Book Title: Aspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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के० आर० चन्द्रा
प्रस्तुत समीक्षा ग्रन्थ की भाषा की प्राचीनता को कायम रखने में कितनी उपयोगी बन सकती है, इस पर विद्वानों को विचार करना है। यहाँ पर प्रस्तुत किये गये सुझाव स्वीकार करने योग्य हैं या नहीं, उन पर विद्वानों की आलोचना हो, इसी उद्देश्य से यह अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है। आशा है, विद्वान् अपने-अपने विचार प्रकट करेंगे, जिससे प्राचीन ग्रन्थों के मूल भाषायी स्वरूप को सुरक्षित रखा जा सके।'
श्री जम्बविजयजी द्वारा स्वीकृत पाठों को समीक्षा ध्वनि-परिवर्तन१. (क) प्राचीन रूप स्वीकृत किया गया है, चाहे वह प्राचीनतम प्रत में नहीं मिलता हो ।
१. अविजाणए (सूत्र १०, पृ० ४ पं० १; पाठान्तर-अवियाणए ) २. परिपंदण ( सूत्र ७, पृ० ३, पं० ९; सूत्र ५१, पृ० १३, पं० ८; सूत्र ५८, पृ० १५, पं० १;
पाठान्तर-परियंदण) ३. गुणासाते (सूत्र ४१, पृ० ११, पं० १; पाठान्तर-गुणायाए) ४. पडिसंवेदयति ( सूत्र ६, पृ० ३, पं०७; पाठान्तर-पडिसंवेदेति, पडिसंवेएइ) ५. पवेदितं ( सूत्र २६, पृ० ७, पं० १६; पाठान्तर-पवेतियं ) ६. अधेदिसातो ( सूत्र १, पृ० १, पं० १४; पाठान्तर-अहेदिसातो) ७. खेत्तण्णे (सूत्र ३२, पृ०८, पं० १५; पाठान्तर-- खेतणे, खेअन्ने, खेयन्ने) ८. पिच्छाए ( सूत्र ५२, पृ० १३, पं० १७; पाठान्तर--पिंछाए) ९. पुच्छाए ( सूत्र ५२, पृ० १३, पं० १७; पाठान्तर-पुंछाए ) (ख) कभी-कभी कागज की एक मात्र अर्वाचीन प्रत से प्राचीन रूप लिया गया है। १. अपरिणिव्वाणं (सूत्र ४९, पृ० १२, पं० १७; मात्र ला० प्रत का पाठ; ( पाठान्तर
-अपरिणेव्वाणं) (ग) पद-रचना
१. विजहित्ता ( सूत्र २०, पृ० ६, पं० ११; पाठान्तर-विजहित्तु) २. कभी-कभी अर्वाचीन रूप स्वीकृत किया गया है, जबकि प्राचीन प्रतों एवं चूणि में प्राचीन
रूप मिलता है। १. कप्पइ णे कप्पइ (सूत्र २७, पृ० ८, पं० १ ) यह पाठ ताडपत्रीय जे० प्रत और कागज की ___अर्वाचीन प्रतों में मिलता है। २. कप्पति णे कप्पइ ( यह पाठ प्राचीन प्रतों एवं चूणि में मिलता है, लेकिन उसे छोड़ दिया __ गया है।) ३ सहसम्मुइयाए (सूत्र २, पृ॰ २, पं० ४) पाठ स्वीकृत है, जबकि चूणि का पाठ सहसम्मुतियाए
और सं० शां० का पाठ 'सहसम्मुदियाए' छोड़ दिया गया है।
१. आगमों को मूल भाषा कितनी बदल गयी है, इसको जानने के लिए देखिए-पू० मुनि पुण्यविजयजी द्वारा
सम्पादित 'कल्पसूत्र' की प्रस्तावना, पृ० ३ से ७, साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद, १९५२।
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