओंकी आलोचना करना यद्यपि अनुचित ही माना जायगा फिर भी जिस सम्प्रदायके साधुओंकी आलोचना की जाती है उस सम्प्रदाय के लोगोंको इससे रुष्ट भी नहीं होना चाहिये कारण कि आखिर वे साधु किसी-नकिसी रूप में पथभ्रष्ट तो रहते ही हैं अतः रुष्ट होनेकी अपेक्षा दोषोंको निकालनेका ही उन्हें प्रयत्न करना चाहिए । अच्छा होता, यदि भाई परमानन्द कुँवरजी कापड़िया साघुत्वमेंसे नग्नताकी प्रतिष्ठाको समाप्त करनेका प्रयत्न न करके केवल दि० जैन साधुओंके अवगुणोंकी इस तरह आलोचना करते, जिससे उनका मार्गदर्शन होता । प्रश्न - जिस प्रकार पीछी, कमण्डलु ( निर्ग्रन्थ ) बना रहता है उसी प्रकार वस्त्र चाहिये ? और पुस्तक पास में रखनेपर भी दि० जैन साधु अकिंचन रखनेपर भी उसके अकिंचन बने रहनेमें आपत्ति क्यों होना उत्तर- दि० जैन साधु कमण्डलु तो जीवनका अनिवार्य कार्य मलशुद्धिके लिए रखता है, पीछी स्थान शोधन के काम में आती है और पुस्तक ज्ञानवृद्धिका कारण है अतः अकिंचन साधुको इनके पास में रखने की छूट दि० जैन संस्कृति में दी गयी है परन्तु इन वस्तुओंको पासमें रखते हुए वह इनके सम्बन्ध में परिग्रही ही है, अपरिग्रही नहीं । इसी प्रकार जो साधु शरीर रक्षाके लिए अथवा सभ्य कहलाने के लिए वस्त्र धारण करता है तो उसे कम-से-कम उस वस्त्रका परिग्रही मानना अनिवार्य होगा । तात्पर्य यह है कि जो साधु वस्त्र रखते हुए भी अपने को साधुमार्गी मानते हैं या लोक उन्हें साधुमार्गी कहता है तो यह विषय दि० जैन संस्कृतिके दृष्टिकोणके अनुसार विवादका नहीं है क्योंकि दि० जैन संस्कृति में साधुत्वके विषयमें जो नग्नतापर जोर दिया गया है उसका अभिप्राय तो सिर्फ इतना ही है कि वस्त्र साधु नग्न साधुकी अपेक्षा आत्माकी स्वावलम्बन शक्तिके विकास और शरीरकी आत्मनिर्भरताकी उतनी कमी रहना स्वाभाविक है जिस कमीके कारण उसे वस्त्र ग्रहण करना पड़ रहा है। इस प्रकार वस्त्र त्यागकी असामर्थ्य रहते हुए वस्त्रका धारण करना निंदनीय नहीं माना जा सकता है प्रत्युत वस्त्र त्यागकी असामर्थ्य रहते हुए भी नग्नताका धारण करना निन्दनीय ही माना जायेगा क्योंकि इस तरहके प्रयत्नसे साधुत्व में उत्कर्ष होनेकी अपेक्षा अपकर्ष ही हो सकता है यहां कारण है कि दिगम्बर जैनसंस्कृतिमें नग्नताको किसी एक हदतक साधुत्वका परिणाम ही माना गया है साधुत्वमें नग्नताको कारण नहीं माना गया है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार समझना चाहिये कि साधुत्व ग्रहण करनेकी योग्यता रखनेवाले, पहले तीसरे, चौथे और पाँचवें गुणस्थानवर्ती मनुष्यों में जब साधुत्वका उदय होता है तो उस हालतमें उनके पहले सातवाँ गुणस्थान ही होता है छठा गुणस्थान तो इसके बादमें ही हुआ करता है इसका आशय यही है कि जब मनुष्यकी मानसिक परिणति में साधुत्व समाविष्ट हो जाता है तभी बाह्यरूपमें भी साधुत्वको अपनाते हुए वह नग्नताकी ओर उन्मुख होता है । तात्पर्य यह है कि सप्तम गुणस्थानका आधार साधुत्वकी अन्तर्मुख प्रवृत्ति है और षष्ठ गुणस्थानका आधार साधुत्वकी बहिर्मुख प्रवृत्ति है । साधुत्वकी ओर अभिमुख होनेवाले मनुष्यकी साधुत्वकी अन्तर्मुख प्रवृत्ति पहले हो जाया करती है, इसके बाद ही जब वह मनुष्य बहिः प्रवृत्तिकी ओर झुकता है तब वस्त्रोंका त्याग करता है अतः यह बात स्पष्ट हो जाती है कि साधुत्वका कार्य नग्नता है नग्नताका कार्य साधुत्व नहीं । यद्यपि नग्नता अंतरंग साधुत्वके बिना भी देखने में आती है परन्तु जहाँ अन्तरंग साधुत्व की प्रेरणासे बाह्य वेश में नग्नता को अपनाया जाता है वही सच्चा साधुत्व है । प्रश्न- जब ऊपर के कथनसे यह स्पष्ट होता है कि मनुष्यके सातवाँ गुणस्थान प्रारम्भ में सवस्त्र हालत Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ में ही हो जाया करता है और इसके बाद छठे गुणस्थान में आनेपर वह वस्त्रको अलग करता है । तो इससे यह निष्कर्ष भो निकलता है कि सातवें गुगस्थानकी तरह आठवां आदि गुणस्थानोंका सम्बन्ध भी मनुष्यकी अन्तरंग प्रवृत्तिसे होनेके कारण सवस्त्र मुक्ति के समर्थन में कोई बाधा नहीं रह जाती है और इस तरह दि ० जैन संस्कृतिका स्त्रीमुक्ति निषेध भी असंगत हो जाता है । उत्तर - यद्यपि सभी गुणस्थानोंका सम्बन्ध जीवको अन्तरंग प्रवृत्तिसे ही है, परन्तु कुछ गुणस्थान ऐसे हैं जो अन्तरंग प्रवृत्ति के साथ बाह्यवेशके आधारपर व्यवहारमें आने योग्य हैं । ऐसे गुणस्थान पहला, तीसरा, चौथा, पाँचवाँ छठा और तेरहवाँ ये सब हैं । शेष गुणस्थान याने दूसरा, सातवाँ, आठवाँ नववाँ, दशवीं, ग्यारहवाँ, बारहवाँ और चौदहवाँ ये सब केवल अन्तरंग प्रवृत्तिपर ही आधारित हैं । इसलिए जो मनुष्य सवस्त्र होते हुए भी केवल अपनी अन्तः प्रवृत्तिकी ओर जिस समय उन्मुख हो जाया करते हैं उन मनुष्योंके उस समय में वस्त्रका विकल्प समाप्त हो जानेके कारण सातवेंसे बारहवें तकके गुणस्थान मान लेनेमें कोई आपत्ति नहीं है । दि० जैन संस्कृति में भी चेलोपसृष्ट साधुओंका कथन तो आता ही है । परन्तु दि० जैन संस्कृतिकी मान्य तानुसार मनुष्यके छठा गुणस्थान इसलिये सम्भव नहीं है कि वह गुणस्थान ऊपर कहे अनुसार साधुत्वकी अन्तरंग प्रवृत्तिके साथ उसके बाह्य वेशपर आधारित है, अतः जबतक वस्त्रका त्याग बाह्यरूपमें नहीं हो जाता है। तबतक दि० जैन संस्कृतिके अनुसार वह साधु नहीं कहा जा सकता है । इसी आधारपर सवस्त्र होने के कारण द्रव्यस्त्रीके छठे गुणस्थानकी सम्भावना तो समाप्त हो जाती है । परन्तु पुरुषकी तरह उसके भी सातवाँ आदि गुणस्थान हो सकते हैं या मुक्ति हो सकती है इसका निर्णय इस आधारपर ही किया जा सकता है कि उसके संहनन कौन-सा पाया जाता है । मुक्तिके विषयमें जैन संस्कृतिकी यही मान्यता है कि वह बज्रवृषभनाराचसंहनन वाले मनुष्यको ही प्राप्त होती है और यह संहनन द्रव्यस्त्रीके सम्भव नही है । अतः उसके मुक्तिका निषेध दि० जैनसंस्कृतिमें किया गया है । मनुष्यके तेरहवें गुणस्थान में वस्त्रकी सत्ताको स्वीकार करना तो सर्वथा अयुक्त है क्योंकि एक तो तेरहवाँ गुणस्थान षष्ठगुणस्थानके समान अन्तरंग प्रवृत्तिके साथ-साथ बाह्य प्रवृत्तिपर अवलम्बित है, दूसरे वहाँपर आत्माकी स्वालम्बन शक्ति और शरीरकी आत्मनिर्भरताकी पूर्णता हो जाती है, इसलिए वहाँ वस्त्रस्वीकृतिको आवश्यकता ही नहीं रह जाती है । दि० जैनसंस्कृति में द्रव्यस्त्रीको मुक्ति न माननेका यह भी एक कारण है । जिन लोगोंका यह ख्याल है कि साधुके भोजन ग्रहण और वस्त्र ग्रहण दोनों में कोई अन्तर नहीं है उनसे हमारा इतना कहना ही पर्याप्त है कि जीवनके लिए या शरीर रक्षाके लिए जितना अनिवार्य भोजन है उतना अनिवार्य वस्त्र नहीं है, जितना अनिवार्य वस्त्र है उतना अनिवार्य आवास नहीं है और जितना अनिवार्य आवास है उतना अनिवार्य कौटुम्बिक सहवास नहीं है । अन्तमें स्थूल रूप से साधुका लक्षण यही हो सकता है कि जो मनुष्य मनपर पूर्ण विजय पा लेनेके अनन्तर यथाशक्ति शारीरिक आवश्यकताओंको कम करते हुए भोजन आदिको पराधीनताको घटाता हुआ चला जाता है वही साधु कहलाता है । Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनदृष्टिसे मनुष्योंमें उच्च-नीच व्यवस्थाका आधार जैन संस्कृतिमें समस्त संसारी अर्थात् नारक, तिर्यक्, मनुष्य और देव-इन चारों ही गतियोंमें विद्यमान सभी जीवोंको यथायोग्य उच्च और नीच दो भागोंमें विभक्त करते हुए यह बतलाया गया है कि जो जीव उच्च होते हैं उनके उच्चगोत्र कर्मका और जो जीव नीच होते हैं उनके नीचगोत्र कर्मका उदय विद्यमान रहा करता है। यद्यपि जैन संस्कृतिके माननेवालोंके लिये यह व्यवस्था विवाद या शंकाका विषय नहीं होना चाहिए । परन्तु समस्या यह है कि प्रत्येक संसारी जीवमें उच्चता अथवा नीचताकी व्यवस्था करनेवाले साधनोंका जबतक हमें परिज्ञान नहीं हो जाता, तबतक यह कैसे कहा जा सकता है कि अमुक जीव तो उच्च है और अमक जीव नीच है ? यदि कोई कहे कि एक जीवको उच्चगोत्रकर्मके उदयके आधारपर उच्च और दूसरे जीवको नीचगोत्रकर्मके उदयके आधारपर नीच कहने में क्या आपत्ति है ? तो इसपर हमारा कहना यह है कि अपनी वर्तमान अल्पज्ञताकी हालतमें हम लोगोंके लिये जीवोंमें यथायोग्यरूपसे विद्यमान उच्चगोत्र-कर्म और नीचगोत्रकर्मके उदयका परिज्ञान न हो सकनेके कारण एक जीवको उच्चगोत्र-कर्मके उदयके आधारपर उच्च और दूसरे जोवको नीचगोत्र-कर्म के उदयके आधारपर नीच कहना शक्य नहीं है । माना कि जैन संस्कृतिके आगम-ग्रन्थोंके कथनानुसार नरकगति और तिर्यग्गतिमें रहनेवाले संपूर्ण जीवोंमें केवल नीचगोत्रकर्मका तथा देवगतिमें रहनेवाले सम्पूर्ण जीवोंमें केवल उच्चगोत्रकर्मका ही सर्वदा उदय विद्यमान रहा करता है। इसलिए यद्यपि संपूर्ण नारकियों और संपूर्ण तिर्यंचोंमें नीचगोत्रकर्मके उदयके आधारपर केवल नीचताका तथा सम्पूर्ण देवोंमें उच्चगोत्रकर्मके उदयके आधारपर केवल उच्चताका व्यवहार करना हम लोगोंके लिये अशक्य नहीं है । परन्तु उन्हीं जैन आगमग्रन्थोंमें जब संपूर्ण मनुष्योंमेंसे किन्हीं मनुष्योंके तो उच्चगोत्रकर्मका और किन्हीं मनुष्योंके नीचगोत्रकर्म का उदय होना बतलाया है तो जबतक. संपूर्ण मनुष्योंमें पृथक्-पृथक् यथायोग्य रूपसे विद्यमान उक्त उच्च तथा नीच दोनों ही प्रकारके गोत्रकर्मोंके उदयका परिज्ञान नहीं हो जाता तबतक हम यह कैसे कह सकते हैं कि अमुक मनुष्योंमें चूँकि उच्चगोत्र-कर्मका उदय विद्यमान है इसलिए उन्हें तो उच्च कहना चाहिए और अमुक मनुष्योंमें चूंकि नीचगोत्र-कर्मका उदय विद्यमान है इसलिए उसे नीच कहना चाहिए? इसके अतिरिक्त मनुष्योंमें जब गोत्र-परिवर्तनकी बात भी उन्हीं आगम-ग्रन्थों में स्वीकार की गयी है तो जबतक उनमें (मनुष्योंमें) यथासमय रहनेवाले उच्चगोत्र-कर्म तथा नीचगोत्र-कर्मके उदयका परिज्ञान हमें नहीं हो जाता, तबतक यह भी एक समस्या है कि एक ही मनुष्य को कब तो हमें उच्चगोत्र-कर्मके उदयके आधारपर उच्च कहना चाहिए और उसी मनुष्यको कब हमें नीचगोत्र-कर्मके उदयके आधार पर नीच कहना चाहिए ? एक बात और है। जैन संस्कृतिकी मान्यताके अनुसार सातों नरकोंके सम्पूर्ण नारकियोंमें परस्पर तथा एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तककी सम्पूर्ण तिर्यग-जातियों और इनकी उपजातियोंमें रहनेवाले सम्पूर्ण तिर्यंचोंमें परस्पर उच्चता और नीचताका कुछ न कुछ भेद पाया जानेपर भी यदि सभी नारकी, नरकगति सामान्यकी अपेक्षा और सभी तिर्यच, तिर्यग्गति सामान्यकी अपेक्षा नीच गोत्र-कर्मके उदयके आधारपर नीच माने जा सकते है तो, और इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक नामकी सम्पूर्ण देव जातियों और इनकी उपजातियोंमें रहनेवाले सम्पूर्ण देवोंमें परस्पर उच्चता और नीचताका कुछ न कुछ भेद पाया जानेपर भी यदि सभी देव देवगति सामान्यकी अपेक्षा उच्चगोत्र कर्मके उदयके आधार पर Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ : सरस्वती-बरसपत्र०बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ उच्च माने जा सकते हैं तो, फिर मनुष्यगतिमें रहनेवाले सम्पूर्ण मनुष्योंमें भी मनुष्य-गति सम्बन्धी विविध प्रकारकी समानता रहते हए अन्य ज्ञात साधनोंके अभावमें केवल अज्ञात उच्चगोत्र-कर्म और नीचगोत्र-वर्मके उदयके आधारपर पृथक्-पृथक् क्रमशः उच्चता और नीचताका व्यवहार कैसे किया जा सकता है ? ये सब समस्याएँ हैं जिनका जबतक यथोचित समाधान प्राप्त नहीं हो जाता, तबतक जैन संस्कृतिके अनुयायी होने पर भी हम लोगोंके मस्तिष्कमें मनुष्योंको लेकर उच्चता और नीचता सम्बन्धी संदेह पैदा होते रहना स्वाभाविक ही है। षट्खण्डागमके सूत्र १३५ का आचार्य श्रीवीरसेन