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________________ ( १० ) एक दिन नहीं, दो दिन नहीं, परन्तु लगातार कई वर्षों तक सहनी पड़ी थी, पर स्वामीजीने उनके सामने कभी मस्तक नहीं झुकाया । इस प्रकार कठिनाइयों से लड़ते-लड़ते तथा दुःसह परिषदों को समभाव पूर्वक सहन करते-करते उन्होंने देखा कि लोग सच्चे जैन धर्मसे कोसों दूर हैं, अधिकांश लोग गतानुगतिक हैं और सत्यासत्यका निर्णय समर्थ हैं तथा कारणावरणीय कर्मके प्रावल्यके कारण उन्हें सम काना बहुत कठिन है, धर्मके द्वेषी अधिक हैं तथा समझदारों का श्रभाव-सा है। ऐसी परिस्थिति में धर्म प्रचार करनेका उद्योग सफल ही रहेगा । इसलिये इस उद्योगमें व्यर्थ शक्ति व्यय न कर मुझे अपने ही आत्म-कल्याण का विशेष उद्योग करना चाहिये । घर छोड़ कर इस कठिन मार्ग में साधु साध्वियोंका प्रवर्जित होना मुश्किल है इसलिये उम्र तपस्या कर मुझे अपना आत्मोद्धार करना चाहिये । इस प्रकार विचार कर उन्होंने एकान्तर व्रत करना शुरू कर दिया तथा धूप में आतापना लेनी शुरू की । अन्य साधुओंने भी भिखणजीका साथ दिया । इस प्रकार स्वामीजीने अपने मत रूपी वृक्षको अपने तप रूपी जल से सींचना शुरू किया। भिखणजीके समय में थिरपालजी तथा फतेहचन्दजी नामक दो साधु थे, वे तपस्वी, सरल तथा भद्र प्रकृति के थे । उन्होंने भिखणजी को इस प्रकार उम्र तप करते देखकर समझाया कि तपस्या द्वारा अपने शरीरका अन्त न करें। आपके हाथों लोगोंका बहुत कल्याण होना सम्भव है । आपकी बुद्धि असाधारण है । अपने कल्याणके साथ-साथ दूसरोंके कल्याण करनेका सामर्थ्य भी आपमें है, आप अपनी बुद्धि और शक्तिका प्रयोग करें । आपसे बहुत लोगों के समझाए जानेकी आशा है । इन वयोवृद्ध साधुओंके परामर्श को भिखणजीने स्वीकार किया और तभीसे अपने धार्मिक सिद्धान्तोंका लोगों में प्रचार करनेका विशेष उद्योग करने लगे। उन्होंने सिद्धान्तोंको डालों में लिख-लिख कर शास्त्रीय उदाहरणोंसे उनका पोषण किया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyaMbhandar.com •
SR No.034529
Book TitleJain Shwetambar Terapanthi Sampraday Ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Sabha
Publication Year1945
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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