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________________ चतुर्थ अध्याय । ४७३ ६ - ज्वर के प्रारम्भ में लंघन, मध्य में पाचन दवा का सेवन, अन्त में कडुई तथा कषैली दवा का सेवन तथा सब से अन्त में दोष के निकालने के लिये जुलाब का लेना, यह चिकित्साका उत्तम क्रम है' । ७ - ज्वर का दोष यदि कम हो तो लंघन से ही जाता रहता है, यदि दोष मध्यम हो तो लंघन और पाचन से जाता है, यदि दोष बहुत बढ़ा हुआ हो तो दोष के संशोधनका उपाय करना चाहिये । यह भी स्मरण रखना चाहिये कि - सात दिन में वायु का, दश दिन में पित्त का और बारह दिन में कफ का ज्वर पकता है, परन्तु यदि दोष का अधिक प्रकोप हो तो ऊपर कहे हुए समय से दुगुना समयतक लग जाता है । ८ - ज्वर में जबतक दोषों के अंशांशकी खबर न पड़े तबतक सामान्य चिकित्सा करनी चाहिये । ९ - ज्वर के रोगी को निर्वात ( वायु से रहित ) मकान में रखना चाहिये, तथा हवा की आवश्यकता होने पर पंखे की हवा करनी चाहिये, भारी तथा गर्म कपड़े पहराना और ओढ़ाना चाहिये, तथा ऋतु के अनुसार परिपक्क ( पका हुआ) जल पिलाना चाहिये । १० – ज्वरवाले को कच्चा पानी नहीं पिलाना चाहिये, तथा वारंवार बहुत पानी नहीं पिलाना चाहिये, परन्तु बहुत गर्मी तथा पित्त के ज्वर में यदि प्यास हो तथा दाह होता हो तो उस समय प्यास को रोकना नहीं चाहिये किन्तु बाकी के सब ज्वरों में खयाल रखकर थोड़ा २ पानी देना चाहिये, क्योंकि ज्वर की प्यास में जल भी प्राणरक्षक ( प्राणों की रक्षा करनेवाला ) है । १ - ज्वर के प्रारम्भ में लंघन के करने से दोषों का पाचन होता है, मध्य में पाचन दबा के सेवन से लंघन से भी न पके हुए उत्कृष्ट दोषों का पाचन हो जाता है, अन्त में कडुई तथा कली दवा के सेवन से अग्नि का दीपन तथा दोषों का संशमन होता है तथा सब से अन्त में जुलाब के लेने से दोषों का संशोधन होने के द्वारा कोष्ठशुद्धि हो जाती है जिससे शीघ्र ही आरोग्यता प्राप्त होती है ॥ २- दोहा- - सप्त दिवस ज्वर तरुण है, चौदह मध्यम जान ॥ तिह ऊपर बुध जन कहैं, ज्वरहि पुरातन मान ॥ १ ॥ पकै पित्तज्वर दश दिनन, कफज्वर द्वादश जान ॥ सप्त दिवस मारुत पकै, लङ्घन तिन सम मान ॥ २ ॥ औषध काचे ताप में, दे देवै जो जान ॥ मानो काले सर्प को, कर उठाय लियो जान ॥ ३ ॥ ३- क्योंकि ज्वर के रोगी को कच्चे जल के पिलाने से ज्वर की वृद्धि हो जाती है । ४- सुश्रुत ने लिखा है कि प्यास के रोकने से ( प्यास में जल न देने से ) प्राणी बेहोश हो जाता है और वेहोशी की दशा में प्राणों का भी त्याग हो जाता है, इस लिये सब दशाओं में जल अवश्य देना चाहिये, इसी प्रकार हारीत ने कहा है कि- तृषा अत्यन्त ही घोर तथा तत्काल प्राणों का नाश करनेवाली होती है, इस लिये तृषार्त्त ( प्यास से पीड़ित ) को प्राण धारण ( प्राणों का धारण करनेवाला ) जल देना चाहिये, इन वाक्यों से यहीं सिद्ध होता है कि-प्यास को रोकना नहीं चाहिये, हां यह ठीक है कि- बहुत थोड़ा २ जल पीना चाहिये ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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