________________
आराधना कथाकोश
जम्बूद्वीपके प्रसिद्ध और सुन्दर विदेह क्षेत्रकी पूरब दिशामें सोता नदीके पश्चिमकी ओर वत्सकावती नामका एक देश है। वत्सकावतोकी बहुत पुरानी राजधानी पृथिवीनगरके राजाका नाम जयसेन था। जयसेनकी रानी जयसेना थी। इसके दो लड़के हए। इनके नाम थे रतिर्पण और धृतिषेण । दोनों भाई बड़े सुन्दर और गणवान् थे। कालको कराल गतिसे रतिषेण अचानक मर गया। जयसेनको इसके मरनेका बड़ा दुःख हुआ। और इसी दुःखके मारे वे धतिषणको राज्य देकर मारुत और मिथुन नामके राजोंके साथ यशोधर मनिके पास दीक्षा ले साध हो गये। बहुत दिना तक इन्होंने तपस्या की। फिर संन्यास सहित शरीर छोड़ स्वर्गम ये महाबल नामके देव हए । इनके साथ दीक्षा लेनेवाला मारुत भी इसी स्वर्गम मणिकेतु नामक देव हुआ जो कि भगवान्के चरणकमलोंका भौंरा था, अत्यन्त भक्त था। ये दोनों देव स्वर्गकी सम्पत्ति प्राप्त कर बहत प्रसन्न हए । एक दिन इन दोनोंने विनोद करते-करते धर्म-प्रेमसे एक प्रतिज्ञा की कि जो हम दोनोंमें पहले मनुष्य-जन्म धारण करे तब स्वर्गमें रहनेवाले देवका कर्तव्य होना चाहिए कि वह मनुष्य-लोकमें जाकर उसे समझाये और संसारसे उदासीनता उत्पन्न करा कर जिनदीक्षाके सम्मुख करे ।
महाबलकी आयु बाईस सागरको थी । तब तक उसने खूब मनमाना स्वर्गका सुख भोगा। अन्तमें आयु पूरी कर बचे हुए पुण्यप्रभावसे वह अयोध्याके राजा समुद्रविजयकी रानी सुबलाके सगर नामका पुत्र हुआ। इसको उमर सत्तरलाख पूर्व वर्षोंकी थी। इसके सोनेके समान चमकते हुए शरीरकी ऊँचाई साढ़े चारसौ धनुष अर्थात् १५७५ हाथोंकी थी। संसारकी सुन्दरताने इसीमें आकर अपना डेरा दिया था, यह बड़ा हो सून्दर था। जो इसे देखता उसके नेत्र बड़े आनन्दित होते । सगरने राज्य भी प्राप्त कर छहों खण्ड पृथ्वी विजय का। अपनो भुजाआके बल इसने दूसरे चक्रवतीका मान प्राप्त किया । सगर चक्रवर्ती हुआ, पर इसके साथ वह अपना धर्म-कर्म भूल न गया था। इसके साठ हजार पुत्र हुए । इसे कुटुम्ब, धन-दौलत, शरीर सम्पत्ति आदि सभी सुख प्राप्त थे। समय इसका खब हो सुखके साथ बोतता था। सच है, पुण्यसे जीवोंको सभी उत्तम-उत्तम सम्पदायें प्राप्त होती हैं । इसलिये बुद्धिमानोंको उचित है कि वे जिनभगवान्के उपदेश किये पुण्यमार्गका पालन करें।
इसी अवसरमें सिद्धवनमें चतुर्मुख महामुनिको केवलज्ञान हुआ । स्वर्गके देव, विद्याधर राजे-महाराजे उनकी पूजाके लिए आये। सगर भी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org