Book Title: Aptavani Shreni 13 Purvarddh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 498
________________ [४] ज्ञाता-दृष्टा, ज्ञायक ४०५ दादाश्री : देखनेवाले को! जो ज्ञाता-दृष्टा है न, उसी को देखना है कि यह फिल्म ऐसी है। प्रश्नकर्ता : हाँ, उसे सिर्फ देखना ही है? दादाश्री : और क्या होगा? व्यवहार को सिर्फ देखना ही है। देखनेवाले को ऐसा नहीं रहता कि यह खराब है या अच्छा है। यह तो बुद्धि को लगता है, देखनेवाले को ऐसा नहीं रहता। फायदे-नुकसानवाली बुद्धि, वह ऐसा कहती है कि 'अच्छा और बुरा है।' लेकिन देखनेवाले को ऐसा कुछ नहीं रहता। अर्थात् ज्ञाता-दृष्टा बनने में कोई हर्ज नहीं है। दृश्य और दृष्टा दोनों अलग ही रहते हैं। दृश्य कभी भी दृष्टा से चिपक नहीं पड़ता। हम होली देखें तो होली से आँखें नहीं जल जाती। यानी कि देखने से जगत् बाधक नही रहता। देखने से तो आनंद होता है। आत्मा को नहीं है ज़रूरत किसी की प्रश्नकर्ता : आत्मा और प्रकृति के गुण बिल्कुल भिन्न हैं? दादाश्री : अलग ही हैं न! प्रश्नकर्ता : जब हम कहते हैं कि शुद्धात्मा सिर्फ ज्ञाता-दृष्टा है, तब, 'दृष्टा है' वह बात समझ में आती है लेकिन जब ऐसा कहते हैं कि 'आत्मा ज्ञाता है' तब आत्मा कौन से माध्यम द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है? आत्मा प्रकृति के माध्यम का उपयोग तो नहीं करता होगा न? दादाश्री : किसी का भी उपयोग तो नहीं करता लेकिन किसी से मदद भी नहीं माँगता। आत्मा स्वतंत्र है। आत्मा परमात्मा है। उसकी खुद की अनंत शक्तियाँ हैं। आत्मा को किसी और के पास से ज्ञान नहीं लेना पड़ता। जिसकी बॉडी ही ज्ञान है, वह खुद ही ज्ञान स्वरूप है, विज्ञान स्वरूप है, फिर उसे किसी के मारफत ज्ञान लेने का रहा ही कहाँ? प्रश्नकर्ता : हम जब प्रकृति को दृष्टा के रूप में देख रहे होते हैं वह

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