Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 01
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
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________________ असढ 838 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असढकरण दिवो तेण निवपहे,छट्ठदिणे हरिविदारिओ पुरिसो। हा मित्त ! मित्तवच्छल!,छलदसणरहिय! रहियनयमज्झो। नाउं धणोवलंभा, ह हा ! वराओ अहणगु त्ति / / 106|| इय बहविहं पलिविउं, मयकिच कुणइ सो तस्स / / 137|| तं दव्वं गहिऊणं,पकामसुविसुज्झमाणपरिणामो। जललवतरले जीए, विजुलयाचंचलम्मि तरुणत्ते। रयणउरे संपत्तो, पत्ते सुनिउंजिउंदव्वं / / 110 // को नाम गेहवासे, पडिबंधं कुणइ सविवेओ॥१३८|| गिण्हित विजयवद्धण- सूरिसमीवेऽणवजपव्वज्जं / इय चिंतिऊण सम्मत्तदाइगुरुपासपत्तसामन्नो। जाओ य सुक्ककप्पे, सोलसअयरहिई अमरो।।१११॥ उववन्नो गेविज्जे, सो तइए भासुरो अमरो॥१३६।। तो चविउं इह भरहे, रहवीरपुराभिहाणनयरम्मि। अत्थिह विदेहवासे, वासवदेह व सज्जवजहरं। गेहवइनदिवद्धण- सुंदरिपुर्ता इ सो जाओ।।११२|| अंबयसहस्सकलियं, चंपावासं ति वरनयरं।।१४०।। नामेणऽणंगदेवो, अणंगदेवुव्व बहलरूवेण। तत्थाऽऽसि माणिभद्दो, भद्दोवज्जणमणो सया सिट्टी। सिरिदेवसेणगुरुणो, पासे पडिवन्नगिहिधम्मो // 113 / / जिणधम्मरम्मकामा, तस्स पिया हरिमई नामा // 141 / / अह अहणगो विहरिणा, हणिओ सेलाइनारओ जाओ। सो वीरदेवजीवो, तत्तो गेविजगाउ चविऊण / सीहो भविय तहिं चिय, पुणो विपत्तो असुहचित्तो।।११४|| नामेण पुन्नभद्दो, ताणं पुत्तो समुप्पन्नो॥१४२॥ तो हिंडिय भूरिभवे, तत्थेवय सोमसत्थवाहस्स। तेणंच पढणसमए,घोस पढममवि उच्चरंतेणं। नंदिमइभारियाए, जाओ धणदेवनामसुओ॥११५|| अमरु त्ति समुल्लवियं, वुच्चइ अमरो वि तेणेसो।।१४३।। असढसढमाणसाणं,तेसिंपीई परुप्परं जाया। दोणो विमओ धूमाए बार अयराउ नारओ जाओ। तेदविणज्जणमणसो, कया वि पत्ता रयणदीवे / / 116|| मच्छो सयंभूरमणे, भविउं तत्थेव उववन्नो // 144|| कइवयदिणेहि वलिया, सपुराभिमुहं विढत्तबहुवित्ता। भमिय भवे तत्थ पुरे, नंदावत्तभिहसिट्ठिदइयाए। अह धणदेवो जाओ, नियमित्तपवंचणप्पवणो।।११७।। सिरिनंदाए धूया, संजाया नंदयंति त्ति / / 145 // कम्मि विगामे हट्टे, कराविया मोयगा दुवे तेणं। भवियव्वयावसेणं, परिणीया सा उपुन्नभद्देण। इक्कम्मि विसं खित्तं, एवं मित्तस्स दाहं ति॥११८|| सा पुव्वकम्मवसओ, जाया पइवंचणिक्कमणा / / 146 / / आउलमणस्स जाओ, मग्गे इंतस्स तस्स वचासो। से परियणेण कहियं, वद्धुत्तरकूडकवडनियडिकुडी। सुद्धो सहिणो दिन्नो, सयं तु विसमोयगो भुत्तो॥११६।। अइविसमविसविसप्पिर-गुरुवेयणपसरपरिगओझत्ति / सामिय! पिया तुहेसा, न य सद्दहियं पुणो तेणं / / 147|| धणदेवो परिचत्तो, धम्मेण व जीविएणावि।।१२०|| कइया वि सव्वसारं, कुंडलजुयलं सर्य अवहरित्ता। आउलहियय व्व इमा, साहइपइणो पणट्ठति।।