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________________ ५४ जैनसम्प्रदायशिक्षा । ( कलंकरहित ) ही है, उस के कुल में अंधेरा ही जानना चाहिये, जैसे चन्द्रमा के विना रात्रि में अंधेरा रहता है ॥ १३२॥ निशि दीपक शशि जानिये, रवि दिन दीपक जान ॥ तीन भुवन दीपक धरम, कुल दीपक सुत मान ॥ १३३ ॥ रात्रि का दीपक चन्द्रमा है, दिन का दीपक सूर्य है, तीनों लोकों का दपक धर्म है और कुल का दीपक सपूत लड़का है ॥ १३३ ॥ , तृष्णा खानि अपार है, अर्णव जिमि गम्भीर ॥ सहस यतन हूँ नहिँ भरै, सिन्धु यथा बहुनीर ॥ १३४ ।। यह आशा ( तृष्णा) की खान अपार है, तथा समुद्र के समान अति गम्भीर है, यह (तृष्णा की खान ) सहस्रों यत्रों से भी पूरी नहीं होती है, जैसे-समुद्र बहुत जल से भी पूर्ण नहीं होता है ॥ १३४ ॥ जिहि जीवन जी● इते, मित्ररु बान्धव लोय ॥ ताको जीवन सफल जग, उदर भरै नहिँ कोय ॥ १३५ ।। जिस के जीवन से मित्र और बांधव आदि जीते हैं-संसार में उसी पुरुप का जीना सफल है, और यों तो अपने ही पेट को कौन नहीं भरता है ॥ १३५ ॥ भोजन वहि मुनिशेष जो, पाप हीन बुध जान ॥ पीछेउ हितकर मित्र सो, धर्म दम्भ विन मान ॥ १३६ । मुनि (साधु) को देकर जो शेष बचे वही भोजन है (और तो शरीर को भाड़ा देना मात्र है), जो पापकर्म नहीं करता है वही पण्डित है, जो पीछे भी भलाई करने वाला है वही मित्र है और कपट के विना जो किया जावे वही धर्म अवसर रिपु से सन्धि हो, अवसर मित्र विरोध ॥ कालछेप पण्डित करै, कारज कारण सोध ॥ १३७ ॥ समय पाकर शत्रु से भी मित्रता हो जाती है और समय पाकर मित्र से भी शत्रुता ( विरोध) हो जाती है, इस लिये पण्डित (बुद्धिमान् ) पुरुष कारण के विना कार्य का न होना विचार अपना कालक्षेप ( निर्वाह ) करता है ॥ १३७ । १–क्योंकि मूर्ख और भक्तिरहित पुत्र से कुल को कोई भी लाभ नहीं पहुंच सकता ।।। २–क्योंकि ज्यों २ धनादि मिलता जाता है त्यों २ तृष्णा और भी बढ़ती जाती हैं ॥ ३-कार्य कारण के विषय में यह समझना चाहिये कि-पांच पदार्थ ही जगत् के कर्ता हैं, उन्हीं को ईश्वरवत् मानकर बुद्धिमान् पुरुष अपना निर्वाह करता है---वे पांच पदार्थ ये हैं-काल अर्थात् मसय, वस्तुओं का स्वभाव, होनहार (नियति), जीवों का पूर्वकृत कर्म और जीवों का उद्यम, अब देखिये कि उत्पत्ति और विनाश, संसार की स्थिति और गमन आदि सब व्यवहार इन्हीं पांचों कारणों से होता हैं, सृष्टि अनादि है, किन्तु जो लोग कर्मरहित, निरञ्जन, निराकार और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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