Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 13
________________ श्रीमहावीरजीसे जब मैं बीना चला आया तो ग्रन्थकी सामग्री तथा अर्थसंग्रहपर विचार-विमर्श करनेके लिए सम्पादक-मण्डलकी दो बैठकें बीनामें बुलाई। अन्तिम चौथी बैठककी १५ उप-बैठकें हुई। यह अन्तिम बैठक ११ अगस्त से १५ अगस्त तक पाँच दिन चली और पर्याप्त ऊहापोह हुआ। ग्रन्थमें देय सामग्री पर १५ वाचनायें हई। इनमें कई वाचनायें दिन में तीन बार और रात्रिमें १२ बजे तक मान्य सम्पादकोंने की। सम्पादकोंको व्याकरणाचार्य जीके लिए अभिनन्दन-ग्रन्थके हेतु भी तैयार करना पड़ा, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उन्हें अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंट किया जाये। पर सम्पादक मण्डल उसके औचित्यको जानता था । डों महानभावोंने तो हर्ष भी प्रकट किया । आदरणीय राय देवेन्द्रप्रसाद जैन एडवोकेट, गोरखपुरने तो एक पत्र में लिखा है कि "आपने समाजकी भलको ठीक किया है।" इस प्रकार इस ग्रंथको सम्पादकमण्डलने सजगताके साथ तैयार किया है। हमें प्रसन्नता है कि हमारे स्नेही सभी सम्पादक-मित्रोंने इस ग्रन्थको इस सुन्दर रूपमें प्रस्तुत करनेमें जो अपना बहुमूल्य समय, शक्ति और प्रतिभाका सहयोग किया है उसके लिए हम उनके हृदयसे आभारी हैं । सुहृवर डॉ० कस्तूरचन्द्र जी कासलीवालने तो अपना विद्वत्तापूर्ण महत्त्वका सम्पादकीय लिखकर हमें अधिक आभारी बनाया है। हमारे आदरणीय श्री डाल चन्द्र जी जैन, संसद सदस्यने समितिके अध्यक्ष पदको स्वीकार कर जो बल प्रदान किया है उसके लिए हम उनके कृतज्ञ हैं। जब हम २७ सितम्बर, '८९ को सिंघई जीवनकुमार जैन, कोषाध्यक्ष एवं श्री विनीतकुमार कोठियाके साथ उनके आवासपर सागरमें उनसे मिले तो बड़े गद्गद्भावसे भेंट की और एक घण्टे तक अभिनन्दन-ग्रन्थकी चर्चा की । उसकी प्रगतिसे उन्हें बड़ा सन्तोष हुआ । हमें खुशी है कि आपका आरम्भसे अन्त तक सहयोग एवं मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। प्रिय बाबूलाल जी फागुल्लको हम कितना धन्यवाद दें। यह अभिनन्दन-ग्रंथ उन्हींके विचारों और प्रयत्नोंका सफल है। यदि हम इसे एक आश्चर्य माने तो अत्युक्ति न होगी, जो कुछ माहों (लगभग छह-सात माह) में तैयार हो गया । लोग वर्षों पूर्व से अभिनन्दन ग्रन्थोंका विज्ञापन पत्र-पत्रिकाओंमें देते और पत्रव्यवहार करते हैं। इतना ही नहीं, आयोजनकी तिथि भी प्रकाशित करते हैं। पर अभिनन्दन-ग्रंथ तैयार नहीं हो पाते । वास्तवमें अभिनन्दन ग्रन्थोंका प्रकाशन ही दुष्कर है । वह ऐसा कार्य है, जो परस्पराश्रित है । लेखक स्वयं समयपर लेख भेजें और सम्पादक उन्हें सम्पादित कर समयपर उन्हें प्रेसमें भेज दें। इतना होनेपर भी प्रेस और प्रफरीडर विलम्ब कर देते हैं। प्रेस समयपर छापकर नहीं देता। वह दूसरे ग्रन्थोंके प्रकाशनमें संलग्न रहता है। किन्तु हमें प्रसन्नता है कि ये सब प्रत्यवाय इस अभिनन्दन-ग्रन्थमें नहीं आए। इस सबका श्रेय श्री बाबूलाल जी फागुल्ल, संचालक, महावीर प्रेस, वाराणसीको है, जिन्होंने यह सब आदि-से-अन्त तक किया। उन्होंने पत्रव्यवहारसे लेकर छपाई पर्यन्त सारा कार्य तन्मयता और आत्मीयतासे किया। इसका सूत्रपात भी उन्होंने किया। फागुल्ल जीने अपने दीर्घकालीन अभिनन्दन-ग्रन्थोंके प्रकाशनानुभवको भी इसमें उड़ेल दिया है । मेरा उन्हें हार्दिक धन्यवाद है। इस अवसरपर मैं श्रद्धेया काकीजी श्रीमती कस्तूरीबाई (धर्मपत्नी, स्व० मौजीलाल जी जैन) और उनके परिवार (प्रिय भाई जयप्रकाश, सौ० शशि बहू, चि० राजू और आयु० अन्नो, वाराणसी) को नहीं भूल सकता, जिनके पास एक-सवा माह घुलमिल कर रहा और सभी सुविधायें मुझे प्रदान की। मैं उनका अनुगृहीत हूँ। मुझे सदैव उनका स्नेह मिला और मिलता रहता है। (डॉ०) दरबारीलाल कोठिया प्रधान सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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