Book Title: Ashtangat Rudaya
Author(s): Vagbhatta
Publisher: Khemraj Krishnadas
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(१०१८)
अष्टाङ्गहृदयेगुणेन रसेन शंखपुष्प्याः सपयस्कं घृतनल्वणं विपक्कम्॥उपयुज्य भवेजडोपि वाग्मी श्रुतधारी प्रतिभानवानरोगः ॥४७॥ बालछड कुटकी दूधी मुलहटी चंदन अनंतमूल वच त्रिफला संठ मिरच पीपल हलदी दारुहलदी परवल सेंधानमक इन सबोंको पीसै ॥ ४६॥ और शंखपुष्पीका रस तिगुना मिलावै और दूध २५६ तोले घृत २५६ तोले इन सबोंको पकावै, उपयुक्त किया यह घत जड मनुष्यकोभी प्रशस्त बोलनेवाला और वेदको धारण करनेवाला और कांतिवाला और आरोग्यसे संयुक्त कर देताहै।। ४७॥
पेष्यैर्मृणालबिसकेसरपत्रबीजैः सिद्धं सहमशकलं पयसा च सर्पिः ॥ पंचारविन्दमिति तत्प्रथितं पृथिव्यां
प्रभ्रष्टपौरुषबलप्रतिभैनिषेव्यम् ॥४८॥ पिसेहुये कमलकी डंडी कमलकंद कमलकेसर कमलके पत्ते कमलके बीज सोनेका चूर्ण दूध इन्होंमें घृतको पकावै, यह पंचारविंदनामसे पृथिवीमें विख्यातहै, भ्रष्टहुये पौरुष बल कांतिवालोंको सेवित करना योग्यहै ।। ४८ ॥
यन्नालकन्ददलकेसरवद्विपक्कं । नीलोत्पलस्य तदपि प्रथितं द्वितीयम् ॥ सर्पिश्चतुः कुवलयं सहिरण्यपत्रं । .
मेध्यं गवामपि भवेत्किमु मानुषाणाम् ॥ ४९ ॥ नीलेकमलके नाल कंद पत्ते केसरमें और सोनेकेवरक पकायाहुआ घत चतुः कुवलयनामसे प्रसिद्धहै, यह गायोंके जडपनेको दूर करताहै, फिर मनुष्योंकी कौन कथाहै ॥ ४९॥
ब्राह्मीवचासैन्धवशंखपुष्पीमत्स्याक्षकब्रह्मसुवर्चलेन्ध्यः।वैदेहिका च त्रियवाः पृथक्स्युर्यवौ सुवर्णस्य तिलो विषस्य ॥५०॥ सर्पिषश्च पलमेकत एतद्योजयेत्परिणते च घृताढयम्॥भोजनं समधु वत्सरमेवं शीलयन्नधिकधीस्मृतिमेधः॥५१ ॥ अति क्रान्तजराव्याधितन्द्रालस्यश्रमलमः॥ जीवत्यशब्दशतं पूर्ण श्रीतेजःकान्तिदीप्तिमान् ॥५२॥ विशेषतः कुष्ठकिलासगुल्म विषज्वरोन्मादगरोदराणि॥अथर्वमन्त्रादिकृताश्च कृत्याः शाम्यन्त्यनेनातिबलाश्च वाताः ॥ ५३ ॥ ब्राह्मी वच सेंधानमक शंखपुष्पी पतंग ब्राह्मी इन्द्रायण पीपल ये सब पृथक् पृथक् तीन तीन जवोंके समान लेनी, सोनेको दो यवप्रमाण लेना, और विषको एक तिलप्रमाण लेना ॥ ५० ॥
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