Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 251
________________ २२६ आत्मानुशासन. . सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है; फिर छट्ठे गुणस्थानतक क्रमसे व्रत, और उसके आगे शुक्लध्यानादिरूप विवेक, विवेकके बाद दशम गुणस्थानके अंत से लेकर वीतरागता प्राप्त होती है । और सबके अंत में चंचलताका अभाव होता है । चंचलताका ही नाम योग है । जैसे ये कारण प्राप्त होते जाते हैं वैसे ही इसकी कर्मोंसे मुक्ति भी होती जाती है । मुक्त होने का यही क्रम हैं और ये ही उसके कारण हैं । मुक्तिका बाधक कारणःममेदमहमस्येति प्रीतिरीतिरिवोत्थिता । क्षेत्रे क्षेत्रीयते यावत्तावत् काशा तपःफले ॥ २४२ ॥ अर्थः- यह शरीरादिक मेरा है, मैं इसका हूं; ऐसी प्रीति जबतक आत्मामें तन्मय होकर लग रही है तबतक तप निरर्थक है । तपका असली फल मोक्ष प्राप्त होना है । परंतु बाह्य वस्तुओंमें प्रीति, 1 मानो एक प्रकारका भयंकर उपद्रव है । चूहे आदिकों का उपद्रव - जिस प्रकार भयंकर व सर्वस्व हानि करता है उसी प्रकार विषय-प्रीतिके होते ही मोक्ष पदका विघात हो जाता है। मामन्यमन्यं मां मत्त्वा भ्रान्तो भ्रान्तौ भवार्णवे । नान्यो महमेवाहमन्योन्योन्याहमस्ति न || २४३ ॥ अर्थ:- जीव जबतक इस भ्रान्तिमें पडकर अज्ञानी बन रहा है तबतक संसारसमुद्र में भ्रमेगा । वह भ्रान्ति कौनसी ? ऐसा मानना ही वह भ्रान्ति है कि मैं शरीरादिमय हूं अथवा शरीरादिक ही मैं हूं। १ टोडरमलजीने ' अयोगः ' ऐसा पदच्छेद न समझकर इनके योगसे ऐसा अर्थ लिखदिया है परंतु वह ठीक नहीं है। ठीक न होनेका हेतु एक तो यह है कि संस्कृत टीका में ' अयोग ' एक कारण माना है, दूनेर, यहीं संभव है; पद तभी चरितार्थ होगा । तीसरें बहुवचनान्त २ उपद्रव सात प्रकारके माने जाते हैं: - अतिवृष्टि, अनावृष्टि मूषक, टिड्डी, सुख, स्वचक्र, परचक्र। इन्होको ईति भी कहते हैं । ३ 'अस्मि' ऐसा पाठ ठीक दीखता है।

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