१४८|| बहु सोइऊण तस्सय, मयकिच्चं काउणंगदेवो वि। तेण वि नेहवसेणं, घडाविउं नवयमप्पियं तं से। पत्तो, कमेण सपुरे, तन्नियगाणं कहइ सव्वं // 121 / / तेसिंपभूयदव्यं, दाउं पुच्छित्तु पियरपमुहजणं। इय हरियमन्नमन्नं, तीए दिन्नं पुण इमेण // 146 / / पहाणावसरे, कइया, मुद्दारयणं समप्पियं तीसे। सो पुव्वगुरुसमीवे, गिण्हइ वयमुभयलोयहियं / / 122 / / दुक्करतवचरणपरो, परोवयारिकमाणसो मरिउं। संझाए मग्गियं पुण, सा आह कहिं वि नणु पडियं // 150 / / गुणवीससागराऊ, पाणयकप्पे सुरो जाओ।।१२३॥ तत्तो अइसंभंतो, निउणं एसो निहालइ गिहंतो। कालेण तओ विचओ, जंबुद्दीवम्मि एरवयवासे। भजाभरणसमुग्गे, नटुंदव्वं नियइ सव्यं / / 151 / / गयपुरनयरे हरिनंदिसेट्ठिणों परमसङ्कस्स।।१२४॥ किं कुडलाइदव्वं,गयं पिलद्धं इमीएन गयं वा। लच्छिमइपणइणीए, जाओ पुत्तो य वीरदेवु त्ति। करकलियदविणजाओ, एसो चिंतेइ सवियकं // 152|| सिरिमाणभंगसुहगुरु-समीवकयगिहिवउच्चारो। 125|| इत्तो य सा तहिं चिय, पत्ता इयरो य झत्ति नीहरिओ। धणदेवो विहुतइया, उक्कडविसवेगपत्तपंचत्तो। झाएइ नंदयंती, धुवमिमिणा जाणिया अहयं / / 153 / / नवसागरोवमाऊ, उववन्नो पंकपुढवीए॥१२६।। जा सयणाण वि मज्झे, नो उप्पाएइ लाघवं मज्झं। पुणरवि भविय भुयंगो, दारुणवणदावदड्डसव्वंगो। सज्जो संजोइयकम्मणेण मारेमि ताव इमं / / 154|| जाओ तहिं चि किंचूणअयरदसगाउ नेरइओ॥१२७|| काउंतयं सयंचिय, अणेगमरणावहेहि दव्वेहि। तिरिएसु भमिय सो तत्थ गयपुरे इदंनागसिट्ठिस्स। तमिसम्मि संठवंती, डक्का दट्टेण सप्पेण||१५५|| नंदिमईभज्जाइ, दोणगनामा सुओ जाओ / / 128|| पडिया धस त्ति धरणिं,जाओ हाहारवो अइमहंतो। पुव्वुत्तपीइजोगा, इगहट्टे ववहरति ते दोवि। तत्थागओपई से, आया पवरगारुडिया॥१५६|| वित्त बहुं विढत्तं, तो चिंतइ दोणगो पावो // 126 / / सव्वेसि नियंताण वि,खणेण निहणं गया गया पावा। कह एसो असहरो, हणियव्वो हुं कराविउंइण्हि। छट्ठीए पुढवीए, पुरओ भमिही अणंतभवं // 157 / / नवधवलहरं उच्चत्तणेण नहमणुलिहंतं व // 130|| तं दठ्ठ पुन्नभद्दो, सोयजुओ तीइ काउमयकिचं / तत्थुवरि भुवि अओमय-कीलगजालानियंतियगवक्खं / वेरग्गभावियमणो, जाओ समणो विजियकरणो॥१५८|| भोयणकए निमंतित्तु वीरदेवं कुडुंबजुयं॥१३१॥ सुक्कज्झाणानलद सयलकम्मिंधणो धुणियपावो। तो से दंसिस्समिम, रमणीयत्ता सयं स आरुहिही। सो भयवं संपत्तो, लोयग्गसुसंठियणं / / 156 / / खडहडिऊण निवडिही, पाणेहि वि झत्ति मुचिहिही॥१३२।। निरुनिव्वेयनिमित्तं, पकित्तिया पुरिमपच्छिमिल्लभवा / अह निव्विवायमेसो, विहवभरो मज्झ चेव किर होही। इहयं असढगुणम्मी, पगयं पुण चक्कदेवेण॥१६०॥ नय कोइ जणविवाओ, इय चिंतिय कारइ तहेव / / 133 // इतिफलमतिरम्यं चक्रदेवस्य सम्यक्, जा भुत्तत्तरमेए, वे विधवलहरसिहरमारूढा। प्रतिभवमपि श्राव्यं भावभाजो निशम्य। सइमइरहिओ दोणो, अणप्पसंकप्पभरियमणो // 134 // भक्त भविकलोकाः स्पष्टसंतोषपोषाः, भो मित्त ! एहि इहयं, निजूहे विससु जंपिरो तत्थ। कथमपि हि परेषां वञ्चनाचञ्चवो मा / / 161|| सयमारूढो इक्को, पडिओ मुक्को य पाणेहिं / / 135 / // इति चक्रदेवचरितं समाप्तम्।। हाहारवमुहलमुहो, तुरियं उत्तरिय वीरदेवो वि। असढकरण-पुं०(अशठकरण)मायामदविप्रयुक्ता भूत्वा यथोक्त जा नियइ ता पदिट्ठो, मित्तो पंचत्तमणुपत्तो // 136 / / विहितानुष्ठानकारके, बृ०६उ०। "असढकरर्णा नाम सव्वत्था-दानतो

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