Book Title: Aspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
११९
अञ्चलगच्छीय आचार्यमेरुतुङ्ग एवं उनका जैनमेघदूतकाव्य
जैनमेघदूत आचार्य श्रीमेरुतुङ्गसूरि की उपर्युक्त रचनाओं में सर्वप्रमुख व सर्वसशक्त ग्रन्थ हैजैनमेघदूत । यहाँ प्रस्तुत है, इसी ग्रन्थ का संक्षिप्त कथ्यात्मक-विश्लेषण । आचार्यश्री ने जैनमेघदूतकाव्य की यद्यपि स्वतन्त्र रूप से रचना की है, फिर भी यह काव्य विश्व-विश्रुत कालिदासीय मेघदूत से अनुप्रेरित है, इसमें रञ्चमात्र भी सन्देह नहीं है। जैन आगम ग्रन्थ उत्तराध्ययनसूत्र' में वर्णित रथनेमि और राजीमती का प्रसङ्ग इस दूतकाव्य की कथा का आदिस्रोत प्रतीत होता है । सम्पूर्ण काव्य चार सर्गों में विभक्त है। काव्य के प्रथम सर्ग में ५०, द्वितीय सर्ग में ४९, तृतीय सर्ग में ५५ और चतुर्थ सर्ग-में ४२ श्लोक हैं, जो मन्दाक्रान्ता वृत्त में निबद्ध हैं।
काव्य-नायिका राजीमती मेघ को दूत बनाकर काव्यनायक श्रीनेमि के पास भेजती है, जिसे उसने पति स्वीकार कर लिया है। इसी कारण इस काव्य का नाम मेघदूत हुआ है। परन्तु जैनधर्म के बाईसवें तीर्थङ्कर श्रीनेमिनाथ के जीवनचरित पर आधारित होने के कारण एवं एक जैन विद्वान् द्वारा रचित होने के कारण इस काव्य को "जैनमेघदूत'' कहा गया है।
___ जैनमेघदूत की कथावस्तु जैन धर्म के बाईसवें तीर्थङ्कर, करुणा के जीवन्त प्रतीक भगवान् श्रीनेमिनाथ के जीवन-चरित से सम्बन्धित है। महाभारत काल में इनका प्रादुर्भाव हुआ था। इन्होंने यदुवंश में जन्म-ग्रहणकर अपनी करुणा की परम-पुनीत धारा द्वारा सृष्टि के कण-कण को अभिसिञ्चित किया। श्रीनेमि अन्धकवृष्णि के ज्येष्ठ तनय श्रीसमुद्रविजय के पुत्र एवं राजनीतिधुरन्धर भगवान् श्रीकृष्ण के चचेरे भ्राता थे। जहाँ योगपुरुष श्रीकृष्ण ने समग्र जनमानस को राजनीति की शिक्षा दी, वहाँ करुणा-सिन्धु श्रीनेमि ने प्राणिमात्र पर करुणा की शीतल-रश्मियों की वर्षा की।
समुद्रविजय ने अपने पुत्र नेमि का-जो सौन्दर्य एवं पौरुष के अजेय स्वामी थे--विवाह महाराज उग्रसेन की रूपसी एवं विदुषी पुत्री राजीमती (राजुल) से करना निश्चित किया । वैभवप्रदर्शन के उस युग में महाराज समुद्रविजय ने अनेक बारातियों को लेकर पुत्र नेमिनाथ के विवाहार्थ उग्रसेन की नगरी की ओर प्रस्थान किया। बारात जब वधू के नगर 'गिरिनगर' पहुँची, तब वहाँ पर बँधे पशुओं की करुण-चीत्कार ने श्रीनेमि की जिज्ञासा को कई गुना बढ़ा दिया। अत्यन्त उत्सुकतावश जब श्रीनेमि ने पता लगाया, तब उन्हें ज्ञात हुआ कि ये सारे पशु बारात के भोजनार्थ लाये गये हैं। इन सभी पशुओं का वध कर इनके आमिष (मांस) से बारातियों के निमित्त विविध भाँति के व्यञ्जन बनाये जायेंगे। ऐसा ज्ञात होते ही श्रीनेमि के प्राण अत्यधिक मानस-उद्वेलन के कारण काँप उठे और उनकी भावना करुणा की अजस्रधारा में परिवर्तित हो प्रवाहित हो उठी। उस समय ऐसा प्रतीत हुआ जैसे करुणा-सिन्धु में अचानक प्रचण्ड ज्वार प्रादुर्भूत हो उठा हो । उनके करुणापूरित अन्तर्मानस में अनेकानेक प्रश्न आलोडित होने लगे कि जिस विवाह में अपने भोजन के लिए निरोह पशुओं की बलि दी जाती है, फिर भला उसकी अमङ्गलता में सन्देह कैसा ? इसका निदान यह, उन्होंने निश्चय कर लिया कि ऐसे सांसारिक-बन्धन में बंधने की अपेक्षा क्यों न इस निष्करुण-संसार का त्यागकर सर्वश्रेयस्कर मोक्षपद को प्राप्त किया जाये। इस विचार के साथ ही श्रीनेमि इस दुःखमय संसार का त्यागकर तपस्या के सङ्कल्प के साथ वन-कानन की ओर मुड़ गये। १. उत्तराध्ययनसूत्र, २२वाँ अध्ययन ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org