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मरण का शोक कितने अंश तक स्वार्थप्रेरित होता है और मृत्यु से कितना डरना तथा उसके लिये क्या करना इसके विषय में यहां लिखना उचित नहीं मालूम होता । इस विषय का विशेष उल्लेख पांचवें देहममत्वमोचन अधिकार में और विशेष रुचिकर जैन श्री धर्मप्रकाश के प्रसिद्ध 'जीवन संध्या' विषय में पढ़ें। यहाँ उसका इतना ही सारांश ग्रहण करना कि दुनियाँ में सब कार्ये चाहे वे प्रेम के हों या शोक के किन्तु सब स्वार्थ के होते हैं।
अत: तुझ को भी दुनियाँ के प्रवाह को नहीं छोड़ना चाहिये, कारण कि तू भी अभी तक तो दुनियाँ का ही प्राणी है, केवल तुझे उसका उद्देश्य बदल देना चाहिये । जब सब संसार अपने स्वार्थ सिद्ध करने में लगा हुआ है तो तूं भी अपना स्वार्थ सिद्ध करले, परन्तु तेरा स्वार्थ कैसा है ? क्या है ? इस को पहले सोचले ! तेरा सच्चा स्वार्थ तुम को परभव मानन्द होने
और तेरे आत्महित होने में ही है। कारण कि स्वार्थ शब्द का अर्थ ही यही है। इस दृष्टि से तूं तेरे स्वार्थ साधने का प्रयत्न करना । तूं इसे जानने का प्रयत्न कर कि परभव का स्वार्थ किस प्रकार सिद्ध हो सकता है । सामान्यतया तात्कालिक लाभ की इच्छा छोड़कर परिणाम में किस प्रकार हित हो सकता है इस को तूं देख । पारमार्थिक रहस्य बतानेवाले अनेकों ग्रन्थों में से किसी एक ग्रन्थ को तूं पढ़ और विचार कर तो तुरन्त ही तुझे स्वार्थ का भान हो जायगा । मनोनिग्रह, संसार पर उदासीनता, गृढता का नाश, सत्यव्यवहार, दान, दया क्षमा आदि के साथ तूं तेरा सम्बन्ध जोड़ दे तो तेरा स्वार्थ स्वतः सिद्ध हो जायगा । .