Book Title: Adhyatma Navneet
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 11
________________ अध्यात्मनवनीत (अर्घ्य ) जल पिया और चंदन चरचा, मालायें सुरभित सुमनों कीपहनीं तन्दुल सेये व्यंजन, दीपावलियाँ की रत्नों की ।। सुरभी धूपायन की फैली, शुभ कर्मों का सब फल पाया। आकुलता फिर भी बनी रही, क्या कारण जान नहीं पाया ।। जब दृष्टि पड़ी प्रभुजी तुम पर, मुझको स्वभाव का भान हुआ। सुख नहीं विषय-भोगों में है, तुम को लख यह सद्ज्ञान हुआ।। जल से फल तक का वैभव यह, मैं आज त्यागने हूँ आया। होकर निराश सब जगभर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि. स्वाहा । जयमाला (दोहा) आलोकित हो लोक में, प्रभु परमात्मप्रकाश । आनन्दामृत पान कर, मिटे सभी की प्यास ।। (पद्धरि छन्द) जय ज्ञानमात्र ज्ञायक स्वरूप, तुम हो अनन्त चैतन्य रूप । तुम हो अखण्ड आनन्द पिण्ड, मोहारि दलन को तुम प्रचण्ड ।। रागादि विकारी भाव जार, तुम हुए निरामय निर्विकार । निर्द्वन्द निराकुल निराधार, निर्मम निर्मल हो निराकार ।। नित करत रहत आनन्द रास, स्वाभाविक परिणति में विलास । प्रभु शिव रमणी के हृदय हार, नित करत रहत निज में विहार ।। प्रभु भवदधि यह गहरो अपार, बहते जाते सब निराधार । निज परिणति का सत्यार्थभान, शिव पददाता जो तत्त्वज्ञान ।। पाया नहिं मैं उसको पिछान, उल्टा ही मैंने लिया मान । चेतन को जड़मय लिया जान, तन में अपनापा लिया मान ।। श्री सिद्ध पूजन शुभ-अशुभ राग जो दुःखखान, उसमें माना आनन्द महान । प्रभु अशुभ कर्म को मान हेय, माना पर शुभ को उपादेय ।। जो धर्म-ध्यान आनन्दरूप, उसको माना मैं दुःखस्वरूप। मनवांछित चाहे नित्य भोग, उनको ही माना है मनोग ।। इच्छा निरोध की नहीं चाह, कैसे मिटता भव-विषय-दाह । आकुलतामय संसार सुख, जो निश्चय से है महा दुःख ।। उसकी ही निश दिन करी आश, कैसे कटता संसार पास । भव-दुःख का पर को हेतु जान, पर से ही सुख को लिया मान ।। मैं दान दिया अभिमान ठान, उसके फल पर नहिं दिया ध्यान । पूजा कीनी वरदान माँग, कैसे मिटता संसार स्वाँग ।। तेरा स्वरूप लख प्रभु आज, हो गये सफल संपूर्ण काज । मो उर प्रगट्यो प्रभु भेदज्ञान, मैंने तुम को लीना पिछान ।। तुम पर के कर्ता नहीं नाथ, ज्ञाता हो सबके एकसाथ । तुम भक्तों को कुछ नहीं देत, अपने समान बस बना लेत ।। यह मैंने तेरी सुनी आन, जो लेवे तुमको बस पिछान । वह पाता है केवल्यज्ञान, होता परिपूर्ण कला-निधान ।। विपदामय परपद है निकाम, निज पद ही है आनन्द धाम । मेरे मन में बस यही चाह, निज पद को पाऊँ हे जिनाह ।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जयमालायँ नि. स्वाहा। (दोहा) पर का कुछ नहिं चाहता, चाहूँ अपना भाव । निज स्वभाव में थिर रहूँ, मेटो सकल विभाव ।। पुष्पांजलि क्षिपेत्

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