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________________ ४७२ जैनसम्प्रदायशिक्षा । का पानी तथा भात पथ्य है, पित्तज्वर के लिये भी यही पथ्य समझना चाहिये, परन्तु पित्तज्वरवाले को ठंढा कर तथा थोड़ी सी मिश्री मिलाकर लेना चाहिये। यदि दो दोष तथा त्रिदोष मालूम हों तो उस में केवल मूंग की दाल का पानी ही पथ्य है। २-मूंग का ओसामण, भात, अथवा साबूदाना, ये सब वस्तुयें सामान्यतया ज्वर में पथ्य हैं, अर्थात् ज्वर समय में निर्भय खुराक हैं। इस के अतिरिक्त-यह भी स्मरण रखना चाहिये कि-जहां दूध को पथ्य लिखा है वहां दूध के साथ साबूदाना समझना चाहिये अर्थात् दूध के साथ साबू. दाना देना चाहिये, अथवा साबूदाना को जल में पका कर तथा उस में दूध मिला कर देना चाहिये। ३-प्रायः सब ही ज्वरों में प्रथम चिकित्सा लङ्घन है, अर्थात् ज्वर की दशा में लंघन परम हितकारक है और खास कर कफ तथा आम के ज्वर में, पित्त के ज्वर में, दो २ दोषों से उत्पन्न हुए ज्वर में तथा त्रिदोषजन्यज्वर में तो लङ्घन परम लाभदायक होता है', यदि रोगी से सर्वथा निराहार न रहा जाये तो एक समय हलका आहार करना चाहिये, अथवा केवल मूंगका ओसामण (पानी) पीना चाहिये, क्योंकि ऐसा करना भी लंधन के समान ही लाभदायक है। ___ हां केवल वातज्वर, जीर्णज्वर, आगन्तुकज्वर और क्षय तथा यकृत् के वरम से उत्पन्न हुए ज्वर में बिलकुल निराहाररूप लंघन नहीं करना चाहिये, क्योंकि इन ज्वरों में निराहाररूप लंघन करने से उलटी हानि होती है। ४-तरुणज्वर में अर्थात् १२ दिन तक दूध तथा घी का सेवन विष के समान है, परन्तु क्षय, शोथ, राजरोग और उरःक्षत के ज्वर में, यकृत् के ज्वर में, जीर्णज्वर में और आगन्तुकज्वर में दूध हितकारक है, इस में भी जीर्णज्वर में कफ के क्षीण होने के पीछे इक्कीस दिन के बाद तो दूध अमृत के समान है। ५-जो ज्वरवाला रोगी शरीर में दुर्बल हो, जिस के शरीरका कफ कम पड़ गया हो, जिस को जीर्णज्वर की तकलीफ हो, जिस को दस्त का बद्धकोष्ठ हो, जिस का शरीर रूखा हो, जिस को पित्त वा वायु का ज्वर हो तथा जिस को प्यास और दाह की तकलीफ हो उस रोगी को भी ज्वर में दूध पथ्य होता है। १-क्योंकि लंघन के करने से दोपों का पाचन हो जाता है ॥ २-तरुण वर में दूध और घी आदि स्निग्ध पदार्थों के सेवन से मूर्छा, वमन, मद और अरुचि आदि दूसरे रोग उत्पन्न हो जाते हैं ।। ३-शरीर में दुर्वल रोगी की दूध पीने से शक्ति बनी रहती है, जिसके शरीर का कक कम पड़ गया हो उस के दूध पान से कफ की वृद्धि होकर दोपों की समता के द्वारा उसे शान आरोग्यता प्राप्त होती है, जीर्णज्वर में दूध पीने से शक्ति का क्षय न होने के कारण ज्वर की प्रबलता नहीं होती है, बद्धकोष्ठवाले को दूध के पीने से दस्त साफ आता रहता है, रूक्ष शरीरबाले के शरीर में दुग्धपान से रूक्षता मिट कर स्निग्धता (चिकनाहट) आती है, वात पित्तज्वर में दुग्धपान से उक्त दोनों की शान्ति हो कर ज्वर नष्ट हो जाता है, तथा जिस रोगी को प्यास और दाह हो उस के भी उक्त विकार दूध के पीने से मिट जाते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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