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________________ चतुर्थ अध्याय । ४१३ होते हैं, जब आकृति लाल हो उस समय यह समझना चाहिये कि खून का शिर की तरफ तथा मगज़ में अधिक जोश चढ़ा है। ४-फूली हुई आकृति-बहुत निर्बलता जीर्णज्वर और जलोदर आदि रोगों में आकृति फूली हुई अर्थात् थोथरवाली होती है, आंख की ऊपर की चमड़ी चढ़ जाती है, गाल में अंगुलि के दबाने से गड्डा पड़ जाता है तथा आकृति सूजी हुई दीखती है। ५-अन्दर खुड़ी बैठी हुई आकृति-जैसे वृक्ष की शाखा के पत्ते तथा छिलकों के छीलने के बाद शाखा सूड़ी हुई मालूम होती है इसी प्रकार कई एक भयंकर रोगों की अन्तिम अवस्था में रोगी की आकृति वैसी ही हो जाती है, देखो ! हैजे में मरने के समय जो आकृति बनती है वह प्रायः इसी प्रकार की होती है, इस दशा में ललाट में सल, आंख के डोले अन्दर घुसे हुए, आंख में गड्डे पड़े हुए, नाक अनीदार, कनपटी के आगे गड्ढे पड़े हुए, गाल बैटे हुए, हाड़ों पर सल पड़े हुए तथा आकृति का रंग आसमानी होता है, ऐसे लक्षण जब दिखलाई देने लगे तो समझ लेना चाहिये कि रोगी का जीना कठिन है। त्वचापरीक्षा-जैसे त्वचा के स्पर्शसे गर्मी और ठंढ की परीक्षा होती है उसी प्रकार त्वचा के रंग से तथा उस में निकली हुई कुछ चटों और गांठों आदि से शरीर के दोषों का कुछ अनुमान हो सकता है, शीतला ओरी और अचपड़ा (आकड़ा काकड़ा) आदि रोगों में पहिले बुखार आता है उस बुखार को लोग बेसमझी से पहिले सादा बुखार समझ लेते हैं परन्तु फिर त्वचा का रंग लाल हो जाता है तथा उस पर महीन २ दाने निकल आते हैं वे ही उक्त रोगों की पहिचान करा सकते हैं इस लिये उन्हें अच्छी तरह से देखना चाहिये, यदि शरीर पर कोई स्थान लाल हो अथवा कहीं पर सूजन हो तो उसे खून के ज़ोर से अथवा पित्त के विकार से समझना चाहिये, जिस की त्वचा का रंग काला पड़ता जावे उस के शरीर में वायु का दोष समझना चाहिये, जिस के शरीर का रंग पीला पड़ता जावे उस के शरीर में पित्त का दोष समझना चाहिये, जिस के शरीर का रंग गोरा और सफेद पड़ता जावे उस के शरीर में कफ का दोष समझना चाहिये तथा जिस के शरीर की त्वचा का रंग बिलकुल रूखा होकर अन्दर चीरा २ सा दिखाई देवे तो समझ लेना चाहिये कि खून विगड़ गया है अथवा तप गया है, लोग इसे गर्मी कहते हैं, जब त्वचा तक खून नहीं पहुंचता है तब स्वचा गर्म और रूखी पड़ जाती है, यदि त्वचा का रंग ताँबे के रंग के समान (तामड़ा) हो तो समझ लेना चाहिये कि रक्तपित्त तथा वातरक्त का रोग है, यदि त्वचा पर काले चट्टे और धब्बे पड़ें तो समझ लेना चाहिये कि इस को ताज़ी और अच्छी खुराक नहीं मिली है इस लिये खून विगड़ गया है, इसी तरह से एक प्रकार के चट्टे और विस्फोटक हों तो समझ लेना चाहिये कि इस को गर्मी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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