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________________ ४१४ जैनसम्प्रदायशिक्षा। का रोग है, हैज़े की निकृष्ट बीमारी में त्वचा तथा नखों का रंग आसमानी और काला पड जाता है और यही उस के मरने की निशानी है इस तरह त्वचा के द्वारा बहुत से रोगों की परीक्षा होती है। मूत्रपरीक्षा-नीरोग आदमी के मूत्र का रंग ठीक सूखी हुई घास के रंग के समान होता है, अर्थात् जिस तरह सूखी हुई घास न तो नीली, न पीली, न लाल, न काली और न सफेद रंग की होती है किन्तु उस में इन सब रंगों की छाया झलकती रहती है, बस उसी प्रकार का रंग नीरोग आदमी के मूत्र का समझना चाहिये, मूत्र के द्वारा भी बहुत से रोगों की परीक्षा हो सकती है, क्योंकि मूत्र खून में से छूट कर निकला हुआ निरुपयोगी (विना उपयोग का) प्रवाही ( बहनेवाला) पदार्थ है, क्योंकि खून को शुद्ध करने के लिये मूत्राशय मूत्र को खून में से खींच लेता है, परन्तु जब शरीर में कोई रोग होता है तब उस रोग के कारण खून का कुछ उपयोगी भाग भी मूत्र में जाता है इस लिये मूत्र के द्वारा भी बहुत से रोगों की परीक्षा हो सकती है, इस मूत्रपरीक्षा के विषय में हम यहांपर योगचिन्तामणिशास्त्र से तथा डाक्टरी ग्रन्थों से डाक्टरों की अनुभव की हुई विशेष बातों के विवरणके द्वारा अष्टविध (आठ प्रकार की) परीक्षा लिखते हैं: १-वायुदोषवाले रोगी का मूत्र बहुत उतरता है और वह बादल के रंग के समान होता है। २-पित्तदोपवाले रोगी का मूत्र कसूभे के समान लाल, अथवा केसूले के फूल के रंग के समान पीला, गर्म, तेल के समान होता है तथा थोड़ा उतरता है। ३-कफ के रोगी का मूत्र तालाब के पानी के समान ठंढा, सफेद, फेनवाला तथा चिकना होता है। ४-मिले हुए दोषोंवाला मूत्र मिलेहुंए रंग का होता है । ५-सन्निपात रोग में मूत्र का रंग काला होता है। ६-खून के कोपवाला मूत्र चिकना गर्म और लाल होता है। ७-वातपित्त के दोषवाला मूत्र गहरा लाल अथवा किरमची रंग का तथा गर्म होता है। ८-वातकफ दोषवाले का मूत्र सफेद तथा बुहुदाकार ( बुलबुले की शकल का) होता है। ९-कफपित्तवाले रोगी का मूत्र लाल होता है परन्तु गदला होता है। १०-अजीर्ण रोगी का मूत्र चांवलों के धोवन के समान होता है । १-जैसे वातपित्त के रोग में बादल के रंग के समान तथा लाल वा पीला होता है, वातकफ के रोग में बादल के रंग के समान तथा सफेद होता है तथा पित्तकफ के रोग में लाल वा पीला तथा सफेद रंग का होता है. इस का वर्णन नं०७ से ८ तक आगे किया भी गया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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