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१२० ] . आत्मकथा होने से ही आदर न होना चाहिये । धनवान के गुण और ईमान ही आदरणीय हैं। खैर, जैन-शास्त्रों ने परिग्रह के पाप के विषय में जो विचार दिये थे उनका समर्थन व्यवहार के इन तुच्छ अनुभवों ने भी किया । धनकी महत्ता से मुक्त तो मैं आज भी अपने को नहीं बना पाया हूँ, उस दिन तो क्या वना पाता फिर भी इन विचारों का ख़याल व्यवहार में बना रहता था । इसलिये यह नियम वनालिया था कि किसी बड़ी ज़रूरत के विना किसी धनवान के यहाँ न जाना । हां, जिससे ख़ास मित्रता हो या संस्था के कार्य से जाना पड़ता हो तो बात दूसरी है।
खैर, साधारणतः सन्मान के साथ सिवनी में मेरे दिन कटने लगे। जिन महाशयने साधारण क्लर्क के समान मुझसे काम लेनी चाहा था वे भी समझगये और आदर करने लगे।
सुधारकता का बीजारोपण . अभी तक मैं साधारणतः पुराने विचारों का ही आदमी था, सिवनी का वातावरण भी बिलकुल पुराने विचारों के अनुकूल था। बनारस में तो में विधवा-विवाह के विरोध में लेख भी लिख चुका था । मेरी शिक्षा और संगति ऐसी थी कि सुधारकता का बीजारोपण उसमें अशक्य सा ही था, अंग्रेजी पढ़ा नहीं, विचारकों के संसर्ग में रहा नहीं, हिन्दी साहित्य उस समय इतना समृद्ध नहीं था और जो कुछ था भी वह भी मैंने देखा नहीं था, फिर भी स्थितिपालकों के गढ़ में रहकर मुझमें सुधारकता का आविर्भाव हुआ, कंस के कारागार में श्रीकृष्ण का, हिरण्यकशिपु के यहाँ प्रल्हाद का ।