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________________ द्वितीय अध्याय । व्याधिसहित धनहीन अरु, जो नर है परदेश || शोक तप्त पुनि सुहृद जन, दर्शन औषध भेष ।। १३८ ॥ रोगी, निर्धन, परदेश में रहने वाले और शोक से दुःखित पुरुषों के लिये प्रिय मित्र का दर्शन होना औषधरूप है ॥ १३८ ॥ ५५ घोड़ा हाथी लोह मय, वस्त्र काष्ठ पापान || नारी नर अरु नीर में, अति अन्तर पहिचान ॥ १३९ ॥ घोड़ा, हाथी, लोहे से बने पदार्थ, वस्त्र, काष्ट, पत्थर, स्त्री, पुरुष और पानी, इन अन्तर एक बड़ा ही अन्तर है ॥ १३९ ॥ तिय कुलीन अरु नरपती, मत्री चाकर लोग || थान भ्रष्ट शो में नहीं, दन्त केश नख भोग || १४० ।। कुती स्त्री, राजा, मन्त्री ( प्रधान ), नौकर लोग, दाँत, केश, नख, भोग और मनुष्य, ये सब अपने स्थान पर ही शोभा देते हैं किन्तु अपने स्थान से भ्रष्ट होकर शोभा नहीं देते हैं ॥ १४० ॥ पूगीफल अरु पत्र अहि, राजहंस तिमि वाजि ॥ पण्डित गज अरु सिंह ये, थान भ्रष्ट हू राजि ॥ १४१ ॥ सुपारी, नागरवेल के पान, राजहंस, घोड़ा, सिंह, हाथी और पण्डित, ये सव अपने स्थान से भ्रष्ट होकर भी शोभा पाते हैं ॥ १४१ ॥ जो निश्चय मारग है, रहे ब्रह्मगुण लीन ॥ ह्म दृष्टि सुख अनुभवै, सो ब्राह्मण परवीन ॥ १४२ ॥ जो निर्श्वय मार्ग का ग्रहण करे, ब्रह्म के गुणों में लीन ( तत्पर ) हो, तथा ब्रह्मदृष्टि के सुख का अनुभव करे, उस को चतुर ब्राह्मण समझना चाहिये ॥ १४२ ॥ जो निश्चय गुण जानि के, करै शुद्ध व्यवहार || जीते सेना मोह की, सो क्षत्री भुजभार ॥ १४३ ॥ जो निर्श्वय गुणों को जान कर, शुद्ध शुद्ध व्यवहार करे तथा मोह की सेना को जीत ले, वही बड़ी भुजावाला (बलिष्ट) क्षत्रिय जानना चाहिये ॥ १४३ ॥ ज्ञानानन्द पूर्ण ब्रह्म को संसार का कर्ता मानते हैं वह उन का भ्रम है और यथार्थ तत्त्व को बिना विचारे वे ऐसा मानते हैं - तृष्टिविषयक कर्त्ता के विषय में विशेष वर्णन देखने की इच्छा हो ते वृहतखरतर गच्छीय महामुनि श्री चिदानन्द जी महाराज ( जो कि महात्यागी वैरागी ध्यान जैन श्वेताम्बर संघ में एक नामी पुरुष हो गये हैं) के बनाये हुए || १ - इस का उदाहरण प्रत्यक्ष ही है ॥ २- इस का भी उदाहरण प्रत्यक्ष ही दीख पड़ता है ॥ ३- र्थात् व्यवहारमार्ग ( व्यवहारनय) को छोड़कर निश्चयमार्ग ( निश्यनय ) का ग्रहण करे. नय गात हैं-इन का विषय "नयपरिच्छेद" आदि ग्रन्थों में देखो ॥ ४- निश्चव गुर्गों को अर्थात निश्चय नय के गुणों को ग्रहण करे क्योंकि मोह की सेना के कान कोष आदि योद्धाओं को जीतना अति कठिन है ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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