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अध्यात्मकल्पद्रुम - [अष्टम वर्तन हैं । जिसप्रकार गदहेको मिश्रीका भार उठानेमात्रसे उसको कुछ मिट्ठाश नहीं भासकता है, उसीप्रकार ज्ञान भी बिना व्यवहारके भाररूप ही है। अतः ज्ञानानुसार व्यवहार होनेपर ही ज्ञानका मिट्ठाश प्राप्त हो सकता है । उपदेशमालामें धर्मदासगणि कहते हैं कि
जहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी न हु चंदणस्स। एवं खु नाणी चरणेण हीणो,
नाणस्स भागी न हु सुग्गहए ॥
जिस प्रकार चन्दनका-सुखण्डका भार ढोनेवाला गदहा भारका भागी है किन्तु चन्दनका नहीं, उसीप्रकार वर्तनरहित ज्ञानको जाननेवाला ज्ञानका भागी है, परन्तु सुगतिका नहीं । यह घटना ऊपरके श्लोकमें भी इसीप्रकार बतलाइ गई है।
शास्त्राभ्यास और व्यवहारका विवेचन ऊपर हो चुका है। प्रथम दो श्लोंकोमें श्रवण करनेवालोंको और शेष श्लोकोंमें अभ्यास करनेवालोंको ध्यान देने योग्य बाते बताई गई हैं । जो अभ्यासके निमित्त ही अभ्यास करते हों, सभाओंको जीतकर अपनी विजयका डंका बजवाना चाहते हों, अकारण शुष्कवाद करनेका
आमंत्रण देते हों उनके लिये चोथा श्लोक कंठान करने योग्य है । इसके उपरांत नाम मात्रके पुकारे जानेवाले • पण्डितों ' को इस अधिकारमें बहुत फिटकार बताई गई है । " हे चेतन ! यह तो ज्ञानी महाराज कह गये हैं कि वि० वि० " प्रत्यक्ष गंभीर शब्दोयुक्त भाषण देते हुए ऐसे पुरुषोंकी उस समय बोलनेका ढंग, मुखका रंग और आँख तथा हाथका हिलना-फिरना देखा जावे तो ऐसा प्रतीत होता है कि मानों अत्यन्त विचारशील तत्त्वज्ञानीका भाषण आरम्भ हुआ