Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 123
________________ १०७ पुस्तक भिन्न २ पुस्तकों और रिपोर्टोसेभी अपने मतलवके लेख उद्धृत किये हैं, और स्वयं अपनी खोजसेभी सैंकड़ों नये नये लेखोंका समावेश किया है । उदाहरणार्थ, आबूके लेखोंकी संख्या २०८ है । पर उनमें से केवल ३२ लेख एपिग्राफिआ इंडिकाके आठवें भाग में प्रकाशित हो चुके हैं । वाकी सभी लेख इस पुस्तकमें पहिलेही पहल छापे गये । यही बात औरोंके विषय में भी जाननी चाहिये । पुस्तकके पहिले भागमें संख्यासूचक अंक, यथाक्रम, देकर लेख रखे गये हैं । दूसरे भागमें उसी क्रमसे लेखों की समालोचनी की गई है । कौन लेख कहां मिला है, किस समयका है, पहिले कभी प्रकाशित हुआ है या नहीं, उससे उस समयकी कौन २ ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त हो सकती है, उस समय विशेषकरके उस प्रांतकी राजकीय और सामाजिक स्थिति कैसी थी, जैनसंघोंकी स्थिति कैसी थी, किस संघकी परम्परामें कौन आचार्य कब हुआ, इन सब बातोंका विचार आलोचनाओं में किया गया है । उल्लिखित साधुओं और आचार्यों की शिष्यमंडली में कौन कौन व्यक्ति नामी हुआ और उसने किस २ ग्रंथकी रचना की, इसकाभी उल्लेख किया गया है । पूर्वप्रकाशित लेखोंके संपादकों की भूलोंकाभी निदर्शन किया गया है और यहभी दिखलाया गया है कि पुस्तकस्थ लेखोंमें निर्दिष्ट घटनाओं और प्रसिद्ध पुरुषोंके अस्तित्व समयके जो उल्लेख अन्यत्र मिलते हैं उनसे इन लेखोंमें कियेगये उल्लेखोंसे कहांतक मेल है । यदि कहीं मेल नहीं तो उल्लिखित सन् - संवतों में कौनसा सन

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