Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 414
________________ अब यम-नियम लटकाना चाहते हो ? इसी अहंकार से तुमने संसार जीता, अब इसी अहंकार से तुम परमात्मा को भी जीतना चाहते हो ? छोड़ो यह सब । तुम सिर्फ इतना ही करो, एक ही कदम में छलांग लो। तुम कहो, अब जैसी तेरी मर्जी । अब जो विराट करायेगा, होगा । ऐसे सरल भाव से जो समाधि पैदा होती है वही सहज समाधि । कबीर कहते हैं, साधो सहज समाधि भली । सहज समाधि का अर्थ होता है, तुम्हारी चेष्टा से नहीं, तुम्हारे बोध से जो आती है। जागरण से जो आती है। समझ मात्र से जो आ जाती है। जिसके लिए बड़े-बड़े उपाय, विधि-विधान नहीं करने पड़ते । 'जिसकी सहज समाधि अविच्छिन्न रूप में वर्तती है वही अर्थसंन्यासी है, धन्यभागी है ।' अकृत्रिमोऽनवच्छिन्ने समाधिर्यस्य वर्तते । अकृत्रिम । कई लोग हैं जो कृत्रिम समाधि साध लेते हैं। बैठ गये, उपवास कर लिया। अगर खूब उपवास किया तो शरीर क्षीण हो जाता है । जब शरीर क्षीण हो जाता तो विचार को ऊर्जा नहीं मिलती, विचार क्षीण हो जाता। उस निस्तेज अवस्था में विचार नहीं उठते । उसको तुम समाधि मत समझ लेना ! वह तो एक तरह की आंतरिक दुर्बलता है, समाधि नहीं । धोखा है। वह तो ऐसे ही समझो कि किसी आदमी को नपुंसक कर दिया और वह कहने लगा कि मैं ब्रह्मचारी हो गया । नपुंसकता ब्रह्मचर्य नहीं है। नपुंसकता तो सिर्फ अभाव है। ब्रह्मचर्य तो बड़ी भावदशा है, भावात्मक है। समाधि दो तरह की हो सकती है। तुम उपवास करो खूब - इसलिए बहुत से पंथ उपवास करवाते हैं । उपवास करने से शरीर क्षीण होता है ! और जब शरीर क्षीण होता तो मन को ऊर्जा नहीं मिलती। जब मन को ऊर्जा नहीं मिलती तो तुम्हें लगता है कि मन से मुक्त हो गये । मन पड़ा रहता है फन पटके । जैसे कि सांप बेहोश पड़ा हो, भूखा पड़ा हो। फिर भोजन करोगे, फिर मन का फन उठेगा। इस तरह • से कुछ जबरदस्ती साधने से कुछ हल नहीं है। तुम्हें अगर ब्रह्मचर्य साधना है, लंबे उपवास करो । अमरीका के एक विश्वविद्यालय में एक प्रयोग किया हार्वर्ड में। तीस विद्यार्थियों को उपवास पर रखा गया। सात दिन के बाद उनके पास प्लेब्वाय जैसी पत्रिकायें पड़ी रहें, वे देखें ही नहीं । नग्न स्त्रियां, सुंदर स्त्रियों के चित्र -वे बिलकुल न देखें। उनका रस ही जाता रहा। जब शरीर ही क्षीण होने लगा तो वासना को ऊर्जा कहां से मिले ? दो सप्ताह बीतते-बीतते उनका बिलकुल रस न रहा। तीन सप्ताह बीतते-बीतते तो वे बिलकुल नीरस हो गये। उनसे कितना ही पूछा जाये कि स्त्रियों के संबंध में कुछ विचार ? वे कहते, कुछ नहीं । भोजन दिया चौथे सप्ताह के बाद। बस, भोजन के आते ही सारी ऊर्जा वापिस आ गई। वे जो फन मारकर पड़ गये थे विचार, फिर उठ आये। फिर वासना । फिर स्त्रियों के नग्न चित्रों में रस आने लगा। फिर बातचीत रसपूर्ण होने लगी । 1 इस प्रयोग ने बड़ी महत्वपूर्ण बात सिद्ध की ः शरीर को शक्ति न मिले मन को शक्ति नहीं मिलती। शरीर से ही मन को शक्ति मिलती है। शक्तिशून्य हो जाने का नाम मुक्ति नहीं है। मुक्ति तो महाशक्ति में घटती है। इसलिए सहज समाधि पर मेरा भी जोर है। खाते-पीते, सहज, स्वस्थ समाधि घटे तभी उसका 400 अष्टावक्र: महागीता भाग-5

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