स्वामी द्वारा किया गया जो व्याख्यान धवलाशास्त्रकी पुस्तक १३ के पृष्ठ ३८८ पर पाया जाता है, उसे देखनेसे मालूम पड़ता है कि मनुष्योंकी उच्चता और नीचताके विषयमें आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीके समयमें भी विवाद था, इतना ही नहीं आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीके उस व्याख्यानसे तो यहाँ तक भी मालूम पड़ता है कि उनके समयके कोई-कोई विचारक विद्वान् मनुष्य-गतिमें माने गये उच्च और नीच उभयगोत्र कर्मोके उदयके सम्बन्धमें निर्णयात्मक समाधान न मिल सकनेके कारण उच्च और नीच दोनों भेदविशिष्ट व समूचे गोत्र-कर्मके अभाव तकको माननेके लिये उद्यत हो रहे थे, आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीका वह व्याख्यान निम्न प्रकार है: "उच्चैर्गोत्रस्य क्व व्यापारः ? न तावद् राज्यादिलक्षणायां सम्पदि, तस्याः सद्वेद्यतः समुत्पत्तः नापि पंचमहाव्रतग्रहणयोग्यता उच्चैर्गोत्रेण क्रियते, देवेष्वभव्येषु च तद्ग्रहणं प्रत्यययोग्येषु उच्चर्गोत्रस्योदयाभावप्रसंगात्, न सम्यग्ज्ञानोत्पत्ती व्यापारः ज्ञानावरणक्षयोपशसहाय सम्यग्दर्शनतस्तदुत्पत्तेः। तिर्यग्नारकेष्वपि उच्चर्गोत्रस्योदयः स्यात्, तत्र सम्यग्ज्ञानस्य सत्त्वात्, नादेयत्वे, यशसि, सौभाग्ये वा व्यापारः, तेषां नामतः समुत्पत्तेः, नेक्ष्वाकुकुलाद्युत्पत्तौ, काल्पनिकानां तेषां परमार्थतो. ऽसत्त्वात्, विड्ब्राह्मणसाधुष्वपि उच्चर्गोत्रस्योदयदर्शनात्, न सम्पन्नेभ्यो जीवोत्पत्तौ तद्व्यापारः, म्लेच्छराजसमुत्पन्नपृथुकस्यापि उच्चर्गोत्रोदयप्रसंगात्, नाणुबतिभ्यः समुत्पत्तौ तद्व्यापारः, देवेष्वीपपादिकेषु उच्चंर्गोत्रोदयस्यासत्वप्रसंगात्, नाभेयस्य नीचगोत्रतापत्तेश्च, ततो निष्फलमुच्चैर्गोत्रम्, तत एव न तस्य कर्मत्वमपि, तदभावे न नीचैर्गोत्रमपि, द्वयोरन्योन्याविनाभावित्वात्, ततो गोत्रकर्माभाव इति ।" इस व्याख्यानमें प्रथम ही यह प्रश्न उठाया गया है कि जीवोंमें उच्चगोत्र-कर्मका क्या कार्य होता है ? इसके आगे उच्चगोत्र-कर्मके कार्य पर प्रकाश डालनेवाली तत्कालीन प्रचलित मान्यताओंका निर्देश करते हुए उनका खण्डन किया गया है और इस तरह उक्त प्रश्नका उचित समाधान न मिल सकनेके कारण अन्तमें निष्कर्षके रूपमें गोत्र-कर्मके अभावको प्रस्थापित किया गया है, व्याख्यानका हिन्दी विवरण निम्न प्रकार है। शंका-जीवोंमें उच्चगोत्र-कर्मका किस रूप में व्यापार हुआ करता है ? अर्थात् जीवोंमें उच्चगोत्रकर्मका कार्य क्या है ? १. समाधान-जीवोंमें उच्चगोत्र-कर्मका कार्य उनको राज्यादि सम्पत्तिको प्राप्ति होना है। खण्डन-यह समाधान गलत है क्योंकि जीवोंको राज्यादि सम्पत्तिकी प्राप्ति उच्चगोत्र-कर्मके उदयसे न होकर सातावेदनीय कर्मके उदयसे ही हुआ करती है। २. समाधान-जीवोंमें पंच महाव्रतोंके ग्रहण करनेकी योग्यताका प्रादुर्भाव होना ही उच्चगोत्र-कर्मका कार्य है। . Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ / संस्कृति और समाज : १७ खण्डन --- यदि जीवोंमें उच्चगोत्र - कर्मके उदयसे पंचमहाव्रतोंके ग्रहण करनेकी योग्यताका प्रादुर्भाव होता है तो ऐसी हालत में देवोंमें और अभव्य जीवोंमें उच्चगोत्र-कर्म के उदयका अभाव स्वीकार करना होगा, जबकि उन दोनों प्रकारके जीवोंमें, जैन संस्कृतिकी मान्यता के अनुसार, उच्चगोत्र-कर्मके उदयका तो सद्भाव और पंचमहाव्रतोंके ग्रहण करनेकी योग्यताका अभाव दोनों ही एक साथ पाये जाते हैं । ३. समाधान - जीवोंमें सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति उच्चगोत्र-कर्मके उदयसे हुआ करती है । खण्डन - यह समाधान भी सही नहीं है क्योंकि जैन संस्कृतिकी मान्यताके अनुसार जीवोंमें सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति उच्चगोत्र- कर्मका कार्यं न होकर ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमकी सहायतासे सापेक्ष सम्यग्दर्शनका ही कार्य है, दूसरी बात यह है कि जीवोंमें सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्तिको यदि उच्चगोत्र- कर्मका कार्य माना जायगा तो फिर तियंचों और नारकियोंमें भी उच्चगोत्रकर्मके उदयका सद्भाव माननेके लिये हमें बाध्य होना पड़ेगा, जो कि अयुक्त होगा, क्योंकि जैनशास्त्रोंकी मान्यताके अनुसार जिन तिर्यंचों और जिन नारकियोंमें सम्यग्ज्ञानका सद्भाव पाया जाता है उनमें उच्चगोत्र कर्मके उदयका अभाव ही रहा करता है । ४. समाधान - जीवोंमें आदेयता, यश और सुभगताका प्रादुर्भाव होना ही उच्चगोत्र-कर्मका कार्य है । खण्डन -- यह समाधान भी इसीलिए गलत है कि जीवोंमें आदेयता, यश और सुभगताका प्रादुर्भाव उच्चगोत्र-कर्मके उदयका कार्य न होकर क्रमशः आदेय, यशः कीर्ति और सुभग संज्ञा वाले नामकर्मोंका ही कार्य है । ५. समाधान -- जीवोंका इक्ष्वाकुकुल आदि क्षत्रियकुलोंमें जन्म लेना उच्चगोत्र - कर्मका कार्य है ।' खण्डन – यह समाधान भी उल्लिखित प्रश्नका उत्तर नहीं हो सकता है क्योंकि इक्ष्वाकुकुल आदि जितने क्षत्रियकुलोंको लोकमें मान्यता प्राप्त है वे सब काल्पनिक होनेसे एक तो अतद्रूप ही हैं, दूसरे यदि इन्हें वस्तुतः सद्रूप ही माना जाय तो भी यह नहीं समझना चाहिए कि उच्चगोत्र-कर्मका उदय केवल इक्ष्वाकुकुल आदि क्षत्रियकुलोंमें ही पाया जाता है; कारण कि जैन सिद्धान्तकी मान्यताके अनुसार उक्त क्षत्रियकुलोंके अतिरिक्त वैश्यकुलों और ब्राह्मणकुलोंमें भी तथा सभी तरहके कुलोंसे बन्धन से मुक्त हुए साधुओंमें भी उच्चगोत्र कर्मका उदय पाया जाता है । २ ६. समाधान-सम्पन्न ( धनाढ्य ) लोगों में जीवोंकी उत्पत्ति होना ही उच्चगोत्र - कर्मका कार्य है । खण्डन – यह समाधान भी सही नहीं है क्योंकि सम्पन्न ( धनाढ्य ) लोगोंमें जीवों की उत्पत्तिको यदि उच्चगोत्र-कर्मका कार्य माना जायगा तो ऐसी हालतमें म्लेच्छराजसे उत्पन्न हुए बालकमें भी हमें उच्चगोत्रकर्मके उदयका सद्भाव स्वीकार करना होगा, कारण कि म्लेच्छराजकी सम्पन्नता तो राजकुलका व्यक्ति होनेके नाते निर्विवाद है, परन्तु समस्या यह है कि जैन सिद्धान्तमें म्लेच्छजातिके सभी लोगोके नियमसे नीच गोत्र-कर्मका ही उदय माना गया है । १. 'नेक्ष्वाकु कुलाद्युत्पत्ती' का हिन्दी अर्थ षट्खण्डागम पुस्तक १३ में 'इक्ष्वाकुकुल आदिको उत्पत्ति में इसका व्यापार नहीं होता' किया गया है जो गलत है, इसका सही अर्थ 'इक्ष्वाकुकुल आदि क्षत्रियकुलों में जीवोंकी उत्पत्ति होना इसका व्यापार नहीं है' होना चाहिए । २. यहाँ पर षट्खण्डागम पुस्तक १३ में विब्राह्मणसाधुष्वपि वाक्यका हिन्दी अर्थ 'वैश्य और ब्राह्मण साधुओंमें' किया गया है जो गलत है, इसका सही अर्थ 'वैश्यों, ब्राह्मणों और साधुओंमें' होना चाहिए । ६-३ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ ___७. समाधान-अणुव्रतोंको धारण करनेवाले व्यक्तियोंसे जीवोंकी उत्पत्ति होना उच्चगोत्र-कर्मका कार्य है। खण्डन--यह समाधान भी निर्दोष नहीं है क्योंकि अणुव्रतोंको धारण करनेवाले व्यक्तिसे जीवकी उत्पत्तिको यदि उच्चगोत्र-कर्मका कार्य माना जायगा तो ऐसी हालतमें देवोंमें पुनः उच्चगोत्र-कर्मके उदयका अभाव प्रसक्त हो जायगा, जो कि अयुक्त होगा। देवोंमें एक ओर तो उच्चगोत्र-कर्मका उदय जैनधर्ममें स्वीकार किया गया है तथा दूसरी ओर देवगतिमें अणुव्रतोंके धारण करनेको असंभवताके साथ-साथ मात्र उपपादशय्यापर ही देवोंकी उत्पत्ति स्वीकार की गई है । जीवोंकी अणुवतियोंसे उत्पत्ति होना उच्चगोत्रकर्मका कार्य माननेपर दूसरी आपत्ति यह उपस्थित होती है कि इस तरहसे तो नाभिराजके पुत्र भगवान् ऋषभदेवको भी नीचगोत्री स्वीकार करना होगा क्योंकि नाभिराजके समयमें अणुव्रत आदि धार्मिक प्रवृत्तियोंका मार्ग खुला हुआ नहीं होनेसे जैन-संस्कृतिमें उन्हें अणुव्रती नहीं माना गया है। इस प्रकार उच्चगोत्र-कर्मके कार्यपर प्रकाश डालने वाले उल्लिखित सातों समाधानोंमेंसे जब कोई भी समाधान निर्दोष नहीं है तो इनके आधारपर उच्चगोत्र-कर्मको सफल नहीं कहा जा सकता है और इस तरह निष्फल हो जानेपर उच्चगोत्र-कर्मको कर्मोके वर्ग में स्थान देना ही अयक्त हो जाता है जिससे इसका (उच्चगोत्रकर्मका) अभाव सिद्ध हो जाता है तथा उच्चगोत्र-कर्मके अभावमें फिर नीचगोत्र-कर्मका भी अभाव निश्चित हो जाता है, कारण कि उच्च और नीच दोनों ही गोत्र-कर्म परस्पर एक-दूसरेसे सापेक्ष होकर ही अपनी सत्ता कायम रक्खे हए हैं। इस प्रकार अंतिम निष्कर्षके रूपमें सम्पूर्ण गोत्र-कर्मका अभाव सिद्ध होता है । । उक्त व्याख्यानपर बारीकीसे ध्यान देनेपर इतनी बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीके समयके विद्वान् एक तरफ तो जैन-सिद्धान्त द्वारा मान्य नारकियों और तिर्यंचोंमें नीचताकी व्यवस्थाको तथा देवोंमें उच्चताकी व्यवस्थाको निर्विवाद ही मानते थे लेकिन दूसरी तरफ मनुष्योंमें जैनशास्त्रों द्वारा स्वीकृत उच्चता तथा नीचता सम्बन्धी उभयरूप व्यवस्थाको वे शंकास्पद स्वीकार करते थे। नारकियों और तिर्यचोंमें नीचताकी व्यवस्थाको और देवोंमें उच्चताकी व्यवस्थाको निर्विवाद माननेका कारण यह जान पड़ता है कि सभी नारकियों और सभी तिर्यचोंमें सर्वथा नीचगोत्र-कर्मका तथा सभी देवोंमें सर्वदा उच्चगोत्र-कर्मका उचय ही जैन आगमों द्वारा प्रतिपादित किया गया है और मनुष्योंमें उच्चता तथा नीचता उभयरूप व्यवस्थाको शंकास्पद माननेका कारण यह जान पड़ता है कि चंकि मनुष्योंमें नीचगोत्र-कर्म तथा उच्चगोत्र-कर्मका उदय छद्मस्थों (अल्पज्ञों) के लिये अज्ञात ही रहा करता है। अतः उनमें नीचगोत्र-कर्मके आधारपर नीचताका और उच्चगोत्र-कर्मके उदयके आधारपर उच्चताका व्यवहार करना हम लोगोंके लिये शक्य नहीं रह जाता है। ___ यद्यपि धवलाशास्त्रकी पुस्तक १५ के पृष्ठ १५२ पर तिर्यचोंमें भी उच्चगोत्र-कमकी उदीरणाका कथन किया गया है इसलिए मनुष्योंकी तरह तियंचोंमें भी उच्चता तथा नीचताकी दोनों व्यवस्थायें शंकास्पद हो जाती हैं परन्तु वहींपर यह बात भी स्पष्ट कर दी गई है कि तिर्यचोंमें उच्चगोत्र-कर्मकी उदीरणाका सदभाव माननेका आधार केवल उनके (तिर्य चोंके) द्वारा संयमासंयमका परिपालन करना ही है। वह कथन निम्न प्रकार है: 'तिरिक्खेसू णीचागोदस्य व उदीरणा होदि त्ति सव्वत्थ परूविदं, एत्थ पुण उच्चागोदस्स वि उदीरणा परूविदा । तेणं पुण पुव्वावरविरोहो त्ति भणिदे, ण, तिरिक्खेसु संजमासंजमपरि Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ६/ संस्कृति और समाज : १९ पालयंतेषु उच्चागोत्तुवलंभावो, उच्चागोदे देससयलसंजमणिबंधणे संते मिच्छाइट्ठीसु तदभावो त्ति णासंकणिज्जं, तत्थवि उच्चागोदजणिदसंजमजोगतावेक्खाए उच्चागोदत्तं पडि विरोहाभावादो'। यह व्याख्यान शंका और समाधानके रूपमें हैं। इसमें निर्दिष्ट जो शंका है वह इसलिए उत्पन्न हुई है कि इस प्रकरणमें इस व्याख्यानके पूर्व ही तिर्यग्गतिमें भी उच्चगोत्र-कर्मकी उदीरणाका प्रतिपादन किया गया है।' व्याख्यानका हिन्दी अर्थ निम्न प्रकार है शंका-तिर्यचोंमें नीचगोत्रकर्मको उदीरणा होती है यह तो आगममें सर्वत्र प्रतिपादित की गई है, लेकिन इस प्रकारमें उनके उच्चगोत्रकर्मकी उदीरणाका भी प्रतिपादन किया गया है इसलिए आगममें पूर्वापर विरोध उपस्थित होता है। समाधान-यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि संयमासयमका पालन करनेवाले तिर्यचोंमें ही उच्चगोत्रकी उपलब्धि होती है। शंका-यदि जीवोंमें देशसंयम और सकलसंयमके आधारपर उच्चगोत्रका सदभाव माना जाय तो इस तरह मिथ्यादृष्टियोंमें उच्चगोत्रका अभाव मानना होगा जबकि जैनसिद्धान्तकी मान्यताके अनुसार उनमें