Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 99
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम अर्थ - "स्वगृह का त्यागकर अन्य के गृह की चिन्ता के परिताप को सहन करनेवाले हे ऋषि ! तुझे क्या लाभ होनेवाला है ? (बहुत करे तो) यति के वेश से इस भव में तेरी आजीविका (सुख से) चलेगी परन्तु परभव में अत्यन्त कष्टदायक दुर्गति को न रोक सकेगा।" कुर्वे न सावधमिति प्रतिज्ञां, वदन्नकुर्वन्नपि देहमात्रात् । शय्यादिकृत्येषु नुदन् गृहस्थान्, हृदा गिरा वासि कथं मुमुक्षुः ? ॥४८॥ अर्थ - "मैं सावद्य न करूँगा इस प्रतिज्ञा का तू सदैव उच्चारण करता है, फिर भी शरीरमात्र से भी सावध नहीं करता है और शय्या आदि कार्यों में तो मन और वचन से गृहस्थों को प्रेरणा किया करता है - फिर तू मुमुक्षु कैसे कहला सकता है ?" कथं महत्त्वाय ममत्वतो वा, सावद्यामच्छस्यपि सङ्घलोके । न हेममय्यप्युदरे हि शस्त्री, क्षिप्ता क्षणोति क्षणतोऽप्यसून् किम् ? ॥४९॥ ___ अर्थ - "महत्व के लिये अथवा ममत्व से संघ लोको में भी सावध की अभिलाषा रखता है परन्तु क्या सोने की छुरी को भी पेट में मारी जाय तो वह क्षणभर में प्राण का नाश नहीं कर सकती है ?"

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