Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 68
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम सृजन्ति के के न बहिर्मुखा जनाः, प्रमादमात्सर्यकुबोधविप्लुताः । दानादिधर्माणि मलीमसान्यमून्युपेक्ष्य शुद्धं सुकृतं चष्वपि ॥८॥ अर्थ - " प्रमाद, मत्सर और मिथ्यात्व से घिरे हुए कितने ही सामान्य पुरुष दान आदि धर्म करते हैं, परन्तु ये धर्म मलिन हैं, इसलिये इनकी उपेक्षा कर शुद्ध सुकृत्य थोड़ा सा एक एक अणुमात्र ही कर ।" आच्छादितानि सुकृतानि यथा दधन्ते, सौभाग्यमत्र न तथा प्रकटीकृतानि । ६७ व्रीडानताननसरोजसरोजनेत्रा वक्षःस्थलानि कलितानि यथा दुकूलैः ॥ ९ ॥ अर्थ - "इस संसार में गूढ पुण्यकर्म - सुकृत्य जिस प्रकार सौभाग्य प्राप्त कराते हैं उस प्रकार प्रगट किये सुकृत्य नहीं प्राप्त करा सकते हैं। जिसप्रकार लज्जा से झुकाया है मुखकमल जिसने ऐसी कमलनयना स्त्री के स्तन - मण्डल वस्त्र से आच्छादित होने पर जितनी शोभा देते हैं उतनी शोभा खुले हुए होने पर नहीं दे सकते हैं ।" स्तुतैः श्रुतैर्वाप्यपरैर्निरीक्षितै र्गुणस्तवात्मन् ! सुकृतैर्न कश्चन । फलन्ति नैव प्रकटीकृतैर्भुवो, द्रुमा हि मूलैर्निपतन्त्यपि त्वधः ॥१०॥

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