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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
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विभावना-भेद
भोज के द्वारा निर्दिष्ट विभावना-भेदों का उल्लेख किया जा चुका है। प्रसिद्ध हेतु का व्यावर्तन होने पर अन्य हेतु से या स्वभावसिद्ध रूप में कार्य दिखाया जा सकता है। इस आधार पर विभावना के दो भेद माने जा सकते हैं। (अन्य) हेतु के उक्त तथा अनुक्त होने के बाधार पर भी विभावना के दो भेद किये गये हैं। विशेषोक्ति
विशेषोक्ति विभावना का विपर्यय-रूप मानी गयी है। विभावना में कारण के विना भी कार्य की उत्पत्ति दिखायी जाती है, तो विशेषोक्ति में कार्योत्पत्ति के सम्पूर्ण कारण के रहने पर भी कार्य की उत्पत्ति नहीं होने का वर्णन होता है।
भामह ने विशेषोक्ति की परिभाषा में कहा था कि जहां वैशिष्ट्य दिखाने के लिए वस्तु के एक देश के विगत होने पर उसमें दूसरे गुण का सद्भाव 'दिखाया जाय, वहाँ विशेषोक्ति होती है। भामह का यह विशेषोक्ति-लक्षण तो परवर्ती आचार्यों के द्वारा स्वीकृत नहीं हुआ; पर उक्त रूप में विशेषोक्ति को परिभाषित कर भामह ने जो उसका उदाहरण दिया था, उसे परवर्ती भाचार्यों ने भी विशेषोक्ति का उदाहरण माना है। इसका कारण यह है कि जब समग्र हेतु के रहने पर भी कार्य की अनुत्पत्ति की धारणा विशेषोक्ति में स्वीकृत हुई तो उस धारणा से भामह की विशेषोक्ति-परिभाषा का यह आंशिक साम्य था कि फल के कारण के रहने पर भी फलाभाव में वस्तु के गुणान्तर का सद्भाव भामह को मान्य था।
दण्डी ने विशेषोक्ति के सम्बन्ध में कहा कि जहां विशेष-दर्शन के लिए अर्थात् उत्कर्ष-साधन के लिए जाति, गुण, क्रिया आदि का वैकल्य दिखाया जाय (अर्थात् गुण, जाति आदि का अनपेक्षित होना दिखाया जाय ), वहाँ १. उक्तानुक्तनिमित्तत्वात् द्विधा सा पंरिकीर्तिता।
-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, ८७ २. एकदेशस्य विगमे या गुणान्तरसंस्थितिः । विशेषप्रथनायासी विशेषोक्तिर्मता यथा ॥
-भामह, काव्यालङ्कार ३,२३