Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 399
________________ विचार ही तो अशांति है! किन्हीं के मन में संसार के विचार हैं और किन्हीं के मन में परमात्मा के इससे भेद नहीं पड़ता। किन्हीं के मन में हिंदू विचार हैं, किन्हीं के मन में ईसाइयत के इससे भेद नहीं पड़ता। किसी ने धम्मपद पढ़ा है, किसी ने करान-इससे भेद नहीं पड़ता। आकाश में बादल हैं तो सुरज छिपा रहेगा। बादल न तो हिंदू होते हैं न मुसलमान; न सांसारिक न असांसारिक-बादल तो बस बादल हैं, छिपा लेते हैं, आच्छादित कर लेते हैं। विचार जब बहुत सघन घिरे हों मन में तो तुम स्वयं कोन जान पाओगे। स्वयं को जाने बिना स्वास्थ्य कहां है! स्वास्थ्य का अर्थ समझ लेना। स्वास्थ्य का अर्थ है जो स्वयं में स्थित हो जाये; जो अपने घर आ जाये, जो अपने केंद्र में रम जाये। स्वयं में रमण है स्वास्थ्य। स्व में ठहर जाना है स्वास्थ्य। और अष्टावक्र कहते हैं, तभी शांति है। शांति स्वास्थ्य की छाया है। अपने से डिगा, अपने से स्मृत कभी शांत न हो पायेगा, डांवाडोल रहेगा। डांवाडोल यानी अशांत रहेगा! और हर विचार तुम्हें स्मृत करता है। हर विचार तुम्हें अपनी धुरी से खींच लेता है। इसे देखो। बैठे हो शांत, कोई विचार नहीं मन में, तुम कहां हो फिर? जब कोई विचार नहीं तो तुम वहीं हो जहां होना चाहिए। तुम स्वयं में हो। विचार आया पास से एक स्त्री निकल गई और स्त्री अपने पीछे धुएं की एक लकीर तुम्हारे मन में छोड़ गई। नहीं कि स्त्री को पता है कि तुम इधर बैठे हो, शायद देखा भी न हो। तुम्हारे लिए निकली भी नहीं है। सजी भी होगी तो किसी और के लिए सजी होगी: तमसे कुछ संबंध भी नहीं है। लेकिन तम्हारे मन में एक विचार सघनीभत हो गयासंदर है, भोग्य है! पाने की चाह उठी। तुम स्मृत हो गये। तुम चल पड़े। यह विचार तुम्हें ले चला कहीं-स्त्री का पीछा करने लगा। मन में गति हो गई। क्रिया पैदा हो गई। तरंग उठ गई। जैसे शांत झील में किसी ने कंकड़ फेंक दिया! अब तक शांत थी, क्षण भर पहले तक शांत थी, अब कोई शांति न रही। कंकड़ ने तरंगें उठा दीं। एक तरंग दूसरे को उठाती है, दूसरी तीसरी को उठाती है-तरंगें फैलती चली जाती हैं; दूर के तटों तक तरंगें ही तरंगें! एक छोटा सा कंकड़ विराट तरंगों का जाल पैदा कर देता है। यह स्त्री पास से गुजर गई। जरा-सी तरंग थी, जरा-सा कंकड़ था। लेकिन जिन स्त्रियों को तुमने अतीत में जाना उनकी स्मृतियां उठने लगीं। जिन स्त्रियों को तुमने चाहा उनकी याददाश्त आने लगी। अभी क्षण भर पहले झील बिलकुल शांत थी, कोई कंकड़ न पड़ा था. तुम बिलकुल मौन बैठे थे, थिर, जरा भी लहर न थी। लहर उठ गई। लेकिन ध्यान रखना, यह लहर स्त्री के कारण ही उठती हो, ऐसा नहीं है। कोई परमहंस पास से निकल गया, सिद्ध पुरुष, उसकी छाया पड़ गई, और मन में एक आकांक्षा उठ गई कि हम भी ऐसे सिद्ध पुरुष कब हो पायेंगे। बस हो गया काम। कंकड़ फिर पड़ गया। कंकड़ परमहंस का पड़ा कि पर-स्त्री का पड़ा, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। फिर चल पड़े। फिर यात्रा शुरू हो गई। मन फिर डोलने लगा। कब मिलेगा मोक्ष! कब ऐसी सिद्धि फलित होगी!' वासना उठी, दौड़ शुरू हुई। दौड़ शुरू हुई अपने से तुम चूके। जैसे ही मन में एक विचार भी तरंगायित होता है वैसे ही तुम अपनी धुरी पर नहीं रह जाते

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