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________________ द्वितीय अध्याय। निरजर द्विज अरु सतपुरुष, खुशी होत सतभाव ॥ अपर खान अरु पान से, पण्डित वाक्य प्रभाव ॥ १२७ ॥ देवना, ब्राह्मण और सत्पुरुष, ये तो भावभक्ति से प्रसन्न होते हैं, दूसरे मनुष्य खान पान से प्रसन्न होते हैं और पण्डित पुरुप वाणी के प्रभाव से प्रसन्न होते हैं ॥ २७ ॥ अग्नि तृप्ति नहिँ काष्ठ से, उदधि नदी के वारि ॥ काल तृप्ति नहिँ जीव से, नर से तृप्ति न नारि ॥ १२८ ॥ अनि काष्ठ से तृप्त नहीं होती, नदियों के जल से समुद्र तृप्त नहीं होता, काल जीवों के खाने से तृप्त नहीं होता, इसी प्रकार से स्त्रियां पुरुषों से तृप्त नहीं होती हैं ॥ २८ ॥ गज को टूट्यो युद्ध में, शोभ लहत जिमि दन्त ॥ पण्डित दारिद दर करि, त्यों सजन धनवन्त ॥ १२९ ॥ जैसे बड़े युद्ध में टूटा हुआ हाथियों का दांत अच्छा लगता है, उसी प्रकार यदि कोई सत्पुरुष किसी पण्डित (विद्वान् पुरुष ) की दरिद्रता योने में अपना धन खर्च करे तो मंग्यार में उस की शोभा होती है ॥ १२९ ॥ सुत विन घर सूनो कह्यो, विना बन्धुजन देश ।। मूरख को हिरदो समझ, निरधन जगत अशेप ॥ १३० ॥ लड़क के बिना घर सूना है, बन्धु जनों के विना देश सूना है, मूर्ख का हृदय सूना है और दरिद्र ( निर्धन ) पुरुष के लिये सब जगत् ही सूना है ॥ १३० ॥ नारिकेल आकार नर, दीसै विरले मोय ॥ बदरीफल आकार बहु, ऊपर मीठे होय ॥ १३१ ॥ ना रेयल के समान आकार वाले सन्पुरुष संसार में थोड़े ही दीखते हैं, परन्तु वेर के समान आकार वाले बहुत से पुरुष देखे जाते हैं जो केवल ऊपर ही मीटे होते है ॥ १३ ॥ जिन के सुत पण्डित नहीं, नहीं भक्त निकलङ्क ॥ अन्धकार कुल जानिये, जिमि निशि विना मयत ॥ १३२॥ जिन का पुत्र न तो पण्डित है, न भक्ति करने वाला है और न निष्कलंक १- केवल वे स्त्रियां समदानी चाहिये जो कि चित्त को स्थिर न रखकर कुमार्ग में प्रवृत्त हो गई हैं, क्योंकि इसी आर्य देश में अनेक वीरांगना परम सती, साध्वी तथा पतिप्राणा हो चुकी हैं । २-नारयल के समान आकार वाले अर्थात् ऊपर से तो रूक्ष परन्तु भीतर से उपकारक, जैसे कि नारियल ऊपर से खराब होता हैं परन्तु अन्दर से उत्तम गिरी देता है ।। ३-धेर के समान आकार वाले अर्थात् ऊपर से स्निग्ध (चिकने चुपड़े) परन्तु भीतर से कुछ नहीं, जैसे कि वेर ऊपर से चिकना होता है परन्तु अन्दर केवल नीरस गुठली निकलती है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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