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________________ ४७४ जैनसम्प्रदायशिक्षा। ११-ज्वरवाले को खाने की रुचि न हो तो भी उस को हितकारक तथा पथ्य भोजन ओपधि की रीति पर (दवा के तरी के ) थोड़ा अवश्य खिलाना चाहिये। १२-ज्वरवाले को तथा ज्वर से मुक्त (छूटे) हुए भी पुरुष को हानि करनेवाले आहार और विहार का त्याग करना चाहिये, अर्थात् स्नान, लेप, अभ्यङ्ग (मालिश), चिकना पदार्थ, जुलाब, दिन में सोना, रात में जागना, मैथुन, कसरत, ठंढे पानी का अधिक पीना, बहुत हवा के स्थान में बैठना, अति भोजन, (भारी आहार), प्रकृतिविरुद्ध भोजन, क्रोध, बहुत फिरना, तथा परिश्रम, इन सब बातों का त्याग करना चाहिये', क्योंकि-ज्वर समय में हानिकारक आहार और विहार के सेवन से उबर बढ़ जाता है, तथा ज्वर जाने के पश्चात् शीघ्र उक्त वर्ताव के करने से गया हुआ ज्वर फिर आने लगता है। १३-साठी चावल, लाल मोटे चावल, मूंग तथा अरहर (तूर) की दाल का पानी, चदलिया, सोया (सोया), मेथी, धियातोरई, परबल और तोरई आदि का शाक, घी में बघारी हुई दाख अनार और सफरचन्द, ये सब पदार्थ ज्वर में पथ्य हैं। १४-दाह करनेवाले पदार्थ ( जैसे उड़द, चवला, तेल और दही आदि), खट्टे पदार्थ, वहुत पानी, नागरवेल के पान, घी और मद्य इत्यादि ज्वर में कुपथ्य हैं। फूट कर निकलनेवाले ज्वरों का वर्णन । फूट कर निकलनेवाले ज्वरों को देशी वैद्यकशास्त्रवालों ने ज्वर के प्रकरण में नहीं लिखा किन्तु इन को मसूरिका नाम से क्षुद्र रोगों में लिखा है, तथा जैनाचार्य योगचिन्तामणिकार ने मूंधोरा नाम से पानीझरे को लिखा है, इसी को मरुस्थल देश में निकाला तथा सोलापुर आदि दक्षिण के देश के महाराष्ट्र (मराटे) लोग भाव कहते हैं, इसी प्रकार इन के भिन्न २ देशों में प्रसिद्ध अनेक नाम हैं, संस्कृत में इसका नाम मन्थज्वर है, इस ज्वर में प्रायः पित्तज्वर के सब लक्षण होते हैं। १-ऐसा करने से शक्ति क्षीण नहीं होती है तथा वात और पित्त का प्रकोप भी नहीं बढ़ता है ॥ २-देखो! ज्वर में स्नान करने से पुनः ज्वर प्रवलरूप धारण कर लेता है, ज्वर में कसरत के करने से ज्वर की वृद्धि होती है, मैथुन करने से देह का जकड़ना, मूर्छा और मृत्यु होती है, स्निग्ध (चिकने ) पदार्थों के पान आदि से मूछो, वमन, उन्मत्तता और अरुचि होती है, भारी अन्न के सेवन से तथा दिन में सोने से विष्टम्भ (पेट का फूलना तथा गुड़ गुड़ शब्द का होना ), वात आदि दोपों का कोप, अग्नि की मन्दता, तीक्ष्णता तथा छिद्रों का बहना होता है, इस लिये ज्वरवाला अथवा जिस का ज्वर उतर गया हो वह भी (कुछ दिनों तक ) दाहकारी भारी और असात्म्य (प्रकृति के प्रतिकूल ) अन्न पान आदि का, विरुद्ध भोजन का, अध्यशन (भोजन के ऊपर भोजन ) का, दण्ड कसरत का, डोलना फिरना आदि चेष्टा का, उबटन तथा स्नान का परित्याग कर दे, ऐसा करने से ज्वररोगी का ज्वर चला जाता है तथा जिस का ज्वर चला गया हो उस को उक्त वर्ताव के करने से फिर घर वापिस नहीं आता है ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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