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अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम्- .
सिद्धान्त है। कार्य उपजै है तामैं दोय विकल्प हैं-या तौ सत्रूप उपजता कहनां कै असत्रूप उपजता कहनां, इन दोऊ विकल्परूप पक्षमैं दूषण दिखावै हैं___ यदि सत्सर्वथा कार्य पुंवनोत्पत्तुमर्हति ।
परिणामप्रक्लप्तिश्च नित्यत्वैकान्तबाधिनी ॥ ३९ ॥ अर्थ-यदि कहिये जो कार्य है सो सर्वथा सत् है, कूटस्थके समान है ऐसैं कहिये जो सांख्यमती जैसैं पुरुषकू नित्य मानै है तैसैं कार्य भी नित्य ठहरै-उपजने योग्य न ठहरै । बहुरि कहै कि वस्तुकै अवस्था” अन्य अवस्था होय है ऐसैं विर्वतरूप कार्य उपजै है ? ताईं कहिये-तौ वस्तु परिणामी ठहरै है सो यह परिणामकी पलटनेरूप प्रक्लप्ति कहिये केवल कल्पना ही है सो नित्यत्व एकान्तकी बाधनेवाली है ही । बहुरि कहै कि कार्य असत्रूप उपजै है तौ सांख्यमतके सिद्धान्तमैं जो यह कह्या है कि असत्का करना असंभव है सो ऐसे सिद्धान्तका विरोध आवै है । ऐसैं नित्यत्व एकान्तके वादी जे सांख्यमती आदिक तिनकै कार्य उपजनेका अभाव आवै है ॥ ३९॥ ___ आणु कार्यके अभाव होनेमैं नित्यत्व एकान्तवादीनिकै दोष आवै है तिनकू प्रगट कहैं हैं
पुण्यपापक्रिया न स्यात् प्रेत्यभावफलं कुतः। बंधमोक्षौ च तेषां न येषां त्वं नासि नायकः ॥ ४०॥ अर्थ-हे भगवन् ! जिनकैं तुम अनेकान्तके उपदेशक आप्त नायक स्वामी नाही हो तिन सर्वथा नित्यत्त्वादि एकान्तवादीनिकै पुण्यपापकी क्रिया-काय, वचन, मनकी शुभ, अशुभ प्रवृत्तिरूप तथा उपजनेस्वरूप क्रिया नाहीं बनै है याहीतैं परलोक भी नाहीं बनें है । बहुरि क्रियाका फल सुख दुःख आदि काहे तैं होय अपि तु नाहीं