Book Title: Aadhunikta aur Rashtriyata
Author(s): Rajmal Bora
Publisher: Namita Prakashan Aurangabad

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Page 20
________________ १६ आधुनिकता और राष्ट्रीयता विकसित होती है वैसे ही मनुष्य की आवश्यकताओं का अंधापन खत्म हो जाता है । विचार आगे की ओर देखता है और परिणाम की पहले से ही कल्पना कर लेता है । वह अपने लिए कुछ प्रयोजन, योजनाएं, लक्ष्य और आदर्श उद्देश्य बना लेता है । मानवीय प्रकृति के इन सार्वत्रिक और अनिवार्य तथ्यों में से श्रेयस् की और चरित्र के वौद्धिक पक्ष के मूल्यों की नैतिक अवधारणाएं विकसित होती हैं । चरित्र का यह बौद्धिक पक्ष इच्छाओं और उद्देश्यों के समस्त संघर्ष और द्वन्द्व में व्यापक और स्थायी परितुष्टि को अन्तर्दृष्टि से देखने का प्रयत्न करता है। वही ज्ञान या दूरदर्शिता है ।" " इसी ज्ञान और दूरदर्शिता के आधार पर मानव उन्नति करता है और अपने हित के साथ-साथ समाज का भी हित करता जाता है । किन्तु यह सभी उसी समय संभव है जब कि राज्य व्यवस्था में विचार स्वातंत्र्य की सुविधा दी गई हो । जो राज्य व्यवस्था विचारों पर रोक लगाएगी वहाँ पर निरंकुश सत्ता स्थापित होगी और आतंक का साम्राज्य होगा । लोकराज्य जैसे कि नाम से ही स्पष्ट है जनता का राज्य है । अतः इसमें विचार - स्वातंत्र्य की व्यवस्था है । किन्तु केवल विधान में लिखे होने से ही काम नहीं होता । आवश्यकता उसके व्यावहारिक प्रयोग की है । I हमारे संविधान में विचार - स्वातंत्र्य की व्यवस्था है । यह जनता के हित में है । किन्तु विधान बना देने से ही व्यवस्था में एकदम परिवर्तन नहीं हो जाता । उदाहरण के लिए रूस का इतिहास देखा जा सकता है । १८५५ ई० में जब क्रिमिया का युद्ध चल रहा था, उस समय अलेग्जेण्डर द्वितीय रूस का शासक बना। उदार हृदय का होने के नाते इसने अपने देश में बहुत से सुधार करने के प्रयत्न किए। इसी ने १८६९ ई० में दासों की उन्मुक्ति का हुक्म जारी किया और इस एक ही हुक्म से रूस की चार करोड़ जनता स्वतंत्र हो गई । किन्तु इस कानून से दासों को वास्तविक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो सको । इंग्लैण्ड में दासता का अन्त आर्थिक क्रांति से हुआ था जबकि रूस में इस समय दासता का अन्त कानून से हुआ । कानून से अन्त होने के कारण आर्थिक स्थिति में नाम - मात्र का फेरफार हुआ और व्यवस्था ज्यों-की-त्यों बनी रही। इसमें संदेह नहीं कि नैतिक दृष्टि से रूस को अपार लाभ हुआ, किन्तु वास्तव में रूस के किसान को अपनी प्रतिष्ठा की विशेष चिन्ता नहीं थी, वह तो चाहता था कि उसकी आर्थिक स्थिति में सुधार हो । व्यवस्था १. नैतिक जीवन का सिद्धांत, जॉन ड्यूई - ( अनुवादक : कृष्णचंद्र, प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली. ) पृ. १६७ ।

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