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________________ ( २० ) तक देह रहे ग्रहण करते हैं, तो है ऐसा कैसे कह सकते हैं ? फिर उनका अंतराय टूटा सूरश्विर-- भाई ! ऐसी बात है कि प्रभु चाहे सर्व वस्तुका त्याग कर देवे, इससे उनको अंतराय है ऐसा नहीं कहा जा सकता, जैसे किसी धनाढ्यके वहां सब वस्तुएं तैय्यार हैं मगर वैराग्यसे उसने घरकी बहुतसी वस्तुओंका त्याग किया हैं तो क्या धनाढ्यको उन वस्तुओं का भोगांतराय है ऐसा कह सकते हैं ?, कदापि नहीं, ऐसे ही तीर्थंकर प्रभु के विषय में समझने का है. ६ - छठ्ठा हास्य नामका दूषण जिसमें हो वह परमात्मा नहीं हो सकता है, कारण कि हाँसी किसी अपूर्व वस्तुके देखने से या सुनने से होती है, सो तो परमात्मा त्रिकालज्ञ होनेसे किसी भी नवीन वस्तुका अनुभव नहीं करते, तो फिर हाँसी कैसे हो सकती है ?, और प्रभुमें हास्य मोहनीयके क्षय होने से भी छठ्ठा दूषण नहीं हो सकता है, जिसमें यह छट्ठा दूषण हो, उसे परमात्मा नहीं जानना. ७ - सातवा दूषण रति [ खुशी] है, किसी पदार्थके लाभ से जैसे गृहस्थों को होती है सो परमात्मामें नही होती है, और ८- अरति नाम दिलगीरीका है, जैसे नुकसान होजानेसे लोगोंको होती है सो भी परमात्मामें न होना चाहिये, क्यों कि यह भी एक बडा दूषण है, परमात्मा के ध्यान करनेवाले योगियों को भी सुखदुखमें समान रहते हुए देखते हैं तो फिर परमात्मा किसी वस्तुके नुकसानसे दिलगीर कैसे हो सकता है ?, और जिसने अपनी खोके वियोग में या किसीके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034555
Book TitleMat Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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