Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीमत्रे सन् क्षिप्रमेव विध्वंसमागच्छति ? हन्त, विध्वंसमागच्छति, तद्यथा नाम हृदः स्यात् पूर्ण पूर्णप्रमाणः, व्यपलुट्यन् , विकसन् , समभरघटतया तिष्ठति, अथकश्चित पुरुषः तस्मिन्हदे एका महती नावं शतास्रवाम् , शतच्छिद्राम् , अवगाहयेत, तन्नूनं मण्डितपुत्र ! सा नौ स्तैरास्त्रावद्वारैः आपूर्यमाणा, आपूर्यमाणा, समाणे) डालते प्रमाण ही (खिप्पामेव) शीघ्र-तुरत (विद्धंसमागच्छइ) नष्ट हो जाता है क्या ? (हंता विद्धंसमागच्छइ) हां भगवन् वह नियमसे उसी समय नष्ट हो जाता है । अथवा-(से जहा नामए) जैसे (हरए सिया) कोई एक हृद-द्रह-जलाशय) हो (पुण्णे पुण्णप्पमाणे) और वह जल से भरा हुआ हो-जलसे पूर्ण लबालब भरा हुआ हो (बोलट्रमाणे वोसट्टमाणे) जलकी तरङ्गो से मानों उछल सा रहा हो, जलकी
अधिकता से मानों चारों ओर से खूब बढसा रहा हो (समभरघडत्ताए चिट्ठइ) लवालब भरे हुए घडेकी तरह हर तरह से पानी पानी से हि व्याप्त हो रहा हो ऐसे (तंसि हरसि) उस हृदमें (अहेणं केइ पुरिसे) अब कोइ एक पुरुष (एगं महं णावं सयासवं सयाच्छिदं) एक बहुत बडी नावको कि जीसमें छोटे२ सैकडों छिद्र हों और बडे२ भी सैकडो छिद्र हों (ओगाहेजा) डाले (से णूण मंडियपुत्ता) तो हे मंडितपुत्र ! अब विचारो (सा नावा) वह नाव (तेहिं आसवदारेहिं) उन जलागमन में हेतुभूत सैकडों छिद्रो द्वारा आगत पानी से (आपूरेमाणी त। ( से गुणं मंडियपुत्ता ! उदयबिंदु तत्तंसि अयकवल्लंसि पक्खित्ते समाणे) के मतिपुत्र, तपासा ताप 6५२ नावामां आवसुते पालीन (खिप्पामेव) तुरंत (विद्धंसमागच्छइ ) नष्ट यतिय छे नहीं ? (हंता, विद्धंसमागच्छा) स, ते अवश्य नष्ट थ६ लय छे. अथवा ( से जहानामए हरए सिया) धा।
मे सराप२ छे. (पुण्णे पुण्णप्पमाणे) ते पाथी पू२५३ १२ छे. (बोलट्टमाणे वोसट्टमाणे) तमi elai भोt Soil २i छ, पानी मधिताथी तणे यामे तना विस्ता२ वधी २ह्यो छे. (समभरघडताए चिट्ठ) પાણીથી છલેછલ ભરેલા ઘડાની જેમ જાણે કે દરેક રીતે પાણીથી જ તે ઘેરાયેલું છે. (तंसि हरंसि ) ते सश१२भां, ( अहेणं केड परिसे ) ४ मे पुरुष ( एगं महं णावं सयासवं सयच्छिदं ओगाहेज्जा) ४ मेवी धी मारे डीन तारे : सभा से नाना नानां दाय, मने से मत माटो छिदो डाय. ( से प्रणं मंडियपुत्ता ! सा नावा तेहिं आसवदारेहिं आपुरेमाणी आपुरेमाणी पुण्णा,
श्री भगवती सूत्र : 3