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________________ [ ४३ पौष्टिक होम कर रक्षा पोटलियाँ दोनों हाथों पर बांध देतीं हैं, अन्त में " पर्वत समान आयुष्य हो " ऐसे हर्षोद्गार व्यक्त करतीं हैं. मणिमय दो गोलों को ( चट्टा-पट्टा को ) भगवान् के क्रीड़ा के लिए पालने में बांधकर गीत-गान करती हुईं भगवन्त और उनकी मातेश्वरी को जन्म स्थान में स्थापन कर छप्पन दिकुकुमारियाँ अपने अपने स्थान पर आनन्द पूर्वक वापिस चली जाती हैं. * जन्म * प्रकाश - शायद आप सोचते होंगे कि आसन कम्पित कैसे हो गये ? पर पुण्य का प्रभाव तो वह अद्भुत शक्ति है कि विश्व को हिला सकती है, फिर आसन की तो गणना ही क्या है ? भगवान् का कितना प्रबल पुण्य है कि विना आमन्त्रण ही महाशुचि में रहने वाली देवियों ने आकर सारा ' सौतिक कर्म ' बड़े हर्ष से सम्पन्न किया. क्या आप भी इस प्रकार का पुण्य संचय करने का सोचेंगे ? अवश्य विचारना चाहिये. ( जन्माभिषेक ) सौतिक कर्म पूर्ण होते ही चौंसठ इन्द्रों के आसन कम्पायमान हुएं, अवधि ज्ञान से सब को भगवान् के जन्म का ज्ञात हुवा - सबसे पहिले सौधर्मेन्द्र ने सुघोषा घण्टा बजाने की हरिणगमेषी देव को आज्ञा की ; बारह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034546
Book TitleMahavir Jivan Prabha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandsagar
PublisherAnandsagar Gyanbhandar
Publication Year1943
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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