Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 247
________________ २२२ आत्मानुशासन है उसकेलिये यह सारा जग संकटका कारण होनेसे तथा अपूर्व आत्मानंदका विघातक होनेसे सर्वथा हेय है, अभोग्य है, उपेक्षणीय है। जग तो एक ही है परंतु दृष्टिभेदके कारण दो प्रकारका कहनेमें आसकता है। अब मोक्षार्थीको क्या करना चाहिये ? उसे यह करना चाहिये कि हेयोपादेयताकी अपेक्षा समझकर निवृत्तिका अभ्यास करै । क्योंकि, वास्तविक आनंद आत्मानंद है और वह जगसे निवृत्ति पानेपर प्राप्त होसकता है। . निवृत्ति करते रहनेसे सदा निवृत्तिमें व्याकुलता रखनी पडती है। इसलिये क्या निवृत्ति ही सदा करनेमें लगा रहना चाहिये ? नहीं। तो फिर, निवृत्तिं भावयेद्यावन्निवर्यं तदभावतः । न वृत्तिर्न निवृत्तिश्च तदेव पदमव्ययम् ॥ २३६ ॥ अर्थ:-निवृत्तिकी भावना तबतक करो जबतक कि बाह्य उपाधि हट कर आत्मानंदकी पूरी प्राप्ति नहीं हुई हो । जब कि बाह्य उपाधियोंसे चित्त हटकर आत्मानंदमें पूरा लीन हुआ कि फिर न प्रवृत्ति ही करना शेष रहता है और न निवृत्ति करना । जब कि आत्मानंदमें जीव मग्न हुआ तो फिर प्रवृत्ति किसमें और निवृत्ति किससे ? यह कल्पना वहां मिट जाती है। वस, इसीका नाम अ. विनाशी मोक्षपद है। - रागद्वेष कैसे मिटैं ?रागद्वेषौ प्रवृत्तिः स्यानिवृत्तिस्तन्निषेधनम् । तौ च बाह्यार्थसंबद्धौ तस्मात्तांश्च परित्यजेत् ॥२३७ ॥ __ अर्थः-राग-द्वेषका ही नाम प्रवृत्ति है और उसके रोकनेको निवृत्ति कहते हैं । राग-द्वेषका होना बाह्य विषयके अधीन है। इसीलिये राग-द्वेष दूर करनेकेलिये बाह्य विषयोंसे संबंध छोडो । भावार्थ, रागद्वेष ही दुःखके कारण हैं । और रागद्वेषकी उत्पत्ति विषयोंसे होती है। इसलिये रागद्वेष दूर करना यदि पसंद है तो बाम विषयोंको

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