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वह पर खड़े हुए एक सेवक कविने एक दोहा जोड़ सुनाया और इन्हें तेरापंथी नाम से संबोधन किया ।
स्वामीजीकी प्रत्युत्पन्न मति बहुत ही आश्चर्यकारी थी, उनके जैसी उत्पात बुद्धि थोड़ी ही होती है। उस सेवक कविके मुख से आकस्मिक 'तेरापन्थी' नामकरण का वृत्तान्त सुनकर स्वामीजीने उसका बहुत ही सुन्दर अर्थ लगाया । उन्होंने कहा कि जिस पंथमें पांच महाव्रत, पांच सुमति और तीन गुप्ति हैं, वही तेरापन्थ अथवा जो पन्थ, हे प्रभु तेरा है, बही तेरापन्थ है ।
इस घटना के बाद सम्बत् १८१७ आषाढ़ सुदी १५ के दिन स्वामी भीखाजीने भगवान्को साक्षी कर पुनः नवीन दीक्षा ग्रहण की और उनके साथ में जो अन्य साधु निकले थे उन्हें दूसरी जगह भेजते समय कह दिया था कि वे भी उसी दिन ऐसा ही करें। चातुर्मास समाप्त होने पर फिर सभी साधु एकत्रित हुए और जिनकी श्रद्धा और आचार आपस में मिली वे सामिल रहे बाकीके अलग कर दिये गये । इस प्रकार तेरापन्थी मतकी स्थापना हुई और बाद में वह क्रमशः वृद्धि होता गया । स्वामीजी ने थिरपालजी को अपने से बड़ा स्थापना किया ।
इस प्रकार मतकी स्थापना तो हो गयी परन्तु आगेका मार्ग सरल न था । रघुनाथजीने बड़े जोरों से लोगोंको भड़काना शुरू किया रहने के लिये स्थान तक न मिलता था। घी दूधकी तो बात दूर रही रूखा सूखा आहार भी पूरा न मिलता था । पीनेके पानीके लिए भी कष्ट उठाना पड़ता पर स्वामीजी इन विघ्र बाधाओंसे घबराकर मार्गच्युत न हुए । उन्होंने तो यह सब सोच विचार करके ही अपना मार्ग निश्चित किया था और उसके लिए वे अपने प्राणोंकी होड़ भी लगा चुके थे। स्वामी जीतमलजीने ठीक ही कहा है 'मरण धार शुद्ध मग लियो।' अर्थात् उन्होंने प्राण देने तकका निश्चय करके ही प्रभुके
सच्चे मार्गको अङ्गीकार किया था । इस प्रकारकी कठिनाइ
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