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नव पदार्थ
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३२. सावद्य करनी से पाप कर्म लगते हैं, जिससे भविष्य में जीव को दुःख भोगना पड़ता है। सावध करनी को जो अजीव कहते हैं, वे निश्चय ही मिथ्यात्वी जीव हैं ।
३३. योग सावद्य और निरवद्य दो तरह के कहे गए हैं। उनकी गिनती जीव द्रव्य में की गई है। इसलिए योग आत्मा कही गई है। योगों को जीव-परिणाम कहा गया है ।
३४. योग जीव के व्यापार हैं और योग ही आश्रव द्वार हैं । इस तरह जो आश्रव हैं, वे निःशंक रूप से जीव हैं। इसमें जरा भी शंका मत करो ।
३५. लेश्या शुभ और अशुभ कही गयी है । उसे भी जीव द्रव्य में सम्मिलित किया गया है । लेश्या का उदयभाव जीव है, अतः लेश्या जीव का परिणाम है।
३६. लेश्या आत्मा को कर्मों से लिप्त करती है अर्थात् जीव- प्रदेशों को लिप्त करती है । यह भी आश्रव है जीव है, इसमें शंका नहीं। इसके असंख्यात स्थानक कहे गए हैं।
३७. मिथ्यात्व, अव्रत और कषाय ये जीव के उदयभाव हैं। इसीलिए कषाय आत्मा कही गई है । इनको जीव-परिणाम कहा गया है।
३८.
ये (उपरोक्त योग आदि) पांचों आश्रव - द्वार हैं और कर्मों के कर्त्ता हैं । ये पांचों ही साक्षात् जीव हैं। इसमें जरा भी शंका नहीं है ।
३९. आश्रव जीव के परिणाम हैं, ऐसा स्थानाङ्ग के नवें स्थानक (गा. ३९,४०) में कहा है। जीव के परिणाम जीव होते हैं, उन्हें अज्ञानी अजीव कहते हैं ।
४०. स्थानाङ्ग सूत्र के नवें स्थानक में जो कर्मों को ग्रहण करता है, उसे आश्रव कहा है। जो कर्मों को ग्रहण करता है, वह आश्रव जीव है । जो ग्रहण होकर आते हैं, वे पुद्गल अजीव हैं ।
४१. स्थानाङ्ग सूत्र के दसवें स्थानक में दस बोल कहे हैं। इन बोलों को उल्टा कौन श्रद्धता है ? जा उल्टा श्रद्धता है, वह मिथ्यात्व आश्रव साक्षात् जीव है ।