Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 116
________________ परिशिष्ट - नम्बर ३. [ हालही में हिन्दीकी सुप्रसिद्ध "सरस्वती" मासिक पत्रिकामें सरखतीके भूतपूर्व सम्पादक श्रीयुत पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदीने एक ग्रन्थकी समालोचना करते हुए अपनी गुणज्ञता, गुणग्राहकता, निर्भीकता एवं स्पष्ट वक्तव्यताका परिचय दिया है अवश्य मनन करने योग्य समझकर अक्षरशः उसको यहां उद्धृत किया है । वाचकवृन्द इससे अवश्य लाभ उठावें - ग्रन्थकर्त्ता ] प्राचीन जैन - लेख - संग्रह | [ समालोचना ] ( सरस्वती जून १९२२ से उद्धृत ) एक समय था जब जैन-धर्म, जैन संघ, जैन मंदिर, 'जैन-ग्रंथ - साहित्य और जैनोंके प्राचीन लेखोंके विषयमें खुद जैन धर्मावलम्बियों का भी ज्ञान बहुतही परिमित था । साधारण जनोंकी तो बातही नहीं, असाधारण जैनीभी इन बातोंसे बहुतही कम परिचय रखते थे । इस दशामें और धर्मके विद्वानोंकी अवगतिका तो कुछ कहनाही नहीं । वे तो इस विषयके ज्ञानमें प्रायः बिलकुलही कोरे थे । और, प्राचीन ढर्रेके हिन्दूधर्म्मावलम्बी बड़े बड़े शास्त्रीतक, अब भी नहीं जानते कि जैनियोंका स्याद्वाद किस चिड़ियाका नाम है । धन्यवाद है जर्मनी, और फ्रांस, और

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