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________________ चतुर्थ अध्याय । ३९५ रखकर यह देखना चाहिये कि नाड़ी एक मिनट में कितने ठपके देती है, एक साधारण पुरुष की नाड़ी एक मिनट में ११० ठपके दिया करती है, क्योंकि हृदय में शुद्ध खून का एक हौद है वह एक मिनट में ११० बार ढीला तथा तंग होता है और खून को धक्का मारता है परन्तु नीरोग शरीर में अवस्था के भेद से नाड़ी की गति भिन्न २ होती है, जिसका वर्णन इस प्रकार है:संख्या। अवस्थाभेद। एक मिनट में नाड़ी की गति का क्रम । १ बालक के गर्भस्थ होनेपर। १४० से १५० बार। २ तुरत जन्मे हुए बालक की नाड़ी। १३० से १४० बार। ३ पहिले वर्ष में। ११५ से १३० बार। ४ दूसरे वर्ष में। १०० से ११५ बार। ५ तीसरे वर्ष में। ९५ से १०५ बार। ६ चार से सात वर्षतक । ९० से १०० बार। ७ आठ से चौदह वर्पतक । ८० से ९० बार । ८ पन्द्रह से इक्कीस वर्षतक । ७५ से ८५ बार । ९ बाईस से पचास वर्षतक । ७० से ७५ वार । १० बुढापे में। ७५ से ८० बार। नाड़ीज्ञान में समझने योग्य बातें-१-हमारे कुछ शास्त्रों में तथा आधु निक ग्रन्थों में नाड़ी का हिसाब पलों पर लिखा है, उस हिसाब से इस हिसाब में थोड़ासा फर्क है, यह हिसाब जो लिखा गया है वह विद्वान् डाक्टरों का निश्चय किया हुआ है परन्तु बहुत प्राचीन वैद्यक ग्रन्थों में नाड़ीपरीक्षा कहीं भी देखने में नहीं आती है, इस से यह निश्चय होता है कि-यह परीक्षा पीछे से देशी वैद्यों ने अपनी बुद्धि के द्वारा निकाली है तथा उस को देखकर यूरोपियन विद्वान् डाक्टरों ने पूर्वोक्त हिसाब लगाया है, परन्तु यह हिसाब सर्वत्र लेक नहीं मिलता है, क्यों. कि जाति और स्थिति के भेद से इस में फर्क पड़ता है, देखो ! ऊपर के कोटे में नीरोग बड़े आदमी की नाड़ी की चाल एक मिनट में ७० से ७५ बारतक बतलाई है परन्तु इतनी ही अवस्थावाली नीरोग स्त्री की नाड़ी की चाल धीमी होती है अर्थात् पुरुष की अपेक्षा स्त्री की नाड़ी की चालें दश बारह कम होती हैं, इसी प्रकार स्थिति के भेद से भी नाड़ी की गति में भेद होता है, देखो! खड़े हुए पुरुप की अपेक्षा बैठे हुए पुरुष की नाड़ी की चाल धीमी होती है और नींद में इस से भी अधिक धीमी होती है, एवं कसरत करते, दौड़ते, चलते तथा परिश्रम का काम करते हुए पुरुष की नाड़ी की चाल बढ़ जाती है, इस से स्पष्ट है कि नाड़ी की गति का कोई निश्चित हिसाब नहीं है किन्तु इस का यथार्थ ज्ञान अनुभवी पुरुषों के अनुभव पर ही निर्भर है। २-चतुर वैद्य वा हकीम को दोनों हाथों की नाड़ी देखनी चाहिये, क्योंकि कभी २ एक हाथ की धोरी नस अपनी हमेशा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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