Book Title: Aapt Mimansa
Author(s): Jaychand Chhavda
Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti

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Page 120
________________ आप्त-मीमांसा। विशुद्धिका कारण है। बहुरि सम्यग्दर्शनादिक विशुद्धिके कार्य हैं, बहुरि धर्म शुक्ल ध्यानके परिणाम हैं । ते विशुद्धिके स्वभाव हैं तिस विशुद्धिके होते ही आत्मा आप वि तिष्टै है । तातैं यह अनेकांत सिद्ध भया । जो स्वपरस्थ सुख दुःख हैं ते कथांचित् पुण्यआस्रवके कारण हैं । जातें विशुद्धिके अंग हैं बहुरि कथंचित् पापआस्रवके कारण हैं जाते संक्लेशके अंग हैं । ऐसें ही कथंचित् उभय है, कथंचित अवक्तव्य है, कथंचित् पुण्यहेतु अवक्तव्य है, कथंचित् पापहेतु अवक्तव्य है, कथंचित् उभय अवक्तव्य है, ऐसें सप्तभंगी प्रक्रिया पूर्ववत् जोड़नी ॥९५॥ चौपाई। निजपर सुख दुःख पुण्य वंधाय, जो विशुद्धिके अंग जु थाय । बंधै पाप जो रचै कलेश, परम विशुद्ध बंध नहि लेश ॥१॥ इतिश्री आप्तमीमांसा नाम देवागम स्तोत्र की संक्षेप अर्थरूप देश भाषा मय बचनिका वि. नवमां परिच्छेद समाप्त भया ॥९॥ यहाँ ताई कारिका पिच्याणवै भई ॥ ९५ ॥ आरौं दसमा परिच्छेदका प्रारम्भ है ।

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