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धार्मिक जीवन-सहज, सरल, सत्य-प्रवचन-चौथा
दिनांक 14 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्न सारः
पहला प्रश्न :
एक ओर आप साधकों को ध्यान -साधना के लिए प्रेरित करते हैं और दूसरी ओर कहते हैं कि सब ध्यान-साधनाएं गोरखधंधा हैं। इससे साधक द्विधा में फंस जाता है। वह कैसे निर्णय करे कि उसके लिए क्या उचित है?
जब तक दुविधा हो तब तक गोरख धंधे में रहना पड़े। जब तक दुविधा हो तब तक ध्यान करना पड़े। दुविधा को मिटाने का ही उपाय है ध्यान। दुविधा का अर्थ है: मन दो हिस्सों में बंटा है। मन के दो हिस्सों को करीब लाने की विधि है ध्यान। जहां मन एक हुआ वहीं मन समाप्त हुआ।
अष्टावक्र को सुनते समय यह बात ध्यान में रखना कि अष्टावक्र ध्यान के पक्षपाती नहीं हैं, न समाधि के, न योग के-विधि मात्र के विरोधी हैं।
दुनिया में दो ही तरह के आध्यात्मिक मार्ग हैं-एक विधि का और एक बिना विधि का। अष्टावक्र विधि-शून्य मार्ग के प्रस्तोता हैं। तो उन्हें समझते वक्त खयाल रखना कि उनकी बात तो केवल उन्हीं के लिए है जो दविधा-शून्य हो कर समझ सकेंगे, जिनकी समझ ही इतनी गहरी हो जाए कि फिर किसी ध्यान की कोई जरूरत न रहे; जिनकी समझ ही समाधि बन जाए।
अष्टावक्र का आग्रह मात्र जागरण, साक्षी-भाव पर है, लेकिन अगर यह न हो सके तो अष्टावक्र को पकड़ कर मत बैठ जाना। न हो सके तो पतंजलि उपाय हैं। न हो सके तो बुद्ध, महावीर उपाय
हैं।
कृष्णमूर्ति यही कह रहे हैं वर्षों से, जो अष्टावक्र ने कहा है। चालीस वर्षों से निरंतर जो लोग उन्हें सुन रहे हैं वे इसी दुविधा में पड़ गए हैं। समझ में आया भी नहीं, समझ तो जगी नही-औ ध्यान भी छोड़ दिया। तो धोबी के गधे हो गए, न घर के न घाट के। अटक गए बीच में। त्रिशंक हो गए। मझधार में पड़ गए, न इस किनारे के न उस किनारे के। मेरे पास आते हैं, कहते हैं: 'मन में शांति नहीं है। अगर मैं उनको कहता हूं ध्यान करो, वे कहते हैं: ध्यान से क्या होगा? कृष्णमूर्ति तो कहते हैं, ध्यान से कुछ न होगा।' अगर कृष्णमूर्ति समझ में आ गए तो मन में अशांति कैसे बची?