उच्चगोत्रका भी सद्भाव पाया जाता है। समाधान-यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि मिथ्याष्टियोंमें देशसंयम और सकलसंयमकी योग्यताका पाया जाना तो सम्भव है ही इसीलिए उनकी उच्चगोत्रताके प्रति आगमका विरोध नहीं रह जाता है। यद्यपि घवलाके उक्त शंका-समाधानसे तिर्यग्गतिमें उच्चगोत्रकी उदीरणा सम्बन्धी प्रश्न तो समाप्त हो जाता है परन्तु इससे एक तो देशसंयम और सकलसंयमको उच्चगोत्रकर्मके उदयके सदभाबमें कारण माननेसे पंचम गुणस्थानमें जैनदर्शनके कर्म-सिद्धान्तके अनुसार प्रतिपादित नीचगोत्र कर्मके उदयका सद्भाव मानना असंगत होगा और दूसरे मनुष्यगतिकी तरह तिर्यग्ग तिमें भी देशसंयम धारण करनेकी योग्यताका परिज्ञान अल्पज्ञों के लिये असम्भव रहनेके कारण उच्चगोत्रकर्म और नीचगोत्र-कर्म के उदयकी व्यवस्था करना मनुष्यगतिकी तरह जटिल ही होगा। उक्त दोनों ही प्रश्न इतने महत्त्वके हैं कि जबतक इनका समाधान नहीं होता तबतक तिर्यग्गतिमें भी उच्चगोत्र और नीचगोत्रकी व्यवस्था सम्बन्धी समस्याका हल होना असंभव ही प्रतीत होता है। विद्वानोंको इनपर अपना दृष्टिकोण प्रकट करना चाहिए । हमारा दृष्टिकोण निम्न प्रकार है प्रथम प्रश्नके विषयमें हम ऐसा सोचते हैं कि आगम द्वारा तिर्यग्गतिमें उच्चगोत्रकर्मकी उदीरणाका जो प्रतिपादन किया गया है उसे एक अपवाद-सिद्धान्त स्वीकार कर, यही मानना चाहिए कि ऐसा कोई तिर्यंच-जो देशसंयम धारण करनेकी किसी विशेष योग्यतासे प्रभावित हो-उसीके उक्त आगमके आधारपर उच्चगोत्र-कर्मका उदय रह सकता है। इस तरह सामान्यरूपसे देशसंयमको धारण करनेवाला तिर्यच नीचगोत्री ही हुआ करता है। दूसरे प्रश्नके विषयमें हमारा यह कहना है कि नरकगति, तिर्यग्गति और देवगतिके जीवोंको जीवनवृत्तियोंमें समानरूपसे प्राकृतिकताको स्थान प्राप्त है, इसलिए तिर्यञ्चोंमें उच्चता और नीचताजन्य भेदका सदभाव रहते हुए भी जीवनवृत्तियोंकी उस प्राकृतिकताके कारण नारकियों और देवोंके समान ही सभी तिर्यचों १. तिरिक्खगईएउच्चागोदस्य जहण्णट्ठिदिउदीरणा संखेज्जगुणा, जट्ठिदि० विसेसाहिया। धवला, पुस्तक १५, पृष्ठ १५२ । Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०: सरस्वती-वरवपत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य में परस्पर जीवनवत्तिजन्य ऐसी विषमताका पाया जाना सम्भव नहीं है जिसके आधारपर उनमें यथायोग्य दोनों गोत्रोंके उदयकी व्यवस्था स्वीकार करनेसे व्यावहारिक गड़बड़ी पैदा होनेकी सम्भावना हो। केवल मानव-जीवन ही ऐसा जीवन है जहाँ जीवनवृत्तिके लिये अनिवार्य सामाजिक व्यवस्थाकी स्वीकृतिके आधारपर गोत्रकर्मके उच्च तथा नीचरूप उदयभेदका ध्यावहारिक उपयोग होता है। तात्पर्य यह है कि नरकगति, तिर्यग्गति और देवगतिके जीवोंकी जीवनवृत्तियोंमें प्राकृतिकताको जैसा स्थान प्राप्त है वैसा स्थान मनुष्योंकी जीवनवृत्तियों में प्राकृतिकताको प्राप्त नहीं है। यही कारण है कि मनुष्यको सामान्यरूपसे कौटुम्बिक संगठन, ग्राम्य संगठन, राष्ट्रीय संगठन और यहाँतक कि मानव संगठन आदिके रूपमें सामाजिक व्यवस्थाओंके अधीन रहकर ही पुरुषार्थ द्वारा अपनी जीवनवृत्तिका संचालन करना पड़ता है। परन्तु यह सब तिर्यचोंके लिये आवश्यक नहीं है। यद्यपि हम मानते है कि भोगभूमिगत मनुष्योंकी जीवनवत्तियोंमें प्राकृतिकताके ही दर्शन होते हैं और यही कारण है कि उन मनुष्योंमें सामाजिक व्यवस्थाओंका सर्वथा अभाव पाया जाता है। इसके अलावा, उनमें केवल उच्चगोत्रकर्मका ही उदय सर्वउदित विद्यमान रहता है। इसलिए उनके जीवन में व्यावहारिक विषमताको स्थान प्राप्त नहीं होता है लेकिन कर्मभूमिगत मनुष्योंकी जीवनवृत्तियोंमें जो अप्राकृतिकता स्वभावतः पायी जाती है उसके कारण उनको अपनी जीवनवृत्तिकी सम्पन्नताके लिये उक्त सामाजिक व्यवस्थाओंकी अधीनतामें पुरुषार्थका उपयोग करना पड़ता है और ऐसा देखा जाता है कि उनके द्वारा अपनी जीवनवृत्तिके संचालनके लिये अपनाये गये भिन्न-भिन्न प्रकारके पुरुषार्थों में उच्चता और नीचताका वैषम्य स्वभावतः हो जाता है जिसके कारण उनकी जोवनवृत्तियाँ भी उच्च और नीचके भेदसे दो वर्गोमें विभाजित हो जाती हैं। यद्यपि कर्मभूमिगत मनुष्योंमें जीवनवृत्तियोंकी बहुत-सी विविधतायें पायी जाती हैं और जीवनवृत्तियोंकी इन्हीं विविधताओंके आधारपर ही उनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन चार वर्णोंकी तथा इन्हीं वर्णों के अन्तर्गत जीवनवत्तियोंके आधारपर ही यथायोग्य लुहार, चमार आदि विविध जातियोंकी स्थापनाको जैनसंस्कृतिमें स्वीकार किया गया है। परन्तु जीवनवृत्तियोंके आधारपर स्थापित सभी वर्गों और उनके अन्तर्गत पायी जानेवाली उक्त प्रकारकी सभी जातियोंको भी जीवनवृत्तियोंमें पायी जानेवाली उच्चता और नीचताके अनुसार ही उच्च और नीच दो वर्गों में संग्रहीत कर दिया गया है । इस प्रकार उच्च और नीच दोनों प्रकारकी जीवनवृत्तियोंको ही कमशः उच्चगोत्र कर्म और नीचगोत्र कम के उदयका जैन संस्कृतिमें मापदण्ड स्वीकार किया गया है। जीवोंमें उच्चगोत्र कर्मका किस रूपमें व्यापार होता है ? अथवा जीवोंमें उच्चगोत्र कर्मका क्या कार्य होता है ? इस प्रश्नका जो समाधान आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीने स्वयं किया है और जिसे उन्होंने स्वयं ही निर्दोष माना है उसमें मनुष्योंकी इसी पुरुषार्थप्रधान जीवनवृत्तिको आधार प्ररूपित किया है । आचार्य श्रीवीरसेन स्वमीका वह समाधानरूप व्याख्यान निम्न प्रकार है । 'न, जिनवचनस्यासत्यत्वविरोधात् । तद्विरोधोऽपि तत्र तत्कारणाभावतोऽवगम्यते । न च केवलज्ञानविषयीकृतेष्वर्थेषु सकलेष्वपि रजोजुषां ज्ञानानि प्रवर्तन्ते, येनानुपलम्भाज्जिनवचनस्याप्रमाणत्वमुच्येत् । न च निष्फलमुच्चोत्रम्, दीक्षायोग्यसाध्वाचाराणां साध्वाचारैः कृतसंबन्धानां आर्यप्रत्ययाभिधानव्यवहारनिबन्धनानां पुरुषाणां संतानः उच्चगोत्रम्, तत्रोत्पत्तिहेतुः कर्माप्युच्चैर्गोत्रम् । न चात्र पूर्वोक्तदोषाः संभवन्ति, विरोधात्, तद्विपरीतं नीचैर्गोत्रम् । एवं गोत्रस्य द्वे एव प्रकृती भवतः।" पहले जो समूचे गोत्रकर्मके अभावकी आशंका इस लेखमें उद्धृत धवलाशास्त्रको पुस्तक १३ के पृष्ठ २८८ के व्याख्यानमें प्रकट कर आये हैं, उसीका समाधान करते हुए आगे वहीं पर ऊपर लिखा व्याख्यान आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीने किया है। उसका हिन्दी अर्थ निम्न प्रकार है Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ , संस्कृति और समाज : २१ "गोत्रकर्मके अभावकी आशंका करना ठीक नहीं है क्योंकि जिनेन्द्र भगवानने स्वयं ही गोत्रकर्मके अस्तित्त्वका प्रतिपादन किया है और यह बात निश्चित है कि जिनेन्द्र भगवानके वचन कभी असत्य नहीं होते हैं, असत्यताका जिनेन्द्र भगवानके वचनके साथ विरोध है अर्थात् वचन एक ओर तो जिनेन्द्र भगवान्के हों और दुसरी ओर वे असत्य भी हों-यह बात कभी संभव नहीं है, ऐसा इसलिए मानना पड़ता है कि जिन भगवान् के वचनोंको असत्य माननेका कोई कारण ही दृष्टिगोचर नहीं होता है। जिन भगवान्ने यद्यपि गोत्रकर्मके सद्भावका प्रतिपादन किया है किन्तु हमें उसकी (गोत्रकर्मकी) उपलब्धि नहीं होती है, इसलिए जिनवचनको असत्य माना जा सकता है, पर ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि केवलज्ञानके विषयभूत सम्पूर्ण पदार्थों में हम अल्पज्ञोंके ज्ञानकी प्रवृत्ति ही नहीं होती। इस प्रकार उच्चगोत्र-कर्मको निष्फल मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि जो पुरुष स्वयं तो दीक्षाके योग्य साधु आचारवाले हैं ही तथा इस प्रकारके साधु आचारवाले पुरुषोंके साथ जिनका सम्बन्ध स्थापित हो चुका है उनमें 'आर्य' इस प्रकारके प्रत्यय और 'आर्य' इस प्रकारके शब्द-व्यवहारकी प्रवृत्तिके भी जो निमित्त हैं, उन पुरुषोंके संतान' अर्थात् कुलकी जैन संस्कृतिमें उच्चगोत्र संज्ञा स्वीकार की गयो है तथा ऐसे कुलोंमें जीवके उत्पन्न होनेके कारणभूत कर्मको भी जैन संस्कृतिमें उच्चगोत्र-कर्मके नामसे पुकारा गया है। इस समाधान में पूर्व प्रदर्शित दोषोंमेंसे कोई भी दोष सम्भव नहीं है क्योंकि इसके साथ उन सभी दोषों का विरोध है। इसी उच्चगोत्रकर्मके ठीक विपरीत ही नीचगोत्रकर्म है। इस प्रकार गोत्रकर्मकी उच्च और नीच ऐसी दो ही प्रकृतियाँ हैं । आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीने जीवोंमें उच्चगोत्र-कर्मका किस रूपमें व्यापार होता है, इस प्रश्नका समाधान करनेके लिये जो ढंग अपनाया है उसका आशय उन सभी दोषोंका परिहार करना है, जिनका निर्देश ऊपर उद्धृत पूर्व पक्षके व्याख्यानमें आचार्य महाराजने स्वयं किया है। वे इस समाधान में यही बतलाते हैं कि दीक्षाके योग्य साधु-आचारवाले पुरुषोंका कुल ही उच्चगोत्र या उच्चकुल कहलाता है और ऐसे गोत्र या कुलमें जीवकी उत्पत्ति होना ही उच्चगोत्रकर्मका कार्य है । इस प्रकार मनुष्य-गतिमें दीक्षाके योग्य साधु-आचारके आधारपर ही जैन संस्कृति द्वारा उच्चगोत्र या उच्चकुलकी स्थापना की गयी है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्यगतिमें तो जिन कुलोंका दीक्षाके योग्य साधु आचार न हो वे कुल नीच-गोत्र या नीच कुल कहे जाने योग्य हैं, 'गोत्र' शब्दका व्युत्पत्त्यर्थ गोत्र शब्दके निम्नलिखित विग्रहके आधार पर होता है "गूयते शब्द्यते अर्थात् जीवस्य उच्चता वा नीचता वा लोके व्यवह्रियते अनेन इति गोत्रम्" इसका अर्थ यह है कि जिसके आधारपर जीवोंका उच्चता अथवा नीचताका लोकमें व्यवहार किया जाय वह गोत्र कहलाता है । इस प्रकार जैन संस्कृतिके अनुसार मनुष्योंकी उच्च और नीच जीवनवृत्तियोंके आधारपर निश्चय किये गए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण तथा लुहार, चमार आदि जातियाँ ये सब गोत्र, कुल आदि नामोंसे पुकारने योग्य है । इन सभी गोत्रों या कुलोंमेंसे जिन कुलोंमें पायी जाने वाली मनुष्योंकी जीवनवृत्तिको लोकमें उच्च माना जाए वे उच्चगोत्र या उच्च कुल तथा जिन कुलोंमें पायी जाने वाली मनुष्योंकी जीवनवृत्तिको लोकमें नीच माना जाए वे नीचगोत्र या नीच कुल कहे जाने योग्य है, इस १. संत तर्गोत्र जननकुलान्यभिजनान्वयौ । वंशोऽन्वायः संतान ।-अमरकोष, ब्रह्म वर्ग । २. 'दीक्षायोग्यसाध्वाचाराणा' आदि वाक्यका जो हिन्दी अर्थ षट्खण्डागम पुस्तक १३ में किया गया है, वह गलत है, हमने जो यहाँ अर्थ किया है उसे सही समझना चाहिए। Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं०बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ तरह उच्चगोत्र या कूलमें जन्म लेने वाले मनुष्योंको उच्च तथा नीच गोत्र या कुलमें जन्म लेने वाले मनुष्योंको नीच कहना चाहिए । आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीके उल्लिखित व्याख्यानसे यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है कि उच्चगोत्रमें पैदा होनेवाले मनुष्योंके नियमसे उच्चगोत्र-कर्मका तथा नीचगोत्रमें पैदा होनेवाले मनुष्योंके नियमसे नीचगोत्र-कर्मका ही उदय विद्यमान रहा करता है अर्थात् बिना उच्चगोत्र-कमके उदयके कोई भी जीव उच्च कुलमें और बिना नीचगोत्र-कर्म के उदयके कोई भी जीव नीच कुलमें उत्पन्न नहीं हो सकता है। तत्त्वार्थसूत्रको टीका सर्वार्थसिद्धि में उसके आठवें अध्यायके 'उच्चैर्नीचश्च' (सूत्र १२) सूत्रकी टीका करते हए आचार्य श्रीपूज्यपादने भी यही प्रतिपादन किया है कि “यस्योदयाल्लोकपूजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चेर्गोत्रम् । यदुदयाद् गहितेषु कुलेषु जन्म तन्नीचैगोत्रम् ।" अर्थात् जिस गोत्र-कर्मके उदयसे जीवोंका लोकपूजित (उच्च) कुलोंमें जन्म होता है उस गोत्रकर्मका नाम उच्चगोत्र कर्म है और जिस गोत्रकर्मके उदयसे जीवोंका लोकहित ( नीच ) कुलोंमें जन्म होता है उस गोत्र कर्मका नाम नीचगोत्र कर्म है । जैन संस्कृतिके आचारशास्त्र (चरणानुयोग ) और करणानुयोगसे यह सिद्ध होता है कि सभी देव उच्चगोत्री और सभी नारकी और सभी तिर्यञ्च नीचगोत्री ही होते हैं, परन्तु ऊपर जो उच्चगोत्र-कर्मकी उदीरणा करने वाले तिर्यचोंका कथन किया गया है उन्हें इस नियमका अपवाद समझना चाहिए, मनुष्योंमें भी केवल आर्यखण्डमें बसने वाले कर्मभूमिज मनुष्य ही ऐसे हैं जिनमें उच्चगोत्री तथा नीचगोत्री दोनों प्रकारके वर्गोका सद्भाव पाया जाता है अर्थात् उक्त कर्म-भूमिज मनुष्योंमेंसे चातुर्वण्य व्यवस्थाके अन्तर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्गों और इन वर्गों के अन्तर्गत जातियोंके सभी मनुष्य उच्चगोत्री ही होते हैं, इनसे अतिरिक्त जितने शद्र वर्ण और इस वर्णके अन्तर्गत जातियोंके मनुष्य पाये जाते हैं वे सब तथा चातुर्वण्य व्यवस्थासे बाह्य जो शक, यवन, पुलिन्दादिक है, वे सब नीचगोत्री ही माने गये है । आर्यखण्डमें बसनेवाले इन कर्मभूमिज मनष्योंको छोड़कर शेष जितने भी मनुष्य लोकमें बतलाये गये हैं उनमेंसे भोगभूमिके सभी मनुष्य उच्चगोत्री तथा पाँचों म्लेच्छखण्डोंमें बसने वाले मनुष्य और अन्तर्वीपज मनुष्य नीचगोत्री ही हुआ करते हैं, आर्यखण्डमें बसने वाले शक, यवन, पुलिन्दादिकको तथा पाँचों म्लेच्छखण्डोंमें और अन्तर्दीपोंमें बसने वाले मनुष्योंको जैन संस्कृतिमें म्लेच्छ संज्ञा दी गयी है और यह बतलाया गया है कि ऐसे म्लेच्छोंको भी उच्चगोत्री समझना चाहिए, जिनका दीक्षाके योग्य साधु आचारवालोंके साथ सम्बन्ध स्थापित हो चुका हो और इस तरह जिनमें 'आर्य' ऐसा प्रत्यय तथा 'आर्य' ऐसा शब्द व्यवहार भी होने लगा हो। इससे जैन संस्कृतिमें मान्य गोत्रपरिवर्तन के सिद्धान्तकी पुष्टि होती है, गोत्रपरिवर्तनके सिद्धान्तको पुष्ट करने वाले बहुतसे लौकिक उदाहरण आज भी प्राप्त है । जैसे—यह इतिहासप्रसिद्ध है कि जो अग्रवाल आदि जातियाँ पहले किसी समयमें क्षत्रिय वर्णमें थीं वे आज पूर्णतः वैश्य वर्णमें समा चुकी है, जैनपुराणोंमें अनुलोम और प्रतिलोम विवाहोंका उल्लेख है. उल्लेख स्त्रियोंके गोत्र-परिवर्तनकी सूचना देते हैं । आज भी देखा जाता है कि विवाहके अनन्तर कन्या पितपक्षके गोत्रकी न रहकर पतिपक्षके गोत्रकी हो जाती है। इस संपूर्ण कथनका अभिप्राय यह है कि यदि परिवर्तित गोत्र उच्च होता है तो नीचगोत्रमें उत्पन्न हई कन्या उच्चगोत्रकी बन जाती है और यदि परिवर्तित गोत्र नीच होता है तो उच्चगोत्रमें उत्पन्न हुई नारी भी नीचगोत्रकी बन जाती है और परिवर्तित गोत्रके अनुसार ही नारीके यथायोग्य नीचगोत्र कर्मका उदय न रहकर उच्चगोत्र कर्मका उदय तथा उच्चगोत्रका उदय समाप्त होकर नीचगोत्र कर्मका उदय आरम्भ हो जाता है। इसी प्रकार मनुष्यमें जीवनवृत्तिका परिवर्तन न होनेपर - Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ / संस्कृति और समाज : २३ भी गोत्र परिवर्तन हो जाता है। जैसा कि अग्रवाल आदि जातियोंका उदाहरण ऊपर दिया गया है । पहले कहा जा चका है कि आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीने 'उच्चगोत्र-कर्मका जीवोंमें किस रूप में व्यापार होता है। इस प्रश्नका समाधान करनेके लिये जो ढंग बनाया है उसका उद्देश्य उन सभी दोषोंका परिहार करना है जिनका निर्देश पूर्व पक्षके व्याख्यानमें किया है। इससे हमारा अभिप्राय यह है कि आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीने उच्चगोत्रका निर्धारण करके उसमें जीवोंकी उत्पत्तिके कारणभूत कर्मको उच्चगोत्र-कर्म नाम दिया है। उन्होंने बतलाया है कि दीक्षाके योग्य साधु आचारवाले पुरुषोंका कुल ही उच्चगोत्र कहलाता है और ऐसे कुलमें जीवकी उत्पत्ति होना ही उच्चगोत्र-कर्मका कार्य है। इसमें पूर्वोक्त दोषोंका अभाव स्पष्ट है क्योंकि इससे जैन संस्कृति द्वारा देवोंमें स्वीकृत उच्चगोत्र-कर्म के उदयका और नारकियों तथा तिर्यंचोंमें स्वीकृत नीचगोत्रकर्मके उदयका व्याघात नहीं होता है, क्योंकि इसमें उच्चगोत्रका जो लक्षण बतलाया गया है वह मात्र मनुष्यगतिसे ही सम्बन्ध रखता है और इसका भी कारण यह है कि उच्चगोत्र-कर्मके कार्यका यदि विवाद है तो वह केवल मनुष्यगतिमें ही सम्भव है, दूसरी गतियोंमें याने देव, नरक और तिर्यक्न मिकी गतियोंमें, कहाँ किस गोत्र-कर्मका, किस आधारसे उदय पाया जाता है, यह बात निर्विवाद है । इस समाधानसे अभव्य मनुष्योंके भी उच्चगोत्र-कर्मके उदयका अभाव प्रसक्त नहीं होता है क्योंकि अभव्योंको उच्च माने जानेवाले कूलोंमें जन्म लेनेका प्रतिबन्ध इससे नहीं होता है । म्लेच्छखण्डोंमे बसनेवाले मनुष्योंके नीचगोत्र-कर्मके उदयकी ही सिद्धि इस समाधानसे होती है क्योंकि म्लेच्छण्डोंमें जैन संस्कृतिकी मान्यताके अनुसार धर्म-कर्मकी प्रवृत्तिका सर्वथा अभाव विद्यमान रहनेके कारण दीक्षाके योग्य साधु आचारवाले उच्चकुलोंका सद्भाव नहीं पाया जाता है। इसी आधारपर अन्तर्वीपज और कर्मभूमिज म्लेच्छके भी केवल नीचगोत्र-कर्मके उदयकी ही सिद्धि होती है। आर्यखण्डके ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य संज्ञावाले कुलोंमें जन्म लेनेवाले मनुष्योंके इस समाधानसे केवल उच्चगोत्र-कर्मके उदयकी ही सिद्धि होती है क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य संज्ञावाले सभी कुल दीक्षा योग्य साधु आचारवाले उच्चकुल ही माने गये हैं। साधुवर्ग में उच्चगोत्र-कर्मके उदयका व्याघात भी इस समाधानसे नहीं होता है क्योंकि जहाँ दीक्षायोग्य साधु आचारवाले कुलों तकको उच्चता प्राप्त है वहाँ जब मनुष्य, कुलव्यवस्थासे भी ऊपर उठकर अपना जीवन आदर्शमय बना लेता है तो उसमें केवल उच्चगोत्र-कर्मके उदयका रहना ही स्वाभाविक है, शुद्रोंमें इस समाधानसे नीचगोत्र-कर्मके उदयकी ही सिद्धि होती है क्योंकि उनके कौलिक आचारको जैन संस्कृतिमें दीक्षायोग्य साधु आचार नहीं माना गया है। यही कारण है कि पूर्वमें उद्धत धवलाशास्त्रकी पुस्तक १३ के पष्ठ ३८८ के 'विड़ब्राह्मणसाधष्वपि उचैर्गोत्रस्योदयदर्शनात्' वाक्यमें वैश्यों. ब्राह्मणों और साधुओंके साथ शूद्रोंका उल्लेख आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीने नहीं किया है । यदि आचार्यश्रीको शूद्रोंके भी वैश्य, ब्राह्मण और साधु पुरुषोंकी तरह उच्चगोत्रके उदयका सद्भाव स्वीकार होता तो शूद्रशब्दका भी उल्लेख उक्त वाक्यमें करनेसे वे नहीं चूक सकते थे । उक्त वाक्यमें क्षत्रियशब्दका उल्लेख न करनेका कारण यह है कि उक्त वाक्य उन लोगों की मान्यताके खण्डनमें प्रयुक्त किया गया है जो लोग उच्चगोत्र-कर्मका उदय केवल क्षत्रिय कुलोंमें मानना चाहते थे। यदि कोई यहाँ यह शंका उपस्थित करे कि भोगभूमिके मनुष्योंमें भी तो जैन संस्कृति द्वारा केवल उच्चगोत्र-कर्मका ही उदय स्वीकार किया गया है लेकिन उपर्युक्त उच्चगोत्रका लक्षण तो उनमें वटित नहीं होता है, क्योंकि भोगभूमिमें साधुमार्गका अभाव हो पाया जाता है, अतः वहाँके मनुष्य-कुलोंको दीक्षा-योग्य साधु-आचारवाले कुल कैसे माना जा सकता है ? तो इस शंकाका समाधान यह है कि भोगभूमिके म उच्चगोत्री ही होते हैं, यह बात हम पहले ही बतला आये हैं, जैन-संस्कृतिकी भी यही मान्यता है। इसलिये Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ : सरस्वतो-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ वहाँ मनुष्योंकी उच्चता और नीचताका विवाद नहीं होनेके कारण केवल कर्मभूमिके मनुष्योंको लक्ष्यमें रखकर ही उच्चगोत्रका उपर्युक्त लक्षण निर्धारित किया गया है । इस प्रकार षट्खण्डागमकी धवला टीकाके आधारपर तथा सर्वार्थसिद्धि आदि महान् ग्रन्थोंके आधारपर यह सिद्धान्त स्थिर हो जाता है कि उच्चगोत्री मनुष्यके उच्चगोत्र-कर्मका और नीचगोत्री मनुष्योंके नीचगोत्रकर्मका ही उदय रहा करता है लेकिन जो उच्चगोत्री मनष्य कदाचित नीचगोत्री हो जाता है अथवा जो नीचगोत्री मनुष्य कदाचित् उच्चगोत्री हो जाता है, उसके यथायोग्य पूर्वगोत्र-कर्मका उदय समाप्त होकर दूसरे गोत्रकर्मका उदय हो जाया करता है। षटखण्डागमकी धवलाटीकाके आधारपर दुसरा सिद्धान्त यह स्थिर होता है कि दीक्षाके योग्य साधु आचारवाले जो कुल होते हैं याने जिन कुलोंका निर्माण दीक्षाके योग्य साधु-आचारके आधारपर हुआ हो वे कूल ही उच्चकूल या उच्चगोत्र कहलाते है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि कौलिक आचारके आधारपर ही एक मनुष्य उच्चगोत्री और दूसरा मनुष्य नीचगोत्री समझा जाना चाहिए, गोम्मटसार कर्मकाण्डमें तो स्पष्ट च्चाचरणके आधारपर एक मनष्यको उच्चगोत्री और नीचाचरणके आधारपर दूसरे मनुष्यको नीचगोत्री प्रतिपादित किया है । गोम्मटसार कर्मकाण्डका वह कथन निम्न प्रकार है। 'संताणकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदि सण्णा । उच्चं णीचं चरणं उच्चं णीचं हवे गोदं ॥ १३ ॥ जीवका संतानक्रमसे अर्थात् कुलपरम्परासे आया हुआ जो आचरण है उसी नामका गोत्र समझना चाहिए, वह आचरण यदि उच्च हो तो गोत्रको भी उच्च ही समझना चाहिए, और यदि वह आचरण नीच हो तो गोत्रको भी नीच ही समझना चाहिए। गोम्मटसार कर्मकाण्डकी उल्लिखित गाथाका अभिप्राय यही है कि उच्च और नीच दोनों ही कुलोंका निर्माण कुलगत उच्च और नीच आचरणके आधारपर ही हुआ करता है। यह कुलगत आचरण उस कुलकी निश्चित जीवनवृत्तिके अलावा और क्या हो सकता है ? इसलिये कुलाचरणसे तात्पर्य उस-उस कुलकी निर्धारित जीवनवृत्तिका ही लेना चाहिये, कारण कि धर्माचरण और अधर्माचरणको इसलिए उच्च और नीच गोत्रोंका नियामक नहीं माना जा सकता है कि धर्माचरण करता हुआ भी जीव जैन-संस्कृतिकी मान्यताके अनुसार नोचगोत्री हो सकता है । इस प्रकार कर्मभूमिके मनुष्योंमें ब्राह्मणवृत्ति, क्षात्रवृत्ति और वैश्यवृत्तिको जैन-संस्कृतिकी मान्यताके अनुसार उच्चगोत्रकी नियामक और शौद्रवृत्ति तथा म्लेच्छवृत्तिको नोचगोत्रको नियामक समझना चाहिए। एक बात और है कि वृत्तियोंके सात्त्विक, राजस और तामस ये तीन भेद मानकर ब्राह्मणवृत्तिको सात्त्विक, क्षात्रवृत्ति और वैश्यवृत्तिको राजस तथा शौद्रवृत्ति और म्लेच्छवृत्तिको तामस कहना भी अयुक्त नहीं है । जिस वृत्तिमें उदात्त गुणको प्रधानता हो वह सात्त्विकवृत्ति, जिस वृत्तिमें शौर्यगुण अथवा प्रामाणिक व्यवहारकी प्रधानता हो वह राजसवृत्ति और जिस वृत्तिमें हीनभाव अर्थात् दीनता या क्रूरताकी प्रधानता हो वह तामसवृत्ति जानना चाहिए । इस प्रकार ब्राह्मणवृत्तिमें सात्त्विकता, क्षात्रवृत्तिमें शौर्य, वैश्यवृत्तिमें प्रामाणिकता, शौद्रवृत्तिमें दीनता और म्लेच्छवृत्तिमें क्रूरताका ही प्रधानतया समावेश पाया जाता है। इन तीन प्रकारकी वत्तियोंमेंसे सात्त्विक वृत्ति और राजसवृत्ति दोनों ही उच्चताकी तथा तामसवत्ति नीचताकी निशानी समझना चाहिए। Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ / संस्कृति और समाज : २५ इस लेखमें हमने मनुष्योंकी उच्चता और नीचताके विषयमें जो विचार प्रकट किये हैं उनका आधार यद्यपि आगम है फिर भी यह विषय इतना विवादग्रस्त है कि सहसा समझ में आना कठिन है। हमारा अनुरोध है कि वे भी इस विषयका चिन्तन करें और अपनी विचारधाराके निष्कर्षको व्यक्त करें। यद्यपि इस विषय पर कर्मसिद्धान्तकी दृष्टिसे भी विचार किया जाना था, परन्तु लेखका कलेवर इतना बढ़ चुका है कि प्रस्तुत लेखमें मैंने जो कुछ लिखा है उसमें भी संकोचकी नीतिसे काम लेना पड़ा है। अतः अतिरिक्त विषय कभी प्रसंगानुसार ही लिखनेका प्रयत्न करूँगा। AAXN Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीरका समाजदर्शन इसमें संदेह नहीं, कि वर्तमान युगमें जहाँ एक ओर मनुष्यकी आध्यात्मिक विचारधारा समाप्त हुई है वहीं दूसरी ओर विज्ञानकी भौतिक चकाचौंधमें बिलासता जीवनकी आवश्यकताओंका रूप धारण करके मनुष्यके सरपर नाचने लगी है। आज मनुष्यके लिये इतना ही वस नहीं है, कि पेट भरनेके लिए उसे खाना मिल जाय और तन ढकनेके लिये वस्त्र, किन्तु मनुष्यकी आवश्यकताओंके बढ़ जानेसे धोवीके रहनेकी झोपड़ी आज 'वाशिंग शाप' बनी हुई है, नाईकी बाल बनानेकी मामूली पेटीने 'हेयर कटिंग सैलून'का रूप धारण कर लिया है, दर्जी केवल दर्जी न रहकर 'टेलर मास्टर' कहे जाने लगे हैं और बजारू होटल तथा सिनेमा घर भी मनुष्यकी आवश्यकताओंकी पूर्ति करनेवाले ही माने जाने लगे हैं। आज साधारण-से-साधारण व्यक्तिके व्यक्तिके घर जाया जाय, तो वहाँ भी कम-से-कम बाल बनानेके लिए एक रेज़र, नहानेके लिए बढ़िया साबुन, बाल सवारनेके लिये सुगन्धित तेलकी शीशी, कंघा और दर्पण, चाय पीनेके लिये कप-रकाबी और बाजार में घूमते समय हाथमें लेने के लिए अच्छी लम्बी-चौड़ी बेटरी आदि चीजें अवश्य ही देखनेको मिलेंगी। इसके अतिरिक्त प्रत्येक मनुष्यके अन्तःकरणमें सुन्दर विलास-भवन, बिजलीकी रोशनी, बिजलीके पंखे, हारमोनियम, ग्रामोफ़ोन, रेडियो, टीबी, रेफ्रिजरेटर, मोटर आदि विलासकी सैकड़ों चीजें पानेकी कल्पनायें निर्वाध गतिसे अपना स्थान बनाती जा रही हैं। __मनुष्यकी उक्त आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिए अटूट पैसेकी आवश्यकता है । जिस मनुष्यके पास जितना अधिक पैसा होगा वह मनुष्य विलासको उतनी ही अधिक सामग्री आवश्यकताके नामपर संग्रहीत कर सकता है। यही कारण है कि प्रत्येक मनुष्यकी दृष्टि न्याय और अन्यायका भेदरहित छल-बल आदि साधनों द्वारा पैसा संग्रह करनेकी ओर ही झुकी हुई है । भिखारी, मजदूर, किसान, जमींदार, साहूकार, मुनीम, क्लर्क, आफीसर, व्यापारी, राजा, पुजारी, शिक्षक, धर्मोपदेशक, धर्मपालक और साधु-सन्त आदि किसीको भी आज इस दृष्टिका अपवाद नहीं माना जा सकता। गत द्वितीय महायुद्धने तो प्रत्येक मनुष्यकी उक्त दृष्टिको और भी कठोर बना दिया है, जिसके परिणामस्वरूप आज मानवसमष्टि बिलकूल अस्त-व्यस्त हो चुकी है और कोई भी व्यक्ति अपनेको सुखी अनुभव नहीं कर रहा है। पैसा संग्रह करनेकी भावनाने ही मानवसमाजमें जबर्दस्त आर्थिक विषमता उत्पन्न कर दी है, क्योंकि पैसा कमानेके बड़े-बड़े साधन पैसे के बलपर ही खड़े किये जा सकते हैं; इसलिए सम्पत्तिके उत्पादनमें पैसेको ही महत्त्वपूर्ण साधन मान लिया गया है और परिश्रमका इस विषयमें कुछ भी मूल्य नहीं रह गया है। यही कारण है कि जिन लोगोंके पास पैसा है उन लोगोंने पैसा कमानेके बड़े-बड़े साधन खड़े कर लिये हैं और उन साधनोंके जरिये वे विश्वको समस्त सम्पत्तिको केवल अपने पास ही संग्रहीत कर लेनेके प्रयत्नमें लगे हुए हैं। इस प्रकार एक ओर जहाँ पैसे वालोंके खजाने दिन-प्रतिदित बिना परिश्रमके भरते चले जा रहे है वहाँ दूसरी ओर उनके इस कार्य में अपने खून और पसीनाको एक कर देनेवाले मजदूर पेट भरनेको भोजन और तन ढकनेको वस्त्र तक पानेके लिये तरसा करते हैं। मानवसमष्टिको भस्मसात कर देनेवाली वर्तमान विषम परिस्थितिसे आजके विचारशील लोगोंके मस्तिष्कमें विचारोंकी क्रांति उत्पन्न कर दी है और उस परिस्थितिका खात्मा करने के लिये साम्यवादी और समाजवादी आदि भिन्न-भिन्न दल कायम हो चुके हैं और होते जा रहे हैं । ये सभी दल अपने-अपने दृष्टिकोणके आधारपर मानवसमष्टिकी बर्तमान विषय परिस्थितिका शीघ्र ही अन्त कर देना चाहते है । उक्त दलोंके दरम्यान नीतिसम्बन्धी मतभेद कितने ही क्यों न हों, फिर भी जहाँतक मानवसमष्टिकी वर्तमान आर्थिक विषमताका सवाल Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ / संस्कृति और समाज : २७ है वहाँतक इन दलोंकी विचारधारा में प्रायः कुछ भी भेद नहीं है। रूसको साम्यवादी सरकारको नीतिमें मूलतः आर्थिक समानताको स्थान प्राप्त ही हैं परन्तु भिन्न-भिन्न देशोंकी समाजवादी सरकारें भी आर्थिक विषमताको दूर करनेकी दृष्टिसे ही उद्योग-धन्धोंका राष्ट्रीयकरण करनेकी ओर अग्रसर होती जा रही हैं। ___ यद्यपि वर्तमान विकासके युगमें मानवसमष्टिसे आर्थिक विषमताको नष्ट कर देना असम्भव नहीं है, परन्तु इतना निश्चित है कि केवल शासनतन्त्रकी कानूनी व्यवस्थाके आधारपर ही इसे नष्ट नहीं किया जा सकता । इसको नष्ट करनेके लिये कानुनी व्यवस्थाके साथ-साथ प्रत्येक मानवको अपने कर्तव्यको समझनेकी भी अनिवार्य आवश्यकता है। इसके बिना शासनतन्त्रकी विशुद्ध कानूनी व्यवस्था विल्कुल बेकार है । साम्यवादी रूसको पहले निश्चित किये गये अपने दृष्टिकोणमें अब इसलिये कुछ परिवर्तन करना पड़ा है और यही कारण है कि कानूनी विश्वके सभी देशोंमें प्रजातन्त्र अथवा राजतन्त्रके रूपमें स्थापित शासनतन्त्रके साथ-साथ धर्मतन्त्र की भी स्थापना की गयी है । भारतवर्षमें तो सामाजिक सुव्यवस्था शासनतन्त्रकी अपेक्षा धर्मसंघको ही अग्रिम स्थान मिला हुआ है । विश्वबन्ध महात्मा गांधीने विशुद्ध राजनीतिको नगण्य और तुच्छ मानते हुए विश्वके सामने और विशेषकर भारतवर्षके सामने धर्मतन्त्रकी महत्ताके इस आदर्शको पुनः स्थापित कर दिया है । तात्पर्य यह है कि साम्यवादी अथवा समाजवादी सरकारों द्वारा उद्योगधन्धोंका राष्ट्रीयकरण कर देनेके बाद भी मानवसमष्टिसे आर्थिक विषमताको दूर करने के लिये प्रत्येक व्यक्तिकी कुछ-न-कुछ जवाबदारी अवश्य ही शेष रह जाती है, जिसे व्यक्ति मानवसमष्टिके प्रति निश्चित किये गये अपने कर्त्तव्यज्ञान द्वारा ही पूरा कर सकता है और उसको इस प्रकारका कर्तव्यपना धर्मतन्त्रके द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। भगवान महावीरने धर्मतन्त्रकी महत्ताके इस तथ्यको भली प्रकार समझ लिया था, इसीलिये उन्होंने अपने युगकी सामाजिक दुर्व्यवस्थाको ठीक करनेके लिये अर्थात् मानवसमष्टिसे शोषक और शोष्यके भेदको नष्ट करनेके लिये धर्मतन्त्रके आधारपर प्रत्येक मानवको अपरिग्रहवादके अपनानेका उपदेश दिया था। इस सिद्धान्तके अनुसार आत्मार्थी लोकोत्तर महापुरुष साध-सन्त वगैरह आत्मकल्याणके उद्देश्यसे आध्यात्मिकताके उच्चतम शिखरपर पहुंचते हुए जहां परिग्रहका सर्वथा त्याग कर दिया करते थे वहां समाजके बीच में रहनेवाले गार्हस्थ्यमार्गके पथिक जन-साधारणके लिये उक्त अपरिग्रहवाद' के आधारपर 'अ-ईषत्-(अल्प), अर्थात् आवश्यकतानुसार परिग्रह रखनेकी छूट भी प्रदान की गयी थी और इसको भगवान महावीरकी धार्मिक परिभाषामें "परिग्रहपरिमाणव्रत" नाम दिया गया था। तात्पर्य यह है कि भगवान् महावीरका युग इस समय जैसा भौतिक विज्ञानका युग नहीं था, उस युगमें कोई भी उद्योगधन्धा कल-कारखानोंसे सम्बद्ध नहीं था, प्रत्येक उद्योग और प्रत्येक धन्धा केवल मनुष्यके । हस्तकौशलमें ही सीमित था। इसलिये एक तो इस प्रकारकी आर्थिक विषमता-"एक ओर तो करोड़ोंकी सम्पत्ति तिजोरियोंके अन्दर बन्द रहे और दूसरी ओर भूखे तथा नंगे नरकंगाल आम रास्तोंपर मारे-मारे फिरें; एक ओर पूंजीपति लोग हजारों मजदूरोंको अपना आर्थिक गुलाम बनाकर बिना परिश्रमके ही लाखों रुपया कमायें और दूसरी ओर मजदूर कड़ी-से-कड़ी-मेहनत करनेके बाद भी पौष्टिक भोजन, अच्छे वस्त्र और बच्चों की शिक्षाके साधन भी न जुटा पायें" उस समय न थी। दूसरे, उक्त परिग्रहपरिमाणवतके जरिये भगवान महावीरने प्रत्येक मानवको अपने पुरुषार्थसे पैदा किये गये द्रव्यका भी समष्टिके हितमें उपयोग करना सिखलाया था। भगवान महावीरने अहिंसावादके जरिये "सरोंको जीने दो" के प्रचारके साथ-साथ "अपरिग्रहवादके जरिये दूसरोंको जीवित रखनेका प्रयत्न भी करो" का भी प्रचार किया था। भगवान महावीर चूंकि परलोकको मानते थे इसलिये उन्होंने मानव समष्टिको अपरिग्रहवादकी ओर Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ : सरस्वतो-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचायं अभिनन्दन-ग्रन्थ झुकानेके लिए इस बातका दृढ़ताके साथ प्रचार किया था कि पुनर्भवमें मनुष्य योनि उसी व्यक्तिको मिल सकती है जो परिग्रहपरिमाणवती होकर अर्थात् आवश्यकताके अनुसार परिग्रह स्वीकार करके ही अपने जीवनकार्योंका संचालन किया करता है और जो इस प्रकारकी आवश्यकतासे अधिक परिग्रह रखनेका प्रयत्न करता है उसको पुनर्भवमें निश्चित ही नरकयोनिके कष्ट भोगने पड़ते हैं । इसका मतलब यह है कि आवश्यकतासे अधिक परिग्रह रखनेका अर्थ दूसरेके हकका अपहरण करना ही तो है और जो इस तरहसे दूसरेके हकका अपहरण करता है उसे प्रकृति इस प्रकारका दण्ड देती है कि पुनर्भवमें उसे जीवन-कार्योंके संचालनकी सामग्री अप्राप्य ही रहा करती है। यहाँपर यह बात अवश्य ही ध्यानमें रखना चाहिए कि यद्यपि प्रत्येक मनुष्यकी जीवनसम्बन्धी खोने पाने पहिनने-ओढ़ने और निवास वगैरहकी आवश्यकतायें समान है फिर भी कोई व्यक्ति तो सिर्फ अपने जीवनकी जवाबदारी बहन करता है, कोई व्यक्ति छोटे या बड़े एक कुटुम्बके जीवनकी जवाबदारी बहन करता है और कोई व्यक्ति इससे भी आगे बहुतसे कुटुम्बोंकी जवाबदारी बहन करता है। इसलिए इस आधारपर भिन्न-भिन्न मनुष्योंकी आबश्यकतायें भी तरतमरूपसे भिन्न-भिन्न ही रहा करती हैं। और इस आधारपर परिग्रहका परिमाण भी किया गया है। Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन मन्दिर और हरिजन जैन संस्कृतिके आधारपर होनेवाली समाजरचनामें मानव-मानवके बीच छुआछुतको स्थान मिलना असम्भव है । यद्यपि कुछेक जैन ग्रन्थोंमें छआछतका उल्लेख है और जैन समाजमें उसका प्रचलन भी एक अर्से से चला आ रहा है । परन्तु यह निश्चित बात है कि जैन संस्कृतिके ऊपर वैदिक संस्कृतिका प्रभाव पड़ जानेके कारण ही यह सब कुछ हुआ है। इसलिए पहली बात तो यह है कि यदि भारतवर्षसे छुआछूतको समाप्त किया जाता है तो जैनोंको तो प्रसन्न ही होना चाहिये । दूसरी बात यह है कि जैन मन्दिरों में हरिजनोंके प्रवेश करनेका विरोध करनेसे पहले हमें यह सोच लेना चाहिए कि समग्र भारतवर्षसे यदि छुआछूतको समाप्त कर दिया जाता है तो जैनोंमें इसका प्रचलन बना रहना असम्भव है। हरिजन-मन्दिर-प्रवेश बिलका केवल इतना ही आशय है कि जो स्थान सर्वसाधारणके उपयोगके लिए खुला हुआ है उस स्थानमें जानेसे हरिजनोंको सिर्फ इसलिए नहीं रोका जा सकता है कि वे अछूत है। अतः जैनोंको इससे डरनेकी बिलकूल आवश्यकता नहीं है कि हरिजन जैसी चाहे वैसी हालतमें जैन मन्दिरमें प्रवेश करेंगे और वहाँपर मनचाहा काम करेंगे; क्योंकि कानून वैदिक मन्दिरोंके समान जैन मन्दिरोंकी सुरक्षा और सुव्यवस्थाका भी ध्यान रखा जायगा । जैजोंमें हरिजन-मन्दिर प्रवेश बिलके बारेमें एक भ्रम यह भी फैला हुआ है कि इस बिलसे हरिजनोंको वे अधिकार प्राप्त हो जाते हैं जो कि सिर्फ एक जैनीको ही प्राप्त हो सकते हैं। मैं कहता है कि जैनोंको यह भ्रम भी अपने दिलसे निकाल देना चाहिये, क्योंकि बिलके जरिये अजैन ब्राह्मणको भी वे अधिकार प्राप्त नहीं हो सकते जो सामान्यतः एक जैनीको प्राप्त है। उपर्युक्त कथनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैन मन्दिरोंके बारेमें हरिजन-मन्दिर-प्रवेश बिल निम्नलिखित रूपसे लागू होता है (१) प्रत्येक जैनी, चाहे वह हरिजन ही क्यों न हो, उन सब अधिकारोंके साथ जैन मन्दिरमें प्रवेश पानेका अधिकारी है, जो सामान्यतः जैन होनेके नाते स्वभावतः उसे प्राप्त हो जाते है । (२) जबकि अजैन ब्राह्मण आदि जैन मन्दिरमें प्रवेश कर सकते हैं तो जिस तरहसे और जहाँतक वे मन्दिरके अन्दर प्रवेश करते हैं उस तरहसे और वहाँतक अछूत होनेके कारण अजैन हरिजनोंको प्रवेश करनेसे नहीं रोका जा सकता। (३) जैन संस्कृतिकी धार्मिक मर्यादा, मन्दिरकी पवित्रता और मन्दिरके अन्दर शान्ति कायम रखनेके उद्देश्यसे मन्दिरकी व्यवस्थापक कमेटी मन्दिर-प्रवेशके विषयमें सामान्य रूपसे ऐसे नियमोंका निर्माण कर सकती है, जो अछूतताको प्रोत्साहन देनेवाले न हों। जो लोग मन्दिरोंके बारे में हरिजन-मन्दिर-प्रवेश-बिल लागू होनेका विरोध करते हैं उनकी मुख्य दलीलें निम्न प्रकार हैं (१) जैन हिन्दु नहीं है, इसलिए यह बिल जैन मन्दिरपर लागू नहीं होना चाहिये। (२) ऐसा एक भी हरिजन नहीं है, जो जैनधर्मका माननेवाला हो। (३) धर्मके क्षेत्रमें शासनको हस्तक्षेप करनेका अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता है। Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ पहली दलीलके बारेमें यही कहूँगा कि जैन हिन्दू रहे है और रहेंगे । जैनियोंका हित इसीमें है कि वे एक स्वरसे अपने आपको हिन्दू घोषित करें । जैनियोंका यह भय बिलकुल निराधार है कि हिन्दू शब्द वैदिक संस्कृतिपरक होनेके कारण जैन संस्कृति केवल वैदिक संस्कृतिकी शाखा मात्र रह जाती है। वास्तवमें "हिन्दू शब्द वैदिक संस्कृतिपरक है" यह बात असत्य है। अब तक वैदिकों और जैनोंके परस्पर जो सामाजिक सम्बन्ध बने चले आ रहे हैं उन्हें और अधिक सुदृढ़ करनेकी आवश्यकता है और ऐसा होनेपर भी यह तो सर्वथा असंभव है कि ईश्वरकर्तृत्ववाद तथा वर्णाश्रमव्यवस्थाको लेकर परस्पर पूर्व और पश्चिम जैसा मौलिक भेद रखनेवाली वैदिक और जैन संस्कृतियोंमेसे एक संस्कृतिको दूसरी संस्कृतिकी शाखामात्र मान लिया जायगा । भारतीय राज्यके असाम्प्रदायिक राज्य घोषित हो जानेपर ऐसा होना और भी असंभव है। दूसरी दलीलका बहुत कुछ उत्तर ऊपर दिया जा चका है। विशेष यह कि "एक भी हरिजन जैनधर्मका माननेवाला नहीं है" यह जैन समाजके लिये शोभाकी चीज नहीं है। इससे तो जैन समाजकी कट्टर अनुदारता ही प्रकट होती है और इसीका यह परिणाम है कि जैनोंकी संख्या अंगलियोंपर गिनने लायक रह गई है। दूसरी बात यह है कि यदि कदाचित् कोई हरिजन जैनधर्ममें आज दीक्षित होनेको तैयार हो तो जैन लोग अपनी मर्जीसे उसे मंदिरके अन्दर जाने देने व पूजा करनेकी इजाजत देनेको कहाँ तैयार है ? जिससे इस दलीलके आधारपर जैन मन्दिरोंको हरिजनमंदिरप्रवेश बिलसे अलग कराकर हरिजनको जैन मंदिरमें न आने देनेकी अपनी चतुराईको जैन समाज सफल बना सके । हरिजन जैनमंदिरमें प्रवेश न करें, यदि हमारी ऐसी इच्छा है, तो इसका एक ही उपाय हो सकता है कि अजैन मात्रको जैन-मंदिरमें न आने दिया जाय, परन्तु जैन समाजका एक भी व्यक्ति यहाँ तक कि जैन मन्दिरमें हरिजनोंके प्रवेशका विरोधी भी इतना मूर्ख नहीं हो सकता है जो यह कहनेको तैयार हो कि जैन मन्दिरमें कोई भी अजैन प्रवेश पानेका अधिकारी नहीं है। इसलिए जैन समाजको चाहिए कि बिलकी मन्शाके मुताबिक वह अजन हरिजनोंको भी दूसरे अजनोंकी तरह जैन मन्दिरमें उदारतापूर्वक आनेकी इजाजत दे दे । तीसरी दलीलके बारेमें मैं इतना ही कहँगा कि यदि जनता स्वयं अपने अन्दरसे राष्ट्रीयताके घातक तत्त्वोंको निकाल दे तो निश्चय ही शासनको इसके लिए कानून बनानेकी आवश्यकता नहीं है। परन्तु दुर्भाग्यसे जनतामें अभी इतनी जागृत ही कहाँ पैदा हुई है ? इसलिए छोटी-छोटी बातोंके लिये भी कानून बनानेमें बड़ी मजबूतीके साथ सरकारको अपनी अमूल्य शक्ति खर्च करनी पड़ रही है। रही धार्मिक बातोंमें शासनके हस्तक्षेपकी बात, सो इसके बारेमें यही कहा जा सकता है कि जो तत्त्व राष्ट्रीयताका घातक है वह धर्मक्षेत्रकी मर्यादामें कभी भी नहीं आ सकता है। कुछ लोग बिना सोचे समझे यह कहा करते हैं कि जैन भाइयोंने देशको स्वतंत्र कराने में कांग्रेसको अपने त्याग और बलिदान द्वारा जो सहयोग दिया है उसका पुरस्कार जैनियोंको उनके धार्मिक अधिकारोंका अपहरण करके दिया जा रहा है। मैं ऐसे लोगोंसे पूछता हूँ कि यदि जैन भाई देशकी स्वतंत्रताके लिए कांग्रेसके साथ लड़ाईमें सम्मिलित न होते तो क्या देशद्रोहका काम उन्हें शोभा दे सकता था? और जैनोंके योग न देनेसे क्या देशको स्वतन्त्रता मिलना कठिन हो जाता ? इन दोनों प्रश्नोंका उत्तर 'हाँ' मैं देना जैन समाजके किसी भी व्यक्तिके लिए कठिन ही नहीं, असंभव है। मैं तो यह कहता है कि उक्त प्रकारके शासनके बारेमें आक्षेप करना समस्त जैन समाजको कलंकित करनेके सिवाय और कुछ नहीं है। आशा है जैन बन्धु इसपर विचार कर समुचित मार्ग अपनायेंगे । Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] अब तक कांग्रेसका और हिन्दू महासभाका भी यही दृष्टिकोण रहा है कि जैन हिन्दुओंसे पृथक् नहीं हैं, इसलिए मध्यप्रान्तीय सरकारने प्रान्तीय असेम्बलीमें जब हरिजन - मन्दिर प्रवेश बिल विचारार्थ उपस्थित किया था तब उस बिल में निर्दिष्ट 'हिन्दू' शब्दकी व्याख्यामें जैनियोंका भी समावेश था, जिससे जैन मन्दिर भी उक्त बिलके दायरेमें आते थे, लेकिन जैन समाजको यह सह्य नहीं था, इसलिए उसकी ओरसे उक्त बिलमें निर्दिष्ट 'हिन्दू' शब्द की व्याख्यामेंसे जैन शब्द के निकलवानेके लिये काफी प्रयत्न किया गया था । यद्यपि जैन समाजके इस रवैयेका उस समय 'सन्मार्ग प्रचारिणी समिति की ओरसे मैंने विरोध किया था । परन्तु जैन समाजको उसके अपने प्रयत्नमें सफलता मिली और हरिजन मन्दिर प्रवेश बिलके दायरेमें जैन मन्दिरोंको मध्यप्रांतीय सरकारने पृथक कर दिया। हो सकता है कि जैन समाजको अपनी इस तात्कालिक सफलतापर गर्व हो, परन्तु मुझे आज भी मध्यप्रान्तीय सरकारके दृष्टिकोणमें यकायक परिवर्तनपर आश्चर्य और जैन समाजकी राजनीतिक अदूरदर्शिता और सांस्कृतिक अज्ञानतापर दुःख हो रहा है । ६ / संस्कृति और समाज : ३१ जैन समाजकी आम धारणा यह है कि हिन्दू संस्कृतिका अर्थ वैदिक संस्कृति होता है और चूंकि जैन संस्कृति अपनी अनूठी मौलिक विशेषताओंके कारण वैदिक संस्कृतिसे बिलकुल निराला स्थान रखती है । इसलिए उसकी (जैन समाज को रायमें उसकी इच्छाके अनुसार सरकारको जैनियोंका हिन्दुओंसे पृथक् अस्तित्व स्वीकार करना चाहिए । जबसे हमारे देशमें राष्ट्रीय सरकारकी स्थापना हुई है तभीसे जैन समाज के नेता और समाचारपत्र इस बातका अविराम प्रयत्न करते आ रहे हैं कि जैन हिन्दुओंसे पृथक् अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं । जैन समाजके सामने सबसे पहले विचारणीय बात यह है कि जैन संस्कृतिके अनुसार मानवजाति में अछूत या हरिजन नामका पृथक् वर्ग कायम ही नहीं किया जा सकता है । जैनग्रन्थोंमें जो शूद्रोंके एक वर्गको अछूत बतलाया गया है वह जैन संस्कृतिके लिये वैदिक संस्कृतिको ही देन समझना चाहिये। जिस प्रकार परिस्थितिवश किसी समय वैदिक संस्कृतिमें जैन संस्कृतिके सिद्धांत प्रविष्ट कर लिये गये थे उसी प्रकार जैन संस्कृतिमें भी परिस्थितिवश एक समय वैदिक संस्कृतिके कतिपय सिद्धान्त प्रविष्ट कर लिए गये थे, उन सिद्धांतों में शूद्रोंके एक वर्गको अछूत मानना भी शामिल है । इसलिये हरिजनोंका मंदिर प्रवेश स्वीकार कर लेनेसे वैदिक संस्कृतिका तो ह्रास कहा जा सकता है परन्तु इससे जैन संस्कृतिका तो कलंक ही दूर होता है । दूसरी विचारणीय बात यह है कि मानवसमष्टिमें छूत और अछूतका भेद भारतवर्षके लिये अभिशाप ही सिद्ध हुआ है । इसलिये सरकार इस भेदको शीघ्र ही समाप्त कर देना चाहती है। ऐसी हालत में जैन समाज अपने वर्तमान रवैयेपर कायम रह सकेगा, यह असंभव बात है। बल्कि आज इसका मतलब यह लिया जा रहा है कि नगण्य जैन समाज इस तरहसे एक बड़ी संख्यावाली जातिके साथ ऐसी दुश्मनी मोल लेना चाहती है जो उसके अस्तित्व के लिये खतरा सिद्ध हो सकती है। 'जैन मित्र' २९ जनवरी सन् ४८ के अंक में जो डॉ० हीरालालजी नागपुरका वक्तव्य प्रकट हुआ है उससे इसी बातकी पुष्टि होती है। अभी उस दिन सिवनीमें जैन समाजकी ओरसे दिये गये अभिनन्दनपत्रके उत्तर में मध्यप्रान्त और बरारके मुख्यमन्त्री श्रीमान् पं० रविशंकरजी शुक्लने कहा था कि - " मुसलमानोंको जैनियोंसे सबक सीखना चाहिये। जिस तरहसे इनने भारतको अपनी भूमि समझा और जिस प्रकार मिलजुल कर रहते हैं उसी प्रकार मुसलमानोंको भी रहना चाहिये ।" हम मुख्यमन्त्रीकी नियतपर हमला नहीं करना चाहते हैं, महापुरुषोंको अपने भाषणोंमें नपे-तुले शब्दोंका ही प्रयोग करना चाहिये, परन्तु इतना अवश्य निवेदन करेंगे कि क्योंकि कौन कह सकता है कि भविष्य Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ में इस प्रकारके शब्दोंका दुरुपयोग नहीं किया जायगा और जैनियोंके साथ अभारतीयों जैसा व्यवहार नहीं किया जायगा । मैंने यहाँपर इसका निर्देश किया है कि अभी तक जो लोग जैनियोंका हिन्दुओंसे पृथक् अस्तित्व स्वीकार नहीं करते थे उन्हें भी जैन समाजके प्रचारने उसके हिन्दुओंसे पृथक् अस्तित्वको स्वीकार करनेके लिये मजबूर कर दिया है और ऐसी हालतमें जैन समाज अपने स्वत्वोंकी भली प्रकार रक्षा कर लेगी, इसमें संदेह है। अब तक जैन नेता और जैन समाचारपत्र जैन संस्कृतिके खत्म होनेका भय दिखलाकर ही जैनियोंको हिन्दुओंसे पृथक रहनेके लिये प्रेरित करते आये है । परन्तु उनके पास इस बातकी क्या गारंटी है कि वे इस तरहसे जैन संस्कृतिकी रक्षा कर ही लेंगे, जब कि खतरा निर्विवाद सामने है। . इस समय जैनियोंको बहुत ही सावधानीके साथ लिखने, बोलने और कार्य करनेकी जरूरत है । जैनियोंको सोचना चाहिये कि भगवान महावी रके बाद जैन संस्कृतिका महत्तम उद्धारक यदि किसीको माना सकता है तो वह महात्मा गांधी हैं। इनकी क्रान्तिसे जितना बल जैन संस्कृतिको मिला है उतना दूसरी संस्कृतिको नहीं । परन्तु जैनियोंमें जिनसेनाचार्य जैसे प्रभावक-नेताओंका अभाव होनेसे जैनी महात्मा गांधीको क्रान्तिका जैन संस्कृतिके लिये उचित उपयोग नहीं कर सके हैं। महात्मा गांधीके जीवनका अन्तिम जो लेख १ फरवरी सन् १९४८ के हरिजन सेवकमें प्रकाशित हुआ है उसमें उन्होंने जैन मन्दिरोंमें हरिजनोंको जाने देनेकी बात कही है। उनकी दलील यह है कि यदि जैन मन्दिरोंमें अजैन ब्राह्मण प्रवेश पा सकता है तो भंगीको इसलिये रोकना अन्याय है कि वह अछूत है। यह बात दूसरी है कि जैन विनयका समुचित रीतिसे संरक्षण करनेके लिये जैन मन्दिरोंके व्यवस्थापकों द्वारा नियम बनाये जा सकते हैं। प्रसन्नताकी बात है कि बीनाकी जैन समाजने सर्वसम्मतिसे हरिजनोंके लिये अपने यहाँका जैन मन्दिर खोल देनेका निर्णय किया है। जबलपुरके कुछ प्रमुख जैन सज्जनोंसे अभी कुछ दिन हुए वरुआसागरमें मेरी इस विषयपर चर्चा हुई थी वे हरिजनोंको जैन मन्दिर खोल देनेके पक्षमें हैं। पूज्य पण्डित गणेशप्रसाद जी वर्णी जैन मन्दिर हरिजनोंको खोल देनेमें कोई बुराई नहीं समझते हैं और वे चाहते हैं कि बहुत शीघ्र जैन मन्दिर हरिजनोंके लिये खोल दिये जाना चाहिये। मेरा जैन सभाजसे निवेदन है कि वह उदारतापूर्वक जैन मन्दिर हरिजनोंके लिये खोल देनेका सर्व सम्मत फैसला करे । इसीमें जैन समाज और जैन संस्कृतिका फायदा है और बीनाकी जैन समाजने जैन विनयका संरक्षण करने के लिये जैसी नियमावली बनाई है वैसी नियमावली बनाकर मन्दिरके दरवाजेपर टांक देना चाहिये। जैन मन्दिरोंमें शृंगारका जो सामान प्रदर्शनके लिये लगा रहता है उसे अलग कर देना चाहिये और ऐसे साधन जुटा देना चाहिये, ताकि लोगोंको मन्दिरोंमें वीतरागताका अच्छा परिचय मिल सके। ता० १२ फरवरीके 'जैन मित्र' में 'विचित्रता' शीर्षकसे एक लेख श्री राजमल जैन वी० काम, 'राजेश' कलकत्ताका प्रकट हुआ है उस लेखसे उनका जैनत्वके प्रति श्रद्धानकी अपेक्षा दम्भ ही प्रकट होता है। मैं ऐसे लेख लिखनेवालोंसे प्रार्थना करूंगा कि हमलोग केवल भावुकताके ही शिकार न बनें, आपके ऊपर जैन संस्कृतिके भविष्यकी जबाबदारी है। यदि हम इस तथ्यको न समझ सके और समयका उचित उपयोग न कर सके तो भावी पीढ़ीके सामने हमलोग मूर्ख सिद्ध होंगे। अन्तमें मैं इतना और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यदि किसी तरफसे जैन संस्कृतिको खत्म कर देनेकी ही साजिश की जाती है तो उसके विरुद्ध हमारा सर्वदा तैयार रहना अनुचित न होगा। मैं ऐसे किसी भी उचित प्रयत्नका स्वागत करूँगा और इसके लिये 'सन्मार्ग प्रचारिणी समिति' आगे करती हई दिखाई देगी। Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृतिके सन्दर्भमें 'हिन्दू' शब्दका व्यापक अर्थ उक्त विधेयकके सम्बन्धमें जैन समाजकी ओरसे हिन्दू धर्मसे जैन धर्मकी पृथक् सत्ताको लेकर जो आन्दोलन चल पड़ा है, वह आन्दोलन गलत दृष्टिकोणपर आधारित है, ऐसा मेरा ख्याल है । "जैन हिन्दू नहीं है" या "वैदिक धर्म (ब्राह्मण धर्म) का ही दुसरा नाम हिन्दू धर्म है" ये दोनों मान्यतामें भ्रान्त है क्योंकि ऐतिहासिक तथ्य हमें इस बातको माननेके लिये बाध्य करते हैं कि जिन जातियों और जिन धर्मोको जन्मभूमि भारतवर्ष है, वे सब जातियाँ और वे सब धर्म हिन्दु शब्दके वाच्य अर्थमें समा जाते हैं। अतः जैन समाजके लिये इस प्रकारका आन्दोलन करना उपयोगी नहीं हो सकता है कि "जैन हिन्दु नहीं हैं" या "जैनधर्म हिन्दु धर्म नहीं है।" जैन समाजसे मैं तो यही निवेदन करता हूँ कि वह इस प्रकारके गलत दृष्टिकोणको बदले और इस आधारपर आन्दोलन करे कि सार्वजनिक और सरकारी क्षेत्रोंमें जो हिन्दू शब्दका संकुचित अर्थ प्रचलित है, वह बन्द हो जावे तथा सभी क्षेत्रोंमें हिन्दू शब्द भारतीयताके ही अर्थमें प्रयुक्त होने लग जावे । सन्मार्ग प्रचारिणी समितिके मंत्रीकी हैसियतमें जो पत्र मैंने भारत सरकारके पास भेजा है, उसकी नकल समाजकी जानकारी और मार्ग दर्शनके लिये यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। मान्यवर! विषय-नियमका नाम अस्पृश्यता। अपर विधेयक । क्रमांक-बिल नं० १४ बी सन् ५४ का। विवादग्रस्त-धारा ३ की व्याख्या। अस्पृश्यता अपराध विधेयक पारित होने और भारतवर्ष के समस्त धर्मावलम्बियोंके साथ जैनधर्मावलम्बियोंपर भी उसे लागू करनेका मैं इसलिये स्वागत करूँगा कि यह विधेयक जैनधर्म और जैन संस्कृतिको सैद्धान्तिक परम्पराके अनुरूप है। इस पत्र द्वारा मैं आपका ध्यान केवल हिन्दू धर्मकी व्याख्यामें जो कमी रह गयी है, उसकी ओर आकर्षित करना चाहता हूँ। ऐतिहासिक तथ्योंपर दृष्टिपात करनेसे यह बात स्पष्ट रूपसे ज्ञात हो जाती है कि हिन्दू शब्दका प्रयोग भारतीयताके ही अर्थ में करना चाहिये परन्तु आजकल साधारणतया हिन्दू शब्दका प्रयोग वैदिक धर्म (ब्राह्मण धर्म) को मानने वाले वर्गके लिये किया जाने लगा है जो कि भ्रान्त है और विधेयककी धारा ३ में जो हिन्दु धर्मकी व्याख्या की गयी है, उससे भी न केवल उक्त भ्रान्त धारणाका निराकरण नहीं होता, प्रत्युत उसको पुष्टि ही होती है। अतः निवेदन है कि धारा ३ में हिन्दु धर्मकी व्याख्यामें निम्न प्रकार परिवर्तन कर दिया जावे । १-विधेयक में हिन्दू शब्दके स्थानपर भारतीय शब्दका प्रयोग कर दिया जावे।। यदि किसी कारणवश विधेयकमें हिन्दू शब्दका रखना अभीष्ट ही हो तो धारा ३ में "हिन्दु धर्मके विकास या रूप" के स्थानपर “समस्त हिन्दू धर्मों" ऐसा परिवर्तन कर दिया जावे। २-व्याख्यामें सिख, बौद्ध, जैन आदि धर्मोके साथ वैदिक धर्मका भी स्पष्ट उल्लेख कर दिया जावे । ऐसा करनेसे जैनधर्म और बौद्धधर्मकी वैदिक धर्मकी अपेक्षा स्वतन्त्र सत्ता, जो वास्तविक तथ्योंपर आधारित है-में कोई आँच नहीं आने पावेगी। मै आशा करता हूँ कि मेरा यह उचित निवेदन स्वीकार कर लिया जावेगा और इस तरह जैन समाजमें विधेयकके प्रति जो विरोधकी लहर उठ खड़ी हुई है, वह या तो समाप्त हो जावेगो या उसका महत्त्व हो कुछ नहीं रह जायेगा। Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट प्रस्तुत ग्रन्थमें व्याकरणाचार्य के जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं पूर्व प्रकाशित सामग्री दी गयी है, उसके पूर्व प्रकाशित शीर्षक आदिका विवरण इसमें प्रकाशित शीर्षकोंके साथ यहाँ दिया जाता है_____ इस ग्रन्थमें प्रकाशित शीर्षक अन्यत्र प्रकाशित शीर्षक आदि विवरण धर्म और सिद्धान्त १. तीर्थकर महावीरकी धर्मतत्त्व देशना : तीर्थंकर महावीरकी धर्मतत्त्व सम्बन्धी देशना, जैन सिद्धान्त भास्कर किरण-१,२ १९७४ । २. जैन-दर्शनमें आत्मतत्त्व : जैन दर्शनमें आत्मतत्त्व, ब्र० पं० चन्दाबाई अभिनन्दन-ग्रन्थ, १९५४। ३. निश्चय और व्यवहार मोक्ष-मार्ग : निश्चय और व्यवहार मोक्ष-मार्गका विशलेषण, श्री भंवरीलाल : निश्चय और व्यवहार मोक्ष-मागका विश वाकलीवाल स्मारिका, १९६८। ४. निश्चय और व्यवहार धर्ममें साध्य-: निश्चय और व्यवहार धर्ममें साध्य-साधकभाव, श्री सुनहरीलाल साधकभाव अभिनन्दन-ग्रन्थ, १९८२ । ५. निश्चय और व्यवहार शब्दोंका : जैनागममें प्रयुक्त निश्चय और व्यवहार शब्दोंका अर्थाख्यानअर्थाख्यान मरुधर केसरी मुनि श्री मिश्रीलालजी महाराज अभिनन्दन-ग्रंथ, १९६८। ६. व्यवहारकी अभूतार्थताका अभिप्राय : व्यवहारको अभूतार्थताका अभिप्राय, दिव्यध्वनि वर्ष-१, अक्तूबर-नवम्बर १९६६ । ७. संसारी जीवोंकी अनन्तता : जीवोंकी अनन्तता ( अप्रकाशित ) ८. जैनदर्शनमें भव्य और अभव्य ': भव्य और अभव्य (अप्रकाशित ) ९. जीवदया : एक परिशीलन : जीव दयाका विश्लेषण, आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ, १९८७ । १०. जैनागममें कर्मबन्ध : कर्मबन्धपर विचार (अप्रकाशित) ११. कर्मबन्धके कारण : आगममें कर्मबन्धके कारण, वीर-वाणी वर्ष-४१, अंक १२,१३ . . मार्च-अप्रैल, १९८८। . १२. गोत्र कर्मके विषयमें मेरा चिन्तन . : गोत्र कर्मके विषयमें मेरी दृष्टि (अप्रकाशित) १३. भुज्यमान आयुमें अपकर्षण और . : भुज्यमान आयुमें अपकर्षण और उत्कर्षण, जैनदर्शन १६ उत्कर्षण सितम्बर १९३३ । १४. क्या असंज्ञी जीवोंमें मनका सदभाव है ? : क्या असंज्ञी जीवोंके मनका सद्भाव मानना आवश्यक है, अनेकान्त वर्ष-१३, किरण-९, १९५५ । १५. सम्यग्दृष्टिका स्वभाव . : सम्यग्दृष्टिका स्वभाव, दिव्यध्वनि अप्रैल, १९६८ । १६. पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं औ : अक्रमबद्ध भी। : ( अप्रकाशित ) १७. जयपुर खानियाँ तत्त्वचर्चा और उसकी : जयपुर ( खानियाँ ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा पुस्तकसे समीक्षाके अन्तर्गत उपयोगी १९८२ । . प्रश्नोत्तर १,२,३, ४ की सामान्य समीक्षा दर्शन और न्याय १. भारतीय दर्शनोंका मूल आधार : भारतीय दर्शनोंका मूल आधार, वीर १९४५ । Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. जैनदर्शनमें प्रमाण और नय ३. ज्ञानके प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदोंका आधार ४. जैनदर्शन में नयवाद ५. अनेकान्तवाद और स्याद्वाद ६. स्याद्वाद दर्शन और उसके उपयोगका अभाव ७. दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगका विश्लेषण ८. जैनदर्शन में दर्शनोपयोगका स्थान ९. जैनदर्शन में वस्तुका स्वरूप १०. जैनदर्शन में सप्ततत्त्व और षद्रव्य ११. अर्थ में भूल और उसका समाधान साहित्य और इतिहास १. वीराष्टकम् : समस्या कान्ता कटाक्षाक्षतः (क्षताः) । २. समयसारकी रचनामें आचार्य कुन्दकुन्दकी दृष्टि ३. तत्त्वार्थसूत्रका महत्त्व ४. जैन व्याकरणकी विशेषताएँ ५. षट्खण्डागमके 'संजद' पद पर विमर्श ६. सांस्कृतिक सुरक्षाकी उपादेयता ७. जैन संस्कृति और तत्त्वज्ञान ८. युगधर्म बननेका अधिकारी कौन ? ९. ऋषभदेवसे वर्तमान तक जैनधर्मकी स्थिति परिशिष्ट : ३५ : प्राक्-कथन, डॉ० कोठियाजी द्वारा संपादित न्यायदीपिकाका प्रकाशन, १९४५ । : ज्ञानके प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदोंका आधार, ज्ञानोदय, जून १९५१ । : जैन दर्शन में नयवाद, गुरु गोपालदास वरैया स्मृति ग्रंथ १९६७ । : वीरशासनके मूलतत्त्व अनेकान्तवाद और स्याद्वाद, अनेकान्त वर्ष - २ किरण- १, १९३८ । : स्याद्वादका जैनधर्ममें स्थान व उसके क्रियात्मक उपयोगका अभाव, जैनदर्शन १९ सितम्बर १९३४ ॥ : दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगका विश्लेषण-आचार्य शिवसागर स्मृतिग्रन्थ वी० नि० सं० २४९९ । : जैनदर्शन में दर्शनोपयोगका स्थान, ज्ञानोदय, अप्रैल १९५१ । : एक दार्शनिक विश्लेषण - जैनदर्शनकी मान्यतामें वस्तु अनन्तधर्मात्मक भी है और अनेकान्तात्मक भी है, दिव्यध्वनि वर्ष - १ अंक ९, १९६६ । : जैनसंस्कृतिकी सप्तत्त्व और षद्रव्य व्यवस्थापर प्रकाश, अनेकान्त वर्ष - ८, किरण ४, ५, १९४६ । : अर्थ में भूल ( अप्रकाशित ) : वीराष्टकम् : समस्या - कान्ताकटाक्षाक्षतः (क्षताः) । दिगम्बर जैन, अंक १-२ | : समयसार की रचनामें आचार्य कुन्दकुन्दकी दृष्टि, महावीर जयन्ती स्मारिका १९८८ । अनेकान्त वर्ष - १२ किरण-४ : तत्त्वार्थ सूत्रका महत्त्व, सितम्बर १९५३ । : जैन व्याकरणमें इतर व्याकरणोंसे विशेषता व उसका महत्त्व, जैन सिद्धान्त भास्कर, वर्ष ११ अंक - ४ वी० नि० सं० २४५७ । सनातन जैन : पटखण्डागमकी सत्प्ररूपणाका ९३वाँ सूत्र, बुलन्दशहर, अक्तूबर १९४५ । : अभिभाषण सिवनी विद्वत्परिषद अधिवेशन सन् १९६५ । : अभिभाषण श्रावस्ती विद्वत्परिषद अधिवेशन ? : युगधर्मं बनने का अधिकारी कौन, खण्डेलवाल हितेच्छु युगधर्मांक वर्ष २६, अंक १, २ । : जैन मान्यतामें धर्मका आदि समय और उसकी मर्यादा, प्रेमीअभिनन्दन ग्रन्थ १९४६ । Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ : सरस्वती-बरवपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनम्वन-प्रन्य संस्कृति और समाज १. हमारी द्रव्य पूजाका रहस्य २. साधुत्वमें नग्नताका महत्त्व ३, जैनदृष्टिसे मनुष्योंमें उच्च-नीच व्यवस्थाका आधार ४. भगवान महावीरका समाज दर्शन ५. जैन मंदिर और हरिजन : हमारी द्रव्य पूजाका रहस्य, जैनदर्शन, दिसम्बर १९३६ । : साधुत्वमें नग्नताका स्थान, अनेकान्त, अप्रैल १९५५ ।। : जैनदृष्टिसे मनुष्योंमें उच्च-नीच व्यवस्थाका आधार, मुनि हजारीमल स्मतिग्रन्थ १९६५ । : भगवान महावीरका अपरिग्रहवाद, वीर, ५ अप्रैल १९४७ । : जैन मंदिर और हरिजन, ज्ञानोदय नवम्बर १९४९ । 