Book Title: Aradhana Katha kosha
Author(s): Udaylal Kasliwal
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 417
________________ ४०२ आराधना कथाकोश 1 कितने आश्चर्य की बात है । तेरी इस इच्छाको धिक्कार है । प्रिय, जब तक तू नरकों में न गिरे इसके पहले ही तुझे यह महा पाप छोड़ देना चाहिए | तूने जिनधर्मको न ग्रहण कर आजतक दुःख उठाया, पर अब तेरे लिए बहुत अच्छा समय उपस्थित है । इसलिए तू इस पुण्य पथ पर चलना सीख । सियारका होनहार अच्छा था या उसकी काललब्धि आ गई थी । यही कारण था कि मुनिके उपदेशको सुनकर वह बहुत शान्त हो गया । उसने जान लिया कि मुनिराज मेरे हृदयकी वासनाको जान गए । उसे इस प्रकार शान्त देखकर मुनि फिर बोले- प्रिय, तू और और व्रतोंको धारण नहीं कर सकता, इसलिए सिर्फ रातमें खाना-पीना ही छोड़ दे । यह व्रत सर्व व्रतों का मूल है, सुखका देनेवाला है और चित्तका प्रसन्न करने वाला है । सियारने उपकारो मुनिराज के वचनों को मानकर रात्रिभोजन त्याग व्रत ले लिया। कुछ दिनों तक तो इसने केवल इसी व्रतको पाला । इसके बाद इसने मांस वगैरह भी छोड़ दिया । इसे जो कुछ थोड़ा बहुत पवित्र खाना मिल जाता, यह उसोको खाकर रह जाता । इस वृत्तिसे इसे सन्तोष बहुत हो गया था । बस यह इसी प्रकार समय बिताता और मुनिराज के चरणोंका स्मरण किया करता । इस प्रकार कभी खानेको मिलने और कभी न मिलने से यह सिवार बहुत ही दुबला हो गया । ऐसी दशामें एक दिन इसे केवल सूखा भोजन खानेको मिला । समय गर्मीका था । इसे बड़े जोरकी प्यास लगी । इसके प्राण छटपटाने लगे । यह एक कुएं पर पानी पीनेको गया । भाग्यसे ॐ एका पानी बहुत नीचा था। जब यह कुँए में उतरा तो इसे अँधेरा ही अँधेरा दीखने लगा। कारण सूर्यका प्रकाश भोतर नहीं पहुँच पाता था । इसलिए सियारने समझा कि रात हो गई, सो वह बिना पानी पीए ही कुँएके बाहर आ गया । बाहर आकर जब उसने दिन देखा तो फिर वह भीतर उतरा और भीतर पहलेसा अँधेरा देखकर रातके भ्रमसे फिर लौट आया । इस प्रकार वह कितनी ही बार आया गया, पर जल नहीं पी पाया । अन्त में वह इतना अशक्त हो गया कि उससे कुँएसे बाहर नहीं आया गया । उसने तब उस घोर अँधेरेको देखकर सूरजको अस्त हुआ समझ लिया और वहीं वह संसार समुद्र से पार करनेवाले अपने गुरु मुनिराजका स्मरण- चिन्तन करने लगा । तृषा रूपी आग उसे जलाए डालती थी, तब भी वह अपने व्रत में बड़ा दृढ़ रहा । उसके परिणाम क्लेशरूप या आकुल-व्याकुल न होकर बड़े शान्त रहे । उसी दशा में वह मरकर कुबेरदत्त और उसकी स्त्री धनमित्रा तू प्रीतिकर पुत्र हुआ है। तेरा यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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