Book Title: Ahimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Author(s): Gaveshnashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 430
________________ विकास की अग्रिम भूमिका है। बुद्धि का विकास जैन दृष्टि से चार स्तरों पर संभव हैऔत्पत्तिकी बुद्धि, वैनयिकी बुद्धि, कार्मिक बुद्धि, पारणामिकी बुद्धि । औत्पत्तिकी बुद्धि अदृष्ट अनालोचित एवं अश्रुत अर्थ को भी तत्काल यथार्थ रूप में ग्रहण करने वाली प्रज्ञा औत्पत्तिकी बुद्धि कहलाती है। इसमें ज्ञान एवं निर्णय में कालक्षेप नहीं होता। औत्पत्तिकी बुद्धि को समझने के लिए अनेक दृष्टान्त उपलब्ध हैं। नन्दी सूत्र में वर्णित भरत नट के पुत्र रोहक की घटनाएं इस सन्दर्भ में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। आवश्यक चूर्णि, नंदीसूत्र की चूर्णि, नन्दीवृत्ति आदि में औत्पत्तिकी बुद्धि के दृष्टान्तों का सविस्तार वर्णन है। 25 नंदीसूत्र में उपर्युक्त स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया हैपूर्वमदृष्टाऽश्रुतावेदिता तत्क्षणविशुद्धगृहीतार्था । अव्याहतफलयोगा बुद्धिरौत्पत्तिकी नाम | 26 वैनयिकी बुद्धि आत्म-संयम, अनुशासन या गुरू-शुश्रुषा से उत्पन्न बुद्धि वैनयिक बुद्धि कहलाती है। इसे परिभाषित करते हुए लिखा है भर नित्थरणसमत्था, तिवग्गसुतत्तत्थगहियपेयाला । उभयोलोगफलवई, विणयसमुत्था हवइ बुद्धि || 27 उपर्युक्त पद्य की व्याख्या करते हुए देववाचक ने वैनयिकी बुद्धि के तीन लक्षणों का उल्लेख किया है (1) वैनयिकी बुद्धि सम्पन्न व्यक्ति की चेतना इतनी विकसित हो जाती है कि कठिनतम कार्यों में भी वह सफलता हस्तगत कर लेता है। (2) इस बुद्धि से सम्पन्न व्यक्ति सूत्र एवं अर्थ के सार को सरलता से ग्रहण कर लेता है। (3) इस बुद्धि से सम्पन्न व्यक्ति लौकिक और लोकोत्तर दोनों प्रकार के प्रयोजनों सफलता प्राप्त करता है। वैनयिकी बुद्धि अभ्युदय एवं निःश्रेयस दोनों की साधिका है। कार्मिकी बुद्धि अभ्यास के नैरन्तर्य से उत्पन्न बुद्धि कार्मिकी है। किसी भी कार्य को नित्य नियमित रूप से करने पर विशिष्ट कौशल प्राप्त हो जाता है। कहा भी गया है अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या: क्रिया 370

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