________________
(१.१०) विभाव में चेतन कौन? पुद्गल कौन?
१३३
वह विभाव था। उसे जगत् ने भावकर्म कहा है और 'मैं शुद्धात्मा हूँ', वह खुद का स्वभाव है। इस विभाव को भावकर्म कहा गया है। वह चला जाए तो सभी कुछ चला जाएगा। कितना सुंदर, साहजिक मार्ग! बगैर मेहनत का! क्या कोई मेहनत करनी पड़ी आपको? और आनंद कम ही नहीं होता न?
प्रश्नकर्ता : आनंद कम नहीं होता। बहुत ही आनंद रहता है।
दादाश्री : यह ज्ञान लेने के बाद में आत्मा विभाव में जाता ही नहीं है।
क्रोध, ज्ञान के बाद... प्रश्नकर्ता : दादा! ज्ञान लेने के बाद यदि इन महात्माओं में से किसी को आप पूछो न कि अब क्रोध-मान-माया-लोभ बचे हैं? तो कोई कहता है कि कुछ बचे हैं और कोई ऐसा भी कह देता है कि नहीं दादा! जागृति रहती है। अतः उन्हें अब प्रज्ञा की वजह से विशेष परिणाम उत्पन्न नहीं होते हैं न?
दादाश्री : ऐसा है, क्रोध कब कहा जाता है ? मन में क्रोध के परमाणु फूटते ही आत्मा उसमें तन्मयाकार हो ही जाता है, इसलिए उसे क्रोध कहा जाता है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन कुछ समय के लिए तो उसे ऐसा रहेगा न? मान लीजिए कि उतनी जागृति नहीं रही, उतने समय तक तो वह एकाकार हो जाएगा तो फिर क्या बाद में पश्चाताप करने से वह खत्म हो जाएगा?
दादाश्री : ज्ञान लेने के बाद में तो तन्मयाकार होता ही नहीं है। वह तो उसे खुद को ऐसा आभास होता है कि मैं तन्मयाकार हो गया। उसे पता चल गया न, इसलिए वह तन्मयाकार नहीं होगा।
प्रश्नकर्ता : यदि तन्मयाकार हो जाएगा तो फिर उसे विशेष परिणाम उत्पन्न होगा ही?
दादाश्री : तन्मयाकार हो गया तो विशेष परिणाम उत्पन्न होगा ही। फिर उसे पर-परिणाम कहा जाता है। विशेष परिणाम तो उसे कहते हैं जो शुरुआत में होता है। दो चीज़ों को साथ में रखने से...