Book Title: Alankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Author(s): Shobhakant Mishra
Publisher: Bihar Hindi Granth Academy

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Page 812
________________ अलङ्कार और मनोभाव [७८६ गुप्त, क्षेमेन्द्र, विश्वेश्वर आदि आचार्यों ने इसी अर्थ में चमत्कार शब्द का प्रयोग किया है। विश्वेश्वर ने चमत्कार को आनन्द का पर्याय मान कर गुण, रीति, रस, अलङ्कार आदि को उसका हेतु माना है।' पण्डितराज जगन्नाथ ने रमणीय' शब्द के अर्थ का स्पष्टीकरण करते हुए उसे लोकोत्तर आह्लाद या चमत्कार से अभिन्न बताया है ।२ निष्कर्ष यह कि लोकोत्तरता या अतिशय, वक्रता एवं चमत्कार मूलतः अभिन्न माने गये हैं। पीछे चलकर सङ्कचित अर्थ में चमत्कार का प्रयोग सुखद विस्मय के अर्थ में होने लगा है। डॉ० नगेन्द्र ने उक्त तीनों शब्दों के अर्थ के सम्बन्ध में परम्परागत मान्यता की उपेक्षा कर किञ्चित् अर्थ भेद के साथ उन शब्दों का प्रयोग किया है। वे बढा-चढ़ा कर वर्णन को अतिशय, सीधे न कहकर घुमा-फिरा कर कहने को वक्रता और श्रोता को चमत्कृत अर्थात् विस्मय-विमुग्ध कर देने वाले बुद्धि-कौतुक को चमत्कार मानते हैं । यह प्रश्न किया जा सकता है कि यदि अतिशय सभी अलङ्कारों का मूलाधार मान लिया गया तो तीन आधारों की कल्पना करते हुए वक्रता, चमत्कार तथा अतिशय को अलग-अलग मूलाधार मानने में क्या युक्ति होगी ? यदि तीनों को अलग-अलग मूलाधार मानकर समस्त अलङ्कारों को तीन वर्गों में विभाजित किया जाय, तो अतिशयमूलक अलङ्कारवर्ग में आने वाले कुछ अलङ्कारों का ही मूलाधार अतिशय को मानना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में अतिशय का विषय सीमित हो जायगा और यह मान्यता स्वतः खण्डित हो जायगी कि अतिशय सभी अलङ्कारों का मूलाधार है। इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार सम्भव है कि अतिशय को सामान्य रूप से सभी अलङ्कारों का आधार तत्त्व मान लेने पर अतिशय, वक्रता और चमत्कार, इन तत्त्वों के आधार पर अलङ्कारों के वर्गीकरण में उन तत्त्वों में सामान्यविशेष का सम्बन्ध माना गया है। अतिशय सामान्य रूप से सभी १. चमत्कारस्तु विदुषामानन्दपरिवाहकृत् । गुणं रीति रसं वृत्ति पाकं शय्यामलङ्क तिम् । सप्तैतानि चमत्कारकारणं ब्रवते बुधाः ॥-विश्वेश्वर, चमत्कार चद्रिका उद्ध त, राघवन, Some concepts of Alankarasastra पृ० २०० २. रमणीया प्रतिपादकः शब्दः काव्यम् । रमणीयता च लोकोतराह्लाद जनकज्ञानगोचरता । लोकोत्तरत्वं चाह्लादगतः चमत्कारापरपर्यायः अनुभवसाक्षिको जातिविशेषः ।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ६

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