'वीर' २८ फरवरी १९४८, वर्ष २३ ।। : अस्पृश्यता अपराध विधेयकके सम्बन्धमें जैन समाजको सही दृष्टिकोण अपनानेकी आवश्यकता, जैनसन्देश, २४ फरवरी १९५५ । ६. भारतीय संस्कृतिके सन्दर्भमें हिन्दू शब्दका व्यापक अर्थ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : २ सम्पादक मंडल परिचय प्रस्तुति-डॉ० भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु', दमोह डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य : । श्रद्धेय डॉ० कोठिया जी भारतीयदर्शन और जैन न्यायविद्याके प्रथम पंक्तिके अग्रगण्य मनीषी हैं। वे सहृदयवाग्मी, कुशल संयोजक, सफल संचालक एवं उदारमना विद्वान् हैं । अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के रचयिता, संपादक तथा अनुवादक डॉ० कोठियाजीका जन्म जून १९११ ई० में मध्यप्रदेशके छतरपुर मण्डलके श्री रेशिंदीगिरमें हुआ। अनेक शिक्षा-संस्थाओंमें शिक्षादान करते हुए डॉ० कोठिया काशी हिन्दू विश्वविद्यालयमें १४ वर्षों तक प्राध्यापक और उसके बाद रीडरके पद पर कार्यरत रहे । अखिल भारतवर्षीय दि ० जैन विद्वत्परिषद्के अध्यक्ष, श्रीगणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला तथा वीर सेवा मन्दिर-ट्रस्टके मंत्री एवं देशकी अनेक संस्थाओंके संचालक डॉ० कोठियाका अनेक बार सम्मान हुआ है । सन् १९८२ ई० में उन्हें एक भव्य अभिनन्दन-ग्रंथ' समर्पित करके अखिल भारतीय सम्मानसे अलंकृत किया गया है । डॉ० कोठियाके संपादकत्वमें डॉ० पन्नालाल साहित्याचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ तथा अन्य अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं । आपकी प्रमुख कृतियाँ-(१) संपादित ग्रन्थ-न्याय-दीपिका, आप्त-परीक्षा, प्रमाणपरीक्षा स्याटाद-सिद्धि. प्रमाण-प्रमेय-कलिका अध्यात्म-कमलमार्तण्ड आदि तथा-(२) मौलिक-कृतियाँ---- जैन-दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, जैन-तर्कशास्त्रमें अनुमान विचार आदि हैं । प्रस्तुत 'अभिनन्दन ग्रन्थ'के अथसे इति तक यशस्वी सूत्रधार और 'प्रधानसंपादक' आप ही हैं । डॉ० (५०) पन्नालालजी, साहित्याचार्य : परम-प्रातिभ, लब्ध-प्रतिष्ठ-आचार्य, निष्णात वाग्मी, मनीषी कवि, कुशल संचालक और सफल संगठक डॉ० पन्नालालजी साहित्याचार्यका जन्म ५ मार्च १९११ ई० को हआ। वे संस्कृत तथा हिन्दीके अनेक मौलिक ग्रन्थोंके प्रणेता तथा शताधिक ग्रन्थोंके यशस्वी सम्पादक और अनुवादक है । मध्यप्रदेश शासन, महामहिम राष्ट्रपति महोदय तथा विभिन्न सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्थानों द्वारा सम्मानित साहित्याचार्यजीका कार्यक्षेत्र पूज्य वर्णीजी द्वारा संस्थापित श्री गणेश जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर रहा है । वे अखिल. भारतवर्षीय दि. जैन विद्वत्परिषदके मंत्री. अध्यक्ष, कोषाध्यक्ष एवं संरक्षकके पदों पर (क्रमशः) अनवरत ४० वर्षसे सेवारत है। उनका अखिल-भारतीय अभिनन्दन ८६१ पष्ठीय अभिनन्दन-ग्रन्थ समर्पित करके किया जा रहा है । वे प्राचीन वाङ्मय विशेषतः जैन-साहित्य और दर्शनके मूर्धन्य मनीषी हैं । - पं० पन्नालालजी द्वारा प्रणीत 'सम्यक्त्व-चिन्तामणि' पर संस्कृतमें एक लघु शोध-प्रबन्ध भी सागर विश्वविद्यालयमें लिखा गया है। प्रस्तुत 'अभिनन्दन ग्रन्थ' की सम्पादनविधामें आपका प्रशस्य योगदान है । Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ : सरवस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल : राजस्थानके जैन ग्रन्थ भण्डारोंमें सुरक्षित महनीय साहित्यको उजागर करके प्राचीन वाङ्मय, विशेषतः जैन अनुसन्धानके अनेक संभावित पक्षोंका उद्घाटन करनेवाले डॉ० कासलीवालका जन्म आठ अगस्त १९२० ई० को जयपुरके निकट हुआ। संस्कृत, प्राकृत और हिन्दीके ५०० से अधिक ग्रन्थोंका परिचय तथा प्रशस्ति प्रकाशित करके उन्होंने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । आप इतिहासरत्न, विद्यावारिधि आदि उपाधियोंसे सम्मानित किये गये हैं । अनेक ग्रन्थोंके प्रणेता महावीर ग्रन्थ अकादमीके माध्यमसे अलभ्य-अप्रकाशित साहित्य को प्रकाशित करनेवाले डॉ० कासलीवालजी अनेक अभिनन्दन-ग्रन्थोंका कुशलतापूर्वक संपादन कर चुके हैं। विवेच्य 'अभिनन्दन ग्रन्थ' की सामग्री-संचयन, साक्षात्कार आयोजन और सम्पादन कार्यमें आपके सुदीर्घ अनुभव तथा सहज प्रकृतिका लाभ निरन्तर प्राप्त हुआ है । पं० बलभद्रजी जैन, न्यायतीर्थ : प्रभावक-पत्रकारिता, समीक्षा प्रधान पैनीदृष्टि, यशस्वी लेखक, कुशल संचालक पं० बलभद्रजी अग्रगण्य विद्वान् हैं । प्राकृत भाषाओं और उनके हार्दको जन-जन तक पहुँचानेके लिए कृतसंकल्प पं० बलभद्रजीका प्रत्युत्पन्नमतित्व सर्वत्र विश्रुत है । वे इस समय 'कुन्द-कुन्द-भारती' के यशस्वी निदेशक हैं । जैनधर्मकी तत्त्वमीमांसाको उसके मौलिक रूपमें प्रस्तुत और विवेचक तथा भारतके दि० जैनतीर्थ आदि ग्रन्थोंके लेखक आदरणीय पं० बलभद्रजीने इस ग्रन्थके सम्पादनमें गहरी दिलचस्पी ली है। श्री नीरजजी जैन, एम० ए०: __ ३१ अक्टूबर १९२६ ई० को जबलपुर जिलेके रीठी नगर में जन्में श्री नीरजजी सम्प्रति सतना निवासी हैं । वे हिन्दी, उर्दू, संस्कृत, प्राकृत तथा अंग्रेजीके मनीषी विद्वान् हैं । साहित्य जगत्में उनका प्रवेश फरवरी १९४४ ई० से हुआ और अनेक पत्र-पत्रिकाओंमें आपका लेखन गतिशील रहा । आपकी प्रकाशित पुस्तकोंमेंअहिंसाके अग्रदूत, वर्णी-वन्दना, कुण्डलपुर, तुलादान, आजादीको दुलहन, गोमटेश-गाथा, सोनगढ़-समीक्षा, श्रवणबेलगोला आदि मुख्य हैं । आपको अनेक रचनाएँ अप्रकाशित भी हैं। भारतीय इतिहास, कला और पुरातत्त्वके क्षेत्रमें कुशल लेखक श्री नीरजजी प्रसादगुण-पूर्ण कवि भी हैं।। श्री नीरजजी साहित्यिक, सामाजिक और राजनैतिक गतिविधियोंके सम्पादनमें निरन्तर सक्रिय मनस्वी विद्वान् हैं । वे जैनागमके अध्येता, प्रभावक वक्ता, प्रसाद गुण पूर्ण कवि और पुरातत्त्ववेत्ता हैं । प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थके सम्पादनमें श्री नीरजजीके दिशा निर्देश उपयोगी हुए हैं । डॉ० राजारामजी जैन : सम्प्रति प्राकृत भाषाओंके अध्ययन-अनुशीलनके क्षेत्रमें (स्व०) डॉ० नेमिचन्द्रजी ज्योतिषाचार्यको प्रवृत्तियोंको गति-प्रदाता डॉ० राजारामजीका जन्म सागर जिलेके मालथौन ग्राममें फरवरी १९२९ ई० को हुआ था। उनका शिक्षण पपौराजी तथा वाराणसीके जैन विद्यालयोंके अतिरिक्त बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयमें भी हुआ। Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ३९ डॉ० जैनने ( स्व ० ) डॉ० हीरालालजी जैनके निर्देशन में शोध कार्य किया । सम्प्रति वे आराके एच० डी० जैन महाविद्यालय में संस्कृत प्राकृत विभागाध्यक्ष हैं । अपभ्रंश साहित्यके प्रसिद्ध कवि 'रइधू' के साहित्यका आपने विशेष अध्ययन किया है । वर्द्धमानचरिउ, महावीरचरिउ आदि आपकी प्रसिद्ध संपादितसाहित्यिक कृतियाँ हैं । सामाजिक और साहित्यिक जीवनमें आप निरन्तर सक्रिय हैं । गणेश वर्णी दि० जैन संस्थान वाराणसी के आप मंत्री हैं । डॉ० राजारामजी इस अभिनन्दन ग्रन्थके सम्पादक मण्डलके वरिष्ठ सदस्य है । डॉ० भागचन्द्रजी जैन 'भागेन्दु' : लेखक - अनिलकुमार जैन अनुसन्धित्सु जबलपुर जिलेके रीठी नगरमें जन्में डॉ० भागचन्द्रजी 'भागेन्दु' जैन समाजके उन मनीषियोंमेंसे हैं। जिन्होंने अपने जीवनको सेवामय बना रखा है। प्राचीन वाङ्मय, भाषाशास्त्र, जैन-दर्शन- संस्कृति और कला - के क्षेत्र में उनकी विशिष्ट सेवाएँ हैं। डॉ० भागेन्दुजीका अध्ययन सागर ( म०प्र०) के श्रीगणेश जैन महाविद्यालय तथा सागर विश्वविद्यालय में हुआ । जैन-विद्याओं पर अनुसन्धान निर्देशन हेतु विख्यात डॉ० 'भागेन्दु' जी सम्प्रति सागर विश्वविद्यालयसे सम्बद्ध शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय दमोहके संस्कृत विभागके अध्यक्ष हैं । आपके निर्देशन में पाँच शोधार्थियोंको जैन विषयों पर पी-एच० डी० उपाधि प्राप्त हो चुकी है । सात अन्य शोधार्थी सम्प्रति शोधनिरत हैं। डॉ० भागेन्दुजी अखिल भारतीय स्तरकी अनेक संस्थाओं, शोध संस्थानों और विश्वविद्यालयोंसे निकटतः सम्बद्ध हैं | आप कुशल लेखक, यशस्वी संपादक, सफल प्राध्यापक और अच्छे वक्ता हैं । आपकी प्रसिद्ध कृतियाँ - देवगढ़की जैन कलाका सांस्कृतिक अध्ययन, भारतीय संस्कृतिमें जैनधर्मका योगदान, जैनधर्मका व्यावहारिक पक्ष : अनेकान्तवाद, अतीतके वातायनसे आदि हैं । आपने अनेक कृतियोंका सम्पादन भी किया है । साहित्याचार्य डॉ० पन्नालाल जैन अभिनन्दन ग्रन्थके प्रधान-सम्पादक और संयोजक डॉ० भागेन्दु जी हैं । प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थके सम्पादनमें आपकी भूमिका नितरां प्रशंसनीय है । . डॉ० सुदर्शनलालजी जैन : डॉ० सुदर्शनलालजीका जन्म अप्रैल १९४४ ई० में हुआ । आपकी शिक्षा कटनी, सागर और बनारस के जैन विद्यालयों में हुई । आपने संस्कृत और प्राकृत साहित्य तथा जैन-बौद्ध दर्शनका गहन अध्ययन किया और आचार्य एवं पी-एच० डी० की उपाधि प्राप्त की। आपका शोध-प्रबन्ध 'उत्तराध्ययन सूत्रका 'समालोचनात्मक अध्ययन' विषय पर है और प्रकाशित हो चुका है। आपके निर्देशनमें अनेक शोध छात्र शोधकर्म में निरत हैं । सामाजिक गतिविधियों में आपकी प्रशस्त अभिरुचि है । डॉ० सुदर्शनलालजी सम्प्रति बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग में रीडर हैं । इस अभिनन्दन ग्रन्थ सम्पादनमें आपका महनीय योगदान रहा है । Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० : सरस्वती-धरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ डॉ० फूलचन्द्रजी जैन 'प्रेमी' : सागर (म० प्र०) जिलेके दलपतपुर ग्राममें जन्में डॉ० 'प्रेमी' जी कुशल-वक्ता, यशस्वी-लेखक, सामाजिक चेतनाके धनी युवा विद्वान् हैं। इन्होंने कटनी एवं बनारसके जैन विद्यालयोंमें शिक्षा प्राप्त की। जैनदर्शनाचार्य, प्राकृताचार्य एवं पी-एच डो० उपाधिधारी डॉ० प्रेमी, जैन विश्वभारती, लाडनूं (राजस्थान) में चार वर्ष प्राध्यापक रह चुके हैं। वे संस्कृत-प्राकृत भाषाओं तथा जैन-दर्शनके गंभीर अध्येता मनीषी है। इनका शोध विषय मूलाचारका समीक्षात्मक अध्ययन है। वह प्रकाशित है तथा इस पर इन्हें प्रशस्ति-पत्र एवं पांच हजार रुपयेके साथ १९८८ का महावीर पुरस्कार प्राप्त हुआ है। वे सम्प्रति सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में जैन-दर्शन-विभागाध्यक्ष हैं। सामाजिक, साहित्यिक और शैक्षणिक प्रवृत्तियोंमें सोत्साह निरत डॉ० प्रेमीजी इस अभिनन्दन ग्रन्थके सम्पादक-मण्डलके मान्य सदस्य हैं। डॉ० शीतलचन्द्रजी जैन : ___डॉ० शीतलचन्द्र जी उ० प्र० के ललितपुर जिलेमें जन्में निरन्तर सक्रिय युवा विद्वान् हैं । बनारसमें अध्ययन-अनुशीलनके उपरान्त उन्होंने 'विद्यानन्दस्य दर्शनम् : एकाध्ययनम्'-विषय पर पी-एच. डी० की उपाधि प्राप्त को और श्री स्याहाद जैन महाविद्यालय वाराणसीमें जैन-दर्शन विभागके अध्यक्ष पद पर सेवारत रहे। डॉ० जैन सम्प्रति श्री दि० जैन आचार्य संस्कृत महाविद्यालय जयपुरके प्राचार्य हैं। वे यशस्वी लेखक, ओजस्वी वक्ता, कुशल संचालक तथा सफल कार्यकर्ता हैं। जैन विद्याओं पर शोध-खोजकी दिशामें आप निरन्तर सक्रिय हैं तथा आपके निर्देशनमें अनेक शोध-कर्ताओंने पी-एच. डी० की उपाधि प्राप्त की है। प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थकी रूपरेखाको क्रियान्वित करने तथा संयोजित करनेमें डॉ० शीतलचन्द्रजीका सक्रिय योगदान रहा है । श्री बाबूलालजी जैन फागुल्ल : संस्कृत और प्राकृत ग्रन्थोंके अधुनातन कलापूर्ण मुद्रण और प्रथम पंक्तिके जैन मनीषियोंके अभिनन्दनग्रन्थोंके लब्धप्रतिष्ठ मुद्रक श्री बाबूलालजी फागुल्लका जन्म सन् १९२६ ई० में बन्देलखण्डके ललितपुर जिलेके मड़ावरा ग्राममें हुआ। श्रीवीर विद्यालय पपौरा और श्री स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी आपके प्रशिक्षण केन्द्र थे । मद्रणके क्षेत्रमें श्री फागुल्लजीका प्रवेश भारतीय ज्ञानपीठके व्यवस्थापकके रूपमें हआ। जहाँसे उन्होंने अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित किये। सम्प्रति वे महावीर प्रेस, भेलपर वाराणसीके स्वत्वाधिकारी हैं। अपने मिलनसार व्यक्तित्व और कार्यक्षमताके आधार पर श्री फागुल्लजी सर्वत्र यशः अजित कर सके हैं। श्रेष्ठ ग्रन्थोंके मुद्रण कार्यमें आप अनेक बार पुरस्कृत हो चुके हैं। सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्यके अभिनन्दन-ग्रन्थके प्रबन्धनमें श्री फागुल्लजीकी भमिका, क्षमता और दायित्वबोध नितरां प्रशस्य है। Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Forvale & Personal use only WWWFor