Book Title: Aptavani Shreni 13 Purvarddh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 503
________________ ४१० आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) दादाश्री : अंदर लक्ष की लिंक टूट जाए, तब हमें बोलना पड़ता है कि 'मैं अनंत शक्तिवाला हूँ' या 'अनंत दर्शनवाला हूँ' ऐसा बोलने पर तो फिर से फिट हो जाता है। ये सभी लिंक पौद्गलिक हैं और वे ज्ञेय स्वरूप से हैं। प्रश्नकर्ता : ऐसा हो सकता है क्या? दादाश्री : हाँ, हो सकता है। ऐसा तो कई बार होता है। और वह ज्ञेय स्वरूप से है लेकिन कभी लिंक टूट जाती है। ज्ञाता तो है ही। लिंक टूट जाए, तब अगर हम बोलें तो फिर से लिंक शुरू हो जाएगी। लिंक का टूट जाना तो पता चलता है, उसका ज्ञाता हूँ और लगातार रहती है तो उसका भी ज्ञाता हूँ। हम ज्ञाता स्वरूप हैं। बस, जानना ही चाहिए। हम सिनेमा देखने गए हों और वहाँ पर एकदम से फिल्म बंद हो जाए और कोई परेशानी आ जाए तो हमें जानना है कि बंद हो गई और फिर शुरू हो गई तो जानना है कि शुरू हो गई। उससे हमें कोई लेना-देना नहीं देखो तरंगों को फिल्म की तरह प्रश्नकर्ता : ज्ञाता-दृष्टा पद में सदैव रहा जा सकें, ऐसी कृपा कीजिए न! दादाश्री : ऐसी ही कृपा रहती है। ज्ञाता-दृष्टापद में ही रहता है, सदैव। लेकिन यह ज्ञान की ज्योत धुंधली हो जाती है न इसलिए ऐसा लगता है आपको। बाकी, वह तो ज्ञाता-दृष्टापद में ही है हमेशा। यह ज्योत धुंधली हो जाती है, ऐसा किसने जाना? वही मूल आत्मा है। अतः निरंतर ज्ञाता-दृष्टापद में ही अनुभव रहता है। कभी-कभी अंदर तरंगे (शेखचिल्ली जैसी कल्पनाएँ) आती हैं न, उन्हें देखना है। अभी ऐसा है कि आत्मा ज्ञायक स्वभाव का है और ज्ञेयों को देखने व जानने का इसका स्वभाव है, तो अगर सामने ज्ञेय नहीं होगा तो क्या होगा? ज्ञायकता बंद हो जाएगी। अतः ये तरंगे वगैरह सभी ज्ञेय हैं, उन्हें देखते रहना है। वे तरंगे

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