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________________ दे सकता, इस अंतरायका नाम दानांतराय है, सो भगवान्में न होना चाहिये. .. २-दूसरा लाभांतराय जिसमें न हो अर्थात् किसी पदा. थेको चाहे और न मिले, इसको लाभांतराय कहते हैं, जैसे रामचंद्रजी सीताजीको चाहते थे, दरख्तोंसे भी पूछते रहे, हाय ! मेवी सीता कहीं ?, उस वख्त उनमें लाभांतराय था, वस, जिसमें यह दूषण हो वह परमात्मा नहीं हो सकता है, ऐसे ही जिसमें___३-तीसरा वीर्यातराय नामका दूषण हो वह प्रभु नहीं, क्यों कि वह. अनंतशक्तिवाला होना चाहिये, कोई कार्य उसकी शक्तिके बहार नहीं होता मगर कदापि अनुचित मार्गमें शक्तिको नहीं लगा सकते, ऐसे ही ४-चोथा दूषण भोगका अंतराय और ५-पांचवा उपभोगका अंतराय भी जिनमें न होवे, जो कि वे परमात्मा भोगोपभोगकी विशेष सामग्रीसे दूर रहते हैं मगर इनको किसी भी भोग ( एकवार भोगमें लेने लायक वस्तु खाद्य पदार्थ और पुष्प वगेरा ) का अंतराय नहीं होता, जिस वस्तुकी इच्छा हो मिल सकती है. ऐसे ही कोई भी उपभोग ( वारंवार भोगने लायक चीजें, जैसे आभूषण वस्त्र मकानादि एक रोजके भोगसे नहीं बिगडते मगर वारंवार भोगे जाते हैं ) का अंतराय भी नहीं होता है. श्रावक-साहिब ! प्रभु सर्व पदार्थोंका त्यागी है, मात्र अचित्त पदार्थ, सो भी क्षुधा वेदनीय समानेके लिये ही जब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034555
Book TitleMat Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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